Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
View full book text
________________
पंचम अध्ययन शैलक
( २७५ )
RA
SAN
संथारयं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकर ठवेत्ता बहिया अब्भुज्जए णं जाव विहरित्तए।'' एवं संपेहेंति, संपेहित्ता कल्लं जेणेव सेलए रायरिसी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सेलयं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणंति, पच्चप्पिणित्ता पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठावेंति, ठावित्ता बहिया जाव विहरंति। __सूत्र ५९. ऐसी स्थिति में पंथक के अतिरिक्त शेष पाँच सौ अनगार एक मध्य-रात्रि को एकत्र हो बैठे और विचार किया-"शैलक राजर्षि राज्य आदि का त्याग करके दीक्षित हुए हैं किन्तु विपुल आहारादि तथा मद्यपान में लिप्त हो गये हैं, भ्रमित हो गये हैं और जनपद-विहार करने में असमर्थ हैं। देवानुप्रियो ! श्रमणों के लिये प्रमादी होकर एक स्थान पर रहना नहीं कल्पता। अतः हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल ही शैलक राजर्षि से आज्ञा ले, उपकरण वापस लौटाकर, पंथक अनगार को उनकी सेवा में नियुक्त कर यहाँ से चलें और जनपदों में विहार करें।" यह निश्चय कर दूसरे दिन प्रात:काल वे शैलक राजर्षि के पास गये। उनकी आज्ञा ली और उपकरण वापस कर दिये। पंथक अनगार को उनकी सेवा में नियुक्त किया और वहाँ से विहार कर गये।
59. Under these circumstances all the five hundred disciples leaving aside Panthak convened a meeting one night and conferred “Although king Shailak has become an ascetic after abandoning his kingdom (etc.) he has become addicted to sumptuous food and sedatives. He has lost his direction and is unable to wander about. Beloved of gods! It is not proper for the ascetics to become lethargic and stay at one place. As such, it would be good for us if with the break of the dawn we go to Ascetic Shailak, seek his permission, return all the equipment, give the responsibility of his care to ascetic Panthak and resume our itinerant way of life.” Once a decision was reached they acted accordingly next morning and left the place. प्रमाद भंग
सूत्र ६०. तए णं से पंथए सेलयस्स सेज्जा-संथारय-उच्चार-पासवण-खेल-संघाणमत्त ओसह-भेसज्ज-भत्त-पाणए णं अगिलाए विणए णं वेयावडियं करेइ। __तए णं से सेलए अन्नया कयाई कत्तियचाउम्मासियंसि विपुलं असण-पाण-खाइम| साइमं आहारमाहारिए सबहु मज्जपाणयं पीए पुव्वावरण्हकालसमयंसि सुहप्पसुत्ते।
Comgr> Syo
/CHAPTER-5 : SHAILAK
(275)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org