Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

Previous | Next

Page 331
________________ पंचम अध्ययन शैलक (२७९) Orao ANAM 64. When the other disciples of Ascetic Shailak heard the news they assembled and thought, "Now that Ascetic Shailak and Panthak have resumed the harsh itinerant life we should join them." And they joined back Ascetic Shailak. Later they all went to the Shatrunjaya Hills and attained liberation after taking the ultimate vow like Thavacchaputra. उपसंहार सूत्र ६५. एवामेव समणाउसो ! जो निग्गंथो वा निग्गंथी वा जाव विहरिस्सइ., एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नते त्ति बेमि। सूत्र ६५. हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु ऐसा आचरण करेगा वह अंततः संसार भ्रमण से मुक्ति प्राप्त करेगा। _हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पाँचवें ज्ञाताध्ययन का यही अर्थ कहा है। ऐसा मैं कहता हूँ। CONCLUSION 65. Blessed ones! The ascetic who follows such conduct gets liberated in the end. Jambu! This is the text and the meaning of the fifth chapter of the Jnata Sutra as told by Shraman Bhagavan Mahavir. So I confirm. ॥ पंचमं अज्झयणं समत्तं ॥ ॥ पंचम अध्ययन समाप्त ॥ || END OF THE FIFTH CHAPTER || उपसंहार ज्ञाताधर्मकथा की इस पाँचवीं कथा में शिथिलाचार के दोष को प्रकट किया है। साधु अथवा संयम के मार्ग पर चलने का नियम ले लेने वाला निरन्तर साधना के पथ पर विकास की दिशा में गतिमान होता है। उसे शैल खण्ड के समान गतिहीन अथवा शिथिल नहीं होना चाहिए। प्रमादग्रस्त हो शिथिल हो जाने वाला अपना इहलोक ही नहीं परलोक भी खराब कर लेता है और संसार चक्र में उलझ जाता है। मुक्ति प्राप्त करने का साधन है निरन्तर अप्रमत्त GAMIRVAS PANDUNICISRO CHAPTER-5 : SHAILAK (279) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492