Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 443
________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३७५) ORIA AIMIDNA SAMRO RamNIMAns 96. The king asked, “Beloved of gods ! Why did prince Malladinna order your exile?" सूत्र ९७. तए णं से चित्तयरदारए अदीणसत्तुरायं एवं वयासी-“एवं खलु सामी ! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ चित्तगरसेणिं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-"तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! मम चित्तसभं' तं चेव सव्वं भाणियव्वं, जाव मम संडासगं छिंदावेइ, छिंदावित्ता निव्विसयं आणवेइ, तं एवं खलु सामी ! मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते।" __सूत्र ९७. चित्रकार ने उत्तर दिया-“हे स्वामी ! कुमार ने एक दिन चित्रकारों की मण्डली को बुलाकर चित्र सभा बनाने की आज्ञा दी थी,....।" और उसने आदि से अन्त तक घटना का पूरा वृत्तान्त सुनाया। 97. The artist replied, “One day the prince summoned a group of artists........” and he narrated the story. सूत्र ९८. तए णं अदीणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं वयासी-से केरिसए णं देवाणुप्पिया ! तुमे मल्लीए तदाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए ?" तए णं से चित्तगरे कक्खंतराओ चित्तफलयं णीणेइ, णीणित्ता अदीणसत्तुस्स उवणेइ, उवणित्ता एवं वयासी-“एस णं सामी ! मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरुवस्स रूवस्स केइ आगार-भाव-पडोयारे निव्वत्तिए, णो खलु सक्का केणइ देवेण वा जाव मल्लीए विदेहरायवर-कन्नगाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तित्तए।" ___ सूत्र ९८. राजा अदीनशत्रु ने फिर पूछा-“देवानुप्रिय ! तुमने मल्लीकुमारी का कैसा चित्र बनाया था?" _इस पर चित्रकार ने अपनी बगल से वह चित्र निकालकर राजा के निकट रख दिया और बोला-“हे स्वामी ! मल्लीकुमारी का यह चित्र मैंने उन्हीं के अनुरूप सभी हाव-भाव समेटकर प्रतिबिम्ब रूप में बनाया है। उनका वास्तविक साक्षात् रूप तो देवादि भी नहीं बना सकते।" 98. King Adinshatru once again asked, “Beloved of gods ! What sort of' a portrait of Princess Malli had you made?" The painter at once unwrapped the portrait he had brought along and placed it before the king with the comment, "Sire ! I have tried to make an exact image of the princess with her real mood and expression. However, to create her true replica is even beyond gods." CHAPTER-8 : MALLI (375) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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