Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 463
________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ३९३) - S सुक्कसोणियपूयासवस्स दुरूवऊसास-नीसासस्स दुरूव-मुत्तपूतिय-पुरीस-पुण्णस्स सडणपडण-छेयण-विद्धंसणधम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सइ ? तं मा णं तुझे देवाणुप्पिया ! माणुस्सएसु कामभोगेसु रज्जह, गिज्झह, मुज्झइ, अज्झोववज्जह।" सूत्र १२८. तब मल्लीकुमारी ने उन्हें समझाया-“हे देवानप्रियो ! इस सोने की प्रतिमा के भीतर प्रतिदिन रुचिकर आहार का एक-एक पिण्ड डालते रहने से पुद्गल के परिवर्तन का ऐसा अरुचिकर परिणाम सामने आया है। जरा सोचिये, हमारे इस औदारिक शरीर से तो कफ झरता है, खराब उच्छ्वास-निश्वास निकलता है, दुर्गन्धयुक्त मल-मूत्र इसमें भरा रहता है; सड़ना, पड़ना, नष्ट और विध्वस्त होना इसका स्वभाव है। इस शरीर का परिणमन कैसा होगा? कल्पना कीजिये? इसलिये हे देवानुप्रियो ! मनुष्य शरीर से जुड़े कामभोगों के प्रति राग मत करो, अनुरक्ति मत रखो, मोह मत करो और तीव्र आसक्ति मत करो। ____128. Princess Malli explained, “Beloved of gods ! This obnoxious stench is the result of the change of state of matter effected by dropping just one handful of best food everyday into this golden statue. Just consider that this earthly body of ours releases phlegm, exhales bad air, and is filled with stinking waste or excreta; moreover, its nature is to degenerate, fall, decay, and disintegrate. Imagine, then, that what is going to be the ultimate end of this earthly body? As such, Beloved of gods ! Do not get attached to , have fondness for, fall in love with, or get infatuated with the lustful indulgences related to this earthly body. ___ सूत्र १२९. एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावइंसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्त वि य बालवयंसगा रायाणी होत्था, सह जाया जाव पव्वइया। तए णं अहं देवाणुप्पिया ! इमेणं कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निव्वत्तेमि-जइ णं तुब्भे चउत्थं उवसंपज्जित्ताणं विहरह, तए णं अहं छ8 उवसंपज्जित्ता णं विहरामि। सेसं तहेव सव्वं। ___ सूत्र १२९. “हे देवानुप्रियो ! हम इससे पहले के तीसरे भव में पश्चिम महाविदेहवर्ष के सलिलावती विजय की वीतशोका नगरी में महाबल आदि सात मित्र थे। हम सातों एक समय ही जन्मे और साथ ही दीक्षित हुए थे। उस समय तुमने चतुर्थ भक्त किया तो मैंने षष्ट भक्त कर लिया इस प्रकार तपस्या में छल करने के कारण मैंने स्त्री-नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया था। (वर्णन पूर्वसम) - / CHAPTER-8 : MALLI (393) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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