Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 471
________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली ( ४०१) om CHAR a4MAA आसत्थस्स वीसत्थस्स सुहासणवरगयस्स तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति। सूत्र १४४. उधर राजा कुंभ ने मिथिला नगरी में यत्र-तत्र-सर्वत्र अनेक भोजनशालाएँ बनवाईं। वहाँ पर अनेक वैतनिक कर्मचारी, जिन्हें भोजन भी दिया जाता था, प्रचुर भोजन सामग्री बनाने लगे। उन भोजनशालाओं में जब भी, जो भी आता उसे स्वागत कर, विश्राम दे, सुखद आसन पर बैठाकर यथेष्ट भोजन कराया जाने लगा। इन भोजनशालाओं में पांथिक, पथिक, करोटिक, कार्पटिक, पाखण्डी, गृहस्थ आदि सभी आने लगे। FOOD DISTRIBUTION BY KUMBH ___144. At his end, King Kumbh opened many food distribution centres at various spots in Mithila. Many cooks were employed to prepare large quantities of eatables. Whenever and whoever went into these centres was greeted and provided ample food and comfort without any charges. These places were also frequented by all and sundry without any restrictions or discrimination. सूत्र १४५. तए णं मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ“एवं खलु देवाणुप्पिया ! कुंभगस्स रण्णो भवणंसि सव्वकामगुणियं किमिच्छियं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं बहूणं समणाय य जाय परिवेसिज्जइ।" वरवरिया घोसिज्जइ, किमिच्छियं दिज्जए बहुविहीयं। सुर-असुर-देव-दाणव-नरिंदमहियाण निक्खमणे॥ सूत्र १४५. मिथिला नगरी में चौक, चौराहे आदि सभी स्थानों पर अनेक लोग परस्पर चर्चा करने लगे-“हे देवानुप्रियो ! राजा कुंभ के महल में सर्वगुण-रस वाला स्वादिष्ट भोजन इच्छानुसार यथेष्ट मात्रा में परोसा जाता है।" कहा भी है “सुर, असुर, देव, दानव, नरेन्द्र, चक्रवर्ती आदि द्वारा पूजित तीर्थंकर की दीक्षा के अवसर पर इच्छित दान पाने की घोषणा की जाती है और याचकों को उनकी इच्छानुसार तरह-तरह से दान दिया जाता है।" 145. At various spots like squares, junctions, etc. people started gossiping, “Beloved of gods ! Nutritious and sumptuous food, as much as you desire and can eat, is being served to all in the palace of King Kumbh." As is said SAMBHO - CHAPTER-8 : MALLI (4 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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