Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 330
________________ ORTO ( २७८ ) REAWAKENING OF SHAILAK 62. This statement of panthak forced Ascetic Shailak to think, “In spite of abandoning my kingdom (etc.) I still continue to enjoy these worldly facilities during the last part of my life. It is not proper for an ascetic to be so lax in conduct. As such, it would be best for me to seek permission from king Manduk, return all the equipment, and commence the harsh itinerant ascetic life tomorrow itself taking along Panthak with me." Once the decision was reached he acted accordingly and left the place. सूत्र ६३. एवामेव समणाउसो ! जो निग्गंथो वा निग्गंधी वा ओसने जाव संथारए पत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं हीलणिज्जे संसारो भाणियव्वो । ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र ६३. " हे आयुष्मानो ! इसी प्रकार जो श्रमण श्रमणी आलस्य से उपकरण आदि में आसक्त होकर रहता है वह इसी लोक में अनेक श्रमणों-श्रावकों की अवहेलना का पात्र होता है और चिरकाल तक संसार-चक्र का भ्रमण करता है । " 63. Similarly, O blessed ones! the ascetics who are trapped by the fondness of equipment and the consequent lethargy become the object of disdain of numerous ascetics of this land and are sucked in within the vortex of the unending cycle of rebirth. सूत्र ६४. तए णं ते पंथगवज्जा पंच अणगारसया इमीस कहाए लद्धट्ठा समाणा अन्नमन्नं सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी - "सेलए रायरिसी पंथए णं बहिया जाव विहरइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सेलयं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए ।" एवं संपेर्हेति, संपेहित्ता सेलयं रायरिसिं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । Jain Education International तए णं ते सेलगपामोक्खा पंच अणगारसया बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता जेव पोंडरी पव्व तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता जहेव थावच्चापुत्ते तहेव सिद्धा । सूत्र ६४. पंथक के अतिरिक्त उनके अन्य शिष्यों ने ये समाचार सुने तो सभी एकत्र हो विचार करने लगे - " शैलक राजर्षि तथा पंथक अनगार उग्र विहार कर रहे हैं अतः अब हमें उनके निकट ही विचरना चाहिए ।" यह निश्चय कर वे राजर्षि शैलक के पास लौटे और उनके साथ ही विहार करने लगे । कालान्तर में वे सभी शत्रुंजय पर्वत पर जा संलेखना कर थावच्चापुत्र की भाँति सिद्ध हुए। (278) JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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