Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 326
________________ ( २७४) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र OTOS शैलक क प्रमाद सूत्र ५८. तए णं से सेलए तंसि रोगायकसि उवसंतंसि समाणंसि, तंसि विप्लंसि असण-पाण-खाइम-साइमंसि मज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्ने ओसन्नविहारी एवं पासत्थे पासत्थविहारी, कुसीले कुसीलविहारी, पमत्ते पमत्तविहारी, संसते संसत्तविहारी, उउबद्धपीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते यावि विहरइ। नो संचाएइ फासुयं एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। __सूत्र ५८. निरोग हो जाने के बाद शैलक राजर्षि प्रचुर आहार और मद्यपान में मूर्छित, मत्त, गृद्ध और अत्यन्त आसक्त हो गये। वे आलसी हो गये और आलस्यमय जीवन बिताने के आदी हो गये। वे कर्तव्यच्युत हो गये और कर्तव्यविहीन जीवन बिताने के आदी हो गये। वे शीलविरोधी हो गये और शील- विरोधी जीवन बिताने के आदी हो गये। वे प्रमादी हो गये और प्रमादमय जीवन शैली के आदी हो गये। वे शिथिलाचारी हो गये और वैसे ही जीवन के आदी हो गये। वे चातुर्मास के बाद भी शैय्या आदि उपकरण का उपयोग करने लगे और इस कारण वे राजा से अनुमति ले जनपदों में विहार करने में असमर्थ हो गये। LETHARGY OF SHAILAK 58. When Ascetic Shailak regained his health, the continued consumption of sumptuous food and sedatives made him tight, tipsy, and intoxicated to the point of addiction. He became lethargic and habituated to an easy way of life. He drifted from his goal, went against discipline, became illusioned and lax in his conduct and got trapped in a goalless, undisciplined, illusioned, and unruly way of life. Even when the prescribed period of monsoon stay came to an end, he continued the use of facilities like bed and, as such, was unable to resume his itinerant way of life seeking permission form the king. सूत्र ५९. तए णं तेसिं पंथयवज्जाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अन्नया कयाई एगयओ सहियाणं जाव पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-“एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्जं जाव पव्वइए, विपुलं णं असण-पाण-खाइम-साइमे मज्जपाणए य मुच्छिए, नो संचाएइ जाव विहरित्तए, नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणाणं जाव पमत्ताणं विहरित्तए। तं सेयं खल देवाणुप्पिया ! अम्हं कल्लं सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा - - (274) JNĀTA DHARMA KATHĀNGA SŪTRA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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