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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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वैक्रिय समुद्घात-परिस्थिति विशेष में विशिष्ट गुण सम्पन्न आत्माएँ अपने आत्म-प्रदेशों का विस्तार करती हैं और आवश्यक पुद्गलों का चयन कर आत्म-प्रदेशों का पुनः संकोचन कर इच्छित शरीर धारण करती हैं। इस क्रिया को वैक्रिय समुद्घात तथा इस शरीर को उत्तर-वैक्रिय शरीर कहते हैं। योगसूत्र में इससे मिलती-जुलती क्रिया को निर्माणचित्त तथा निर्माणकाय कहा है। वायुपुराण में भी इस विषय के उल्लेख मिलते हैं। इस विषय का विस्तृत विवरण पन्नवणासूत्र के ३६३ पद में तथा भगवतीसूत्र के दूसरे शतक के दूसरे उद्देशक में मिलता है। यह देव एवं नारकों में जन्मजात तथा मनष्यों में तपोलब्धि से प्राप्त होता है।
सेचनक हाथी-श्रेणिक राजा का पट्टहस्ती-मुख्य हाथी। कुणिक ने इसी हाथी को लेने के लिये महाशिला कंटक संग्राम लड़ा था और इस संग्राम में लिच्छवी तथा मल्ल गणराज्यों को पराजित किया था। जैन साहित्य में इससे जुड़ी अनेक घटनाएँ प्रसिद्ध हैं। ____ अठारह जाति-प्रजाति-कार्य विशेष में जुटे समूह का नाम जाति है तथा उनसे जुड़े अन्य समूहों के नाम प्रजाति या उपजाति हैं। जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में अठारह जातियों के दो विभाग हैं-नौ नारू तथा नौ कारू। नास्व-(१) कुम्हार, (२) पट्टहल्न (पटेल), (३) सुवर्णकार या सोनी, (४) सूपकार या रसोइया, (५) गांधर्व (संगीतज्ञ), (६) काश्यपक (नाई), (७) मालाकार या माली, (८) कच्छकर, तथा (९) तम्बोली। काल(१) चमार, (२) यंत्रपीडक-तेली, (३) गंधिअ (गांधी या बांस फोड़), (४) छिपाय या छीपा, (५) कंसकार या कंसारो, (६) सीवंग-दर्जी, (७) गुआर, (८) मिल्ल तथा (९) धीवर-मछियारा।
उग्र-आरक्षक, रखवाले, दंड देने वाले या ऐसे ही अन्य उग्र कार्यों में पारम्परिक रूप से प्रवृत्त क्षत्रिय। भोग-पारम्परिक रूप से गुरू स्थान पर रहे क्षत्रिय। राजन्य-दीर्घ आयु वाले क्षत्रिय। प्रशस्तार-धर्मशास्त्रों के अध्यापक। मल्ल अथवा मल्लकी-वंश विशेष का नाम। बौद्ध-साहित्य में इन्हें मल्ल कहा है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में मल्लक कहा है। जैन सूत्रों में काशी के नव-मल्लकी गण राजाओं का उल्लेख मिलता है। लिच्छिवी-वंश विशेष का नाम। बौद्ध लिच्छवी, कौटिल्य-लिच्छवीक, जैन लेच्छकी। कौशल के नव-लेच्छकी गणराजा। इश्वर-युवराज; अणिमा आदि सिद्धियों के धारक। तलवर-राजा द्वारा भूमि का पट्टा देकर सम्मानित व्यक्ति. जागीरदार। मांडलिक-जिस भू-भाग के निकट बस्ती या गाँव न हो उसे मंडल कहते हैं। ऐसे स्थल के मालिक को मांडलिक कहते हैं। इसका पाठ-भेद मांडविक है-मंडप के मालिक। इभ्य-जिसके धन के ढेर से हाथी ढका जाय ऐसा समृद्धिवान। श्रेष्ठी-श्री अथवा लक्ष्मी के पट्ट को सर पर बाँधने वाले अथवा धन की पूजा करने वाले।
कुत्रिकापण-यह शब्द कु + त्रिक् + आपण इन तीन शब्दों से बना है। कु का अर्थ है पृथ्वी, त्रिक का अर्थ है तीन, आपण का अर्थ है दुकान। अर्थात् जिस दुकान पर तीनों लोकों की दुर्लभ वस्तुएँ अथवा सभी वस्तुएँ हों। वर्तमान का डिपार्टमेन्टल स्टोर।
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JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SÜTRA
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