Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan
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द्वितीय अध्ययन : संघाट
(१९१)
merchant said, “Beloved of gods ! You are neither pleased, happy, nor contented to see me, what is the matter? I have paid the fine and saved myself from the wrath of the king.” __ सूत्र ३७. तए णं भद्दा धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-“कहं णं देवाणुप्पिया ! मम तुट्ठी वा जाव आणंदे वा भविस्सइ, जेणं तुमं मम पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेसि ?"
सूत्र ३७. भद्रा ने उत्तर दिया-“देवानुप्रिय ! मुझे सन्तोष, हर्ष और आनन्द कैसे होगा जबकि आपने मेरे पुत्र के हत्यारे को मेरे भेजे हुए आहार-पानी में से हिस्सा दिया।"
37. Bhadra replied, “Beloved of gods ! How can I be pleased, happy or contented when I know that you shared the food I sent for you with the killer of my son?" ___ सूत्र ३८. तए णं से भई एवं वयासी-“नो खलु देवाणुप्पिए ! धम्मो त्ति वा, तवो त्ति वा, कयपडिकयाइ वा, लोगजत्ता इ वा, नायए ति वा, घाडियए ति वा, सहाए ति वा, सुहि त्ति वा, तओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागे कए, नन्नत्थ सरीरचिन्ताए।"
तए णं सा भद्दा धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा-जाव आसणाओ अब्भुढेइ, कंठाकंठिं अवयासेइ, खेमकुसलं पुच्छइ, पुच्छित्ता बहाया जाव पायच्छित्ता विपुलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरइ। ___ सूत्र ३८. धन्य सार्थवाह बोला-“देवानुप्रिये ! मैंने यह कार्य न तो धर्म या तप समझकर किया है, न उपकार का बदला, लोक दिखावा अथवा न्याय सम्मत समझकर किया है और न ही उसे अपना नायक, सहचर, सहायक अथवा मित्र समझकर किया है। अपने शरीर की चिंता छोड़ (विवशता के कारण) अन्य किसी प्रयोजन से मैंने उसे अपने आहार-पानी में से हिस्सा नहीं दिया है।"
धन्य के इस स्पष्टीकारण से भद्रा प्रसन्न और संतुष्ट हुई। वह अपने आसन से उठी और अपने पति के गले से लग उसकी कुशल-क्षेम पूछी। फिर स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त हो सुख-भोग करती जीवन व्यतीत करने लगी।
38. Dhanya merchant replied, “Beloved of gods ! I did not do this thing taking it to be a religious act or with the misconception that it was some penance. I was not inspired to return some favour. I also did not consider it to be some social obligation or a legal duty. Nor did I
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SAMRO
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CHAPTER-2 : SANGHAT
(191)
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