Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 316
________________ Primer ( २६४ ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र / GAUMAR HINES अभक्ष्य हैं। अर्थमास (माशा-तोल का माप) दो प्रकार के हैं-चाँदी का और सोने का ये दोनों अभक्ष्य हैं। धान्यमास (उड़द) के विषय में वही नियम है जो सरिसवया के लिये बताया है।" 44. "The same rule is applicable to the term Kulattha which is of two types--woman-Kulattha (a female of the family) and grainKulattha (a type of bean). The first are of three types--wife, mother, and daughter. All these are not acceptable for a Shraman. To the second the aforesaid rule meant for Sarisavaya is applicable. "Same is true for the term Mas which is of three types-time-Mas, wealth-Mas, and grain-Mas. There are twelve time-Mas (month). All these are unacceptable for a Shraman, in other words he is not guided in his spiritual pursuit by any social or other norms pertaining to any specific month. There are two wealth-Mas (a small measure of weight) for silver and for gold. These both are unacceptable. To the grain-Mas the aforesaid rule meant for Sarisavaya is applicable.” सूत्र ४५. “एगे भवं ? दुवे भवं ? अणेगे भवं ? अक्खए भवं ? अव्वए भवं ? अवट्ठिए भवं ? अणेगभूयभावभविए वि भवं?" "सुया ! एगे वि अहं, दुवे वि अहं, जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं।" “से केणटेणं भंते ! एगे वि अहं जाव अणेगभूयभावभविए वि अहं ?" "सुया ! दव्वट्ठयाए एगे अहं, नाणदंसणट्टयाए दुवे वि अहं, पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं।" सूत्र ४५. शुक परिव्राजक–“आप एक हैं, दो हैं, अनेक हैं, अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, अथवा भूत-भाव-भावी (अनित्य) हैं ?" थावच्चापुत्र-"शुक ! मैं यह सभी हूँ।" शुक-“वह कैसे भंते ?" थावच्चापुत्र-“हे शुक ! मैं द्रव्य की अपेक्षा से एक हूँ। ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं दो हूँ। आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय भी हूँ, अव्यय भी और अवस्थित भी। और उपयोग अथवा प्रवृत्ति की अपेक्षा से भूत-भाव-भावी अर्थात् अनित्य भी हूँ।" - CO avina (264) JNĀTĀ DHARMA KATHĂNGA SŪTRA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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