________________
प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात
(८३)
"भंते ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, उसे श्रेष्ठ मानता हूँ, उस पर विश्वास करता हूँ, और उसमें रुचि रखता हूँ। हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना चाहता हूँ। आपका वचन एकान्त सत्य है, नितान्त सत्य है, निर्बाध सत्य है। भगवन् ! मेरे मन में निर्ग्रन्थ मार्ग की साधना की इच्छा जाग उठी है और बारंबार जागकर वह बलवती हो रही है। आपने जो जैसा कहा है वो वैसा ही है। किन्तु हे देवानुप्रिय ! मैं पहले अपने माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर लूँ फिर मुंडित हो प्रव्रज्या ग्रहण करूँ।"
भगवान ने उत्तर दिया, “देवानुप्रिय ! जिससे तुम्हें सुख मिले वह निर्विलम्ब करो।"
DETACHMENT
82. Pleased to hear the discourse of the Bhagavan, Megh Kumar stood up, went around him and bowed (as mentioned earlier). He then said
"Bhante! I have faith in the word of the Nirgranth (one who is free of all knots, inner and outer), I consider it to be the best, I believe in it and have interest in it. Bhagavan! I want to embrace the word of the Nirgranth. Your word is the only, absolute and ultimate truth. Bhagavan! the desire to tread the path of spiritual practices shown by the Nirgranth has dawned in my mind and with every passing moment it is getting stronger. What you have said is exactly as you have described. However, Beloved of gods! I will first seek permission from my parents and then shave my head and get initiated."
__ “Beloved of gods! do what pleases you without any delay." replied Bhagavan. __सूत्र ८३. तए णं से मेहे कुमारे समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता चाउग्घंटे आसरहं दुरूहइ, दुरूहित्ता महया भडचडगरपहकरेणं रायगिहस्स नगरस्स मज्झंमज्झेण जेणेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ। पच्चोरुहित्ता जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं पायवडणं करेइ। करित्ता एवं वयासी-“एवं खलु अम्मयाओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए।"
ces
लाह
CHAPTER-1: UTKSHIPTA JNATA
(83)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org