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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्त ज्ञात
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का मार्ग है, तथा समस्त दुःखों से निस्तार का मार्ग है। इस मार्ग पर चलने के लिए निर्ग्रन्थ प्रवचन में वैसी ही एकाग्रता रखनी पड़ती है जैसी सर्प अपने भक्ष्य को ग्रहण करते समय रखता है। यह राह छुरे की धार की तरह एकान्त रूप से तीक्ष्ण धार वाली है। इस पर चलना लोहे के चने चबाने जैसा है। यह रेत के ग्रास के जैसी स्वादहीन है। इस पर चलना गंगा जैसी महानदी में बहाव के विपरीत तैरने जैसा है, महासमुद्र को तैरकर पार करने जैसा है, भाले की नोकों पर चलने जैसा है, चट्टान को गले में बाँधने जैसा है, और तलवार की धार पर चलने जैसा है।
94. Thus when all enticing methods including request, show of humility and affection failed to break the resolve of Megh Kumar, his parents resorted to repulsive methods like instilling fear and antipathy for ascetic discipline - ___“Son! The word of the Nirgranth is true, unique, and propagated by the omniscient. It is just, pure, and an antidote for thorns like illusion. It shows the path of purity, liberation, heaven and Nirvana, and is the means of removal of all sorrows. To tread this path it is necessary to have a deep concentration like a snake has when it hunts its prey. This path is as sharp as a razors edge. To tread this path is like biting iron bits. It is as tasteless as a mouthful of sand. To move on this path is like swimming against the current in a great river like the Ganges, swimming across an ocean, walking on spear points, suspending a heavy rock from the neck, and walking on the edge of a sword.” ___ सूत्र ९५. णो खलु कप्पइ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए वा, उद्देसिए वा, कीयगडे वा, ठवियए वा, रइयए वा, दुभिक्खभत्ते वा, कंतारभत्ते वा, वदलियाभत्ते वा, गिलाणभत्ते वा, मूलभोयणे वा, कंदभोयणे वा, फलभोयणे वा, बीयभोयणे वा, हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए वा। तुमं च णं जाया ! सुहसमुचिए णो चेव णं दुहसमुचिए। णालं सीयं, णालं उण्हं, णालं खुहं, णालं पिवासं, णालं वाइयपित्तियसिंभियसन्निवाइयविविहे रोगायंके उच्चावए गामकंटए बावीसं परीसहोवसग्गे उदिन्ने सम्म अहियासित्तए। भुंजाहि ताव जाया ! माणुस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि। __सूत्र ९५. “हे पुत्र ! निर्ग्रन्थ श्रमणों को आधाकर्मी (साधु के निमित्त पकाया), औद्देशिक (साधु के लिए खरीदा), क्रीतकृत (भिक्षा में देने के लिए संकल्प किया हुआ),
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CHAPTER-1 : UTKSHIPTA JNATA
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