Book Title: Anekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है मासिक अप्रैल १९६४ সুকান। .. .. .......... - - .. . . . . . . . MALE . . . . . . . . mion ....: श्री बड़े बाबा (भ० प्रादिनाथ) कुंडलपुर . समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अनेकान्त के ग्राहकों से अनेकान्त के १७ में वर्ष का वार्षिक मूल्य जिन पृष्ठ अधिकांश ग्राहकों का प्राप्त नहीं हमा, उन्हें चाहिये शान्तिनाथस्तोत्रम्-पनवाचार्य कि अनेकान्त का प्रथमांक पहुँचते ही पेशगी मूल्य छह २ नया मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के जैन मूर्ति लेख रूपया मनीग्राडर से भिजवा कर अनुग्रहीत करें। -परमानन्द शास्त्री २ मूल्य प्राप्त न होने पर अगला अंक वी. पी. से भेजा ३ ध्यान -डा. कमलचन्द्र पौगाणी ३ जावेगा। आशा है प्रेमी महानुभाव इस निवेदन पर कावड़: एक चलता फिरता मन्दिर ध्यान देंगे, और अपना मूल्य निम्न पते पर भिजवा -महेन्द्र भनावर ७ ने की कृपाकरें। ५ कविवर रइधू रचित-मावय चरिउ व्यवस्थापक अनेकान्त ---श्री अगरचन्द नाहट' १० वीर सेवामंदिर २१ दरियागज दिल्ली ६ भगवान महावीर के जीवन प्रसंग -मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी प्रथम १७ • महावीर का गृह-त्याग-कस्तूरचन्द कापलोवाल १९| सहायता प्राचार्य भावसेन के प्रमाण विषयक विशिष्ट मत ला० प्रद्य म्नकुमार नरेशचन्द्रजी जैन पानीपत डा. विद्याधर जोहरापुरकर २३ | ने बाबु जयभगवान जी एडवोकेट पानीपत के है दिग्विजय (ऐतिहासिक उपन्यास) स्वर्गवास के समय निकाले हए दान में से इक्कीस - प्रानन्दप्रकाश जैन-जम्बूप्रसाद नैन २५ | रूपया सधन्यवाद प्राप्त हए। १. सर्वोदय का अर्थ-विनोबा भावे / प्रेमचन्द जैन " जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह पर मेरा अभिमत सं० मंत्री, वीर सेवा मन्दिर -दरबालील कोठिया । १२ नन्दिसंघ बलात्कारगण पट्टावली ... ' -परमानन्द शास्त्री ३५ दानी महोदयों से निवेदन १३ शान्ति और सौम्यता का तीर्थ कुण्डलपुर जो धर्मात्मा सज्जन धार्मिक कार्यों में दान देते रहे हैं -श्री नीरज जैन ४३ | वे दान देते समय अनेकान्त पत्र और वीर-सेवा-मन्दिर १४ पाकस्मिक वियोग लायरी को न भूलें, इन्हें भी अपना आर्थिक सहयोग १५ बा. जयभगवान के निधन पर कुछ पत्र प्रदान कर पुण्य व यश के भागी बनें । अनेकान्त के स्वयं १६ समर्पण (कविता) बा. जयभगवान जी सहायक बन कर और अपने मित्रों को बना कर, तथा १. साहित्य-समीक्षा ४८ स्वयं ग्राहक बन कर और प्रेरणा द्वारा दूसरों को बना कर जैन संस्कृति के अभ्युत्थान में सहयोग प्रदान करें। म्यवस्थापक 'अनेकान्त' सम्पादक-मण्डल डा. आ. ने० उपाध्ये डा. प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपये एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ न. पै. अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिये सम्पादफ मंउल | उत्तरदायी नहीं है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष १७ किरण, १ .........✦✦✦✦✦✦ प्रोम ग्रहम् वीर सेवा पुस्तकालय ********* า अनेकान्त परमागमस्य बोजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली- ६. वीर निर्वारण सं० २४६०, वि० सं० २०२० 4251 नंत देती अप्रैल सन् १९६४ *******............... शान्तिनाथ स्तोत्रम् त्रैलोक्याधिपतित्वसूचन परं लोकेश्वरै रद्भुतं, यस्योपर्यु' परीन्दुमण्डलनिभं छत्रत्रयं राजते । अश्रान्तो द्गतकेवलोज्जवलरूचा निर्भत्सितार्क प्रभं, सोsस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥१ देव: सर्वविदेष एष परमो नान्यस्त्रिलोकीपतिः, सन्त्यस्यैव समस्ततत्त्वविषया वाचः सतां संमताः । यस्य विबुधैस्ताडितो दुन्दुभिः, सोऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥२ पद्मनंद्याचार्य अर्थ - जिस शान्तिनाथ भगवान के एक एक के ऊपर इन्द्रों के द्वारा धारण किए गए चन्द्रमण्डल के समान तीन छत्र तीनों लोकों की प्रभुता को सूचित करते हुए निरन्तर उदित रहने वाले केवलज्ञान रूप निर्मल ज्योति के द्वारा सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करके सुशोभित होते हैं वह पाप रूप कालिमा से रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें। जिसकी भेरी देवों द्वारावादित हो कर मानो यही घोषणा करती है कि तीनों लोकों का स्वामी और सर्वज्ञ यह शान्तिनाथ जिनेन्द्र ही उत्कृष्ट देव है और दूसरा नहीं है, तथा समस्त तत्वों के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने वाले इसी के वचन सज्जनों को अभीष्ट दूसरे किसी के भी बचन उन्हें अभीष्ट नहीं है, वह पापरूप कालिमा से रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगों की सदा रक्षा करें ॥ १, २ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयोजक वीरसेवा - मन्दिर संक० परमानन्द शास्त्री नयामन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के जैन मूर्ति - लेख वेदी २ कटनी नं. ३ १. बाहुबली खड्गासन सफेद पाषाण साइज ऊंचाई १७॥ इंच चौड़ाई इन्छ । वि० सं० १९७६ फागुण मासे शुक्ल पक्षे श्री कुन्दकुन्दाम्नाये अकलतरा नगरे प्रतिष्ठितम् । २. सिद्ध मूर्ति सा० उचाई ८ इंच चौड़ाई ६ इंच । श्री सं० १६४५ माघ शुक्ला १३ भानुपुरे श्री कुन्दकुन्दादि दिगम्बर 'गुरूपदेशात् प्रतिष्ठितं जिनबिम्बं सकल संघ शुद्धाम्नायी प्रणमिति नित्यम् । S ५. कुन्धनाथ चिन्ह बकरा सफेद पाषाण सा० उंचाई ७ इंच चौडाई ५ इंच मं० २४७१ वि० सं० २००३ माघ शु० १२ मूलसंघे कुन्दकुन्दाम्नाये मोदीनगरे उत्तर प्रदेश, दिल्ली निवासी ला० रघुवीरसिंह श्री जिनबिम्ब प्रतिष्ठापितमिदं । नोट – इस वेदी में बक्स नं० १ में दो पाषाण मूर्ति -१ सफेद पाषाण की और दूसरी काले पाषाण की, तथा १७ धातु की, २-३ इंच तक की लेखरहित हैं। इंच चौकी ४॥ इंच । दोनों ओर दो महावीर स्वामी - सं १९४७ पौष शु० ६ बिम्बं चन्द्रप्रभ स्वामी वैशाख मासे, (मंवत नहीं ) ४. छोटी मूर्तियां १ इंच से १॥ इंच तक की लेख रहित, शेष ७० मूर्तियां छोटी एक इंच वाली लेग्व रहित । तथा पेटी नं २ में निम्न मूर्तियां और हैं जिनमें एक मूर्ति चौमुखी धातु की है। सं १७६६ मिति माहसुदी ६ श्री मूलसंघे भ० जगत्कीर्ति दूसरी मूर्ति पार्श्वनाथ की है। लेख नहीं है। तीसरी नवफणी पार्श्वनाथ की है जो ३ इंच ऊंची और दो इंच चौड़ी है। सं० १५४२, वैशाख १० । चौथी भी पार्श्वनाथ की है, ३ इंच ऊंची और दो दो इंच चौड़ी है। लेख है, पर अस्पष्ट होने से पढ़ा नहीं जाता। पांचवीं सप्तफणी पार्श्वनाथ की है। जिस पर निम्न लेख अंकित है। संवत १६४१ फागुन सुदि ३ मूल संघे भ० शीलभूषण, ज्ञानभूषण, तदाम्नाये पार्श्वनाथ .. छोटी छोटी ४१ मूर्तियां और हैं। जिनमें पार्श्वनाथ की एक त्रिमूर्ति है। सं १७४१ मगसिर सुदि १५ भट्टारक श्री अजित कीर्ति तदाम्नाये [ अग्नोतकान्वये ] गरग गोत्रे सोनवालेन प्रतिष्ठापितम् । आदिनाथ हल्का गुलाबी पाषाण साइज ऊंचाई १६ इंच चौड़ाई १२ ॥ इंच | सं० १९३५ माघ सु० ३ भ० राजेन्द्र कीर्तिस्तदाम्नाये मेहरचन्द्र ण प्रतिष्ठापितं, इन्द्रप्रस्थ दिल्ली नगरे, रंगीलाल । शीतलनाथ चिन्ह-कल्पवृक्ष मुंगिया पाषाण सा० ऊंचाई १५ इंच चौड़ाई १२ इंच | मं० १९३५ माघ सु० ३ काष्ठ सं लोहाचा-र्यान्वये भ० राजेन्द्रकीर्ति तदाम्नाये श्रोतकान्वये गर्ग गोत्रे साधु ईश्वरचंद तत्पुत्र मेहरचन्द्रण प्रतिष्ठापितं, इन्द्रप्रस्थ नगरे दिल्ली । मूल वेदी आदिनाथ सफेद पाषाण साइज ऊंचाई २० इंच, चौड़ाई १२ इंच चिन्ह हृषभ । सं० १६६४ माघवदि २ सोमवासरे महाराजाधिराजा श्री थानसिंह जी राज्ये भ० श्री चन्द्रकीर्ति तत्पट्ट भ० श्री देवकीर्तिस्तदाम्नाये सरस्वती गच्छे बलात्कार गणे कुन्दकुदाचार्यान्वये ... ........ तत्प्रतिष्ठा कारितं मोजीमा वाद नगरे । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान (डा. कमल चन्द्र सोगारगो, प्राध्यापक दर्शन शास्त्र, राज ऋषि कालेज अलवर) भारतीय जीवन एवं दृष्टिकोण अध्यात्म प्रधान रहे है। साधारणतया यह समझा जाता है कि जैन दर्शन एक हैं। यद्यपि चार्वाक जैसे भौतिकवादी भारत में पनपे, प्राचार दर्शन है, आध्यात्मिकता को यहां विशेष महत्व किन्तु थे इसकी अध्यात्मप्रधान विचार शैली पर अपमा नहीं दिया गया है। किन्तु यह विचार त्रुटिपूर्ण है । जैन प्रभुत्व स्थापित न कर सके। अध्यात्म यहाँ के साहित्य, प्राचार आध्यात्मिक भूमिका पर अवस्थित है। जैन साहित्य कला और जीवन में अंकुरित हुश्रा, विकसित हश्रा और में सम्यग्दर्शन की महत्ता, गुणस्थानों द्वारा प्रात्मा का फला-फुला है। आध्यात्मिक मूल्यों की दृष्टि से वस्तुभों प्रतिपादन, द्वादश तपों में अंतरंग तपों का स्थान, भात्मा के को परखना भारतीय पद्धति है प्राध्यात्मिक प्रादर्शो का तीन रूपों पर विचार-ये सब बातें इस ओर संकेत करती हैं साक्षात्कार, उनकी गहरी अनुभूति व्यक्तित्व के सर्वागीण कि जैन दर्शन कोरी नैतिक अनुभूति को ही सर्वोपरि नहीं विकास के द्योतक हैं। ध्यान वही साधन है जो प्रादों को मानता, किन्तु प्राध्यामिक अनुभूति को प्राधार रूप में स्वीकोरे विचारों के क्षेत्र से उठाकर जीवन के क्षेत्र में ले प्राता कार करता है। इतना ही नहीं इसकी प्राप्ति का मार्ग भी है। जीवन में श्रादशों से तन्मयता ध्यान का ही प्रतिफल प्रस्तुत करता है। अणुव्रत, महावत, विभिन्न तप साध्य है । ध्यान की प्रक्रिया का उदय मनुष्य के जीवन में उस नहीं साधन हैं। ये सब एक उच्च तत्व, श्रास्मिक तत्व की समय हुमा होगा, जब मनुष्य को यह भान हुआ कि सत्य प्राप्ति की ओर संकेत करते है। अतः इस प्रास्मिक तत्त्व प्राप्ति का संबंध प्राकृतिक शक्तियों की ओर ताकने से नहीं की श्रद्धा, इसकी सतत चेतना, की सर्व प्रथम प्रावश्यकता किन्तु अपने भीतर के अन्धकार को छिन्न-भिन्न करने से है। है। यही सम्यदर्शन है कुन्दकुन्द ने कहा है कि सम्यदर्शन ध्यान मनुष्य के विकास की अवस्था का परिचायक है जब गणरूपी रत्नों में सर्वश्रेष्ठ है और मोक्ष का प्रथम सोपान बाह्य शक्तियों के आश्रित रहकर शान्ति और सन्तोष है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि सम्यक्त्व के विना माप्त करने में असमर्थ रहा होगा, बाह्य भाडम्बरमय जीवन चारित्र नहीं हो सकता २ । यहां तक कहा गया है कि से वह थक गया होगा, और संकुचित सामाजिक जीवन सम्यक्त्व रहित मनुष्य उम्र तप करते हुए भी सहस्त्र करोड़ से वृहत् सामाजिक जीवन में पदार्पण कर रहा होगा। वर्ष तक बोधि को नहीं पा सकता३ । अतः जिस तरह Dr. Caird ने ठीक ही कहा है "Man looks नगर के लिये द्वार का का, मुह के लिये चक्षु का और outward before he looks, in ward, he वृक्ष के लिये मूल का महत्व है उसी तरह ज्ञान, दर्शन looks inward before he looks upward' वीर्य और तप के लिये सम्यक्स्व का महत्व है। । इस तरह मनुष्य सर्व प्रथम बहिर्मुखी होता है, तत्पश्चात् अन्तमुवी से प्राध्यात्मिक प्रगति जीवन का आदर्श है। इस प्राध्या और फिर सत्यमुखी ध्यान ही अन्तदर्शी मनुष्य को सत्य- त्मिक प्रगति, इस प्राध्सोरिम प्राप्ति के लिये ध्यान पर्वश्रेष्ठ दर्शी बनाता है। और मुख्य बात तो यह है कि ध्यान के साधन है। अन्य सब साधन ध्यान की भूमिका बनाने के माध्यम से सत्य मानव मात्र द्वारा प्राप्ति की वस्तु बन लिये है। ध्यान परम प्रा.मा की प्राप्ति के लिये द्वार है । जाता है । जातीयता ही नहीं राष्ट्रीयता के बन्धन भी दो जैन साहित्य में ध्यान की महत्ता को विभिन्न शब्दों में व्यक्त टूक हो जाते हैं। किया गया है। आराधना मार में कहा गया है कि खूब तप भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का एक विशिष्ट स्थान है, १भाव पा. १४५, २. उत्तरा०२८।२६ प्राध्यात्मिक अनुभूति को यहां सर्वोपरि महत्ता प्रदान की गई ३-दर्शन पा० ५, भ-भगवती प्रा०३६ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त करो, संयम का पालन करो, सारे शास्त्रों को पढ़ों किन्तु हेतु मान रहे हैं वह प्रशस्त ध्यान है। अतः ध्यान से जब तक आत्मा का ध्यान नहीं करो, तब तक मोक्ष नहीं हो हमारा अभिप्राय यहां प्रशस्त ध्यान ही है। सकता । तस्वसार के अनुसार ध्यान के बिना जो कर्म क्षय ध्यान की आवश्यक करने की इच्छा करता है वह उसी मनुष्य के समान है जो ध्यान के लिए सर्वप्रथम ध्याता में निम्नलिखित गुणों नाका होने पर भी मेरू के शिखर पर चढ़ने की इच्छा का होना अनिवार्य है. :१) मुक्ति की इच्छा, (२) करता है । भगवती अराधना के अनुसार जसे चुघा को वैराग्य, (३) शान्त चित्त, (४) धैर्य, (३) मन व इन्द्रियों नष्ट करने के लिये प्रा होता है तथा जिस तरह प्यास को पर विजय राम । नष्ट करने के लिये जल है वैसे ही विषयों की भूल तथा हद भासन का अभ्यास । दूसरे शब्दों में यह कहा जा प्यास को नष्ट करने के लिये ध्यान है। सकता है कि ध्याता (क) सांसारिक, (ख) दार्शनिक, (ग) मानसिक बाधाओं को जीतने वाला होना चाहिये तथा उसे एक विषय में चितवृति का रोकना ध्यान है। चित चंचल होता है इसका किसी एक बात में स्थिर हो जाना (घ) समय, (च) स्थान, और (छ) श्रासन की उचितता ध्यान है २ षटखंडागम में कहा गया है कि विचारों का का ध्यान रखते हुए (ज) समता की प्राप्ति का अम्यास किसी एक विषय पर स्थिरता ध्यान है जबकि चित्त के एक करना चाहिए । (क) गृहस्थ का जीवन अनेकों बाधात्रों से घिरा होने के कारण ध्यान में कठिनाइयां विषय से दूसरे विषय पर जाने को भावना, अनुप्रेक्षा अथवा उपस्थित करता है। शुभचन्द्र के अनुसार किसी देश चिन्ता कहा जाता है। ध्यान का विषय शुभ अथवा वा काल अाकाश के पुष और गधे के सींग हो सकते अशुभ हो सकता है । ध्यान का विषय जब शुभ होता है हैं, परन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि होनी तो किसी तब वह प्रशस्त ध्यान है और जब अशुभ होता है तो वह देश व काल में संभव नहीं।, यहां यह नहीं समझना चाहिए अशुभ होता है तो वह अप्रशस्त ध्यान है । पूज्यपाद के कि गृहस्थ ध्यान कर ही नहीं सकता, इसका अभिप्राय तो अनुसार इसी ध्यान से दिव्य चिंतामणि मिल सकता है. केबल इतना ही है कि उत्तम कोटि का ध्यान गृहस्थाश्रम मैं और इसी से खली के टुकड़े भी मिल सकते हैं । जब ध्यान असंभव है । (ख) जिनके पास तत्वज्ञान नहीं है, जो तत्वों के द्वारा दोनों मिल सकते हैं तब विवेकी लोग किस ओर में सन्देह करने वाले हैं उनके ध्यान की मिद्धि नहीं हो सकती प्रादर बुद्धि करेंगे? निश्चय ही वे दिव्य चिंतामणि को है। (ग) मन का रोध ध्यान के लिये अतिश्रावश्यक है। प्राप्त करने के लिए प्रयत्न शील होंगे। शुभचन्द्र ने ध्यान जिसने अपने चित्त को वश नहीं किया उसका तप, शास्त्राके भेद बतलाते समय एक स्थान पर ध्यान के तीन भेदशुभ, अशुभ और शुद्ध-किये हैं, और दूसरे स्थान पर प्रशस्त ध्ययन, व्रतधारण, ज्ञान, कायक्लंश इत्यादि सब तुष खंडन के समान व्यर्थ है, क्योंकि मनके वशीभूत हुए बिना ध्यान की और अप्रशस्त इस तरह को भेद किये है६ । इन दो भेदों में सिन्द्वि नहीं होती २ । जो मन को जीते बिना ध्यान की कोई विरोध नहीं है, पहिले विभाजन में दृष्टि मैन्द्रान्तिक है किन्तु दूसरे में व्यवहारिक । प्रशस्त ध्यान धर्म और शुक्ल चर्चा करता है वह ध्यान को समझता ही नहीं३ । मानसिक के भेद से दो प्रकार का है, और अप्रशस्त मार्त और रौद्र बाधाओं को जीतने के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और के भेद से दो प्रकार का है। यहां हम जिस ध्यान को मोक्ष माध्यस्थ इन चार भावनाओं का अभ्यास कार्यकारी होता है । (घ) (छ) ध्यान के लिए स्थान, प्रासन और १. प्राराधना १७ ६-तव. १३ समय का चुनाव भी कम महत्व की शर्ते नहीं हैं । वे सब ७. भगवती प्रा० १६०२ स्थान छोड़ देने चाहिए जहां दुष्ट, मिथ्यादृष्टि, जुधारी १-तत्वा० २. २.नव पदार्थ पे० ६६ ७-ज्ञाना ४२७१३ ३-षट्खंडा०५०६४ -कार्ति० ४६८ १. ज्ञाना० ४.१७ २. ज्ञाना० २२.२८ ५-इस्टो०२. ६-ज्ञाना०३।२७,२८ २०१७ ३.ज्ञाना० २२-२५ ४.झाना० २७.४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान मय यः, व्यभिचारी निवास करते हों। ऐसे स्थानों का होकर अविनाशी परमात्मा का ध्यान करे ७ । वह मारमा चुनाव करना जो शान्त हों, मन पवित्रता उत्पन्न करने वाले को वचन और काय से भिन्न करके मन को प्रात्मा में हों, जैसे पर्वत का शिग्वर, गुफा, नदी का किनारा, प्रादि । जो लगावे और अन्य कार्यों को केवल वचन और काय से प्रासन मन को निश्चल करने में सहायक हो वही श्रासन करे ८ । वही मैं हूँ' 'वहीं मैं हूँ' इस प्रकार अभ्यास करता सुन्दर है । पनापन सामान्यतया ध्यान का उत्तम प्रापन हुआ प्रामा में अवस्थित हो जाये । ४ान में लगा हुआ माना गया है । जिस समय चित्त क्षाभ रहित हो वही काल योग , क्या, कैसा, किसका, क्यों, कहां इत्यादि विकल्पों ध्यान के लिए उपयुक्त है। जन सहित क्षेत्र हो अथवा को न करने हए शरीर को भी नहीं जानता १० जन रहित प्रदेश हो, प्रामन उपयुक्त हा वा अनुपयुक्त, शुभचन्द्र ने ध्यान के भेद भी किये हैं। (6) पिण्डस्थ जिम समय चित्त स्थिर हो जाय तब ही ध्यान की योग्यता (.) पदस्थ, (३) रूपन्थ और (५) रूपातीत ११ । ये है। (ज) समता या साम्य की उत्पत्ति भी ध्यान के भी ध्यान की चार पद्धतियां हैं। ये मन को एकाग्र करने लिए आवश्यक है । जिस पुरुष का मन विन-प्रचित, इष्ट की सामग्री पम्तुत करती हैं। पिण्डस्थ ध्यान में पांच धारअनिष्ट रूप पदार्थों के द्वारा मोह को प्राप्त नहीं होता, उस नायें सम्मलित हैं। (क) सर्व प्रथम योगी एक शान्त और पुरुष के ही माम्यभाव में स्थिति होती है १ । जिम गम्भीर समुद्र की कल्पना करे। उस समुद्र के मध्य एक पुरुष के माग्यभाव की भावना है उसकी श्राशाएँ तत्काल वृहत् हजार पंखड़ी वाले कमल का चिन्तवन करे । कमल नष्ट हो जाती हैं, चित्तरूपी मर्प मर जाता है । और के मध एक ऊंचे सिंहासन का विचार करे । उस सिंहासन ऐसा व्यक्ति नेत्र के टिमकार मात्र में कर्मो का जीतने क पर योगी अपने आपको स्थित अनुभव करे। वहां बैठ कर योग्य हो जाता है ३ । इस साम्यभार का शुभचन्द्र पर यह विश्वास प्रकट करे कि उसकी प्रात्मा कषायों को नष्ट इनना प्रभार है कि उन्होंने साम्यभाव को ही ध्यान की संज्ञा करने में समर्थ है । इस प्रकार के विचार को पार्थिवा धारणा दे डाली है ४ । कहते हैं । (ग्व) सिंहासन पर स्थित योगी नाभि मण्डल ध्यान की पद्धति में स्थित कमल के मध्य से अग्नि को निकलता हुमा सोचे । योगी अपने वर्तमान स्वरूप और शुद्ध स्वरूप में तुलना तनपश्चात यह विचारे कि वह अग्नि हृदयस्थ पाठ कर्मों प्रारम्भ करे। और यह विचार कि वह न तो नारकी है. का मूचित करने वाले श्राठ पत्रों वाले कमल को जला रही न तिर्यच, न मनुष्य न देव ही, किन्तु वह तो सिद्ध स्वरूप है। पाठ कर्मों के जलने के बाद शरीर को जलता हा सोचे है । फिर वह द्रव्यों के स्वरूप का विचार करे । तत्पश्चात और फिर अग्नि को शान्त अनुभव करे । इस प्रकार विचार अपने मन के कारण रूपी समझ में मग्न करे। फिर परम करने को प्राग्नेयी धारणा कहा गया है २ । (ग) तत्पश्चात् प्रारमा के गुणों पर ध्यान एकाग्र करे । और उसमें इतना योगी शरीरादि की भस्म को प्रचण्ड वायु द्वारा उदा हुना लीन हो जाये कि ध्यान ध्याता और ध्येय का भेद समाप्न सोचे । यह विचार श्वसना धारणा कहलाती है३ । (घ) इस हो जाय । यह समर पी भाव है और पात्मा और परमात्मा धारणा के पश्चातू वारूणी धारणा पाती है जिसमें शरीरादि का समीकरण है । इस प्रकार के ध्यान को सवीर्य ध्यान की बची हुई भम्म वर्षा के जल से साफ होती हुई विचारी कहा गया है ६ । जाता है ४ . (च) अन्तिम धारणा तत्त्वरूपवती कहलाती शुभचन्द्र ने ध्यान की एक दूसरी पद्धति भी बताई है। इसमें योगी अपनी प्रामा को अर्हत् सदृश कल्पना करता है। योगी बहिरात्मा को छोड़ कर, अन्तराष्मा में स्थित ७. ज्ञाना• ३२११. . ज्ञाना० ३२।११ ५.ज्ञाना० २८-२२ १. ज्ञाना. ३२१४२ १०. इष्टो. ४२ १. ज्ञाना० २४१२ २: ज्ञाना० २४११ ११. ज्ञाना ३० ३. ज्ञाना० २४११२४.ज्ञाना० २४१३ (1) ज्ञान. ३७/४-१ (२) ज्ञाना० ३०/१०-१६ ५ -तत्वानु. १३७६. ज्ञाना." (३) ज्ञाना० ३७/२०-२३ (४) ज्ञाना. ३७/२१-२७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त है । हम पिण्डम्थ ध्यान में हम देखते हैं कि योगीअपने चारों (१) धर्मध्यान चार प्रकार का है ३ । (क) प्राग विचय मोर एक ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जो सारिक (ख) अपाय विचय, (ग) विपाक विचय, और (घ संम्यान विषय वासनाओं से कोसों दूर है। मन के ऊपर धारणाओं विचय, पूज्यपाद ४ ने सर्वामिति में इनका विशद विवेचन की कई तहैं जम जाती हैं जहां से मन अपने अनादि स्थित किया है । (क) उपदेश देने वाले का प्रभाव होने से, स्वयं संस्कारों को छेदने में समर्थ होता है। (२)दूसरे पदस्थ मन्दबुद्धि होने में, कर्मों का उदय होने से, पदार्थो के सक्षम ध्यान में योगी पवित्र पदों का अवलंबन लेकर चितवन करते होने पर सर्वज्ञप्रणीत प्रागम को प्रमाण मानना आज्ञा हैं, जैसे-श्रोम्, अरिहन्त आदि । शुभचंद्र ने मंत्र पदों की विचय धर्म ध्यान ई। अथवा जो स्वयं पदार्थो क रहस्य को बड़े ही विस्तार से व्याख्या की है । (३) रूपन्थ ध्यान जानता है, और उनके प्रतिपादन करने का इच्छक है, उसके में परहन्त के गुणों व प्रगहन्त की शक्तयों का चितवन लिए नय और प्रमाण का चिन्तन करता है, वह मर्वज की किया जाता है जिससे प्राध्यत्मिक प्रेरणा प्राप्त होती है। श्राज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से प्राज्ञा विचय धर्म(५) रूपातीत ध्यान में सिद्धों के स्वरूप पर चिन्तवन किया ध्यान का करने वाला है। (ख) जीवों को सांसरिक दाम्वों जाता है। से छूटकारे के उपाय का विचार अपाय विचय धर्म-ध्यान है। मुलाचार में कहा है जीवों के शुभ अशुभ कर्मों का रामसनाचार्य ने ध्यान पति की दृष्टि से ध्येय के । नाश कैम हो ऐसा विचारना अपाय विचय धर्मध्यान है" चार भेद किये हैं। (१) नामध्येय, (२) स्थापनाव्येय, (३) हानार्णवद में इस ध्यान के अन्तर्गत ये विचार भी मम्मिद्रव्य ध्येय और, (५) भाव ध्येय । (१) अरहन्त का नाम लिन हैं। मैं कौन हैं मेरे कर्मों का प्राव को है ? पंच परमेष्ठी वाचक 'ममि. प्रा. उ. मा.' तथा मनोकार कर्मों का बंध क्यों है, किस कारण से निर्जग होता है, मंत्र का ध्यान 'नाम' नामक ध्येय है १०। (२) कृत्रिम मुक्ति क्या वस्तु है, एवं मुक्त होने पर प्रात्मा का क्या और अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं का प्रागम अनुसार ध्यान स्वरूप होता है यहां यह कहा जा सकता है कि प्राज्ञा स्थापना नामक ध्येय है"। (8) जिस प्रकार एक द्रष्य विचय धर्मध्यान व्यक्ति को सत्य का ज्ञान कराना है और एक समय में उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य वाला है वैसे ही समस्त अपाय विचय धर्मध्यान सन्य प्राप्ति का मार्ग प्रस्तुत करता बसा हमेशा उत्पाद, न्यय व धाव्य वाले हैं ऐमा चिंतन है। (ग) विपाक विचय धर्मध्यान में कर्मो के फलों का 'द्रव्य नामक ध्येय है १२ । (४) अर्थ तथा व्यंजन पर्याये चिन्तन होता है। (घ) और संस्थान विचय धर्मध्यान में और मूर्तिक तथा प्रमूर्तिक गुण जिम द्रव्य में जैसे अवस्थित लोक के स्वभाव का व प्रकार का निरन्तर चिन्तन होता हैं उनको उसी रूप में चितवन करना भाव नामक ध्येय है। तत्वानुमाशन में कहा गया है कि (१) सम्यान, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र मय धर्म का जो चिंतन है ध्यान का यह उपयुक्त वर्णन प्रागमिक परंपरा से वही धर्मध्यान है। (२) मोह नोभ से रहित जो आत्मा का बाह्य है। प्रागमिक परम्परा के अनुसार धर्म व शुक्ल परिणाम है वह धर्म है। उम धर्म में युक्त जो चिंतन है ध्यान के चार भेद है। सर्व प्रथम हम धर्म ध्यान को लेने वही धर्मध्यान है। (8) वस्तु स्वरूप को धर्म कहते हैं। है। स्थानांग २ सूत्र में धर्म ध्यान का चार दृष्टिकोणों से उस वस्तु म्वरूप से युक्त जो ज्ञान है उसे धर्मध्यान कहा विचार किया गया है। (१) इमका विषय, (२) इसका है। (४) दश धर्म में युक्त जो चिंतन है उसे धर्मध्यान लक्षण, (३) इसका पालम्बन, (४) इसकी अनप्रमाग कहत । कात्तिक्यानुप्रक्षा के अनुसार मकल विकल्पों को ---- छोड़ कर प्रात्म म्वरूप में मन को गंकर प्रानन्द पहिर (१) ज्ञाना० ३७/२८-३० (६) झाना० ३८/1-1६ मा una. (७) ज्ञाना. ३६-१-४६ (८) ज्ञाना० ४.१५.२३ । (Tatia, Studies in Jaina Philsophy के (१) तत्वानु. ११ (१.) तस्वानु १०१, १०२ १.३ प्राधार मे २५३ (३) (४) मर्वार्थ• १/३६ (२) मुल'. (११) तत्वानु, १०६ (१२) तत्वानु०११० ४०० (6) ज्ञाना० ३५/११ (०) तत्वानु ५१ १५ (१) तत्वानु. ११६, (२) स्था. स. ११/२४७ (१) कीर्तिः ४८० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान (२) इस ध्यान के लिए चार लक्षण कर्ता में होते हैं। (१) जिन मार्ग में रुचि (आज्ञा रुची ) ( २ ) स्वाभाविक रुचि ( निमर्ग रुचि) (३) आगम में रुचि और ( सूत्र ) रुच) (४) आगमां क गहरे अध्ययन की रुनि ( अवगाढ़ रुचि ) । (३) इन ध्यान के लिए चार बालम्बन है। (१) अध्ययन ( वाचना ) (२) विचार विमर्श ( प्रतिपृच्छा), (३) बारंबार पठन ( परिद्व तना) और (४) गहरा चिंतन (अनुप्रेक्षा) (४) इस ध्यान की चार अनुप्रेक्षागे हैं। (१) अनित्य (२) अशरण, (३) एकस्व और ( ४ ) मंग्वार | शुक्ल ध्यान के भी चार भेद है२ - ( १ ) पृथवत्ववितर्क विचार, (२) एकम्ब-वितर्क अविचार, (३) सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति, (५) व्युपरत क्रिया निर्वात । इनमें से प्रथम दो १२ वे गुणस्थान तक होते हैं और अन्तिम दो केवल ज्ञानियों के होते हैं। जिस स्थान में पृथक्व ( नानापन) वितर्क (श्रुतज्ञान) और विचार (अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रमण) होते हैं वह प्रथम शुक्ल ध्यान है३ । जिस ध्यान में योगी खेद रहित होकर एक द्रव्य को, एक (२) सवार्थ, ६/३६ (३) सर्वार्थ, १ / ४४ काबड़ एक चलता फिरता मंदिर महेन्द्र भाव रंगरूपों की जितनी विशाल परतें हमें राजस्थान में देखने को मिलती हैं उतनी कहीं नहीं। सच तो यह है कि सदियों से साहित्य, संस्कृति, कला और सभ्यता की शतशः धारायें इसकी विशाल भित्ति को अभिसिंचित करती रही हैं। यही कारण है कि राजस्थान आज भी उतना ही रंगीन और रमलीन बना हुआ है। कला की अनुपम कृतियों के साथ धार्मिक अभिव्यक्ति के ऐसे कई उदाहरण हमें मिलते हैं जो आज भी लोकधर्म के प्रति अत्यन्त-विनीत एवं श्रद्धाभाव बनाये हुए हैं । कावड़िया भाटों की कावद एक इसी प्रकार की अन्य ७ अणु को अथवा एक पर्याय को एक योग से चिन्तन करता है उसको एकस्व ध्यान कहते हैं। इसमें पृथक्त्व के स्थान पर एकत्व होता है, विचार के स्थान पर अविचार होता है और जितकं वर्तमान है। इस ध्यान से योगी चार घातिया कर्मों का नाश कर देता है और केवल ज्ञान का स्वामी हो जाता है। जब केवली की बायु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण रद्द जाती है तब तीसरा शुक्लध्यान होता है । इसमें मन और वचन योग दोनों का निग्रह हो जाता है और केवल सूक्ष्मकाययोग उपस्थित रहता है। चौथे शुक्ल ध्यान में सूक्ष्म काययोग भी समाप्त हो जाता हैं योगी अब प्रयोग केवली होता है। इस ध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं? | भय का अभाव ( अन्यथा ), मोह का प्रभाव ( श्रममोह ) विवेक और व्युम्पर्ग | इस ध्यान के चार बालअयन है३ । क्षमा, निर्लोभता, सरलता और निरभिमानता । इस ध्यान की चार अनुप्रेक्षायें हैं ४ । दुःख के कारणों का विचर, संसार के अशुभ होने का चिंतन, जन्म मरण की अनन्तता का चितन और वस्तुओं के निरन्तर परिणमन का चितन । (१) सर्वार्थ० ६ / ३४ (२-४) नवपदार्थ पेज० ६७१ तम धरोहर है जो कला की अनुपम कृति के साथ-साथ धार्मिक अभिव्यक्ति की चरम है। राजस्थान में चित्तौड़ के पास बसी की काष्ठ कला अत्यन्त प्रसिद्ध रही है। यहां के खेरादियों ने काष्ठकला के कई रूपों को प्रश्रय देकर अपनी विशिष्ट परम्परा कायम की है। कावड मा उन्हीं की विशेष थाती है । बसी में जहां नाना प्रकार के खिलौने, बाजोट, तोरण, थंभ, बेत्राण, भूले, चौपड़े, पाये, गणगौर ईशर पुतलियां तथा कठपुतलियां आदि के बेजोड़ रूप हमें देखने को मिलते हैं वहां कभी-कभी धाम, अडमा, सेमला आदि को लकड़ी के बने छोटे-छोटे पाटों (कपाटी) पर नाना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त प्रकार की चित्रकारी करते हुए भी यहां के खेरादी परिवार खुलावे तो १) श्राखी का ॥ रू० । दः कुदणाबाई।" देखे जा सकते हैं । संपूर्ण कावड़ छोटे बक्स पी होती है। लिखा रहता है। इसके पीछे की ओर सूर्य-रथ, सीता-हरण, जिसमें पाठ अथवा दस पाट बन्द रहते हैं । कावदिया भाट । राम-लखन-वनगमन, मृग-शिकार, चन्द्र-रथ, राम-लखन इसे अपनी बगल में दबाये गांव-गाव अपनी यजमान वृत्ति तथा शबरी एवं शबरी तथा उसकी सहेलियां चित्रित की के लिये घूमता रहता है। मारवाड़ में कावड़िया भाटों के मिलती है। पास ये कावड़े भली प्रकार देखी जा सकती है। दुसरा पाट-शेषनाग पर विष्णु-शयन तथा उनके इन काबड़ों के दो रूप देखने को मिलते हैं । (१) पांव दबाती हुई कमला। चौथ माता-जिसके दोनों ओर अाठ पाट वाली कावड़ तथा (२) दस पार वाली उसकी पूजा करने वाले दा पुजारीहते है। कावड । पाटों के दोनों ओर लोकशैली में चित्रित घने गहरे पीछे की ओर-ट पर यात्रा करते हा रेबारी रंगों में चित्तौड़ की कलमकारी के सुन्दर चित्र दृष्टिगोचर दंपति । तंदूर पर भजन करता हुमा भक्त । राजा भरथरी, होते हैं। नाना प्रकार के रंग खेरादी म्वयं ही पत्थरों से गोपीचन्द, पूजा करने जाते हुए द-पति तथा हाथी-रथ । तैयार कर लेते हैं । सर्व प्रथम कवेलू के महीन टुकडे बना तीसरा पाट–साधु तथा दो औरते, जल भरने जाती कर उस घट्टी में पीस कर उसमें गोंद मिला दिया जाता है नानी बाई का राधा कृष्ण क दर्शन करना तथा दम्पति । फिर उस खूब घोटा जाता है । घोटने का काम औरतें करनी पीछे की ओर-डोली ले जाते हुए दो सिपाही, हैं । इस क्रिया को ये लोग 'इटाला' कहते हैं। पाटों पर दरजी तथा कृषि करता हुश्रा भक्त धन्ना । पहले पहल इसी का लेप कर दिया जाता है । इसके सूखने चौथा पाट-अपनी तीनों रानियों के साथ राजा दशपर बढ़ल्यास गांव के लाल पत्थर को बारीक घिस कर उस स्थ, बनिये की परीक्षा लेते हुए भगगन । में गद मिलाकर इन पाठों पर लगा दिया जाता है। एक पीछे की ओर-शेष नाग पर नृत्य करते हुए भगवान बार सूखने पर दूसरी बार, और इस प्रकार कुल पांच बार विष्णु, गणेश, दम्मति, रथ तथा वजरंगबलि हनुमान । लेपन करने पर उन पाटों पर फिर लाल रंग लगाया जाता पांचवां पाट-सत्यनारायण-कथा-झांकी, नारद जी है और तब उन पर चित्रकारा का जाती है । बमी में छगन तथा प्रसाद लेने आया हश्रा राजा लीलावती, कमलावती लाल जी, छोगा लाल जी भूरा जी तथा कजोड़ जी आदि कन्याए, तुग वज। के घराने अपना काष्ठकला क लिए अत्यन्त प्रसिद्ध रहे है। पीछे की ओर-यशोदा तथा दही चुराते हुए कृष्ण । कावड़ में चित्रित चित्रों की विविध झाँकियों व र स्थ, ऊंट सवार तथा दो दम्पति । छठा पाट-ऊंट, पीपल के पत्ते में कृष्ण अपने पुत्र को कावड़ के ऊपर ही ऊपर एक टिकट लगा रहता है जिस पर आरी से चीरता हुअा मोर ध्वज गजा । सिंह को ले जाते ठिकाने (पत्त) के रूप में लिखा रहता है "यह कावड़ हए कृष्ण अर्जुन तथा पांडवों को शिक्षा देते हुए कृष्ण । कामी पुरी अक्षपूर्ण देव के मन्दिर पर बनती व मिलती पीछे की चोर-मेघनाथ शयनावस्था में, वन बिहार है। दः कुदणाबाई बामणी ।' इससे यह लगता है कि इसकी प्रमुख स्वामिनी काशी के अन्नपूर्णा मन्दिर की करता हुअा हाथी, मन्दोदरी, सीता को समझाती हुई कुन्दणबाई ब्राह्मणी है । इसके बाद दो द्वार खुलते हैं जिन राक्षपनियां, मुन्दर डालते हुए हनुमान, राम रावण युद्ध, पर दोनों ओर नर-नारायण अकित रहते हैं। उन शेरों राम-लखन को ले जाते हुए हनुमान । राम-रावण की के नीचे दोनों ओर दो हिदायतें लिखी मिलती हैं जिनमें "इस कावड़ को धूप देकर खुलावो, धूप देकर खुलावे वह सातवां पाट-जगदीश झांकी, गंगा को लाता हुआ म्वर्ग में जाता है । सच मानो, झूठ मत मानो । दः कुदणा राजा भागीरथ, दम्पति । बाई।" तथा दूसरी ओर-"सच मानो, झूठ मत मानो, पीछे की ओर-उडलपंख जो पांच हाथी लेकर रद जो कावड़ को नास करे वो नरक में जाता है। प्राधी कावड़ सकता है । कृष्ण को दूध पिलाती राक्षसनी, बांसुरी बजाने Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कावड हए कृष्णा, सुधार, अपने अन्धे माता पिता को ले जाता चित्र अंकित रहता है जिस पर लिखा रहता है-"इस पेटी श्रवण, सुनार, तोता पढाती हुई वेश्या, तेजी छींपा, बुनकर के अन्दर जो पैसे डाले वो मेरे पास पाते हैं। काशीपुरी में कुम्हार तथा दम्पति । अन्नपूर्णा देवी के मन्दिर पर मेरे पास बाते हैं जिससे गायों आठवा पाट-दो दरवाजे जिन पर घोड़ा, घाणी में को घाम डालते हैं और मेरे एक हजार कावद फिरती हैं। पिलता हुआ राक्षस, सूली पर लटकता पुरुष । द. कुदणावाई बामणी।" पीछे की ओर-सरस्वती, कृष्ण सुदामा मिलन, राजा गौशाला की पेटी के एक ओर चांदे पर रेबारी देव बलि की जाती पाव सोता तथा दूसरी ओर अन्दर की तरफ पाबूजी अपनी कला की मनमोहक झांकी। घोडी पर बैटे हुए दिखाये जाते हैं । अन्दर की ओर गुप्त याही होती है जिस पर लिखा रहता है-"यह गुप्त की नवां पाट-भक्त कबीर रोहिदाम चमार, रामाधार बाडी है जो दान करो वह मेरे पास पाता है । दः कुदणानाले घोड़े पर पीछे हरजी चंबर ढोरते हुए, भागे डाली बाई बामणी" बाई भारती करती हुई, पास में खडा भाणेज हाथ जोड़े। ___ कावडिया भाट को जब कभी कावड़ बनवानी होती है, रथ-हाथी, देवर, भौजाई के कांटा निकालता हुआ। वह खेरादी को लिख देता है । कावड़ को भाट चौखुणे पीछे की ओर-तुलछामाता, पंथवारी, रामदेव जी के चौरस कपड़े में लपेटे रखता है। अपने साथ वह मयूर पंख पगल्ये, जोडे, नारसिंधी शेर पर, कालाजी-गोराजी। का छोटा मा झाइ भी रखता है जिससे वह कावड मान दम पाट - रेवारी दम्पति-पीछे औरत तीर चलानी करता रहता है। हुई, प्रागे मन्दर जाना हुअा दम्पति, कृष्ण की रासलीला, इस प्रकार हम देव हैं कि कावड़ एक छोटा सा कृष्ण, गोपियों के कपड़े चुराते हुए । कृष्ण नायिका वंश चलता फिरता बगल में दबा कावड़िया भाटों का बगल धारण कर राजा रतन के बाल बनाते हुए । बाकी जोडे । मन्दिर है जिसके कपाटों पर चित्रित नाना प्रकार की धार्मिक पीछे की ओर-पीतवर रामेश्वर, राजा गन्धर्व सन झांकियों के दर्शन कर भक्तजन परम कल्याण एवं अनन्त इन्द्र का लड़का, जोड़े, दूध पीता हुभ्रा सांप। मुग्व की गंगा में मगबोर होकर नाना पापों से मुक्ति पा अपना जन्म सार्थक करते हैं । पाठ पाट वाली कावड़ १२" लम्बी ६" चौडी तथा ६" ऊंची होनी है। दस पाट वाली कावड़ १४॥ लम्बी १. कावड़ सम्बन्धी इस जानकारी के लिए लेखक बमी के -" चौड़ी तथा ७-८" ऊंची होती है । इसके एक ओर लोक चित्रकार श्री मांगीलाल मिस्त्री के अत्यन्त गौशाला की पेटी बनी हुई होती है। दरवाजे पर गाय का श्राभारी हैं। अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्याति प्राप्त गोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठन व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐमा तभी हो सकता है जब उममें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानो, प्रोफेमरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-प्रेमियों, शिक्षा-सस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जैनथ त की प्रभावना मे श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते है कि वे शीघ्र ही 'अनेकान्त' के ग्राहक बने । इसमे समूचे जैन समाज में एक शोध-पत्र प्रतिष्ठा और गौरव के साथ चल सकेगा। भारत के अन्य शोध-पत्रों की तुलना में उसका समुन्नत होना आवश्यक है। व्यवस्थापक : "अनेकान्त" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर रइधू रचित-सावय चरिउ श्री अगरचन्द नाहटा अपभ्रंश भाषा में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों जैन वानदास गांधीने अपभ्रश काव्यत्रयी तथा स्व. मोहनलाल सम्प्रदायों की छोटी-बड़ी मैंकड़ों रचनायें प्राप्त हैं। ८ वीं दलीचंद देशाई ने 'जैन गुर्जर कवियो' भाग १ की विस्तृत १ वीं शताब्दी से लेकर संवत् १७०० तक की इन रचना- भूमिका में अपभ्रश साहित्य का ज्ञातव्य विवरण प्रकाशित भों में प्राख्यानक काव्य सबसे अधिक हैं, कुछ रचनायें किया था। सन् १९५० में दि. जैन अतिशय क्षेत्र, महावीर जैन धर्म के संबंध में हैं कुछ रचनायें तो बहुत ही महत्व जी की ओर से प्रकाशित 'प्रशस्तिसंग्रह' नामक ग्रन्थ में करीब पूर्ण हैं महाकाव्य, प्रबंध काव्य, खण्डकाव्य, रूपक काव्य १२ अपभ्रंश रचनाओं का यादिनन्त विवरण प्रकाशित और मुक्तक काव्य विशेष रूप से उल्लेग्वनीय है। हा और सन् १९४४ में पं० परमानन्द शास्त्री ने अनेकान्त इधर कई वर्षों में राजस्थान आदि के जन भण्डारों की की ८ वी किरण में 'जयपुर में एक महीना' नामक लेख में सूचियाँ बनाने और प्रकाशित करने का काम ठीक से हवा है अपभ्र श के २६ ग्रन्थों के रचना काल आदि का विवरण दिया और इससे बहुतसी नवीन रचनाओं को जानकारी प्रकाश में था, पश्चात् परिचयात्मक लेख भी निकले। और सन १९५६ पाई है। दिगम्बर कवियों की तो कुछ बड़ी बड़ी रचनायें में 'अनेकान्त में पं० परमानन्दशास्त्री ने जैनग्रंथ प्रकाशित भी हुई हैं पर श्वेताम्बर रचनायें यद्यपि छोटे-छोटे प्रशस्ति संग्रह के नाम से ३६ दि. जैन अपभ्रंश रास आदि कई प्रकाशित हुये हैं पर नेमिनाह चरित. विलास रचनाओं का श्रादि अन्त के पद्यों सहित विस्तृत वह कहा श्रादि बड़ी और महत्वपूर्ण रचनायें अभी तक विवरण प्रकाशित किया। फिर इसके बाद अनेकान्त का अप्रकाशित हैं । अपभ्रश रचनाओं का क्षेत्र भी काफी बडा प्रकाशन स्थगित हो गया। अतः उनका वह कार्य उधाही रहा । राजस्थान, गुजरात, एवं उत्तर-मध्य प्रदेश में सर्वा- पडा रहा। हर्ष की बात है कि अब वह ग्रंथ वीर-वाधिक अपभ्रश रचनायें रची गई बहुत सी रचनायों की मन्दिर से विस्तृत प्रस्तावना के साथ प्रकाशित हो गया है। प्रशस्तियां ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े हा महत्व को है अनेकों इसमें १२२ ग्रंथों को प्रशस्तियां प्रकाशित हुई है। अज्ञात एवं महत्वपूर्ण तथ्य इन प्रतियों में विदित होने १४४ पृष्ठों की पं. परभानन्द जी की प्रस्तावना वास्तव में हैं। अत: भाषा-विज्ञान एवं साहित्य की दृष्टि से मूल्यवान बड़े ही परिश्रम से लिम्बी गई है और अनेकों नान होने के साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी इन रचनात्रा का बड़ा तथ्यों की जानकारी देती है। अपभ्रंश रचनाओं का इतना महत्व है। अधिक विवरण अन्य किसी भी ग्रंथ में प्रकाशित नहीं हुआ इसलिए इस ग्रंथ के सम्पादक परमानन्द जी और प्रकाशक अपभ्रश साहित्य का ज्ञातव्य विवरण डा० हाराजाल वीर सेवा मंदिर की जितनी भी प्रशंसा की जाय वह थोडी जैन ने करीब २० वर्ष पूर्व नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित किया था उसके बाद दा० हरिवंश कोछड़ ने शोध प्रबन्ध लिख कर अपभ्रंश माहित्य के महत्व को अच्छे का यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रस्तावना बहुत साधारण सी प्रकाशित किया, पाटण भण्डार सूची और Catalogue लिखी गई है । पर किमी एक ही व्यक्ति को सभी बातों of Sanskrit and Prakrit nanuscripts in की जानकारी होना कम ही सम्भव है सामग्री के प्रभाव the Central Provinces & Berar में तो सन् और कभी कभी कुछ असावधानी अादि से भी कुछ भूल१९३६-१६३७ में कतिपय अपभ्रंश रचनाओं का प्रादि भ्रान्तियां हो जाती हैं। जिनका परिमार्जन जल्दी से जल्दी अन्त विवरण प्रकाशित हुआ था और पं० अभयचंद भग- हो जाना चाहिये। ताकि उन भूल-भ्रान्तियों की परम्परा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर रहधू रचित-सावय चरिउ ११ अधिक भागे बढ़ने न पाये। उदाहरणर्थ इस लेख में जिस कौमुदी' का नाम आता है उसीसे परमानन्द जी ने इस रचना का परिचय दिया जा रहा है उसका नाम असावधानी ग्रंथ का नाम सम्यकत्त्वकौमुदी लिख दिया है पर वास्तव से पं. परमानन्द जी ने सावयचरित की जगह सम्यक्त्व में प्रन्थ के प्रारम्भ और प्रत्येक सन्धि के अन्त में 'सावय कौमुदी लिख दिया तो प्रो. राजाराम जैन ने भी इसी के चरिय' ही नाम दिया है। परमानन्दजी के द्वारा उद्धत प्रशस्ति अनुकरण में प्राचार्य भिक्षु स्मृति ग्रन्थ में प्रकशित अपभ्रश में भी संउमाह के पुत्र कुपराज का उल्लेख है और वास्तव भाषा मन्धिकालीन महाकवि रइथ नामक लेख में भी उस में उन्हीं के लिये इस ग्रन्थ की रचना हुई है। यह ग्रन्थ की भूल की पुनरावृत्ति करदी। मेरे अवलोकन में ऐसी जो प्रत्येक मन्धि के अन्त में दिये हये पद और प्रशस्ति से कतिपय भूल भ्रांतियां आई हैं उनके संबंध में मंक्षिप्त लेख स्पष्ट है । परमानन्द जी ने ग्रन्थ के प्रादि भाग को भी भेजा गया था पर वह डाक की गडबडी में कहीं इधर-उधर त्रुटित होना लिखा है, पता नहीं नागौर की प्रति का प्रथम हो गया अनः फिर कभी प्रकाश डाला जायेगा। प्रस्तुत लेख पत्र म्वण्डित था या उन्होंने नकल नहीं की। अन्तिम प्रशस्ति में उक्त ग्रन्थ में अपूर्ण रूप से प्रकाशित प्रशस्ति नं. १०५ तो उन्हें पूरी उतारने नहीं दी गई इसका उल्लेख तो को पूर्ण रूप से प्रकाशित किया जा रहा है। चूंकि उन्होंने स्वयं किया है-"प्रस्तुत प्रशस्ति अधूरी है, इसे पं० परमानन्द जी इस अन्य को पूरी ठीक से नहीं देख पाये नागौर के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति ने पूरी नहीं उतारने दी थी इस लिए उन्होंने ग्रन्थ का नाम सम्यकत्व के मुदी और ग्रंथ प्रस्तावना के पृष्ट १०२ में इस ग्रन्थ के संबंध में उन्होंने रचना की प्रेरणा करने वाले संउ माहु का नाम दिया है, निम्नोक्त विवरण दिया है- “१०६ वी प्रशास्ति' पर ये दोनों ठीक नहीं है। वास्तव में इस ग्रन्थ का नाम सम्यक्त्व कीमुदी की है। इसमें सम्यक्त्व की उत्पादक कथा मावय चरिउ है और प्रेरक संउ माह के पुत्र कुमराज है। ओं का बडा ही रोचक कथन दिया हुआ है. इसे कवि ने प्रस्तुत ग्रन्थ की एक प्रति कलकत्ता के म्व. पुरण चन्द्र ग्वालियर के गजा डूगरपिंह के पुत्र राजा कीर्तिसिंह के नाहर के मंग्रह में प्राप्त हुई। ५८ पत्रों की यह प्रति मवत् राज्यकाल में रचा है, इसकी प्रादि अन्त प्रशस्ति से मालूम १६१४ की लिम्बी हुई है । ग्रंथ का छठा मन्बा में 'सम्यकत्व होता है कि यह ग्रन्थ गोपाचल वामी गोनालारीय जाति के भूषण सेउमाहु की प्रेरणा से बनाया है । इसकी ७१ १ सन् १९५४ में जब मैंने श्रीर पं. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य ने नागौर का भंडार दग्या, तो उस समय जो पनामक एक प्रति नागौर के भट्टारकीय ज्ञान भण्डार में ग्रंथ मामने आये, उनका दम्बत हुए सम्यक्रवकौमुदी नाम मौजूद हे उक्त अपूर्ण प्रशस्ति उमी प्रति पर सं दी गई है। का प्रथ भी मिला जो कवि रइधू की रचना थी। उस उम ग्रन्थ की पूरी प्रशस्ति वहां के पंचों तथा भट्टारकजी प्रथ का मैं एक पत्र पढने लगा, एक पत्र पं० महन्द्रकुमार जी ने सन् ४४ में नोट नहीं करने दी थी, इसलिये वह अपूर्ण ने लिया और शंष भ. देवेन्द्रकीति जी दग्वने लगे। इसी प्रशाम्त प्रशस्ति ही यहां दी गई है।" समय मैंने उसे श्रावश्यक समझकर उस पत्र को नोट कर प्रस्तुन प्रशस्ति में कई महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख है लिया कुछ शेष रहा वह नोट न कर मका, नोट करने की भना प्रारम्भ में प्राचार्य नामावली के बाद टक्कणि माहु का ही कर दी । अतएव प्रशस्ति अधूरी ही रही । पं. महेन्द्रकुमार उल्लंम्ब है और इसके बाद ग्रन्थ कार के या कवि द्वारा रचित जी वालं पत्र में से भी १०पंक्तियां लिखी गई फिर वह पत्र कतिपय पूर्ववती रचनाओं क नाम दिये हैं। उनमें से महाभी उन में ले लिया। प्रशस्ति पूरा करने के लिये कहा गया पुराण अनुपलब्ध है। इस तरह रंधू का करकंडु चरित किन्तु व्यर्थ । उप प्रति पर प्रथ का नाम सम्यकन्ध कौमुदी और मुदंपण चरिउ के अनुपलब्ध होने का उल्लंम्प परमालिखा था, सारा नथ देखकर नोट किया जाता, तब फिर नन्द जी ने किया है प्रो. राजाराम ने कुथुनाथ स्तुति का उस पर ग्रंथ के सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला जाता, ग्रंथ पूरा भी उल्लेख किया है। न देखने की बात लेख में लंग्वक ने स्वयं स्वीकृत की है, ऐसी प्रस्तुत सावय चरिउ की रचना ग्वालियर के राजा कीर्ति स्थिति में सावधानी की बात कसे कही जा सकती है ? सं. सिंह के समय में हुई इसलिय संवत् १५१०-१५३६ के बीच Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकार १२ की रचना है। इस ग्रन्थ की ६ सन्धियों या परिच्छेद हैं । ग्रन्थ रचना के प्रेरक कुसराज के वंश का भी प्रशस्ति में अच्छा परिचय दिया है। और अन्त में ऋषि कमलकीर्ति और संधाधिप हरिसिंह साहू का उल्लेख है परमानन्दजी के प्रकाशित पाठ से प्रस्तुत प्रति के पाठ में कुछ भिन्नता है । प्रकाशित प्रशस्ति के बाद थोड़ा ही पाठ ऐसा है जो नहीं छुप सका । ग्रन्थ का परिमाण करीब १|| हजार श्लोकों का । कवि रह के संबंध में धारा के प्रो० राजाराम जैन शोध सावय-चरिय पवित्र साहेयहु, भव भय हेयहु, सुइ गई पारं दुह अवहार, जय जिरण रिमह परम सुद्द कारण जय जय अजय भवुहितारण जय संभव संभव हिरामण जय हि ंद दिय साम जय जिण सुमइ सुमइ विन्धारण जय पउमप्पह कलिमल वारण जय सुपास पोसिय परमप्पय जय चंदप्यह समिय सप्पय जय जय सुविहि सुविहि विहि भूमण अब सीयल इंडिय मुह म जय संयंस सेय मर गाव धरण जय जय वास पूज्ज कय सम मण प्रबन्ध लिख रहे हैं। रहधू १२वीं शताब्दी के महान अपभ्रशसाहित्यकार है। उनकी २४ अपक्ष शरचनाओं का पता मिल चुका | इतनी रचनायें अन्य किसी अपभ्रंश कवि की नहीं मिली। इनमें से अनुपलब्ध है जिनकी खोज की जानी चाहिये। ग्वालियर हिस्सार आदि के जैन भण्डारोंमें सम्भव है ये प्राप्त हो जाय, वहां और भी कोई अज्ञात रचना मिल जाय । अब प्रस्तुत सावय चरिउ के आदि अन्त के पथ नीचे दिये जा रहे हैं पत्ता-दे तिम्यंकर, सिवसंपयवर, वड्रमाण जिस मुह कमलह परण भडारी वासर तिल्लोय पियारी साय वाय विहिपयडण मारी मिरलावाय वाय अनहारी सब्व भास गुण उरागाइ घारी परिण सामिणि सुहयारी चउदह सय तेवरण तवोणिहि णिच्च भव्व मगु उप्पाइय दिहि कम्मैथल पज्जालण खरमिहि भोयण काल भमिय सवय गिहि पयड़िय यहु पय जयलं । भमि उवमय विहि विमलं ॥ १ ॥ - परमप्पहपमुह जि होसहि एधु जि तह प्रतीत परावत्रि पर ॥ १ ॥ जय जय विमल त्रिमल गुण मंन्दिर जय श्रांत जोवलय मंदिर जय जय धम्म धम्म भासापिय जय संतीस संति जिण सामिय जय जय कुंथु कुरणय करि केसरि जय अर चरिय मग्गु दमण करि जय मन्त्रिकार मामंडिय जय जय जय मुहिमुख्य मीला मंडिय जय रामि सुद्ध बुद्ध श्रजगमर ऐमांसर रायमई वर सिरिपास फणीस कयासण जय जय वीर पवट्टिय सासण मिच्छत्त हर जय महमेगु धुरि ति जि गोयमु ने अहि दिवि पयडिय गोयमु नाह अणुक्कम पट्ट पयामगु सिरि पुरं गमुरिदिय जिलमामगु मूलगंध उज्जोय दियरु मदरस बुहया सुरतरु मासु पट्टि रयणत्तय धारउ संजायउ सुह चंदु भढारउ पुणु उवराणु सिंहासण मंडगु मिच्छावाइ वाय-भ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर रइधू चित-सावय चरित जिण सासण काणण पंचाण जा सस्थथुपचिंतह पावणु णं दिसंघ णंदिय तव माणणु जिणहरि प्रज्जतउ सुह भावणु सद्द बंभ रयणोह पयोर्णािह ता तथाइएण सुह जोएं दिव्य वाणि उप्पाइय जण दिहि भव्य चित्त उपाइय मोएं सरसह गच्छे गच्छ सस्थाहिउ प्रायम चरिय पुराण बियाणे बाल बंभयारी मज माहिउ रेक्कणि साहु गुणेण पहाणे सिरि जिणचंदु भडारउ मुणिवइ पंडितत्थ तेण विण्णत्तर तहु पय-पयरुह बंदिव कइवइ करमउ लेप्पिणु वियसिय वत्तर धत्ता-भी भी कइयण वर, दुक्किय स्य-हर, पइ कइत्त भरुवहिउ स्पिरि णिमुणहि णिम्मल मण, रजिय वृहअण, सव्वसुहायरसच्चगिरि ॥२॥ जिह पइइह रयउ महापुराणु पत्थु जि गोवग्गिरि सुह पयासु नेपट्टि महा पुरिमाहिठाणु तोमर कुल कमल वियास-मित्तु जह पुण गाहा बंधेण सारु दुव्वार-रिसंगर अतित्त विरइया पयडु मिद्धतमाम डुगर निव रजधरा समन्यु पुण्णासउ मेंहे.परुचरित्त बदियण ममप्पिय भूरि पत्थु जमहरचरियउ पुणु दयणिमित्तु चउराय विज पालण अतंदु अवर वि जिह णाणा भय नन्थ णिम्मल जम्मवली भवण-कंदु नह मावय चरिउ भणेहु इन्थ कलि चक्कवट्टि पायड णिहागु ना कणा पडिउ उत्तरू पउत्त सिरि कित्तिसिधु महिवइ पहाणु तुह काहउ करमि हंउ तुह शिरुत्त तहु रजि वणी सु-महागुभाउ परणिय मिण सोय । णर पहागु गोलागडय प्रणह पाउ जो सन्थ भातु उन्धहइ जाग्गु संत्री सयाहिउ विदिय णामु जा वहिणउ कोवि महत्तु होइ वुहयण कुवलय पालय थामु ना किम विन्याइ मसत्थु लोह सुहग्गापिय मम राएण रत्तु पुणु १ कणि जपइ वियसियामु सग वमरण पाव वासण विरत घत्ता-तह हुव वर णदणु, दुरिय णिकदण चारिदाणणं दुरिय हरा का चिरा पऊमण गौतही तामणिस्वम गुण-गण-ग्यगा-धरा ॥३॥ पढमिल्लु धम्म धुरि दिन खंधु (१) जिण काराविउ जिणहरु समेट माहम्मिय हर कय पणय-बंधु धयवडपंनिहिं रह-सूरतेउ नवयरण पमुह गुणरयण-गेहु णिय मंतत्तणि रंजियउ राउ णिवाहिउ चउविह संघ-बहु पावय-विहाण कम्माणु राउ माणिक्क साहु मणि मुणिय तच्चु परणारि-परम्मुहु-विगय-लोहु कह मविण पयंपइ गिरि सच्चु असपशि साहुजण जणिय मोहु बीयउ पुणु परउवयारलीगु दुन्थिय (विग्वय १) जण पोमण कामधेणु जिण गुण परिणय उद्धरिय दोगु वरदाण पर पूरण करेस Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सासण सुपहावण पह पक्राणु सस्थन्थ जागु किगणउ मुणेहु कुसराजु कुसलु तीयउ पसण्णु इहु गिवाहइ सकइत्त भाग पुणु तुरिउ सगुर पय-पोम-रत्तु इय मुशिवि करहि किग चरिउचारु पणि वण्णु जेण मणि निविहु पत्त इहु कवियण जण भत्तउ पहाणु जाचय जश परण कप्प वत्थु [च्छु] तुम्हह कारमइ अहिउमाणु इंदीवर दल सारिच्छ अच्छु नं णिणि विवहु पडि चवइ नम्स सार यर पवियारण पवित्ति हउ किंण वियाण मि-र श्रम्प जगि पायडु जो जि परमण कित्ति इहु मच्चु कइत्तहु मा बहेइ प्रयाह मजिम कुल भवण-दीउ णिम्मलु जस पपवि इह लहेइ कुसराज महामइ णिक विणीउ साहम्मिय बच्छुलु गुगण पवित्त नुहु पुरू संठिउ विगण वइ पहु कि किं ण करमि एयहु पउत्त, ___घत्ता-इय वयणागांतरि, मुक्ख णिरंतार, कर जोडि वि चियमिय वयणु कुमगाउ पयंपइ, मुहिउ समप्पइ, भव भमणहु भव-भीय-मणु ॥ ४ ॥ भो रइधू पंडिय दुरिय-मंथ एण जि जीवे कह मविणपत्त सुदायमपरमपुराणगंथ दंग्सण पुवइ मयलाइं ताइ पह विरइय पन्थु अणेय भव पंछमि मोश्रो बिहु गिय ग्याइ ते अम्हह प्राणियह सब जिण भणिय सत्य कंत्रण गिरिंद पहड भाविउ मइ माणसम्मि बहु गाम ठवहि संविय मुरिदि अइ दुल्लहु गारभउ भव-वणम्मि ता बुहु जंपइ वणि कल ललाम तय थावराइ जम्मइ गहतु भी विणणयात कुपराज शाम चुलमीदिलक्व जाणिहि भमंतु लडऊ स वर पह मयंक जरमरणभूरे दुग्वइ सहंतु दुम्बारबरि-बारगा-श्रयंक अच्छियउ जीउ कालु जि अगांतु तुहु वय, करीम कहत्त वित्ति पदसण सज य वय पवित्त पर दुज (ग) जगा भउ वह मि चिति घना-ज गउ णिमणि जइ मणि ण मुरिणजह णवि पेछिजइ पुण्यखित, तं भासइ दुजणु असमंजस मगु अघउ वयण पावमइ खणि ॥५॥ प्रथम सन्धि पत्र ७ B घत्ता-तुहरति बहिरम्भंतवि अरि मइ जित्ता भंति ण उ रइधर धिय मुलगणम इअ मल वरधम्म कुमराज थुप्रो ।। १३ ।। इय सिरि वह चरिण, सहमण पमुह मुद्ध गुगा भरिण सिरि पंटिय रैधू वगिण. मिरि महाभव्य सेउ, साह सुय दुसराज अग मरिगए अहिग्म सम्मा पिच्छा करणं पटमो संधी परिन्छेश्रो ।। मंधिः ॥ ५ ॥ द्वितीय सन्धि प्रान्ते पत्र १८ A घत्ता-रइधर इगा मच्च करतवि कुम्पराज पमुह भावण पउरे किं किजइ स्यहि पत्थु मह मिर कामिट इय इयि दिवमयरे ।। २ । इयसिरि सावय चरिण, मरण पमुह शुद्ध गण भरिण सिरि पंडिय रहधू वण्णिा सिरि महा भव्वसेउ साहु सुय क.मराजघाहियद अणुमरिणए अहिगम सम्म सेटि भज दुइ कातरवर ण णाम बीनो संधि परिच्छेउ मन्धि ।।२।। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर रइधू रचित-सावय चरित तृतीय सन्धि प्रान्ते पत्र ३१ A पत्ता-कुरुराय बगिद अग्वंडु मह तइया दंसगुजायउ रइ धूणउ सुणिवि तं मह पियहि सेग मुणहु चिरु प्रायड ।। २६ ।। सिरि पंडिय रइधू वरिणए मिरिमहा भब्य मेऊ पाहु सुय कुपराज मंबाहिवइ अणुमण्णिए अहिगमण सम्मत्त स्वाण वण्णणं नाम तीउ सन्धि परिच्छेद ।। सन्धि ३ ।। चतुर्थ सन्धि प्रान्ते पत्र ३८ B धत्ता सम्मत कहंतर हिय मुणिवि भावं तजि ध रजई हेलय मामय पउ पाविजइ जिं भबिउ बहित्तरिजइ ॥ १६ ॥ इय मिरि सावयचरित महसण पमुह सुन्द्र गुण भरिण पिरिमहायाधु सेउ मुय संघाहिवइ कुसराज अणुमगिणए अधिगम सम्मन वनणणे तुरिउ संधि परिच्छेट ।। संधि ।। ४ ।। पंचम सन्धि प्रान्ते पत्र ४५ B घत्ता-इय पत्तापराह, मुणि विन चिनह, जो कुसुगउ दाण करइ ___ यो दंपणु रहध . मणि वि परमपरु, भवसागर ला लई तग्इ ॥ १६ ॥ इयमिरि यात्रय चरित महसण पमुह सुद्ध गुण भरिप पिरिपंडिय रइधू वगिणप पिरि महा भव्य सेऊ साहू सुय संघाहिवइ कुसराज अणुमण्णिा पोम्पह पडिमावराणो णाम पंचमी मंघि परिच्छो सम्मत्तो ।। संधि ॥ ५ ॥ अन्त्य प्रशस्ति :घा-तहि अधम्म व्यायहु, मुन्द्र महायहु, ठिदि पायप्पिणु सिद्ध वरु गिणवरूइ इधू हुउ, अप्पमिद गुण जुउ. कुपगजहु संपत्तियरु ।। २४ ।। इय धण कण रयण गुणोह पुग्गु तहु णंदणु जिण पय पयय भाग्नु विजयच्छ गिरि व जिणहर वरण विहडिय जणाण अधार ठाणु बहु विबुहासिउ एंतिय सवामु लडऊहिहाण पालिय मधम्म गोवगिरि दुग्गु महीपयासु रूपापिय यम तुहु हब सम्म नहि महिवइ णाम कितिसिंधु नह जि मुश्रो विम्मुत्रो मुवावयारि अरि वर गय वड णि हलण मिधु इगरणिव भंडाराहियारि तम्सेव राज पाय१ वणिदु पिरि सेऊसाहु पसिद्ध माहु गोलाराडिय बल कुमय चन्दु मजाउ जासु वर धम्मलाहु चिरु हवउ महरू णाम साहु मुहग्ग सहु पिययम मुह पवित्ति गण मंदिर सीया भज णाहु मल हारिणि णं जियाणा कित्ति धना-टुय चारि पिदण, जय प्रागंदगा. धम्मकज धुर धरण वर भवियण मन्दर, पुज पुरंदर मग्गरण जग दालिद्द हरु ॥ २५ ॥ गुणहि गरिछु, जेठु मुहभवणु तहु णंदणु चउक् गुणभृपिउ सुहि महयरू अरियण मनावग्गु पढम वणु कइ पणहि पमंसिउ मिरिमाणिक्करगहू विक्वायर हरिसिंधु हरिसु पायगु अण्णो तिय लवणमिरि सुह अणुरायउ पहरू रूप पहाण्य मरणो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त कुमय चंदु चंदु व सुकलालउ संऊ साहु हु णंदणु तीयउ जिण पय पुरउ णमिय णियभालउ सिरि कुम्पराजु पयम्मि विणीयड पुणु बीयउ णंदणु सकियस्थे तस्य पिया मुणिदाणकयायर रज-कज-धुर-धरण-समत्थे लोहट णामें सुह-भावणपर संघाहिर असपति असंकिउ वीई वीरा जिणगुण मरणइ ससि पहकर णिम्मल जस अंकित रूवे रई मिलेणं जाणइ णिरसिय-पाव-पडल णिरु भइ जेण पइटाविय जिणबिंबह णंदणु णेमिदासु सुह पासणु तहु थिरुमा संजाया भज्जा परउवयार रयण-गुण भरिउ जिण मपहावणंग सुमणेजा पावणु परियणु जण मण नोसणु तहु सुय माघउ अरियण गंजणु पुणु संऊ मातहु सुह तुरि संजाया चे पुत्त वियक्खणु जुजिय ज लाज त वियागे उबरण देवचन्द सल्लवण णाम जे जिम हिम जिण यारो धत्ता-जो जिहु पियरइ सो पाण पिय सुय मंडण मंडिय श्रणह शंदउ सिरि सुक्ख अडखंजु या इय चर भायर वंस कहा ।। २६ ।। इय चिरु णंदउ सुह लच्छि गेहु जय जि उवण्णु कुमगज हंसु सिरि वीयराय जिण समउ हु जमुमति वमें मह पंडयेण णंदर णिग्गंथ रिसिंद विंद सकहत्त महा गुण मंडिाण ये दुविह महातव पह दिणिद मिरि कमलकिति रिसि सीमाण शंदउ महिवइ मिरि कित्तिसिंधु हरिसिंह साहुसंघाहियेण समरंगण पंगण परि अलंधु सुय उदयारय जणेण पहु जे धम्म कम्म णिरु मावहाण कइणा वि रइउ सुह सद्दहेहु सम्ममण--भावण--पहाण सावय चरित्त जं अस्थवंतु गोवालय--वासिय सावयावि मत्ता विहिति वज्जिउ पुगुत्तु णंदउ चिरु त अणएवि सयावि नं बुहयण मोहिवि करहु सुद्ध णंदर गोलाराडयहुवंसु फेडिप्पिणु पउ श्रायम विकद्ध घसा-महु सरमइ जणणी हिय पिय भणणी पयलु ग्वमिज्जउ दोसु परा पढियंतु लिहंतउ रवि वरिजंतर णंदउ मत्थु पसुत्थ धरा ।। २७ ।। इयमिरि सावयचरिए, सद्दमण पमुह सुद्ध गुण भरिए सिरि पंडित रयधू वण्णिए. सिरि महाभब्व सुय साहु संघाहिव कुपराज अणुमरिणए । सम्मत्त कौमई नाम छटो मंधि परिछेप्रो सम्मत्तो । शुभं भवत् संवत् १६१४ वर्षे प्राषाढ वदि ३ प्रतिः- गुलाबकुमारी नायवेरी पत्र ५८ पंक्ति १० अक्षर ४. प्रति पनि प्रादि पत्र १ और सरिक अंतिम ॥ पंक्ति, नं.२ १८७ । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के जीवन प्रसंग मुनि श्री महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' भारत की महान विभूतियों में भगवान श्री महावीर I का नाम है इसलिए नहीं जे गये कि वे एक राजकुमार ये कीर न केवल इसलिए भी स्मरणीय बने हैं कि उन्होंने उत्कट साधना की थी। क्योंकि साधना के द्वारा जीवन को निखारने वाले करोडों मानव हो चुके हैं, जिनमें गर्भ में समा कुछ एक इतिहास के केवल उभरने हुए पृष्ठों तक ही सीमित हैं । किन्तु जन-जन के मुख पर उनका कोई विशेष नाम नहीं है। जनता उन पुरुषों की विशेष या करती है, जिन्होंने अपनी साधना के साथ जन कल्याण के लिए भी भगीरथ प्रयत्न किया हो। भगवान महावीर एक ऐसी ही विभूति थे, जिन्होंने जितना प्रयान अपनी साधना के लिए किया था, उतना ही प्रयत्न जनता के सुसुप्त मानस में चित्रक का अलख जगाने के लिए। जनता अपने उपकारी काही दान्तकम करती है और उसके ही पावन चरणों में श्रद्धा के कोमल कुसुम चहा कर उऋणना का अनुभव करती है 1 भगवान श्री महावीर का बाल्य व योवन राजकीय वैभव के बीच बीता । उभरता हुआ यौवन जहां मनुष्य में अल्हड़ता व उन्माद जागृत करता है, वहां भगवान् महावीर को उसने असे विरक्ति की ओर मोदा तीस वर्ष की अवस्था में परित्रजक बने । साढ़े बारह वर्ष तक ये एकान्त स्थान में गिरि-कन्दराओं या सूने घरों में, सघन जंगलों में या हरे-हरे देवालयों में अपनी आमा को तपस्या व ध्यान के द्वारा निम्बार रहे उनका ध्यान केवल जाप तक ही सीमित नहीं था, अपितु उसमें सृष्टि के प्रत्येक पहलू पर, चाहे वह जढ़ हो या चेतन, सामाजिक हो या आध्यात्मिक, चिन्तन चलता था, जो सिद्धि प्राप्तकरने के अनन्तर वाणी द्वारा लाखों व्यक्क्रियों के हृदय में उत्तराव उनका आलोक बना। उनकी दृष्टि में जड़ और चेतन का समायी रूप । सामाजिकता और आध्यात्मिकता का संचलित रूप व्यक्ति के तब तक साथ रहेगा, जब तक वह साधना की कठिनतम मंजिल पार नहीं कर लेता । साढ़े बारह वर्ष की उत्कट साधना के बाद वे सत्य और अहिंसा के उपासक के रूप में नहीं, अपितु सत्यव अहिगामय ही बन गये थे । आत्मा की परम पवित्रता अहिंसा व सत्य के द्वारा होती है, यह स्थूल कथन है वस्तुतः तो हिमा या सत्य से व्यतिरिक्त कोई भी आत्मा हो भी नहीं सकती जितना प्रावरण इन पर पड़ा होता है उतना ही अवरोध रहता है, जिसका परिणाम अज्ञान या जड़ता होता है और उसकी अभिव्यक्ति भी साधना शब्द में की जाती है। कोई भी आदर्श प्रेरणा का रूप सब सोता है जबकि यह हार में उतरता है । भगवान् श्री महावीर अहिंसा व सत्य की प्रतिमूर्ति थे । अतः जनता के दिल में उनकी उन घटनाओं ने अधिक स्थान पाया जबकि उन्होंने अपने प्रथम साधु शिष्य गौतम स्वामी व सम्राट थे कि जैसे श्रावक को स्पष्ट शब्दों में एक को क्षमा मागने का निर्देश दिया तथा दूसरे को उसकी अपनी नरक-गमन की भवितव्यता जता दी। साधक सत्य का अवलम्बन करे, यह स्थूलता है, पर वह आत्मसात करे, यह प्रथम अपेक्षा है। जो मन्ग को श्रात्ममान कर लेना है, उसके समक्ष दूसरों की आमा भी निबरती है । गणधर इन्द्रभूति ( गौतम स्वामी) एकबारगी के लिए बाधिज्य ग्राम में पधारे। शहर में उन्होंने आनन्द श्रावक की पौषधशाला में आए । यानन्द ने शरीरिक श्रमामथ्र्य के कारण लेटे-लेटे ही वन्दना की और चरण स्पर्श किया । श्रानन्द ने कहा— भगवान गौतम ! क्या गृहस्थ को आमरण अनशन में अवधि- ज्ञान उत्पन्न हो सकता है। 1 गीतम हो. हो सकता है। आनन्द मुझे अवधिज्ञान में उत्तर में चलू' हेमन्त " हुआ है और उससे तक दक्षिण पश्चिम श्रीर पूर्व में पांच सो योजन लवण समुद्र तक, ऊपर सौधर्म देवलोक तक और नीचे प्रथम नरक के लोलुप नश्कचास तक देवने व जानने लगा है। - गौतम आनन्द गृहस्थ को इतना विशाल अवधि-ज्ञान नहीं मिल सकता । अनशन में तेरे से यह मिथ्या सम्भाषण हुआ है, अतः तू इसकी आलोचना या प्रायश्चित कर । श्रानन्द--प्रभो ! महावीर प्रभु के शासन में सत्याचरण का प्रायश्चित होता है या असत्याचरण का ? Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त गौतम-असत्याचरण का । प्राप्त करने से पूर्व शिकार खेलते समय एक गर्भवती मृगी श्रानन्द-प्रभो! आप ही प्रायश्चित करें। आप ही को अपने बाण से मारा था और उस हिंमा-कृत्य पर गर्वित से प्रसत्याचरण हुना है। हुआ था, मैंने कैसा लक्ष्य साधा है कि एक बाण से हिरणी प्रानन्द की इस दृढ़ता पूर्ण वार्ता को सुन कर गौतम और उसके गर्भस्थ बच्चे बींध गए । उम अकृत्य की अतिशय स्वामी सम्भ्रान्त हुए। वहां से चल कर महावीर प्रभु के पास शलाघा से यह निकाचित (नहीं टूटने वाजा) कर्मबन्ध हुआ माए और वह सारा वार्तालाप उन्हें कह सुनाया। भगवान् महावीर ने कहा-गौतम तुम्हारे से ही प्रत्याचरण हुआ है। चौर वह तुझे अनिवार्य रूप से भोगना ही पड़ेगा। तू प्रानन्द के पास जा और उनसे क्षमा याचना कर । ___ वृद्धावस्था में वही श्रेणिक राजा राज्यलोलुप पुत्र गौतम स्वामी तत्काल श्रानन्द के घर पाये और कहा- कोणिक के द्वारा कारावास में डाला गया माता चेलना के प्रानन्द ! भगवान महावीर ने तूझे ही सत्य कहा है। मैं द्वारा कोणिक दुत्कारा गया तो उसे अपने कृत्य पर पश्चावृथा विवाद के लिए नरे से क्षमा चाहता हूँ। साप हुया और वह पिता को मुक्त करने के लिए कारावास ___ 'हिरण्यमयेन पारेण सत्यम्यापिहितं मुग्खम्' स्वर्ण पात्र की ओर गया । श्रेणिक ने समझा, यह दुष्ट पुत्र मेरी से सत्य का मुख ढका रहता है। किन्तु भगवान श्री महा- और भी विडम्बना करना चाहता होगा । अच्छा वीर इस उत्रि के विरोधी थे। वे सत्य को प्रात्मा का मह- है, मैं अपने आप मर जाऊं । राजा के हाथ में विष मुद्रिका भावी गुण मानते थे, अतः वस्तु सत्य हमारी अपेक्षा में चाहे थी और वह उस माध्यम से प्रात्म हत्या कर मर गया वह कितना भी कटु क्यों न हो, वे मृदु ही समझते थे और और नरकगामी हुश्रा। उसके उद्घाटन में कभी सकुचाते नहीं थे। एक बार भग- साधक का प्रात्म-बल असीम होता है, किन्तु शरीर वान श्री महावीर बृहत्-श्रमण समुदाय के साथ राजगृह कभी कभी उसे तिरोहित कर स्वयं उसपर छा जाता है। नगर में पधारे । राजा श्रेणिक राज-परिवार और सेना साधक जब अपनी अभिलषित मंजिल पर पहुंच जाता है, के साथ बड़े ठाठ से बन्दन करने के लिए आया । विशाल श्रात्म-पक्ष गौण हो जाता है । साधक से मिद्ध बन जाता परिषद में धर्मोपदेश हुधा । वंशना के अन्तर श्रेणिक राजा है। शरीर व्यतिरिक्त श्रात्मा का उस समय स्पष्ट श्राभास ने खड़े होकर विनम्रभाव से भगवान से पूछा-भगवन् ! होने लगता है। भगवान महावीर को अपनी साधनाकाल आपके प्रति मेरी अगाध श्रद्धा है। अतः बताएं, मैं यहां से में अनेक भंयकरतम उपसर्ग झेलने पड़े थे। उनमें वे काल धर्म को प्राप्त होकर किम यानि को प्राप्त करूगा अम्लान रहे किन्तु जब उन्होंने कैवल्य प्राप्त कर लिया सारी परिषद् जानने को उत्सुक हो उठी थी। श्रेणिक के था। और जनता को प्रात्म-कल्याण का प्रादर्श मार्ग मन में अपूर्व उत्साह था और निश्चय था, भगवान मेरे बतलाया। उन्होंने अहिया की पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त किया, लिए विशिष्ट गति का ही निरूपण करेंगे। जिससे उनके समक्ष जाति विरोधी जीवों का और भाव भगवान ने उत्तर दिया श्रेणिक ? यहां से श्रायुप्य मिट गया उनकी अहिंसा के दिव्य आलोक में हिंमा रूप पूर्ण कर तू पहले नरक में पैदा होगा। तिमिर विलीन हो गया और जनता में सुख शान्ति का श्रेणिक स्तब्ध रह गया। सारी परिषद् विस्मित हो मामाज्य हो गया। इसी कारण जनता अाज भी अपने उठी। भगवान ने कहा-श्रेणिक ! इरो मत ! विराट् सुखों की उपकारी का भक्ति पूर्वक स्मरण करती है। ओर जाते हुए तुम्हाग यह नरकावाम बहुत ही लघु है । उस भगवान श्री महावीर का जीवन अहिंसा व सत्यमय नरक योनि को पार कर तू फिर मनुष्य योनि प्राप्त करेगा और था। उनका श्रात्म-बल अचुण्ण था । अतः शरीर बल भी मेरे ही जैसा भावी चौबीमी का प्रथम तीर्थकर होगा। उसके अधीन ही रहता था। उनके जन्म दिवस के उपलक्ष श्रेणिक-भगवान ! किस कर्मों के परिणाम म्वरूप में करौडों व्यक्ति जहां धन्दा का अर्घ्य समर्पित करें, वहां मुझे यह नरक का भोग मिला ? भगवान-तूने पाहत-धर्म अहिंसा, सत्य व प्रात्म-बल की पुनीत प्रेरणा भी अपने में १ यह कथा श्वेताम्बर परम्परा सम्मत है। संजोये। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का गृह त्याग डा० कस्तूर चंद कासलीवाल एम. ए. पी. एच. डी. दिन बीतते देर नहीं लगती । राजकुमार महावीर पूरे को बुलाया और लगे करने बात इस विषय पर। महावीर युवा हो चुके थे। सुन्दरता में वे कामदेव को भी लजित वहां श्राये और मौन होकर बैठे रहे। वे माता पिता के करने लगे थे। उनके प्रत्येक अंग की शोभा निराली थी। भावों को ताड़ गये थे इसलिये स्वयं ने इस विषय पर जब वे हाथी पर चढ़ कर वन विहार अथवा नगर दर्शन मौन रहना उचित समझा। उस समय वहां केवल छह को निकलते तो प्रजा जन महावीर जैसे सुन्दर एवं योग्य सदस्य थे-महाराज सिद्धार्थ, महारानी विशला, महावीर, राजकुमार को देव फूली नहीं समाती। अनेक मुन्दरियां प्रधान मंत्री, सेनाध्यक्ष तथा प्रजा की ओर से एक उनके दर्शन मात्र से ही पुलकित हो उठतीं और उन्हीं के प्रतिनिधि । समान सुन्दर वर पाने की कामना करतीं। कभी वे उस मौन को भंग करते हुये महाराज सिद्धार्थ ने कहाराजकुमारी के भाग्य की भी सराहना करती जिसके भाग्य “युवराज, अब तुम पूर्ण युबा हो चुके हो । गत वर्षों में महावीर जैसा पति पाना लिया था। बड़े बड़े राजा से राज्य कार्य में भी कभी कभी हाथ बटाते रहे हो । महाराजा महावीर के विवाह के लिये अपनी कन्या देने का तुम्हारी बुद्धि, शासन योग्यता एवं न्यायप्रियता की सभी प्रस्ताव रखते । इस तरह के प्रस्ताव आये दिन अपने लेकिन श्रोर से प्रशंसा हो रही है । प्रजाजन एवं राज्य कर्मचारी महावीर विवाह के प्रश्न को सदा टालते रहे । राज्य कार्य में तुम्हें अपने शायक के रूप में देखना चाहते हैं। इसलिये भी वे बहुत कम समय दे पाने लेकिन जब भी थोड़ा समय अाज हम सबने यह निश्चय किया है कि तुम्हें युवराज वे देते राज्य की बारीक से बारीक गुन्थियों को सहज ही वे घोषित कर दिया जाये और शीघ्र ही तुम्हारा विवाह सुलझा दने । न्याय करने में निष्पक्ष रहने और अपने कलिग देश की सुन्दर राजकुमारी यशोधग से कर दिया विशिष्ट ज्ञान से दूध का दूध और पानी का पानी करते। जावे । हमारी इस इच्छा को तुम बहुत दिनों से टालने इसलिये मटे लोग तो उनके पास जाने में भी मंकोच रहे हो, लेकिन अब उसे भविष्य के लिये स्थगित नहीं करतं । महावीर दिन प्रति दिन बड़े होने लगे। माता पिता किया जा सकता।" को चिन्ता बड़ने लगी। प्रजा में विवाह प्रश्न पर विभिन्न महाराज के इस प्रादेश के पश्चात महारानी विशला प्रकार की चर्चा होने लगती । प्रजा के प्रतिनिधि उनसे ने कहा "राजकुमार मां बाप की इस एक मात्र इच्छा को विवाह के प्रश्न को लेकर मिलते और विवाह के पश्चात राज्य पूर्ण करना पुत्र का कर्तव्य होता है । मैं और म्वयं महाकार्य सम्हालने की प्रार्थना करते । लेकिन मावीर का सय राज तुम्हारे जन्म से ही उस दिन की श्राशा लगाये बैठे को एक ही उभर होता कि अभी उन्हें इस प्रश्न पर विचार हैं जिस दिन तुम अपनी वधू के साथ राज महल में प्रवेश करने का समय ही नहीं मिला है। जनपद सभात्रों में करोगे । इस सुनसान महल में फिर से प्राकर्षण कर दोगे विवाह करने का अनुरोध के प्रस्ताव पास होने और उन्हें और तुम जानते हो कि महाराज की शकि दिन प्रति दिन महावीर की सेवा में भेजा जाता । उनके विचारों में परि- घट रही है। इस लिये वे शापन का पारा भार तुम्हें सौंपने वर्तन करने के लिये अनेक प्रकार के प्रायोजन किये जाते। लिये प्रामुर हो रहे हैं। नाच गान होने। वन विहार के आयोजन होते तथा प्रधान मंत्री ने अपने प्रायन से खड़े होकर एवं तीन सुन्दर से सुन्दर चित्र उनकी सेवा में भेजे जाते लेकिन बार पादर अभिवादन करने के पश्चात् निवेदन किया किसी को भी सफलता नहीं मिलती। अन्त में एक दिन "गजकुमार । सारी प्रजा श्रापको युवराज के रूप में देखना महाराज सिद्धार्थ ने महारानी त्रिशला के प्राग्रह से महावीर चाहती है और उसकी हार्दिक इच्छा है कि पाप पूर्ण रूप से Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अनेकान्त राज्य कार्य संभाले । श्रीमान के निर्देशन में सारी शासन महावीर इतनी दर से मौन थे । वे सारी बातों को व्यवस्था चल । वह अपनी भावी महारानी को भी देखना बड़े ध्यान से सुन रहे थे और स्थिति को गम्भीरता को भी चाहती है और उसके लिये जितना भी त्याग वह कर सकनी समझ रहे थे। उनके चहरे पर न तो प्रसन्नता थी और न है करने को तैयार है। विषाद । वे अपनी सहज मुद्रा में थे । जब सब चुप हो गये जन प्रतिनिधि ने हाथ जोड़ कर पहिले अभिवादन तो वे उस अप्रिय एव अाह्य शान्ति को भग करते किया और बड़ी नम्रता से कहा कि आपके सारे राज्य की हुये बोलेजनता ने मुझे प्रतिनिधि नियुक्र कर इसीलिये श्राप की महाराज, माता जी, प्रधान मंत्री एवं जन प्रतिनिधि, मैं सेवा में भेजा है कि में राजकुमार से शासन की बागडोर आप सब का आभारी हूँ जिन्मोंने अपने विचारों के प्रकट अपने हाथ में लेने एवं विवाह करने के लिये उनकी ओर करने के पश्चात मुझे भी कुछ कहने का अवसर दिया। से निवेदन करू। राजकुमार । सारी प्रजा विवाहोत्यव में महाराज चाहते तो वे मुझे अादेश भी दे पाते थे । माता सम्मिलित होने को अधीर हो रही है। सब प्रकार से का प्यार मुझे सदा स्मरण रहेगा। संसार में एमी माताए विवाह की तैयारी हो चुकी है केवल आपकी स्वीकृति मात्र मिलना कठिन है। आपने जो कुछ भी कहा वह अक्षरशः की देरी है। सत्य है लेकिन इसी से समस्या नहीं मुलझ सकती । महामहागज सिद्धार्थ ने फिर कहा, "राजकुमार ! में तुम्हारी राज एवं माता जी को मुझे युवराज बनाने की जो चिन्ता भावनाओं का सम्मान करता हूँ। मुझे बडा गर्ग है कि है उसे भी मैं खूब जानता है । विवाह करके घर गृहस्थी राजकुमार के हृदय में पीडित, दलित एवं अपमानित एवं राज्य कार्य चलाने की उपयोगिता में भी मुझे कम व्यक्तियों के लिये दर्द है। उनकी सेवा के भाव हैं । मैं भी विश्वास नहीं है। फिर भी मैं ही तो श्रापका एक मात्र पुत्र चाहता है कि उनका जीवन स्तर ऊंचा हो । भेदभाव, छुपा नहीं हैं। सारी प्रजा ही राजा की सन्तान मानी जाती है। छत, एवं ऊंच नीच की गन्ध समाप्त हो । लेकिन ये बुराइयां यदि वह दुःखी है तो एक मात्र मेरे सुपी होने क्या हो तम्हारे शासन भार सम्हालने से जल्दी दूर हो सकती हैं। सकता है । आप सब जानते हैं कि आज देश की क्या शासन के बल पर जो सुधार हो सकते हैं वे केवल उपदेश स्थिति है। लोगों को आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियां एवं प्रचार से नहीं हो सकते । विवाह जीवन का आवश्यक कितनी विषम होती जा रही है। धर्म के नाम पर अंग है। शांत एवं सरल जीवन के लिये उसका होना पावगड एवं विवेक हीन क्रिया काण्डों का बोलबाला है। श्रावश्यक है। नारी को दिलासता की दृष्टि से ही नहीं शुद्धों एवं स्त्रियों के लिए धर्म के द्वार हो बन्द कर दिये देखना चाहिये किन्तु नारी में मनुष्य जीवन को अच्छाई की गये हैं। चारों ओर अज्ञान पर फैलाये बैठा है। शिक्षा का और मोडने की जो शक्रि है उसका भी हमें सम्मान करना पचार नहीं है। स्त्रियों की समाज में जो दयनीय स्थिति । चाहिए । मनुष्य के उच्छखल विचारों पर रोक लगाने के है वह आप से छिपी नहीं है । आज चारों और निराशा लिये नारी का होना आवश्यक है।" एवं उदासीनता के भाव दिखलाई देते हैं। लोगों में न माता त्रिशला उदास बैठी हुई थी। उसकी प्राग्वे उत्साह है और न प्रसन्नता । वे अपने आपको बेबश एवं मजल थी और स्नेह वश अपने पुत्र के मुंह के भावों को असहाय अनुभव करते हैं । यह स्थिति केवल अपने प्रदेश बार बार जानने का प्रयास कर रही थी। वे पुनः कहने ही तक सीमित हो ऐसी बात नहीं है। बल्कि सारे भारत की लगी, "राजकुमार ! माता पिता की इच्छापूर्ति करना सन्तान ही ऐसी दशा है । ऐसी स्थिति में मुझे राज्य के प्रति कोई का प्रथम कर्तव्य है। पुत्र ही वृद्धावस्था का एक मात्र अाकर्षण नहीं है और न में विवाह को जीवन विकास के सहारा होता है। यदि वही उनकी इच्छाओं का पालन लिए आवश्यक समझता हूं। मैं आज से सातवें दिन गृहनहीं करेगा तो फिर किसस आशा की जा सकती है । तुम्हें त्याग करूगा और एकान्त में बैठ कर निरन्तर चिन्तन एवं हमारी ओर भी देखना चाहिए । मनन में अपना समय व्यतीत करूंगा। इससे सास्वत सुख Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का गृह त्याग का मार्ग म्बोज कर दुखी एवं पीडित जन समूह तक उस पहुँ- नाय जिससे प्रजा भी अपने प्रिय राजकुमार का एक बार चाने का प्रयास करूंगा। मुझे रद विश्वास है कि बिना फिर से दर्शन कर सके। श्रमण-मार्ग अपनाये न नो श्रामिक सुख प्राप्त किया जा माता त्रिशला ने महाराज सिद्धार्य की बातें सुनी तो सकता है और न संपारी प्राणियों का अशान ही हटाया जा मूर्छित हो गई किन्तु महागज के निर्णय को न बदन सकता है। ऐसी स्थिति में विवाह करने एवं राज्य-भार सकी। सम्हालने का प्रश्न ही नहीं उठता है । साधु बनने का नाम सुनते ही माना त्रिशन्ना रोने लगी और पिता का दिल भा बैठ गया। प्रधान मंधी एवं जन चार बजे का समय । सभा-मण्डप खचा खच भरा प्रतिनिधि के मुंह पर भी उदापी हा गई। वे नहीं चाहते हुआ था । दृर तक दृष्टि डालने पर भी कहीं तिल धरने थे कि उनका सुकुमार जिसकी सेवा को मैकडों दासी दाम को जगह नहीं थी। म्त्री पुरुष रंग विरंगी पोषाकों में थे, माधु बन कर गांव २ में भ्रमण करता रहे। यटित थे । सभाम्थल की बायीं ओर संभ्रान्त कुल की मां की ममता उमड़ आई तथा गते हुए कहने लगी, जाना करने लगी. नारियां बैठी थीं तथा दाहिनी ओर मंभ्रान्त नागरिक । पुत्र, तुमने अभी केवल सुख ही सब दवा है । राज महलों मग्दार, उमराव, सामन्तगण, मंत्री परिषद के सदस्य में रहे हो । दुःख क्या चीज है इसका तुम्हें अनुभव नहीं अपनी २ पोशोकों में सजधज कर यथा योग्य स्थान पर है। गर्मी, सर्दी, एवं बरसात के कष्टों को कभी देखा सुशोभित थे। महाराज ने सभी संभ्रान्त नागरिकों को सभा नहीं। नग्न रहते हुए जंगलों में रहना नथा वहां प्राकृतिक भवन में उपस्थित होने के लिए आमंत्रित किया था। सबको प्रकागा एव मानवीय उपसर्गो को सहना अति दुष्कर है। प्राने की खुली छूट थी। नगर रक्षक भी काफी संख्या में मेरा तो हृदय इनका नाम सुनते हा थर २ कांपने लगता। थे। सभा-भवन में अपेक्षाकृत शान्ति थी। भवन तोरणद्वारों है। मैं म कठिन मार्ग पर अपने हृदय के टुकड़े को नहीं पताकाओं एवं बन्दनवारों से सजाया गया था। भवन के जाने दूगी। मध्य में एक बहुत बड़ा कांच का झाड था जिस पर मोममाता की करुण कथा को सुन कर महावीर माता से वनियां रखी हुई थी। सभा के बीचों बीच लाल पट्टी बिड़ी बड़े प्रेम एवं विनय से कहने लगे, मां तुम इसकी चिंता न हुई थी। मामने ही ऊंचा मंच था तथा उस पर तीन मखकरो । यद्यपि मैंने अभी कोई कष्ट नहीं देखा लेकिन में। मली मियां पड़ी हुई थी। सभी की आंखें प्रवेश द्वार पर इमम डरने वाला व्यक्ति नहीं हैं। जीवन में वही आगे बढ़ लगी थी। इतने में ही एक अंग रक्षक ने महाराज, महारानी सकता है जिस कष्टों एवं आपत्तियों की परवाह नहीं। एवं गजकुमार के आने की सूचना दी सब अपने २ प्रासन संसार में सभी प्राशी अभाव एवं अभियोगों से पीड़ित पर खडे हो गए तथा ज्योंहि उपस्थित जन समूह ने महाहै । तथा अधिकांश लोगों को सामान्य जीवन की सुविधाएं राज को करवन्द्व हो तीन बार नमस्कार किया त्योंहि महाराज सिद्धार्थ महागनी त्रिशला एवं राजकूमार महावीर की जयभी प्राप्त नहीं है। ऐसी स्थिति में मैं विवाह कर राज्य-सुग्य घोषणा से सारा प्राकाश गूंज उठा। भोगू यह कैसे संभव हो सकता है, महाराज श्रामन पर विराजमान हुए तथा महारानी एवं महाराज सिद्धार्थ ने कहा, राजकुमार यह में जानता हूँ राजकुमार भी अपने प्रामन पर बैठे। सिद्धार्थ अपने राजकि तुम्हारा जन्म जगत के दुखी प्राणियों के उद्धार के लिए काय वेष भूषा में थे तथा सदा की भांति आज भी उनके हमा है। लोक कल्याण ही तुम्हारे जीवन का ध्येय है। चेहरे पर उल्लास एवं प्रसन्नता थी। महारानी अवश्य हम लोग तुम्हें कितना ही प्रलोभन दें, समझायें एवं प्राग्रह उदास मालूम पड़ती थी। जब उन्होंने अपने चारों भोर को लेकिन तुम अपने विचारों में प्राडिग रहोगे । इसलिए अपनी प्रिय प्रजा को देखा तो महारानी की आंखों से प्रांस मैंने अब निश्चय किया है कि राज दरबार किया जाय तथा ढलक गये । महावीर अपेक्षा कृत गम्भीर थे यद्यपि उनका सभी प्रजाजनो के समक्ष तुम्हारे निश्चय को प्रगट किया मुख अपने निश्चय की सफलता के कारण प्रदीप्त था। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त III सभा में कुछ समय के लिए सन्नाटा रहा । महाराज संस्कृति के २४ वें तीर्थंकर हैं और जगत-कल्याण के लिए अपने प्रामन से उठे और कहने लगे, प्रजाजनो मैंने आप अवतरित हुए हैं । इसलिए मेरा श्राप लोगों से आग्रह है लोगों को यहां आज किस कारण से उपस्थित होने का कि महावीर का दीक्षा कल्याण सारे देश में बड़ी धूम-धाम निमन्त्रण दिया है यह जानने के लिए आप उत्सुक हो रहे से मनाया जाये । इस दिन सामूहिक प्रतीज्ञा की जावे कि होंगे। बात भी ऐसी ही है। आपके हृदयों में तरह २ की हम भविष्य में किसी को हीन दृष्टि से नहीं देखेंगे। न धर्म श्राशाएं अथवा आकांक्षाएँ होगी इसलिए उसे दूर करने साधन में बाधा डालेंगे और न किमी की उन्नति में बाधक के लिए ही आप लोगों को बता रहा है कि राजकुमार बनेंगे। महावीर जो गत ३० वर्षों से हमारी प्राशाओं के केन्द्र वने हुए हैं, ज्ञान साहस एवं बुद्धि में जिनकी गणना सर्व प्रथम मार्गशीर्ष सुदी दशमी का दिन था । आकाश मार होती है, अब तक जिन्होंने राज्यकार्य में मेरा हाथ बटाया एवं निर्मल था। सूर्य की किरणें न अधिक तेज थी । राजहै तथा इससे ही जो जनता के सर्व प्रिय बन चुके हैं, जिन कुमार महावीर के दीक्षा कल्याण का पावन उत्सव देखने के कुमार महावार के दाक्षा कल्याण के विवाह के दिन को देखने के लिए मेरी ही प्रजा नहीं लिए कुराहल लिए कुण्डलपुरी के बाहर अपार जन मेदनी उमड रही थी। किन्तु पास-पास एवं दूर के सभी देशों की प्रजा श्राशा भुण्ड के झुण्तु स्त्री पुरुष महावार की शोभा यात्रा में लगाए हुए है, जिनके युवराज पद अभिषेक की प्रतीक्षा में सम्मिलित होने के लिए गीत गाते हुए जा रहे थे। किसी सारी प्रजा आंखें लगाये हुए है उन राजकुमार महावीर का को कुछ चिन्ता न थी। सारा नगर तोरण बन्दनवार एवं श्राग्रह है कि उन्हें साधु जीवन स्वीकार करने दिया जाये। ध्वजा पताकाओं से सजाया गया था। रंग बिरंगी कागज की मालाओं से सारा मार्ग सुसज्जित था । गुलाब, मोगरा महाराज के इस वचन से सभा में एक दम सन्नाटा छा आदि विविध फूलों की मालाओं की पंकियों से यारा शोभा गया। सारी प्राग्वे महाराज की ओर लग गई और प्रत्येक मार्ग सुगन्धित हो उठा था । बाजार के छज्जों पर महलों के हृदय में गहरी वेदना का अनुभव हुश्रा । लेकिन इसके की खिड़कियों पर बच्चे एवं स्त्रियां हाथ में फूलमाला लिये पहिले कि उपस्थित जन समूह में से कोई आपत्ति प्रावे, हुये महावीर के दर्शनार्थ खड़े थे । सार नगर में एक अभूत. महाराज ने फिर कहना प्रारम्भ किया, मुझे यह सूचित करते पूर्व चहल पहल थी। वृद्धों के मुख से सुना जा रहा था कि हुए हर्ष होता है कि हमने उनके इस श्राग्रह को स्वीकार इस प्रकार का स्वागत अभी तक इसके पहले किसी का भी कर लिया है। आज से चौथे दिन मंगसिर शुक्ला १० हशा न दवा और सुना था। नगर के प्रत्येक चौराहे पर के दिन राजकुमार महावीर जिन दीक्षा लेंगे। वे श्रमण नगारे शहनाई एवं तुरी बज रही थी। सबको अपने प्रिय बन जायेंगे और मामाजिक धार्मिक एवं आर्थिक बोझ से राजकुमार के दर्शनों की उत्कंठा था। जनता पलक पावडे उत्पीडित समाज की सेवा में लग जायेंगे। यद्यपि हमने यह बिहाये हए थी । सभ्रान्त एवं कुलीन स्त्रियां रथों एवं पालफैसला हृदय पर पत्थर रख कर किया है लेकिन आप लोगों कियों में बैठ कर जा रही थी। को मालूम होगा कि राजकुमार महावीर एक साधारण मानव प्रात: काल के दश बजे होंगे। महाराज सिद्धार्थ एवं । नहीं हैं वे तीर्थकर हैं और उनका जन्म स्वपर कल्याण के माता विशला ने अपने लाडलं राजकुमार को आज अपने लिए हुआ है। वे नहीं चाहते कि देश तथा समाज में किमी सजन नेत्रों से खूब श्राभुषित किया । नवीन एवं बहुमूल्य भी मानव को जाति विशेष अथवा धर्म विशेष के कारण कपड़े अपने ही हाथों से पहनाये। विविध प्रकार के प्राभूषण पददलित किया जावे तथा उससे घृणा की जाये। यद्यपि पहिनाये गये। माथे पर सुन्दर तिलक लगाया गया। माता साधु जीवन अत्यधिक कठिन है। पद पद पर अनेक बाधाएँ ने स्वयं अपने पुत्र की प्रारती उतारी। पांखों में कज्जल हैं लेकिन राजकुमार ने इन सब की परवाह किये बिना ही डाला । पूरा श्रृंगार करते भी क्यों नहीं। वे तीर्थकर थे इस जीवन को अपनाना स्वीकार किया है। हमारे लिए और अहत् बनने जा रहे थे। मोक्ष रूपी तरुणी का उन्हें यह गौरव की बात है कि कुण्डलपुर का राजकुमार श्रमण वरन जो करना था। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का गृह त्याग माता पिता का चरण स्पर्श कर महावीर पालकी में अपने जीवन को पवित्र कर रहा था। अचानक आकाश से विराजमान हुए । महाराज सिद्धार्थ की प्रांवों से आंसू टपक भी पुष्प वृष्टि होने लगी। देव भी उनके दीक्षा में जो पड़े। माता त्रिशला के स्तनों से दूध झरने लगा। जिस मम्मिलित थे। एक छोटी मी बदली प्राई और लगी लाडले पुत्र को उन्होने प्राणों से भी अधिक समझ कर फुहार बरसाने मानो वह भी महावीर के गृह त्याग के कारण पाला था उसे वे ही प्राज श्रमण बनने के लिए विदा दे नेत्रों से प्रांमू बरमा रहा हो। रहे थे । राजमहल के चारों ओर गम्भीर एवं करुण बाता कुछ दूरी पर पालकी में चले ही थे कि देवों ने भी बरण बन गया था । महावीर ने सबको अभिवादन किया। , पालकी को अपने कंधों पर उठा लिया । महावीर स्कंध बन राजमहल के दामी दाम एवं परिचारिकाओं से हाथ जोड़ पहुंचे। वह सघन बन था। भंवर गुंजार कर रहे थे। कर क्षमा मांगी। सभी के नेत्र सजल थे। कोयल कूक रही थी। वे सब महावीर का स्वागत कर रहे तुरही, भेरी, घन्टा एवं झांझर की जय घोष के साथ थे। फूल खिल रहे थे और पत्ते लाल हो गये थे। महावीर महावीर राजमहल से रवाना हुए। चारों ओर जय-जयकार पालकी से उतरे । अपने साथ श्राने वाले विशाल जन समूह होने लगी । राजकुमार महावीर की जयघोष से आकाश से अन्तिम विदा ली । महाश्रमण महावीर की जयघोष मे गृज उठा। चारों ओर से पुष्प वर्षा होने लगी। महावीर मारा धरातल एवं प्राकाश गूज - ठा। शीघ्र ही उन्होंने सबसे अन्तिम पिदा मांग रहे थे। ग्थान स्थान पर उनकी वस्त्र प्राभरण उतार कर फेंक दिए और दिगम्बर हो गए। भारती उतारी जा रही थी। फूल मालायें पहनायी जाती पिद्धों को नमस्कार कर अपने हाथों से अपने फेशों को थी। तिलक किया जाता था और चरण स्पर्श से मानव उतार कर फेंक दिया और वे पर निर्गथ हो गये। * आचार्य भावसेन के प्रमाणविषयक विशिष्ट मत ( डा० विद्याधर जोहरा पुरकर, जावरा) प्रास्ताविक सिद्धान्तमारे मोक्षशास्त्रे । प्रमाणनिरूपण नाम प्रथमः तरहवीं सदी के सेनगण के प्राचार्य भावसन विद्यदेव परिच्छेदः ।। के विषय में एक टिप्पण हमने अनेकान्त के पिछले अंक शायद इसीलिए इस पर ग्रंथ में प्राचार्य ने कोई उप(दिसम्बर ६३) में प्रकाशित करवाया है । इनक विश्वनस्व. विभाग या प्रकरण नहीं किए है। अध्ययन तथा अनुवाद प्रकाश का प्रथम संस्करण जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोला- की सुविधा के लिए हमने १३. परिच्छेदों में इसे विभाजित पुर द्वारा शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है । इसके सम्पादन के किया है । इसमें प्राचार्य भावसन ने प्रमाणों के विषय में सिलसिले में प्राचार्य भावसेन के दूसरे ग्रन्थ प्रमाप्रमेय की कई वैशिष्ट्यपूर्ण मत व्यक्त किये हैं । अत: यहां कुछ विस्तार की एक तार पत्रीय प्रति हुम्मच के श्री देवेन्द्रकीनि-मठ से इस ग्रन्थ का परिचय दे रहे हैं। में हमने देखी। यह कन्नड लिपि में है । मैसूर के श्री पम- प्रमाण का लक्षरणनाभ शर्मा के सहयोग से इसकी देवनागरी प्रतिलिपि हमें प्राप्त पहले परिच्छेद में मंगलाचरण तथा अन्य का विषयहुई । इसी पर से इस प्रन्य का संपादन करने का प्रयास निशक करके दूसरे परिच्छेद में लेग्वक ने प्रमाण का सामाहमने किया है। प्रन्थ का नाम प्रमाप्रमेय सूचित किया है। न्य लक्षण सम्यक ज्ञान अथवा पदार्थ याथात्म्यनिश्चय यह श्री वर्धमानं सुरराजपूज्यं साक्षात्कृताशेषपदार्थतत्त्वम्। बतलाया है। इस विषय में उन्होंने स्वापूर्वार्थव्यवसाय अथवा सौख्याकरं मुक्तिपतिं प्रणम्य प्रमाप्रमेयं प्रकटं प्रवक्ष्ये ॥ अनधिगतार्थग्रहण जैसे विशेषण का प्रयोग नहीं किया है। किन्तु अन्तिम पुष्पिका में इस सिद्धान्तसार-मोक्षशास्त्र प्रत्यक्ष प्रमाणका प्रमाण निरूपण नामक पहला परिच्छंद बताया है। इति प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण में लेखक ने स्पष्ट या विशद परवादिगिरिसुरेश्वर श्रीमद्भावसन -विद्यदवविरचित शब्द के स्थान पर साक्षात् शब्द का प्रयोग किया है तथ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनेकान्त प्रतीत्यन्तराव्यवधान ( दूसरे किसी ज्ञानका व्यवधान न होना) यह साक्षात् शब्द का स्पष्टीकरण दिया है। परिच्छेद ३ से १० तक प्रत्यक्ष के भेदों तथा श्राभासों का वर्णन है ।. लेखक ने प्रत्यक्ष के चार भेद किये हैं- इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानम प्रत्यक्ष, योगीप्रत्यक्ष तथा स्वयंवेदन प्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष के लिए सांव्यवहारिक जैसे किसी शब्द का प्रयोग नहीं किया है। अपने आपके वृद्धि, मुख, दुख, इच्छाद्वेष प्रयत्न आदि के बारे में मन द्वारा होने वाले ज्ञान को मानस प्रत्यक्ष कहा है। योगि प्रत्यक्ष में केवलज्ञान, मन:पर्ययज्ञान तथा अवधिज्ञान का समावेश किया है। ज्ञान को अपने स्वरूप का जो शान होता है उसे स्वमवेदन प्रत्यच कहा है। प्रत्यक्ष प्रमाण का यह चार प्रकार का विभाग आचार्य की मौलिक प्रतीत होती है। हमारे अध्ययन में अन्य सूझ किसी जैन आचार्य का इस तरह का विभाजन ज्ञात नहीं हुआ। प्रत्यक्ष के प्रभास में लेखक ने संशय विपर्यास इन दो भेदों का ही समावेश किया है। अनध्यसायको व ज्ञान का अभाव मानते हैं और इसलिए ज्ञान के आभास में उसे समाविष्ट नहीं करने परोक्ष प्रमाण के मेद परोक्ष प्रमाण के भेदों में भी आचार्य ने एक नई बात जोड़ी है। स्मृति प्रत्यभिमान, तर्क, अनुमान और भागम इन पांच पूर्व प्रचलित भेदों के साथ ऊहापोह यह नया भेद उन्होंने जोड़ा है। इससे यह होता है, इसके बिना यह नहीं होता इस तरह के साधारण शान को ऊहापोह कहा है, जैसे-इच्छा पूर्ण होने पर पत्र को प्रसन्नता होती है, इच्छा अधूरी रहने पर सबको खेद होता है प्यादि । स्मृति से तर्क तक का वर्णन परिच्छेद ११ से १४ तक है । अनुमान के मेद परिच्छेद १६ से २१ तक अनुमान के छह अवयवों का पक्ष, साध्य, हेतु, दृष्टान्त उपनय तथा निगमन का वर्णन है। हेतु के लक्षण के बारे में विशेष विचार परि० २२ से २५ तक है। इसके अनुसार व्याप्तिमान परधर्म ही हेतु होता है। अन्यथानुपपत्ति को हेतु के में लक्षण चार्य ने स्थान नहीं दिया है। परि०२६ २८ तक अनु मान के मन मेदान्ययी, केवलव्यतिरेकी तथा अन्वयव्यति रेक बताये हैं तथा परि० २३ में दृष्ट, सामान्यतोदृष्ट 1 तीन मे बनाये है जिनकी व्याप्ति प्रत्य हो तथा जिसका माध्य भी प्रत्यक्ष से जाना जा सके वह दृष्ट अनुमान है, जिसकी व्याप्ति सामान्यतः प्रत्यक्ष से जानी जाये किन्तु साध्य श्रतीन्द्रिय हो वह सामान्यतोदष्ट अनुमान है, जिसकी व्याप्ति तथा साध्य दोनों अतीन्द्रिय हैं (केवल धाम मे जाने जाते हैं वह ट अनुमान है। अनुमानाभास परि० ३० से ४२ तक अनुमान के आभास का वर्णन है। इसमें प्रसिद्ध विरुद्ध अनैकान्तिक, धनध्यवसित, कामात्ययापदिष्ट तथा प्रकरणमम ये दयाभाय तथा उनके उपभेद समाविष्ट है एवं बारह दृष्टान्ताभास समाविष्ट हैं । तर्क एवं से जानी जाती परोक्ष प्रमाण के भेदों में नर्क का समावेश किया है यथा व्याप्ति का ज्ञान यह उसका स्वरूप बनाया है। परि० ४३४४ में इससे भिन्न अर्थ में तर्क शब्द का प्रयोग किया है, म्याप्ति के बल से प्रतिपक्ष को अनिष्ट बात सिद्ध करना यह तर्क का लज्ञा बतलाया है । आत्माश्रय, इतरेतराश्रय चक्रकाश्रय, अनवस्था तथा प्रतिप्रसंग ये तर्क के भेद हैं तथा मूल में शिथिलता, परम्पर विरोध प्रतिवादी की इष्ट बात मानना तथा उसकी विरुद्ध बात को सिद्ध न करना ये चार तर्क के दोष बतलाये है। छल, जातो व निग्रहस्यान परि० ४७ से ४८ तक छल के तीन प्रकारों का - वाक्छल, सामान्य छल तथा उपचारछल का परंपरागत पन है। परि० ४३ से ६६ तक चौबीस जातियों का वर्णन है। आचार्य के मतानुसार जातियों की संख्या बीस होनी चाहिए क्योंकि बसमा प्रतिदृष्टान्तसमा प्रर्थापत्तिसमा व उपपत्तिसमा तथा अनित्यसमा ये जातियां क्रमशः माध्यममा, साधर्म्यसमा प्रकरयसभा तथा प्रविशेषसमा जातियों से प्रभिन्न हैं, इस प्रकार पांच जातियां कम करके सिद्धादिसमा जाति का अधिक समावेश करते हैं। परि० वे ७० तक बाईस निग्रह स्थानों का परंपरागत दर्शन है । परि० ८५ में छल आदि के प्रयोग के बारे में निर्देश दिये हैं । (शेष पृष्ट ३४ पर) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक उपन्यास दिग्विजय प्रानन्द प्रकाश जैन, जम्बूप्रसाद जैन वैजयंती नरेश अपनी पुत्री को अपने डेरे में ले पाए। कुछ देर बाद दस अंग रक्षकों के प्रश्व राजनंदिनी के वह अपनी बटी की उद्दडता से बहुत अधिक कुपित रथ के पास कसे कसाए अपने सवारों को पीठ पर लिए खड़े थे। उन्होंने राजनंदिनी का इस स्वेच्छाचारिता की अवहेलना थे। राजनंदिनी ने पिता के पांव छुए और एक दीर्घ प्राशीकरते हुए कहा, 'हमने तुम्हें बाहुबली के पास जाने की अनु- दि लेकर वह रथ पर चढ़ गई । रथ गतिवान होकर कटक मती दो थी न की चक्रवर्ती के पास जाकर उनका अपमान से बाहर निकला, और क्षण भर में ही उसके प्रश्व हवा से करने की। बातें करने लगे। राजनंदिनी पिता की ताड़ना चुपचाप पी गई । उसका सुबह हो गई, किन्तु रथ का चलना नहीं रुका, राजहृदय क्रोध, लज्जा, और प्रतारणा की भावना से अंदर- नंदिनी ने उनींदी आंखों से सारथी की मोर देखा, उस ही अंदर जल रहा था। वह कहत देर तक नीचे की ओर दृष्टि में प्रविश्वास और संदह का पुट था। उसने चिल्ला देखती रही, कुछ देर बाद उसने कहा । 'में जाने की आज्ञा कर कहा । 'सारथी, अभी बाहुबली का कटक नहीं चाहती हूं, पिता जी। माया ।' वैजयंती नरेश ने कहा । 'हमारी बहुत हंसी उड़ चुकी वायु का तीव्र वेग उसके स्वर का अधिकांश अपने साथ है। अब हम तुम्हें कहीं जाने की प्राज्ञा नहीं दे सकने ।' उड़ा ले गया। किन्तु सारथी ने उसका स्वर सुन लिया राजनंदिनी बिलख उठी । 'मैं उनसे एक भेंट तो अव- था। उसने रथ रोक लिया और अत्यन्त विनीत वाणी में श्य ही करूंगी, पिता जी।' बोला । 'देवी, अपराध क्षमा करें, अब महाराज बाहुबली वैजयंती नरेश ठक् से खड़े रह गए । 'लेकिन, बेटी, का कटक कभी नहीं आएगा, हमें तो महाराज ने आपको अब तुम कहां जाना चाहती हो?' वैजयंती ले जाने का मादेश दिया है।' 'महाराज बाहुबली के पास ।' राजनंदिनी का संक्षिप्त राजकुमारी की आंखों में लाल डोरे खिंच गए. क्षोभ मा उत्तर था। और परिताप से वह कांपने लगी। 'वैजयंती 'नहीं,नहीं सवयोग में वैजयंती नहीं जा सकती, हा पिता जी.. यह आपने यह रातके समाप्त होते ही युद्ध का प्रारंभ हो जाएगा। क्या किया ।' जब तक युद्ध समाप्त न हो, तुम यहां कटक में रहो।' न होतम यहां कटक में रहो। किन्तु पिता ने वही किया था, जो उन्होंने अपनी पुत्री 'नहीं, पिता जी, यह मेरे जीवन की पहली और अंतिम के लिए शुभ समझा था। साध है।' राजनंदिनी ने निश्चय के स्वर में कहा । 'यदि राजनंदिनी रथ से कूद पड़ी, उसने कुपित स्वर में यह पूरी न हुई, तो मैं मर जाऊंगी।' कहा, 'जाओ रथ को लौटा ले जामो, पिता जी से कहना वैजयंती नरेश ने हताश दृष्टि से पुत्री के मुख की कि राजकुमारी हमें अकेला छोड़ कर अपने पाप भाग्य के ओर देखा, कुछ सोचा, फिर शान्त स्वर में उन्होंने कहा, भरोसे चली गई है।' 'अच्छा अगर तुम जाना ही चाहती हो, और अभी जाना , अंगरक्षक घोड़ों से उतर पड़े । सारथी हाथ बांध कर चाहती हो, तो हम प्रबंध कराए देते हैं।' और बिना राज- पृथ्वी पर गिर पड़ा, 'महाराज हमें कभी जीता न छोड़ेंगे। नंदिनी की ओर देखे ही वह शिविर से बाहर निकल गए। राजकुमारी, हम पर दया कीजिए, वैजयंती चलिए।' Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त राजकुमारी ने दृढ़ स्वर में अपने आंसू पोंछते हुए कहा, उत्तर मिलता था । किन्तु माथ ही दूसरी ओर से जाने तो 'नहीं, सारथी, इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं माना कैसा असंतोष उसके मन में शूल की तरः चुभ चुभ जाएगा महाराज तुम्हें कुछ नहीं कहेंगे, जो भी हो, मैं जाता था। वैजयंती नहीं जाऊंगी।' कब राजनंदिनी इन्हीं विचारों से थक कर रथ के हिचराजनंदिनी को अपनी जिद पर अटल जान कर सारथी __ कोलों में सो गई कुछ पता नहीं चला, किन्तु जब उसकी ने उसे फिर वापस कटक में ले चलने का प्रस्ताव किया। प्रांखें खुलीं रात हो चुकी थी और रथ खड़ा था । उस दिन राजकुमारी ने यह सोचा कि जंगल में भटक कर भी वह वाह- युद्ध भूमि में भी सुबह हुई थी। बली के पास नहीं पहुँच सकती, यदि पिता जी का कहना दोनों पक्षों की सेनाएं एक दूसरे के आमने सामने सही था. तो अगला दिन हो गया है और अब तक भरत या खड़ी हुई, एक ओर भरत की विशाल वाहिनी थी। और बाहुबली की सेना का संग्राम छिड़ चका होगा. यदि दूर तक सजे हुए हाथियों की असंख्य कतारें दिखाई देती वह बाहबली से जीते जी मिलना चाहती है, तो उसके लिए थीं । अनगिनत रथों पर बालरवि की चमचमाहट से अांखें यही शुभ होगा कि वह उन लोगों के साथ वापस चल पड़े, चौंधिया जाती थी। अश्वों पर शस्त्रों से सुसज्जित योद्धाऔर युद्ध भूमि के पास पहुँचने पर अपना कर्तव्य फिर से गण साक्षात् कालदूत से प्रतीत हो रहे थे, और जहां तक निश्चित करे, उसने सारथी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, दृष्टि जातो थी पैदल सिपाहियों के व्यवस्थित समूह दृष्टिऔर रथ तुरन्त ही उसे लेकर वापस लौट चला। गोचर हो रहे थे। यह यी भरत की वह चतुरंगिनी, जो रथ के पहियों के घरड़-घरड़ के साथ राजनंदिनी के कभी अयोध्या से परिणी बन कर निकली थी, और प्राज विचारों के धौंसे उसके मस्तिष्क में बजने लगे। अब क्या सागर हो गई थी। होगा यही संशय उसके मन में बार बार रह रह कर उठने दूसरी ओर बाहुबली की सेना थी, जो चक्रवर्ती की लगा। उसके पिता ने उसे धोखा दिया था, किन्तु पिता का चतुरंगी के सामने बड़ाई छुटाई का एक अपूर्व दृश्य उपस्थित कर रही थी। सब से भागे अश्वारोही दल की एक लम्बी दिया हुआ धोखा कभी धोग्वा नहीं कहलाता, संसार यही ' पंकि थी। उसके पीछे एक ही पंकि हाथियों की थी। रथ समझता है कि उन्होंने जो कुछ किया अपनी बेटी की भलाई यत्र-तत्र ही नजर प्राते थे और पैदल संनाएं हाथियों के के लिए किया । बाहुबली के प्राण जाएं चाहे रहें, किन्तु राजनंदिनी के प्राण वचाना उनका पहला कर्तव्य था, इम दीर्घ शरीरों की ओट में दिग्वाई ही नहीं दे रही थीं। किंतु कर्तव्य पालन में उन्होंने राजनंदिनी के मन को कितना दु.ख चक्रवर्ती की सेनाओं के सामने बाहुबली ने अपनी छोटी मी पहुँचाया था इसका लेखा जोखा प्रासानी से लगने वाला सना का अद्रत व्यूह रचा था। उसी समय चक्रवर्ती का विशाल और बलिष्ठ हाथी नहीं था। उन्मत्त पगों से भरत को एक ही नजर में अपनी तथा बाहुक्या जब तक रथ युद्ध भूमि में पहुंचेगा बाहुबली बली की सारी सेनाओं का निरीक्षण कराता हुश्रा चतुरंगिनी अपने नन्हें से बल से चक्रवती का सामना करते रह सकेगे? के आगे पाया. बीच में पाकर चक्रवर्ती ने रणभेरी बजाने यदि रथ रात के समय वहां पहुंचा, तो क्या युद्ध समाप्त का इशारा किया। न हो चुका होगा ? क्या चक्रवर्ती के साथ किया हुआ जोरों से रणसिंघे की आवाज चारों दिशाओं में गूंज किसी छोटे मोटे राजा का रण एक दिवस के पश्चात् भी गई। साथ ही भरत के महारथी उसके चारों ओर पाकर अनिर्णय की दशा में रह सकता है ? पाह, क्या वह इसी एकत्र हो गये, दोनों पाश्चों से हाथियों के समूह उन्नत जीवन में इन्हीं प्रांखों से फिर एक बार बाहुबली को देख शिखर पर्वतों की नाई तेजी से भागे बढ़ । रण कौशल से सकेगी? बाहुबली की अश्व पंक्ति दोनों किनारों की ओर फैल गई राजनंदिनी के हृदय में ये सब प्रश्न उठ कर भयानक और साथ ही प्राधा प्राधा भाग दोनों किनारों पर सिमटता अांदोलन का सूत्रपात कर रहे थे एक अोर से उसे हां में दिखाई दिया। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्विजय २७ हम दश्य को ले कर भरत के मन में भीषण उथल- सहसा भरत का हाथ ऊँचे उठा । ठहरो।' पुथल का सूपात हुचा, बचपन की स्मृतियों ने एक बार क्षण मात्र में बढ़ती हुई सेनाएं जहां की तहां जब हो फिर उसके मानस पटल पर अंकित हो कर उछल कूद गई । खड्ग जहाँ उठे थे वहां रुक गए, चारों भोर मादेश मवाना प्रारंभ कर दी, कहां वह बाहुबली को खेल खिलाता यंत्रों की तरह पालन किया गया । चक्रवर्ती के सामने मा था, उसका हाथ पकड़ पकड़ कर उद्यान की सैर कराता था। कर महासेनापति ने पका। 'पाज्ञा, सम्राट । पोदनपुर की विजय के बाद किस प्रकार दोनों भाई गले चक्रवर्ती ने श्राज्ञा दी । 'महासेनापति, युद्ध बन्द करो, मिले थे। कैपे उसने बाहुबली को पिता के साथ ही वैराग्य महावत, हमें बाहुबली के सम्मुख ले चलो। लेने से हठपूर्वक रोका था। स्नेह, स्नेह, स्नेह, इस रक कुछ ही समय के भीतर भरत का हाथी रणभूमि के प्लावित हो जाने वाली भूमि में इस एक शब्द से बोध बीचों बीच पहुँच गया । उधर से जब बाहुबली ने भरत होने वाले महान् सांसारिक तत्व का सर्वथा अभाव दिखाई को पाने देवा, तो उसका हाथी भी सेना की पंक्तियों के दे रहा था। उसके साथ ही राजनंदिनी के अद्भुत प्रभाव- बीच में से निकला और दोनों भाई आमने सामने मागए। कारी शब्दों ने ठीक उसकी आंखों के सामने उसके कृयों बाहुबली ते कहा । 'भैया को प्रणाम ।' की कालिमा का नग्न चित्र उपस्थित करना प्रारम्भ कर भरत ने प्रसन्नता से फूल कर कहा । 'चिरायु हो, दिया, क्या कहा था उसने । 'पार क्या कहेगा, पाने बाहुबली, तुमने हमें प्रणाम किया। हमें तुमसे यही प्राशा वाली संतति क्या कहंगी · भरत अयंग्य सेना लेकर भाई थी। प्राओ, गले मिले, युद्ध किस बात का?' भरत ने पर टूट पडा । जो स्वयं मिटने को तैयार है उसका अहंकार बांहें फैला दी। मिटता नहीं पूजा जाता है भरत अपने अहंकार से बाहु- 'यहां भूल गये, भैया । यह छोटे भाई को प्रणाम है, बला का अहंकार मिटाने चला है । एक कभी न मिटने राजा बाहुबली का भरत चक्रवर्ती को नही ।' बाहुबली ने वाला धब्बा सम्राट की कुल कीर्ति पर लग जाएगा।' राज- साभिमान वहा । नंदिनी के साथ हुआ समस्त वार्तालाप वातावरण में मजीव क्यों?' भरत ने कहा 'क्या तुम्हें हमारे चक्रवर्ती ध्वनि बन कर छा गया । होने की खुशी नहीं है ? क्या भाई को भाई का वैभव नहीं सुहाना ?' क्षण क्षण में एक दूसर के रक्त की प्यासी सेनाएं समाप्त भैया, तुम्हारे भाई की दृष्टि में वैभव का कोई मूल्य होती जा रही थीं और भरत की मानसिक कल्पनाओं में नहीं है में वैभव को सिर नहीं झुकाता विनय को सिर युगों-युगा का मेचिन ग्मृतियां बृहदाकार रूप धर कर तांडव मुकाता हूँ।' नृत्य का आयोजन कर रही थीं। अद्भुत है मानव का मन तो क्या तुम चाहने हो कि संसार हमारी हंसी उड़ाए जिममें युग नणां के समान लगते हैं और एक क्षण और कहे कि भरत से जगत का मन तो जीता गया, किन्तु में काल की ओर छोर समा जाता है थोड़ी ही देर में ___ भाई का मन नहीं जीता गया ? बाहुबली की यह नन्हीं मी सना अपना सजीव और सज्ज्ति 'सेनामों के मन नहीं जीत जाते, भैया, सिर जीते जाते रूप त्याग कर पृथ्वी पर बिछ जाएगी। चारों ओर खून ही खून दिखाई देता होगा, सुन्दर और शांत जीवन कैसा एक ' 'क्या तुम पसंद करोगे कि तुम्हारी एक भावना के लिए घृणास्पद और बीभत्स मृत्यु के रूप में परिवर्तित हो जाएगा, इतने जीते जागने मनुष्यों के सिर कट जायें ? भरत ने बाहुतब भरत किससे कहेगा तू मेरी प्राज्ञा मान ? भरत किमस बलि की सेनाओं को इंगिन किया। कहेगा तू मेरे प्राधीन हो, तू मुझे नमस्कार कर ? सब दिग्विजय की दीवार जीने जागते मनुष्यों के रक्त कुछ ही तो समाप्त हो जाएगा, हां बच रहेगा भरत के और मांस से ही खड़ी होती है। इतने मनुष्यों की भेंट तो लिए अपयश और पश्चाताप की ज्वाला, भरत के जल सागर में बूद के समान होगी। फिर भी अपने भैया जैसे मरने को। देवता को मैं यह बलि देने के लिए प्रस्तुत हूं।" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अनेकान्त किसी तरह भी बाहुबली को मानते न देख कर भरत जय पराजय का निर्णय करने के लिए तीन बड़े राजाओं चितामग्न हो गया। अंत में उसने कहा, 'इम मागर में की एक मंडली चुनी गई, रणभेरी फिर एक बार बजी, दोनों अब और बूदे नहीं गिरेंगी, बाहुबली । जो गिर चुकी हैं भाई एक साथ अपने २ सिंहासनों से उठे और बीच मैदान उन्हीं में हम इब गए हैं। हमने सोचा कि दिग्विजय से में पा गए । फिर एक बार जयघोष के नारों से आकाश रोज रोज के रक्त पात बन्द हो जाएंगे, किन्तु स्वयं तुम ही गूंज उठा, दोनों महाबलियों ने अपनी २ तलवारें खींच हमारा विरोध करोगे इसकी प्राशा तो स्वप्न में भी न थी।' लीं एक साथ आकाश में दो बिजलियां सी तड़क उठीं, और बाहुबली अविश्वास के कारण चुप रहा, कुछ क्षण लोहे पर लोहे का प्रहार हुअा। फिर निरंतर प्राक्रमणों का बाद भरत मे विचार पूर्वक प्रस्ताव किया। 'हम चाहते हैं एक तांता बंधा, यहां तक तलवारों का आकार तक दिवाई कि इच्वाकु वंश को जो गौरव मिला है वह इच्वाकु वंश देना बंद हो गया। सूर्य प्रकाश में और ऊंचे चढ़ता गया में ही रहे और रक्त भी न बहे।' ताकि ठीक बीच में पाकर वह अपूर्व मंघष को देख सके । 'इसका अर्थ क्या है, भैया ? में नहीं समझा।' भरत और बाहुबली पसीने पीने हो गए कब किसका सिर पृथ्वी पर प्रा गिरेगा कुछ पता नहीं लगता था, चारों 'यह झगड़ा हमारा प्रापस का है।' भरत ने उन्नत दिशाएं स्तंभित हो गई थीं। मस्तक हो कर कहा । 'हम आपस में भी लड़ कर उसकी हार जीत का निर्णय कर लें।' सूर्य ने फिर एक बार मुकना प्रारम्भ कर दिया था। इतनी देर के युद्ध के बाद भी जब हार जीत का कुछ निर्णय 'और उस चतुरंगिनी का क्या होगा ? बाहुबली ने असीम आश्चर्य से पूछा ।' नहीं हुआ, तो पंचों ने एकमत होकर दोनों वीरों को बराबर ठहराया। चतुरंगिनी तुम्हारे ऊपर प्रहार नहीं करेगी। वह हम दोनों भाइयों की लड़ाई का तमाशा देखेगी, और हम में युद्ध बंद करने का डंका बजा और दोनों भाईयों ने तलवारें म्यानों में कर ली, भरत और बाहुबली एक दूसरे से जो जीतेगा वही उसका स्वामी होगा, वही चक्रवर्ती से कुछ दूरी पर खड़े हांफने लगे सहन्या बाहुबली ने दृष्टि होगा । पराजित भाई विजेता भाई को उसका मान देगा।" _ 'भैया ।' बाहुबली हर्ष और विस्मय से लगभग चीग्व उठाई । भरत उमकी ओर प्रेममयी दृष्टि से देख रहा था। उठा । मन ही मन उसने भरत की उच्चता की सराहना भरत अपने हाथ बना कर स्वयं दो पग भागे श्राया और की। भाई भाई के गले से लिपट गया। दोनों की बाहों के जब दोनों ओर की सेनाओं ने उपयुक्त निर्णय सुना, यत्र तत्र बिखरे घावों के रक्त मे दो पतली मी धाराएं तो वे हर्ष और उल्लास में डूब गई । चक्रवर्ती भरत का निकलीं और एक दूसरे से मिल कर पृथ्वी पर चू गई। जय, महाराज बाहुबली की जय के नारों से प्राकाश गूंज कुछ समय बाद दृष्टि युन्द्र का प्रारम्भ हवा । सूर्य को उठा। बाएं रुख कर दो बराबर ऊंचाई की स्वर्ण चौकियों पर भरत द्वद्व युद्ध तीन प्रकार से होना निश्चत हुश्रा : और बाहुबली प्रामीन हो गए। धीरे-धीरे दोनों भाइयों और बाहुबली भापनि हा दृष्टि युद्ध, मल युद्ध, और खड़ग युद्ध । सेनानों में इसकी की दृष्टियां उठी और एक दूसरे में उलझ गई, सूर्य मुकता घोषणा हो गई । एक छोटे से मैदान को घेर कर दोनों गया, मुकता गया, किन्तु पलकें जो एक बार उठीं, तो फिर भोर की सेनामों का जमघट लग गया। सामने ही चक्रवर्ती नहीं झुकी। देखते देखते भरत की शांवों में पानी भागया, का सिंहासन था, जिसके दोनों ओर आमंत्रित राजाओं को दो बूंद प्रांसू उसकी अांखों से गालों पर दुलक गये। भासन देकर सम्मानित किया गया था, दूसरी ओर बाह. भरत इस बार हार गया। बली का सिंहासन ठीक चक्रवर्ती के सिंहासन के सामने था, पंचों ने इशारा किया, युन्द्र समाप्त होने का डंका बजा और उसके समीप ही महाराज वज्रबाहु का प्रासन रखा और भरत पलक झपका कर उठ गया। किन्तु बाहुबली, हुना था। वाहुबली अब भी दृष्टि सीधी किए ज्यों का त्यों स्थिर बैठा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्विजय २६ था, भरत उसके पास तक पाया, उपके कंधे पर हाथ रखा सारा आधार और जिनके द्वारा कमाई माल संपदा सब और दूसरे हाथ की हथेली उसके मुंह पर फेर उसकी इसी दुनिया में छूट जाएगी। पलकें बन्द कर दी। बाहुबली भरत को लिए अखाड़े से बाहर आया चारों बाहुबली की सेना ने 'महाराज बाहबली की जै' का और 'महाराज बाहुबली की जे' का स्वर मुखरित हो उठा, घोष किया, किन्तु भरत की चतुरंगिनी चुप थी । भरत ने भने किन्तु बाहुबली इस से विचलित नहीं हुया । उसने चक्रकहा, 'हमारी सेना चुप क्यों है ? कहो' महाराज बाहु वर्ती के सिंहासन के पास जाकर भरत को उस पर प्रतिबिंबत बली की जय' और महाराज बाहबली की जय के घोष से करते हुए प्रतिष्ठित कर दिया । बाहुबली के जयघोस से मानों समस्त वायुमंडल व्याप्त हो गया। फिर वातावरण ध्वनित हो गया। मल्लबल युद्ध का समय आ गया अखाड़ा तैयार था। भरत तुरन्त सिंहासन से उतर पाया। 'अब यह सिंहाभरत और बाहुबली लंगोट कसं अखाड़े में खड़े थे, मारू सन हमारा नहीं रहा । बाहुबली, तुम जीते हो इस बाजा बजना प्रारम्भ हश्रा और दो मस्त गजों की तरह वे तुम्हारा अधिकार है।' एक दूसरे से भिड़गए दोनों मल्ल युद्ध की कला में पारंगत 'बाहुबली तो उसी समय हार गया था, जब भैया ने ये । दाव चल रहे थे, लेकिन लग कोई नही रहा था। चतुरंगिनी के बढ़ते हुए कदम रोक दिए थे। बाहुबली ने शरीरों से स्वेद कण फूटने लगे थे और मिट्टी उन से चिपट शांत वाणी में उत्तर दिया। गई थी। भरत ने कहा । 'हार को जीत कहने से हार जीत नहीं अचानक बाहुबली ने पैतरा बदला, और उसने फरती हो जाती । अब पाओ, बाहुबली, यह राज्यलक्ष्मी तुम्हारी से भरत को अपनी हथेलियों पर रख कर ऊँचे प्राकार में है, इसे सम्भालो।' उठा लिया। बम, भरत पृथ्वी पर गिग और सब कुछ 'जो तुम्हें छोड़ कर मुझ से लिपटना चाहती है उसे समाप्त हो जाएगा। किन्तु कितनी ही देर तक भरत बाहु- मैं संभालू, ना भैया, यह वश्या तुम्हें ही मुबारक हो।' बली के हाथों पर रहा, लेकिन बाहुबली ने उसे भूमि पर बाहुबली ने रद स्वर में कहा। नहीं पटका । इस बीच में बाहुबली के सामने विचारों की भरत द्रवित हो गया । 'बाहुबली, इससे तो दुनिया बस गई। अच्छा था कि तुम मुझे भूमि पर ही पटक दते । तुमने इस जिस भाई ने उसे पकह २ कर चलना सिखाया, जिस सिंहासन पर बैठा कर मुझे भूमि के भी नीचे गाढ़ दिया है, भाई की गोदी में पल कर वह बड़ा हुआ, जिस भाई ने अब मुझे उबारी, बाहुबली, प्रायो, अपनी चीज ले लो।' उसके प्रेम के वश होकर अपनी अजेय और विशाल मना 'भैया' बाहुबला ने एक और महत्वपूर्ण और चौंका को एक श्रोर खडे होकर तमाशा देखने के लिए छोड़ दिया देने वाली घोषणा की, 'मुझे अब अपना ही राज्य नहीं क्या वह उसी भाई को पृथ्वी पर पटकेगा? चाहिए, तुम्हारा ले कर मैं क्या करूंगा? मैंने अपना भूला कितनी चंचला है यह लक्ष्मी । भरत ने इसके लिए पथ पकड़ने का निश्चय किया है, भैया, मैंने पिता जी का लाखों का खून बहाया, लाखों को चे घर बार किया. वो पथ पकडने का निश्चय किया है। गर्मी सर्दी मही, किन्तु अभी उसके उपभोग करने का बाहुबली की बात सुन कर भरत चौंक पड़ा, वैराग्य समय भी नहीं पाया था कि वह उसे नगर नारी की तरह यही वह शब्द था, जिसने उसके प्रत्येक इरादे के साथ, छोड़ कर चला जाने के लिए तैयार है। धिक्कार है ऐसी बाहुबली के सम्बन्ध में प्रत्येक विचार के साथ, और उसकी धन सम्पदा पर, एक दिन आएगा, जब न भरत रहेगान भावनाओं के साथ भीषण द्वद्व किया था। बाहबली बाहुबली, केवल उनकी अस्थिरता और निःसारता पर हंसनी अपनी भावनाओं में मग्न होते हुए चल रहा था। हुई यह दुनिया रह जाएगी और उनके किए हुए कमों का यह कुटुम्ब एक वृक्ष है । संध्या होते ही इस पर तरह एक ऐसा लेखा उनके साथ बंधा चला जाएगा, जिसका तरह के पक्षी पाकर बैठ जाते हैं । रात भर वे एक दूसरे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त की भावना प्रों में बसे रहते हैं । सवेरा होता है और पक्षी 'जरा सोचो तो तुम क्या क्या छोड़ कर जा रहे हो. बाहबली, उड जाने हैं। अब मरा हो गया है, भैया, अब में जा तुम्हारे पास क्या नहीं है ? दुनिया में सबसे प्यारा भाई तुम्हारे रहा हैं। और में तुम्हारी समस्त भावनामों के लिए, तुम्हारी पाप है। संसार के सारे सुख जिस संपदा से खरीदे जाते हैं स्नेहमयी भावनाओं के लिए तुम्हें धन्यवाद देता हूँ।' वह लचमी अाज तुम्हारे चरणों की दामी है । तुम्हारे पसीने भावावेश में भरत चिल्ला उठा। 'बाहुबली, बाहुबली।' पर अपना खून बहा देने वाले मित्र तुम्हारे इशारों की राह बाहुबली ने शांत स्वर में कहा । 'भरत, भैया, हम देखते हैं । संसार का श्रेष्ठ नारी रन्न तुम्हारे पीछे दीवाना है, और तुम क्या चाहते हो, बाहबली ? और तुम एक ही राह के दो मुसाफिर थे । हम भाई-भाई थे, अब दाराह पा गया है। हमारी मंजिले एक दूसरे से बाहुबली ने हंस कर कहा, 'वज्रबाह, मित्र, मैं संतोष अलग अलग हैं, दर है, प्रायो हम गले मिल कर सम्मान चाहता है।' से विदा लें। हमारा साथ यहीं तक था।' इस एक उत्तर में क्या क्या निहित था उसे वज्रवाह ने समझा, भरत ने समझा, किन्तु विशाल काति का तरुण ___ म्वप्नचारी की तरह भरत भावातिरेक से बोला, 'नहीं, हृदय उमं न समझ मका, उसने कहा, 'संताप भी तो इसी बाहवली, मा न कहो, अभी दोराहा दर है, तुम नहीं। संपदा से मिलता है, चाचा जी।' मानते, तो हम तुम साथ एक ही सिंहासन पर बैठेगे, मिल कर राज्य करंगे, मिल कर उसका त्याग करेंगे, हम दोनों साथ- बाहचली उपकी ओर दम्ब कर मुम्कराए, 'नहीं, संतोष साथ तप करेंगे, और एक ही साथ २ संसार बंधन को काट इन वस्तुओ से नहीं मिलता, पुत्र । भरत ने पृथ्वी जीती, कर वहां जाएंगे, जहां से फिर पाने का कष्ट उठाना नहीं वह अपने दिल पर हाथ रखे और उमस पूछे क्या उसे पडता ।' मंतोष मिला है, तुम उपके युवराज हो, बनायो तो, क्या तुम्हारा मन कभी एक क्षण को भी व्याकुल नहीं हश्रा है ? याहुबली ने कहा 'भैया, तुम दुखित क्यों होत हो, गरचा संताप तो त्याग में है, विशाल, राग में नहीं।' इस संसार में कब किमी का ऐसा माथ हुश्रा है ? अपना शरीर ही अपना माथ नहीं देता । रोग प्राता है, तन ढह फिर विशालकीर्ति के कंधे पर एक हाथ रख कर दूसरा जाता है, बुढ़ापा पाता है झुक जाता है, यह पानी का बुल- हाथ वज्रबाहु के कंधे प ररखने हए बाहबली ने वज्रवार को बुला है, हवा अाती है यह फुट जाता है।' ल च्यकरते हुए कहा, 'महाराज बज्रवाह, हो सके तो मान का भरत ने बाहुबली के सामने घुटने टेक दिए । 'बाहुबली त्याग करना, इस से तुम्हें सुम्ब होगा, सबको सुख होता है।' अब तक मैं तुम्हें एक अभिमानी राजा ही समझता था। श्रार उन्हान वज्रबाहु के हाथ में विशालकीति का हाथ द तुम कितने महान् हो यह श्राज ही जाना, तुम मर छोटे दिया। भाई नहीं हो, मुझसे कहीं बड़े हो, संसार से बड़े हो । में भरत इस व्यवहार को कुछ भी न समझ सका, बाहेतुम्हारी पूजा करता हूँ। बली ने उसका हाथ पकड कर इस बंधे हुए एक जोड़ी बाहुबली एक हाथ से अपनी आंखों के अंतिम स्नेहाथ हाथों पर रखते हुए कहा, 'भरत, तुम संरक्षक हो, विशाल पोंछने हुए भरत को उठा रहे थे । सारा रणक्षेत्र बाहुबली को बहू मिलेगी और तुम्हें पुत्र वधू मिलेगी, अयोध्या को की जय के नारों से गुजायमान हो रहा था। क्षण भर में उसकी युवराज्ञी मिलेगी। पाया ऐसा पलट गया था, जिसकी ओर किसी का अनुमान भरत, वज्रबाह और विशाल कीर्ति के नेत्र हर्ष, विशाद भी न जा सकता था। बाहुबली ने शपने वस्त्र उतार दिए और अाकस्मिक चमत्कार से प्रभावित से होकर स्थिर हुए थे। सब कुछ देख रहे थे, किन्तु जो कुछ भी हो रहा था उसका वज्रवाह मित्र का अकस्मात् परिवर्तन देख कर विमुढ अर्थ किसी की भी समझ में भली प्रकार नहीं पा रहा था, हो गए थे। इसलिए अब तक उनकी जबान से एक भी जसे नियति अपने पास में भविष्य को बांध कर पलायन शब्द नहीं निकला था। किन्तु अब उन से न रहा गया, कर रही हो, इस प्रकार सब ने बाहुबली के सामने सिर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग्विजय ३१ भकाया और उसके बचनों के जो भी अर्थ निकलने थे उसकी भूल थी, इसके बाद जो समाचार वह सुनने जा उन्हें हृदयंगम करने की चेष्टा करते हुए मन ही मन उन्हें रही थी उसके लिए उसके पास और आंसुत्रों का पानी भविष्य में पालन करने की प्रतिज्ञा की। कहां से पाएगा? नहीं पाएगा, तो किस प्रकार उसके प्राने सांयकाल हो रहा था। सूर्य अपनी किरणें समेट कर वाले दुःश्व का निवारण होगा? कहीं और उदित होने जा रहा था, उसने इस दुनिया का अंत में वैजयंती नरेश ने कहा, 'महाराज भग्न को तमाशा दग्व लिया था, अब वह दृपरी दुनिया का तमाशा चक्रवर्ती पद दे कर विजेता बाहबली ने वैराग्य ले लिग देखेगा, किन्तु संभवतः उसे पंदह था कि वह इतना हृदय- है, बेटी।' ग्राही मनोरंजन कहीं और भी प्राप्त कर सकेगा या नहीं। पिता के ये शब्द सुन कर राजनंदिनी जहां की तहां मंनिकों की आंखों से प्रांमुत्रों की धार बह कर सूख जड़ हो गई, कुछ समझ में नहीं पाया कि वह क्या सुन गई थीं । कुछ लोगों ने बाहबली के साथ ही वम्य त्याग रही है. कछ समय तक प्राग्वे फाई शून्य में ताकती रही किया था, कुछ लोग भविष्य में करने की प्रनिज्ञा ले रहे थे, फिर महमा वह चिल्लाती हुई भागी : 'नहीं नहीं, ऐसा पूजा के उपकरण सजाए जा रहे थे । और कुछ लोग महा- नहीं हो सकता, मैंने सपने में भी तुम्हारी पूजा की है, बली बाहबली की आरती उतार रहे थे। मैंने तुम्हें सदा अपने हृदय में संजो कर रखा है - 'एक क्षण एक ओर वाहबली वन गमन कर रहे थे, दमरी और भी मैंने अपने मन को कहीं भटकने नहीं दिया है। संसार लाग्यों मनुष्य एक आंख से हंगत एक प्रांव से गेंने उन्हें में सबको अपनी अर्चना का फल मिलता है.""मुझे भी अन्तिम विदा दे रहे थे । विशाल की आंखों का पानी थमने मिलेगाह 'तुम इतने निर्मोही नहीं हो सकते..., और में ही नहीं पा रहा था और वज्रबाह उसके कंधे पर हाथ उपके साथ २ उपका म्वर भी लोप होने लगा। रखे उमे दिलासा देने का निष्फल प्रयत्न कर रहे थे। राजनंदिनी की दशा जिमने देखी उसने एक बार राजनंदिनी जब वापस कटक में पहुंची, अाकाश पर अपनी प्रांखों की कोरों को पोंछा, उसके पिता किं कर्तव्यचंद्रमा का प्राधिपत्य हो गया था, और तारागण उपके विमृढ हुए अपने दुर्भाग्य का तमाशा फटी आंखों दग्वन रहे, भाग्य पर एक विशाल सम्मेलन कर रहे थे। ज्योतिषी के शब्द उनके कानों में शीशे की तरह पिघलने लगे ___ पुत्री को वापस दग्व कर वैजयंती नरेश ठक में रह राजकुमारी के भाग्य में पति मुग्व नहीं है . 'राजकुमारी के गए. गह में कितनी दर जाकर क्या हश्रा होगा यह महज । भाग्य में पति मुम्ब नहीं है..." ही कल्पना कर लेने की बात थी, क्यों गजनंदिनी वैजयंती न पहुंच कर वापस था गई थी यह भी कोई नितांत लिपी राजनंदिनी को इस समय बंधु-बांधव किमी का विचार हुई बात नहीं थी, और जो बान इननी स्पष्ट थी उसका नहीं रह गया था। उसके प्रचंतन मन में केवल एक बात सुग्वद परिणाम मनुष्य के हाथों से कितनीर निकल गया जूम रही थी। उसने अपने ममम्त मनको एकाग्र करके था यह भी साफ ही था, उनके मुह से केवल इतना जिपको चाहा है उस में उसे स्यागन की शक्ति नहीं हो निकला : बेटी। सकती. अभी कुछ देर पहले उसने वैराग्य का महान स्वरूप राजनंदिनी को पिता पर क्रोध था, यह कांध केवल दवा था, अब वह राग की प्रचडना देख रहे थे । और लिर भुका रहे थे, क्या इस राग की भाग में वाग्य का तंज मान का क्रोध नहीं था, इसमें मल्लाहट और प्रबंचना के झुलस जाएगा? यही प्रश्न मबके मस्तिष्क में चक्कर काट शिकार का क्षोभ भरा हुआ था। किन्तु रथ से नीचे उतरते रहा था। ही बाप ने बेटी को गले लगा लिया और फूट-फूट कर रो पड़े, सारे दिन का मंचित संघर्ष इस रुदन में साकार हो सेना, कटक, बंधु और पिता को छोड़ कर राजनंदिनी कर मिल गया था । राजनंदिनी ने भी अपना भाव व्यक्त पागलों की तरह बनों में भटकती हुई बाहबली को ढूढने कर पाकर उसे आंखों की राह बहा दिया । किन्तु यह लगी "तुम अपनी नंदिनी को इननी सरलता से भूल गए, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अनेकान्त सर्वोदय का अर्थ विनोबा भावे सर्वोदय एक ऐसा अर्थधन शब्द है कि उसका जितना सामने वाले की परवा किये बगैर और कभी-कभी उससे अधिक चिन्तन और प्रयोग हम करते जाएंगे, उतना ही छीन कर भी संग्रह करते हैं । प्रेम से भी अधिक कीमत अधिक अर्थ उसमें से पाते जाएंगे। धन को यानि सुवर्ण को हमने दे रखी है। ऐसी सुवर्णमाया __लेकिन उसका एक अर्थ स्पष्ट है कि जब भगवान ने दुनिया में फैल गई है। उसीका नतीजा है कि जो परम्पर इस दुनिया में मानव-समाज का निर्माण किया है तो मानव या समन्वय अामान होना चाहिए था, वह मुश्किल हो गया का एक दूसरे से विरोध हो या एक का हित दूसरे के हित है उस मेल की शोध में कई राजकीय, सामाजिक और के विरोध हो, यह उसकी मंशा कदापि नहीं हो सकती। आर्थिक शास्त्र बन गए हैं। फिर भी सब का हित नहीं कोई बाप यह नहीं चाहता कि एक लडके का हित दूसरे सध रहा है। लड़के के विरोध में हो। लड़कों में विचार भेद हो सकता है. हित-विरोध नहीं हो सकता भिन्न-भिन्न विचार होना पर एक मादी बात समझ लेंगे तो वह मधेगा । हरेक ऐसे अनेक विचार मिल कर एक पूर्ण विचार बन सकता है। दूसर की फिक्र रखे और अपनी भिक्र भी ऐसी न रखे कि इसलिए विचार-भेदों का होना जरूरी है। उसमें दोष नहीं, दूसरे को तकलीफ हो । यही कुटुम्ब में होता है। कुटुम्ब बल्कि गुण ही है, पर हित-विरोध नहीं होना चाहिए। का व न्याय समाज को लागू करना कठिन नहीं होना लेकिन हमने अपना जीवन ऐसा बनाया है कि एक चाहिए, बल्कि अामान होना चाहिए। इसी को सर्वोदय कहते हैं। के हित में दूसरे के हित का विरोध पैदा होता है । धन आदि जिन चीजों को हम लाभदायी मानते हैं, उनका ('सर्वोदय-संदेश से) मेरे देवता । तुमने नंदिनी के आने का प्रतीक्षा भी नहीं की, अंत में राजनंदिनी को बाहबली मिले, एकाग्र मुद्रा कहां हो, नाथ, तुम किधर हो । ठहरो, में पा रही हूँ, मुझे में ध्यानावास्थित, सीधे खडे, अग्खि बंद किए, मुनि साधना देव कर तुम अपना सारा बेराग्य भूल जाओगे।' में रत, उनकी आंग्वे खुलने की प्रतीक्षा में किंकर्तव्य विमूद किसी ने उसके पागलपन को रोकने की चेष्टा नहीं की राजनंदिनी अपने देवता के चरणों में प्रासन मार कर बैठ उसके पैरों के पाखों से रक्त की धारें घट रही थीं, और गई और समय के साथसाथ वह भी अचल हो गई। राह के पेड पौधों को हिलाहिला कर राज नंदिनी अपने बांधियां पाई, बरसात आई, गरमी से प्रासपास का प्रियतम का पता पूछ रही थी, 'बताओ, मेरे नाथ कहां हैं घायफूम तक झुलस गया किंतु न ही बाहबली की आंखें बताओ, नहीं तो में तुम्हें जड़ से उखाड़ डालूगी""नहीं खुली और नहीं राजनंदिनी में कंपन हश्रा समय के प्रभाव नहीं, तम भी पिया के त्यागे हए हो और अपने परिताप ने उसके शरीर को परिवर्तित करके मिट्टी का ढेर बना की ज्वाला में झुलम कर तुम जड़ हो गए हो, ठहरो, में एक दिया उस पर घासफस उग आए, लताओं का निर्माण तपस्वी के पास जा रही है, उसके तप प्रभाव से और उनके हश्रा और कोई चारा न देख कर वे लताएं बाहबली के प्रति मेरे प्रेम के प्रभाव से तुम फिर हरेभरे हो जानोगे अचल शरीर पर लिपट गई । सुम्हें भी तुम्हारे प्रियतम मिलेंगे।' मैसूर राज्य के श्रवणबेलगोला स्थान पर स्थित बाहराह में राजनंदिनीने जातिविरोधी जीवों को एक दूसरे बली गोम्मटेश्वर की ५७ फीट ऊंची वह वैराग्य की साकार के साथ क्रीडा में मोदमग्न देखा, सांप गरुड के साथ, हिरन पाषाण प्रतिमा श्राज भी वर्तमान है और उस पर लिपटी, सिंह के साथ न्यौले सर्प के साथ खेल रहे थे। चारों ओर अपने प्रीतम के रंग में रंग गई वे पाषाण लताएं भाज भी वायु में सुगंधि छा रही थी और सभी मोह की इस प्रचंड राग और वैराग्य के अपूर्व समन्वय का इतिहास कह रही हैं। ज्याला को मान नेत्रों में निरख रहे थे। सर्वाधिकार सुरक्षित (समाप्त) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह पर मेरा अभिमत जैन साहित्य और इतिहास की दिशा में अनेक वर्षा है। निःसंदेह पं. परमानन्द जी ने इस संग्रह में असाधासे ठोस एवं शोध-पूर्ण कार्य करने वाला माहिन्यक मंग्या रण परिश्रम किया है और सारी सामग्री के निष्कर्षों वीर संवा मन्दिर, दिल्ली से कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों का को विधिवतू दिया है। डा. दशरथ शर्मा रीडर इतिहास प्रकाशन हुअा है । हाल में इस नम्था के द्वारा जिम महत्व विभाग दिल्ली यूनिवर्सिटी का अंग्रेजी में लिखा Preface के ग्रन्थ का प्रकाशन वा वह है 'जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह का भी ग्रंथ के महत्व पर अच्छा प्रकाश डालता है। द्विताय भाग' । इसका सम्पादन और संकलन इसी संस्था अपभ्रश भाषा की अनुपलब्ध रचनाओं के उल्लेखों, के चिरसी और समाज के बहु परिचित सुयोग्य विद्वान प्रस्तावना में आये हुए विशेष नामों की सूची और विषय पण्डित परमानन्द जी माम्बी ने बटे परिश्रम, अध्यवसाय मूची के अनन्तर १३५ पृष्ठों में मृल प्रशस्तियां दी गई हैं। एवं योग्यता के साथ किया है। उसके बाद अन्त में विभिन्न परिशिष्ट दिए गये हैं जो बड़े ही इस द्वितीय भाग में सप्ट्रभाषा हिन्दी की जननी अप- महत्व हैं और शोध कार्य में बडे उपयोगी सिद्ध होंगे। भ्रंश भाषा में जेन लवको द्वारा लिखे गए ११४ ग्रन्या की प्रशस्नियों का संग्रह किया गया है। इन प्रशनिया का एक समय था. जब प्राकृत के बाद अपभ्रश जन-माधाजहा मांस्कृतिक दृष्टि में बटा महत्व है वहां निहाम्पिक रण का भापा थी और वह देश के विभिन्न भागों में बोली दृष्टि में भी इनका उतना ही महत्व है । प्रत्येक प्रशस्ति में जानी थी । जैन लेग्वको ने दवा कि इस समय धर्म का ग्रन्य- यता, उपा रखने में प्रेरक. जहां वह रचा गया म्वरूप प्राकृत और संस्कृत के अलावा अपभ्रंश भाषा में उस स्थान नया जिम गजा के गज्य काल में वह बना उस भी कहा एवं समझाया जाय तो जन साधारण का बड़ा का नामालम्ब स्पष्टतया दिया गया है, जिसप न कालीन लाभ होगा । यथार्थ में जैन लेखकों का यह प्रारम्भ से ही धार्मिक धनि, गग्य का प्रभार और मामाजिक वातावरण प्रयन्न रहा है कि जनता की बोली में जनता को धर्म तस्व प्राति पतनी ही का परिचय मिल जाता है । पगिटुन का ग्वरूप समझाया जाय । अतः उस युग में इस भाषा में परमानन्द जी ने अपनी १५. गल की विस्तृत प्रस्तावना में भी उनके द्वारा संख्या बद्ध प्रचुर प्रथ लिग्वे गये हैं और उन सब बानी को बा मम पर उहापोह पूर्ण अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध बनाया गया है । आज अपभ्रंश भापा का साहित्य अवेनाकृत जैन लेग्बकों का ही लिम्वा हा विचार प्रम्नत किया है । ग्रंथों और न्य-कायां का तो उपलब्ध होता है । इस माहित्य का इसलिये भी महत्व है उनले परिचय कराया ही है । साथ में प्रशस्निया में निहित उय मिमिक सामग्री पर से ग्रंथ-कारों के समकालीन कि गष्ट्रभाषा हिन्दी का उसी में जन्म हुआ है। इस दृष्टि राजाप्रो. धार्मिक श्रावक-श्राविकाओं -रचना- थानी, ग्रन्थ में प्रस्तुत ग्रंथ का प्रकाशन जहां अपभ्रंश भाषा को जन रचना समय और अनेक घटनाओं का भी उन्होंने मन्तुलित सम्पर्क में लावंगा वहां राष्ट्र भाषा हिन्दी के भगद्दारों को नंग में मुन्दर विश्लेषण किया । वस्तुतः अक्ली यह प्रस्ता भी समृद्र करेगा अत: वीर मेवा मन्दिर, उसके मंचालकों वना ही एक मा ठोस पनिहामिक पुस्तक बन गई है जो और सम्पादक का प्रस्तुत प्रयत्न निश्चय ही धन्यवादाह शोधार्थियों के लिए पथ प्रदर्शन का कार्य करेगी। है । इस अवसर पर वीर सेवा मन्दिर के प्राण वा. छोटे इस संग्रह में कुल १२२ अपभ्रश नधों को प्रशग्नियों लाल जी जन कलकना को नहीं भुलाया जा सकता है, तथा ३ पुष्पिकाओं का चयन किया गया है। भारती महा जिनका अदभुत शक्ति मूक प्रेरणा पाहिन्य माधना की नीव विद्यालय दिन्द्र विश्व विद्यालय काशी के प्राचार्य डा वासुदेव लगन और निरपेक्ष मौन-पवा उस प्रयन्न के पीछे निहित हैं। मैं तो समझना है कि उन्हीं की लगातार प्रेरणा से यह शरण अग्रवाल का प्रारम्भ में महत्वपूर्ण प्राक्कथन है। आपने प्राक्कथन में इस कृति का स्वागत करते हुए यह ग्रंथ आज प्रकाश में आ सका है। यथार्थ लिखा है कि-'५० परमानन्द जी ने तिल-तिल सामग्री ३ दिसम्बर १९६३ दरबारीलाल जैन कोठिया जोड कर ऐतिहासिक तथ्यों का मानों एक मुमेर ही बनाय काशी हिन्दू विश्व विद्यालय Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (पृष्ठ २४ का शेष) वाद के मेद तया प्रग प्रयोग निपिख है नया विजय प्राप्त करने का उद्देश वाद परि० ८६ से १८ तक वाद के भेदों तथा अंगों का में भी होता है, अतः जन प्रमाणशान्त्र की परम्परा के विचार है। प्राचार्य ने वाद का वर्गीकरण दो प्रकारों अनुसार वे वाद और जल्प में कोई मंद नहीं मानते । किया है-पहले वाद के तीन प्रकार बतलाये हैं-व्यायावाद अागम(गुरुशिष्यों की चर्चा), गोष्ठीवाद (विद्वानों को मंत्र. परि० १२३ तथा १२४ में प्रागम तथा आगमामाम चर्चा) तथा विवादवाद (वादी-प्रतिवादी का मामयं नाबाद) का वणन है। प्रागम के वर्णन में अंगगत तथा अंगबाह्य बाद में बाद के चार प्रकार बतलात है-नाधिक वाद (नल. आगमी को परम्परागत सूची दी है तथा पागमाभास में विषयक चर्चा), प्रातिमवाद (कवि-प्रतिभा की परीना की वैदिक दर्शनों क ग्रन्थों के कुछ वाक्य उदाहरण के रूप में म्पर्धा), नियतार्थवाद (विशिष्ट नियमों पर प्राधारित उद्धृत किये हैं। बाद) नथा परार्थन वाद (प्रतिपक्षी के अनुरोध पर होनेवाला बाद)। बाद के चार अंग बतलाये है-सभापति, मनामद, कारण प्रमारणवादी तथा प्रतिवादी। प्रन्यन नथा पगाप्रमाणों के उपयुक्त मंदों को श्राचार्य ने भाव प्रमाण यह मंज्ञा दी है। नथा १४० १२४ से १२८ नक करण प्रमाण के भेद बतलाये है। इम में परि ६ से १०२ तक पत्र का परंपरागत वणन है। अपने पक्ष के किसी अनुमान को प्रस्तुत करने वाला किन्तु दव्य प्रमाण, क्षत्र प्रमाण नथा कालप्रमाण मिलत । पदार्थो के नाप तौल का विभिन्न रीतियों को द्रव्यप्रमाण गृढ शब्दों के कारण जिस समझना कठिन हो मा कोई कहा है । लम्बाई-चौडाई की गणना की रीतियां क्षेत्रप्रमाण श्लोक एक पत्र पर लिम्ब कर प्रतिपक्षियों के मन्मुग्ब प्रस्तुत में दी हैं तथा कालप्रमाण में समय-गणना का रानियां किया जाता था-इमे पत्र यह विशिष्ट संज्ञा दी जाता थी। बनलाई है। प्रतिपक्षी के लिए जरूरी था कि वह पत्र में लिखे श्लोक को उपसहारसमझ कर उस का उतर दे, अन्यथा वह पराजित समझा परि० १२१ में अन्य दर्शनों में वणित प्रमाग का जैन जाता था। बाद और जल्प प्रमाणव्यवस्था में अन्नाव करने को गतिमय बतलाई परि वार में है नया परि) १३. में अन्तिम प्रति है। चर्चा है। न्यायमूत्र में इन दोनो के जो लद.ण हैं उन का उपयुक्त मारांश में पष्ट होगा कि यात्रा भावमन लेखक ने शब्दशः ग्वएडन किया है। न्यायसूत्र के अनुसार का प्रमाणन परंपरागत जन द नोकष्टयों से जल्प वह है जिसमें इल, जाति प्रादि का प्रयोग होता है भिन्न है। अतः इसका विशेष अध्ययन हाना उचित है। तथा जिम का मुख्य उई श विजय प्राप्त करना होता है। हमें आशा है कि उनकी यह कृति हम हिन्दी अनुवाद के प्राचार्य के कथनानुसार इल, जाति प्रादि ग़लत साधनों का माथ शात्र हा विद्वानों क अग्ल कनार्य प्रस्तुत कर सकेंगे। अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाटलें अगिष्ट है जिनमे इतिहाम पुरातत्त्व, दर्शन और माहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए है। जो पटनीय तथा सग्रहणीय है । फाइले अनेकान्त के ल गत मूल्य पर दी जावेगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा। फाइले वर्ष ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६ की है अगर आपने अभी तक नहीं मगाई है तो शीघ्र ही मगवा लीजिये, क्योंकि प्रतियाँ थोडी ही अवशिष्ट है। मैनेजर 'अनेकान्त' वीर सेवामन्दिर, २१६रियागंज, दिल्ली Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दिसंघ बलात्कारगण पट्टावली (परमानन्द जैन शास्त्री) प्रस्तुत पहावली नन्दि संघ की है, जो मूल संघका ही जी को नहीं लगती, क्योंकि यह बात अर्वाचीन है। ये एक भेद माना जाता है। श्रानार्य अर्हद्ली द्वारा पंच वर्षीय पदमनंदि विक्रम की १४-१५ वीं शताब्दी के विद्वान हैं। युगप्रतिक्रमण के समय जो संघ स्थापित किए गए थे, उन और बलात्कार गण का उल्लेख विक्रम की 11 वीं शताब्दी में गृहा निवासी मंच ही 'नन्दी' नाम में उल्लेखित किया गया के उत्तरार्ध (१८८७ में मलसंघ के साथ सम्बद्ध मिलता है। जिस तरह अशोकयाट कुल देवबंध में अभिन्न है है। इसमे बलात्कारगण का सम्बन्ध भट्टारक पदमनंदि की उमी तरह नन्दिसंघ भी गृहनिवासी कुल सं अभिन्न है। घटना में प्रचलिन हा नहीं माना जा सकता। किन्तु उस इन संघो के अनेक गण-गच्छ है। नंदिमघ भी उत्तर और का अर्थ जबर्दम्ता किंगा कगने में जान परता है। अभी दक्षिण के भेद से दो भागों में विभक मिलना है। पानियों बलात्कार गण का वास्तनिक इनिहाय प्रकाश में नहीं मा में भी नंदिमय का उल्लेख नथा नंदिगण मिलता है। जैन पाया है जिम लाने की जरूरत है। लेख संग्रह भाग ३ में प्रकाशित अनेक लेग्यों-(०४७,३७३, पट्टावलियों में परम्पर विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है। ३७५, ३०१, ३८०) आदि में दामन संघान्तर्गन नंदिसंघ नंदिगंध का इस समय दो पहावलियां उपलब्ध हैं। एक का उल्लेख किया गया है। मंस्कृत पट्टावला, दुसरी मारवाडी भापा की संकलित पट्टादक्षिणापथ के नंदिसंघ में 'बलहारिया यलगार' गण के वली । मारवाडी भाषा की पट्टावली में जन्म वर्ष, दीक्षा नाम पाये जाते है, किन्तु उत्तरापथ क नंदिपंध में मरम्ब- वर्ष, पदट वर्ष और पूर्ण बायु का ब्योरा अंकित है। और तीगच्छ और बलात्कार गण ये दो ही नाम मिलने है। उनमें जातियों का नाम भी उल्लिखित है। किन्तु प्रति 'बलगार' शब्द स्थान विशेष का द्योतक है। लगता है बल. अशुद्ध है, इसकी शुन्द्र प्रति मेरे देखने में नहीं पाई। गार नामक स्थान से निकलने के कारण 'बलगार' नाम च्यात मंगकृत पटटावली में माघनंदी को पूर्वपढांशबंदी और हुना होगा । बलगार नाम का एक ग्राम भादाण भारत नरंदव बंद्य बतलाया है । श्रनावतार के कर्मा इन्द्रनंदी अर्हद में है २ बलाकार शब्द स्थान वाची नहीं है किन्तु जबर्दम्ना वली के अनन्तर अनग: गव माघनंदी का उल्लेख करते क्रियाओं में अनुरक होने या लगाने श्रादि वे कारण इसका है । जो अंगो और पुत्रों का एक देश प्रकाशित कर समाधि नाम बलात्कार हुया जान पड़ता है। महारक पद्मनाद ने जो इस गण के नायक थे सरस्वती को बलात्कार में बुलवाया दाग म्वर्गवायी हुए थे। अजमेर की पट्टावली में 'नंदी वृन मूलं वपा यांगा हतः म माधनन्दी' और उन्हीं के द्वारा नंदी था, इस कारण उसे बलात्कार कहा जाता है, और ..च्छ 'मारभ्यत' नाम म म्यात हुमा है ३ । परन्तु यह बात भी संघ की स्थापना हुई या बनलाया है परन्तु उसमें पट्ट का प्रारम्भ माघनदी में न कर भद्रबाह में किया है। यदि १ श्री मद् द्रविलमंधे ऽस्मिन् नंदिसंधे ऽम्त्यरुङ्गलः प्रस्तुत माघनंदी, प्राकृत पट्टावला में अभिहित माघनंदी जैन शिला मं० भा०३ मंदान्तिक हो, जिनका पट काल २१ वर्ष बनलाया गया २ दखा मिडियावल जैनिज्म प० ३२७ है। और हो सकता है कि ये वही माघनंदी मंदान्तिक हों, ३ पद्मनंदी गुरुजातो बलात्कारगणाग्रणीः । जिनक सम्बंध में कुम्हार की पुत्री में विवाह करने की कथा पापाण_टता यन वादिता श्रीसरस्वती ।। प्रचलित है, बाद में जो प्रायश्चित लेकर मुनि संध में मम्मिउजयात गितातन गच्छःसारस्वतो ऽभवत् । लिन हो गए थे। वर्तमान में माघनंदी की चतुर्विशति तीर्थकर अतस्तस्म मुनीन्द्राय नमः श्री पद्मनंदिने । जयमाला उपलब्ध है, जो बडी सुन्दर है और उसक १४ नंदिसंघ गुपावली पद्या का स्वर मंगति मटक पर बाप लगान हुए गाने में मधुर Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्रतीत होती है। हो सकता है कि वह उन्हीं की कृनि हो व पुनंदी २० वीरनंदी २१ रत्ननंदी २२ माणिक्यनंदी २३ अथवा अन्य किसी माघनंदी की। यह बात भी विचारणाय मेवचंद्र २४ शांतिकीर्ति २५ मेरूकीर्ति २६ महाकीर्ति २७ विश्वनंदी २८ श्री भूषण २६ शीलचंद्र ३० देशभूषण ३१ इसी पहावली में भद्रबाह और उनके शिष्य 'गुप्ति अनन्तकीर्ति ३२ धर्मनंदी ३३ विद्यानंदी ३४ रामचंद्र ३५ का उल्लेख किया गया की डावली में रामकीर्ति ३६ अभयचंद्र ३७ नरचंद्र ३८ नागचद्र ३६ भवाह के उन शिष्य गुप्तिगुप्त के दो नाम अर्हदली नयनंदी ४० हरिचश्चंद्र ४१ महीचंद्र ४२ माधवचंद्र ४३ और विशाखाचार्य दिये हैं। किन्तु पट्ट का प्ररम्भ करते समय लक्ष्मीचंद्र ४४ गुणकीर्ति ४५ गुणचंद्र ४६ वाम्यवचंद्र ४७ इनका नाम नहीं दिया, किन्तु जिनचन्द का नाम दिया है। लोकचंद ४८ श्रुतकीर्ति ४६ भानुचंद्र ५० महाचंद्र ५१ प्राकुत पट्टावली में अर्हद् वली का समय वि० सं० १५ माघचंद्र ५२ ब्रह्मनंदी ५३ शिवनंदी ५४ विश्वचंद्र ५५ बतलाया है किन्तु संस्कृत पट्टावली में जिनचन्द का समय हरिनंदी ५६ भावनंदी ५७ सुरकीर्ति ५८ विद्याचंद्र ५६ वि० सं० २६ दिया है। पंडितप्रवर प्राशाधर जी ने सुरचंद्र ६० माघनदी । ज्ञाननंदी ६२ गंगनंदी ६३ महर्षि पर्युपासनमें कुन्दकुन्द के पूर्व जिनचन्द्र का नामो सिंह कीर्ति ६४ नरेन्द्रकीर्ति हेमकीर्ति ६५ चारनंदी ६६ लम्ब किया है । श्र नसागर ने भी उन्ही का अनुकरण किया नेमिनंदी ६७ नाभिकीति ६८ नरेन्द्र कीर्ति ६६ श्रीचंद्र ७० है । परन्तु इस सम्बंध में समीचीन प्रमाणों की आवश्यकता पद्मकीति ७१ वर्धमान ७२ अकलंकचंद्र ७३ ललितकीर्ति ७४ हैं । और गुरुपरम्परा का ज्ञान भी आवश्यक है। केशवचंद्र ७५ चारुकीति ७६ अभयाति ७७ वसतकीर्ति ७८ पटावली में जिनचंद्र के पश्चात् पद्मनंदी का नामो प्रख्याताति ६ विशालकीर्ति ८० शुभकीर्ति ८१ धर्मचंद ल्लेख किया है उनके पांचनामों में एक नाम कुन्दकुन्द भी ८२ रत्नकीर्ति ३ विख्यातकीति ८४ प्रभाचंद्र ८५ दिया है। परंतु पंचनामों में से वकग्रीव, एलाचार्य, और पदमनंदी ८६ शुभचंद्र ८७ जिनचंद्र EE प्रभाचंद्र ८६ गृध्रपिच्छ ये तीन नाम तो भिन्न भिन्न प्राचार्यो के हैं कुन्द चंद्रकीति १० दबद्रकीर्ति ६१ और नरेंद्रकीति । कुन्द और उनके समयादि के सम्बंध में किसी अन्य लेख में अजमेर पदटावली में देवनंदी और पूज्यपाद के दो विचार किया जायगा । प्राचार्य कुन्दकुन्द अपने समय के पट अलग अलग दिग्वाए गए हैं। उनमें देवनंदी को प्राध्यात्मिक विद्वान थे। श्रापकी कृतियां बहुमूल्य और पोरवाल, और पूज्यपाद को पद्मावति पोरवाल बतलाया वस्तु तत्व की प्रतिपादक है । इन का समय अभी सुनिश्चित ग ___ गया है जो विचरणीय है। नहीं हो सका । पानंदी नाम के अनेक विद्वान हुए है। इन प्राचार्या, विद्वानों या भट्टारकों में से कुछ विद्वान कुन्दकुन्द का प्रथम नाम पदमनदा था यह मान्यता कितनी प्राचार्यों का संक्षिप्त परिचय यहां दिया जा रहा है । देवपुरानी है। दशौं शताब्दी से पूर्व क शिलालेखों और ग्रंथों में नंदी, बज्रनंदी, प्रभाचंद्र, भाणिक्यनंदी, वीरनंदी मेघवंद्र पद्मनंदिका उलेख किस रूप में हुआ, यह विचारणीय है। विद्यानंदी अादि विद्वानों का तो परिचय ज्ञात है। यहां इसके बाद तत्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति का नाम ७८३ नम्बर से कुछ विचार किया जाता है, अवशेष का दिया हुआ है। फिर लोहाचार्य हुए, जो यथाजात रूपधारी फिर कभी अवकाश मिलने पर विचार हो सकेगा। और देवों के द्वारा सेवनीय तथा समस्तार्थ क बोध करने में वसंत कीर्ति-यह अभयकीर्ति के पट्टधर थे, अभयविशारद थे। लोहाचार्य के बाद उक्र नंदिसंध दो पट्टों में कीति स्वयं वनवामी तपस्वी थे, वनों में व्याघ्रों और सों विभक हो गया। एक प्राच्यपट्ट (पूर्वीपट्ट) और दूसरा द्वारा सेवित थे। शील के सागर थे । पट्टावली में इन उदीची उत्तर पट्ट । उन यतीश्वरों के नाम इस प्रकार हैं- दोनों का समय सं० १२६४ दिया गया है। इससे यह यश कीर्ति यशोनंदी १. देवनंदी (पूज्यपाद) ११ गुण थोड़े समय पट्ट पर रहे हैं । इनके सम्बंध में अपवाद मार्ग नंदी १२ वज्रनंदी १३ कुमारनंदी १४ लोकचंद्र १५ प्रभा- का उल्लेख करते हुए श्रु तसागरसूरि ने षटू प्राभृत की चंद्र १६ नेमिचंद्र १७ भानुनंदी १८ सिंहनंदी १६ टीका में लिखा है कि मंडपदुर्ग (मांडलगढ़) में बसंतकीर्ति Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ नन्दि संघ बलात्कारगण पावली ने चर्यादि के समय चटाई प्रादि से शरीर ढके और बाद में इससे पावली वाली परम्परा भी ठीक जान पड़ती है। उसे छोड़ दे ऐसा उपदेश दिया था। जैसा कि उनके निम्न शुभकीर्ति-यह विशालकीर्ति के पट्टधर थे। इनकी वाक्यों से प्रकट है- करपवादवेषः कलौ किं म्लेच्छादयो बुद्धि पंचाचारकेपालन से पवित्र थी, एकान्तर भादि उप्रतपों नग्नं दृष्टया उपद्रवं यतीनां कुवंति तेन मंडपदुर्गे वसंत- के करने वाले तथा सन्मार्ग के विधि विधान में ब्रह्मा के तुल्य कातिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसारादिकेन शरीर- थे। यह मुनियों में श्रेष्ठ थे और शुभ प्रदाता थे। मारछादय चर्यादिकं कृत्वा पुनस्त न्मुचयतीत्युपदेशः कृतः शुभकीर्ति नामके अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें संयमिनां इत्यपवादवेषः कृतः । षट्मा, टी. १.२१ ।' श्रुत- से यह शुभकीर्ति कौन थे यह जानना कठिन है। अपभ्रंश सागर सूरि द्वारा उल्लिखित वमंतकीर्ति वही ज्ञात होते शांतिनाथचरित के कर्ता भी एक शुभकीति हैं यह ग्रंथ नागौर हैं जिनका पटावली में उल्लेख किया गया है। दूसरे में मालित।जो का प्रतिलित किया अन्य वमंतकीर्ति का उल्लेख देखने में नहीं पाया। हुआ है । प्रथ सामने न होने से इनकी गुरूपरम्परा ज्ञात प्रख्यातकीनि-उक्त वसंतकीर्ति के पट्टधर थे। यह नहीं हो सकी। एक शुभकीर्ति कुदकुद वंश में प्रभावभी बनवामी थे और त्रिभुवन में ख्यात ये। अनेक गुणों शाली रामचन्द्र के शिष्य थे जो बड़े तपस्वी थे इस समय के श्रालय थे, शम-यम और ध्यान के सागर थे । वादियों उनके पट्ट को अपनी विद्या के प्रभाव से विशालकीर्ति शोभित में इन्द्र के तुल्य और परवादि रूप हाथियों के मद को चूर कर रहे हैं। जिनके अनेक शिष्य हैं जो एकान्तवादियों को करने के लिए सिंह के समान थे विद्यविद्या के प्रास्पद पराजित करने वाले हैं।इनके शिष्य विजयसिंह है जिनके थे और प्रसिद्ध मंडपदुर्ग में निवास करते थे। पटा- कण्ठ में जिन गुणों की मणिमाला सदैव शोभा देती है। वली में इनकी श्रायु २८ वर्ष ३ मास और २३ दिन धर्मचंद्र-यह शुभकीर्ति के पट्टधर थे। अच्छे बतलाई गई है पर वे पट्ट पर २ वर्ष ३ मास २३ दिन ही सिद्धान्त वेत्ता, और संयमरूप ममुद्र को वृद्धिंगत करने रहे थे, ११ वर्ष गृहस्थ अवस्था में और १२ वर्ष दीक्षावस्था में चंद्रमा के नुख्य थे । इन्होंने अपने प्रख्यात माहात्म्य से में व्यतीत हुए थे। अपना जन्म कृतार्थ किया था । और हम्मीर भूपाल के द्वारा विशालकीर्ति-यह प्रख्यात काति के पट्टधर थे । संमाननीय थे। यह उत्कृष्ट व्रतों की मूर्ति और तपोमहात्मा थे। पट्टावली में उल्लिखित हम्मीर भूपाल कौन है, यह अजमेर पटावली और नागौर पट्टावली में प्रख्यात- यात विचारणीय है । जिन्हें धर्मचंद्र का सम्मानकर्ता बतलाया कानि के बाद शांतिकोनि का नामोल्लेख किया गया है। गया है। यदि पट्टावली गत समय ठीक है, तब तो रणऔर शांतकीर्ति के पश्चात् धर्मकीर्ति का नाम दिया है। - तपट्टेऽजनि विख्यातः पंचाचारपवित्रधीः । किन्तु अजमेर और सूरत की पटावलियों में शांतिकीर्ति शुभकीर्तिमुनिश्रेष्ठः शुभकीर्तिः शुभप्रदः ॥१६ का कोई उल्लेख नहीं है, शुभकीर्ति के बाद धर्मचंद्र का -सुदर्शनचरित नाम दिया गया है। २ श्री कुदकुदस्य बभूव वंशे श्री रामचंद्रः प्रथितप्रभावः । भट्टारक विद्यानन्द ने भी सुदर्शनचरित में। शिष्यस्तदीयः शुभकीर्तिनामा तपोगनावक्षसि हारभूतः ॥ विशालकीर्ति का उश्लेख किया है और उन्हें कुन्दकुन्द की प्रद्योतने मंप्रति तम्यपट्ट विदयाप्रभावेण विशालकीतिः । संतान परम्परा में शुद्ध ज्ञान के धारक, योगत्रय में निष्यात शिष्यैरनेक रुपमेव्यमान एकान्तवादादिविनाशवज्रम् ।। और मुनियों में प्रशस्ततम बतलाया है जैसा कि उसके निम्न जयति विजयसिंहः श्रीविशालम्य शिष्यो, पद्य से प्रकट है जिनगुण-मणिमाला यस्य कंठे सदैव । योगत्रयेषु निष्णात: विशालकीर्ति शुद्ध धीः । अमितमहिमराशेधर्मनाथम्य काम्यं, श्रीकुदकुदसंताने बभूव मुनिसत्तमः ।।१८।। निजसुकृतनिमित्त तेन तस्मै वितीर्णम् ।। और दूसरे पक्ष में शुभकीर्ति का उल्लेख किया है, -धर्मशर्माभ्युदय लिपिप्रशस्ति Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त थम्भोर के चौहानवंशी राजा हम्मीर वीर नहीं हो सकते। से १४० पाया जाता है । भट्टारक प्रभाचंद्र का भट्टारक क्योंकि उनका राज्य सन् १२८३ से १३.१ईस्ती तक रहा रत्न कीर्ति के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समर्थन सं० १९७० है। महोबा के चम्नवंश में भी हम्मीरवर्मन् मामका की लिखित भगवती आराधना पंजिका की उस लेखक प्रशएक राजा हुया है जो वीरवर्मन् का पुत्र था। ग्वालियर के स्ति से भी होता है जिसे सं० १४१६ में इन्हीं प्रभातन्त्र प्रतिहार वंश के राजाओं की सूची में तीसरे नं० पर एक के शिष्य ब्रह्म नाथूराम ने अपने पढ़ने के लिए दिल्ली के हम्मीरदेव का उल्लेख है जिसका राज्य सं. १२१२ से बादशाह फिरोजशाह सगलक के शासन काल में लिखवाया १२२१ तक बतलाया है और उसी १२२५ में कुबेर देव का था। उसमें भ. रत्नाति के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का स्पष्ट शासन था। (देखो मध्य भारत के प्राचीन जैन म्मारक पृ. उहजेव है । फिरोजशाह तुगलक ने सं०१४.८ से १४४५ ६०) हम्मीर शब्द उपाधि सूचक भी हो सकता है। उसका तक राज्य किया है। इससे स्पष्ट है कि भट्टारक प्रभाचंद्र प्रयोग हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिये भी हो सकता है, संस्कृत में हम्मीर शब्द 'मुसलमान' शापक के लिए प्रयुक्र १४१६ में कुछ समय पूर्व भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। दुपा है। अतएव 'हम्मीरमपालसमर्थनीयः' वाक्य विषा उप्त समय दिल्ली में एक महोत्सव हुआ था, परंतु हिन्दी गीय है वह उस काल के किसी मसनमान बादशाह के प्रति को पटावली में पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समय मं. रिक्त उक नाम वाला अन्य कौन सा राजा हम्मीर पदवी १३१० १३.० दिया है जो ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय है। का धारक है। 'भणुवपरयणपईव' की प्रशस्ति भी बि.की क्योंकि उसमें १०० वर्ष का अन्तर हो रहा है जयपुर से प्रकाशित होने वाली 'महावीर जयम्ती स्मारिका' के पृष्ठ ही कोई राजा होना चाहिए। पट्टावली में धर्मचंद्र का १२७ पर आमेरगादी के भटारकों की साहित्यिक एवं मांसपट्टकाल सं १२७१ से १२९६ तक बतलाया है। जो कृतिक संबा' नामक लेख में "सं. १३१६ सालि दिल्ली में हम्मीर भूपाल के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं करता। भटटारक प्रभाचंद्र जी राघो चेतन म्यु' वाद कियो तब हो सकता है कि उन प्रशस्ति गत 'हम्मीर' शब्द किसी जीत्या । तब हरमां पातिम्याह पेरोजशाही ने कही जु हम मुसलमान शासक की ओर इंगित करता हो । अस्तु कुछ वम अतीत का दरसन करें तब खाण। खावेंगे। तब पातिभी हो, इस सम्बन्ध में कुछ प्रामाणिक सामग्री का अन्वेषण म्याह अरज करि पर गूजर चांदों पिता पापड़ीवाल नखे कर उक्त तथ्य को स्पष्ट करने का प्रयत्न होना चाहिये । प्ररज कराई तब कपड़ा १३१६ के सानि पहरया भट्टारक रत्नकीर्ति-यह धर्मचंद्र के पट्टधर थे। इन्हें पटा- प्रभाचंद्र जी कलंकी अबावदी के पाछे १२ पाटि सारंग साह बल्ली में स्याद्वादविद्या के अथाह समुद्र, तथा जिनके बोसवान के चरवादार पेरी ज्यों सिकरा का बैठिया कार पारि चरण नाना देशों में निवास करने वाले शिष्यों के द्वारा बैठो २७ लास घोड़ा को धणी हुवो।' (गुटका नं १५२ पूजित बतलाये गये है। धर्म-अधर्म भेद प्रस्थापक कथाओं के पाटौदी मन्दिर जयपुर) व्यावर्णन में अनुरक्त चित्त, पाप विनाशक, और बाल इसी संबंध के कुछ पद्य भी गुटका नं. ६२ से उद्धत किए मह रूप तप के प्रभाव से माहात्म्य प्रकट किया है । अजमेर , हैं। पर इस घटना क्रम पर विचार करने से यह घटना पट्टावली में इनका समय से १२६६ से १३१० तक दिया है यह दिल्ली पट्ट के पट्टधर थे । संवत् १४१६ वर्ष चैत्र सुदि पंचम्यां सोमवासरे इनके पट्टयर प्रभाचंद्र थे, जो अपने समय के प्रभाव सकलराज्य शिरोमुकुटमाणिक्यमरीचिपिमरीकृतचरण कमल शाली विद्वान थे । प्रमाचंद्र ने मुहम्मदशाह के मन को अनु पादपीठस्य श्री रोजसाहेः सकल साम्राज्य धुरी रंजित किया था । मुहम्मदशाह का राज्य वि. मं०१३८१ बिभ्राणम्य समये श्री दिल्या श्री कुदकुदाचार्यान्धये सरस्वताक्छे बलात्कारगखे भट्टारक श्री सनकीर्तिदेव १ तहिं भव्यहिं सुमहोच्छउ विहियउ, सिरि रयणकि स. पर्ट्स लिहियउ। पट्टोदयादि तरुण सरहित्यमुर्तीकुर्वायः मधारक श्री प्रभामहमंद साहि मणुगंजियउ, विजहिं वाइय मणु भंजियउ ।। चंद्रदेव शिष्याणां ब्रह्म नाथूराम । इत्याराधना पंजिकायां बाहुबलिचरिउ प्र० ग्रंथमात्मपठनार्थ लिखापितमू । (व्यावर भवन प्रति) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दि संघ बलात्कारगण पटटावली अनावहीन और राघोचेतन के समय घटित हुई है। फीरोज इनके तीम प्रधान शिष्यों से तीन शाखाएँ प्रसूत हुई जयपुर साह तुगलक के समय नहीं। लेखक ने उसे भूल से फीरोज शाखा, ईडर शाखा और सूरत शास्त्रा। साह तुगलक के साथ जोड़ दी है। क्योकि राघोचेतन मला शुभकीर्ति-पदममंदि के पटायर भी अपने उहान क समय हुए है। व मत्र तत्रचादि प्ररि नास्तिक समय के अच्छे विद्वान थे । इनका समम १५ वीं शताब्दी भी. उन्हें धमे पर कोई प्रास्था नहीं था, अजादान भी का उत्तरार्ध है। पापकी क्या कह रचना यामम्वेउन्हा क विचारों से सहमत था । उस समय माहवसन से षण से सम्बन्ध रखता है, अभी हमें इनकी कोई रचना इनका बाद हुश्रा था ऐसा उल्लेख मिलता है भ. प्रभाचंद्र ने तो मुहम्मद शाह जिसे महमदसाह भी कहते हैं उसके राज्य में वाद की घटना घटित हुई थी और प्रभाचंद्र ने उम जिनचंद्र-यह भट्टारक शुभचंद्र के पटवर थे। इनके पर विजय पाई थी । धनपाल के बाहबली चरित में भी उक पटट पर प्रतिष्ठित होने का समय सं० १०. पाया जाता घटना का उल्लेख निम्न वाक्यों में 'महमंद साहि मगुरंजि है। टावली के अनुसार यह उस पर १२ वर्ष तक अब. यउ, विजहि वाहय मणु भंजियउ' दिया है प्रभाचंद्र अला स्थित रहे। यह प्राकृत मंस्कृत के विद्वान थे और अत्यंत प्रभावशाली थे । मापके द्वारा प्रतिष्टित म. १९४८ की उद्दीन खिलजी के समय नहीं हुए। अतएव प्रभाचंद्र का रत्नकीर्ति के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समय मं० १४०८ तीर्थकर मूर्तियां भारतीय जैन मन्दिरों में पाई जाती है। ऐसा कोई भी प्रांत नहीं, जहां उनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां के बाद होना चाहिए भ. प्रभाचंद्र फीरोज माह तुगलक के न हों। इनके द्वारा प्रतिष्ठिन एक मूर्ति सं० १९.७की भी आग्रह से अन्तःपुर में धर्मापदेशार्थ पधारे थे। तब शरीर को उपलब्ध है । प्रापके अनेक विद्वान् शिष्य थे। उनमें पंडित वस्त्र से अच्छादित करना पड़ा था। बाद में उसे अलग मेधावी और कवि दामोदर प्रादि हैं। इनकी रचनाएँ भी कर देने पर भट्टारकों में वस्त्र की परम्परा प्रचलित हो गई उपलब्ध हैं। जिनचंद्र की इस समय दो कृतियां उपलब्ध थी । इस घटना क्रम पर विचार करने से पाटावली का समय हैं, सिद्वान्तमारादि संग्रह, चतुर्विशस्ति जिनस्तवन । इनके भी मंदिग्ध प्रतीत होता है। इस पर फिर कभी विशेष समय में जैन मंस्कृति का.अच्छा कार्य हुमा है, इनके शिष्यों विचार किया जायगा । अनेक टाका प्रथ भा इन्हीं प्रभाचंद ने भी उसे पल्लवित किया । उक्त शिष्यों में मेधावी प्रधान की रचना है। थं और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे। उनकी सं० ११८ से पानन्दि-यह भ. प्रभाचंद्र के पटधर थे, पहले १५४१ तक की अनेक पदयामक प्रशस्तियां देखी जाती मंडलाचा । बाद में गजरात में भटयारक पद पर प्रति- हैं, जो हिसार में लिखी गई हैं।म १५४१ में धर्मसंग्रह ष्ठित हुए थे। यह उस समय के योग्य विद्वान और श्रावकाचार की रचना भी इन्होंने नागौर में पूर्ण की थी प्रभावशाली थे । इनके अनेक शिष्य थे। इनसे मूलमंघ इस तरह जिनचंद्र भट्टारक की महत्ता का सहज ही बलात्कार गण की तीन परम्परा प्रचलित हई हैं। यह प्राभास हो जाता है। मंत्र तंत्र में निपुण और संस्कृत के अच्छे विद्वान थे । इन प्रभाचंद्र-प्रस्तुत प्रभाचंद्र अपने समय के एक बहुकी बनाई हुई अनेक रचनाएँ उपलब्ध हैं। पद्मनंदि श्रत विद्वान थे। अपनी तर्कणा से इन्होंने धादियों को श्रावकाचार (श्रावकाचार सारोदार) वर्तमान चरित, कथाएँ विजित किया था। इनका पट्टाभिषेक सं० १९७१ में वीतरागस्तोत्र, शान्ति जिनस्तोत्र, रावण पार्श्वनाथस्तोत्र, फाल्गुण कृष्णा २ को सम्मेद शिखर पर सुवर्ण कलशों से जीरावली पार्श्वनाथ स्तवन और भावना पद्धति । इनके और हुचा था । इन्होंने सं० १९७३ में फा.कृ. ३ दशलक्षणइनके शिष्यों के द्वारा अनेक प्रतिष्ठित मूर्तियां यत्र-तत्र यत्र की स्थापना की थी। इनके मंडलाचार्य धर्मचंद का भी मिलती है । गिरनार पर्वत पर इन्होंने सरस्वति को वाचालित अनेक प्रशस्तियों में उल्लेख मिलता है। एक पट्टावनी में किया था, और प्राद्य दिगम्बर कहलाया था। इनकी शिष्य में भी धर्मचंद्र का नामोल्लेख हुमा है। उसके बाद चंद्रपरम्परा में भ. सकलकीर्ति ने खूब सा हस्यिक कार्य किया। कीर्ति का । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अनेकान्त 'चंद्रकीर्ति—यह भ. प्रभाचंद्र के पट्टधर थे। इनका ____ ततः पट्टद्वयी जाता प्राच्युदीच्युपलक्षणा । पटटाभिषेक भी सम्भेदशिखर पर किया गया था। इनके द्वारा तेषां यतीश्वराणां म्युर्नामानीमानि तत्त्वतः ॥७ प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियां राजस्थान में मिलती है । पट्टावली यशःकीर्तियशोनन्दी देवनन्दी महामतिः । में पट पर प्रासीन होने का समय सं०१६२२ वैशाख सुदी पूज्यपादापराख्येयो गुणनन्दी गुणाकरः ॥ २ दिया हुआ है। वज्रनन्दी वज्रवृत्तिम्नार्किकाणां महेश्वरः । देवन्द्रकीर्ति-यह भ. चंद्रकीर्ति के पट्टधर थे। इनके कुमारनन्दी लोकेन्दुः प्रभाचन्द्रो वचोनिधिः ॥ पट्ट पर बैठने का समय मं० १६२२ फालगुन वदी १५ नेमिचन्द्रो भानुनन्दी सिंहनन्दी जटाधरः । दिया है । यह चाटसू में पट्टम्थ हुए थे। वसुनन्दी वीरनन्दी रननन्दी रतीशभित ॥१० नरेन्द्रकीर्ति-यह भ. देवेन्द्रकीनि के पटधर थे।। माणिक्यनन्दी मेघेन्दुः शान्तिकीतिर्महायशाः । देवेंद्रीति नामक अनेक विद्वान हो गए हैं । पट्टावली में मेरूकीर्तिमहाकीति विष्णुनन्दी विदांवरः ॥११ नरेंद्रीति से पहले ललितकार्तिका नामोल्लेख और मिलता श्रीभूषणः शील चन्द्रः श्रीनन्दी देशभुषणः । है । इसमें उसका उल्लेख नहीं है। यह खंडेलवाल थे और अनन्तकीर्तिर्धर्मादिनन्दी नन्दितशामनः ॥१२ गांव योगाणा था । यह मांगानेर में पट्टस्थ हुए थे। श्रामेर विद्यानन्दी गमचन्द्रो रामकीतिरनिंद्यवाक । के मंवत १७१६ के शिलालेख में इन्हें मूलसंध बलात्कार- अभयेन्दुर्नराचन्द्रो नागचन्द्रः स्थिरव्रतः ॥१३ गण का भट्टारक सूचित किया है। इन्हीं की आम्नाय में नयनन्दी हरिश्चन्द्रो महीचन्द्रो मलोज्झितः । जयसिंह राजा के महामंत्री मोहनदास ने अंयावती में विमल माघवेन्दुर्लक्ष्मीचन्द्रो गणकीर्तिगणाश्रयः ॥१. नाथ चैत्यालय की प्रतिष्ठा नरेन्द्रकीर्ति के उपदेश से कराई गण चन्द्रो वामवेन्दुलोकचन्द्रः मुतत्ववित् । थी 1 । प्रस्तुत पट्टावली इन्हीं के द्वारा संकलित की गई विद्यः श्रुतकीर्याख्यो वैयाकरणभाम्करः ॥१५ भावचन्द्रो महाचन्द्रो माघचन्द्रः क्रियागणी । श्रीमानशेषनरनायकवान्दितांघ्रिः । ग्रहानन्दी शिवनन्दी विश्वचन्द्रम्तपोधनः ॥१६ सैद्धान्तिको हरिनन्दी भावनन्दी मुनीश्वरः । श्रीगुप्तगुप्त इति विश्रु तनामधेयः ।। सुरकीर्तिः विद्याचन्द्रः सूरचंद्रः श्रियांनिधिः ॥१७ यो भद्रबाहुमुनिपुङ्गवपादपद्म, सूर्यः म वो दिशतु निर्मल संघवृद्धिम् ।।" माघनन्दी ज्ञाननन्दी गङ्गकीर्ति महातपाः । श्रीमूलगंधेऽजनिनन्दिसङ्घस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्पः।। बिहकीर्ति हेमकीर्तिश्चारूनन्दी मनोजधीः ।।१८ तनावभी पूर्वपदांशवेदी श्रामाघनन्दी नरदेववन्ध: ।।२ नेमिनन्दी नाभिकीतिः नरेन्द्रादि यशाः परम । श्रीचन्द्रः पद्मकीनिश्च वर्धमान मुनीश्वरः ॥१५ पटटे तदीये मुनिमान्यवृनौ जिनादिचन्द्रःस्समभृदतन्द्रः । सतोऽभवत्पञ्चसुनामधामा, श्रीपद्मनन्दी मुनि नक्रवर्ती ॥३ अकलंक चन्द्रगुरू-ललितकीर्तिरूत्तमः । प्राचार्यः कुन्दकुन्दाग्यो वक्रग्रीवो महामतिः । ब्रीविद्यः केशवाञ्चन्द्रश्चारूकीर्तिमुधर्मणः ॥२. एलाचार्यों गृच्छपिच्छः पद्मनन्दीति सन्नुतः ॥४ मैद्धांतिकोऽभयकीर्ति बनवापी महातपाः । तत्त्वार्थसूत्रकर्तृवात् प्रकटीकृतसन्मतः ।। वमनकीर्ति व्याघ्रादि संचितः शील मागरः ॥२१ उमास्वातिपदाचार्यो मिथ्यात्वतिमिरांशुमान् ।।५ तस्य श्रीवनवासिनस्त्रिभुवनम्नच्यातकीर्तेरभूतलोहाचार्यस्ततो जातो जातरूपधरो ऽ मरैः । च्छिप्योनेकगुणालयः शम-यमध्यानापगा सागरः । सेवनीयः समस्तार्थविवोधनविशारदः ।। वादीन्दुः परवादिवारण गणप्रागलभ्यविद्रावणे । सिंहः श्रीमति मंडति विदितस्त्रविद्यविद्यास्पदम् ॥२२ 1 Seu Jain Antiquary Vol.8-Kıran 2 P. 95-97 १ नागकीर्ति महोत्तमः-दिल्ली पंचायती मन्दिर प्रतिपाठः - - - - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दिसंघ बलात्कागरण पावली विशालकीति वरवृत्तमूर्तिस्ततो महारमा शुभकीर्तिदेवः । हेयादेयविचारमार्गचतुरश्चारित्रचूडामणिः ॥६. एकांतराय प्रतपोधिधाता धाता च सन्मार्ग विधेर्विधाने ||२३ प्रकटितजिनमार्गो ध्वस्तमोहांधकारो, श्रीधर्मचंद्रोऽजनि तस्य पट्टे हम्मीरभूपालसमर्चनीयः । जिननयपरवादी सप्तभंगेद्धबोधः । सैद्धांतिकः संयमसिधुचंद्र प्रख्यात माहात्म्यकृतावतारः।।२४ विधुतविषयसंगः श्रीकृताध्मप्रसंगो । तत्पट्टेऽजनि निकोतिरनघः स्याद्वादविद्याम्बुधि जयति सततधामा श्रीजिनेन्दुर्यतीन्द्रः ।। नानादेश विवतिशिष्यनिवह प्राच्यडिघ्र युग्मो गुरुः । तत्पट्टोदयभूधरेमनिमुनिः श्रीमप्रभेन्दुवंशी । धर्मीधर्मकथानुरनधिषणः पापप्रभावाधिका, हेयादेयविचारण कचतुरो देवागमालंकृतः । बाल ब्रह्म तपः प्रभावहितः, कारूण्य पूर्णाशयः ।।२५ भन्यांभोजदिवाकरादिविविधे तर्क चचंचुस्चयो, पटे श्री रत्नकीतरनुपमतपसः पूज्यपादीय शास्त्र जैनेन्द्रादिकलक्षणप्रणयने ददोऽनुयोगेषु च ।।३२ म्याख्या विख्यातकीतिगुणगुणनिलयः सस्क्रियाचारचंचुः । त्यक्वा सांसारिकी भूतिं किंपाकफलसम्निमाम् । श्रीमानानन्दधामा प्रतिबुधविनुतः मानमंदायवादो, चिन्तारत्ननिभाजैनी दीक्षा संप्राप तस्ववित् ॥३३ जीयादाचंद्रतारं नरपति विदितः श्रीप्रभाचंद्रदेवः ।।२६ शब्दब्रह्मसरित्पतिं स्मृतिबलादुत्तीर्य यो लीलया । इंसी ज्ञानमरालिका समसमाश्लेषप्रभूनाद्भुतो, षट्तकावगमार्कक शगिरा जित्वाऽ खिलान् वादिनः । नंदः क्रीडति मानसेति विशद यस्या निशं सर्वतः । प्रांच्यां दिग्विजयीभवन्निभविभु जैनी प्रतिष्ठाकृते । म्याद्वादामृतर्मिधुवर्धनविधोः श्रीमत्प्रभेन्दु प्रभो; श्री सम्मेदगिरौ सुवर्णकलशैः पट्टाभिषेकः कृतः ॥३॥ पट्टे सू रमतल्लिका स जयतात् श्रीपानन्दी मुनिः ।।२७ श्रीमत्प्रभाचन्द्र गणीन्द्र पट्टे भट्टारकश्रीमुनिचन्द्र कीर्तिः । महाबतिपुरन्दरः प्रशमदग्धरोषांकुरः । संम्नापितो योऽवनिनाथवृन्दैःसम्मेदनाम्नीहगिरीन्द्रमूनि॥३५ स्फुरत्परमपौरुषस्थितिरशेषशास्त्रार्थ वित् । जीयाट्रीविधुकीर्तिपट्टसुधरःप्रोचम॒हः सन्मणिः यशोभरमनोहरी कृतसमम्तनिश्वभरः । सर्नेजेवरवंशशुध्दजलधौ चन्द्ररिचिरचित्रमान् (१) परोपकृतितत्परो जयति पद्मनन्दीश्वरः२ ।।२८ तर्कव्याकरणदिनीतिनिपुणो देमेन्द्रकीर्तिः कृती, स्याद्वादामनसिन्धुवर्धनकरः सौम्यगुण वल्लभः, सदभट्टारक एष सर्गगुणभृद् भूपाललब्धाज्ञकः ॥ ३६ षट तांगमनशामन महालब्धप्रनिष्टोत्सवः । श्रीचंद्रकीर्तिः पद् मंवराधो कंजः कलापी सकलाहरिसू पट्टे श्री मुनिपद्मनन्दि विदुषः कल्याणलक्ष्मीकरः देवेन्द्रकीर्ति शृतकांतिकीर्ति भट्टारको भट्ट विवृत्तवादः॥३० सोऽयं श्री शुभचन्द्रदेवमुनिपो भव्यैर्जनैवंदितः ।।२९ पट्टे श्री दिविजेन्द्रकीर्तिगणिनो निष्कापि कुभांबुभिः । पट्टे श्री शुभचन्द्रदेव गणिनः श्री पद्मनन्दीश्वरः । म्नातः सूरिनरेन्द्रकीतिरमितस्त्रीगीतकीयंकितः । तर्कव्याकरणादिग्रन्थकुशनो विख्यातकीर्तिर्गणी । स्वस्तिव्याप्तसमस्तशास्त्रकुशलोऽहंदकिशनोऽनिशं, श्रीमान् श्रीजिनचन्द्रसूरिरभवत्नत्रयालंकृतो, जीव्याद् ब्रह्मयुगं जगदगुरुमतांभोराशिशीतांशुकः ॥३८ १ 'निधी' इति पाठः पंचायती मंदिर दिल्ली प्रती क्षोणीमण्डलमण्डनाऽमलगुणलकारहीरस्य च । २ 'तर' इति पाठः उक्त पंचायती मंदिर प्रती चारिवादियशोहिमांशुकिरौस्तम्य क्षमा शोभते २८ में पद्य के वाद शुभचन्द्र पटावली में दूसरी शश्वत् सौगतशीर्णवादिदमनं विद्याविनोदं दधत् । गुरु-परम्परा का उल्लेख है, २ पचों तक समानता है। जीयारसूरिनरेन्द्र कातिरिह मो नंद्यादिसंघेऽनघः ॥३६ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति और सौम्यता का तीर्थ-कुण्डलपुर (श्री नीरज जैन) उत्तर भारत के जैन तीर्थ क्षेत्रों की कतिपय विशाल पर बीचों बीच बने एक विशाल जिन मंदिर में अवस्थित और मनोज्ञ मूर्तियों का उल्लेख करते समय कुण्डलपुर के दो हाथ ऊंचे सिंहासन पर विराजमान पाठ हाथ ऊँची पना. बड़े बाबा का नाम प्रमुख रूप से प्राता हैं सचमुच इतनी मनस्थ भव्य प्रतिमा है। मूर्ति का निर्माण लाल बलुत्रा अद्भुत प्रतिमा है यह कि जिसके दर्शन मात्र से- पत्थर की स्वतंत्र शिला पर हुवा है तथा उसका सिंहासन "मन शान्त भयो मिट सकल द्वन्द चाख्यो स्वातम दो पत्थरों को जोड़कर अलग से बनाया गया है। इस रस दुख निकन्द ।" रुपमावना की सार्थकता मृति पर मृतिलेख अथवा चिन्ह का प्रभाव होने से इसका अनुभूत होती है यह क्षेत्र मध्य प्रदेश के दमोह निर्माण श्राज भी विवादग्पद बना हुवा है कि यह मूनि किम जिले में (बीना-कटनी रेलपथ पर) दमोह स्टेशन में तीर्थकर की है। बीस मील दूर है दमोह से मोटर बसें चलती हैं और क्षेत्र सर्व प्रथम इस मूर्ति को प्रकाश में लाकर तथा इन्य पर सुन्दर तालाब एवं अन्य धर्मशालाओं की व्यवस्था होने मंदिर प्रादिका निर्माता कराकर उसे महत्व प्रदान करने से यात्रियों की यात्रा सुविधा पूर्ण एवं सुखद होता है। वाले भत्रों द्वारा विक्रमा सं० १७५७ (मन् १७०० ईस्वी) इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुषमा भी नयनाकर्णक है और में इस स्थान पर एक शिलालेख लगाया गया जिसमें इसे वातावरण को तीर्थानुकूल बनाने में महायक होती है। भगवान महावीर की मूर्ति कहा गया है। संभवतः सिंहासन गोल-कुबलाकार पति माला के बीचों बीच निर्मल जल के दो मिहों को दबकर उनकी इस मान्यता को बल मिला से मरा "वर्धमान सागर" नामका तरंगित सरोवर है। होगा इस क्षेत्र के अनन्य प्रचारक श्री रूपचंद बजाज, संभवतः पर्गत की कुण्डलाकार गोलाई ने ही क्षेत्र को तिलायपण्णत्ती के श्राधार से इस मूर्ति को अंतिम केवली कुण्डलपुर नाम दिया है। वर्तमान में यहाँ कुल अठ्ठावन श्रीधरस्वामी की मूर्ति मानकर इस क्षेत्र को सिद्ध क्षेत्र जिनालय हैं जिनका निर्माण पिछली दो शताब्दियों के मानते हैं। एक अन्य लेखक श्री रूपचन्द "रतन" ने अपने भीतर हुआ है परन्तु उनके भीतर पुरातत्त्व की महत्व पूर्ण लेख (नव भारत जबलपुर दिनांक ७.७.६३) में उसी प्राचीन सामग्री उपलब्ध है। महावीर की मान्यता का पोषण किया है। मैंने स्वयं श्राज वर्तमान क्षेत्र से जगा हुवा रूक्मिणी मठ नाम का। से पद्रह वर्ष पूर्व उसे प्रचलित मान्यता के अनुसार सन्मति एक प्राचीन मंदिर है जो अब प्रायः रिक तथा क्षम्त प्राय की छवि मान कर ही लिखा थाहो चुका है पर्णत के पीछे लगभग दस मील दूर बरंट साधारण पत्थर नहीं, नामक ग्राम है जहां तालाब पर एवं यत्र-तत्र सर्वत्र यहाँ प्रशरण की एक शरण है यह, प्राचीनता के चिन्ह पाये जाते हैं तथा विश्वास किया जाता है इन्द्रादि बंद्य, देवाधिदेव, कि यही प्राचीन प्रतिमएं तथा अन्य ध्व'शावशेष उपलब्ध सन्मति का समवशरण, है यह। हैं वे प्रायः सभी इन्हीं दो स्थानों से लाकर यहां लगाए सन १९९५ में अखिल भारतवर्षीय विद्वत्परिषद के गए है यहाँ तक कि बड़े बाबा की विशाल प्रतिमा को कटनी अधिवेशन में इस मतांतर के निणय हेतु एक उप स्वप्न द्वारा खोजकर एक वणिक द्वारा लाये जाने की जो समिति गठित की गई थी। इस समिति के विद्वान सदस्य किंवदन्ती इस स्थान के सम्बध में प्रचलित है, उससे भी। तथा समाज के उद्भट विद्वान प्रादरणीय पं० दरबारी लाल इसी बरंट प्राम की सम्बध्दता सिध्द होती है। कोठिया ने इस प्रश्न पर अपना शास्त्र सम्मत मत देते हुए बड़े बाबा के नाम से ख्यात यही अतिशय युक्त विशाल अनेकान्त वर्ष के पृष्ठ ११५ पर एक लेख प्रकाशित जिन विम्ब इस क्षेत्र की मूल-प्रतिमा है। यह मूर्ति पर्वत कराकर यह सिद्ध किया था कि अन्तिम केवली श्रीधर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति और सौम्यता का तीर्थ-कुण्डलपुर स्वामी का निर्वाण स्थल यह क्षेत्र नहीं है । इस प्रकार एक मुद्गप्रभो मूर्धनि धर्मचक्रम्, मत का समाधान हो जाता है, परन्तु प्रतिमा के मही बिभ्रत्फलम् वाम करेथ यच्छन् । परिचय की ओर कोई प्रयास विद्वानों द्वारा नहीं किया वरं करिस्थो हरिकेतु भक्तो, गया सिहासन के सिंह, पार्श्व स्थित पारसनाथ की खड्गासन मातंग यक्षो गत दृष्टिमिष्टया ॥ १५२ मुनियां एवं शिलालेख में महावीर के नाम से इस मूर्ति का इमीग्रंथ में देवी सिद्धाविनी का स्वरूप इस प्रकार उल्लेख ये सब श्राधार बड़े बाबा को सन्मति की प्रतिमा मानने वालों को इतने निश्चित लगे कि इस प्रकार के शोध सिद्धिायिका सप्त करोड्रितांग, की आवश्यकता ही नहीं समझी गई। जिनाश्रयाँ पुस्तक दान हस्तम् । अपनी पिछली कुन्डल पुर यात्रा में मैंने जिज्ञासा वश श्रितां सुभद्रासनमत्र यज्ञे, शोध की दृष्टि से इस अतिशय मनोज्ञ मूर्ति का निरीक्षण हेमद्युति सिंहति यजेहम् ॥१७८ ॥ किया तब कुछ नवीन नथ्य सामने आए हैं, जिनके आधार चूकि इस वर्णन से युक्र शासन बक्षा और यही का पर यह मूर्ति निर्विवाद ही प्रथम तीर्थ कर, युगादि देव, अंकन इस प्रतिमा के परिकर में नहीं है इसलिए भी वह भगवान श्रादि नाथ की प्रतिमा निर्धारित होती है। इस मूर्ति भगवान महावीर की नहीं मानी जा सकती। श्री रूपसम्बन्ध में मेरे प्राधार इस प्रकार हैं चंद रतन' ने अपने उक्त लेख में एक और प्राधार हम ३. प्रतिमा केवल चौबीस तीर्थकरों की ही बनाए जानेकी प्रकार लिया है। परम्परा रही है । भगवान श्रादिनाथ के तीर्थ में, उनसे भी मंदिर के शीर्ष मुकुट भाल पर अवस्थित पाषाण कृत पूर्व, कठोर तपश्चरण करके बाहुबली स्वामी ने मुक्ति लाभ सिंह अंकित है जो दर्शकों को दूर से ही सूचित करता है लिया था, इस कारण उनकी मूर्ति बनाने की परम्परा भी है कि यह जिनालय श्रीवद्धमान स्वामी का है" इस चली परन्तु यह एक अपवाद रहा । इन पच्चीस के सम्बन्ध में इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि मंठिर के शीर्ष अतिरिक्त किसी भी मोनगामी की मूर्ति बनने की परम्परा भाग पर शुक नासा बिम्ब की स्थापना नागर और नाग या विधान का कहीं कोई उल्लेग्व या प्रमाण प्राप्त नहीं होता वषर शैली के मन्दिरों की विशिष्टता रही है तथा उनमें इस प्रकार श्राधर स्वामी का कल्पना निराधार सिद्ध होती सर्वत्र--न केवल जनों में-वन शैवों और वैष्णवों में भी है । दूसर ऋद्वि, मिन्द्धि और परिकर की उत्कृष्टता के अनु केवल सिंह की मूर्ति स्थापित करने की प्रणाली रही है। पान से भी मूलनायक की स्थिति में श्रीधरस्वामी को शुक नामा बिम्ब से मन्दिर के देवता का कोई संकेत नहीं विराजमान करके पार्श्व में पारसनाथ की प्रतिमाएं प्रतिष्टित मिलता। इसी प्राणाली के अंतर्गत इस मन्दिर के निर्माताकराना संगत नहीं कहा जा सकता । ओं ने वह सिंह यहां स्थापित किया होगा । मूर्ति का चिन्ह बड़े बाबा के प्रासन के चिन्ह मिहामन के प्रतीक उसके मामन में होता है । मन्दिर के शीर्ष पर उसके पाये है, वे मूर्ति के लांछन नहीं है, इसका प्रमाण तो उमा जाने का कोई प्रमाण कहीं प्राप्त नहीं हुवा।। कक्ष में विराजमान अन्य तीथंकरों की चिन्ह युक्त मूनियों इसी लेख में मातंग यक्ष को बन्दर मुग्याकृति लिखा में ऐसे ही सिंहासनों का अस्तित्व है, अत: इस प्राधार गया है पर ऐसा कोई शास्त्रोत प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया पर इसे सन्मति की मूर्ति मानना भी साकार मान्यता नहीं गया। प्राशन के इस यम को देख कर स्पष्ट ही जाना जा कही जा सकती। सकता है कि प्रस्तुत अंकन वृषभ मुग्वाकृति गोमुख यक्ष का ३. वर्धमान की प्रतिमा के परिकर में उनके शासन है मर्कट मुखाकृति नहीं है। देवता गजारुद मातङ्ग यक्ष और शामन देवी पिद्धायिका का ५. इस प्रतिमा के कांधे पर जटाओं का स्पष्ट अंकन अस्तित्त्व अवश्यंभावी है।' पं० प्रवर श्राशाधरजी के प्रतिष्ठा है। भगवान श्रादिनाथ के दीर्घ कालीन, दुर तपश्चरण सारोदार' के अनुसार मातङ्ग का स्वरूप इस प्रकार है:- के कारण उनकी प्रतिमा में जटाएं बनाने की परम्परा मध्य Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनेकान्त काल तक प्रचलित रही है। जटाओं के अंकन के इस रहस्य तथा देवी चक्रे श्बरी का स्वरूपका उल्लेख प्रादिपुराण में इस प्रकार वर्णित है- भर्माभाद्य करद्वयाल कुलिशा, चकांक हस्ताष्टका, चिरं तपस्यतो यस्प जटा मूनि बभूस्तराम् ।। सव्या सव्य शयोल्लसत्फलवरा, यन्मूतिरास्तेम्बजे । ध्यानाग्नि दग्ध कर्मेन्ध निर्मद धूम शिखा इवा ताक्ष्ये वा सह चक्र युग्म रुचक त्यागैश्चतुभिः करैः, आदिपुराण पर्व १. श्लोक है. पंचेष्वास शतोन्नत प्रभुनतां, चक्रेश्वरी तां यजे ॥१५६ बड़े बाबा के नाम से प्रख्यात इस प्रतिमा में जटाओं वर्णन किया गया है और इसी वर्णन के अनुरूप इस का अस्तित्व हमें ज्ञात रहा हो चाहे नहीं, परन्तु लोक मूर्ति के प्रासन में सींग सहित गोमुख यक्ष तथा नर यक्ष पर ग्रामीन चक्र युक्र देवी चक्रेश्वरी की एक हाथ अवराति की परम्परा का पहरुवा, ग्रामीण गीतकार बहुत प्राचीन काल से इस तथ्य से अवगत रहा है क्षेत्र पर छोटे गाहना की मूर्तियां अंकित हैं। बालकों का मुन्डन संस्कार कराने की प्रथा है और उस गोमुख के दोनों सींग और अपेक्षाकृत लम्बी आंखें अवसर पर यह गीत न जाने कब से कुण्डल पूर में गाया तथा कान एवं मुकुट पर धर्मचक्र दृष्टव्य हैं । गले में माला जाता रहा है तथा यज्ञोपवीत और दाहिने हाथ में मातु लिंग एवं वाएं में फरम अंकित हैं । इसी प्रकार ललितासनस्थ चक्रेश्वरी की कुण्डलपुर बाबा जटाधारी, चार भुजाओं में से ऊपर की दो भुजाओं में चक्र तथा नीचे मौड़ा की चुटइया मुड़ा डारी॥ शंख एवं वरद मुद्रा है। शरीर पर वक्षहार, मणि माल, इसके अतिरिक्र स्वयं "बड़े बाबा" "महादेव" मोहन माला, कंगन, कुण्डल, मुकुट श्रादि अलंकार यथा 'यगादि देव आदि नाम भी श्रादिनाथ के लिए ही प्रयुक्र स्थान शोभित हैं। होते हैं। इन्हीं श्राधारों के बल पर मैं इस अद्भुत जिन बिम्ब १. मेरी इस धारणा का अंतिम और महत्वपूर्ण को भगवान आदिनाथ के नाम से स्मरण कर रहा हूँ। भाधार इस मूर्ति के प्रासन के पार्श्व में प्रादिनाथ के यक्ष पावस्थ चामरधारी सौधर्म एवं ऐशान इन्द्रों एवं पुष्पमाल्य गोमुख और यक्षी चक्रेश्वरी का सहज, सायुध अंकन है। सहित उड़ते हुए विद्याधरों की अंकन शैली एवं प्रतिमा की पंडित प्रवर माशाधर जी के अनुसार गोमुख यक्ष का स्वरूप कला के आधार पर इसका निर्माण काल भी मेरे अनुमान सव्येतरो लकरदीप्र परश्वधाक्ष सूत्रं, से उत्तर गुप्त और पूर्व मध्य काल (छठवीं से आठवीं तथाधरकरांकफलेष्ट दानम् । शताब्दि) के बीच का ज्ञात होता है। कोई पुराविद् विद्वान प्राग्गोमुखं, वृष मुखं वृषगं वृषांक, यदि इस पर शोध पूर्वक सप्रमाण कोई मत व्यक्त करेंगे तो भक्त यजे कनकभं वृषचक शीर्षम् ॥१२६ मैं उनका प्राभार मानूंगा। *** सम्बोधक-पद किशन चन्द यो संसार निहार जिया परलोक सुधारो।। टेक ।। तू पोषत यह नित छीजै, नाना जतन विच.रो। जो पुद्गल कू अपणो जाएं, सो तन नाहिं तिहागे । जिया० ।।१।। मात तात सुत भ्रात सुहृद जन, सो सब जागो न्यारो। मरती विरियां संग न चाल, पाप पुन्य सग सारो।। जिया० ।।२।। जो चेत सतसंगति पाई तजि मिथ्यामत खारो। 'चद किशन' बुध इम भाषत है प्रातम रूप निहागे ।। जिया० ।। ३ ।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकस्मिक वियोग बाबु जयभगवान जी एडवोकेट पानीपत, एक उच्चकोटि उनका अभिनन्दन भी किया था। उनके तुलनात्मक निष्कर्ष के तुलनात्मक अध्येता थे. सरल स्वभावी मिष्टभाषी और बहे महत्व के होते थे। वे अत्यन्त उदार और भावुक हृदय उदार विद्वान् थे। उनका क्षेत्र सार्वजनिक था, वे इतिहास थे । और दूसरे की करुण कहानी सुनकर द्रवित हो जाते और साहित्य के मर्मज्ञ थे । यद्यपि वकालत का कार्य करते थे। और उसकी यथाशक्ति सहायता भी करने थे। वे सभी हुए उन्हें शोध-खोज के कार्यों के लिये बहुत कम अवकाश का हित चाहते थे और सभी से मिलते जुलते रहते थे। मिलपाता था, परन्तु साहित्य के प्रति उनकी प्रबल अन्तर्भावना प्राज वे संसार में नहीं है। उनका भौतिक शरीर पंच उन्हें बगबर प्रेरित करती रहती थी। प्रतएव समय निकाल भूतों में मिल गया है। परन्तु उनका यशः काय सदा विद्यमान कर वे अध्ययन तथा मनन करते हुए अनेक तथ्यों का उद- रहेगा। वीरसेवामंदिर और दूसरी संस्थाएं जो उनकी भावन करसक थे। उनकी शोध-खोज और तुलनात्मक सेवा का क्षेत्र बनी हुई थी वे उनकी स्मृति की रेखाएं बनाये साहित्यक अध्ययन की विशा भगवान महावीर से पूर्ववर्ती रखगी, उनके विचार सुधारचादी और दथे पर अपने थी, उनके अनेक महत्वपूर्ण लेख अनेकान्त में हिन्दी में विचारों से समाज में कभी कोई मंघर्ष पैदा करना नहीं प्रकाशित हुए हैं। और 'वाइम आफ अहिंसा' में अंग्रेजी में चाहते थे। वे जो कृष भी कहते थे उसके पुष्ट पोषक व कला और पुरातत्व का अन्वेषण तथा अध्ययन करते प्रमाणों का संकलन और युक्रिवल रखते थे। उनके बहुत रहने थे। और जब उन्हें किसी वस्तु का कुछ संकेत मिलता से नोटम पड़े हुए हैं। और कई अधूरे लेख भी। उनका था तो वे अन्य लेखकों की बातों को जानने के लिए प्रमाण झुकाव दिन पर दिन अध्यात्म की भोर हो रहा था। वे इंदते थे और उस पर अपने अनुभव के साथ निर्णय कर मृत्यु से पहले जब दिल्ली प्राये थे तब वे कहते थे कि स्वीकृत करते थे । वे किसी की कही हुई किसी वस्तु पर से ऋषभदेव की संस्कृति प्रध्याम से श्रोत-प्रोत थी। भारतीय अपना अभिमत नहीं बदलते थे किन्तु उसका यथार्थ ग्रन्थों में उनकी संस्कृति के जो बीम पाये जाते हैं। उनका विश्लेषण करते हुए तथा उस पर विशेष प्रकाश डाल कर सम्बन्ध प्रादि ब्रह्माप्रादिनाथ से था। क्योंकि वह संसार मागम, युक्रि और अनुभव के आधार पर मान्य करते थे। में सबसे पहले योगी थे। वेद और उपनिषदादि ग्रन्थों पर से उन्होंने भगवान ऋषभ बाबू जी के जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि देव की संस्कृति का अच्छा अध्ययन किया था। वे रोंमें हुए ब्यक्रि को भी हमा देने थे । उमकी भद्रता विनयवीर-सेवा-मन्दिर और परिषद् के काया सता अनुराग शीलता को देखकर आश्चर्य होता है। रखते ही थे किन्तु अनेक सामाजिक कार्यों में भी अपनी खेद है कि बाबू जयभगवान जी शाम हमारे मध्य नहीं शनि लगाते थे । वीर-सेवा-मन्दिर के वे प्रारम्भ से ही भ से ही रहे। परन्तु उनके गुणों की स्मृति उनकी वार बार बाद का प्रधानमंत्री रहे हैं। दिलाती है। हमारी हार्दिक भावना है कि बाबू जी परलोक देहली के नये मंदिर जी में भी आपने दशलक्षणपर्व में सुख-शान्ति का अनुभव करें । और कुटुम्बी जनों को में तत्वार्यत्र पर सच्चा प्रवचन किया था और समाज ने धैर्यावलम्बन की क्षमता मिले। -अनेकान्त परिवार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त करता। उनके स्वर्गवास से अापके एक सच्चे सहयोगी का बिछोह हुआ है । प्राशा है पार सन्तोष धारण करेंगे। मंत्री (बा० प्रेमचन्दजी) के नाम पत्र " में और मेरा परिवार उनकी आत्मा की सद्गति की आपके पत्र से बाबू जयभगवानजी के निधन का समा- कामना करते हैं। चार जानकर बहुत दुःख हुना, विश्वास नहीं हो रहा है कि वे प्रेम सागर जैन चले गये.......... । दि जैन कालेज बड़ौत (मेरठ) वकील साहब जैन समाज के गौरव थे और वीर-सेवा मन्दिरके तो वे प्रारंभ से ही मंत्री रहे । साहित्यिक अनुसंधान में ये बहुत दक्ष थे । वीर सेवा मन्दिर में उनके स्थान की पूर्ति होना कठिन है। मुझे तो उनके वियोग से बहुत ही व्यथा श्राकास्मक निधन हुई है। मेरा सदा वे बहुत सादर करते थे । उनकी श्री बाबू जयभगवानजी एडवोकेट पानीपत का ५ प्रारमीयता और स्नेह कभी भुलाये नहीं जा सकते । मैं तो अप्रैल को आकस्मिक निधन जानकर चित्त को बड़ा प्राधात उनसे निवेदन करने वाला था कि अब आप वकालत से पहना। आप उस दिन वीरसेवामन्दिर में आने वाले थे। retier होकर वीर सेवा मन्दिर में रहे और अपनी सेवा मिलन के स्थान पर वियोग का दुःसह समाचार पाकर किसे समाज को प्रदान करें। किन्तु मेरे विचार कुछ भी काम न कष्ट नहीं होता। श्राप एक अच्छे अनुसंधानप्रिय योग्य पाये । बहुत दुःख है। विद्वान थे, सुलेखक थे और साथ ही वक भी थे। समाजके -छोटेलाल जैन उत्थान-कार्यो में बराबर भाग लेते थे। बीर-सेवामन्दिरडा० प्रेमसागर का अध्यक्ष के से श्राप को बडा प्रेम था। सन् १९४२ के शुरू में मेरे अनुरोध पर आपने वकालत छोड़कर उसे अपनी सेवाएं नाम पत्र अर्पित की थीं । दुर्भाग्य से अपनी कुछ परिस्थितियों के वश ये कुछ महीने बाद फिर से वकालत करने के लिये बाध्य मैंने बाबू जयभगवानजी को एक बार बडौत और हुए और अन्त को वकालत करते हुए ही उनका निधन तीन बार दिल्ली में देखा था। अभी अनेकान्त के सम्बन्ध हा है । सन् १९५१ में मेरे द्वारा वीरसेवामन्दिर ट्रस्ट की में बात चीत होनी थी, न हो सकी। देव-दुर्विपाक से ही स्थापना हो जाने पर ट्रस्ट ने उन्हें अपना उपमंत्री चुना था, ऐसा हुआ। बाद को वे मंत्री चुने गए और सोसाइटी की रजिस्टरी के मैंने बाबू जयभगवान जी को एक मही इन्सान के रूप अवसर पर सोसाइटी के भी मंत्री नियुक्त हुए और अन्त में देखा । उन्होंने जैनधर्म की अहिंसा को समझा ही नहीं तक उसके मंत्री बने रहे । इस तरह वीर-सेवा-मन्दिर के अपने जीवन में उतारा भी था। वे विद्वान थे, प्रतिभाशाली साथ आपका बहुत वर्षों से गहग सम्बन्ध रहा है। आपके थे और अत्यधिक उदार थे। इस वियोग से जहां वीर-संवा-मन्दिर को भारी क्षति पहुंची वीर सेवा मंदिर के विकास में उनके योगदान से सभी वहाँ समाज की भी काफी हानि हुई है, जिसकी सहज परिचित हैं । सतत अस्वस्थ रहने के कारण अनेक कार्य ऐसे पूर्ति सभव नहीं। हार्दिक भावना है कि सद्गत प्रात्मा को थे जिन्हें दिल होते हुए भी वे न कर सके, इस विषय में परलोक में सुख शान्ति की प्राप्ति होवे और कुटुम्बीजनों मुझ से दो बार चर्चा की। उनकी गहरी वेदना और विवशता को धैर्य मिले। मैं समझाता था उनके प्राकस्मिक निधन से वीर सेवा मंदिर -जुगलकिशोर मुख्तार को जो क्षति पहुंची है, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। सन्निकट भविष्य में पूरी हो सकेगी मैं ऐसी प्राशा नहीं Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _स्व. श्री जयभगवानजी जैन एडवोकेट पानीपत की अन्तिम भावना (जो अपने स्वर्गारोहण समय में एक दिन पूर्व ३ अप्रैल १६६४ को उनके द्वारा रचित निम्न कविता से अभिव्यक्त होती है।) समर्पण पंच भून भूतों, को अपित । वायु वायु को रज रज अर्पित ।। अग्नि अग्नि को जल जल अर्पित । भूमि खण्ड हो भूमि समर्पित ॥१॥ निज जन पग्जिन तन पत्नी सुत । स्वार्थ बुद्धि से है मम कल्पित ॥ जरा मृत्यु से ये पावरणित । जरा मृत्यु को हों ये अर्पित ॥२॥ इनमें कुछ भी सार 'ग्रह' ना । ये सब पर है पर को अर्पित ।। अहम् अस्मि मै, ब्रह्म अम्मि मै। अहम् अस्मि को होऊ अर्पित ॥३॥ काम क्रोध मद लोभ अकृति । पशु हृदयों की वृनि कनुपित ।। मुझे न वाञ्छित अशुचि अधम ये । हो पशुओं को ही ये अर्पित ।।४।। मुग सुन्दरी मुग्पति अर्पित । धन वैभव हो धनपति अर्पित ॥ दान दक्षिणा द्विज जन अपित । गज माज राजन को अर्पित ।।५। जहाँ जहां ये तृष्णा तर्पित । वहां वहां सर्वम्व समर्पित ॥ शिव सुन्दर प्रिय शान्त 'ग्रह' मै । शिव सुन्दर को हूँ मै अर्पित ॥६।। मित्र वरुण तू सविता यम तू । सव भुवनो का धाम परम तू ।। विश्व-मैत्री उत्सव उत्सुक मै। विश्व-मैत्री को हूँ मै अर्पित ।।७।। परमेष्ठी परमार्थ पुरुप त । परम परम हो इष्ट मुझे है ॥ विनति यही नैघेघ यही है। परम परम को हूँ मै अर्पित ।।८।। प्रेषक-रूपचन्द गागीय जैन पानीपत + ++++++ ++ +++ + + ++++ ++ ++ + Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा अभिनव प्राकृत व्याकरण, श्रीमद् यशोविजय जी महाराज का जन्म गुजरात के लेखक:-डा. नेमिचन्द्र शास्त्री, पारा, प्रकाशक, कनोडा गांव में प्राज से ३५० वर्ष पूर्व हुआ था। यह तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी, सन् १९६३ ई०, पृ. ५३३ स्थान प्राज भी महेराणा से पाटण जाने वाली रेलवे लाइन मुख्य १५ रु.। पर स्थित, दूसरे स्टेशन धीयोज से, पश्चिम में चार मील ___इसके पूर्व और भी अनेक प्राकृत भ्याकरण बन चुके दूर रूपेण नदी के किनारे पर बसा हुअा है। अब तो उसमें हैं। किन्तु यहां 'अभिनव' शब्द कतिपय नबीन विशेषताओं कनौडिया ब्राह्मण ही अधिक रहते हैं, किसी समय बनियां की भोर इशारा करता है। उनमें सबसे पहली विशेषता भाषा भी बड़ी संख्या में रहते थे। वैज्ञानिक दृष्टि का अपनायाजाना है। व्याकरण और उसके यशोविजय जी प्रारम्भ से ही प्रतिभाशाली थे। उन्होंने शब्दों की ऐतिहासिक व्युत्पत्ति भाषा विज्ञान है । वह व्या-पाठ वर्षकी उम्र में दीक्षा ले ली। पूज्य गुरु नयविजय करण का व्याकरण कहलाता है। डा. नेमिचन्द्र ने उसका जी के पास शिक्षा-दीक्षा हुई । उच्च अध्ययन के लिए बनारस भी अच्छा अध्ययन किया है । दूसरी विशेषता है सभी गये। वहां से तीन वर्ष उपरान्त ही लौट कर उन्होंने श्रागरे प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक विवेचन । ऐसा प्रतीत होता में किसी जैन विद्वान के पास कर्कश तर्क प्रन्थों का पारायण है कि लेखक ने अनेक प्राकृत व्याकरण पढ़े हैं, समझे हैं, किया। गजरात में उनका विशिष्ट सम्मान था। उन्होंने तभी वे उनकी तुलना सफलता पूर्वक कर सके हैं। उन्होंने हान ३०० प्रन्धों का निर्माण किया। वे एक महान विद्वान थे। अपने इस अध्ययन को आसान और वैज्ञानिक शैली में प्रस्तुत पुस्तक में उनके जीवन और कृतित्व का परिचय अभिव्यक्त किया है। यहां उन उलझनों के दर्शन नहीं है। लेखक ने गहभक्ति से अनुप्राणित होकर इसका निर्माण होते. जो प्रायः व्याकरण अन्धों में प्राप्त होती है । किया है। यशोविजय जी अपने युग के अप्रतिम विद्वान थे, तीसरी विशेषता है: अन्त में १६ परिशिष्टों का यह निर्विवाद है। कतिपय स्थल ऐसे रह गये हैं, जहां निबद्ध किया जाना । इनमें भाषा और विषय-क्रम से शब्द- लेखक न स्पष्ट है, न प्रामाणिक । मागरे में किस विद्वान सूचिशं प्रस्तुत की गई हैं। उनके, बिना अन्य व्यर्थ ही था। के पास यशोविजय जी ने तर्क पन्ध पदे भाज भी प्रवियह सब कुछ परिश्रम साध्य तो है ही, लेखक की मंजी हुई दिव है। दिगम्बर मान्यताओं का गढन करते २ वे कड़वे राष्ट से भी अपेक्षित है। ग्रन्थ प्राचीन और नवीनके ताने- क्यों हो उठे समझ में नहीं आया । इसी प्रकार महात्मा बाने से बुना गया है। इसमें ग्यारह अध्याय है। 'अन्तिम अानन्दधन से उनकी मुलाकात का विशद विवेचन नहीं है। दो' महत्वपूर्ण हैं। उनमें अन्य प्राकृत भाषानों और अप यह भी समझ में नहीं प्रापाता कि एक ओर तो उन्होंने भ्रंश का व्याकरण निबद है। ऐतिहासिक विवेचन उसकी 'अध्यातमियां लोगों का मण्डन किया और दूसरी ओर अपनी विशेषता है। महात्मा श्रानन्दधन से प्रभावित होकर प्रष्टपदा' और ___ ग्रन्थ की बाह्य साज-सज्जा सन्तोषप्रद है, किन्तु शरद्धा- 'चावीशी' का निर्माण किया, मेरी दृष्टि में उस समय प्रानन्दनुशासन जैसी नहीं। हमें विश्वास है कि प्राकृत भाषा के धन से बड़ा कोई 'अध्यातमियां' नहीं था । सदैव प्रारमानुजिज्ञासुमों के लिए यह प्रन्य पठनीय होगा। भूति में लीन रहने वाले उस महात्मा से यशोविजय जैसे अमर यशोविजय जी तर्क प्रवण विद्वान का अन्तस्तल हिल उठा था । लेखक:--रंजन पामार, प्रस्तावना-लेखक:- सुखलाल मैं पाशा करता हूँ कि श्रीमद् यशोविजय जी पर एक जी संघबी, प्रकाशक : राजविराज प्रकाशन, ३११ रविवार महत्वपूर्ण शोध ग्रन्थ प्रकाशित होगा। उन पर लिखे गये फे, पना २, सन् १९५६ ई०, पृ.५६, मूल्य ५ न. पै. अभिनन्दन ग्रन्थ से भी उत्तम और श्रेष्ठ। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोक सभा सेवा मन्दिर के अनुसंधान कार्य से उनकी बहुत रुचि थी उनकी सेवानों का क्षेत्र केवल वीर सेवा मन्दिर तक सीमित वीर सेवा मन्दर भवन २१ दरियागंज में ७॥ बजे नहीं था बल्कि उन्होंने पमुचे जैन समाज की लगन एवं रात्रि को बाबू जयभगवान जी एडवोकेट पानीपत के प्राकरिमक नि:स्वार्थ भाव से सेवा की थी। वे एक उच्च कोटि के निधन पर शोक सभा की गई, जिसमें वीर संवा मन्दिर की विद्वान वक्रा और लेखक भी थे। सेवानों के साथ सामाजिक सेवात्रों का उल्लेख करते हुए उनके निधन से वीर संवामन्दिर की जो क्षति हुई है उनके उदार स्वभाव की महती प्रशंसा की गई। और उन्हें का महता प्रशमा का गई। और उन्हें उपकी पूर्ति होना संभव नहीं। श्रद्धांजलि अर्पित की गई। सबने खड़े होकर नो वार प्रभु से प्रार्थना है कि उनके जीवन के प्रादर्श और उनकी नमस्कार मंत्र का जाप्य किया। तथा निम्न प्रस्ताव पारित सेवाएँ जैन समाज तथा वीर सेवामन्दिर को सदा अनुप्राणित हश्रा। करती रहेंगी। प्रस्ताव यह सभा दिवंगत प्राप्मा को परलोक में सुख-शान्ति वीर संवा मन्दिर के सदस्यों की यह सभा बाबू जय- की हार्दिक कामना करती हुई उनके कुटुम्बी जनों के भगवान जी पडवोकेट पानीपत के प्राकम्मिक निधन पर प्रति अपनी समवेदना प्रकट करती है। हादिक शोक प्रकट करती है । जयभगवान जी वीर सेवा प्रेमचन्द जैन मन्दिर के सन १९४२ से अब तक प्रधान मंत्री थे । वीर पं. मंत्री, वीर सेवा मन्दिर वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मच द जी जैन, कलकत्ता | २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन ट्रस्ट, १५०) श्री बजरगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता श्री साह गीतलप्रमाद जी, कलकत्ता १५०) श्री चम्पालाल जी मरावगी, कलकना ५००) श्री गमजीवनद म जी सरावगी, कलकत्ता | १५०) श्री जगमोहन जी मरावगी, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी मगवगी, कलकना १५०) श्री कस्तूरचन्द जी प्रानदीलाल, कलकता ५००) श्री नथमल जी मेठी, कलकना १५०) श्री कन्हैयालाल जी मीनागम, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकता १५०) श्री प० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी भाझी, कलकता १५०) श्री मालीराम जी सगवगी, कलकत्ता २५१) श्री ग० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) श्री प्रतापमलजी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता | १५०) श्री भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री स० सि. धन्यकुमार जी जैन, कटनी | १५०) श्री शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १५०) श्री सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता मैससं मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता | १००) श्री रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद १००) श्री बद्रीप्रमाद जी पात्मागम जी, पटना २५०) श्री बन्शीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) श्री मारवाड़ी दि० जैन समाज, व्यावर २५०) श्री जुगमन्दरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) श्री दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी | १०१) श्री सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं०२ २५०) श्री महावीर प्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) श्री लाला शान्तिलाल कागजी, २५०) श्री बी० आर० सी० जैन, कलकत्ता दग्यिागंज. दिल्ली। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन मभी ग्रन्थ पौन मूल्य में in) (1) पुगनन-जन गप-मना-प्राकृत के प्राचीन ४६ मुल्य-प्रन्यों की पद्यानुक्रमणी, जिसके माथ ४८ टीकानिग्रन्थ में उद्धन दुर्गा पद्यों को भी अनुक्रमणा लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की मची । सम्पादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महाब की .. पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृन. हा. कालीदाम नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिर की भूमिका (Introduction) से भृषित है. शोध-ग्बोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बहा, माइज सजिल्द १५) (२) प्राप्त पगना-श्री विद्यानन्दाचार्य की म्वोपज मीक अपूर्व कृति प्राप्नों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषय के मुन्दर विवेचन की लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद में युक्त. मजिल्द । ८) (३) म्यम्भम्नोत्र-समन्तभदभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुन्नार श्रीजुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद नथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना में मुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनावी कृति, पापों के जीतने की कला. मटीक, मानुवाद और श्रीजगलकिशोर मुग्टनार का महत्व की प्र नावनादि में अलंकृत मुन्दर जिल्द-महिन । (1) अध्यात्मकमलमानराठ-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी मुन्दर प्राध्यामिकरचना, हिन्दीअनुवाद-महिन ॥) (6) युक्त्यनुशासन-नवज्ञान में परिपूर्ण समन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुश्रा था । मुन्नार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि में अलंकृत, मजिल्द। ... (७) श्रीपुरपाश्वनाथग्त्री-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महान्य की म्नति. हिन्दी अनुवादादि महिन। .. ) (८) शासननम्ििशव।-(परिचय) मुनि मदनक निकी १३वी शतान की रचना, हिन्दी अनुवाद-पहिन ॥) () समानीन धर्मशास्त्र-ग्वामी समन्तभद्र का गृहम्याचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ. मुग्टनार श्रीजुगल किशोर नी के विवचनात्मक हिन्दी भाग्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना मे युक्त, मजिल्द । (10) जैन ग्रंथ-प्रशस्ति संग्रह-संस्कृत और प्राकृत क १.१ अप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रशस्तियोका मंगलाचर शा महिन अपग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और प परमानन्दशाम्बी की इतिहाम-विषयक माहित्य परिचयामक प्रस्तावना मे प्रलंकृत, मजिल्ट । (1) अनित्यभावना-प्रा. पदमनन्दी की महत्व की रचना. मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्ध महिन ।) (१२) नस्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुमार श्री के हिन्दा अनुवाद नया व्याख्या में युक्त । (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । (१४) महावीर का मर्बोदय नीथं), (10) ममन्तभद्र विचार-दीपिका =)। (१६) महावीर पूजा। (१७) बाहुबली पूजा जुगलकिशोर मुग्तार कृत (16) अध्यात्म रहम्य-पं. प्राशाधर की मुन्दर कृति मुन्नार जी के हिन्दी अनुवाद महिन (१६) जैनथ-प्रशस्ति मंग्रा भा० अपभ्रंशके १२२ अप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रशग्नियोंका महत्वपूर्ण पग्रह प्रन्धकागेक ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और उनके परिशिष्टों महित । सम्पादक परमानन्द शास्त्रा मूल्य मजिल्द १२) (२०) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ मंग्य्या ७४० मजिन्द (वीर-शासन-संघ प्रकाशन (२१) कमायपाहुर सुत्त-मुलग्रन्थ की रचमा अाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालाल जी सिद्धान्त शाम्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के माथ बढी माइज के १... से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज, और कपड़े की पक्की जिल्द । (२२) Reality प्रा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिन्ति का प्रप्रेजीमें अनुवाद बरे प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मु. (६ प्रकाशक-प्रेमचन्द, वीर सेवा मन्दिर के लिए नया हिन्दुस्तान प्रेम, दिल्ली में मद्रित . 2 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्व मासिक जून १९६४ अनेकान्त अहिसा और विश्व शान्तिके अग्रदूत, लोकप्रिय नेता स्व०प० जवाहरलाल नेहरु समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ++ +++ + +++++++ ++ + + . . . . . + + + . . . . . श्रध्दाञ्जलि +++++++ बुद्धवार, दिनांक २७ मई १९६४ को, दिन के २ बज कर २० मिनट पर हृदय की धमनी फट जाने से, भारत के प्रधान मन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू का नई दिल्ली में स्वर्ग वास हो गया । वे केवल उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ ही नहीं, अपितु एक महामानव भी थे। कोरी राजनीति विश्व के विनाश पथ पर ले जाती है तो कोरी मानवता एक प्रादर्श भर है, जिसका मनुष्य जाति की जीवन समस्याओं से कोई सम्बन्ध नहीं रहता। नेहरू जी के मानवीय पहलू ने समूचे विश्व को छुआ था। उनके निधन का समाचार 'करण्ट की तरह व्याप्त हो गया। और कोई दश ऐसा नहीं जो शोक-मन्तप्त न बना हो उनके दिवंगत होने से भारत के ही नहीं संमार के दिल को एक धक्का लगा है, जिसके सम्भलने में समय लगेगा। विश्व को ऐसा शक्रि-पुत्र शताब्दियों में उपलब्ध हुअा था, और अब शायद फिर शताब्दियों ही लगेगी। उनकी शव यात्रा में २० लाग्य मनुष्य शामिल हुए। राजपथ पर जन समुद्र हिलोरे ले उठा। अपने प्यारे नेता को भरे दिल और गीली श्रग्विों से अन्तिम विदा दन व पाये थे। उनके हृदय वेदना संकुल थे किन्तु उन्होंने अडिग धैर्य और मजबूत कदमों में विदा दी। मा प्रतीत होना था जैसे जवाहरलाल की प्रेरणा प्रसूत मूर्ति अब भी सहम वर्षा की दासता से दुर्बल भारतीयों को अदम्य प्रेरणा दे रही हो और इसी कारण उनके कांपते दिलों ने भी जिस दृढता का परिचय दिया वह सब प्रशंसनीय है । एक विदेशी का यह कथन कि नेहरू ने एक मजबूत भारत छोड़ा है, मेरे कथन का यह साक्षी है। ++ + + + + + + + + नेहरू जी अहिंसा और शान्ति के प्रतीक ही थे। उनके प्रयन्नों में ही यह संसार तीसरे युद्ध से बच सका, इसे सभी देश और उनके कूटनीतिज्ञ स्वीकार करते हैं । उन्होंने एटमबम्ब परीक्षण ग्रोर शस्त्रास्त्रों की होड़ को नितान्त त्यागने का आग्रह किया तो बडे देशों की जनता ने प्रसन्नता पुर्वक स्वागत किया। अमेरिका और रूम का भय कर शीत युद्ध अल्पादपिअल्प हो सका इस पृष्ठभूमि में भी नेहरू जी विद्यमान थे । श्राज प्रेजीडेण्ट जोन्सन और खुश्चेव दोनों ही शान्ति प्रयत्नों का स्मरण करते हैं। उनके न रहने से एक घार राज नीति का विशाल म्तम्भ टूट गया तो दूसरी ओर जन जन का हृदय भवन सूना हो गया । जब प्रेमी ही न रहा तो प्रिय के दिल को कहाँ महलन प्राप्त हो । विश्व ने एक बारगी जिस वैधव्य का अनुभव किया है, वह झूठा नहीं है । विभिन्न प्रवृत्तियों, रंग-रूप और धर्मो के राष्ट्रों का प्रेम एक नेहरू में समाहित हो मका, यह भारत के लिए गौरव का विषय है । उनमें वह समन्वयात्मक तत्त्व था, जिसकी अाधार शिला पर अनेकान्त का चिन्तन चला था और अटत की तह में भी जो सदैव विद्यमान रहता पाया है। ऐसे महामानव के चरणों में 'अनेकान्त'. परिवार के सदस्य अपनी भाव भीनी श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं । वह सही तभी होगी जब उनके बनाये पथ पर हमारे कदम अन्तिम सांस तक चलते रहेंगे। -अनेकान्त परिवार + + + + + ++ + + . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 4 4 4 4 4 4 . .. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम प्रहम् अनकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष १७ किरण, २ वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६. वीर निर्धारण स० २४६०, वि० सं० २०२१ जून सन् १९६४ ........" जिनवर स्तवनम् दिट्र तुमम्मि जिणवर सहलीहूआई मझ णयणाई । चित्त गत्त च लहुँ अमिएगण व सिंचियं जायं ॥ दिठ्ठ तुमम्मि जिणावर दिहिहगसेममाह तिमिरेण । नह गळं जइ दिट्ठ जट्ठियं तं मए तच्चं ॥ दिट्ठ तुम म्मि जिणवर परमाणंदेण पूरियं हिययं । मझ तहा जह मगगणे मोक्वं पिव पत्तमप्पाणं ॥ -श्री पद्मनंद्याचार्य अर्थ :-हे जिनेन्द्र ! प्रापका दर्शन होने पर मेरे नेत्र सफल हो गए तथा मन और शरीर शीघ्र ही अमृत से सींचे गए के समान शान्त हो गये हैं ॥१॥ हे जिनेन्द्र ! प्रापका दर्शन होने पर दर्शन में बाधा पहुंचाने बाला समस्त मोह ( दर्शन मोह) रूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गया कि जिससे मैंने यथावस्थित तत्त्व को देख लिया है-सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है ॥२॥ हे जिनेन्द्र ! प्रापका दर्शन होने पर मेरा अन्तः करण ऐसे उत्कृष्ट प्रानन्द से परिपूर्ण हो गया है .कि जिससे मैं अपने को मूक्ति को प्राप्त हुआ ही समझता हूं ॥३॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं. जवाहरलाल नेहरू क्या थे ? Gandhi ji : "He is as pure as crystal; सी. राजगोपालाचारी : भारतवर्ष में नेहरू जी से बहा he is truthful beyond suspicion. He is कोई धार्मिक व्यक्रि नहीं है, केवल इतना है कि वे अपनी knight sans peur, Sans reproche. The धार्मिक प्रवृत्तियों को प्रकट नहीं करते। nation is safe in his hands." Lal Bahadur Shastri : He has ___ गांधी जी : वह एक शुद्ध दाण की भांति पवित्र हैं। functioned so remarkably and in so उनकी सत्यनिष्ठा सन्देह से परे हैं, वे निभीक हैं और उन many fields and capacities that his का प्रत्येक कार्य गौरवपूर्ण होता है। देश उनके हाथों में position today is unique not only I] सुरक्षित है। his own country but in the whole Dr. Rajendra Prasad : "Here is a world" man the like of whom treads this Earth लाल बहायुर शास्त्री : नेहरू जी ने अनेक नेत्रों और but rarely and only in a crisis. He has विविध रूपों में इ, उत्तम ₹ग से कार्य सम्पन्न किया है कि been born and has lived in a critical इस समय उनका स्थान केवल अपने देश में ही नहीं. period in Indian history and has plaved अपितुम्मूचे विश्व में सर्वोत्तम है। his part nobly and well" ___Lord Bertraind Russel : "Nehru is known to stand for sunity and peace डा. राजेन्द्रप्रसाद : यहां एक ऐसा कि है, जिसजैसा, इस पृथ्वी पर कभी-कभी ही विकट विपत्ति के समय in his critical moment of human hisमें चलता हुआ देखा जाता है । व भारतीय इतिहास के tory. Perhaps it will be he who will पमस्यात्मक युग में उत्पन्न हुए और जीवित रहे तथा उन्होंने lead us out of the dark night of feul अपना भाग शानदार और उत्तम ढंग से पूरा किया । into a happier day." लाई बटरगदु रखेल : मानवीय इतिहास के इन Dr. S. Radha Krishnan : "He has समस्या मक क्षणों में नेहरू जी पवित्रता और शाति के sought to bridge besnis that separate प्रतीक माने जाते हैं । शायद यह वे ही होंगे जो हम सब races, nations and systems That is why को भय की तममान्छन रात्रि से प्रसन्नता रूपी दिन के his name has such a great international प्रकाश की ओर ले जायगें। appeal and become a legend in his own Lord Atlee : Nehru today is the lifetime." doyen of the Prime Ministers of the डा. एस. राधाकृष्णन : उन्होंने उम खाई को पाटने free world. As leader of a great nation का सदैव प्रयत्न किया, जो एक जाति, देश और रिवाज को what he says and does is of supreme भागों में बांट कर पृथक-पृथक कर देती है। यह ही कारण importance to others. It seems to me है कि समूचे विश्व में उनका नाम है और जो उनके जीवन जा उनके जीवन that Nehru is a synthesis of the ideas काल में ही एक परम्परागत कहानी को भी ति प्रसिद्ध हो of the East and the West." गया है। लार्ड एटली : प्राज नेहरू जी स्वतन्त्र विश्व के प्रधान____C. Rajagopalachari : There is no मन्त्रियों में सब से बड़े हैं एक महान देश के नेता होने के greater religious person in India than कारण वे जो कुछ कहते और करते हैं, उसकी दूसरों के Mr. Nehru, only he does not express लिए महत्ता होती है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वे पूर्व his religious sentiments." और पश्चिम के समन्वयात्मक विन्दु हैं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग पुरुष की भाग्यशालिता (काका साहब कालेलकर) मवों के मुह से एक ही बात निकल सकती है कि श्री संभालकर पाने देने के दिन अब नहीं रहे. क्रान्ति की पूर्ण जवाहरलाल जी के साथ एक युग का अन्त होता है । मब यह तय्यारी का काम गांधी जी ने किया । आर्थिक और युगाभी कहते है कि जवाहरलाल जी ने शुरु से प्राज तक जो नुकुल नया मोड देने का काम जवहारलाल जी ने किया। नीति दृढ़ता से चलायी, वहीं भारत के लिये हितकर है। दोनों ने एक तरह से क्रान्ति की रफ्तार बढ़ाई। दूसरी मोर क्योकि वह नीति भारत के समूचे इतिहास में फलित हुई से राष्ट्र का मानम उम रफ्नार को सहन कर सके इसलिये है वह नीति भारत की संस्कृति के अनुसार ही है। और उसे कुछ रोका भी। अव परिस्थिति परिपक्व हुई है। क्रान्ति सबसे बड़ी बात तो जवाहरलाल जी की नीति हम लोगों की रफ्तार में अपना निजी वेग मा गया है। अब राष्ट्र के वे स्वभाव के साथ पूरा-पूरा मेल खाती है। अधिकारियों का समुदाय उसे रोकने की कोशिश करेगा तो जब जवाहरलाल जी की नीति इस तरह हिनकर और भा उसका चलेगा नहीं। बाहर की दुनिया कोशिश करगा स्थिर है, और बही भागे चलानी है, तो उनके साथ किम कि भारत की नीति विशिष्ट गुट के लिये अनुकूल हो। चीज का अन्त होकर नये युग का प्रारंभ हो रहा है। उन ग्रहों का प्रभाव हम पर हुए बिना रहेगा नहीं, लेकिन ___एक बात स्पष्ट है। गांधी जी के दिनों में हालांकि वे भारत का और दुनिया का भला इसी में है कि सबका हमेशा मन्ब माथियों की राय लेते थे, और सब को संभाल प्रभाव मंजूर करते हुए, व्यक्ति किसी एक तत्व के चंगुल में कर के ही अपना काम चलान थे, तब भी उनके मब पाथी फंस न जाय । गांधी जी की राय समझकर अपना मन अक्सर उसी के श्री जवाहरलाल जी ने गाँधी जी से शान्ति, विश्वमैत्री अनुकूल बना देते थे। जवाहरलाल जी का मानस ही हर और अलिप्तता की दीक्षा ली थी । थोड़े ही दिनों में राष्ट्र का मानम होने के कारण उन्हीं की बात सब को उन्होंने वह अपनी ही बनाली। और दुनिया की राजनैतिक मान्य रहती थी। चन्द बात बिलकुल नई हो, राष्ट्र को परिस्थिति से वाकिफ होने के कारण उन्होंने वह नीति पसंद न हो. तो भी जवाहरलाल जी की धार में उनकी दुनिया के संदर्भ के लिये अनुकूल बनाई। सूचना पाई है, इसीलिये लोग मान जाते थं इस विश्वास बड़े-बड़े राष्ट्रीय महत्व के उद्योग भारत में शुरु किये से कि उसी में राष्ट्र का हित है। बिना भारत का अर्थिक सामर्थ्य बढ़ेगा नहीं। दुनिया के माथ चलने के लिये जो माधुनिकता जरूरी है, वह भारत एक के पीछे एक ओर से दो महापुरुषों का नेतृत्व में पायेगी ही। यह देखकर गांधी जी के जीते जी उन्होंने राष्ट्र को मिला। यह भारत का परम सौभाग्य है। अब वह नयी नीति चलायी। उसमें उनकी हिम्मत और उनका जब तक ऐसा ही कोटिका राष्ट्र पुरुष समूचे देश की बाग- स्वतंत्र-दर्शन प्रगट हमा। गांधी जी ने भी देख लिया कि दोर अपने हाथ में न ले । तब तक सबको मिलकर सोचना देशको उमी राम्न जाना है। इसलिये अपना प्राग्रह छोड़कर होगा और कन्यरत राय से बात तय करनी होगी । अब जवाहरलाल जी को उन्हीं की पसंद की हुई दिशा में राष्ट्र किसी एक का नहीं चलेगा। सबका मिलकर चलेगा। को ले जाने उन्होंने रोका नहीं, अपने प्राशीर्वाद ही दिये। समुच्चे राष्ट्र की तैयारी के लिये यही साधना अब गांधी जी की रचनात्मक नीति को और सर्वोदयी प्रथं प्रच्छी है। इसलिये सब कहते हैं कि एक युग पूरा हुमा। नीति को व्यापक बनाने का काम श्री विनोवाभावे ने चलाया। मैं मानता है कि भारत में जो क्रांति शुरु हुई है, और और शुरु में भूदान, प्रामदान और शान्तिसेना के कार्यजो अपने ढंग की है। अब जोरों से चलेगी। उसे संभाल क्रम बढ़ा के नई जान सलने का मौलिक-प्रयत्न भी उन्होंने Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ प्रमेकाम्न चलाया है। इन दो गांधी भक्तों ने एक दूसरे का विरोध और अफ्रिका के उदीयमान राष्ट्रों का वे प्रेरणा स्थान बने कहीं भी नहीं किया, तनिक भी होने नहीं दिया। इससे थे। यूरोप अमरीका के वैभव सम्पन्न देशों के कर्णधारों गांधी जी की उदार शिक्षाका माहात्म्य सिद्ध होता है। तर्क को जवाहरलाल जी की सलाह की कदर करनी पड़ती थी। दृष्टि से परस्पर विरोध दीख पड़ने वाली नीतियों समन्वय पक्षपात रहिन विश्व हित की, उनकी कामना, युद टालकर वृत्ति से परम्पर पोषक हो सकती हैं, यह बात राष्ट्र और शान्ति की स्थापना करने का उनका प्राग्रह, छोटे बड़े सब दुनिया देख सके हैं। आगे जाकर इन दो नीतियों में व्यक्ति और राष्ट्रों का ग्वातंज्प भी रक्षा करने का उनका समझौता हो सकेगा। और राष्ट्र के लिये एक सार्वभौम निश्चय और विश्व मांगल्य के सर्वोरच आदर्श पर भी नीति फलित होगी। उनकी निष्ठा यह सब कुछ भारतीय संस्कृति के जैसा ही दूसरे विचारों में भी काफी नथ्य हो सकता है और भव्य था । उस रास्ते जात भी देश का थोदा बहन हित ही हो सकता लोग कहते हैं कि जवाहरलाल जी को मनुष्य की है। ऐसा समझने की उदारता और नम्रता ही प्रास्तिकता परम्ब कम थी। लोगों पर विश्वास रखने में धोखा खा का एक स्वरूप है। यही समन्वय युग अब अपना काम सकते थे। यह बान मही हो तो भी क्या मनुष्य अपने करेगा। इर्द गिर्द जमी दुनिया हो, उसी से काम ले सकता है। जवाहरलाल जी की तुनुक मिजाजी सब जानते थे। विश्व में काम करने वाली सर्वशक्तियों का अगर सरचा वह क्षण जीवी होती है, यह भी सब जानते थे । और परिचय है और अपने पर पृग पुरा वश्वास है । तो जैसे इसीलिये थोड़ा समय उसका बुग लगा तो भी मब भी मनुष्य मिले उनसे काम लेने की हिम्मन भागग्यशाली माथी भूल जाते थे। काफी प्राग्रह करने के बाद अपनी मनुष्यों में श्रा जाती है। सफलता और विफलता दोनों को बात छोड देना और राष्ट्र को स्वतंत्र विचार करने का मौका मंजर रख के उनमें में अपना राम्ता निकालने की तैयारी देना, यह था जवाहरलाल जी की नीति का एक विशेष जिनकी है, उन्हीं के लिये यह दुनिया है। रूप । ऐसी नीति ये ही चला सकते हैं, जिनका व्यक्तित्व आग्विरकार व्यक्ति का पुरुषार्थ और परिस्थिति का विशाल है। और जिनका अपने देश पर पूग पुरा विश्वास जोर इन दोनों के बीच कभी संघर्ष और कभी सहयोग चलता रहता है । यही तो विश्व का नाटक है। ऐसे नाटक जवाहरलाल जी के मन में किसी के प्रति हूंषभाव भी में महान कार्य करके दिग्बाना और एक महान संस्कृति घर महीं कर सकता था। यह भी उनकी एक विशेषता समृद्ध राष्ट्र को उन्नति के गम्त ले जाना यही तो भाग्यथी। महानता का यह भी एक विरला लक्षण है। और शाली व्यक्ति कपुरपार्थ का लक्षण है। जवाहरलाल जी परमभाग्यशाली तो थे ह।। मोतीलाल सचमुच जवाहरलाल जी ने अपने जमाने पर अपने जी जैसे पिता का पुत्र होमा, गांधी जी जैसे महात्मा के व्यक्तित्व की मुहर लगायी। और इतिहास विधाता की विश्वास का पात्र बनना और चालीस करोड़ जनता की सोची हुए क्रान्ति का रास्ता खुला कर दिया। महात्मा जी भक्ति का भाजन बनना मामुली भाग्य नहीं है। अशोक, ने सस्य और अहिंसा मूलक जो जीवन साधना राष्ट्रीय अकबर और औरंगजेब और लार्ड कर्जन, ये सब भन्यभाग पमाने पर शुरु की, उस साधना का व्यापक स्वरूप जवाहरके अधिकारी माने जाते हैं । जवाहरलाल जी का अधिकार लाल जी ने विश्व के सामने खड़ा किया और एक नास्तिक और प्रभाव इन लोगों से कम नहीं था, और मारे विश्व दुनिया को प्रास्तिकता की झांकी करवाई। इसी कारण के साथ साधे हुए संपर्क की दृष्टि ने तो जवाहरलाल जी राष्ट्र पुरुष जवाहरलाल जी काफी हद तक विश्व पुरुष हो का स्थान इनसे कुछ अधिक ऊंचा ही हो गया था । एशिया सके । - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो देता है वही पाता है (श्री प्राचार्य तुलसी गरणी) जो देता है वही पाना है। जो देना नहीं जानता वह ही अच्छा है। इसलिए मैं पाणवन-मान्दोलन की पूरी पा भी नहीं सकता। जो देने को अवसर की तुला पर तरक्की चाहता हैं।' तोलकर देना है वह व्यवसायी भले ही हो सकता है व्यापक व एक अत्यन्त विनम्र व्यक्ति थे। इसीलिए प्रत्येक के नहीं बन सकता। जवाहरलाल जी व्यापक इसीलिए बने विचारों का सम्मान करते थे। प्रथम बार जब उनसे मिलना कि उन्होंने मुक्त हदय से अपनत्व को बांटा और यही हया तो एक कमरे में हमारे बैठने की व्ववस्था की गई कारण था कि उन्होंने इतना पाया जिसकी कल्पना भी बड़ी । थी। पर अपनी प्राचार परम्परा के कारण हम उसमें नहीं अगोचर लाती है। बैठ सकते थे। मैंने उनसे कहा-हम तो बाहर बैठेंगे। धामिक जीवन उन्होंने बिना किसी ननुनच के स्वयं अपने हाथ में एक उनके बारे में प्रायः कहा जाता है कि वे धार्मिक व्यक्ति गबढी ली और बाहर बरामद में पा गए, बरामदे में एक नहीं थे, पर उनमें कई बार मिलने के बाद ऐसा लगा कि स्थान पर जहां वे बैठने को हुए यहां कुछ चीटियां थीं। म्धिति ऐसी नहीं है। यह सच है कि उन्हें क्रिया-कांड पर मैंने कहा-"हम थोड हटकर बैठेंगे तो अच्छा रहेगा। ज्यादा विश्वास नहीं था। और यह संभव भी नहीं था। नकण व दूसरे स्थान पर चले पाए । फिर हमारी लगभग राष्ट्र के जिय सर्वोच्च स्थान पर थे वहीं से किमी धर्म विशेष घंटे भर तक बातचीत हुई। उन्होंने बड़े ध्यान से हमारी की बनि पाए यह जनतन्त्र के लिए बड़ी कठिन बान होती बातों को मना। उसके बाद यो कई बार अपने कार्यक्रमों है। और सच तो यह है कि धर्म का क्रिया-कांडों से उतना में प्राण। शिष्य संतो से भी मिले । शुरू से लेकर प्राग्विर सम्बन्ध ही नहीं जितना कि जीवन की पविग्रता से है। तक उन्होंने प्रणवत-प्रान्दोलन को काफी महत्व दिया । धर्म-निरपेक्ष इस बार जब कि वे अम्वस्थ थे तो मैंने तकलीफ देना उनके धर्म निरपेक्ष राज्य (Secular State) को अच्छा नहीं समझा. तो मैं उनके निवास स्थान पर गया, भी ठीक तरह से नहीं समझा गया । उसका धर्महीन गप इम अवस्था में भी उन्होंने लगभग ४५ मिनट तक बड़े कहकर मजाक उड़ाया गया। पर वास्तव में उसका यह ध्यान से मेरी बात मनी। मैंने उन्हें काफी स्पष्टता से अर्थ ही नहीं । धर्म निरपेक्ष का अर्थ है-किसी धर्म विशेष । दश की परिस्थितियों से परिचित कराया। कुछ बातें का नहीं। इसीलिए वह सब धमों का हो जाता है। प्रणयत उनके मानम के प्रतिकृल भी, पर उन्होंने बड़े धर्यपूर्वक उन्हें प्रान्दोलन के प्रति उनका झुकाव इसीलिए था कि यह मुना। जब मैंने उन्हें उना भावा उत्तरधिकारी की बात पर्व धर्म समन्वय या दुमर शब्दों में धर्म निरपेक्षता को । कही तो उन्होंने कहा-“मैं सोचता तो हूँ, पर इसमें मानकर चलता है। कठिनाइयां यहत है?" मैंने कहा-“अब जो चरित्र के समर्थक कठिनाइयां है. उन्हें तो पाप मुलझा भी दंगे, पर आगे वे देश में चरित्र को वे बड़ा ऊंचा स्थान देते थे। भारी पड जाएंगी। इसी सिलसिले में उन्होंने कहा था अणव्रत-आन्दोलन का भी यही लक्ष्य था। इसीलिए कि मै श्री लालबहादुर शाम्ग्री को उप-प्रधान बनाना चाहता उन्होंने कहा था-हमें अपने देश का मकान बनाना है। है। कांग्रेस संगठन ने भी उनकी इच्छा को बंडे सुन्दर उसकी बुनियाद गहरी होनी चाहिए। रेत की होगी तो और जनतान्त्रिक ढंग से पूरा कर दिया है। जो काम वे ज्यों ही रेत ढह जाएगी, मकान भी ढह जाएगा । गहरी स्वयं करने में कठिनाई अनुभव करने थे उसे कांग्रेस ने कर बुनियाद चरित्र की होती है। देश में जो काम हमें करने हैं दिखाया। पर अभी तो कांग्रेस को उनक बहुत सारे अधूरे वे बहुत लम्बे चौड़े हैं। इन सबकी बुनियाद चरित्र है। कामों को करना है । इसके लिए उन्हें हर बड़े से बड़े स्याग इसे लेकर बहुत अच्छा काम प्रणवत-प्रान्दोलन में हो रहा के लिए नयार रहना होगा और हम बात को ध्यान में है । मैं मानता है-इस काम की जितनी तरक्की हो उतना रम्बना होगा कि जो देता है वही पाता है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली पट्ट के मूलसंघी भट्टारकों का समय क्रम (डा. ज्योति प्रसाद जैन एम० ए० एल एल० बी०, पी० एच० डी०, लखनऊ) मूलसंधान्तर्गत नन्दिसंघ-सरस्वतीगच्छ-बलाकारगण- साहित्यिक एवं शिला लेखीय प्रमाण अधिकाधिक प्राप्त होने कुन्द कुन्दान्वय की उत्तर भारतीय शाग्वा के दिल्ली पह लगते हैं जिनके आधार पर उक्त गुरुत्रों के पटावली प्रतिकी स्थापना का श्रेय भट्टारक प्रभाचन्द्र को है। इस पादित समयादिक की जॉच की जा सकती है। परम्परा की पट्टावली के यह ८४ वें गुरु थे । इनके उपरान्त पावली में अभयकीर्ति से जिनचन्द्र पर्यन्त प्रत्येक क्रमशः पद्मनन्दि, शुभचन्द्र एवं जिनचन्द्र इस पट्ट पर बेटे। भट्टारक का पटारोहण वर्ष विक्रम संवत् में निम्नक्ति दिया प्रभाचन्द्र के समय तक उत्तर भारत में इम मंघ का एक गया हैही अम्बंड पह था । मर्व प्रथम उनके समय से ही शाग्य। अभयकीर्ति -१२६४ पद स्थापित होने प्रारम्भ हुए, किन्तु उनके पट्टधर पानन्दि वसन्तकीर्ति --१२६४ के पट्टकाल के अन्त तक जो भी शाग्वापट्ट बने, व प्रधान प्रख्यातकीर्ति -१२६६ या केन्द्रीय पद के ही अधीन रहे। पद्मनन्दि के उपरान्त विशालकीनिरसागवाड़ा, सूरत, ईदर मालवा प्रादि के जो कई शाखापट्ट शुभकीर्ति -१२६८ स्थापित हुए वे केन्द्रीय पटट से प्रायः स्वतन्त्र हो चले । धर्मचन्द्र -१२७१ पप्रनन्दि के प्रपटट्टर जिनचन्द्र के उपरान्त तो स्वयं दिल्ली रत्नकीर्ति -१२६६ पटट भी चितौड़ एवं नागौर नामके दो शाग्या पट्टों में प्रभाचन्द्र -१३१० विभक्त होकर दिल्ली से स्थानांतरित हो गया-दिल्ली में पानन्दि -१३८५ संभवतया एक छोटा सा उपपट्ट कुछ काल तक बना रहा। शुभचन्द्र --१४५० इस मूलसंघ की जितनी भी परावलियां एवं गुर्वा- जिनचन्द्र-१५.७ इनका पूर्ण पटकाल 10. से वलियों उपलब्ध हैं वे सब अनेकों शाग्वापट्टों में से ही ७१तक । किसी न किसी पट्टपरंपरा की हैं और अधिकांशतः १६ वीं यह श्राश्चर्य की बात है कि इनमें से प्रथम पांच भटारक से १६ वी शताब्दी ईस्वी के बीच निर्मित हुई हैं। श्रतएव केवल छः वर्ष में ही समाप्त हो जाते हैं जबकि उनसे आगे उनमें प्राप्त उक्त शाखा पट्टों के पट्टक्रम. गुरनाम प्रादि के छः भट्टारकों का काल पर ३०० वर्ष है। ऐसा होना नथा जहाँ कहीं पटकाल भी सूचित करदिये गये हैं, वे भी नितान्न असंभव तो नहीं है, तथापि ये तिथियां कुछ मन्दिग्ध प्रायः विश्वसनीय प्रतीत होने हैं। किन्तु जितना जितना प्रतीत होती हैं। इन गुरुओं का समय निर्णय उत्तरभारत के पीछे की ओर चलते हैं ये मन्दिग्ध हान जाते हैं। मध्यकालीन इतिहास के लिये परमावश्यक है । अतएव इनमें मुल पट्टावली के अनुसार भद्रबाह द्वि० से लेकर से प्रत्येक के समय को उनके स्वयं के सम्बन्ध में उपलब्ध अभयकीति पर्यन्त ७७ गुरुश्री का काल १२६५ वर्ष माहित्यिक एवं शिलालस्त्रीय निर्देशों एवं ऐतिहासिक अनुजिसके अनुसार धौमत पटकाल लगभग १३ वर्ष माना है श्रुतियों आदि के संदर्भ में जांच करके निर्णीत करना उचित इन गुरुत्रों में से अधिकांश की ऐतिहासिकता, पर होगा और इसके लिये यह सुविधाजनक होगा कि अन्तिम एवं समयादि के सम्बंध में पट्टावलियों को छोड़कर गुरु, जिनचन्द, से प्रारंभ करके पीछे की ओर चला जाय । प्रायः कोई अन्य प्राधार नहीं है। किन्न ७ गुरु- भट्टारक जिनचन्द्र अपने समय के ही नहीं वरन अजमेर घट स्थापक वसन्तीति से लेकर ८७ वेंगुर सम्पूर्ण इतिहास काल के संभवतया सबसे बो जिनबिंब जिनघन्द्र पर्यन्त उत्तरोत्तर ऐसे ऐतिहासिक निर्देश तथा . - . . -- . २. इनका नाम उपरोक्त पट्टावली में नहीं है किंतु १. देखिये जैनसिद्धान्त भाकर, मा.१. कि ७१. इस संघ की प्रायः अन्य सब पटवलियों में पाया जाता है। देखिए वही, पृ. १८४ ७४-७८-50 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ५५ प्रतिष्ठाकार हैं । जितनी विवप्रतिष्ठाएँ और किसी किमी वि. सं. ११४८ में मुडामा नगर में राजा शिवसिंह के प्रतिष्ठा में जितनी अनगिनत जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्टा इन शासनकाल में इन भ० जिनचन्द्र ने शाहजीवराज पापदी. के द्वारा सम्पन हुई उननी शायद इनके पहिले या पीई अन्य बाल के लिए एक अभूतपूर्व बिंब प्रतिष्ठा की थी। उसके किसी एक प्रतिष्ठानार्य द्वारा नहीं हुई। पट्टावाली एक वर्ष पूर्व (मं.१५४७ में) तथा एक वर्ष पश्चात् में उनका म्मरण 'तर्क-ध्याकरणादि-प्रन्य-कुशलों' 'चारित्र (पं० १९४६ में) भी संभवतया उसी नगर उसी श्रावक रामणि', 'मार्गप्रभावक' प्रादि विशेषणों के साथ किया अंप्ठ के इन्होंने दो अन्य प्रतिष्ठायें की थीं उतरभारत के गया है। इसमें विदिन होता है कि यह अंट विद्वान एवं कोने कोने में प्राप्त इनके द्वारा प्रतिष्ठित अनगिनत पाषाण चारित्रयान सन्त थे, इनक द्वारा की गई महनी मार्गप्रभावना प्रतिमानों पर अधिकतर पं.१५४८ या फिर १५४७ अथवा नो हमी तथ्य से प्रमाणित है क इनके द्वारा प्रतिष्ठित जन ।४६ क वर्ष ही बद्धा अंकित पाये जाने हैं। अमरावती पनिमा सम्पूर्ण उत्तरभारत के प्रायः प्रत्येक जैन मन्दिर में नगर में विद्यमान कई प्रतिमानों पर प्रतिष्ठाचार्य के रूप में मान भी विद्यमान है। अनेक मुनि, ब्रह्मचारी एवं गृहम्य जिनवाद का नाम नथा ननकालीन शामक के रूप में शिव विद्वान इनक शिष्य थे। बीकानेर प्रदेश में वि०म० १५०२ मिह (म्यासिद, समि:) का नाम प्रान हान है, किंतु उन में प्रतिष्ठिन एक न कर प्रतिमा पर प्रतिष्ठाता के रूप में पर अंकित प्रतिष्ठा वर्ष १११३ है तथा कुछ पर 1१६३ जिन भ. जिनचन्द का नाम अकिन है। वह यही प्रतीत या लगता है कि य वर्ष गत (अथवा बल्लभी) संवत के होते है. और इसी वर्ष प्रतिष्ठिन एक धातुमवी पाश्चतिमा है जिपा अनुसार ये प्रतिष्ठा वि. मं१५४. और भी जो मैनपुरी (उत्तरप्रदश) में विद्यमान है। इन्हीं ... में हुई होनी चाहिए । अब यदि किसी भूल में इन द्वारा निष्ठित हुई प्रतीत होती है। इस प्रकार भ.जिनचन्द संस्थानों में ११६३ और नहीं हो गया है नो इन की मां प्रथम जास्त तिथि शि. मं०११०२ है। वि. सं. भ. जिन चन्द को अन्तिम ज्ञान निधि बि. मं० १५७०प्राप्त १५.५ में इनकी प्राम्नाय के पं० दवपाल बडेलवाल ने होती है। प्रतिमा लबों के अतिरिक, मि. १९१२ की अजितनाव चारित्र अपभ्रश) का प्रनि लिखाई थी। श्रीपानचरित्र की लिपि प्रशस्ति में, १५१६ की अपने मं. ११०६, ११, १५००, ११२५ और १५२८ को विद्वान शिष्य पं. मेधावी की अन्य प्रशास्ति में नया मं. इनके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक चान प्रनिमाणे यन्त्र प्रादि मनपुर्ग १५१% १४५ की दो अन्य प्रन्य प्रशास्नियों में भी एटा आदि के मन्दिरी में प्राप्त है६, नया मं० ११०६, इनके समकालीन उल्लेग्ब पाये जाने हैं। उनके जीवन १५. ३.११४०,११४८और १९४६ की अनेक काल में इनक अनेक मुनि शिष्यों, प्रशिथ्यों ने भी जो मृत्ति यो योजानर प्रदेश में प्राप्त हुई है। मं० १९१० में प्रतिष्ठा कगई उनक मृतिलग्बों में भी इनका अपना नाम नोमर नंग्श इंगरमिह के राज्य के अन्तर्गन टोकनगर में प्राप्त होता है। म. १५७५ में श्रागे जितनी प्रशस्तियां, भ. जिनचन्द्र ने अनेक जिनप्रतिमाएँ प्रतिष्ठिन की थी। लंग्वादि मिन्नत है उनमें जिन चन्द का उन्नाव पूर्व पुरुप के ३. याकाने जैन लेख ममह (मं. चगरचन्द नाहटा), रूप में ही हुमा है-उनसे उनके ममय में इनकी विशमानता न० ८५८ मूचित नहीं होती। इनके एक शिष्य-नागौर पट्ट क प्रथम .. कामताप्रमाद-जन प्रतिमा लेम्ब मंग्रह भटटारक, निकोनि, का पट्टकाल मं० १९८१-१९८६ है, १.जन मिदान भास्कर, भा० २२, कि० २, पृ. . किन्तु इनके प्रधान शिष्य एव पट्टधर, अभिनव प्रभाचन्द्र ६. कामता प्रमाद-वही (जो कि चित्तीर-अजमेर पटट के प्रम भटारक थे) का ७. देखिए बीकानेर जन लेख संग्रह पटकाल वि.सं. १९७१-१२८१है। भव करन ८. जन शिला लेख मग्रह, भा०३, न०६३६-इन लम्वों कीनि ने अपने ज्यष गुरुभाई प्रभाचन्दक अवमान के बाद में राजा का नाम लारदेव पढ़ा या लिखा गया है। ही अपने (नागौर) पट का म्वतन्त्र धापित किया हो। जिसके कारण इस संग्रह के विद्वान मंपादक इम - नरेश को चीन नहीं सके। १. जैन सिद्धान्त भास्कर, भा. २१, कि.२ पृ.५७.१५ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ इस प्रकार उपरोक शिलालेखीय साहित्यिक एवं अत सभी प्राधारों से दिल्लीपट्टी भ० जिन की अन्तिम तिथि वि. सं. १५७०-७१ ही निर्णीत होती है, किन्तु जबकि पटावली के अनुसार उनका मं १५०७ में हुआ, अन्य ग्राधारों से मुनिरूप में उनका अस्तित्व वि. सं. १५०२ से पाया जाता है। इससे यही निक निकलता है कि उनका मुनिजीवन विस १२०१ १५७१, लगभग ७० वर्ष रहा और पट्टकाल संभवतया वि. सं. १५०७-१५७१ (सन् १४५०-१५१४ ई०) लगभग ६४ वर्ष का था । , 1 उनके गुरु एवं पूर्व पर भ० शुभचन्द्र के अपने समकालीन उल्लेख अपेक्षाकृत बहुत कम है वि० मं० १४६४ में काष्ठासंघ माथुर गच्छ के मुनि देवकीर्ति ने रात्र श्रमराजी के लिये, संभवतया श्रागरा प्रदेश में, धातुमयी अत् प्रतिमा की प्रतिष्ठा जिन मूलसंधी भ शुभचन्द्र के उपदेश से की थी ५० वह यही शुभचन्द्र प्रतीत होते है। सं० १४१२ में बीकानेर राज्य के मुडली ग्राम निवासी हम आपके लिये अपने द्वारा प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ प्रतिमा पर श्रंकित लेख में भ० सकलकीर्ति ने अपना परिचय मूलमंत्र परवती राजकारण के भट्टारक श्री पद्मनन्द देव के भ्राता ( सधमा १) के रूप में दिया है |११ शुभचन्द्र की भांति सकलकीति भी भ० पद्मनन्दि के ही शिष्य ये और स० १४५१ मे उन्होंने सागवाड़ा (चाम्बर) पट्ट की स्थापना की थी। ईडर पट के भी प्रथम भट्टारक वहीं माने जाते हैं। क्योंकि शुभचन्द्र प्रधान पट्ट पर आमीन थे और इसीलिये संभवतया उनके ज्येष्ठ गुरु भ्राता भी थे, सकलकार्ति ने उनका उल्लेख अपने लेख में इस प्रकार सम्मान पूर्वक क्रिया । मं० १४६० में भ० शुभचन्द्र की गुरु मांगनी श्रायां रत्न श्री की शिष्या आर्या मलयश्री ने श्रष्टमस्त्री की एक प्रति गजराज नामक व्यक्ति से लिम्याकर भावि भट्टारक बयान (?) को भेंट की थी। इस प्रशस्ति में शुभचन्द्र का विशेषण १०. जैन सिद्धान्त भास्कर, भा० १8, कि० १० ६१-६३ ११. बीकानेर जैन लेख संग्रह, नं० १८७५ अनेकान्त 'राजाधिराज कृतपादपयोजसेवः' दिया है । १२ 'भाविभट्टारक व 'मान' से आशय शुभचन्द्र के पट टधर जिनचन्द्र का ही है अथवा शुभचन्द्र के तत्कालीन उस पट्टशिष्य का है जिसकी मृत्यु संभवतया उनके जीवन काल में ही हो गई थी और फलस्वरूप द्वितीय शिष्य जिनचन्द्र को पट्टाधिकार मिला यह निश्चित रूप से कहना कठिन है यह अवश्य है कि पहली सूरत में जिनचन्द्र के मुनि जीवन के ७० वर्षो में कम से कम १२ वर्ष की और वृद्धि करनी पड़ेगी । यह भी निश्चय से नहीं कहा जा सकता कि कौन सा 'राजा धिराज' उनका भक्त था । उनकी गद्दी दिल्ली में ही थी और दिल्ली के राज्य सिंहासन पर उस समय मैयद मुबारकशाह आसीन था । संभव है इस सुलतान ने गुरु शुभचन्द्र का कुछ सम्मान किया हो. अथवा उनका भक्त नरेश राजस्थान आदि का कोई बड़ा राजपूत राजा हो । वि० सं० १४८१ ( शाके १३४५) में भ० शुभचन्द्र ने संघपति होलिचन्द्र आदि अपने भक्त वकों से देवगड (जिला झांसी) में बद्ध मान जिनेन्द्र की अपने गुरु भ० पद्मनन्दि की तथा परम्परा गुरु बसन्त कीर्ति की प्रतिमाएं प्रतिष्ठापित कराई थीं। उस समय वहां मालवा के सुल्तान शाह श्रालम्भक ( अलप खां उर्फ हुशंगशाह गोरी) का शासन था १३ । इस लेख में जो गुरु परम्परा (धर्मचन्द्र-कीर्ति प्रभावन्द्र पद्मनन्द-शुभचन्द्र ही है यह पालियों से भी समर्पित है। वि० सं० १४७६ में इन्हीं शुभचन्द्र के काल में अमवाल ने कशानं बुध देशम्य (जिला इटावा) में पोहान नरेश भोजराज -- के मन्त्री अमरसिंह के पुत्र लखामाहु की प्रेरणा से पार्श्वनाथ चरित ( अपभ्रंश ) की रचना की थी । आद्य प्रशस्ति में पद्माचार्य (पद्मनन्दि ) का स्मरण करते हुए, जो संभवतया कवि के गुरु रहे थे, उन्हें उन प्रभाचन्द्र का पट्टधर बताया है जो स्वयं धर्म रूपीचन्द्रमा थे, अथवा, धर्मचन्द्र के शिष्य रामकीर्ति के पटर (आयरिय राजम दुधरिओ) ये । और यह कि पद्मनन्दि के पट्टरूपी अंबर १२. अनेकान्त, वर्ष १३, कि० २, पृ० ४६ १३. जैन शिला लेख संग्रह, भा० ३, न० ६१७ (शेष पृष्ठ ०४ पर) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लू ग्राम की प्रतिमा व अन्य जैन सरस्वती प्रतिमाएँ (श्री धीरेन्द्र जैन) (CE सरस्टतो का प्राकृत प्रादि सभी विभिन्न नाम अनेकों नामो से स्मरण आदि से संबंधित हैं, जम जब भगवती भारतवर्ष की प्राचीन एव अर्वाचीन सरस्वती का शारदा रूप में चित्रण विचारधाराओं के अनुसार भगवनी किया जाता है तो वहां उस रवंत वर्ण सरस्वती यागोपाग विज्ञान एवं समस्त युक्र दिग्यलाना पावश्यक नहीं। वहा कलाओं की देवी मानी गई है, जिये विशंपना इस बात की हो जाती है कुछ विद्वान कि नाम से भी व्यवहन कि उसका प्रमुम्ब दस भुजाय चित्रित करम है। हिन्दूधर्म में परम्पती दवा होनी है। यही रूप चतुष्टिका नी यति पूर्ण ग्यान है ही, परन्तु कलाओं की अध्यक्षा शारदा देवी का वह बौद्ध तथा जनधर्म को भी उपाय माना गया है। दी रही है । यी जन तथा बीन्द्र प्रतिमा का प्रादुर्भाव धर्म के अनुसार इसे विभिन्न नामों में लम्बनऊ के राजकीय संग्रहालय में मुशोभित किया गया नयापि हममें सरस्वती की सबसे प्राचीन पापाण कार्ड विगंप अन्ना नहीं है। बाद निर्मित बण्डित प्रतिमा सुरक्षित है। साहित्य में महासरस्वती, प्रार्य बन इस प्रतिमा क घुटने उ.पर को है, बांय परम्यती वन शारदा, वज्रवाणी आदि हाय में धागे से बंधी तारपत्रीय भगवनी मरम्वता के प्रमुख नाम है। पुस्तक है तथा दाहिने हाथ में हिन्द धर्म में भी इस शारदा वान्दया अन्नमाला है। दोनों सेवक उपस्थित वीणावादिनी श्रादि अनेकों नामों में हैं। चरण चौकी पर ६ पंक्रियों का स्मरण किया गया है। कुषान कालीन एक लम्ब अंकित है। हम द्वितीय शताब्दी की प्रतिमा को जन्म के बारे में मान्यताएं विद्वानों ने जन सरस्वती की प्रतिमा पौगणिक गाथानों के अनुसार मृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के माना है। इस ज्ञात होता है कि ईसा की द्वितीय शताब्दी मम्निक (बुद्धि विचार जन्य कल्पना) में उत्पन्न मानप, में ही जन मरम्बनी प्रतिमा का प्रादुर्भाव हो चुका था। कन्या के रूप में मरम्बनी का जन्म हुआ था। कुछ पौराणिक इमं उनकी पानी बननात है, पर वाम्नव में यह उन सुन्दर वन में प्राप्त प्रतिमा की शक्रि है । परम्वती का वर्णश्चत है, सदा रवंत वस्त्र सरस्वती की एक प्रनिमा मुन्दर वन में प्राप्त हुई है ही पहननी है, वाहन हंस भी श्येन माना गया है । वन जो अब कलकनं के प्राशुतोप संग्रहालय में है। इसकी कमल पर प्रासन लगाये हुये शुभ्रयश का प्रसार करती हुई निथि १२ वीं शताब्दी मानी गई है । यह पापाण पट पर वंत गंध का अनुलेपन एवं श्वेत ही वस्तुओं को कार्य उभरी हुई अंकिन है तथा वीणावादिनी की मुद्रा में देवी में ग्रहण करती है। इनकी वेशभूषा, रूप सौन्दर्य शरीर की खड़ी है । देवी ने अन्य बम्बाभूपणों के साथ कटिमूत्र तथा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त भुजबन्द आदि पहन रखें हैं । इस प्रतिमा के पैर के नीचे कमर का लचीला और सुन्दर विन्याय प्रशंसनीय का भाग खण्डित है। है । यह प्रतिमा चदम्त है। सामने वाले हाथ राजा भोज द्वारा प्रतिष्ठापित मूतियां की कलाइयों में गोल, बड़े बड़े माणयुत्र, लटकते हुए उत्तरी भारत की भांति दक्षिणी भारत में भी सरम्बती तिलड़े, एवं मध्य में त्रिकोण भुजबन्ध पहना हुश्रा है । प्रतिमा निर्मित की जाती थी, जो आज भी वहां के मन्दिरों हाथों में मांकल से लटकता हुथा गृधग दिखाई दंग है। के अन्दर बाहर तथा विभिन्न गंग्रहालयों में पायी जाती है। कलाई में चूड़ियों पहने है, उसके प्रागे गृजरी और नीखी बम्बई के प्रिन्स श्राफ बेल्प म्यूजियम में रखी कुछ मध्य- अंगड़ी जैसे कंकन पहिने है। हाथों में हथयांकला उस समय कालीन सरस्वती प्रतिमा विशेष प्रसिद्ध हैं। नालन्दा से की प्रथा को द्योनित करने हैं। इनका प्रचलन अाज कज एक कांस्य निर्मित सरस्वती प्रनिगा प्राप्त हुई है जो बीणा नहीं है । हाथ के अंग एवं सभी जंगृतियों में अंगृटियाँ बजा रही है । लन्दन के ब्रिटिश म्यूजियम में भी सरस्वती स्पष्ट है । अंगुलिया लम्बा व तायी है, जिनक नाग्वन बढे की प्रतिमा सुरचित है। ये प्रतिमाएं मंगमरमर, भूरे बलुया हुए हैं । इन्हें देखने से लगता है उस समय नाग्वन बढाना पत्थर आदि से निर्मित हैं । इनके आधार पर एक लेख से सुन्दरता में शामिल था। हथेन्दी पर ग. चिर व अन्य ज्ञात होता है कि ई० १०३४ में परमार राजा भोज ने प्रति सामुद्रिक चिन्ह स्पष्ट दिग्बाई दने है । दायें हाथ में माला मानों की प्रतिष्ठापना की थी। ब बायें हाथ में कमण्डलु है। दूसर दोनों हाथ पीछे से पल्लू ग्राम की प्रतिमा ऊपर की ओर गये है, जिनमें चूड़े के अतिरिक्त अन्य सन् १९१६ में प्रसिद्ध पुरात ग्व-वत्ता डा. एल. पी० प्राभूषण भी है। दाहिने हाथ में अत्यन्त सुन्दर कमल. टेरिस्टोरी को बीकानेर के दक्षिण पश्चिम में पल्लू नामक । नाल है जिस पर पोइस दल कमल है। बाएं हाथ में इंच ग्राम में दो अन्यन्त सुन्दर जैन सरस्वती प्रतिमाए प्राप्त हुई लम्बी नारपत्रीय पुस्तक है । तीन जगह काष्ट फल लगा थी। ये दोनों प्रतिमाएं सफेद संगमरमर पत्थर से निर्मित कर डोरी से ग्रंथ को बांधा है । कमर में कटिसूत्र है जो खूब हैं। इन दोनों में से एक प्रतिमा बीकानेर के राजकीय भारी है इसमें झालर लटकन हवे हैं । कमर एवं नीचे की संग्रहालय में तथा दूसरी नई दिल्ली के संग्रहालय में है। ओर वस्त्र परिधान म्पष्ट हैं। नीचे घाघरे की कामदार प्रतिमाओं का प्राकार-प्रकार मगजी भी है । वस्त्र को मय में एकत्र कर दिया है । पैरों ये दोनों प्रतिमाएं लगभग १२वीं शताब्दी की है। में केवल पाजेब है। पर अत्यन्त सुन्दर हैं। इनकी अंगुइनमें से प्रथम प्रतिमा की ऊचाई ३ फुट ५ इंच है। और लियाँ कुछ लम्बी व छरहरी है। यह प्रतिमा कमलामन पर सपरिकर ४ फुट ३इंच है। भगवती सरस्वती की इस मांग खड़ी है। प्रतिमा के पृष्ठ भाग में प्रभा मण्डल बना हुश्रा सुन्दर मूर्ति के लावण्य भरे मुग्य मण्डल पर गंभीर शान्त है। इसके ऊपर के भाग में जिनेश्वर भगवान की पदमायएवं स्थिर भाव है। देवी के नेत्र विशाल हैं, जिनमें नेत्र नस्थ प्रतिमा विराजमान है । सरस्वती के कन्ध प्रदेश के बिन्दु म्पष्ट है । कानों में मणिमुक्रा की ४ लडी का कर्णफुल पास दो पुष्पाचारी देव अभिवादन कर रहे है । ये भी हार शोभित हो रहा है। केश पंवार के नथा मस्तक पर जटाज़ट ___ कंकड़ भुजबन्द प्रादि ग्राभूषणों से युक्र है । मूर्ति के उभय केकड़ भुजबन्द आदि शाभूषर सा दिग्बला कर उस पर मन्दर किरीट सुशोभित है। पन में वीणाधारिण। दवियों है जिनका श्रंग विन्यास सन्दर फुन्दनों से युक्त चोटी पीछे वाई और चली गई हैं। देवी व भावपूर्ण है तथा ये भी समस्त प्राभपणों से अलंकी नामिका आभूषण विहीन हैं। गले में पड़ी सलवटें कृत है। अत्यन्त मुहावनी प्रतीत होती है। गले में हंसली धारण विभिन्न प्रतिमानों में अन्तर किये है, जिनके नीचे झालरा पहिने है जो कि दोनों कन्धों इस सौन्दर्यमय सरम्बती प्रतिमा के लिए निर्मित प्रभा तक गयी है । इसके बाद ३ लड़ियों वाला हार पहना हुआ तोरण श्रायन्न सुन्दर है । ये दो स्तम्भ तथा उस पर स्थित है जो नाभि तक पा रहा है। उदर, नाभि और एक उल्टे अर्धचन्द्र के योग से बने हैं । सम्पूर्ण तोरण देवी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लू ग्राम की प्रतिमा ५६ मानवी, शार्दूलसिहों, मकरों, पूर्ण कनश तथा त्रिरत्न की युक्र कमल पुष्प व बांग हाथ में घट धारण किये है। कलापूर्ण प्राकृतियों में अलंकृत। नोग्ण के प्रत्येक स्तम्भ इन दोनों स्तम्भों के ऊपर मुग्ण्य वृत्त खण्ड पर मन्दिर में नीन श्रेणि ग में विभाजित है। मध्यवर्ती स्तम्भ में चार जमे तीन छोटे छोटे देवालय बने हैं। जिनमें श्वेताम्बर ढार देवियों विगजमान है । इन सबके दो हाथ हैं। मुद्रा सम्प्रदाय से सम्बधिन्त ध्यानम्थ अर्हन्तर्थिव बड़े हैं। जिन समान हैं। इनके वाहन व प्रायुध भिन्न भिन्न है । बांया की पहनी हुई धोती अत्यन्त स्पष्ट है। कवाणी के उपर पर बांगे पैर की पिरना पर सहा में श्री वाहन पर दोनों तरफ चार चार पुरुप खडे हैं तथा एक एक स्त्री बड़ी बैठी है । क्शपाश मंचाहा तथा आया और जुड़ा है। है। इनका एक पर स्पस्ट दिग्याई देता है, दूसरा पर जंघा दाहिने से प्रथम मुनि ।। वाहन सूर्य है. वा हाथ में छबड़ी तक है, बाकी कवाणी के पीछे की ओर है। पहला पुरुष व दायें हाथ में पपं है । दूसरी मूर्ति दाहिने हाथ में अभ्पष्ट दाएं की दो अंगुलियां दिखा रहा है, बाकी कवाणी के पीछे बाय नथा बायें हाथ में गाल ढाल मरश्य कुछ लिये है। योग ही पहला पुम्प दायें हाथ की दो अंगुलियों दिखा रहा तीसरी मूनि का वाहन वृषभ है, उसने दाहिने हाथ में गदा. है, वांया हाथ ऊंचा किये है । दूसरा ब्यक्रि हाथ की अंगुबाएं हाथ में प्रापष्ट ढक्कनदार पात्र धारण किये। नियां जमान से म्पर्श कर रहा है, तीसरे के हाथ में प्याले चतुर्थ मृति का वाहन भगा है और हाय में वज्र धारण किये जमा पांव है। चौथी स्त्री के हाथ में लम्बा दगा है। है । इन प्रतिमा कनों और बंटी म्बी प्रतिमानो के दा पांचवा पुरुष दोनों हाथों में पुष्पमाला लिये है। बाकी के हाय में नान युक्न कमल है। इसी तारण क बाई और पं. हाय मन्तक के पास है। कबाणा के बांयी पोर भी इसी मध्य भाग में सुग्वासन पर बैठी प्रथम देवी के दाय हाथ में प्रकार की मूर्तियां है। उनमें पहला पुरुष नम्बी दाढी धारण त्रिशूल तथा घट है । इसका वाहन मृग है । द्वितीय प्रतिमा किय है। कदार्थ माथ में बडग व बाएं हाथ में घट है। इनका वाहन दुसरी मरम्बनी प्रतिमा भी इससे मिलती जुलती है। मिह है । नातीय पनिमा के दाग हाय में अंकुश व बाएं हाथ यह भी संगमरमर की बनी है। राजस्थान के जिस वास्तु में चकले जपा गोल पदार्थ लिग है । इनका वाहन अस्पष्ट शिल्पी ने अपनी यह प्रादर्श माधना जनता को दी वह है। चतुर्थ प्रतिमा का बाहन मर्प है। दाहिने हाथ में नाल अपना प्रज्ञान नाम सदा के लिए अमर कर गया। सम्यग्दृष्टि का विवेक सती मीता को रामचन्द्र ने जब लोकापवाद के भय से दुबी होने हो । मेरा अशुभ कर्म उदय में पाया है उसका कृतांतवा सेनापति के साथ तीर्थ यात्रा के बहाने भीपण फल मुझे भोगना ही पड़ेगा। तुम रामचन्द्र से मेरा एक बनमें छुड़वा दिया। कृनान्तवक्त जब उस भीषण वनमें मन्दश कह देना कि जिस लोकापवाद के भय से आपने पहुंचा तो रय रोक दिया । मीता ने रथ रोकने का कारण मुझ जंगल में निर्वासित किया है। उप तरह अमरश पूछा-नब सेनापति ने अन्यन्न दुखित होकर सारा हाल सुना वहकावे में प्राकर अपने धर्म का परियाग न कर देना। दिया । और सीता को अकेली वहां छोड़ कर जब वापिस दवा मनी मीता का विवेक, माइम और दृढता । सम्यगाष्टि अयोध्या जाने लगा। तब मीता से कहने लगा माता जी जीव विपत्ति में भी अपने सन्तुलन को नहीं बोते, प्रत्युन कुछ सन्देश तो नहीं कहना है । सीता ने कहा, तुम क्यों अपने स्वरूप में मदा मावधान होने का प्रयत्न करते हैं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक विजयकीर्ति (डा. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल) विजयकीर्ति भट्टारक ज्ञानभूपण के शिष्य थे। इन वदित सूर चरगणं भव्यह शरणं पद्रवरं । की अलौकिक प्रतिभा एवं पांडित्य को देखकर ज्ञानभूषण विजयादिहि कीर्ति मो महमुनि धमरधुर ।। इन पर मुग्ध हो गये और अपने जीवन काल में ही सवन् धरि संग्रह भारं मोह विदारं मृहय तट । १५६० के पूर्व इन्हें भट्टारक पद पर बिठा दिया। विजयकीर्ति परवादी छिद जागगड छंदं कम्मतुट ।। पहिले गृहस्थ थे। कुछ ही वर्ष पूर्व इनका विवाह हुश्रा था संगार मपंथं लोह विगथ छाय वद । कि ज्ञानभूषण से इनका भेंट हो गयी। ज्ञानभूषण उस जिरिगमन पहचग गुरु उत्त गं दलित भट ।। समय भट्टारक थे और धर्म एवं साहित्य प्रचार के लिये उन्मूलित प प निहिन विताप उधरह गठ। स्थान स्थान पर भ्रमण करते रहते थे। एक दिन इन्हें विजय- उद्धरइ जिन गेह यात्र समुह वपइ मठं ।। कीर्ति मिले । आपस में बातचीत होने के पश्चात् ज्ञानभूषण वदित मूर चरगा भव्यह शरण पट्ट धर । मे उन्हें अपना शिष्य बनाना चाहा । इसके लिये इनकी स्त्री विजय दिहि कीति सो मह मृत्ति धम्म धुरं ।। को समझाया गया । संसार की असारता को कितनी ही तरह विजयकीनि उत्कृष्ट तपस्वी थे। बाईस परीषहों के पति-पत्नी के सामने रखा गया और अन्त में ज्ञानभूषण को विजेता एवं चौबीस प्रकार के परिग्रहों के त्यागी थे। अपने सफलता मिल गयी। भ. शुभचन्द्र ने एक रचना में इसी चारित्र एवं सपोबल से वे सबके जनमानस को अपने वश प्रसंग का अच्छा वर्णन किया है उसी के दो छन्द देखिये:- कर लेते थे । वे साधुओं के शिरोमणि एवं दु:म्यानल के लिये बयण सुनि नव कामरणी दुग्व धरिइ महत।। मेघ के समान थे। अन्य छन्द में शुभचन्द्र ने ही इनकी कही वि मासण मझ हवी नवि वाग्यो रहि कत ।। निम्न शब्दों से प्रशंसा की है:रे रे कामरिण म करि तू दुखह इन्द्र नरेन्द्र मगाव्या । अमल सकल पद कमल विमल लपि नेह म मंडित । भिवह। निर्मल कोमल काय'वरगांगू सू पंडित ।। हरि हर बभमि कीया र कह लोय सव्व मम बसी लोचन कमल दल लाभ, लाभ कलिकाल म कारण। हुँ निसंकह ।। अचला बलिका लुब्ध, सृजन समार वितारण । विजयकीर्ति शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता थे। लब्धिमार, सज्ञान भूपगा पहाभरगा, विजय कीति शामन प्रवल। गोम्मटसार, त्रैलोक्यमार के मर्मज्ञ विद्वान थे। न्यायशास्त्र कुडलि खेल सूरि भचद सेवित पद कमल ।। पर उनका पूरा अधिकार था एवं कठिन काव्यों को वह सहज शास्त्रार्थ करने में वे निपुण थे। जहां भी जाने अपने ही समझ लिया करते थे भ० शुभचन्द्र ने इनके पांडित्य का वादियों से भिड जाते । वे स्वच्छन्द घूमते और ललकारने 'विजयकीर्ति छन्द' में निम्न प्रकार उल्लेख किया है.- पर भी उन्हें कोई शास्त्रार्थ करने वाला नहीं मिलता। वे लब्धि सू गुम्मटसार सार त्रैलोक्य मनोहर । बादियों के गर्व को महज में चूर कर देते और अपने अमृत कर्कश तर्क वितर्क काव्य कमलाकर दिरणयर ।, मय बचनों से सबकी ज्ञान पिपासा को शान्त कर देते । एक अन्य गुरू छन्द में भट्टारक शुभचन्द्र ने अपने गुरु जनता उन्हें वादीन्द्र के रूप में जानती थी भट्टारक शुभचन्द्ग का स्तवन करते हुये लिखा है: ने अपने एक छन्द में इनके शास्त्रार्थ की निम्न शब्दों में ध्यानामृत पानं वसइरानं विहित सहं । प्रशंसा की है:परवादीय महन विहित सुबईन निहित कुहं । वादीयवाद विटंब वादि मिग्गल मद गंजन । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दिगम्बर कवियों के रचित वेलि साहित्य 'श्री अगरचन्द नाहटा' कुछ वर्षों पहले जब श्री नाथूराम जी प्रेमी के प्रकाशित यात्राों और इतिवृत्त के संबंध में जितना प्रचुर साहित्य दिगम्बर जैन साहित्य की सूचिय ही देग्बी थी तब तक ऐसी श्वेताम्बर कवियों का मिलता है, उतना दि. कवियों का नहीं ही धारण थी कि श्वेताम्बर कवियों की तरह दिगम्बर मिलता, फिर भी परिमाण में चाहे कम हो पर अनेक प्रकार कवियों ने विविध प्रकार की फुटकर रचनायें नहीं बनाई की फुटकर रचनायें दिग. कवियों की रचित भी प्राप्त हो है । पर जब दिल्ली नागौर और जयपुर के दि. शास्त्र गई हैं । और भविष्य में उनकी जानकारी और भी अधिक भण्डारों की सूचयाँ बनी तथा उन भण्डारों के महत्वपूर्ण प्रकाश में पाना सम्भव है। नागौर के भट्टारकीय भण्डार गुटकों को देखने का अनमर मिला तो वह पूर्व धारना गलत सिद्ध हुई। यद्यपि विताम्बर कवियों की तरह विविध श्रादि में जो मकड़ों गुटके है उनकी अभी तक पूरी सूखी प्रकार की फुटकर रचनाओं की इतनी प्रचुरना दि. कवियों ही नहीं बन पाई है इसी तरह अनेक शास्त्र भण्डार हा न की रचनाओं में नहीं पाई जाती, उदाहरणर्थ नीयों की होंगे। व दिय कुद कूदल वादि थ य मन रंजन ।। विजयकोनि की अभी तक कोई रचना हमें प्राप्त नहीं वादि तिमिर हर मूरि वादि नीरमहसुधाकर। पूर्वाचार्यों की रचनाओं की प्रतिलिपि करवा कर शास्त्रवादिबिट वन वीर व दि निग्गरण गुगाया गर ।। भण्डारों में विराजमान करने एवं उनके स्वाध्याय का प्रचार वादीद्र मिरगति गदि मून मचि दिगवरह। करने में अधिक रुचि दिग्वलाई थी । मे ये अपने योग्य कहि जानभूषण मा पट्टि थी पिजयकोति, जगपति ग के योग्य शिष्य थे और इनके शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र वरह । ५। कितने ही प्रन्यों के रचनाकार थे। विजयकीर्ति केवल मानवों द्वारा ही पजित नहीं थे विजयकाति शास्त्रार्थ करने एवं साहित्य का प्रचार कर कितु देवता और पशु पत्नी भी उनसे शिक्षा प्राप्त करते थे। ने के साथ साथ नव मन्दिर निर्माण एवं प्राचीन मंदिरों वेश्राम यान में लीन रहते और अपने ज्ञान को मनी का जीणोद्धार भी करवाते थे। इन्होंने संवत् ११६. की मानवों में समान रूप से वितरण किया करने। वे शरीर में माघ कृष्णाः१५ को नथा संवत १५६० की वैशाख शुक्ला २ कमनीय एवं वाणी से कल्याणकारी थे। प्रकृति में शान्त की शान्तिनाथ म्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई। थे तथा तत्व चितन में लगे रहतं । इमी को शुभचन्द्र ने संवत् १९६१ चैत्र ३ वुदिः ८ को नेमिनाथ की मूर्ति की तथा निम्न रूप में कहा है: हमी वर्ष के चंगाग्व शुक्ला को स्नाय की मूर्ति की मुग्नर वगचर चामचद्र चचिन चरण द्वय ।। स्थापना कराया। संवत् १५६८ की फाल्गुण शुक्लाः५ समयमार कामार हमचर चितित चि.मय ।। को श्री मद्य ने श्रापकी बहिन प्रायिका देवश्री के लिये पम नंदि पंचविशतिका की प्रति लिग्नधागधी दक्ष पक्ष शुभ मुक्ष लक्ष्य लक्षण यनिनायक । विजयकाति संवत १५५७ से १५६८ नक भट्टारक रहे ज्ञान दान जिन गान भव्य चातक जलदायक ।। कमनीय मूर्ति मन्दर सूकर धर्म शर्म कल्याणकर । इन्होंने अपने जीवन में जो साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्य जय विजयकोति मगेश वर श्री श्रीवर्द्धनमौख्य व. किय वे चिरम्मरणीय रहेंगे। ॥७॥ १.२.३.४.५. दग्विये भट्टारक मम्प्रदाय पृष्ठ ११४ १५५ ** * Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अबसे १५-२० वर्ष पहले जैन सत्यप्रकाश में फागु विवाहला, निलोका, संवाद, यादि कई प्रकार रचनाथों संबंध लेख प्रो० हीरालाल कापडिया आदि के प्रकाशित होने लगे तो मैंने भी उनकी पूरी जानकारी की कुछ अंश में पूरी करने का यत्न किया और एक-एक रचना प्रकार सम्बन्धी जितनी भी जैन, राजन द रचनाओं की जानकारी मुझे प्राप्त हो सकी उनकी सूच को अपने लेखों में देता रहा। वेलि मंझक ज्ञात रचनाओं का मतिप्त परिचय प्रो० हीरालाल कापडिया ने यथा स्मरण “जैन धर्म प्रकाश नामक पत्रिका में प्रकाशित किया तो मैने कल्पना में बहुत श्री नवीन जानकारी के साथ देखि संशक रचनाओं की विस्तृत सूची प्रकाशित की। राजस्थानी साहित्य में राठी पृथ्वीराज रचित कृष्ण की है और चारण कवियों की अन्य भी कई बेलियो नृपसंकृत लायब्रेरी आदि में प्राप्त श्री । अतः मेरा लेख प्रकाशित होने पर राजस्थानी साहित्य के महान विद्वान श्री नम दासजी स्वामी ने श्री नरेन्द्र भनावत को बलियो सबंधी शोध-यन्त्र लिखने की प्रेरणा दी तब तक दिग० कवियों की बेलि संज्ञक रचनाओं की जानकारी बहुत कम प्रकाश में या पाई थी पर उसके बाद जयपुर के शास्त्र भण्डारों की सूनियां यज्योंपी गई नई नई होती रही. फलतः अब तक करीब २० दिग० कवियों के रचित थेलियों का पता लग चुका है। प्रो० नरेन्द्र भनावत को राजस्थानी बेलि साहित्य नामक अपने शोध प्रबन्ध पर डाक्टरेट मिल चुकी हैं। उनके इस शोध प्रबन्ध में करीब बेलियों की रचना की गई है जिसमें दकयों की जियों का उप लब्ध होना अवश्य ही उल्लेखनीय है । मैंने उनसे दिग० पेलियों की सूत्री मांगी थी दिनांक २-०२-६३ के पत्र में निम्मो १५ वेलियों की सूची लिख भेजी है कर्त्ता १) कर्मचूर प्रत कथा बेलि, सकलकीर्ति, १६ वीं शताब्दी २) पंचेन्द्रिय बेलि ठकुरसी सर्वत् १५५० ३) नेमिश्वर " 1 नाम समय ५) पेनि २) क्रोध बेलि , ठकुरी संवत् १५५० छीहन संवत् १५७५-८४ मतदाम संवत ༣+ན” , • अनेकान्त , ' ६) सुदर्शन बेलि वीरचन् १६वीं शताब्दी , ७) जम्बू स्वामीनी बेलि बाहुलीदेि ६) भरत वेल्लि १० ) गुण्टा बेलि जीवंधर १६ ) लघु बाहुबलि वेति शांतिदास १२) गुरु वेलि ३) 33 15) : ५ ) श्रादिनाथ नि, १८) देगा है धर्मदाय हर्षकानि दिवालिया ४) मल्लिदास नीलिमा जयसागर १५) पडलेस्था लि साहलोट १ वीं शताब्दी १७३० श्री भवन ने इससे पहले जो उन्हें ८० ला की पूरी सूची नामनि फ्रि और पतियों के नाम है। , मं० १६१६ मं० १६२५ " मं० भट्टारक धर्मचर ददाय 53 पूर्व T जयपुर के दिगम्बर शास्त्र भण्डारों का सूचियों में कुछ ऐसी वेलियों के नाम है जो कि नामों में ही नहीं है । कुछ नाम उपरोक्त नामावली में होने पर भी उन रचियता के नाम सूचियों में नहीं होने से वे वेलियों ने ही है या भिन्न हैं नहीं कहा जा सकता । १ आमेर शाल भगदार सूची में गुटक नं० १५ मं कलि कुण्ड पार्श्वनाथ बेल का नाम छा है और गुटका न २४ में बेलि गीत नामक रचना है। इन दोनों के रचियता श्री का नाम सूचि में नहीं दिया गया है। २ ग्रन्थ सूची भाग २ पुष्ट ८ में गुण वेलि, ठकुरसी रचित का नाम है सम्भव है वह पंचेन्द्रि या नेमिश्वर वेलि ही हो पृ० ३६५ में पंचेद्धि वेलि, पृष्ट ३६६ नेमनाथ वेलि पृष्ट ३७१ भरत की बेल के रचियताओं के नाम भी नही छपे हैं। ३ ग्रन्थ सूची भाग ३ के पृष्ट १६७ में ऋषभनाथ लि का नाम है वह वादिश्वर वेलि से भिन्न है या अभिन्न निर्णय करना आवश्यक है । ४ ग्रन्थ सूची भाग ४ के पृष्ट ६३८ में पंचेन्द्रिय वेल दील पृष्ठ ६२३ में गुणा वेध ( चन्दनयाजागीत) पृष्ट ६४३ गुण बेलि, पृ० ७७५ में पड लेस्या बेलि डर्पकीर्ति Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वघेरवाल जाति (डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जावग) प्रस्ताविक-- गजा बलिभद, उसका बेटा बरणकुयर और इक्यावन दिगम्बर जैन समाज की जानिपों में बघेरवान जानि गांव के इक्यायन टाकृर को उपदेश देकर बधेरवाल जाति का भी विशिष्ट स्थान है। इस जाति के लोग राजस्थान १२ गोत्र की स्थापना करी । संवत 19 माह बदी । नया मयप्र में और मदागार में भी निवास करने है। रविवार को । मह कारन कर कुछ घर केलागढ़ देश तरफ इन की साध्या ५ हजार र श्रापपास है। इस जाति का श्राया मो उनका धरम टूट गया। वहाँ बिहार करते करते नाम राजधान में बैंक के निकट थिन बघेग नामक लोहाचार्य जी काष्ठासंध बाले प्राये सो उनने उपदेश ग्राम में लिया गया है । इस ग्राम में इस समय बंदलवाल दर धर्म में स्थापना करी, मो मत्ताबीय गोत्र काष्ठासंधी नथा अगरबानी 4 घर जिनमें बारहवीं-तरहवीं सदीय संबन 1४. श्रामोज मुदि १४ मंगलवार को । संवत की कई मनियां है। जैन साहित्य और इतिहास पृ० ३४४)। १२४१ अलिबदन पातम्याह के समय में चित्तौड़ में राणा भाटों की अनुथति-- रतनसिंह चौहान का कामदार पुनाजी म्बटोड था उसने ___ बघेन्याल जाति के प्रत्येक परिवार के सदस्यों में ३५. घर लेकर दक्षिण में प्राया।' (इस वर्णन का हस्तनामों की मृवी जयार करने का काम भाटा कर लिन मार संग्रह में है। वि०सं० १E७ म भाट परिबार वंश परम्पग कर श्राय हैं। वि० सं० १८७३ रूमबदाम नागपुर आये थे, उन्होंने इस बारे में थोड़ा में भाट हीगनन्द और कालगम कारंजा में थे उस व भिन्न बर्णन किया था-बलिभद्र राजा का पिता बाग उन्होंने बघेरवाल जाति की स्थापना के बारे में इन शब्दों में वर्गान कि.पापा-'प्रथम दृढाड दश में गजा विक्रम के नामक था तथा बालभद्र के पुत्र बरुणकुबर के ५२ पुरों बम और कन्दकन्दाचार्य जी के अम्नाय में जम्प में १२ गोत्र स्थापित हये, बघेरा गांव के पास इनकी सेना म्नामापा । ये बघेग गांव में आये । उस गांव का में मर्ग का प्रकोप हुश्रा, नब रामदाम भाट की सलाह से शाषांश सं० १९८३ के नाम छुपे हैं यदि रचनात्री घोर रचयिता दिगम्बर शास्त्र भगदारी में कई श्वेताम्बर रचनाय भी के नाम गलत नहीं छपे हों तो तो षट नेम्या चाल-हर्ष काति मिलन: है अतः नेणवे के गुट के से जिप नेमि राजिमती वेल और पंचन्द्रिय बलि छ।हल ये २ नाम उमंगक 12 नामों को नकल मने प्राप्त की है यह श्वे. सीहा कवि की रचना में और बढ़ जायेगे। जिन बलियों के निमितानी के नाम लगना । हमको २ प्रतिया ११ वीं और १६ वीं शताब्दी सूचियों में नहीं है उनकी अच्छी तरह जांच कर लेना की . भगदारों में मुझे प्राप्त हुई है। सम्भवतः बलिचाहिए । यदि उनमें कोई अज्ञात मिले तो टीक। मंजक रचनाओं में यह सबसे प्राचीन है। कुछ महीने पहले मैंने छापर के स्व. मोहननाल और भी कोई दिग. लि डा. कस्तूरनन्द कासलीवाल दुधेडिया के पास एक महत्वपूर्ण दिग. गुटका देवा था परमानन्दर्जन, कुन्दनलाल जैन प्रादि को जात हो तो उस उसमें गुगाठाणा बेलि में भिन्न होना ही सम्भव हैं। वैसे की जानकारी शीघ्र ही प्रकाश में लाने का अनुरोध है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ अनेकान्त घे लोग समीप ही निवास करते हुए मुनि उमाम्बामी, लोहाचार्य, विद्यानन्द, रामसेन ब नेमसेन की शरण में पहुचे, उनके मन्त्रजल से रोग शान्त हुआ, तब वे सब लोग जैनधर्म में दीक्षित हुए तथा रामदास के वंशजों को उनका कुल वृत्तान्त संग्रहीत करने का काम सौंपा गया। कुछ और अनुश्रतियां काष्ठासंघ के विभिन्न भट्टारकां की प्रशंसा में समय समय पर लिम्वे गये कई छप्पयों का संग्रह हमार संग्रह के एक हस्तलिखित गुटके में है। इसमें बघेरबालों के सम्बन्ध में भी पांच पद्य हैं जो इस प्रकार हैं५ काष्टासंघ तप तेज नयर बडेली माहे । बघेरबाल बर न्यात गोत बागडिया त्याहे ॥ साह सदाफल सरम नारि कनकादे सुन्दर । करे धर्म प्रालोच जिनेश्वर पृज पुरंदर ॥ गंबत बार इक्कावने बिंव प्रनिष्टा यय तिलक । पार्चनाय जी थापया जय जय जय बोलइ खलक ॥ काष्टासंघ विशाल लाइबागड गच्छ जागो । वघेरबाल वर न्यात गोत बोरखंडया बखाणो॥ पापसाह कुलतिलक नाम मोहन वर मंडन । संवत ऋण पचीस धर्मध्वज रची अम्बंडन ॥ वेई पुर पाटन सरस पार्श्वनाथ जिन थम्पयन । वृषभदाम कवियण कह। मों जय जय जस अप्पयन । काष्टासंघ सुजाण न्यात बघेरबाल बिराजित । खटबड गोत गयंद पुरणमल साह सुसोभित ॥ नयर बघेरा मोह सरस अनि कीधी प्रतिष्ठा। शान्तिदेव पधराय भोजन बहु दिया मिष्ठा ॥ संबत प्रण इक्कावने माघ मास दशमी शुकल । वृषभदास कवियण कही धरणायुत गुण तो प्रकल ॥ ४ काष्ठासंघ उदार लाडबागड गच्छ सोहे । वघेरवाल वर न्यात गोत बोरखंढया मोहे ॥ उग्रसेन वड वीर पामसुत देश विख्यातह । पट् दर्शन माहि कीर्ति कनकदे सुन्दर मातह॥ संबत त्रण पंचाबने पाटन माहि झलमल किया। सुमतिदेव इम उच्चरे मुनि सुग्रत जिन थप्पयो। काष्ठासंघ गच्छ सफल नाम माथुर मनमोहन । न्यात बघेरबान गोत पितलिया मोहन । साह नाम श्रीपाल नगर उजेणी माही। कियो प्रतिष्ठारम्भ देवता विक्रम माही ॥ संबन श्रण पैताम मे सुरनरखेचर नुतचरण । जयउ अबन्ती पास लोहसूरिमंगलकरण । अनुश्रुतियों का विचार भाटी की अनुश्र नियों में तथा ऊपर के पद्यों में इस जाति के व्यक्रियां की जो प्रचीन तिथियां दी हैं व कल्पित ही मालूम पड़ती हैं। क्योंकि अन्य साधनों से उनका कोई समर्थन नहीं होता। सं० १४२ में काष्ठासंघ का अस्ति-ब इस में बतलाया है वह तो स्पष्ट रूप से इतिहास के विरुद्ध है। क्योकि काष्ठामंध की स्थापना पं. ७५३ में हुई ऐसा दर्शनग्नार में वर्णन है तथा इसके शिला लेखीय उल्लेख तो बारहवीं शदी में ही मिलते है। किन्तु इन अनु. श्रुतियों में कुछ बारा वारक भी हैं । बंधेरगाल जानि के १२ गात्रों में २५ मूलमंघ के तथा २७ काप्टासंघ के अनुयायी थे बम बात का समर्थन बिक्रम की अठारहवी पदी के लेग्बक नरेन्द्रकानि के एक पद्य से होता है (भद्दारक सम्प्रदाय पृ. २८४) श्री काप्टासंघ नाम प्रथम गोत्र पंचबीम । मुलमंघ उपदेश गोत्र अंने सत्ताबीस ॥ बघेरवाल ब्रड ज्ञाति गोत्र बावण गुण पृरा । धर्म धुरंधर धीर परम जिन मारग सूग ॥ महाघ्रतधारक महारक श्री लक्षमीमेनय जानिये । गुरु इन्द्रभूषण गंगसम सुगुण नरेन्द्रकीति बग्वाणिये॥ इस जाति के लोग मूलतः राजपूत क्षत्रिय थे तथा बाद में जैनधर्म में दीक्षित हुये थे इसका भी एक समर्थक प्रमाण है। इस जाति में प्रतिवर्ष चैत्र शु. ८ तथा प्राश्विन शु. ८ को कुल देवी का पूजन किया जाता है (उत्तरी प्रदेशों में तेरापंथ के प्रभाव से यह रीति लुप्त हुई है किन्तु दक्षिण में अभी रूढ़ है) जिसे दिन्हाडी पूजन कहते हैं। इस समय यद्यपि साधारण बघेरवाल अपने कुलदेवता को पद्मावती, चक्रेश्वरी या अम्बिका यह नाम देता है तथापि भाटों के कथनानुसार इन देवियों के नाम अलग अलग है Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरबाबा जाति उनके कथनानुसार चवरिया गोत्र को देवो चंद्रसेन है, "भुरिया भोरे। ठोल्या गोत्र की देवी खंडवा है, पिनजिया गोत्र की देवी १२ मढया पेंढारी । रूखमा है, बागडिया गोत्र को देशो चामुम्हा है तथा १३ साबला गहाणकरी, भोंगाडे। भुरिया गोत्र की देवी महिकावतो है। ये नाम जैनधर्म १४ सेठया मुधोजकर। के स्वीकार के पहले के होने चाहिये यह स्पष्ट ही है। क्यों हरसोरा कस्तूरीबाजे, नगरनाईक(चॉदूर), कि जैन शासन देवियों में ये नाम नहीं पाये जाते। हरसुले (संगई)। दक्षिण प्रवास कुछ स्मरणीय व्यक्ति-- उपयुक्त अनुश्रुति में वषेरबालों के दक्षिण-प्रवास अब हम वषेरवाल जाति के उन स्मरणीय व्यक्तियों का समय सं० १२४१ बताया है तथा इसके नेता पूनाजी का संक्षिप्त उल्लेख करेंगे जिन्होंने अन्धलेखन, मूर्ति-मन्दिर खटोड बताये हैं। किन्तु पूनाजी का समय विक्रम की निर्माण प्रादि कार्यों से ऐतिहासिक महत्व प्राप्त किया था। सोलहवीं शाही में निश्चित है क्यों कि वे कारंजा के भष्टारक (क) पंडित माशाधर-बघेरवास जाति का सर्वसोमसेन के शिष्य थे। इनके साथ वषेरवालों के १७ प्रथम उल्लेख पंदित प्राशावर जी ने किया है। उन्होंने गोत्रों के लोग दक्षिण पाए थे। इस समय इनमें दो गोत्र अपनी जाति के इस नाम का संस्कृतीकरण 'म्यारवाखान्यवर नष्ट हो चुके हैं-१५ गोत्र अभी भी दक्षिण में हैं, इन इस रूप में किया है। सागार धर्मामृत, अनगार धर्मामत, की जनसंख्या १२०. है। महाराष्ट्र की रीति के अनुसार जिनयज्ञकरूप, त्रिषष्ठिस्मृति शास्त्र इत्यादि . संसात इन लोगों ने स्थान या व्यवसाय बतलाने वाले उपनाम ग्रंथों के रचयिता पंडित प्राशाधर का विस्तत परिचय पं. धारण कर लिये हैं तथा गोत्र नामों का व्यवहार प्रायः नाथूरामजी प्रेमी ने दिया है (जैन साहित्य और इतिहास छोड़ दिया है। प्रत्येक गोत्र के जो अलग अलग उपनाम पृ. ३४२-३५८)। उनके ग्रंथों का रचनात्मक सं. इस प्रकार हुये हैं उनकी सूची इस प्रकार है १२८५ से सं० १३.. तक का है। गोत्रनाम उपनाम (ख) पंडित सोमदेव-श्रु तमुनि कृत त्रिभंगीसार , खटोड जोहरापुरकर, महाजन(कारंजा) की संस्कृत टीका के कर्ता पंडित सोमदेव भी वषेरबान जाति २ खंडरिया प्राग्रेकर, कलमकर (जिंतूर) के थे। ये अभिदेव तथा विजेणी के पुत्र थे। अतमुनि का खंडारे, खोरणे, खोखापुरे समय सं० १३१८ में ज्ञात है अतः सोमदेव उस समय भीसीकर, रुईवाले। के बाद के लेखक है (जैन साहित्य और इतिहास ३ गोवाल संगई (अंजनगाँव)। . चबरिया खेडकर, चवरे, डोणगांवकर, (ग) जीजासाह-ये चित्तौब के प्रसिद्ध कीर्तिस्तम्भ जिंतूकर, देऊळगाँवकर, के निर्माता थे। इन के विषय में एक विस्तृत शिलालेख देवलसी, रायबागकर। मुनि काम्तिसागर जी में प्रकाशित किया था अनेकान्त वर्ष १ जुगिया जोगी, किल्लेदार। ८ पृ० १४२) । दुर्भाग्य से उस का समय निर्देश ठीक ठोक्या कलमकर (कारंजा), ठबनी, नहीं है। एन्युअल रिपोर्ट माफ इन्डियन एपिग्राफी सम सबाईसंगई। १९५४-१५ में उदयपुर म्युजियम से प्राप्त एक खेसका • नंगोत्या गरिने। सार इस प्रकार दिया है इस लेख में बघेरवाल जाति के - पितलिया नांदगांवकर, दर्यापूरकर । जीजाक द्वारा एक स्तम्भ की स्थापना का उल्लेख है। इस बागडिया मिश्रीकोटकर। खेल की मुख प्रति देखने पर हमें यह वाक्य इस प्रकार १.बोरखंडया मगरनाईक (कारंजा), महाजन मित्रा-वरवास साहजीजाकेन कारितः स्वभः । चित्तोड़ (मागपुर), मालदी। केकीतिस्तम्भ का शिखर पिछली शताब्दी में राया Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अनेकान्त फतेहसिंह के समय में टूट कर गिर पड़ा था। हमारा (झ) वर्षासावजी-जोगी गोत्र के बर्धासाव जी अनुमान है कि वह शिलालेख तभी वहाँ से उदयपुर लाया नागपुर निवासी थे। भोंसला राजा रघोजी (द्वितीय) के गया होगा। दरबार में इन्हें अच्छी मान्यता प्राप्त थी। इन्होंने सं० (घ) पूनासाह-दक्षिण में जाने वाले बघेरवाल १८४५ में नागपुर में एक मन्दिर बनवाया जो इस समय परिवारों के ये प्रमुख थे। कारंजा में भहारक सोमसेन के सेनगढ़ मन्दिर कहलाता है। इस मन्दिर के निर्माण के ये शिष्य हुए। अतः उनका समम बिक्रम की सोलहवीं समय रघु नामक कवि द्वारा लिखी गई विस्तृत मराठी सदी में निश्चित है। ये उपयुक्त जीजामाह के पुत्र थे। कविता हमने 'सन्मनि' में प्रकाशित की है। नागपुर से (अ) वीरसंघबी-जिन्तूर (जिला परभणी) के ३० मील दूर रामटेक अतिशयक्षेत्र है वहाँ भी वर्धासावजी समीप नेमगिरि पहाड़ी पर भौरों में तीन मन्दिर हैं जिन ने कुछ निर्माण कार्य कराया था। नागपुर में प्रतिवर्ष चैत्र में नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा शान्तिनाथ की विशाल मूर्तियाँ ३.१ को पद्मावती का रथयात्रा उत्सव होता है उस का हैं । नेमिनाथ मूर्ति के पादपीठ पर इन मन्दिरों के संस्थापक प्रारम्भ वर्धासावजी ने किया था। पीर संघवी, उनके तीन पुत्र तथा इन चारों की पत्नियों (अ) लेकुरसंघवी-ये कारंजा के लताधीश सेठ की मूर्तियाँ भी अंकित हैं। ये मन्दिर कारंजा के भहारक थे। एक बार एक सौदागर साठ ऊँटों पर कस्तूरी लाद कुमुदचन्द्र के उपदेश से शक १५३४ = वि. म. १६७. कर बेचने जा रहा था। कारंजा में यह कम्तूरी कोई नहीं में निर्मित हुए थे। इस प्राशय का लेब भी वहाँ है। खरीद सकता ऐसा उसका वाक्य सुन कर लेंकुरसंघबी वीरसंघवी के कुल का इस समय कलमकर उपनाम है। क्रोधित हुए तथा वह सर कस्तूरी खरीद कर उन्होंने अपने (च) बापूसंघवी-काष्ठासंघ-नन्दीतटगच्छ के भहारक नए बन रहे घर की जुड़ाई के लिये तैयार किए गये चने श्रीभूषण के शिष्य ब्रह्मज्ञानसागर ने अपनी रचना अक्षर में मिला दी। उनके इस विशाल निवास स्थान के खंडहर बावनी में बघेरवाल संघपति बापू का उल्लेख किया है तथा अभी कारंजा में है तथा कस्तूरी की हवेली इस नाम से उन्हें लघुवय-बहुगुणधारी ऐसे विशेषण दिये हैं। इनका प्रसिद्ध है । लेगुरमेघवी का समय विक्रम की अठारहवीं समय विक्रम की सत्रहवीं सदी का मध्य है (भट्टारक सदी का अन्तिम भाग है। इन्होंने भी रामटेक क्षेत्र पर सम्प्रदाय पृ. २७६)। कुछ निर्माण कार्य कराया था। (छ) भोजसंघवी-ये बापूमंत्री के पुत्र थे। (ट) रतनसाह-कारंजा निवासी रतनसाह भट्टारक कारंजा में इनका बड़ा व्यापार चलता था। शीलविजय शांतिसेन के शिष्य थे। मं. १८२५ में रामटेक यात्रा के की तीर्थमाला में इनकी समृद्धि का विस्तृत वर्णन है। अवसर पर इन्होंने हिन्दी शान्तिनाथ विनती की रचना की इन्होंने गिरनार की यात्रा के लिये संघ निकाला था, तथा थी। सं० १८२६ में शान्तिसेन के पद पर सिद्धसेन का इस कार्य में एक लाख रुपये खर्च किए थे। इनके लिये पामो पट्टाभिषेक हुश्रा उनकी प्रारती भी रतनसाह ने लिखी कवि ने शक १६१४ वि० सं० १७५० में भरतभुजबलि- थी। 'अघहर श्री जिन बिंब मनोहर' इस पंक्रि से प्रारम्भ चरित्रमामक काव्य की रचना की थी। इनके द्वारा स्थापित होने वाली चौबीस तीर्थकरों की प्रारती विदर्भ में रत्नत्रय यन्त्र (म. १७४७) नागपुर के सेनगण मन्दिर मप्रचलित है (भट्टारक संम्प्रदाय पृ. २२-२३)। में है(भट्टारक सम्प्रदाय पृ. २८६)। उपसंहार(ज) पूजासंघवी-ये कारंजा के प्रतिष्ठित सज्जन उपयुक्त वर्णन मुख्यतः दक्षिण प्रदेश के प्रमुख वघेरथे। इनकी प्रेरणा ले काष्ठामंघ-नन्दीतटगच्छ के भट्टारक वालों के विषय में है। राजस्थान तथा मध्यप्रदेश के बघेरसुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य धनसागर ने सं. १७५६ में 'पाव वालों के विषय में लेखक को उतनी जानकारी नहीं है। पुराण' की रचना की। यह काव्य हिन्दी छप्पयों में है इस प्रदेश के कोई विद्वान इस विषय पर प्रकाश डालें तो (म. सं. पू. २८८)। बहुत ही अच्छा होगा। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापंडित आशाधर - व्यक्तित्व एवं कृतित्व (पं० अनूपचं द न्याय तोर्थ 'साहित्य रत्न' जयपुर ) गजस्थान की वीर भूमि को जिस प्रकार युख भूमि में और महाराजा पृथ्वीराज चौहान पर विजय प्राप्त की उसी अंतिम दम तक डटे रहने वाले बलवान योद्वानों को जन्म देने समय अजमेर पर भी गौरी मे अधिकार किया था । इस का गौरव प्राप्त है उसी प्रकार जन्म भर अथक परिश्रम कर आक्रमण के फलस्वरूप देहली और अजमेर में तथा राज ने वाले मच्च माहित्य वियों को जन्म देने का भी सौभाग्य स्थान में चारों ओर अराजकता मच गयी । माघे दिन प्राप्त है। प्राकृत संस्कृत अपभ्रश हिन्दी एवं राजस्थानी मुसलमानों के प्राक्रमण होते थे और जानमाल की सुरक्षा भाषा के अनेक विद्वानों ने इस प्रदेश की धरा पर जन्म का कोई प्रबंध नहीं था । प्राशावर ने जब यहां चारों ओर लेकर तन मन धन से मां भारती की अमूल्य संथा की है अशान्ति देखी तो परिवार सहित धारानगरी बखे गये। तथा अपनी मौलिक रचनाओं, भाषान्तर किये हुए ग्रन्थों इन की प्रारंभिक शिक्षा पहिले माखनगद तथा पीके धारा में तथा अन्य अन्य प्रकार से यहां के ज्ञान भण्डारों को ही हुई। धारानगरी उस समय साहित्य एवं संस्कृतिका समृद्ध बनाया है राजस्थान में ये ज्ञान भण्डार इतने अधिक केन्द्र थी। और इसीलिए इन्होंने भी वहीं व्याकरण पूर्व महत्वपूर्ण हैं कि आज भी इनमें सब मिलाकर लक्षाधिक न्याय शास्त्र का गंभीर अध्ययन किया। हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहीत हैं। राजस्थानी साहित्य कारों ने धारा नगरी से माहित्य एवं संस्कृतिका परिज्ञान एवं पुराण, चरित्र, काव्य व्याकरण कोष, नाटक, प्रायुवंद प्रादि नलकच्छपुर (नालछा) से माथु जीवन प्राप्त हुआ था। सभी महत्वपूर्ण विषयों पर अनेक भाषानों में रचनायें की उनके हृदय में धारा नगरी में ही जैन धर्म एवं साहित्य सेवा है जिस से भारतीय संस्कृति को जीवित रखने में पर्ण योग का उत्कृष्ट भाव पैदा हो गया था किंतु वहां का वातावरण मिला है। इन्हीं साहित्य सेवियों में १३ वीं शताब्दी के उपके नायक देख वहाँ नहीं रह सके औ महा पं० श्राशाधर जी थे जिनकी साहित्यिक संवानों का विवश होकर नलकाछपुर जाना पड़ा। वहाँ का मेमिनाथ सभी भारतीयों को गर्व होना चाहिए। चयालय उनकी पाहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया पं. श्राशाधर जी संस्कृत साहित्य के अपार दर्शी वे लगभग ३५ वर्ष तक मालछा में ही रहे और वहीं एकनिष्ठा विद्वान थे। ये माल गढ़ (मेवार) के मूल मिधास थे में साहित्य पर्जना में लग गये। वे निर्मीक विद्वान थे तथा किंतु मेवाह पर मुसलमान बादशाह शहाबुद्दीन गौरी के किमी की कभी परवाह नहीं करते थे। और जैसा भी माक्रमणों से त्रस्त होकर मालवा की राजधानी धारामगरी पागम साहित्य में लिखा है उसके अनुसार अपने इष्टमित्रों में अपने स्वयं एवं परिवार की रक्षा के निमित्त अन्य लोगों को चलने का प्राग्रह करते थे। यदि उन्होंने गृहस्थों के लिये के साथ आकर बस गये थे। पं० श्राशाधर वोरवाल जाति के सागार धर्मामृत जिला तो मुनियों के लिये भी माधार श्रावक थे। इनके पिता का नाम सल्लक्षण एवं माता का व्यवस्था उन्हें करनी पड़ी और उनके लिये अनगार धर्मा. माम श्री रत्नी था। सरस्वती इनकी पत्नी थी जो बहुत मृत लिम्वकर इस क्षेत्र में प्रागे होने वाले प्राचार्यों मुनियों सुशील एवं सुनिता थी। इनके एक पुत्र भी था जिसका नाम एवं श्रावकों को एक नयी दिशा दी। म्याकरण और न्याय छाहरू था। इनका जन्म किस संवत् में हुड़ा यह नो निर शास्त्र के असाधारण विद्वान् थे तथा प्रायुर्वेद एवं ज्योतिष चित रूप से नहीं कहा जा सकता किंतु ऐतिहासिक तथ्यों जैसे विषयों पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। काव्य रचना के माधार पर उनका जन्म वि.सं. १२३४-३५ के जंगल में तो वे अत्यधिक पारंगत थे। उन्हें जिस किसी विषय पर भग अनुमानित किया जाता है। महाबुद्दीन मौरी ने वि. भी कोई रचना लिखनी होती ये निकालने और वह भी सं. १२५के पास पास जब दिल्ली पर माक्रमण किया अद्वितीय रचना होती । वास्तव में पाशाधर जैसा गमीर Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त एवं उद्भट विद्वान गत १०.७.. वर्षों में नहीं हुआ। उनकी लिखी हई स्वोपश टीकायें भी है। नलकरछपर वे अपनी धुन के पक्के थे, एक बार जिस कार्य को अपने उनकी साहित्यिक रचनात्रों का केन्द्र था। यहीं से ये सारे हाथ में ले लिया उसे पूरा करके ही छोडने थे। प्रागम जगत को अपना साहित्यिक सन्देश सुनाते थे। वे प्रतिभा. साहित्य के अधिकारी विद्वान् होने के साथ ये सुधार वादी शाली विद्वान थे उनके सान्निध्य में बड़े २ विद्वान एवं निष्पक्ष विचारक थे पंथ व्यामोह उन्हें छु तक नहीं गया था। साधु भी अध्ययन कर अपने को गौरवान्वित समझते थे । मुनिनाम धारी लोगों में उन्हें कोई श्रद्धान नहीं था बल्कि व जहाँ कहीं भी जाते अपनी रचनाओं का प्रचार किया शिथिलाचार देखकर उन्हें दुःख होता था। तथा वे उन्हें करते थे और इसी का फल है कि प्रायः सभी ज्ञान भंडारों जिन शासन को मलिन करने वाले कहते थे । में उनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं। ___ 'अष्टांगहृदय' जैसे महत्वपूर्ण' ग्रंथ की टीका लिख प्राशाधर के अनेक मित्र एवं प्रशंसक थे। उनकी कर उन्होंने अपने प्रायुर्वेद-ज्ञान की दुदुभी चारों ओर प्रेरणा से वे ग्रंथ रचना किया करते थे। पंडित 'जजाक' ने बजा दी एवं 'काव्यालंकार' तथा 'अमरकोष' जैसे ग्रंथों की उन्हें 'त्रिषष्ठिम्मृति' शास्य रचने को प्रेरित किया तथा टीका लिखकर तत्कालीन भारतीय विद्वानों में अपना महीचन्द पाहु ने उनसे 'सागर धमम्मृत की टीका' लिखने सर्वोच्च स्थान बनाया। वे दार्शनिक थे और अपने दार्शनिक का अनुरोध किया। अनगार धर्मामृत की टीका हरदेव शान को प्रकाशित करने के लिये 'प्रमेय रत्नाकर' नामक शास्त्री की कृपा से हो सकी थी। पंडित जी लोक प्रिय ग्रंथ की रचना की। उनका 'भरतेश्वराभ्युदय' एवं 'राजी- विद्वान थे । वे अनेक उपाधियों से विमूषत थे। उनकी मती विप्रलंभ' काव्य शास्त्र की श्रेष्ठ रचनाएं हैं। रचनायें उस समय इतनी अधिक लोकप्रिय बन गई थी पाशाधर पागम साहित्य की तरह विधि विधान के भी कि जनता उन्हें 'प्राचार्य कल्प' कहने लगी थी। उनकी पूरे जानकार थे। 'जिनयज्ञकल्प' अपर नामा 'प्रतिष्ठा- काम्य शास्त्र की विद्वत्ता से मुग्ध होकर उन्हें 'कलिसारोद्धार' उनकी प्रतिष्ठा संबन्धी उस्कृष्ट रचना है। इस कालिदास' के नाम से पुकारने लगे थे। दर्शनशास्त्र के प्रकार यह कहना चाहिये कि प्राशाधर ने ऐसा कोई विषय पूर्ण अधिकारी होने से उन्हें 'नय विश्वचक्षु' की उपाधि नहीं छोड़ा जिस पर उनकी लेखनी न चली हो। बे से सम्मानित किया गया था। वे अथाह ज्ञान के धारक थे। सिद्धहस्त विद्वान थे। और इसीलिये वे तत्कालीन युग में ज्ञान की कोई सीमा उनके पास नहीं थी अपरमित ज्ञान पंडित से बढ़ कर महा पंडित कहलाए। प्राशाधर द्वारा के भण्डार थे और इसी लिये उन्हें प्रज्ञा-पुज भी कहा रचित ग्रंथों की संख्या २० होगी लेकिन दुःख है कि उन जाता था। उनकी विद्वत्ता का लोहा जैनेतर विद्वानों ने भी में से कुछ प्रमुख ग्रंथ अप्राप्य है। माना है । मालवाधिराज अर्जुन वर्मा के गुरु बालसरस्वती माशाधर श्रद्धालु भक्त थे। भूपाल चतुर्विशांति पर महाकवि मदन उनके निकट अध्ययन करते एवं विध्यवर्मा उन्होंने संस्कृत में टीका लिखी है । उसमें विद्वत्ता के साथ २ के मंत्री कवीश विल्हण सदा उनकी प्रशंसा किया करते थे। उनका भकि भाव से सराबोर हृदय प्रदर्शित होता है। उन इस प्रकार हम देखते हैं कि महा पं० प्राशाधर अपने का जिनसहस्त्रनाम एक दृष्टि से और भी उल्लेखनीय समय के ही नहीं किंतु आज भी साहित्य क्षितिज के जगग्रंथ है जिसमें श्रीवीतराग प्रभु का एक हजार नामों से मगाते नक्षत्र हैं और प्राशा है आगे भी सैकड़ों वर्षों तक स्तवन किया गया है । इस पर तथा अन्य ग्रंथों पर स्वयं इनका नाम गौरव के साथ लिया जायगा । "अपने मानव जीवन का मुख्य प्रांकना प्रत्येक नर- भोगों में गमा देना बुद्धिमत्ता नहीं है । किन्तु प्रारम-साधना के मारी का कर्तव्य है। जीवन के प्रमूख्य क्षणों को सांसारिक साथ देश धर्म और जाति के हित में लगादेना कहीं अच्छा है" Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे जीवों के साथ अच्छा व्यवहार कीजिए (शिवनारायण सक्सेना, एम० ए०) व्यक्ति समाज में रहता है, बिना समाज के उसका काम चाहते। कहाँ तक इस देश के इतिहास की गौरव मन्त्री नहीं चल सकता, साधू सन्यासियों तक को किसी न किसी गाथाएं बताएं, यहां के लोगों ने शत्र बों की सेना तक को प्रकार समाज पर निर्भर रहना पड़ता है। इसलिए मनुष्य सहायता पहुँचाकर प्रादर्श उपस्थित किया है। सन् १८२८ को सामाजिक प्राणी कहा जाता है। समाज की सबसे छोटी की बात है गोदावरी नदी के किनारे बाजीराव पेशवा और इकाई परिवार है जो राज्य का ही एक बदला हुमा रूप है, निजामुल्मुल्क के बीच घमासान युद्ध चल रहा था, मुसखाइसमें सभी एक दूसरे के दुःव सुम्ब में सम्मिलत होते हुए मानों की बुरी तरह हार हुई, खाने पीने तक का सामान अपने कर्तव्यों को समझने, संवा करना तथा सभी प्रकार समाप्त होने लगा जिससे अनेक पैनिक मौत के मुंह में की सहायता करना ही प्रत्येक मदम्य का लक्ष्य होता है। जाने लगे, इसी बीच मुसलमानों का पर्व भी निकट मा यदि छोटे होने पर माता-पिता-भाई बहिन की सेवाएँ, धन, गया, अन्न के प्रभाव से मुसलमानों की बुरी स्थिति होने और महायता प्राप्त करते है तो उनकी सेवा करने का भार लगी । निजाम ने पेशवा से अन्न समाप्त हो जाने और भी हम पर प्राता है इसलिए एक हाथ धादि लेने के लिये भूखे, मरने की खबर दूतों के हाथ भेजी। इस सूचना को खुला रहता है तो दूसरे हाथ से देते भी हैं। प्रानन्द जो पापेशवा ने मंत्रियों से सलाह ली मंत्री बोले 'अच्छा देने में है वह लेने में नहीं, बालक जब जन्म लेता है तो अवसर प्राया है, इस समय प्राक्रमण करके शत्रुषों के दांत माता-पिता सुभाव प्रस्त रहकर भी उसका पालन पोषण कर ख? किये जा सकते है, योग्य व्यक्ति तो ऐसे अवसरों में प्रसन्नता और प्रानन्द का अनुभव करते है यदि माता-पिता मोकों में रहते हैं। अतः श्रीमन, इम पुण्य अवसर का लाभ जन्म देकर ही उसे छोड देने तो उसकी क्या स्थिति होती, हम लोगों को भी उठाना चाहिए । अन्न न भेजकर उनपर इस कल्पना मात्र से ही हमारे हृदय में भय उत्पन्न हो हमला करना चाहिए, पेशवा ने मुनने को नो पात मंत्रियों जाता है । कहने का मतलब यह है कि परिवार के सम्बन्धियों की सुनली, पर लगी बडी बुरी क्योंकि मग्रियों की सलाह क और पामियों के सहयोग, सेवा, और महायता पर ही में स्वार्थ परता की गन्ध प्रारही थी, पेशवा ने यही कहा" घरे होने है। सम्बन्धों की प्रामीयता, तथा ममत्व की हमारी सबसे बड़ी कायरता होगी यदि भूख से मरती सेना अधिकता ही माता को अपने पुत्र की पीड़ा अपनी पीड़ा को हम किमी प्रकार की पहायता न दें, इसलिए मंत्रियों ने अनुभव हानी है । पर हमारा यह प्रेम, यह ममत्व संकुचित नौकरों को बुलाकर शीघ्र ही अन्न भण्डार से अन्न निकाल दायर में बन्धा हुअा है, ठीक है यहीं तो हमारे प्रेम का कर मुसलमान सैनिकों की रक्षा करो "इसका परिणाम पौधा बड़ा होता है, इसे खाद, जल, और प्रकाश देकर जगतविदित है, निजाम ने कृतज्ञता प्रकट की और अन्त में भागे भी बड़ाना है, अपना दष्टि कोण बदलना है, परिवार पेशवा से मन्धि करली। का जो प्रेम है उसे पड़ोसियों, गांव, नगर, जिला, प्रान्त सभी को अपने समान मानने की भावना सब लड़ाई और राष्ट्र के स्तर तक बढ़ाना है, महापुरुषों के जीवन को मंगई, हिमा, क्रोध, हुँश और प्रतिशोध का अन्त कर गहराई से जब हम देखते है तो उन्हें भूतल अपना देगी, अपने गोरग्ब धन्धे में लगे रहने वाले स्यक्ति समाज परिवार जान पड़ता है, प्रामीयता को राष्ट्र नक लाकर में कभी श्रद्धा नहीं पातं, जो अपने लिये ही खाने, कमान भी हमें आप नहीं बैठना है फिर तो 'जय जगत' या विश्व. और जीवित रहने येतो निम्न कोटिक प्राणी फिर बंधुत्व' की भावनों को अपनाना होगा। उनमें पशुओं में अन्तर ही क्या रहता है ? दूसरों को भूम्या परिवार में जैसे एक व्यक्ति को दूसरे के दुःख में दबकर अपने मामने से जो भोजन की पानी हटा देना है दुखी और सुम्य में प्रसन्न होते देखते हैं वैसे तम्वदर्शी और वही तो सरचा प्रेमी और दयालु कहलाता है, राजा रन्तिदेव पमाज सुधारक राष्ट्र की चिन्ता में व्याकुल रहते हैं वह स्वयं भूग्वे रहकर भी दमरों को दान देते और सहायता किमी को भूम्या, नंगा, प्रशिक्षित और बीमार देखना नहीं करने, ४८ दिन तक जल पीकर रहने वाले रन्तिदेव Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनेकान्त कितने दुर्वल हो गये होंगे इसका श्रासानी से हम अनुमान मकान या अन्य किसी भी सान्ति के मामले को मार पीट, लगा सकते हैं बाद को कोई सज्जन पकवान की थाली लेकर हत्या और मुकदमें वाजी नक हो जाती है, इसका तात्पर्य यही उसके सम्मुख पाये, उसे भी ईश्वर की कृपा समझकर कि अपने भी अब पगये हो गये, पर यदि पराये व्यक्तियों ४८ दिन के भूखे परिवार ने ईश्वर को भोग लगाकर प्रसाद को अपना बनाने की कला हममें भाजावे तो अनेक समस्याएँ समझकर पाने की तैयारी ही की थी, कि अचानक कोई सुलझ सकती है । महाभारत में दूसरे प्राणियों के साथ भी ग्रामण देवता श्रा पहुंचे। उन्हें अतिथि समझकर उन्हें अच्छा व्यवहार करने की बान कहा गई है :भोजन कराया और अपना सौभाग्य माना कि आज भी जीवितु यः स्वयं चछ-कथं मोऽन्यं प्रघातयेत् । अतिथि को बिना खिलाये हमें न खाना पड़ा। अतिथि को यद्यामनि चच्छत तत्परस्यापि चिन्तयेत् । विदा ही किया था, कि एक शूद्र पाया, उसने भोजन की अर्थातः-जो स्वयं जीवित रहना चाहता है वह दूसरों इच्छ। प्रकट की, और तब तक एक चांडाल कुत्तों को लेकर __ की हिंसा कैसे करें? मनुष्य अपने लिये जिन बातों की मा पहुँचा थोड़ा सा भोजन तो था ही वह भी उन पत्र में इच्छा करता है वही दूसरों को भी प्राप्त हों-यही वितरित कर दिया। अब यही सोचा कि थोड़ा सा जल सोचना चाहिए। जो शेष है इसी को सब थोड़ा-थोड़ा बॉट कर पीलें पर दूसरों की सेवा और सहायता को तो अलग कीजिए वह भी उनके लिये न था एक चाण्डाल जिसका गला प्यास जान बूझकर दूसरे प्राणियों को मताना, काल करना. और से सूग्वा जा रहा था, दौड़ा-दौडा उधर पाया और पानी मारना कितना बड़ा पाप है? इस तरह की कुत्सित भावना की याचना करने लगा, धन्य है रन्तिदेव की उदारता और जैसे जैसे मन में बढ़ती जाती है हमाग जीवन संकट में दयालुता जो बचा हुअा जल भी चाण्डाल को देकर प्यास पड़ता जाता है, फिर उस संकट से बचना बड़ा कठिन होना घुमाई, और स्वयं परिवार के सभी सदस्य उस दिन भूखे है, इस हिंसक शक्ति से बचने का एक ही माध्यम है और और प्यासे ही रहे। यह है अहिया, प्रत्येक प्राणी से प्रेम सम्बने की भावना ही जिस व्यक्ति में हमारा ममत्व होता है उसके दुःख को अहिया में छपी है। दवर्षि नारद ने पाठ पुष्पों की अर्चना हम देख नहीं सकते उसे कोई परेशान कर, धमकी दे, तो में ईश्वर के प्रसन्न होने का संकत किया है उनमें पहला हम बदला लेने के लिये अथवा रक्षा करने के लिए दौड़ पुष्प अहिंसा (अहिमा प्रथम पुरष) ही बताया है। यह पढ़ते हैं जो व्यक्ति अपने हैं. उनके दुख, दरिद्रता तथा पुष्प जहां भी चढ़ाया जाता है सफलता प्राप्त की जा सकती पेरशानियों को दूर करना हमारा कर्तव्य हो ही जाता है हैं। आज युद्ध की विभीषिकाओं, तथा सेना पर होने बाद जिन्हें पराया समझते है, उनके दुःख को हम देग्यने रहते हैं व्यय से सभी राष्ट्र परेशान हैं फिर भी युद्ध की नैयारियो और कष्ट देने में भी कोई संकोच नहीं होता, इस मरह से से अपना पिगड छुड़ाना नहीं चाहते, इमर्सन ने चेतावनी अब यह बात सिद्ध हो गई कि समस्त बुराइयों की जड़ी दी थी "पता नहीं युद्ध मनुष्यों को इतना प्रिय क्यों है अपने और पशये के भेदभाव में है। यदि सबको अपना जबकि उसे मनुष्य एक दम प्रिय नहीं हैं।" इसी सम्बन्ध समझे, सबके साथ अपने प्रिय जनों जैसा व्यवहार करे सो में टालस्टाय का कथन भी स्मण हो पाना है “सेना हत्या समाज में सुखी जीवन सभी यतीत कर सकते हैं। महात्मा करने का माधन है। सेना को बनाना या रखना हत्या गान्धी ने कहा भी है 'तुम्हारे कार्य से किसी को दुःख न पहुंचे. करने की तैयारी करमा है 'हिमा' मारकाट से शान्ति नही इसका ध्यान रखना, एवं इसके अनुसार कार्य करना तुम्हारा मिल सकती क्या खून से खूनधुल सकता है।" कर्तव्य है। पर आज के व्यक्ति में इतनी स्वार्थ परता मंसार में अधिक से अधिक व्यक्ति तक अहिंसा की भागई है कि उसका कुछ कहना ही नहीं म्यवहार मे चोड़ी सी बात पहुंचे, और अहिंसा के साम्रज्य की स्थापना हो तो कमी भा जाने पर भा माता, पिता, भाई, हन और चाचा हिंसा की भंयकरता से बचा जा सकता है, क्योंकि विनाश बाल इत्यादि से भी अथवा सम्बन्ध विच्छेव कर लेता है. खेती. की इस प्रकृति के सम्बन्ध में जार्ज नीईशा ने बड़े जोर Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे जीवों के साथ अच्छा व्यवहार कीजिए ७१ दार शब्दों में कहा था हिमा का अर्थ है अन्त में मानवता गांवों में दीन, हीन, दुर्वल खूटे पर बंधे अपनी मौत का समूल नाश । यही कारण है कि प्रात्मा उस स्वरक्षणीय मरने वाले पशु बहुत कम होते हैं. हम तो थोड़े रुपयों के वस्तुयों को विनाशक समझती हैं । महावीर महात्मा बुद्ध, लिये कमाई या दलाल को अपने पशु दे देते हैं और ईग, टालम्टाय और गान्धी इसी प्रामा की पुकार है।" क्षणिक लाभ उठालेते हैं. पर वह दलाल उस बूढ़े या जवान क्रोध, लोभ और मोह ही हिमा की जड़ हैं, क्योंकि दूसरे पशु को कसाई के घर तक पहुंचा देता है, जहां उसकी हत्या के द्वारा अपमानित होने, बुरा भला कहने अथवा किमी की जानी, म्बराय चमई से फैशन की वरतुणे नहीं बन सकतीं, प्रकार अहं पर चोट पहुंचने पर हम बदला लेने पर उतारू हो उस से ग्रामीण प्रयोग की भद्दी तथा काम की उपयोगी जान है, स्वयं नारी पुलिस में रिपोर्ट कर देते है अथवा वस्तुएँ बनाली जाती है, सुन्दर तथा फैशन की वस्तुएँ जीवित थोडे बहुत रुपये खर्च करवा का दूसरों से उसकी हत्या ही पशु को मारकर ही बनाई, जाती है। करवा देते हैं. दूसरे द्वारा छोटी सी की गई बुराई प्राण इस लिए भाइयो ! हिंसा को पूरी तरह से हटाना ही घानक बन जाती है। क्रोध पर मिषाय क्षमा के और कोई होगा । प्रज्ञान का काला पर्दा तो अब तो हटा ही देना काबू पाही नहीं सकमा, जयशंकर प्रसाद के अनुसार 'क्ष्मा से चाहिए, किसी भी जीव का अस्तित्व समाप्त करना, मार बढकर किमी बान में पाप को पुण्प बनाने की शक्रि नहीं है।' पीट कर या हल्या करके उसे तड़फाना, और दुःख देना ___ अनेक पनियों ने हिया को अपनी जीविकोपार्जन जैसी अनेक बुराइयों हिंसा के पीछे काम करती हैं फिर का साधन बनालिया है, कमाई का कार्य टीक मा ही हैं। हियक क्या सुख की नींद सो सकता है ? उसकी शक्ति का माम रेचकर पये प्राप्त करना और अपनी उदर न करना हाम होता है, नरक दुग्ख भोगता है और पापी कहलाता है। कितना निम्न कोटि का कार्य है, चमड़े, हड्डी, म.प मादि पर्वोदयी नेता श्री जयप्रकाश नारायण ने कहा है "अपने के लिए ही पानी की हिरा की जानी है, बहुत मे तो पराये का भेद मिटाना ही सबसे ऊंचा धर्म है।" इस मेव दृमरों में हजार पांचयों पया लेकर व्यक्तियों तक को मार भाव के मिटने ही अहिसा की ज्योति हमारे मन में जलने देने है, नग विचार करिये । यह किनना घृणित कार्य है। लगती है जिसमे हिंसा रूपी अन्धकार को पलायन करना मोर कमरे में ये अनेक मानव अपने धर्म कार्य को पड़ता है, सभी दृष्टि कामों में अपना कल्याण चाहने तथा ठीक चलाने या मन्तान प्राप्त करने, मुकदमा जीतने और मानव कलाण की भावना को बढ़ाने के लिये हिंसा को पूरी विवाह सूत्र में वन्धने की इच्छा पूर्व में ही देवी देवनामों तरह ग डोट ही देना चाहिए । मृर्व जीव जन्तों ने तो वे मन्दिर में पशु लि की मनीनियों करते हैं, एक और हमाग कुछ विगाड़ा भी नहीं है फिर हम इनके माथ इतना मन्तान प्राप्त करने की इच्छा तो दूसरी ओर इश्वर की तुरा व्यवहार क्यों करते है। इनके साथ तो प्रति शोध का एक मन्तान जो बकरी, भेड, गाय, या भंन है उसकी बलि प्रश्न ही नहीं उठना, हम तो बुद्धि जीबी तथा विवेक शील चढाने की किमी मन्दिर में नयारी। यह ग्वार्थपरता की प्राणी है, अच्छा और बुग पर कुछ सोचने की योग्यता पराकाष्ठा है। फिर याजकन फैशन के नाम कितनी हिंमा सबसे अधिक है। अतः हमें जनाचार्य श्री ग्रामतिर हो रही है इसको कल्पना करते ही विकीन व्यक्ति उपदेश को गोंट में बांधकर अपने प्राणों में हिमा का तो माथा ठनकने लगता है। रेशमी कपरों का बढ़ना अगुवन का समन्वय र धागे बढ़ना चाहिये:हुमा फैशन घर-घर में घुम चुका है, चमडे के प्रयोग को ही निनानेनाहिया मामा धार्ग निमायने नरके । लीजिए हाथ में वेगके रूप में, कलाई में घड़ी के फीने के स्वधागं नहि शाम्यां विंदानः कि पतति भूमी।। रूप में, कमर में पेटी के रूप में जेब में मनी बंग के रूप में अर्थात :-अहिंसा, आमा का प्राधार है जो पुरुष और पैर में जूतों के रूप में चर्म का प्रयोग किया जा रहा इसका विनाश करते हैं वेन में जाते हैं, जो पुरुष जिस है, आजकल जो चमडा मिलता है उसमें १५ प्रतिशन चमहा डाली पर बैठा है यदि संग ही काटता है नो भूमि पर ही जीवित पशुचों को मारकाट कर तैयार किया गया होता है, प्राकर गिरता है। *** Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर (बसन्त कुमार जैन, कोल्हापुर) है वीतरागमय पीर प्रभो! मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ ॥ प्रति मृदुल दया के सागर तुम, सब से ही प्यार किया तुमने। ना वैर किसी भी प्राणी से समता यह दिखलायी तुमने । कुल, जाति, धर्म, तनुके प्रतीत सबकोही स्नेह दिया तुमने ।। हर श्रात्माका कल्याण-मार्ग सच-सच ही बतलाया तुमने ॥ हे समता के सुविशाल दीप ! मैं भी वह दीपक बन पाऊँ ॥१॥ था तेन अहिंसा-रविका जब हिंसा-मेघों से आच्छादित। मा कलह किसीका किससे भी ऐसा ही तत्व किया घोतित । तुम दया-पवन बन मेघों को कर दूर अहिंसा की प्रगटित ॥ जिस रन-अहिंसा की छविसे फिर विश्व-शांति होगीनिश्चित । हे महा अहिंसा के सागर ! तुम भांति दयामय हो जाऊँ ॥२॥ वह समवशरण सम-समवाका सबही लेते थे जहाँ शरण । सबकाही हित है स्थित जिसमें करने उस ध्वनिका प्रास्वादन । सब भेद, वैर को सजकरही पाते थे तुम्हरे निकट चरण ॥ शत्रुव भूलकर सब प्राणी थे पारमधर्म में लीन-मगन ॥ यों दिव्य प्रभाव तुम्हारा था ! में भी विशाल त्यों बन पाऊँ ॥३॥ तुममें न राग या किससे भी, तुममें न द्वेषभी था किससे। जो सही-सही जाना तुमने वह बतलाया निर्हेतुकसे । तुममें न मोह था रंचकभी, सुमको न चाहभी कुछ किससे॥ सर्वोदयका पथ प्रशस्तसा दिखलाया केवल करूयासे । हे जगतबन्धु ! समदर्शी है। मैं भी समदर्शी बन जाऊँ ॥४॥ कितना क्या है हर मामामें यह यथार्थ सुमने दिखलाया। 'निज उन्नतिका हक सबको है' यह सत्य तत्त्वभी प्रकट किया। घरमोन्नति हो जब पारमाकी, परमात्म वही यह सिद्ध किया, मिथ्या का तम-पट हटवाकर सत्यत्व-प्रभाको स्पष्ट किया । है केवलज्ञामी ! परमात्मा ! सद्गुण मैं तुम्हरे सब पाउँ ॥१॥ तुमने जो धर्म दिया जग को है नाम उसीका पास्मधर्म। यह नहीं किसी कुछही जनका, यह सकल विश्वका विश्वधर्म । को प्रास्मा इसे स्वीकार करें उन सबका है यह सार्वधर्म ॥ सर्वोदय इसमें रहा खुला, जग-हितकारी यह जगतद्धर्म ॥ हे त्रिभुवनके देवाधिदेव ! तुम जैसा मंगल बन जाऊँ ॥६॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू कामता प्रसाद जी बाबू कामता प्रसाद जी जैन समाज के अच्छे सेवक उत्साही कार्य कर्ता और साहित्य तथा इतिहास के विद्वान थे। प्रापने मैट्रिक के बाद कोई उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाई थी । किन्तु विद्याभिरुचि और अध्यवसाय से ही अपने ज्ञान की वृद्धि की थी। जैन सिद्धान्त के ग्रन्थों के अध्यपन के साथ साथ आपने भारतीय वाङ - मयक अनेक उच्चकोटि के ग्रन्थों का अध्ययन किया था । आपकी रुचि स्वभावतः इतिहास की ओर भी गई. और अनेक ऐतिहासिक अंग्रेजा प्रन्थों का अध्ययन भी किया। और शोध-खोज के कार्यों में भी अपना समय लगाया । भा० द० जैन परिषद के मुखपत्र 'वीर' का आपने वर्षो तक सम्पादन कार्य किया । जैन सिद्धान्त भवन, आरा ( बिहार ) की पत्रिका के भी आप सम्पादक थे। श्रनेक ग्रन्थों के लेखक अनुवादक तथा अखिल जैन विश्व मिशन के संचालक थे । श्रहिंसा वाणी और वाईस आफ अहिसा जैसे मासिक पत्रों के सम्पादक थे। I बा. कामता प्रसाद जी कहा करते थे कि मेरे हृदय पर स्वर्गीय वैरिस्टर चम्पतराय जी की छाप पडी है, उन्होंने अपने जीवन में महत्वपूर्ण कार्य किया है उसी तरह मेरी मी इच्छा विदेशों में जैनधर्म प्रचार की है। आपने इस दिशा में उचित परिश्रम भी किया । उनका यह कार्य अद्वितीय है। ये पत्र व्यवहार में निपुण थे। कोई भी पत्र दे उसका उत्तर तत्काल देते थे । वे समाज के कर्मठ कार्य कर्त्ता थे, वे स्वयं मिशन थे और उसके प्रचार में लगे रहते थे, वे अपनी धुन के पक्ष थे और विश्व में अहिया का प्रचार करना चाहते थे । यद्यपि यह बहुत कठिन तथा परिश्रम साध्य कार्य है, फिर भी वे उस में अपनी शक्ति लगा कर लोक में जैनधर्म का प्रचार कर उसे विश्व धर्म बना देना चाहते थे। जो कुछ कार्य उन्होंने किया है, को चाहिये कि उस कार्य को आगे बढ़ाने का यत्न करें यहां उनकी है। समाज आपकी रचनाओं में जैन इतिहास भगवान पार्श्वनाथ भगवान महावीर, दिगम्बर और दिगम्बर मुनि आदि अनेक पुस्तकें आपकी लेखनी से प्रसूत हुई | लेखन कार्य करते हुए अपका समग्र जीवन ही व्यतीत हुआ हे । प्रखिल जैन विश्वमिशन द्वारा जैनधर्म का प्रचार करने के लिये अनेक ट्रेक्टों का निर्माण और प्रकाशन कार्य किया । जैन धर्म प्रचार की आपकी उस्कट भावना थी । और उसी लगन का ही परिणाम था कि विदेशों में जैनधर्म का प्रचार कर सके, और विदेशीय विद्वानों से जैनधर्म और अहिंसा पर साहित्य भी लिखवा सके। आप अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में लिखत थे। यद्यपि आपका भौतिक शरीर अब यहां नहीं रहा. किन्तु आपका यशः शरीर सदा विद्यमान रहेगा । साथ ही आपकी कृतियां आपके जीवन को अमर बनाती रहेंगी। आपकी भद्र परिणति, और मिलन सारता जन साधारण को अपनी ओर आकृष्ट किये हुए है। आपने जैन धर्म और जैन समाज की अच्छी सेवा की है। आपके श्राकरिमक निधन में जैन समाज की जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होना कठिन है । अनेकान्त परिवार दिवंगत आत्मा की परलोक में सुख-शान्ति की कामना करता हुआ बीजनों के प्रति हार्दिक समवेदना व्यक्त करता है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्यमें आर्य शब्दका व्यवहार (साध्वी श्री मंजुलाजी) मनुष्य की भांति शब्दों का भी अपना इतिहास होता दूसरे के भाव शब्दों के सुकोमल यान पर पर्यारूढ़ होकर है और उसे जानने के लिए शायद साहित्य से बढ़कर कोई एक दूसरे की प्रामा का म्पर्श करते हैं, अतः शब्दों का कम पर्याप्त माध्यम नहीं होता। क्योंकि साहित्य में जो तथ्य मूल्य भी नहीं है। अनायास और निरुदेश्य उल्लिखित होता है वह अति रंजन मनोमानी और अरंजन दोनों से अनाविल रहकर अवतरित होता है। है लेकिन व्यक्तिशः हर शब्द की क्षत्रीय सीमा व कालअतः सच्चाई के बहुत निकट होता है। मान पृथक-पृथक होता है । तथा यह भी होता है कि एक शबूद भावाभिव्यक्ति का साधन मात्र है, इसलिए शब्द उद्भव के समय चरम उत्कर्ष की स्थिति में होता है शब्द का स्वयं में कोई अधिक मूल्य नहीं है। लेकिन एक और कालान्तर में वही अपकर्ष की स्थिति में पहुंच जाता (पृष्ठ ५६ का शेष) के चन्द्रमा (पट्टधर) सुहससि (शुभचन्द्र) ये ।१४ इसके में भ. शुभचन्द्र की शिष्या डाहीबाई का तथा एक अन्य प्रागे भोजराज का वंश प्रादि परिचय देते हुए उसके या में केवल उनका अपना नामोल्लेग्व पाया जाता है, किन्तु उसके पुत्र संसारचन्द के राज्यकाल में सं० १५७१ में इन अभिलेखों में समय निर्देश कोई नहीं है ।1८ घटित एक धर्म प्रभावक घटना का उल्लेख हुमा है । १५ इस प्रकार भ. शुभचन्द का सुनिश्चित ज्ञात समय नदुपरान्त घत्ता-२ में संघाधिप ग्रह्मदेय (अमरसिंह मन्त्री वि. म. १४७१-१४६४ है । इनके पट्टधर भ. जिनचन्द की के पिता) ने जिस गुरु के उपदेश से वह धर्मकार्य किया सर्व प्रथम ज्ञात तिथि वि. सं. ११०२ है। अतएव शुभचन्द्र था उनका नाम दिया है-मुद्रित प्रशस्ति में यह नाम का निधन सं. १४१४ और १५०२ के मध्य किसी समय 'पहचन्द गुरु' प्राप्त होता है ।१६ किन्तु ऐसा लगता है हुश्रा हो सकता है । कितु यदि जिनचन्द्र की पटारोहण कि प्रतिलिपिक या मुद्रक के दोष से 'सु' का 'प', अर्थात तिथि ११०७ ही हो और उससे पूर्वका उनका सामान्य 'सुहचन्द' का 'पहचन्द' बन गया। यहां निश्चय ही मुनिजीवन गुरु के जीवन काल में ही बीता हो तो इन्हीं भ. शुभचन्द्र से प्राशय रहा प्रतीत होता है, किन्हीं प्रभाचन्द्र से नहीं ।१७ बीकानेर से प्राप्त एक प्रतिमा लेख शुभचन्द्र की मृत्यु वि. सं. १९०६-७ में हुई होनी चाहिए भ, शुभचन्द्र के पट्टकाल का प्रारंभ वि. सं. १४७१ के पूर्व तो अवश्य ही हुमा किन्तु कितना पूर्व या कब हुश्रा १५. जैन प्रन्य प्रशास्ति संग्रह, भा०२ पृ० न०१०१, पृ. १२८ इस पुस्तक के विद्वान सम्पादक पं. यह उनके स्वयं के पूर्व पट्टधर भ. पअनन्दि की अन्तिम तिथि के निर्णयपर निर्भर है। परमानन्द जी ने प्रशास्ति के इस प्रशं के जो पता क्रमशः अर्थ लगाये हैं वे ठीक मालूम नहीं होते देखिये उसी की भूमिका पृ.१७.८६, १२६, १३० पद्मनन्दि के शिष्य भ. प्रभाचन्द्र पट्टधर थे। १५. वही-१६. वही बस्तुत प्रभाचम्द तो पश्ननन्दि के गुरु थे। शिष्य महीं । इस नाम के उनके किसी शिष्य का पता १७. संभवतया 'सु' का '' हो जाने की भूल के कारण ही 'पं. परमानन्द जी ने भूमिका (पृ. महीं चलता। ५६) में यह लिख दिया कि 'उस समय १८. बीकानेर जैनलेखसंग्रह, न. १८१२ और २८३% Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसाहित्य में प्रार्य शब्द का म्यवहार ७५ है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शब्द प्राता तो है माधुनिक घटना है। इस विषय में अपना मत प्रदर्शित अतिशय व्यापकता लिए और बाद में धीरे-धीरे संकीर्ण करना दुस्साहस सा दिखाई देता। फिर भी यह समय ई. होता चला जाता है। पू० दूसरी शताब्दी के मध्य से अधिक प्राचीनतर तो नहीं हो भारतीय संस्कृति के प्रतीक प्रार्य शब्द के साथ यही सकतार । भागे चलकर इसी काल को प्रार्य भाषा व साहित्य हुअा है । वह एक विराट अर्थ लेकर प्राज भारततर देशों मात्र का प्रादि काल माना है। उपरोक्त तथ्य परस्पर बहुत से प्राई हुई एक जाति विशेष के अर्थ में ही रूढ़ हो गया विसंवाद लिए हुए है। मार्यों के प्रागमन व साहित्य मात्र है। डा. सुनीतिकमार चटर्जी ने आर्य जाति के बारे में जो का काल एक ओर ई० पू० ११०० वर्ण माना है तया वेदों लिखा है वह यों है-'भारतीय जातियों व संस्कृति को को प्रार्यों का ही निजी साहित्य माना है जबकि वेदों की मूलाधार ये ही चार जातियां थी · निषाद, इविद, किरात व प्राचीनता ई. पू. ३००० वर्ष प्रमाणित हो चुकी है। आर्य । इनमें प्रार्थो का स्थान सर्वोपरि रहा है, इस तथ्य फिर पार्यो को भी इतने लम्बे काल तक जाना चाहिए को स्पष्ट करते हुए लिखने हैं-"भारतवर्ष में अनेक जाति- था। इस पर लंग्वक ने यह तर्क दिया है कि वेद भायों के यों के लोग समय-समय पर आकर बसत रहे हैं, और प्रागमन के पहले भी थे। बाद में घेदों व पौराणिक परम्पउन्होंने अपने ढंग से जीवन व्यतीत करने की प्रणालियां राओं का सम्कत व प्राकृत में प्रार्याकरण हो गया। यह भी एवं विचार विकसित किए हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में समस्त नहीं जचता, क्योंकि पार्यों की प्राचीनतम भाषा संकृत सामग्री उपलब्ध नहीं है। जहां कहीं भी सुसभ्य जाति को मानी जाती रही है और वेद भी संस्कृत में थे व हैं। अगर मानवों से सुदर स्थानों में रखा, वहां वह बची रह गई है, वदों का बाद में मंस्कुतीकरण हुआ है तो उसका पहला उनकी भाषाओं द्वारा ही उसका अध्ययन सम्भव है । लेकिन रूप भी उपलब्ध होना चाहिए। दूसरे में पार्यों का यहां निष्कर्ष के रूप में भारतीय जन समुदाय की ऐतिहासिक- स्वयंभूत होना रूदिवादी हिन्दुत्रों की मान्यता कही जाती है, धार्मिक और विचारगन विशेषमानों को लेकर बनी हुई लेकिन पार्यों के आगमन की बहुमत तिथि २०० वर्ष ई. संस्कृति के निर्माण में सबसे बड़ा हाथ पार्यो की भाषा का पृ० मानी गई है, जबकि धार्य शब्द का उल्लेख इस पूर्वरहा। प्रास्ट्रिक और द्वाविदों द्वारा भारतीय संस्कृति का वीं जैन, बौद्ध और वैदिक वाहमय में प्रचार मात्रा में शिलान्यास हुधा था और प्रायों ने उस प्राधार शिला पर मिलता है। अत: बहन सम्भव है चार्य यहां की स्वयंभूत जिम मिश्रित संस्कृति का निर्माण किया है, उस गंस्कृति, जाति रही हो । वर, यहां आर्य शब्द मात्र जाति विशेष का माध्यम, उसकी प्रकाशभूमि एवं उसका प्रतीक यही को लेकर आया है । ये मारे मतभेद आर्य जाति की उत्पत्ति प्रार्य नाषा बनी। प्रारम्भ में संस्कृत, पाली, पश्चिमो. व प्रागमन को लेकर हैं, लेकिन यहां का विश्लेषणीय भार्य तरीय प्राकृत (गांधारी), अर्ध मागधी अपभ्रश आदि शब्द व्यापक अर्थ में होगा, अतः यहां इन सारे तर्को का आदि रूपों में तथा बाद में हिन्दी, गुजराती, मराठी, उडिया, कोई प्रयोजन नहीं है। यहां तो केवल म्पष्टीकरण किया बगंला और नेपाली सादि विभिन्न अर्वाचीन भारतीय गया है कि प्रस्तुत लेख के आर्य शब्द को ममागत जाति के भाषाओं के रूप में भिन्न-भिन्न ममयों एवं प्रदेशों रूप में न देखा जाए। में भारतीय संस्कृति के साथ इस भाषा का प्राविधेय सम्बध "सन १९३५ में फारम ने अपना नाम बदलकर ईरान बग्धता गया । रग्बा । जिसका आर्यन शब्द से सम्बन्ध है। यह यहुदी इसी पुस्तक में भागे यह भी बताया गया है कि केवल लोगों के साथ जानिभेद को स्पष्ट करने के लिए किया गया भारत में ही ३५०० वर्ष पुराना पार्य भाषा का प्रविछिन्न था।" यहां की आर्यन शब्द जाति विशेष का ही प्रतीक इतिहास उपलब्ध होता है तथा भारत में पार्थो का आगमन बनकर पाया है, लेकिन प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रार्य प्राचीनकाल के विश्व इतिहास में अपेक्षाकृत अर्वाचीन या शब्द का प्रयोग श्रेष्ठता व कुलीमता के अर्थ में हुआ है। १-भारतीय पार्य भाषा और हिन्दी पृष्ठ १४-१५ २-भारतीय प्राय भाषा और हिन्दी पृष्ट ३० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त निशानसातल में राजा, विदूषक, ऋषिकुमारों भादि पार्य और म्लेच्छ, उनमें प्रार्यो को अनेक भागों में सभी के लिए मार्य शब्द व्यवहत हुभा है. जबकि जाति किया गया है। । जात्यार्य, कुलार्य, कार्य, क्षेत्रार्य प्रादि । सबकी भिन्न-भिन्न पी। जैन साहित्य और भी व्यापकता यह सारे अर्थ प्रज्ञापना में प्ररूपित अर्थ के ही संवादक हैं। लिए हुए है। यहां पार्य शम्द किमी एक ही अर्थ की तस्वार्थ स्त्रोपज्ञ भाष्य में एक जगह प्रार्य शब्द का दूसरा सीमा में बंधा हुमा नहीं रहा। अर्थ भी किया गया है। वहां अनेक प्रकार के प्रार्य बतलाए जैबागम व मागमेतर दोनों ही प्रकार के साहित्य गए हैं। उनमें एक शिल्पार्य भी बनाया गया है और मार्य शब्द का प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुमा है। प्रागमों शिल्पायें४ में तन्तुबाय, कुलाल, नापितः, तुन्तवाय आदि को में शायद ही ऐसा मागम हो जहां किसी न किसी अर्थ में गिनाया गया है। इनको धार्य इलिए कहा है कि ये अम्प प्रार्य शब्द का उल्लेख न हया हो । बहत पारे स्थलों पर सावद्य और पर्हित आजीविका करने वाले होते हैं। एक ही अर्थ में पार्य शब्द को दोहराया गया है तथा नवीन पृथ्वीचन्द्र चरित्र में आर्य और अनार्य की एक अन्य पर्यों की स्फुरणा भी काफी जगह हई है। प्रानुन लग्न में परिभाषा दी गई है। साधु जहां विहार करते हैं, वहां के का एक प्रागमों तथा प्रागमेतर ग्रन्थों में व्यवहत मार्य लोग श्रार्य और माधुओं का जहां विरह हो, वहां के लोग शब्द का विश्लेषण किया जा रहा है। अनार्य हो जाते हैं। इसलिए आज वे भी देश अनार्य हो प्रज्ञापना के प्रथम पद में आर्य शब्द का प्रयोग अनेक गए जो पहले आये थे। यहां त्याग के संम्कार विशेष रूप से आर्य बनते थे, ऐसा सूचित होता है। अर्थो में हुआ है। जात्यार्य, कुलार्थ, कार्य, क्षेत्रार्य प्रादिपादि। यहां प्रार्य शब्द अनेक अर्थो में तो प्रयुक्त हुश्रा औपपातिक सूत्र में भगवान की दशना का वर्णन है। है पर मांगीण व्यापकता फिर भी नहीं आई। यहां बताया वहां बताया गया है कि आर्य और अनार्य मभी अपनी गया है कि धार्य यह है, जिसकी जाति आर्य है, कुल पार्य भाषा में उप प्रवचन को सुनने हैं और परिणत करते है । हैं। कर्म प्राय का मतलब है, जिसकी क्रिया सम्यक हों। यहां आये और अनार्य में विभिन्न भाषा भाषी देशों के यह फिर भी थोड़ा व्यापक है, लेकिन उन कार्यो में ग कर्म लोगों के लिए व्यवहत हुअा है। सूत्रकृतांग में एक स्थान चार्य कर्म है जो लोक में अनिन्दनीय है, फिर चाहे वे पर अनारम्भी७ के अर्थ प्रार्य शब्द पाया है। वहीं दूसरी लगह भगवान के विशेषण के रूप में पाया है जो श्रेष्ठत्व कितना ही कर क्यों न हों वे अंछ कर्म भी बार्य नहीं गिने जाते जो लोक में गईणीय हो। यही बात क्षचार्य के ३-तत्राद्या जातिकुलकर्मादिभेदभिन्नाः (जैन सिद्धान्त बार में है। जैन आगमों में माद काम प्राय देशों का दीपिका प्र० ३ सू०२४) उल्लेख पाता है। उस समय जो देश आर्य गिनं जान थे -शिल्पार्या:-तन्तुवाय, कुलाल नापित तुन्तुवाया अल्पउनमें से कइयों में बाज आर्यता का लंश भानही है। सावध प्रगर्हिन जीवा : (तत्वा० स्वोपज्ञ भाष्य) कई देशों के नाम बदल गए हैं तो कई नए देशों में शिष्टता ५-विहारात विरहात साधो, रार्याभूता अनायिका, अनार्या वारता का बहुत अच्छा विकास हुआ है। ऐसी स्थिति अभवहे शा कृत्यार्या अपि सम्प्रति (पृथ्वीचन्दचरित्र) में आर्य शब्द की उपरोक्त परिनापा शाश्वनिक न होकर ६ -तसिं पच्वमि प्रारिय मणारियाणं अप्पणो समामाए परिमार्मायक हैं, यह अनुमान सहजना ही हो जाता है। णामेण परिणम । प्रारिय मणारियाणं आर्य देशोत्पन्न तदितरन्नाराणां (सू. ३० उ. धर्मकाथा अधिकार) उमाम्बाति ने मनुष्य को दो भागों में बांटा है, थार्य ७-श्रारिए जाव मन्च दुक्खपहीण मग्गे (सू. १२ और म्लेच्छ। जैन सिद्धान्त दीपिका में हमी का विश्लेषण प्र.१ धर्म अधर्म पदा) -अरिएहि पवेहए (मा. करते हुए बताया गया है-- मनुष्य मात्र के जो दो भेद हैं२, प्र.७ प्राय स्तीथी कृद भी (उ० ३ सू० २०४) १-प्रार्या म्लेच्छाश्च क (तस्वार्थ प्र.३ सू. ११) -प्रज्जति समणे भगवं महावीर (सू० ७. २५० २-प्रार्या म्लेच्छाश्च (जैनमिद्धान्तदीपिका प्र० ३ सू० २३) पंडुरिक) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में प्रार्य शब्द का व्यवहार " का सूचक है। श्राचारांग में समागत आर्य शब्द का अर्थ १ टीकाकार ने सीर्थकर किया है। दूसरी जगह शब्द का जो अर्थ किया गया है, वह अत्यन्त व्यापक है। उसके अनुसार कोई भी कभी भी और कहीं भी आर्य कहला सकता है। वहां तीन चार विशेषण धाए हैं—आर्य २, आर्यप्रज्ञ, आदर्श आदि टीकाकार ने यहां कार्य कार्य किया है. - ३ समस्त हेय धर्मो से दूर चला गया अर्थात् जो परि के योग्य है, वह आर्य है जो आर्यप्रज्ञावान है, वह आर्यप्रज्ञ तथा जो न्यायोपपन्नता से देखता है, वह श्रार्यदर्शी है। आगे चलकर हिसक को बनाये और हक को आर्य की संज्ञा दी है। वहां जो ऐसा करने वाले हैं कि सब जीवों को मारना चाहिए, छेड़ना चाहिये वे तो अनार्य हैं और जो प्रार्य है, वे उनके प्रलाप को दृप्ट और दु.श्रत कहने हुए समग जीवों को श्रधात्य और अवध्य बतलाते हैं। । उत्तराध्ययन सूत्र में आर्य शब्द का कई अर्थो में प्रयोग हुआ। है। वहां आया है, निजरार्थी आर्य धर्म को स्वीकार करे। यहां 'आर्य' धर्म' शब्द जैन धर्म के लिए नहीं. श्रेष्ठ धर्म के लिए प्रयुक्त हुआ है। १० में श्रध्ययन में दुर्लभताएको अति दुर्लभ बनाया है। यहां भी आर्य गुण का वाचक हैं। जहां आर्य की सोमवार की श्लाघा की गई हैं, वहां श्रार्य शब्द समताशील के अर्थ में प्रयुक्त हुआ लगता है । आय की भांति श्रनाय शब्द का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में हैं जिससे शब्द का और भी सर्वांगीण हुश्रा विश्लेषण होता है । हरिकेशी मुनि के कृश शरीर व स्वल्प १- आरिए अस्थिपन्ने, बारियसी (श्रा० ज० २०५ पा०८८) त्यात सर्व हेय धर्मस्य इत्यार्थ चरित्राहः, थाया प्रज्ञा यस्यासावार्य प्रज्ञः आर्य प्रगु न्यायोपपन्नं पश्यति तत्शीलाश्चन्याय दश । ३ - - श्रणारिय वयमेव तत्थ जे शारिश्रा त एवं सब्वे पाणा न हन्तवा (श्रा० उ० ४ उ०२ सू० १३४ ) ४यित पुरविदुक्ल (४००० रक्षांक १२) ५ श्रहो अज्जम्स सामया (उ० श्र० २० श्लोक ८) ७७ सामग्री को देखकर यज्ञ स्थल में ठहरे हुए मारे कुमार आदि हंसने लगे । उन्हें अनार्य६ कहकर पुकारा गया। यहां बनायें शब्द असभ्यता व अज्ञानता का द्योतक है। इसी तरह मिया दृष्टियों पार्श्वयों को भी बनायों की अंशी में गिनाया गया है। दशवकाल में भोग लिप्यु के लिए अनाव' शब्द का प्रयोग दिया गया है । जब मुनि परिस्थितियों से घबराकर पुनः गृहवास की इच्छा करता है, तब श्राचार्य उसे ललकारते हुए अनाम' शब्द का प्रयोग करता हैं। आर्य शब्द का व्यवहार अधिकांश दधा संयतभाव के लिए हुआ करता था। पर एक जगह धर्मपद के लिए चार्य पद१० शब्द दिया है। कहीं-कहीं नाना और दादा, नानी और दादी के लिए भी आर्यक व प्रायिका शब्द आए हैं जो अवश्य अवस्था व अनुभवों की प्रोदना तथा परिपक्वता के द्योतक हैं। नागमों व आगेतर भन्थों में बहुत सारे स्थलों पर आर्य' शब्द का प्रयोग हुया है जो लगभग इन्हीं श्रर्था का प्रतिनिधित्व करता है। इससे स्पष्ट है कि आर्य शब्द जो बाहर से आकर भारत में बसी हुई एक जाति विशेष के लिए प्रयुक्त होता रहा है, वह अतीत में बहुत ही व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता था। इस शब्द को जहां तक खोजा गया है उससे भी पुराना है इसका इतिहास गहरी | आदि शोध के बाद ही जाना जा सकता 1 ६ पन्सो वह उनगरणं उवहसन्ति प्रणारिया । उ० प्र० १२ श्लोक ३०) वामिमहादिदि अणारिवा (मु० मु० प्र० अ० १२३, श्लो० १०) एवं मेगे उपासत्या पन्नवन्ति प्रणारिया (यू० श्र० प्र० प्र० ३ उ० ४ श्लोक ५) ह-अज्जी भोग कारणा (द० चू० १ श्लोक १ ० २ ) १] महासू (२० ० १० लांक १८ ११- प्रज्ज पज्जए वाचि (३०२०० श्लोक १८ ) अज्जिए पज्जिए वाव द० ००० श्लोक १२) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोध्या एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर (परमानन्द शास्त्री) अयोध्या एक प्राचीन ऐतिहासिक नगरी है, जो वर्त- वतियों के जन्म लेने का उल्लेख जैन साहित्य में पाया जाता मान में उत्तरप्रदेश राज्य के प्रवध नामक इलाके में फैजा- है। और यहां उनके अगल अलग पांच मन्दिर भी बने बाद जिले के अन्तर्गत सरयू नदी के किनारे पर अवस्थित थे । यद्यपि इस समय जैनियों के प्राचीन मंदिर वहां नहीं हैं, है। और जिसकी गणना भारत की प्राचीनतम महा नगरियों और जो हैं वे १७ वी १८ वीं शताब्दी से अधिक प्राचीन में की जाती है । जैन संस्कृति के अनुसार अयोध्या सभ्य नहीं जान पड़तं । प्राचीन मन्दिर कालदोष या साम्प्रदायिक संसार की सबसे पहली नगरी है। श्रमण संस्कृति के प्रवर्तक मनोवृत्ति के कारण विनष्ट कर दिये गये हैं । जैसा कि आगे प्राद्यतीर्थकर आदि ब्रह्मा ऋपभदेव की और अन्य चार के इतिवृत्त से ज्ञात होगा। तीर्थकरों की जन्म भूमि होने के कारण उसकी महत्ता स्पष्ट जैन साहित्य में इस नगरी का अयोध्या, अउज्झाउरि, है। इतना ही नहीं। किंतु अन्य अनेक महापुरुषों की जनक अवधा, सुकोशला, कोशलपुरी, साकेत, विनीता, इच्वाक रही है। इस कारण जैन मंस्कृति में तो उसकी महत्ता है भूमि और रामपुरी श्रादि अनेक नामों से उल्लेख किया ही। किन्तु भारतीय संस्कृति में भी उपकी महना श्रांकने गया है। । श्रादि पुगण में जिनसन ने लिखा है कि-अयोध्या योग्य है। नगरी की रचना देवों ने की थी, और उसे वप्र प्राकार और जैनों, हिन्दुओं, बौद्धों में ही नहीं किन्तु मुसलमानों परिग्वा प्रादि से अलंकृत बनाई थी, कोई भी शत्रु उससे युद्ध में भी इसे तीर्थ रूप में माना जाता है। और यहां प्रायः नहीं कर सकते थे । वह प्रशंसनीय सुन्दर मकानों और सभी धर्मों की अनुश्र तियों का उनके साहित्य में उल्लेख ध्वजाओं से अलंकृत होने के कारण साकेत कहलाती थी३ । मिलता है । इतनाही नहीं किन्तु उन धर्मों के धर्मायतन मानों वे पताकाएं भी अपनी भुजाओं में मंकेत ही कर रही भी बहु मंख्या में पाये जाने हैं । इससे ऐसा प्रतीत होता है हैं । कोशल देश में होने के कारण सुकोशला और विनयकि वह नगरी बाद में विविध धर्म मंस्थापकों का केन्द्र बनती वाम शिक्षित एवं सभ्यलोगों से व्याप्त होने के कारणा रही है। बुद्ध और महावीर के युग में उनके अनुयायियों की विनीता कहलाती थी । इच्वाकु राजाओं की जन्मभूमि और महत्ता रही है। पश्चात विविध धार्मिक सन्तों के समय राजधानी होने के कारण इक्ष्वाकुभूमि, रामचन्द्र के जन्म के समय होने पर उनका श्रदय होता रहा है। इत्वाकु या कारण रामपुरी, और अवध प्रान्त में होने के कारण 'अवधा मूर्यवंशियों के समय जैनियों और हिन्दुओं का प्रभुत्व कहलाती थी। पउमचरिउ में अयोध्या को बारह योजन रहा है। लम्बी और नौ योजन विस्तीर्ण बतलाया है। । हरिषेण प्राचीन काल में इस बहुन अम नक राजधानी बनने का कथाकोश में अयोध्या और माकन नामों का अनेक कथाभी गौरव प्राप्त रहा है। नाभिराजाके प्रपुत्र और ऋषभदेव 1. विविध तीर्थकल्प पृ० २४ के पुत्र भरत सम्राट जिनके नाम से इस देश का नाम भारत- २. अरिभिः योदुन शक्या प्रादिपुराण । वर्ष पहा, अयोध्या के शासक ये । इक्ष्वाकु वंशियों और ३. प्राकेतः मह वर्तमाना माकना श्रादिपुराण १२,७५,७६ सर्य वंशी राजाओं ने यहां दीर्घ काल तक राज्य किया है। पनचरित ३, १६.. १७० और उसके बाद अन्य अनेक वंशों के राजानों ने शामन ४. पउमचरिउ २, १३ भगवनी अाराधना १५, तिलोयकिया है। उस समय अयोध्या की समृद्धि अकल्पनीय थी। परमत्ती-म. अयोध्या का जितना महत्व जैनियों को प्राप्त है उतना ही ५. ततो गला नदी नीर वर पश्चिम दक्षिण । महस्व सनातन धर्मियों और बौद्धों आदि को भी प्राप्त है। अस्ति कोशल देशस्था माकेता नगरी परा। अयोध्या में जैनियां के पांच नाथंकरों और दो चक्र- हरिषेण कथा कोष कथा १२, पृ. ३१२ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोध्या एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर ७६ स्थलों पर उल्लेख किया गया है । भगवती भागधना और प्राधान्य था, और वैदिक ब्राह्मण सभ्यता वहां बाद में निलोय पण्णती श्रादि जैन ग्रन्थों में उसका उल्लेख है। पहुंची। यशस्तिलक चम्पू में मोम देव ने अयोध्या को कोशल देश ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी पूर्व के लगभग महर्षि में बतलाया है। तथा मगधदेश में प्रसिद्ध अयोध्या के बाल्मीकि द्वारा रामायण ग्रन्थ के रचे जाने पश्चात प्राह्मण राजा सगरचक्रवर्ती का उल्लेख किया गया है । परम्पराने अयोध्या के प्राचीन महापुरुष रामचन्द्र को अपनाना वैदिक साहित्य में अयोध्या प्रारम्भ कर दिया था। उस समय उत्तरापथ के शासक मगध वंदनी में कहीं भी अयोध्या या कोशलदंश का के ब्राह्मण जातीय शुगंनरेश थे, जिन्होंने श्रमणों और बौद्धों उल्लेग्व नहीं है । किंतु अथर्ववेद बगा दो में एक स्थान पर पर बड़े अत्याचार किये थे। ब्राह्मण धर्म के पुनरुद्वार का लिखा बिताना योध्या में मार श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। उस समय प्रचीन याशिक महल, नवकार और लोहमय धन भंडार है। यह स्वर्ग की क्रिया काण्ड रूप धर्म में क्रान्ति भागई थी, और औपनिषभांति समृद्धि सम्पन्न १३ । शतपथ ब्राह्मण में केवल एक दादिक कं अध्यात्म प्रधान वैदिक धर्म ने पौराणिक हिन्न स्थान पर 'कोशल' का नाम पाया है। हां, प्रसिद्ध वयाकरण धर्म का रूप लेना प्रारंभ कर दिया था। उसी समय से पाणिनीय व्याकरण के एक मूत्र में 'कोशल' का उल्लेख अयोध्या हिन्दू धर्म का केन्द्र बनने लगी थी। अतएव गुप्त अवश्य हुधा है।। काल में वैष्णवधर्म के अवतार वादके विकास एवं प्रचार के पतंजलि महाभाष्य में 'अरूणदयवनः माकनमः दिया परिणाम म्वरूप प्रयो-या की गणना हिन्द धर्म के प्रमुख है जिसमें एक महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख किया है. और तीयों में होने लगी थी। बतलाया है कि यवनी द्वारा साकेत पर आक्रमण किया बाल्मीकि रामायण में६, कालिदास के रघुवंश में, कुमारगया था। यद्यपि पंतजलिने उक्त प्रकरण में उसका कोई दाम के जानकादरण और भव-भूति के उत्तर रामचरित परिचय नहीं दिया, किन्तु यूनानी लेखकों के वर्णन में स्पष्ट आदि 'प्रन्यों में अयोध्या का मुन्दर नगर के रूप में वर्णन है कि उस राजा का नाम मिनन्दर था और उसके सिक्कों पर किया गया है। किन्तु भागवत में उसका उत्तर कौशल के भी उसका नाम प्राकृत भाषा में अंकित मिलता है। उस रूप में ही उल्लेग्व हुआ है। (भागवन ५-१६-८) की दृष्टि पाटलीपुत्र (पटना) पर अधिकार करने की थी. बौद्ध माहित्य में अयोध्या प्रतः उसने मथुरा पर अधिकार कर लिया, क्यों कि माकेत बौद्ध माहित्य में अयोध्या का उल्लेख सांकन और को जीतने के लिये मथुरा पर अधिकार करना आवश्यक था विशाग्वा के रूप में मिलता है। दिव्यबादान के अनुसारपश्चात उसने मार्कत पर घेग डाला । पर बाद में उम 'म्बय मागनं म्वयमागनं माकैतं माकेतमिति मंझा संवृत्त'भागना पड़ा। परन्तु प्राचीन ब्राह्मण माहित्यका अयोध्या अर्थात जो श्राप ही पाया प्रापही पाया, इस कारण उसका के सम्बंध में मौन होना इस बात का घोतक है कि प्राचीन काल में इक्ष्वाकु या मूर्य वशी क्षत्रियों की उपासना का - -अयोध्या नाम तत्रास्ति नगरी लोकविक्षता। मनुना मानवेन्द्रण पुचि निमिता स्वय ॥ 1. कोशल देश मभ्यायामयोध्यायो पुरि, पृ० २६३ मायता दश चक्रे च योजनानि महापुरी । २. मगध मध्य प्रसिद्धचाराध्दयामयोध्यायां नरवरः मगरी श्रीमती श्रीणि विस्तीर्ण नानासंस्थानशोभिता । नाम यशस्तिलक पृ. ३५१ । -बालकाण्ड ३-अए चका नव द्वारा देवानां : अयोध्या। -ग्रामीद वनन्यामतिभागभाग___ तस्यां हि हिरण्यमयः कोशः स्वर्गोज्योतिषावृतः॥ डिवोऽ वतीर्णा नगरीय दिया । ४-वृद्ध कोसला जादा जज्यङ ,.,.७१। क्षत्रानलेस्थान शमी समृदया, ५-देखो, जैनेन्द्र महावृत्ति की भूमिका पृ०-१०।। पुरीमयोध्येति पुरी परार्ध्या ॥ -घुवंश Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० अनेकान्त नाम साकेत पड़ गया।' साकेन और विशाग्या में बुद्ध के में होते रहे हैं। प्रादम के दोनों बेटों की क (अयूब और कुछ चातुर्मास विताने और उनकी दोन से वृक्ष उत्पन्न हो शीसकी) अयोध्या में बतलाई जाती हैं। सम्राट अकबर का जाने की घटना का उल्लेख मिलता है। चीनी यात्रियों ने मंत्री अबुल फजल भी दो कत्रों का वहां उल्लेख करता है। अपने यात्रा विवरणों में माकेत और विशाग्वा का उल्लेख 'इम नगर में दो बडी कब्र हैं एक छह गज लम्बी और किया है । इसमे ऐसा जान पड़ता है कि बुद्ध के समय में दूसरी मात गज लम्बी । जन साधारण का विश्वास है कि ये और उसके कई मौ वर्ष के पश्चात् भी अयोध्या यादिनाथ को अयूब और शीमकी हैं२ । अयोध्या एक खुर्द (छोटी प्रादि जैनतीर्थकरों की उपासना का केन्द्र बन रही थी। मक्का) के नाम से प्रसिद्ध है। ऊपर मान की जो व्युत्पत्ति उदृत की गई है. वह इस ११ वीं शताब्दी से पूर्व संभवतः मुसलमानों ने अयोध्या नगर को स्वयं निर्मित होने की प्रादिम कालीन अनुश्रुति का नाम भी न सुना था । महमूद गजनी पहला मुपलमान की ममर्थक है। दूसर कोमल गज्य की नूतन राजधानी सुलतान था, जो लूट-खसोट करता हुअा भारत के मध्य श्रावती को बौद्ध धर्म का केन्द्र बनाया जाना इस बात का प्रदेश में प्रविष्ट हुआ था, किन्तु वह अयोध्या तक नहीं सूचक है कि वहां जैनियों की प्रबलता थी। यही कारण है पहुंच पाया था। उसका प्रतिनिधि और भानजा मैयद मालार कि दशरथ जातक में राम के पिता दशरथ को काशी का मसऊदगाजी जो गाजी मियां और बाले मियां के नाम में राजा बतलाया और सीता को दशरथ की पुत्री. और फिर लोक में प्रसिद्ध है। प्रथम मुसलमान सरदार था जिसने अवध उसी के माय राम के विवाह की बात उल्लिखित की गई पर आक्रमण किया था। वह अयोध्या भी पहुंचा था३ । किन्त है । इसमें स्पष्ट ज्ञात होता है कि बुद्ध का सम्बन्ध प्रयोध्या अयोध्या के तत्कालीन राजा श्री वास्तव ने, जो जनाधर्मावसन होकर विशाग्वा (श्रावती) से रहा है। और उनके लम्बी था, गाजी मियां को भगा दिया था । पश्चात् वह बाद किसी समय अयोग्या में हीयमान सम्प्रदाय के कुछ गाजी आगे बढ़कर मन् १०३२ (वि० सं० १०८६) में स्तूप और संघाराम आदि वहां बने हए थे । जिनका उल्लेख श्रावस्ती पहुँचा, जहां श्रावस्ती के तत्कालीन जैन नरेश ईमा की 9 वीं शताब्दी में चीनी यात्री हुएनमांगने किया सुहिल देवने कोडियाला (कोशल्या) नदी तट पर होने वाले युन्न में समन्य परास्त कर मन १०३३ में मार डाला गया । महात्मा बुद्ध का जन्म कोशल देश के 'कपिलवन्धु फारमी तवारीख में लिखा है। कि कुटिलानदी के किनारे नामक नगर में हुआ था और परिनिर्वाण कशीनगर में। महुए के वृक्ष के नीचे एक तीक्ष्ण बाण लगने से मयदमहावीर और बुद्ध के समय कोसल नरेश प्रमनजिन की सालार का जीवन-प्रदीप बुझ गया । राजधानी श्रावस्ती में ही अनाथ पिण्डक द्वारा बनवाया हुश्रा सन् ११६४ ईस्वी में मुहम्मद गौरी का भाई मरवदूम जेतवन नामक विहार था। और विशाम्बा नाम की प्रमिन्द्र शाहजूरन गौरी सेना लेकर अयोध्या पर चढ़ पाया। उसने उपालिका का पूर्वाराम भी श्रावस्ती क निकट होने की बहुन वहां के सबसे प्राचीन भगवान आदिनाथ के विशाल मन्दिर कुछ संभावना है। इस तरह अयोध्या बुद्ध के पश्चात ही को नष्ट कर दिया, और स्वयं भी उसी स्थान पर युद्ध में किमी समय उनके धर्म का स्थान बनी । जब बुद्धधर्म का संस्थान बनी तब भी वहां जैनधर्म मौजूद था। -देखो, मदीनतुल अोलिया। २-देखो, प्रायने अकबरी भा० २ प्र. २४५ मुसलमानी शासन में अयोध्या 3-देखो, फारसी ग्रन्थ दर बिहिस्त । मनातन, बौद्ध और जैनधर्मो को छोड कर इलाम ४-देखो, अवध गजेटियर भा० पृ. ३ धर्मका सम्बन्ध अयोध्या के साथ अवाचान है। परन्तु -निल्द दरियाय कटिला जर दरख्तो गुलचिकों। मुसलमानों का कहना है कि आदमके समय से ही अयोध्या व जर्व नावक हमचूं मौजान शहीद सुदन्द । विद्यमान है। तब तक अनेक पार और प्रोनिय इस नगर देखो, मैलाने ममजवीअनुवाद मीराते मसऊदी । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोध्या एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर ८१ मारा गया और उसी स्थान पर दफनाया गया। इसी कारण और बहुत कम मांसाहारी हैं। इसी से अनुमान किया जाता वह स्थान शाहजूरन का टीला कहलाता है। जिनमन्दिर है कि यह लोग पहले जैनी ही थे३ । १२ वीं शताब्दी तक वहाँ थाढे समयबाद पुनः बन गया, किन्तु बहुत समय तक के श्री वास्तव बडे प्रसिद्ध थे और ठाकुर कहलाते थे। फैजाउस मन्दिर का चढ़ावा शाहजूरन के वंशज ही लेने रहे। बाद और उसके पास पास के जिलों में अब भी ब्राह्मणों जो अब तक अयोध्या के बकमरिया टोले में रहते थे।। और ठाकुरों के बाद हिन्दू समाज के प्रतिष्ठित अंग माने जाते इस घटना के बाद ५० वर्ष में अयोध्या पर मुसलमानों है। मुसलमानों द्वारा इनकी राजसत्ता का अन्त हो जाने का पुरा अधिकार हो गया । पर भी ये लोग दीवान, सूबेदार, कानूनगो प्रादि विभिन्न दिल्ली के शाही राज्य में अयोध्या प्रशासकीय पदों पर काम करते रहे हैं । और धीरे धीरे तुर्क पठानों के शासन काल में प्रयोध्या पर अनेक मुशागिरी मुन्शीगिरी इनका पेशा बन गया। मुसलमान शासक रहे, परन्तु उन ने अयोध्या की कोई श्री अयोध्या के वर्तमान जैन मन्दिर वृद्धि नहीं की। सन् १२३६ और मन १२४२ ईम्बी में अयोध्या में दिगम्बर जैनियों के १ मन्दिर विद्यमान हैं. नसीरुद्दीन नवारी और कम उद्दीन कैरान अयोध्या के शासक जिन का सामान्य परिचय निम्न प्रकार हैंरहे हैं । जब जौनपुर में उसकी सरूतनत स्थापित हुई ना अयोध्या पर भी उसका अधिकार हो गया। यहां अनेक प्रादिनाथ मन्दिर-यह मन्दिर स्वर्ग द्वार के पास मुसलमान फकीर हो रहे हैं। उद और हिन्दी के प्रसिद्ध मुराईटाले में एक ऊँच टीले पर है जिसे शाहजरन के टीले कवि अमीर खुशसे भी अयोध्या में प्राया और उसने वहां के नाम से पुकारा जाता है । यह वहा स्थान है जहां पर के दो प्रसिद्ध मुसलमान फकीरों (फजलप्रवास कलन्दर मन 11६४ ईवी (वि० सं० १२५१) में मुहम्मद गौरी के और मृपा प्रासिकान) के श्राग्रह पर अपने सिपह भाई मखदुम शाह जग्न गौरी ने सब में पहले इस प्राचीन मालार मारबाकी के द्वारा अयोध्या के प्रसिद्ध राममन्दिर को विशाल जैन मन्दिरको नष्ट किया था, और स्वयं भी काल तुडवाकर उपके स्थान पर उमी की सामग्री से मसजिद बन का प्राम बना था। वहीं उसकी कय बनाई गई थी। यह वा दी। यद्यपि अकबर के शासन काल में कुछ हिन्द व जैन मन्दिर उसी स्थान पर पुनः बनाया गया था । अतएव ऐतिमन्दिर पुन. बन गये, किन्तु पीरगंजबने उन्हें फिर तुड़वा हापिक दृष्टि से बड़े महत्व का । यह आज भी शाहज़ान दिया। मुगल शासन काल में अयोध्या का नाम फैजाबाद रख केटीले के नाम से प्रसिद्ध है। दिया गया और वह सूबा अवध की राजधानी रही। दसरा मन्दिर अजितनाथ का है.--जो इंडोश्रा (सान अयोध्या के श्रीवास्तव नरेश मागर, के पश्चिम में हैं। इसमें एक मति और शिलालेग्व श्री वास्तव गजानों ने अयोध्या पर नीन मी वर्षा के है। इसका जीर्णोद्वार पं. १७८१ में नबार शुजाउद्वीला लगभग राज्य किया है। सन १८७० ईम्बी में श्री पी. के खजांची दिल्ली निवासी लाला केशरीसिंह ने नबाब की कारनेगी ने लिखा था कि अयोध्या का यह परयू पारी राज्य प्राज्ञा से किया था। बंश जैनधर्मानुयायी था । अनेक प्राचीन देहर व जैन धर्मा तीसरा मन्दिर अभिनन्दन नाथ का है, जो सराय के यतन जा अाज विद्यमान है । मूलतः इन्हा राजाश्रा क बनवाए पास है, यह भी प्रायः उसी समय का बना हुआ है। हा थे२ । इन सबका जीर्णोद्धार हो चुका है। लाला मीताराम ने अपने इतिहास में लिखा है कि-'अयोध्या के श्री 3. A Historical Sketch of Fuzabad, वास्तव कायस्थों के संपर्ग से बचे रहे, नो मथ नहीं पीत मन् 1870 - - - - - - - - ----- - - 1-अयोध्या का इतिहास प्र. १४६ ४. अवध गजेटियर भा.मन 10 नया अयोध्या का २-अयोध्या का इनिहाय पृ. १५२-१५३ इतिहास पृ. 11 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म-तर्क सम्मत और वैज्ञानिक (मुनि श्री नगराज) जैन धर्म केवल मास्थानों का ही धर्म नहीं, वह पूर्ण पूर्व कर्म तो थे नहीं नो फिर सृष्टा ने एक को पशु और तर्क सम्मत और वैज्ञानिक हैं। आज के बुद्धिवादी युग में एक को मनुष्य क्यों बनाया, विश्व की प्रादि से पूर्व धर्म के नाम से जीवित रह सकने वाली कोई वस्तु है तो अनन्तकाल तक वह मृष्टा क्या रहा है उसे उसी दिन विश्व जैन धर्म है, जिसका प्रत्येक पहलू यौक्त्तिक और सहेतुक हैं। संघटना की बात यो सूझी ? जन धर्म मानता है, बीज जैन धर्म बताता है-अहिंसा हमें इमलिए मान्य है से वृक्ष और मनुष्य से मनुष्य जिस प्रकार अाज पैदा होना कि हमारी तरह सभी प्राणी जीना ही चाहते हैं, मरना है, वैसा ही क्रम अतीत में मदा ही रहा है और अनागत कोई नहीं चाहता। इस स्थिति में किसी को किसी की हिंसा में भी सदा ही रहेगा, इसलिए विश्व स्वयं मे अनादि करने का अधिकार नहीं। जैन धर्म बनाता है विश्व अनादि अनन्त है। इसका जैन धर्म बताता है-स्यावाद हमें इसलिए मान्य है कोई पुरुष विशेष या अपुरुष विशेष मृष्टा नहीं है। यदि कि अनन्त धर्मात्मक वस्तु को अभिव्यक्त करने के लिए हम विश्व का किसी एक दिन प्रादुर्भाव हुअा और उसका कोई एक साथ एक ही स्वभाव को व्यक्त कर सकते हैं। स्यासृष्टा है तो प्राणी जगत और मानव जगत में दीग्वने वाली दस्ति और म्यान्नास्ति हमें इसलिए मान्य है कि पदार्थ म्वयं ये विविधाएं निर्हेतुक ठहरती हैं, क्योंकि विश्व की प्रादि से इसी प्रकार व्यक्त होना स्वीकार करते हैं। चौथा मन्दिर सुमतिनाथ का है, जो राम कोट के दो बड़े दरवाजे हैं जिनके साथ कुछ कोठरियों बनी हुई है। भीतर है अवध गजेटियर के अनुसार इस मन्दिर में भगवान दो पके कुए हैं जिनमें मशीन से पानी निकाला जाता है। पारर्वनाथ की दो और नेमिनाथ की ३ मूर्तियों विराज- यह दर्शनेश्वर बाग राजा दुमरावन का था, जिसे अयोध्या मान हैं। के राजा ने खरीद लिया था। और अब अयोध्या के राजा पांचवा मन्दिर अनन्तनाथ का है, जो गोला घाट के से जैन समाज ने खरीद लिया है । इसमें बादिनाथतीर्थकर नाले के पास एक ऊंचे टीले पर है । इसका दृश्य सुन्दर है। ऋपभदेव की ३१ फुट ऊँची एक विशाल भव्य मूर्ति विराज दर्शनार्थी यात्रियों को चाहिये कि वे इन मन्दिरों का दर्शन मान की गई है। उसके चारों ओर दर्शन पूजनादिका स्थान पूजनादि कर उनके उद्धार प्रादि में अपना सहयोग प्रदान रहेगा । उक्र मूर्ति के विराजमान होने से उस स्थान की शोभा दुगणित हो गई । छतरी प्रादि के निर्माण और प्रति प्छा कार्य सम्पन्न होने पर यह स्थान धर्म साधन के लिए दर्शनेश्वर बहुत ही सुन्दर रहेगा। यदि समाज का पूर्ण सहयोग मिला अयोध्या का यह वर्तमान स्थान बहुत ही सुन्दर और तो यह स्थान अपने उत्कर्ष' द्वारा जैन संस्कृति के प्रचार में चित्ताकर्षक है। इसका नाम दर्शनेश्वर है जिसकी लम्बाई सहयोगी हो सकता है। जैनाचार्य श्री देश भूषण जी की चौदाई २८...गज है और जिसके चारों ओर पाठ फुट इच्छा उसे सुन्दरतम बनाने की है, वह सुदिन कब ऊँची और दो फुट चौड़ी एक पकी दीवाल बनी हुई है। आवेगा। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि धनदास रचित अज्ञात कृतिभव्यानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद (मुनि श्री कातिनागर) भक्ति-तत्व माधक और दुसरा माध्य, जिसके प्रति वह प्रारम-पमर्पण अन्य भारतीय दर्शनापेक्षा जनदर्शन में ईश्वर की कर संतुष्टि का अनुभव करता है। परन्तु जैन दर्शन में थिनि भिन्न है । पर भक्रि-तन्त्र को किसी न किसी रूप में प्राप्मा ही सब कुछ है। उसका कोई नाथ महीं । अपने ग्रंशन, जैन साहित्यकारों ने अपनाया है। अपने इष्टदेव- उत्थान पतन में कोई माधक बाधक नहीं होता, उत्कष भागध्य-पूज्य के प्रन हार्दिक श्रन्द्राभाव प्रकट करने का समु. अश्कर्ष स्वाधीन है । याहरी कोई किसी का शत्रु-मित्र नह'. वित माध्यम भनि ही है । कहने की शायद ही श्रावश्यकता वहां नी कार्मिक प्राधान्य है। दूसरे को चाहने का सवाल रह जाती है कि जन-भक्रि की परिसमाप्ति "मंयम' में होती ही पैदा नहीं होता । यहाँ तो पार्थिव का तनिक भी महत्व है। जैन संस्कृति में भक्ति साधन है न कि मान्य। वह नहीं होना, अपार्थिव ही मब कुछ है । प्रास्मिक सौंदर्य के स्वल हृदय की ही वस्तु नही अपितु इसका क्षेत्र मस्तिष्क गाना ही उसका एक मात्र लक्ष्य है । मामा के गुण का भी है । जहां भक को दर्शनका रूप मिलना है यहां वह अपना विकास संयम के द्वारा किया जाना ही अभिप्रेत है जैन मूल्य बहुन बना देना है । जनों ने भक्रि का म्वरूप विस्तृत प्राराध्य किसी पर कृपा नहीं किया करते। वरदान और माना है, काल "ईश्वरानुरक्नि' तक ही सीमित नहीं रम्बा, अभिशाप जो पदिक परंपरा की देन है। जैन साधक परनंग बल्लभमतानुयाया मानने प्राय है। "श्वेताश्वतर मात्मा से दीनता पूर्वक कुछ भी सांसारिक वस्तु की याचन उपनिषद् में "भक्रि" शब्द का व्यवहार इसी अर्थ में हुअा नहीं करता, वह नो यही चाहता है कि परमात्मा के गुणं है। श्रद्धा" जैन सस्कृति का प्राण है। यों तो वैदिक का प्रकाश मेरी प्रामा में फैले, और संयम में वीर्य का पाइल्य में भी "श्रद्धा का व्यवहार प्रचुर परिमाण में हा उल्नाम बना रहे, उसके द्वारा मुक्ति की माप्ति हो । इन है, पर इसका संपूर्ण अर्थघटन नदुत्तरची मादित्य में ही सब बातों के बावजूद भी जनों पर वैष्णव भक्रि का प्रभार पभव हो सका है । परन्तु जैन साहित्य में इस शब्द का नहीं पड़ा है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । जैनों द्वारा रचित पक्रिय महत्व रहता है । श्रद्धा का मूर्त रूप अपनी-अपनी कई म्नुतियां ऐमी पाई जानी जाती हैं, जिनका संस्कृति की संस्कृति के मूल अाधारों पर ही संभव है। यह बात भनि मृल धारा से कोई संबंध नहीं । कोई भी परम्परा चाहे. लिए भी कही जा सकती है। मच यान ना यह है कि जितनी मल दार्शनिक प्राधार शिला पर क्यों न श्रान हा "भक्नि" एक ऐसा व्यापक तत्व है कि उसे शब्दों की सीमा पर क लान्तर में उपमें शंधिल्य था ही जाता है या अन्य में प्राबद्ध नहीं रकम्बा जा सकता । व्यवहारिक रूप से दूसरे परम्परा से प्रभावित हो ही जाती है। जैन भक्ति पर का सहारा लेना या चाहना ही "भकि'' का शब्दार्थ है। वैष्णव- बल्लभाचार्य का स्पष्ट प्रभाष दृष्टिगोचर होन! "भक्तिसूत्र के बाद भास्कर ने इसे और भी ज्यापक बना है। श्वेताम्बर परम्परा के मंदिरों में रचाई जाने वाली अंग दिया । यद्यपि राणिनी के समय में नकि का अर्थ दूसरे का रचना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। पहारा लेना "या चाहना" रहा होगा, आगे चल कर वह जैसा कि उपयुक्त पंक्तियों में सूचित किया जा चुका म्नेह पात्र और वात्सल्य का प्रतीक बन गया। माहित्यिक है कि जैन भक्ति का वास्तविक स्वरूा "संयम" में प्रनिधिविश्लेषकों द्वारा प्रथम अर्थ लुप्त हो द्वितीय अर्थ का ही बित होता है । हमी द्वारा साधक अपना अंतिम ध्येय-मुनि पस्तिश्व शेष रह गया। प्राप्त कर सकता है। आमा को कर्म में विमुक्र करने का भकि में दो तस्वों की प्रधानता रहती है-एक तो म्वय एकमात्र यही सर्वोतम और समुचित मार्ग है । इमी से Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अनेकान्त म्पष्ट है कि श्रमण संस्कृति संयोग में विश्वास नहीं करती, इसकी समता नहीं कर सकता। जैन साहित्य में यही एक यह वियोग के गीत गाती है-वह मृत्यु महोत्सव मनाती है या स्तोत्र है जिस पर विभिन्न विद्वानों की लगभग ३६ जो जीवन का पूर्व रूप है । ऐहिक सुखोपलब्धि का जैन से भी अधिक टीकाएं उपलव्य होती हैं। इनके मार्मिक संस्कृति में स्थान नहीं है । स्याग और वैराग्यमूलक वीतरा- महत्व को प्रकट करने वाली अनेक कथाएं, मंत्र, यन्वादि गत्व ही वहां का काम्य है। जैन स्तुति साहित्य में इसी की प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं। पादपति माहित्य में इस स्तोत्र ध्वनि गूमती है। जैन भक्ति व्यक्तिपूजा में तनिक भी का खूब उपयोग किया गया है। इतना ही नहीं भक्तामर आस्था नहीं रखती, वह गुणमूलक परम्परा की अनुरागिनी शब्द भी इतना लोकप्रिय हो गया कि इसी संज्ञा में है। पूज्यता और उच्चता का प्राधार भी गुण ही होता है। "सरस्वती भक्तामर" "शान्ति भक्तामर नेमि भक्तामर', व्यक्ति तो केवल माध्यम मात्र है। गुणानुवाद से प्रारमा "ऋषभ भक्तामर", "वीर भक्तामर" और "कानू में गुण विकसित होते हैं । जीवन शुद्धि के मार्ग पर अग्रसर भक्तामर' प्रादि म्ोत्रों की रचना हुई।। होता है और मान्म-शान्ति का पथ प्रशस्त होता है। दर्प भक्तामर स्तोत्र मूल मंस्कृत भाषा में निबद्ध है। वृत्ति समाप्त होकर शील, सौजन्य एवम् समन्व में जीवन संस्कृतानभिज्ञ जन साधारण भी इसका उचित प्रानंद उटा उद्दीपित हो उठता है। सकें तदर्थ श्री हेमराज, नथमल, गंगाराम प्रादि अनेक भक्तामर स्तोत्र विद्वानों ने इसके पद्य बन्द अनुवाद प्रस्तुत कर इस लोक. भारतीय स्तुति-म्तोत्र साहित्य में जनों का स्थान अन्य प्रिय बनाया और भी अनुवाद उपलब्ध हैं जिनमें से कुछक नम है। संस्कृति, प्राकृत और देश भाषाओं में अनेक का प्रकाशन श्री मूलशंकर जी ब्रह्मचारी ने करवाया है, इन कृतियां रचकर साहित्य के इस अंग को जैन साहित्यकारों पंक्तियों के लिग्वने समय वह प्रकाशित मामग्री मेरे सामुग्य ने परिपुष्ट किया है । केवल भक्ति माहित्य की नहीं है। दृष्टि से ही इनका महत्व नहीं है अपितु इनमें प्रस्तुत रचना-रचनाकार-भव्यानद पंचाशिका" से कई स्तोत्र तो दार्शनिक और माहित्यिक दृष्टि में भी भक्तामर स्तोत्र का ही एक दुर्लभ अनुवाद है जिन्य की विशेष मूल्य रखते हैं। कइयों का ऐतिहासिक महत्व भी एक मात्र प्रति ही उपलब्ध हो सकी है। अद्यावधि प्रकाहै। यद्यपि प्राजके अनुसंधान प्रधान युग में इस प्रकार के शित किसी भी जैन हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहास माहित्य का समुचिन पर्यवेक्षण नहीं हो पाया है, पर जितना में नहीं हुमा। अनुवाद बहुत ही मधुर और गवालियरी भी काम हुमा है, जो भी प्रकाश में पाई है उमस इनका . भाषा के प्रभाव को लिए हुए है । अतः जितना महत्व इम सार्वजनिक महत्व प्रमाणित है। कइयों ने तो ऐतिहासिक कृति का धार्मिक दृष्टि से है उससे कहीं अधिक भाषा की उलझनों को सरलता से सुलझाया है. पर उन सभी का दृष्टि से है। विशेष मौभागय की बात यह है कि जिम्म विवेचन यहां अपेक्षित नहीं है। समय अनुवाद प्रस्तुत किया गया उसी समय का लिखा प्राचार्य श्री मानतुग एक अनुभवशील स्तुनि का हुआ भी है । इसका लेखन काल सं० १६१५ है । गवालिमाधक थे इनके द्वारा प्रणीत "भक्तामर स्तोत्र'' भारतीय यर मंडल की भाषा के मुग्व को उज्ज्वल करने वाली भक्ति माहित्य का अलंकार है । अनुभूति व्यक्त करते हुए अधिकतर रचनाएं जनों की ही देन है। अनुवाद की भाषा प्राचार्य श्री ने जैन दर्शन के भौलिक तत्वों की रक्षा की पर दृष्टि केंद्रित करने में स्पष्ट प्रतीत होता है कि कवि है । स्तुति का उच्चादर्श और गुणमूल परम्परा का निर्वाह धनराज या धनदास ने मंडलीय भाषा का प्रयोग करते करते हुए प्राचार्य श्री ने अनुपम प्रादर्श स्थापित किया ममय बहुत सावधानी से काम लिया है। इसका शब्द है। यही कारण है कि जैनधर्म के सभी संप्रदायों में चयन प्रदभन है। क्या मजाल है कि कहीं कठिन शब्द श्रा इसका प्रादर के साथ दैनिक पाठ प्राज भो होता आ रहा जाय । इसमें संदेह नहीं कि कवि को संस्कृत और तात्कालिक है-होता है। व्यापकता की दृष्टि से संभवतः कोई स्तोत्र मंडलीय भाषा पर अच्छा अधिकार था। भावों के व्यक्ति Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भधानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद करण में कहीं भी शैथिल्य नहीं आने दिया है। सीमित की भी प्रतियां मिली है । सुना है जयपुर के एक दिगम्बर ग्थान में दूसरे के भावों को रक्षा करना सरल कार्य नहीं जैन भंडार में इसकी पूरी चित्र प्रति द्यिमान है। पर है। भव्यानंद पंचाशिका के अतिम पद्य से ज्ञात होता है वह अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। जिस “भयानंदपंचाशिका'' कि कविने एक-एक पद्य का अनुवाद एक-एक दिन में किया का यहां उल्लेख किया जा रहा है उसकी पूर्ण प्रति निय है । इसमें ४८ काव्य तो मूल भक्तामर स्तोत्र के हैं और है। अतः चित्र कला के इतिहास की दृष्टि से, विशेषकर दो पचों में अपने विषय में स्वल्प संकेत है जिस से पता स्यौपुर-ग्वालियर मंडल के चित्रों की दृष्टि से, इसका लगता है कि कवि के पिता का नाम राजनंद था और वह महरव कम नहीं। शाहजहां कानिक चित्रकला का मफल ग्वालियर मंडलात म्पापुर के निवामी थे। उनका गोत्र प्रतिनिधित्व इन चित्रों द्वारा होता है । इसका चित्रण समय गोलापरब था। म्योपुर की मंभवतः प्राचीन रचनाओं में यही मं. १६६४ है और चित्रकार है मनोहरदाय कायस्थ । प्रथम जान पड़ती है। धनराज या धनदास का परिवार संस्कृत चित्रमय यह प्रति कविने स्वयं अपने लिए तैयार करवाई साहित्य में रुचि रखता था। क्यों कि खगसन-असिसन ने थी जैसा कि अन्तिम उल्लेम्व से प्रतीत होता है। प्रति के इसके परिवार का विस्तत परिचय "भक्तामर जयमाल" की सम्पूर्ण चित्रों का परिचय देना तो यहां संभव नहीं है, पर अन्न्य प्रशस्ति में दिया है। यहां स्पष्ट करना आवश्यक हो साधारणतया किचन मंकेत दिया जा रहा है। जान पडता है कि भक्तामर की जो प्रति मिली है उसके प्रति का प्राकार-प्रकार लगभग चतुर्दिग १५ इंच है। एक-एक पद्य का अनुवाद तो धनराज ने किया और उसके परे पत्र पर चित्र अंकित हैं। मध्य में जहां कहीं भी म्वरूप एक-एक पद्य पर अमिसेन-बड़गसन ने १९.१६ पद्यों की स्थान मिला वहां भक्तामर का मूल पद्य प्रति लिपित है एक-एक जपमाल संस्कृत भाषा में परिगुम्फित की, परन्तु और अधोभाग में धनराज का अनुवाद दिया है। बाद में प्रनि के जरिन हो जाने में उसका संपूर्ण पाठ नहीं मिल असिसेन-खड़गमेन कृत "भक्तामर जयमाल, अंकित है। मका है । बडगमन ने सूचन किया कि धनराज के गोशाल, कहीं चित्रों के भावों के अधिक स्पष्ट करने लिए मंकनापाहिब, हंसराज अादि पांच बंधु थे, जिन में धनराज । मक प्रतीक दिये गये हैं। एक चित्र के पूरे परिचय देने का "पा म ये कवि/र धनगजो गुणालयः" लोभ संवरण नहीं किया जा सकता। अन कव और धीर होने के साथ अनेक गुणों का पाकर प्रथम चित्र में ऊपर के भाग में श्री मान गावार्य एक या। म्वइगमन धनगज के पितृव्य श्री जिनदाय का पुत्र चौकी पर विराजमान हैं जिनके सम्मुम्ब कमगदुल अम्बिन भा. -जिनदाय मुतोऽमिसेनः । है। पृष्ठभाग में "अहं मानतुगाचार्य' शब्द अकित है। निग्र.-यहां यह कहने की कदाचित ही आवश्यकता प्राचार्य करबद्ध प्रार्थना की मुद्रा में भगवान ऋषभदेव की रह जाती है कि जनों ने भारतीय ग्रंयस्थ चित्र कला स्तुति कर रही है। सामने ही इनकी बदगामनम्ब नगन विकास में महत्वपुर्ण योग दिया है । बल्कि म्पष्ट कहा जाय प्रतिकृति अंकित है। चरणों में उभय और मुकुटधाग नो प्राचीननम एतद्विषयक जो भी प्रतीक उपलब्ध हुए है, अमर नत मस्तक है । मध्य में “ननामग्मगानमोनिमाण लगभग जनों के ही हैं। नव्य-भव्य विचारों को रूपदान देने प्रभाणां" शब्द प्राले ग्वन है। ऋषभद. ६. बा। हाय र में हमी समाज ने पहन की ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण पाम । देवताओं क मम्नक में धारित मुकूट की मणियों की न होगा। जिस प्रकार पुरातन कथायों के मार्मिक भावों को प्रभा विग्वर रही है। प्रकाश का पालम्बन गजय का है। चित्र द्वारा समझाने का प्रयत्न हुअा है उसी प्रकार अपने ऋषभदेव के चित्र के बाप भाग में चीगति का चित्रणा । प्रिय प्राराथ्यों की स्तुतिमूलक रचनाओं को भी चित्रित और ऊपर "मालंबन" म निम्न भाग में भवजन्ले करवा करवा कर जनों ने अपनी कलोपासना का भली-भांति पनितां जनानां' प्रनिलिपिन है । पत्र के नीचे के भाग में दलिन मुपरिचय दिया है। कल्याणमंदिर प्रादि स्तोत्रों की प्राचीन पापनमायिनानम लिनकर काल कग में समुद्र बनाया गया यचित्र प्रतियां मिल चुकी हैं। कतिपय भक्तामर म्नांत्र है जिम में एक मानवात तरती हुई बनाई। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ अनेकान्त इसी प्रकार प्रत्येक चित्र के भावों को बड़ी खूबी के साथ ऐसे है कि जिनका व्यवहार प्राज भी उस प्रदेश में होता है। अकित कर स्तोत्र को लोभोग्य बनाने का पूर्ण प्रयास किया नस्यत्वशास्त्र के प्रकाश में इन चित्रों का अध्ययन किया है। प्रत्येक चित्र में चौकी पर, कहीं सिंहासन पर मानतु. जाय तो स्पष्ट पता चलेगा वित्र कि कितनी वास्तविकता और गाचार्य का चित्र है। जिस चित्र का जैसा भाव है वैसी लाक्षणिकताओं से संयुक्त है कलाकार मनोहरदास ने एक ही उनकी मुम्बाकृति का पूजन किया गया है। कहीं-कहीं कमी अवश्य रख दी है कि सामान्य पुरुष और मारियों के पुस्तक रखने की ठवणो और माला भी बनाई है। फिपी चित्रों में जितना सौंदर्य बिखेरा हैं उतना ऋषभदेव और चित्र में प्राचार्य के निव-प्रतीक भी है। सभी चित्र दिगम्बर मानतुगाचार्य की प्रतिकृति में नहीं। फिर भी इनकी सशक्त महा के परिचायक हैं । इस प्रकार ४८ चित्र मूल रचना के रेखाएं इनके अलौकिक पक्तित्व की गंभीर झांकी तो करा हैं और ५६ वां भक्तामा को माम्नाय के रूप में ग्रहण ही देती हैं। क्लासिकल पार्ट की अपेक्षा इन चित्रों को करते हुए धनराज का है जो अपने गुरु से इसका पाठ सुन लोकचित्र कहना कहीं अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। रहे हैं । एक विशाल ग्यास पीठ पर किसी मुनि का चित्र इस प्रकार की रचनाएं और भी प्राचीन जैन ज्ञानागारों हैं। सामने पानों बधु जिज्ञामा की मुद्रा में करबद्ध अव. में उपलब्ध की जा सकती हैं, पर एतदर्थ अन्वेषण की स्थित है। यह चित्र स्वत रग का है। शेष चित्र रंगीन अपेक्षा है। स्यौपुर की परिधि में और भी पता लगाया जाय है, जहां जिस रंगकी प्रावश्यकता थी, ठीक उसी का सफल तो अनेक ग्वालियरी भाषा की जैन रचनाएं सहज मिल प्रयोग किया गया है। सकती हैं। क्योंकि गवालियर-मंडल के ज्ञानभंडारों का यहां इतना कहना पर्याप्त होगा कि चित्र मुगल शैली समुचित मुल्यांकन अभी नहीं हो पाया है। के हैं। और प्रदेशगत विकला की मौलिक सामग्री प्रदान भक्तामर स्तोत्र पर प्राज के अनुशीलन प्रधान युग में करते हैं। चतुर्थ चित्र और अंतिम चित्रों से मुगलकालिक पह काम होना चाहिए और उसका समीक्षात्मक संस्करण की नाव का पूरा प्रभाव परिलक्षित होता है परन्तु कलाकार ने मुगल आवश्यकता तोही जिस में समस्त टीकाएं और अनवादों प्रभाव से प्रभावित होने के बावजूद भी अपने प्रदेश के कलो पर अध्ययन प्रस्तुत हो । व्यानंद पंचाशिका का मूल इस पकरणों का पूरा ध्यान रक्या है । नारी, पुरुषों के पहनाव प्रकार है: भक्तामर स्तोत्र हिन्दी अनुवाद .............. ही पर ऐसे जिनवरजू के भक्त अमर है। जिनके मुकट समसत रतन मयकंचन जटित महा सोभित..................॥ .... 'लटक ही प्रभु के चरण पर प्राभा नपनि में व्यापी मानों दिनकर है। धनुदाम मेवइ जिन चर । ......... ......... पापु वांगमय करें और करि काहि श्रावई। सुरलोकहू के नाथ नरलोकहू के नाथ..... अवर जितने भव्य त्रिभूवन माझ वमै तिनकै हरति मनहू को भल भावई ॥ ....... "गीत के वाई सो धो पारू कैसे पावई ॥२॥ .................... को हीनौ नाथ प्रौसौ सह चाह तेरी संस्तुति कहन को। कबहू तो बुधन की मंगति करीन..... ........"लहन को। राकापति प्राभा जल माह को प्रकास दे चालक के मनु शीश हातु..........। ....... राजमें कहायै भई प्रभुकी भगति उर अंतर रहन को ॥३॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भण्यानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद ८७ ................."अनंत मन ....बंध नरकै सकति कैसे होति कायु कीये की। सुरणि को गुरु मापु संस्तुति जयषित ............. ... ... ... 'पट्ट बीये की॥ अंबुनिधि कल्पंत काल के पवन कैसे मनुष्य के भुजा बलु होइ पार ली.... . ... ... ... ... • रौ सब गुनम म्यौ ताकी को भगति मति होइ दाउ दीये की ॥ . . . . . . 'ध सठनिको राउ है अनाथ बंधु तुम्हारी भक्ति मोपै संस्तुति करावे । हौं तो निपट अथामी ताहि जा.. तुम्हारी यो प्रीति मेरी रसमै सिपाये ज॥ नाही कछु मेरे गुनु एकह प्रषिर करे तेरेउ प्रताप नाथ तूही मा....... धनुदास' ... 'हु मृग - कैमा मुहै सुन मृग हू के जीव जुरि जुछ कह प्रावै ॥२॥ अति ही प्रजि वेदनि की न जाने गति मेरी बुध मंदन ठंठ..."है। प्रापु ही स्तुति पाई उर कछु उपजावे गुन मेति ....."वायु हो करति है। जैसे कालका किलम की मानवी वसंत रितु अंकको कलिका कम्बी स्वै में .... है। पवह गुण को..........."लीन तेरे कछू प्रभुको परम प्रीत पाई मिषटति है ॥६॥ . . . . . . 'म नामु सुमिरै जु तेरी माथ ले ताके बह जनम के पातग हरत है। नरक जवैया जे....."महैया तुष दुर्गति...."उ नेरौ नाम लै भौ-सागर तिरत है। नमके समान पाइ पालाजि रहत पाप रविक समान प्रभु उदोतु करतु है। धनुदास पा सक्यौ प्रतापु ताको कही पर धन्नि बड़भागी जे जे हदे में धरत है॥७॥ त्रिभूवननाथ के साथ श्रीनाथ बंधु तुम्हारी भगनि कार्य राजै मति मोरनी। जैसे ही कुकड़ होतु चंदनु प्रा सु तसे ही प्रगट बुधि..............'नी॥ नातुरु जनम पाइ नर अवतार भाइ तथा ही गवाय गुनु..........."नी । धनुदाम"पंकज द..'थ जैसे मोभीयति जलहू की बिंदु दुति देषये मोतीयन की ॥८॥ तुम्हारी स्तुति कीय उमा.......रहौ प्रभु का नहीं पर दोष पबह हरण है। सूछिम कथा कहानी कहै ....."कदिंच लपत ..." जग ही पै....."की करणि है। जैसे हम अंस माह मरमै सरोजिनी के प्रानंद.........रि........है। तैमे...."दीरघ देव दीरघ प्रतापु नरी दीरघ गुरणि भाषी धनका वरणि है ॥६॥ तुही प्रभुतु त्रिभुवन के भूषण नाथ मापनै ममान जानु पापुनु करण की। जो तनु तुम्हारे गुन जानतु तिकै करि सो ...."तुम्हारे .... रहे परण को । और जौ सेवगु लघु-लघु वेद मुष धनुदास सेव और कौन के चरण कौ ॥१०॥ तुम्हारे बदमु देष निरषि नयन नाथ पलकसौ पलक लगाए कैसे जान है। नाहि नै त्रिपति होत रहै इक टिगुलाइ सुषको समाह वर्ष भारी लखचात है ॥ छीरोदधि पीयौ है जिहि छीर समता को मनुवा ही पयपान में पणतु है। धनुदास सोह केम इछवतु वारी जल भंमृत को छादि कौर विषफल पान है ॥ जे सान्त राग रुचि हती परिमाणु नाथ तिन को तू तिहलोक एकै निरमापीयो। उतनीय हती वे सही के किन निरचएन जितनी निकै जू.."तेरी रूप गुनु थापीयौ । और जो कनिका कहू रहै होने भवमांक तौ नौंको उ हो तो और पु · पुण्यको प्रतापीयौ । धनुदाम प्रभु तरी मुरति की समता को देषतु न काह पवु जगनु पपापीयौ ॥१२॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अनेकान्त नुहार बदन दुति अनि ही उदिन अत मुर नर उम्ग के लोचन हरनि है। जाकी एक संष कली त्रिभुवन जाति जीन रजनी वापर सदा उदकी करनी है । कोउ कह चंदनी को कलंक मलीन फीकी सूर के मदन सेतु तु सो डरनि है। धनुदाम कहा प्रभु सब के अंमृत श्राची कहा वह बिलंगिनी करता जरनि है ॥१३॥ मंपूरण मंडल शशिकं सब स्वामी तुम कलाक समूह त्रिजगत यह जानीयौ । तुम्हारे अनत गुन जहा नहा न्यापि रहे परम पवित्र ने पुराणणि वषाणियो । नह गुन सुमिरि-सुमरि साधु पार भये जौ तौ उनि मन वच हु के उर पानीयौ। धनुदाम वेह गुन क्यों न श्रापु हृद धरौ भटक्यौ ही नौलौ बौलौ ररण प्रमानीयौ ॥१४॥ नाही अचरजू अनि तुम्हारे मन की गति चली न विकार मारग को प्रभु प्यारेज। निदश की अंगना अनेक सोभाश्र पुर्क के नटी प्रागयो भाई विद्या ठटिक पषारे ज॥ नाहि देष छिनु मनु हल्यौ न हरप नेज नीयतह पाहि यह गुननि तुम्हारे ज । धनुदाम कामरूप वनु प्रल को प्रभु मंदारचल की शिषाह दहै विचार जू ॥१२॥ परम जोतीश्वर रूप जान त्रिजगत भूपति ह लोक दीपक दिपन त्रिभुवन में। यंगुन कलिमा धूम नाहिन मदन तेरे वाइ रूपी क्रम सने न द्रवन मै॥ यह नौ दीपक एक खाम्मा ही बुझाइ जाइ किनेकु प्रतापु या बहनि के सूचन में। धनुदास प्रभु तुम महा हौ प्रनापु पुज पनि चित्र करौ छिनक वन में ॥६॥ रवि नौ दिन ही पति तुम तिहूलोकपनि ताकी उपमा क्यों नाथ तुम क्या बताइयो । वाको रिपु गहु तुम रिपुर्न नाप करि उद्योन अनादि वह अंभोधर छाइयो । वह तो विनाशी निशि तुम अविनाशी प्रभु वह तो मित कला तुम मुपदाइयो । धनुदास · विट्टकी क्यो ने देब छवि नी सं रवि काज्यौ क्यों न कमलु कहाइयो ॥७॥ जमी तुव मुष जाति अनंत कलानि हो नसी माना तरी नाथ तो ही कह मोहीय । नियसय उर्दकारी मोह महातमहाग राह की न गम्य नाके वारिदल द्रोहीय ॥ पूरण शशिकौ बिंबु तुव बदनार बिंदु विदिन अपूरनु सु दे मनु मोहीयो। धनुदाम से राकापति सौ तू · करि नर पद कहा है चकोर क्यो न हो हीयो ॥ ॥८॥ तुम्हार वदन रूपा शशिक्यौ चाहिज उर्द या ममि मूरको उदीत भयो के मून भयो। से रवि नेज प्रागै दीपकु वारी न वा अं यारो हुनी ज़ भारी वाही रविथ गयो । आदि अन अवै तिहाकाल तुव भाल प्रभा जगमग जाति सुतौ ही हु जगमै जयौ। धनुदाय भई परपक्च जब वन सालि मेघन वगणे न बग्घे तौका अभेदयौ ॥१६॥ जस तेरी जान है कृतावकामी प्यारे प्रभु श्रीपी काहु और माझ निम न दवाये। नब मान माझ नानौलोकसं अनेक लोक नाकी तुही जाने व ती ते ही अवरषायो । हरि ब्रह्मादि पुलंदर कहावं देव नेउ नौ मकल म्वामी ने ही लिपि लेवीयौ। धनुदाय कहा महामान को प्रतापु मभुइ काकी मिरि नाहि कैस हिन पेषीयौ ॥२०॥ मापने मन वर देष में सकल देव हरिहरब्रह्मादि पुलंदर समान के। जमा कर मरो मन मानों तुम चरण मी मी मनु मान नहीं दर्ष मुप ांन के । मुष अग्र भाया पायी कह पीर कह नीर तं नीरसु पीर प्राण भए प्राण के । धनुदाम नाह। काउ मनको हरणहार नम हा है प्रभु मर वगना जिहांन के ॥२॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्यानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद धन्नि वह धरि जिहि तरी अवतार भयौ नग माता जिहि तौमौ सुन जाइयो । ब्रायन के शतशत एत्र जनै हु। तब नरे नौ समान कौ का रूपगुन पाइयो । कलंक सहित और रहित कलंक तुही ज्ञान नरे नगरे भाव तार पाइयो । धनुदाम दिसा नछिन जननहारि प्राचीव दिशा को समझाए रचि राइयो ॥२२॥ तुम को मानन मुनि परम पवित्र व श्रादिग्य वरण जैसी निर्मलु इलक मैं । तुम्हारे अनंत गुन विचार विचारि उर नननण मन्यु ने जीनत पत्नक में । मिथया नमकै हो तुम महाइ हरण हार नार्थ साधु से तम्है पदा ललक में। अनुदाय नाही कोउ मिउ और पंधु दयम् मन क नाथ नेरा ये बलक में ।। छउ मत पुराण करांण वेद वेदिका में पत र महन तो पौ इ। को कहन है। नुम अभिनाशी विभु अनित असंपि नाथ अनादि अगोचर यगोचर रहन है ।। ब्रह्म र ईश्वर ही मनंग केन जोगीश्वर विदित तुम्हारे मर जोग निहवन है। धनुदाम हु के प्रभु एक र अनेक हौ जू जान प विमान विवक को गहन है ॥२४॥ तुम ही हो बुन्द्र देव विबुधनि पृजनीक तुम ही हो सकर नियंक के करण जू। तुम ही विधाता विधि विधान जाननहार तम भगवान पुरुषोतम वरण ज ।। यकल देव मधि देवत्न गनु हो नेरी नागगण मृर शशि तरी प्राभा नमन । धनुदाम एक तू त्रिलोक योभा मामीयन नीनों लोकरी मामा वरण-वरण जु ।।२।। नम को नमामि त्रिभूवन की प्रारति हर तमको नगामि त्रिभूवन के भूषण न । नुमको नमामि त्रिजगत के परम ईस तुमको नमामि त्रिजगन नम शोषण » ।। नुमको नमामि जन्मा मरण हरण व्याधि नुमको नमामि त्रिजगत के पोषण न । धनदास जन्म-जन्म न वै वार-चार महा मटनहार यकल दापण ज ॥२६॥ यह में सुनी हो नाथ अापने वाना तुम से गया धुमि संदेह पार पाइयो। ज जन तुम्हारे गुन जानत है नीक कर नलिन दोष निन नाक के गवइयो ।। नइ दोष विहरि विरि प्राणी प्रथाकै निनह मग दोटि उनिह के सग धागज । धन्दाम हुसे अपराधानिमा रहै नागि नुम प्रानि यावानि के सुपने न पाइयो ।।२।। नो ममोसरण मधे माभीय अशोक वृट नातारी मराजत हो तीनो लोक निज़ । कचन बग्गा सापा चितामणि फल नाके पनि की दुनि यि हू थे अनि गनि ज ।। सीतल मद मुगंध विविधि वहति वाद सुपढाई यग्य पयवहा को प्रति । धनुदास यह मवु प्रभु को पुन्य प्रताप कहयौ म परत सीमानय की मनि ज़ ।।८।। तुम नापै मोहीयन मोहिवे लाइक प्रभु तुम्हार वयटै नाथ मिनायन गर्ने त । कचन की जोति पचै मनि को उद्यान ताप तुम्हार तन की प्राभा अधिक विराजे ज ।। उदयाचल के मीय परमानौ सुप्रभान रविको उदय मी जगत में प्राज ज । धनुदाय यह मत् प्रभुको पुन्य प्रताप देपन ही बने मु नौ कहन न छान ज ॥२॥ कुन्द दुनि उज्जल पीस पंचवठि चौर ढारत भावक इन्मादिक देव ग्राइक । कंचन दीप्ति देह तापर विराजे प्रति शशिकी किरणि मानी नागी रवि जाटके ।। कनक मुमेर य चौह को प्रामुपामु छोरोदधि नीम मानो-स्तु सभाइकै । नुधदास यह पथ प्रभुको पुन्य प्रतापु कहयो सुपरनु कम कटु गन पार के ।। ३ ।। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त छत्र तीनों राजित जिनेश तर पीस पर मुरनर नागेंद्र जु भाइकै चढाइयो । प्रापन लोक की महिमामयि फुनिंद-मर चौह चक जाति की गढाइयो । मुर पुर हु की शोभा सुर निमलि रची देवतानि नोनी लगड़-यो। धनुदाम मनौ शशि सूरकी मंडलु दिगननि समीप मोती पंकनि पढाइयौ ॥३॥ गंभीर गहरी धुनि बाजत निशान तेरै ताकी मुझ तीनो लोक दमौ दिशि पूगे है। जैम नी बादल गाजि कहै महा मेघु आयो तैमै यो कहन त्रिभूवनपति झरी है । मा धर्मराज के गुन घोपत मानी कधी जगत में जाकी जसु सब ही थेमू है। धनुदाम प्रभु के जयतबादी जोधा कुवादी मरण मानु महा चक सूरी है ॥३॥ म.........'पारिजात श्रादि पुष्य जन सुगन्ध दल पुनीन प्राकास थे परौ । ववता सकल आई महा प्रीति लाई..... सह दंप शोभा नननि के परपै ॥ गधोदिक विष्टि कर जनमु सफलु धरै प्रापन श्रा........"हर। कह धनराज वैठि बैटिक विवान मुर महज मुभाइ मैं परम प्रीति पर ॥३३॥ .........नि शोभा भामंडल नर नाथ कोटि व मानी एक ठौर की है। काच मनि श्रादि दै पदारथ......निनका मकल मोभा करी जिहि होनी है ॥ तुम्हारी यो शोभा मानी दपीय द्रपन माह प्रा......नाथ तो उपमा दीनी है। धनदाम नाही कछु तप तन्य गुनु तामै शशि कमी मीतलता नवल है ॥३४॥ तुम्हारी की य महिमा महा हो नाथ म्बर्ग को मागुरू मार्ग मुकति है। जितने कितन जीव जैमी ज..... . . नमी नाकी परिनबंति उति है। नाव वांनी उछलनी जीव क्रम भिन्न भाउ यह पुन्य पाप"....'मुगति है। धनदाम प्रभु चतुरानन जु चारी मुप बंद चर्व नाम सबह उकनि है ॥३॥ ......"पक....."चरणा हम अष्टोत्तम मांडने मनोहर में प्राई के पचित है। जहा जहा पद धरै तहा गा...."नए की मयूपा में सति है ।। समवसरण में थे बिहार मर्म के वि विविध वियुध प्रेम....."है। कहे धनुदाम राजु मुरराज कर पद एजनारिरीन के वृन्द नाना अपने नचन है ॥३६॥ ..........ई तहा जिनराज रे........ लब्धिमई कंवल ज्ञान के........। क्वल ज्ञान नहीं और के विश....कर विभृनि होह ममाम के प्रान की । अनन्त दरिस ज्ञान पउपबल बल अनन्त अनन्त चतुष्टय..... जानकी । धनुदास जहा विभाकर जोति जगमग गननि मयूषा केस कहीय प्रमान की ॥३७॥ .....'होइ पागु है श्रावन प्रभु नगै नाम लीग हु चलि मकै मुन ठौर थे। मद के....."गलितु दुनीद....."घात की काया मानौ बायो...."काल दौर थे। चवन कपोल पटें गुंजनु गरूर ठट क्रोध कियौ सुर भौर थे। कहै धनुदाप जाकै तुम्हारे नांव को अर तुमको सम्हारि मौयौ हरे ॥३८॥ ...."मीम भू जार भूपीयत श्रोन सौ मनित मोती भुज मम जानीयौ। जाक वधाटाटो नर....'फर जाकौ देह द मुप पावै नहीं बानीयौ ।। जाकै डर पर गैरि जहा समुदाई दौरी जार्क केवल ये....."न प्रमानीयौ। धनुदाम म मृगराजु रूप नाम मंत्र मृग के समान क्यो न कानु गहिमा......३६॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव्यानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद .... 'गर्वात प्रावति होइ तरी नामु लोय नाथ मातल होइ जाई । प्रले के मर्म की ज्वाला अ........ को उनपान दे दी कराई ज ॥ यह नी प्रगट प्राहि जान मनु जगु नहि दि..."मैं मार्च....."हाईज । धनुदाम प्रभु तर मीनल गन अपार जाल मिगई क्यों न निनथे मगई ज ॥१०॥ ..... ...'ग दवनि है जाकै उर मौइ क्यो न मी अहि डार भौदि पाइक । लोहिन नन नीलकंट....."सब अंग हालाहलु रहयो हो छाइकै ॥ कोपिर्क इमो नी मु पहार हु को छार केस से - वि. समाइक।। धनुदाम मनि मंत्र प्रापधु तुम्हारी नामु नाहि जौ सम्हार चित्र कसो होइ॥४॥ .....के एक जिनगज नुव नामबा नाहि मी नृषु जानि मकै नही करु के । जार्क दल बादल के उन...."जग जवा जनि के भुन्द गर्ने हो पर है। जाके दल कोटि भट लडित जोधा जुहि प्ररि मु....."बीर ज़ पहार के। धनुदाम एम नृपु पर नार्क पाइ आनि मछर मबाई......... ....२॥ तुम्हारे धीरज मी धर उर ताकी जय महा से जुद्ध नि में जानायो । जान विक....."उट एक हायह'.....विनु बल लाइ करि मागे मुप पानांगौ ।। श्रेनि की मलिरिता नाम बृट एक उद्धरत एकनि की द...."नि कह न कह डरानीयो । घनदास प्रभु नेरे नाम मोहे जाकी मति नाकी मति...."नि कह ने......॥४३॥ ....... विविधि प्रकार के नौ नेरी नामु नाश एमी जल में निवार जू । ......... मैं जहां महा......नके का जो जीवनिको मुटु फार ॥ नामै वडवानल वि..... सब ही क न क्न...'तुम्हारे ज : बगदाम प्रभु ज़ अपार के नारक नम भासागर के जल मागर न नारी ज ॥४४॥ ..."पाई अंग अनग के अगक समान ननु दबायो । गमी होई प्या........"सिनई ........ नयी ननन के पियो ।। त्रिभुवन'.... थाकी पूर्ग मंग्या सब गई द ग मी यदि मा....."यो । नुम नी जू जन्मा मरण"... पाधि धनुदाय यह नग्नृन्न हो ग ... ।' ४५।। ........"रह अांद्र म गया गेलि गर्न हाय पाई रापीटा । कोठामाझ कोटरी के भाकमा.... करिया हा गाग ........"नाह की अावागमु पनि श्राव जान उपर छि............। अनुदाय प्रभुम नाइ......."हम वामि यह बान की क्या न करीनाथ काटी के ।।४।। ......"प्रभु मर....."मकल..... हरि की नुम जिनगा गज भय शोक भय नग वि.........."हात ज ॥ गंग भय मौक भय सिंघ भय राज भय जुनिको भय........ जानरान...... जैसे तुम पर दवन की सफन लभै हर्ग श्रम मना न का। ज़ ॥४॥ तुम्हारी मंग्तुनि इ इपिनी मान्ना जिणांद परिंग कंठ माँ..... पवित्र न. नगमे । मुमन विविधि जार्क अपि....."ना जाम पनि परिवडी डि डोग गन्धा करम ॥ अनि मै सुवासु मब जगत में बिम्नग्नि मुक्ति मोहिनी धरी......यान धरमं । कह धनुगज यह संम्नुनि सम्हारी मा विना श्रम संपदा मकान प्राव धरमे ॥५॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त अन्तिम प्रशस्ति :......गज का...."नीको भ्र प्रगासु जाम भगतामर स्तवनु सुष हू कौ धाम है। ताको उदाहरण....."जिनदास संव पदहु ना..'धन धर्म ग्रह काम है। पढायो पढाइयो सुनाइयो जु माधु....."धम्नि वहै....."धरि पल्लु धन्नि वहै । धनुदास हमी देव भी निरु उजारं कह। भव्यानन्द स्तुति पंचाशिका या नाम है ॥४६॥ संवत नवसै मात सात पर मुनु धीर पउप पिता तू गुरती.....'कीयो क्रत की। स्यौपुर थानक विराज राजनन्द धनुदास ताकी मनु भयो भवि पिक्षांमृन्त कौ।। एक - एक काव्य की यया एकु. एक के कै एक एक बासर में एक-एक नित कौ। विय कर जारि धनगज कहै माधुनि सौ असाधु संसुद्ध काजी जानि मन हित सौ ॥१०॥ इत श्री भन्यानन्द पंचासिका समाप्ता मंवत १६१४ वर्षे वैमाव सुदी ७ को मनोहरदास का (या) स्थ चित्रामु कीनी । संवत १६६५ वर्षे चंद्र मुदी । भौमवासरे लीपनं पं० सिरोमनि भक्तामर स्तवन भावार्थ काव्य पंचामिका ।। मुभं भवतु ।। पोथी लिपाइ माहु धनराज गोलापूरब कर्म काय निमिते । प्रति परिचय : इस पंचाशिका की प्रति बहुत ही जीर्ण और जर्जस्ति हो चुकी है। ऐसा लगता है कि जहां कहीं यह रही है, उस पर लगातार पानी पडता ही रहा है। तभी तो वह इतनी गल गई कि हाथ लगाने ही पत्र फटने लगते हैं। कहीं-कहीं ना पाठ भंग लुप्त हो गया है। चित्र भी भ्रष्ट हो गये हैं। अनुसंधान में रुचि गम्बने वाले मजनों से निवेदन है कि यदि इस भव्यानंदपंचाशिका की प्रति अन्यत्र कहीं प्राप्त हो तो सूचित करने का कष्ट करें ताकि एक अज्ञान रचना पूर्णत्व प्राप्त कर सके । ★★★ कलकत्ता में महावीर जयंती -रानी दुधीरिया : कुमार चन्द्रसिंह दुधीरिया कलकत्ता महानगरी में महावीर जयंती पर इस बार नय देना प्रारंभ किया।। वाताबरण की सृष्टि हुई। तीर्थकर भगवान की जयंती उन जयन्ती के दिन स्वेच्छा से काम काज बन्द रखने की के धार्मिक अनुयायियों तक ही सीमित न रहकर व्यापक मुर्शिदाबाद मंघ की अपील पर शेयर बाजार, ईस्ट इण्डिया रूप में मनायी गयी । अन्य समाजों के व्यक्रियो ने भी जूट तथा हेसियन एक्सचेंज, बंगाल जूट ढीलम एमोसियेशन, समान रूचि एवं उत्साह के साथ मनाह व्यापी जयंती कार्य काशीपुर जूट ब्रोकर्स एसोसियेशन, भारत जूट चेलम एमीक्रमों में भाग लिया। पियेशन, छाता पट्टी, पगैयापट्टी, केशोराम कटरा, सूता पट्टी, जयन्ती समारोह के लिए वस्तुतः पहले से ही पृष्ठभूमि पांचागली, खत्री कटरा, विलासराय कटरा, पंजाबी कटरा, नयार हद थी। मुर्शिदाबाद संघ ने महावीर जयन्ती को मगा पट्टी, मनोहरदास कटरा, महाबोर कटरा आदि अहिमा दिवस के रूप में मनाने के लिए जयन्ती के पूर्व जो भगवान महावीर की जन्म तिथि २४ अप्रैल पर पूर्ण नया प्रचार किया. उसका व्यापक असर हुआ। बंद रहे। संघ सभापति श्री कमलसिंह दुधोरिया की अपील जैन कला प्रदर्शनी का ही यह परिणाम था कि विग्यान उगोगपति श्री मोहन जयन्ती के सप्ताह व्यापी कार्यक्रम का प्रारंभ जैन लाल लतानुभाई शाह की की अध्यक्षता में महावीर जयन्ती कला प्रदर्शनी के उद्घाटन से हुआ।। भारत जैन महासमारोह समिति का गठन हुश्रा और नगर के विभिन्न वर्गों मण्डल के तत्वावधान में आयोजित इस कला प्रदर्शनी का के विचार शील व्यक्ति जयन्ती के उज्य के प्रति आकृष्ट १६ अप्रैल को स्थानीय एकेडेमी आफ फाईन आर्टम में हुए और उन्होंने जयन्ती के विभिन्न कार्यक्रमों में सहयोग उदघाटन करते हुए केन्द्रीय विधि एवं डाक-तार मंत्री श्री Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकना में महावीर जयन्ती अशोकन ने महावीर जयन्ती के अवसर पर जैन-फला प्रदर्शनी के आयोजन के लिए भारत जैन महामडल कार्य तयों को बधाई देते हुए अपने भाषण में भगवान महावीर की जैनधर्म का ही नहीं, अपितु समम्न मानपा और अखिल विश्व का महान नेता बताया । माननीय श्रीमन ने अपने मर्मस्पर्शी भाषण के धन्न गंत कहा जैनधर्म के आदर्श मारे देश में पनवे के लिए ही नहीं किन्तु मारे जगत के कला, सभ्यता और संस्कृति की बहु गये । लिए धर्म, दर्शन. मूल्य विरासत उन्होंने कहा भारत का कोई भाग जैनधर्म की विगमन मे अकृता नहीं है। जहां भी हम जाते हैं, हमें सुन्दर जैन मन्दिरों, गुफाओं और कलाकृतियों के दर्शन होते है । पारा मन्दिर और एलोरा की गुफाएं आदि ऐसे अवरोप हैं, जो सदैव अमर है । इस सजीव समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे माननीय श्री के बनु नगरप विधान सभा के वर्तमान अध्यक्ष । श्री चम् महोदय ने कहा, युगों से धर्म के इर्द-गिर्द जिस कला का विकास हुआ है, उसमें हमें विभिन्न कालों क समाज का प्रतिबिंब मिलता है I बारे में अपने हृदय भव्य उदगार व्वत्र करते हुए उन्होंने कहा भारतीय संस्कृति और fernet के निर्माण में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। भारत जन मण्डल की ओर से पू शाखा के अध्यक्ष रचितसेही श्री रतन नाल रा. रिया ने नागत भाषण में महावार जयन्ती सप्ताह कम पर प्रकाश डालते हुए कहा. महावीर का हिया और अपरिग्रह का महत्व प्रात के अणु-परमाणु युग में अत्यधिक बढ गया है." श्री रामपुरिया ने कहा, अणु परमाणु अस्त्र-शस्त्रों ने मानव जाति के भविष्य को भयातुर बना दिया है और इस संदर्भ में हम स्वर्गीय राष्ट्रपति कैनेडी का इस चेतावनी को भुला नहीं सकते कि हमारी मंनाने केवल गणित के प्रश्न नहीं है, जिनके भविष्य के प्रति उदासीन रहे । कला के बारे में उन्होंने कहा कि कभी कभी यह कहा जाता है कि आत्म-शुद्धि एवं सामारिक वस्तुओं के त्याग को महत्व देने के कारण जैनधर्म कला को माहित नहीं करत| | लेकिन यह बात सच नहीं है । भारत जैन महामण्डल को पूर्वाचल शाम के मं मंत्री कुमार चन्द्र धोरिया ने अपने भाषण कहा कि हम महावीर भस्मरण, उनकी पूजा आराधना इसलिए करते है कि उन्होंन श्राचरण द्वारा हमें आत्म का मार्ग बतलाया है। उन्हें जिन तथा श्रामा का विजेता कहा गया है, उन्हें अरिहन्त कहा गया है और महावीर के नाम से भी पुकारा गया है। महावीर से दूसरी चीज जो हम ग्रहण करने हैं यह है समभाव अर्थात दमक प्रति रागद्वेप रहिन व्यवहार । कुमार दुधोरिया ने कहा महावीर के समकालीन युग का प्रत्ययन करने पर यह बात सामने आती है कि उस समय समाज में भारी विक्षोभ व्याप्त था। महावीर स्वामी ने अपनी साधना, तपस्या और ग्राचररण द्वारा हिसक कान्ति की मनावनाओं से परिजन को दिया और अपरिग्रह की युग प्रवर्तक क्रान्ति में बदल गया ।" मारिया ने कहा, विश्व पुनः कब है। धन सम्पत्ति और सत्ता की चाह भयानक रूप बट गया है। हम यह विश्वास करने लगे है कि आर्थिक कल्याण जी जीवन का परम लक्ष्य है। भौतिक सुखसमृद्धि पाये हम इतने जिग्न हो गये है कि जीवन के यस प्रश्न गोण हो गये है नैतिक जीवन का जड़े ही हिट हैप्राधुनिक भौतिक सम्पदा में मानवीय मूल्यों का महत्व बस हो गया है। परमाणु परीक्षण संधियों के कारी अस्त्र-शस्त्रों के साथ परमाणु मोकामा जति लिए मार्ग सकट का कारणा गया है। आज संसार से समत प्रश्न यह है कि क्या को करें अथवा अपना ही विनाश हम करे । ६३ T जी को अस्त्र-शस्त्रों की लेकिन याने नष्ट करना ही नहीं है। हमें जरूरत को ही समाप्त कर देना चाहिए। जाति को एक नया वातावरण तैयार करना होगा और इसके लिए मानव Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त अथार्थवादी समाज का निर्माण करना होगा। ऐसा समाज प. बंगाल के श्रम एवं सूचना मंत्री श्री विजयसिंह जिसमें उसजना एवं संघर्ष के प्रमुख कारण शोषण, हिंसा नाहर ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए जन कला एवं संस्कृति और कटुता का उच्छेद हो। इसके लिए हमें अहिंग्या और की उत्कृष्टता का विवेचन किया और प्राशा प्रकट की कि अपरिग्रह के सिद्धान्तों पर आधारित नयी सामाजिक भारतीय संस्कृति के इस महत्वपूर्ण अंग पर इस प्रदर्शनी से खला का निर्माण करना होगा । हमें विचार करना है कि समुचित प्रकाश पड़ेगा। भगवान महावीर के उपदेश इसमें किस प्रकार सहायक हो महिलायों की सभा सकते हैं। भगवान महावीर के जन्म दिवस के एक दिन पूर्व २३ । मानधोरिया ने कहा, महावीर के उपदेशों के नीन अग्रल को नगर की महिलामो नेताका भान रस्न सम्पक-दर्शन सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र में हार्दिक श्रदांजलि अर्पित की । अहिमा प्रचार सामान हाल महावतों का समावश हैः प्राहमा, सत्य, अाम्नय, ब्रह्मचय में श्रीमती सुभद्रा हम्कर की अयनना में प्रायोजित पौरपरि अर्थात संग्रह और लोभ से निलिप्त । धर्म का महिलाओं की विराट सभा में श्रीमता वाणा राय, श्रीमती सार चरित्र अथवा सदाचरण है । महावार के जाबन ग्रार कुन्था जैन, माध्वी श्री चन्द्र श्री जी ने भगवान महावीर के उनके उपदेशों के अनुशीलन का यही निष्कर्ष है कि व्यकि जीवन दर्शन की विशद चर्चा की। जैन महिला समिति का सुधार होने पर ही कोई समाज उन्नत बन सकता है, की अध्यक्षा श्रीमती उदयकुमारी दुधोरिया के श्राव्हान पर उन्होंने कहा कि अहिंसा और अपरिग्रह श्राज किसी सम्प्रदाय यह सभा बुलाई गई थी। विशेष के धार्मिक विश्वासों तक ही सीमित नहीं रह गये रोगियों में फल मिष्ठान वितरण हैं। मानव जाति शनैः शनः इस बात को 'अनुभव करने २४ अप्रैल को भगवान महावीर की पावन जन्म-निथि बगी है कि अणु-परमाणु के सहार का खतरा इन्हों महान पर अदभुत उन्माह परिलक्षित हुअा। मानवता के महान भादर्शो को ग्रहण कर हट सकता है। संरत्नक की जन्मतिथि के उपलक्ष में जैन सेवा संघ की अहिंसा और अपरिग्रह को मानवीय सभ्यता एवं और प. बंगाल । श्रम एवं सूचना मंत्री श्री विजयसिंह मंस्कृति की श्रेष्ठतम् अभिव्यक्रि बतलाते हुए कुमार नाहर की वृद्धा मातुश्रा यानी इन्द्राकुमारी नाहर के नेतृत्व दुधोरिया ने यह कामना की कि यह अभिव्यक्ति विश्व शांति में महिला स्वयं सेविकानी ने स्थानीय अम्पतालों में जाकर एवं मंत्री का वरदायिनी बने । रोगियों में फल और मिष्ठान का वितरण किया। एवं इस अवसर पर भारत जन महामण्डल की ओर से मुर्शिदाबाद संघ द्वारा अजिम गंज, जियागंज, लाल वाग के विष्यात चित्रकार श्री इन्द्र दूगढ़ का अभिनन्दन भी श्रम्पतालों में रोगियों को मिष्ठान फल का वितरण किया किया गया। गया, मि गंज में ३-४ हजार गराबों को चावल बाटा श्री इन्द्र गढ अन्तराष्ट्रीय व्याति के चित्रकार हैं जिन्हें चित्रकला अपने पिता स्व. दीगन्दी में विगत सामूहिक भोज में मिली है। प्रातःकाल बड़ा बाजार क्षेत्र में एक विराट जुलूस ने श्री इन्द्र की चित्रकला काप्रेम अविधेशनों पर डालों परिक्रमा की। मन्दिरों में धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न हुए को कई बार सुशोभित कर चुकी है। प्राप उन पित्रकारों बद्रीनाय टेम्पुल-स्थित महावीर स्वामी के मंदिर में सामूहिक में हैं, जिन्होंने राजपूत पति और अजन्ना पद्धति का पूजा-पागधना का व्यापक कार्यक्रम प्रायोजित हुना। सम्मिधया कर एक नवीन पद्धति का विकास किया है। हम मुर्शिदाबाद संघ के प्राध्याम्म-निष्ठ उप-सभापनि श्री परिलेकिन उन्होंने प्राचीन शली को जीवित रखा है। चन्द बोथरा ने पूजा आराधना का प्रबंध करने के अतिरिक्त महामण्डल के सभापति श्री सोहनलाल दूगड़ ने उन्हें मंध्या ममय मामूहिक भोज का भी मम्य प्रायोजन भाशीर्षवचन के साथ अभिनन्दन पत्र भेंट किया। किया। गया। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता में महावीर जयन्ती ३५ जैन सूचना केन्द्र दतवाय अधिकारी डा. समन इस अवसर पर प्रधान सांयकाल पदीदास टेम्पुल स्ट्रीट स्थित श्री शीतल नाथ अतिथि थे। स्वामी के मन्दिर के अहाते में प. बंगाल विधान परिषद् सार्वजनिक सभा के अध्यन डा. सुनीतिकुमार चाटुा द्वारा जैन सूचना रात्रि में श्री जैन सभा के तत्वावधान में अहिंसा केन्द्र का उद्घाटन हुअा।। प्रचार समिति हाल में, श्री रामचन्द्र सिंघा जे. पी. की अध्यक्षता में सार्वजनिक सभा हुई । सर्वोदय नेता श्री सिद्ध ___ डा. चाटुा ने अपने विद्वत्तापूर्ण भाषण में जैन धर्म गज ढका ने प्रधान वक्रा के रूप में भगवान् महावार के और यकृत की महत्ता प्रतिपादित करत हए कहा कि जीवन दर्शन का विश्लेषण किया। पं. गौरीनाथ शास्त्री भारतीय दार्शनिक चिन्तन एवं विचारधारा में जैन धर्म का ने कहा कि भारत में जब जब धर्म की रजा न हुई और महन्नपूर्ण योगदान रहा है । जैनधर्म ने अहिंसा के । सिद्धांतों को पूर्ण रूप दिया है। दुम्ब दारिद्य प्राया, इस भूमि पर एक न एक अवतारी पुरुष अवतरित हुना। भगवान महावीर की गणना भी विक्टोरिया मेमोरियल के प्रबन्धक हा. सरस्वती ने ऐसे ही अवतारी पुरुषों में है। साह शान्ति प्रसाद जैन ने इस अवसर पर भाषण करते हुए कहा कि वर्तमान काल कहा कि भारत में ज्ञान की जो सत्त धारा बहती जा रही में ही नहीं, महावीर क काल में भी बंगभूमि के साथ था. उसम महावीर ने अपने व्यक्तित्व के माध्यम से एक जैनधर्म का निकटतम सम्पर्क रहा। नयी धारा बहायी । श्री मोहनलाल दुगढ़ ने भावपूर्ण शब्दों जर्मन संघाय प्रजातंत्र के कलकत्ता स्थित वाणिज्य- में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। ★★★ शोक-सभा प्रस्ताव वीर संवामंदिर २१ दरीयागंज में • जून को ७ से। वीर सेवामंदिर की यह ग्राम सभा भारत के महान् बजे सायंकाल एक ग्राम सभा जवाहर लाल नेहरू के प्राकम्मिक निधन पर श्रन्जलि अर्पित करने के लिय राय नेता पं. जवाहर लाल नेहरू के प्राकस्मिक निधन पर गहरी मा० ला• उल्फतराय को अध्यक्षता में हुई। वेदना अनुभव करती है। नेहरू जी का जीवन त्याग, वक्ताओं में प्रमुग्ब श्रा यशपाल जी जैन ने पं० जबाहर बलिदान और सेवा से ओत-प्रोत था, उन्होंने देश को ऊपर लाल नेहरू के रक्तिम्ब का परिचय कराते हुए उनके जीनान उठाया और विश्व को शान्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा की कुछ मौलिक घटाए बतलाई। और कहा कि नेहरू जैसा लोक प्रिय नेता अब विश्व में नजर नहीं पाता, नेहरू जी दी। गाय अहिंसा आदि के लिये जो वातावरण उन्होंने जहां नीति माहित्य और इतिहास के विद्वान धे, वहां वे उत्पन्न किया, वह उनकी चिरम्मरणीय दन है। धारमचल के धनी थे । वे जो कहते थे आत्मविश्वास के साथ ऐसे युग-पुरुष को खाकर हम सब की जो क्षति हुई करते थे। उनकी हरता, कर्तव्य परायणता, उदारता और है, उसकी पूर्ति कदापि नहीं हो सकती। लोक सेवा की माना उन्हें दुनिया में शांति कार्य करने के लिये प्रारत करता था। पंचशील और सह अग्निव यह सभा नेहरू जी के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि उनके जीवन सहचर थे.थे लोक में उनका प्रचार करने में वित करती है कि उनके जीवन के प्रादर्श पीर प्रेरणाए समर्थ हो मक। वर्तमान भारत की प्रगति उन्हीं की देन है। हमारा मदा मार्ग-दर्शन करती रहें। उनके दिवंगत हो जाने से भारत की ही नहीं, विश्व की महान क्षति हुई है, जिसकी पूर्ति होना असंभव है। यह सभा उनके परिजनों, विशेषकर श्रीमती इंदिराप्रेमचन्द्र जैन गांधी के प्रति अपनी समवेदना प्रकट करती है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा स्य द्वाद-पत्रिका जैनिज्म इन राजस्थान (राजस्थान में जैनधर्म) डा. मुदर्शनलाल जैन एम. ए. (फाइनल), कैलाशचन्द जैन एम. ए. डी. लिट. राजऋषी कालिज प्रकाशिकाः स्यावाद-प्रचारिणी सभा, श्री म्याद्वाद महाविद्या- अलवर, प्रकाशक गुलाबचन्द हीराचन्द दोशी, जीवराजग्रंथलय, भटनी, वाराणसी, सन १६६३ ई०, पृ. ११२ । माला, शोलापुर । पृष्ट सं. ३०४ मूल्य मजिल्द प्रतिका यह पत्रिका म्यादाद महाविद्यालय, वाराणसी के विद्या- ११) रुपया। थियों का प्रयास है। उन्होंने स्वयं सामग्री संकलित की है. प्रस्तुत पुस्तक का विषय उसके नाम से स्पष्ट है, इस और स्वयं सम्पादन किया है । इसमें संस्कृत और हिन्दी पुस्तक में राजस्थान में जैनधर्म का परिचय कराया गया है। के साथ अंग्रेजा, बंगला, मगठी, कन्नड़ और पालिभाषा और वहां स्थित जैन सांस्कृतिक स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रक भी लेम्ब निबद्ध हैं. यह एक अच्छी दृष्टि है। और कला, आदि पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। साथ ही भी भरला होता यदि उनका अनुगद हिन्दी में दे दिया। राजस्थान के स्थानों का ऐतिहासिक परिचय देते हुए विभिन्न जाना । हिन्दी संस्कृत पत्रिकामों में भारतीय भाषानों की राज्यों के राजात्रों का निर्देश भी किया है। डा. साहब ने पनियो का परिचय कराना भर पर्याप्त होता है। भारतीय इसके संकलन करने में अच्छा परिश्रम किया है जिससे जान पीठ पत्रिका ने इस दिशा में कदम बढ़ाये हैं। पुस्तक उपदेय बन गई है। यद्यपि राजस्थान में जनशिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले 'कानेज-मैगजीन्म में संस्कृति कसे अनेक प्राधार मौजूद हैं जो पूर्णतः प्रकाश पचित होंगे। यह पत्रिका भी नदनुरूप ही है । यदि इसमें में नहीं थ्रा पाये हैं। अनेक शास्त्र भडार से है। जिनका केवल म्यानाद विद्यालय के विद्यार्थियों और अध्यापकाक परिचय अभी नक भी ज्ञात नहीं हो सका है। और जिनक हा निबन्ध हान, ना उचित हो था । इस परिधि से बाहर अन्यषण की ओर शोधक विद्वानों की दृष्टि लगी हुई है। के विद्वानों के लेखों से पत्रिका का गौरव बढ़ा है, किन्तु राजस्थान में जैन संस्कृति खूब फली फूली, अनेक राज्यों में इयर शिवा संस्थानों में प्रचलित मान्यता का व्याघात भा उपका विस्तार रहा। श्वेताम्बर पाधुओं और दिगम्बर उभा । सम्पादन और लेग्बन क तंत्र में विद्यार्थी अग्याय भट्टारकों ने तथा विद्वानों ने राजस्थान के जैन शाम्य भंडारों काम यह ही इन पत्रिकाग्री का उहं श्य हाता है। में अनेक विषयों की प्राचीन प्रतियां उपलब्ध होती है. जहां तक विद्यार्थियों के द्वारा लंग्य, कहानी, कविना जो इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण कहा जा सकती क लम्बन का सम्बन्ध है, इस पत्रिका का संकलन और है। डा० साहब ने राजन्थान के विविध भंदारों के अनेक मम्पादन उत्तम है । व जिम्म पथ पर बढ़ रहे हैं. प्राशाग्नद म्यनि स्कृष्टों का संक्षिप्त परिचय भी अंकित किया है । और है। अन्य सम्कृत विद्यालयों को इसका अनुकरण करना छ ग्रन्थों के नामादि भी बतलाये है। ऐसी प्रतियों का चाहिए। यदि कोई शिक्षा संस्था अपने विद्यार्थियों में लेग्वक उपयोग पाठभेद लेने में बहुत सहायक होता है। राजस्थान सम्पादक, या वका बनने की लगन उत्पका कर यकी. नो जन संस्कृति का केन्द्र रहा है वहां अनेक ग्रन्थ बने हैं। और उतना पर्याप्त है । लगन वाला म्वावलम्बन के साथ वदना कवि हुए हैं। जिन्होंने प्राकृत संस्कृत और राजस्थानी भाषा ही जायगा, यह विश्वास होना ही चाहिए । ए ग्राउन्ड के विपुल साहित्य की सृष्टि की गई है। जैन माधुनों के गर्क प्राव पजकेशनल माइकालोजी' के रयिता मि० रोम विहार ने जगह जगह जैनधर्म का प्रचार किया है अाज भी का ऐसा ही कम है। म्यानात महा विद्यालय अपनी राजस्थान में जैनधर्म का प्रचार मौजूद है। अन्त में पतिम्याद्वाद प्रचारणी सभा के द्वारा यह कार्य वर्षों में कर रहा हामिक नामों की सूची भी दे दी है जिससे ग्रन्य की उपहै। म्याहार-पत्रिका उसी का परिणाम है। हम म्वागत योगिना यद गई है। ऐसे सुन्दर प्रकाशनों के लिए सम्पादक संस्था संचालक और प्रकाशक दोनों ही धन्यवादहि हैं। -डा. प्रेम गागर - -परमानन्द जैन Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची विषय १२. भ० महावीर (कविता) १३. बाबू कामता प्रसाद जी १४. जैन साहित्य में आर्य शब्द का व्यवहार विषय १. जिनवर स्तवनम् ? ५० २. पंडित जवाहरलाल नेहरु क्या थे ३. युगपुरुष की भाग्यशालिता-काका साहब कालेलकर ३१ ४. जो देता है वही पाता है-श्रीश्राचार्य तुलसी गणी ५. दिल्ली पट्ट के मूलमंघी भट्टारकों का समय क्रम ५३ ५४ - डा. ज्योतिप्रसाद जैन एम. ए., पी.एच.डी. ६, पल्लू ग्राम की प्रतिमा व अन्य जैन सरस्वती प्रतिमाएं - श्री धीरेन्द्र जैन ३७ ७. भट्टारक विजयकीर्ति-डा० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल ६० दिगम्बर कवियों के रचित बेलि साहित्य श्री अगरचन्द्र नाइटा ६१ ६. बघेग्वाल जानि -- १० विद्याधर जोहरापुरकर ६३ १०. महापंडित श्राशावर व्यक्तित्व एवं कतिव – पं० अन्वन्द न्याय तीर्थ (साहित्यरत्न ) ६७ ११. दूसरे जीवों के साथ अच्छा व्यवहार कीजिये - शिवनारायण सक्सेना एम० ए० पृष्ट - मुनि पद्मनंचाचार्य ४६ १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन ट्रस्ट, श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवनदास जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी भांझरी, कलकत्ता २५१) श्री रा० वा० हरखचन्द जी जैन, रांची २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता २५१) श्री स० मि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी २५१) श्री सेठ मोहनलाल जी जैन, बसन्त कुमार मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद २५०) श्री बन्शीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता २५०) श्री जुगमन्दरदास जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री सिघई कुन्दनलाल जी, कटनी २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता २५०) श्री बी० आर० सी० जैन, कलकत्ता - साध्वी श्री मंजुला १५. अयोध्या एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर ६ ६ वीर - मेवा - मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक पृष्ठ जैन ७२ ७३ - परमानन्द शास्त्री १६. जैनधर्म- तर्क सम्मत और वैज्ञानिक - मुनि श्री नगराज १७. भव्यानन्द पंचाशिका भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद - मुनि श्री कान्तियागर १८. कलकत्तं में महावीर जयन्ती महोत्सव १६. साहित्य समीक्षा * सम्पादक मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन ७४ ७८ ८३ ८३ ६२ ६६ | २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी च द्रकुमार जी, कलकत्ता १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १५० ) श्री कस्तूरचन्द जी प्रानदीलाल, कलकता १५०) श्री कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता १५०) श्री प० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता १५०) श्री मालीराम जी मरावगी, कलकता १५०) श्री प्रतापमलजी मदनलाल पाड्या, कलकत्ता १५०) श्री भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता १५०) श्री शिवरचन्द जी मरावगी, कलकत्ता १५०) श्री सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता १००) श्री रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता १००) श्री बद्रीप्रसाद जी आत्माराम जी, पटना १०१) श्री मारवाड़ी दि० जैन समाज, व्यावर १०१) श्री दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी १०१) श्री मेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं० २ १०१) श्री लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागज दिल्ली १०१) श्री सेठ भंवरलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (1) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मुख्य-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थ में उद्धन दूसरे पचों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । सम्पादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिर की भूमिका (Introduction) से भूपिन है, शोध-स्त्रीज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा, माइज सजिरून १५) (२) प्राप्त पराना-श्री विद्यानन्दाचार्य की म्योपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषय के मुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, जिल्द । ८) (३) स्वयम्भुप्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से मुशोभित । (५) स्तुतिविद्या-वामी समन्तभद्रकी अनोग्बी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिरूद-पहिन । (२) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर प्राध्यामिकरचना, हिन्दीअनुवाद-सहित १॥) (6) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिम्मका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुना था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, जिल्द । ... ) (७) श्रीपुरपाश्वनाथम्तोय-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ... ॥) (८) शासनचतुम्प्रिशिका-(नार्थपरिचय) मुनि मदनकीनिकी १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद-सहित ॥) (6) ममीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुग्नार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाप्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । (10) जैनग्रंथ-प्रशम्ति मंग्रह-संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रशस्तियोंका मंगलाचरण सहित सपूर्व संग्रह, उपयोगी परिशिष्टों और पं परमानन्दशास्त्री की इतिहाम-विषयक माहित्य परिचया मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । (11) अनियभावना-पा० पदमनन्दी की महत्व की रचना, मुग्टतार श्री के हिन्दी पचानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१२) तयाधमूत्र-प्रभाचन्द्रीय)-मुमतारश्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । (१३) श्रवणयलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (11) महावीर का मर्योदय तीथं ), (१५) समन्तभद्र विचार-दीपिका )। (१६) महावीर पूजा। (१५) बाहुबली पूजा जुगलकिशोर मुख्तार कृन (1८) अध्यात्म रहस्य-4. माशाधर की सुन्दर कृति मुग्टतार जी के हिन्दी अनुवाद सहित (१९) जनप्रध-प्रशस्ति संप्रः भा. २ अपभ्रंशक २२ प्रप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह १५ ग्रन्धकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और उनके परिशिष्टों महिन । सम्पादक र परमानन्द शाम्बी मूल सजिल्द (२०) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकारा, पृष्ठ संख्या ७४० मजिन्द (वीर-शासन-संघ प्रकाशन (२१) कपायपार मुन---मुलग्रन्थ की रनमा आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं.गलाल जी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुगद के साथ बड़ी साइज के १... से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज, और कपड़े की पक्की जिल्ट । (२२) Reality प्रा. पभ्यपाद की मर्वार्थ मन्दि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिन्द मू. (६ प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवामन्दिर के लिए, पवन प्रिन्टिग वर्स, ३०१, दरीबा, दिल्ली में मुद्रित Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वै मासिक अगस्त १९६४ | Jনকান। 444 सहस्रकूट जिन चैत्यालय; ११वीं शती ईस्वी; कारीतलाई, जिला जबलपुर समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची HTTER विषय पृष्ट १. प्रहन परमेष्ठी गतवन -मुनि पद्मनन्दि १७ २. मध्य प्रदेश की प्राचीन जैन-कला -प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी १८ ३. शब्द-माम्य और उत्रि-माम्य -मु ने श्री नगराज जी १०० ४. विश्व-मैत्री -डों. इन्द्रचन्द्र शास्त्री १०३ १. धर्म ही मंगल मय है -अशोक कुमार जैन १०. . ६. तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य -डा. श्यामशंकर दीक्षित १०८ ७. जैन दर्शन और पातञ्जल योगदर्शन साध्वी श्री मंघमित्रा जी ११४ ८. मंदिरों का नगर-मड़ई -नीरज जैन ११० है. शोध-टिप्पण 1-प्रागमों के पाठ-भेद और उनके मुख्य हेतु -मुनिश्री नथमल जी ११८ २-राजा श्रीपाल उर्फ ईल -नेमचन्द डोणगांवकर न्यायतीर्थ १२० ३-अनार्य देशों में तीथंकरों और मुनियों का विहार -मुनि श्री नथमलजी १२२ ४-द्रोणगिरि -डा. विद्याधर जोहरापुरकर १२३ १०. गेही पै गृह में न रचे -श्री कुन्दनलाल जैन १२४ 11. अनेकान्त और अनाग्रह की मर्यादा ___-मुनि श्री गुलाब चन्द्र जी निर्मोही' १२० १२. महाकौशल का जैन पुरातत्व -बालचन्द्र जैन एम० ए० १३॥ १३. जगत राय की भकि -गंगाराम गर्ग एम० ए० १३३ १४. श्री दलपतिराय और उनकी रचनाएँ -प्रो. प्रभाकर शास्त्री एम.ए. १३५ १५. मोक्षशास्त्र के पांचवे अध्याय के सूत्र . पर विचार -६० मरनाराम जैन १३८ १६. ब्रह्म जीवंधर और उनकी रचनाएँ -परमानन्द जैन शास्त्री १४. १७. साहित्य-समीक्षा -परमानन्द जैन शास्त्री " मुड़ई से प्राप्त एक विशाल जिनबिम्ब का छत्र (छाया-नीरज जैन) सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने. उपाध्ये डा. प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपये एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ न. पं. भनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिये सम्पादफ मंडल उत्तरदायी नहीं है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम पहम् अनकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धनात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष १७ वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, देहली-६. वीर निर्वाण सं० २४६०, वि० स० २०२१ किग्गा, ३ सन् १९६४ ........... . अर्हत् परमेष्ठी स्तवन रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्तसंगग्रहात् । अस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधैद्वेषोऽपि संभाव्यते ॥ तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणामानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽहंन्सदा पातु वः ॥ -मुनि पद्मनन्दि अर्थ-जिस परहंत परमेष्ठी के परिग्रह रूपी पिशाच से रहित हो जाने के कारण किसी भी इन्द्रिय विषय में राग नहीं है, त्रिशूल मादि आयुषों से रहित होने के कारण उक्त प्ररहत परमेष्ठी के विद्वानों के द्वारा द्वेष की संभावना भी नहीं की जा सकती है। इसीलिये राग-द्वेष से रहित हो जाने के कारण उनके समताभाव प्रावित हुआ है, और इस समताभाव के प्रकट हो जाने से उनके अात्म-विबोध हुमा है, उससे कर्मों का क्षय हुआ है। मौर कर्मों के भय से महंत परमेष्ठी अनन्त सुख मादि गुणों के माश्रय को प्राप्त हुए हैं। वे महंत परमेष्ठी सर्वदा प्राप लोगों की रक्षा करें। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य प्रदेश की प्राचीन जैन-कला (प्रो० कृष्णात वाजपेयो, अध्यक्ष, पुरातत्त्व विभाग, सागर विश्वविद्यालय ) पद्यपि वर्तमान मध्यप्रदेश के क्षेत्र में जैन-ना का खजुराहो के प्राव्यात जन-मन्दिरी का निर्माण ई. उतना प्राचीन रूप नहीं मिलता, जितमा कि उड़ीसा तथा १० वीं शती में हुआ। खजुराहो की विशिष्ट स्थापन्य उत्तर प्रदेश में, तो भी मध्यप्रदेश के विभिन्न स्थानों में शैली के ये मन्दिर उत्कृष्ट उदाहरण हैं। भगवान प्रादिनाथ, उपलब्ध जैन-कलाकृतियों की संख्या को देखते हुये यह पार्श्वनाथ तथा तिनाथ मन्दिर मुग्थ्य है। शा तनाय कहा जा सकता है कि पूर्वमध्यकाल में यह भूभाग जैन के देवालय में कायमग मुद्रा में भगवान का भव्य मून धर्म के विकास का एक प्रमुख क्षेत्र बन गया था। मध्य प्रष्टम्य है । मुम्ब पर अमित तज और शानि विराजमान है। प्रदेश का ऐतिहासिक मर्वेक्षण करने से पता चला है कि जन नीकर प्रतिमा के प्रातरिक्त इन द ल यो मे यहाँ बौद्ध, भागवत तथा शैवधर्मो का प्रादुर्भाव एवं अलंकरण के रूप में प्रयुक्त विविध मनिया तथा भाभदायों विकास बहुत प्राचीन काल में दुभा। साँची और भरहुत का माले बम प्रायन मजाय हुअा है . नारी के रूप में इस प्रदेश के दो मुख्य प्राचीन बीन्द्ध-केन्द्र है। जहां पर मोदय का अभिव्यक्ति यहां के कलाकारों को पि प्रिय हमें बौधर्म के लौकिक पक्ष की परिचायक विशाल था। हम अनिद्य पद की विविध पाकक रूपों में कलाराशि उपलब्ध है। प्राचीन भागवत धर्म का विकास मूत-रूप प्रदान करके उस शाश्वत बना दिया गया है। विदिशा, एरण, पवाया प्रादि अनेक स्थानों में हमा। इन मूर्तियों में अश्लीलता नहीं है । वर्तमान बनाएर इसी प्रकार शवधर्म के केन्द्र नचना, कुटार, भूमग तथा जि में बहार नामक स्थान प्रायः है। कहा पर विशाल मध्यकाल में खजुराहो, मिरपुर, गुग्गी श्रादि मिलते हैं। जैन मूर्तियां देखने को मिलती है । यह स्थान नधर्म का मध्य प्रदेश में गुप्त काल तक जैन मूर्तियों का निर्माण एक तार्थ है । दूगरा एमा ही तीर्थ द्रोणगिरि पर्वत पर नहीं हुया, ऐसी बात नहीं की जा सकती। ग्वालियर तथा तीसरा दतिया के पास मोनागिरि नामक स्थान है। के पुरातत्व संग्रहालय में गुप्त कालीन कई जन कलावशेष इन स्थानों में मध्यकाल में नया उमा पश्चात अनेक सुरक्षित हैं । इनकी निर्माण शैली मथुरा, कौशांबी आदि जैन मन्दिरों का निर्माण हया। टीकमगद के समीप स्थानों में उपलब्ध प्रतिमानों से बहुत मिलती जुलती है। पपौरा नामक स्थान में लगभग दोसी जैन मन्दिरों के भग्नावशेष प्राप्त है। वर्तमान पमा जिले में भी जनधर्म ___ गुप्त काल के बाद पूर्वमध्य काल में वर्तमान मध्यप्रदेश का अरछा प्रमार था। वहां के धर्म पागर नामक तलाच के कई प्राचीन नगर कलाके केन्द्र बने। उनमें अन्य के पास अनेक कलापूर्ण जन प्रतिमाएं रखी हैं । विंध्य प्रदेश कृतियों के साथ जन-मूर्तियों तथा मदिरों का निर्माण बड़ी बड़ा में विभिन्न स्थानों से जन प्रतिमानों को धुला के संग्रहालय संख्या में मिलता है। विध्य प्रदेश के भाग में सराहो, मजुराहा, में सुरक्षित किया गया है। इस संग्रहालय में जैन तीर्थकगे पहार, पपौस द्रोणागिरि, पक्षा, मऊ तथा सानागिरि क की अनेक अभिलिखित कलापूर्ण मूर्तियां है । मुभि सुव्रत माम विशेष रूप में उल्लेखनीय है । मध्यभारत के भूरवंड शत प्रतिमा iTimi भविदिशा, उज्जैन, ग्वालियर, पधावली, नरवर, सुरवाया, एक लेख उस्कार्ण है। लेख पद्य में है उपक अनुमार देश तथा ग्यारसपुर में जैन स्थापत्य और मूर्तिकला सम्हण मामके व्यक्ति द्वारा इस मूर्ति की प्रतिष्ठापना की सम्बधी सामग्री बो परिमाण में उपलब्ध है। महाकोशल गई। संग्रहालय में माम्बका के साथ मोमय, पक्ष की अनेक प्रदेश के प्रायः प्रत्येक जिले में जैन मन्दिरों के भग्नावशेष दर्शनीय प्रतिमाएं हैं। जो री से प्राप्त हुई है। रीवां मिलते हैं। देवरी, बीना, सिरपुर, कारीतलाई, जांजगीर. तथा मऊ से चक्रेश्वरी की भी कई प्रतिमाएं उपलब्ध हुई रतनपुर प्रादि स्थान विशेष उल्लेखनीय है। हैं। इस संग्रहालय में जैन मन्दिर के दो अत्यन्त कलापूर्ण Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ६६ द्वार स्तम्भ रखे हैं जिनका प्रलंकरण दर्शनीय है। यहां प्राकर्षक है । द्वार स्तम्भों पर गंगा यमुना की मूर्तियां गुरगी से प्राप्त यक्षिणियो की भी कई मूर्तियो प्रदशित हैं। मी है । जैन मंदिर समा के पीछे शिव, सूर्य, लक्ष्मी, मध्यभारत के पूर्वोक्त स्थानों से मिली हुई बहुत सी भरव, नवग्रह श्रादि का अनेक मूर्तियां लगी है। विदिशा प्रतिमाएं ग्वालियर के पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित है। जिले का दूसरा महत्वपूर्ण म्धान ग्यारसपुर है। यहां पहारी इनमें तीथंकरों की प्रतिमानों के अतिरिक्त प्रम्य जैन क ऊर अनेक हिन्दू मंदिर बने हैं। मलादेवी मंदिर देवी-देवतानों की भी मृतियां हैं। पांचवी शती की जन । मे या क्षणी अम्बिका तथा तीर्थकरो की कई प्रभावोत्पादक तीर्थकर की एक प्रतिमा के सिर के पीछे अलंकृत प्रभा प्रतिमा है। मंडल है। इस प्रतिमा की ऊंचाई मादे वह फुट और यह महाकौशल नन में अनेक जैन मंदिरों का निर्माया कायोत्पर्ग-मुद्रा में है। यह मूर्ति विदिशा से प्राप्त हुई है। प्रा। रामपुर जिला में सिरपुर नाम स्थान से पार्श्वनाथ भगवान ऋषभनाथ की उत्तरगत कालीन एक अत्यंत तथा पन्ध तीर्थकरों की प्रतिमाएं मिली है। जबलपुर भावपूर्ण प्रतिमा इम मंग्रहालय में हैं। वे ध्यानमुद्रा में निना में कारीतलाई म्यान से दसवी-ग्यारहवीं शती में स्थिर चित्त मामान हैं। चौकी पर विकसित अर्ध कमल निर्मिन नाथंकर प्रतिमाएं बड़ी संख्या में उपलब्ध हां है। और सिंहासन के दोनों सिंह उत्कीर्ण हैं । मागों तथा यन. यहा महम्न कूट जिन-चैत्यालय भी प्राप्त हुभा है। यक्षियों की गुप्त एवं प्राग गुप्त कालीन अनेक प्रतिमाण प्राकर्षक भाव में बहाई अम्बिका दवा की कई मूर्तियां विदिशा, पवाया (प्राचीन पद्मावती) मंदसौर, तुमन भादि। भी यहा मिली है। सनपुर (जिला बिलासपुर) सं म्थानों से प्राप्त हुई हैं । मध्य भारत से प्राप्त मध्यकालीन बारहवी शती का तीर्थकर मूर्तियां प्राय: पान मुद्रा में जन कलावशेषों की संख्या बहुत अधिक है। ग्याजियर बटा दुई उपलब्ध हुई है। इनमें से चन्द्रगुप्त तथा प्राचीन दुर्ग में जैन तीर्थकरी की विशालकाय प्रतिमाओं ऋषभनाथ प्राति की मृतियां रायपुर के संग्रहालय में का निर्माण इस काल में हुअा। इनमें से कुछ कायोरमग मुनिन है । सागर जिला की रहनी नहमाल में बाना, मुद्रा में हैं तथा अन्य पनामन पर ध्याय मुद्र में। यहां देवग प्रादि स्थानों से कई मन्दर जन कलावशेष मिले अनेक सर्वतोभद्र प्रतिमाएं भी मिली है । पधावली, हैं। यार मध्यकाल में महाकोशल प्रदेश के राजवंशों में नरवर, चंदरी, उज्जैन प्रादि से भी मक्काबीन जैन संकाई जैन धर्मानुयाया नहीं था, तो भी इसकाल में अवशेष बड़ी संख्या में मिले हैं। विदिशा जिले में बरो जैन माग तथा प्रतिमानों का निमांग बड़े रूप में हमा। या (बड़ नगर ) नामक स्थान पर जैन मंदिरों का एक यह न कालान जनता का धार्मिक वृत्ति का सूचक है। समूह दर्शनीय है। इस मंदिर-समूह के बाहर नेमिनाथ की अभी तक मध्य प्रदेश सभी प्राचीन स्थानों में यक्षिणी अम्बिका की एक छह फुट ऊंची मूर्ति रखी है। विकायम जैन कला का पूरा सर्वेक्षण नहीं किया जा सका। मंदिर शिम्बर रानी के हैं और इनका निर्माण परमारों के र्याद पूरे प्रदेश में बिम्वरी हुई कला-नाशिका अनुपधान शासन काल में हुअा। तीर्थकरों की अनेक प्रतिमाएं यहां किया जाय तो बदुत मा नवीन कलाकृतियों की जानकारी बाद में रखी गई। कुछ मन्दिरों के प्रवेश द्वार प्रत्यंत हो सकी । पादमी से पाप कराने वाली दोही चीजें हैं और वहीमार में जीव की दुश्मन है। वे : हैं काम और क्रोध, जिस तरह धुमां भाग को हक दना है और गर्द शाम को अन्धा कर देता है उसी तरह दोनों मानव की बुद्धि पर पर्दा डाल देती है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-साम्य और उक्ति-साम्य (अण्वत परामर्शक मुनि श्री नागराज जी ) भगवान श्री महावीर की वाणी का और उनके जीवन के अतिरिक अन्यत्र कहीं नहीं देखा जाता है। जैन परम्परा वृत्तों का गाम्न रूप संकलन द्वादशांगी या गणिपिटक कहा में इसका मुख्य अर्थ “रूपी जड़ पदार्थ" है। बौद्ध परम्परा जाता है और भगवान बुद्ध से सम्बन्धित गाग्रीय मंकलन में पुदगल शब्द का अर्थ है-प्रात्मा, जीव । जैनागमों का त्रिपिटक कहा जाता है। दोनों का अध्ययन करने में भी जीव तत्व के अर्थ में पुदगल शब्द प्राया है। समय ऐसा अनुभव होने लगता है कि हम कमी एक ही गौतम स्वामी के एक प्रश्न पर भगवान् श्री महावीरने भी संत्र काल और मम्कृति में बिहार कर रहे हैं। एतद्- जीव को पोग्गल कहा है। विषयक ममता यही में प्रारम्भ हो जाती है कि शास्त्र क ग्रहंत और चन्द्र-वर्तमान में महत् शब्द जैन परम्परा मर्थ में पिटक शब्द दोनों ही परम्परामों ने अपनाया है। में और बुद्ध शब्द बौद्ध परम्परा में रूद-जमा बन गया है। वह ज्ञान मंजपा गणा तथा प्राचार्य के लिए है, द्वम वान स्थिति यह है कि जनागमों में महतू और बुन्द्र अपने लिए उसे गणिपिटक कहा गया है । गणी शब्द का प्रयोग प्राराध्य पुरुषों के लिए अपनाये गये है और बौद्ध धागमों महावीर, बुन्छ प्रादि तात्कालिक धर्म-प्रबको के अर्थ मे में भी अपने श्लाध्यपुरुषों के लिए । जनागमों की प्रसिद्ध भी बौद्ध परम्परा में मिलता है। हो सकता है, संघ गाथानायक भगवान महावीर से उदभूत वाण। के अर्थ में ही जेय बुद्धा प्रतिक्कन्ता, जेय वुद्धा प्रणागया । जैन परम्परा ने गणिपिटक शमन को अपनाया हो। दोनों बौद्ध परम्परा का मुविदित गाथा है : प्रकार के पिटकों में अनेकानेक शब्दों का प्रयोग समान ये बुद्धा प्रतीता च ये च बुद्धा अनायता । रूप से मिलता है। यह शब्द-ममता इस बात को परभुप्पचा च ये बुद्धा पई बंदामि ते सदा ।। पसाध रण रूप से पुष्ट कर देती है कि दोनो परम्पराओं जैनागमों में और भा अनेक स्थानों पर बुद्ध, मंबुद्ध, का ज्ञान-प्रवाह कभी-न-कभी एक है। नोन में अवश्य पयधुन्द प्रादि शब्दों का प्रयोग मिलता है। सम्बन्धित रहा है। उदाहरण मात्र के लिए इस प्रकार का नित्धगगणं मयंमंबुद्धाणं ।६ कुछ शब्द-साम्य प्रस्तुत किया जाता है - तिविहा बुद्धा-णाण बुद्धा, दंगणवुद्धा, चरिस वुद्धा । निग्गंठ-इस शब्द का अर्थ है-निनन्य तात्पर्य है ममणेणं । भगवया महावीरेर्ण पाहगरेण अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित । त्रिपिटकों में जैन तिथयरेणं मयं मंबुद्धाणं । बुद्ध हिं एवं पवैदितं ।। सम्प्रदाय को "निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय", भगवान श्री महारीर को संखाई धम्मं य वियागरंति युद्धाहते अंतकरा भवन्ति । "निन्ध ज्ञातपुत्र' स्थान-स्थान पर कहा गया है। जैन २-मझिम निकाय-११४ भ्रमणों को भी निर्गन्ध कहा गया है। उक्त अर्थो में ३-भगवती सूत्र शतक-२०-१-२ निग्रन्थ शब्द का प्रयोग गणिपिटके में भी ज्यों-का-न्यो दम्वा जाता है। भगवान श्री महावीर क प्रवचन को भी निर्ग्रन्थ ४-भगवती सूत्र शतक-E-३-१० ५-सूत्र कृतांग सूत्र 1-1-३६ । प्रवचन कहा गया। ६-राय पसेणयं । पुग्गल-पुदगल शब्द का प्रयोग जैन और बौद्ध परम्परा ७ स्थानांग सूत्र ठा. ३ ५-संयुक निकाय, दहर सुत्त ३.1.1 पृष्ट ६८ दीघनिकाय, ८-समवायांग सूत्र २१२ सामन्जफल सुस, १.२. सुतमिपात, मभिय मुत्त, पृष्ट -प्राचारोग सूत्र ४१३४० १०० से ११.धादि। १०-सूत्रकृतांग सूत्र १-90.15 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-माम्य और उक्रि-साम्य १०१ बौर परम्परा में महंत शब्द का प्रयोग इसी प्रकार प्रास्त्रव और मवर-ये दोनों शब्द भी जैन और बौद्ध पज्य जमों के लिए किया गया है। म्वयं तथागत् को दोनों परम्परामों में एक ही अर्थ में मान्य दिखलाई स्थान-स्थान पर पहन सम्यक मंबुड कहा गया है। पढ़ते है । भगवान बुद्ध के निर्वाण के पश्चात पांच सौ भिक्षुओं की दीक्षित होने के अर्थ में एक वाक्य दोनों परम्परामों जो मा होती है. वहां प्रानन्न को छोड़ कर चार मौ में रूद जैसा पाया जाता है। जैनागमों में ४ 'प्रागाराम्रो निन्यानवे भिक्षु अर्हत बनलाये गये हैं। कार्य प्रारम्भ के प्रशगारियं पम्बहल' बौद्ध शास्त्रों में "मगारस्मा अवसर तक भानन्द भी आहत हो जाने हैं।२ बौद्धागमों अनगारनं पव्वाजम्ति" में बुद्ध और जैनागमों में महत् शब्द के तो प्रगणिन सम्यकदृष्टि, मिथ्याष्टि- ये दोनों शब्द भी एक ही प्रयोग है ही। अध में दोनों परम्परामों में मिलने है। जैन और बौद्ध धे-स्थविर शब्द का प्रयोग दोनों ही परम्परात्रों में दोनों ही अपने-अपने अनुयायियों को सम्यक् रष्टि और वृत या ज्येष्ठ के अर्थ में हुचा है। जन परम्परा में ज्ञान, इतरमत वालों को मिथ्या- प्टि कहते हैं। वय दीक्षा-पर्याय प्रादि को लेकर अनेक भेद-प्रभेद हैं। ये उपोमाथ-हम शब्द का प्रयोग दोनों परम्परामों में प्रयोग जैन आगमों के हैं। मिलता है। दीघनिकाय में भगवान बुद्ध ने जैनों के बीन्द्र परम्परा में १२ वर्ष से अधिक के सभी भिक्षुओं उपोमाय की मालोचना की है। के नाम के साथ थेर या थेरी लगाया जाता है। वरमण-यत लेने के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग दोनों भन्न-ज्य और बरों को आमन्त्रित करने में भन्ने परम्परामों में दम्या जाता है। (भदन्त) शब्द दोनों ही परम्परामों में एक है। से नथागत-मुग्थ्यतः यह शब्न बौन्द्र परम्परा का है। कणटण भन्त, में गूगं भन्ने, मेवं भन्ने, मन्वं भन्ने, जनागमों में भी यत्र तत्र उपलब्ध होता है। प्रादि । ये प्रयोग जन भागमों के हैं। बौद्ध प्रागमों में "कमो कमाह मेहावी उणान्ति तहागया । भी भन्ने शब्द की बहुलता है। नहागया उप्पडिक्कन्ता चाय लोगम्मनुत्तरा।" अउमी-पमान या छोटे के लिए पाटय (प्रायुष्मान) विनय-विनय शब्द का दानों परम्पराधों में महत्व है। शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराधों में समान रूप से मिलता मानविय विनय है। भगवान बुद्ध को भी प्रावुम' गौतम कह कर सम्बोधित शब्द का प्रयोग है। विगय पिटक इसी बात काम् चक है। करते थे। गोशालक ने भी भगवान महावीर को प्राउमो जनागमों में भी अनेकों अध्ययन विनय प्रधान है। कासवां कहा है। दशकालिक मूत्र का नवम अध्ययन विनय मकाधि नाम श्रावक, उपासक, श्रमणोपासक-श्रावक शब्द का प्रयोग से है। उसकी प्रथम उक्ति है-"थंभाव कोहा व मयप्प दोनों परम्परात्रों में मिलता है। जैन परम्परा के अनुसार उपका अर्थ गृहस्थ उपासक है। बौद्ध परम्परा में इससे माया, गुरु मगासे विणयं न मिकावे ।" उत्तराध्ययन सूत्र भिक्षु, शिष्यों का बोध होता है। उपासक और श्रमणो का प्रथम अध्ययन का नाम भी विनय श्रन है और वहां यही कहा जाता है- विणयं पाठ करिम्मामि, प्राणुपासक शब्द अनुयायी गृहस्थ के लिए दोनों परम्परामों पुस्वि मुह मे । में प्रयुक्र हैं। १ दीघ निकाय, माज्जफमुत, १८२। ६-जैनागम, समवायांग मूत्र स०५, बौद्ध शास्त्र, २-विनय पिटक, पंच शतिका म्कन्धक । मश्मिम निकाय २॥ ३-भगवती मूत्र ७.३.२० । -भगवती मूत्र 11-१२.४ा। ४-भगवती सूत्र शतक १५ । ८-महावग्ग । १-मझिम निकाय।। १-सूत्र कृमांग सूत्र २.१.१२०.६२५ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ भनेकान्त वर्जित कथा-जनागमों में म्बी कथा, भक्त स्था, देश है। बुद्ध कहन है-भित्रो ! सौ वर्ष तक एक कन्धे कथा, राज कथा की वर्जना मिलती है । दीघ निकाय के परमाता को और एक कन्धे पर पिता को ढोए, और सौ ब्रह्मजाव और सामफल, इन दोनों प्रकरणों से ऐसी वर्ष तक ही वह उनके उबटन, मर्दन प्रादि करता रहे, व्थानों को तिररछान कथा कहा है-तिरच्छान कथं, उन्हें शीतोष्ण जल से म्नान कराता रहे, तो भी वह अनुयुतो विहरति सेय्यधद-राज कप, चोर कथं, महामत भिक्षुधी। वह माता-पिता का उपकारक होता है, न कर्थ, सेना कर्थ, भयकथं, युद्ध कथं, अन्न कथं, पान कथं। प्रत्युपकारक। यह इयलिए कि माता-पिता का पुत्र पर विशरणा-चतश्शरण-बौट पिटकों में व परम्परा में तीन बहत उपकार होता है। जैनागमों ने धार्मिक महयोग शरण बात ही महत्वपूर्ण है तो जैनागमों व परम्परा में को उऋण होने का प्राधार माना है। चार शरण अपना अन्य स्थान रस्वत हैं । वे तीन व चार दो अरिहन्त-जनागमो की मुहट मान्यता है-भरत शरण क्रमशः निम्न प्रकार है: मादि एक ही क्षेत्र में एक साथ दो तीर्थकर नहीं होते। बुद्ध मरणं गर हामि अरिहन्ते मरणं पवज्जामि बुद्ध कहते हैं-भिन्तुनो ! इस बात की तनिक भी गुंजाइश संघ सरणं गरछामि मिद परणं पवज्जामि नहीं है कि एक ही विश्व में एक ही समय में दो प्रहत् धम्म सरगं गरछामि साहू सरगां पक्जामि सम्यग मंबुद्ध पैदा हों। कंवली परण धम्म मरणं पवजमि म्त्री-पईत-चक्रवर्ती शब्द-जनों की मान्यता है ही यामोत्धुणे-जैन आगमों का प्रसिध्द स्तुति वाक्य है- कि अहंत चक्रवर्ती, इन्द्र आदि म्यी भाव में कभी नहीं "णमोन्धुगा समणस्म भगवत्रो महावीरम्स" बौद्ध परम्परा होते । बुद्ध कहते हैं-भितुओं यह तनिक भी मंभावना का सूत्र है-"णमोल्धुयां समणस्स भगवयो सम्यग नहीं है कि स्त्रा प्राईत, चक्रवती व शक हो ।४ श्वेताम्बर मंबु दम्प"। भाम्नाय के अनुसार भरली म्बी तीर्थंकर थी, पर यह नगर व देश-नालन्दा, राजगृह, कयंगला, श्रावस्ती कभी न होने वाला प्राश्चर्य था। मादि नगरों व अंग, मगध प्रादि देशों के नाम व वर्णन स्थानांग और अंगृनर निकाय-जैन सूत्र स्थानांग के दोनों प्रागमों में समान रूप से मिलने है। प्रकरण संख्या क्रम से चलते हैं। प्रथम में एक मच्या उक्ति साम्य वाली बातों का वर्णन है तो यथा- क्रम दशम में दश जैनागम कहते है-व्यक्ति तीन उपकारक व्यक्तियों संख्या वाली बात का । बौदागम अंगुत्सर निकाय में भी से उत्रण नहीं होता। गुरु से, मालिक से और माता-पिता यही क्रम अपनाया गया है। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन से।" वहां यह भी बताया गया है कि प्रमक-प्रमक एक रोचक विषय बन सकता है। प्रकार की पराकाष्ठा परक सेवाएं दे देने पर भी वह अनुस २-अंगुत्तर निकाय । ही रहता है। लगभग वही उक्त बौद्ध पागमों में मिलती ३-अंगुत्तर निकाय । १-ठाययंग सूच ठा. ।। ४-अंगुत्तर निकाय । अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्याति प्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानो और समाज के प्रतिष्ठत व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे । ऐमा तभी हो सकता है जब उसमे घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक सस्या का बहाना पनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरो, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षासस्थानों, संस्कृत विद्यालयो, कालेजों और जनश्रत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालो से निवेदन करते है कि वे शीघ्र ही 'अनेकान्त' के ग्राहक बनें और बनावे। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मैत्री [डॉ. इन्द्रचंद्र शास्त्री, एम० ए० पी० एच० डी०, दिल्ली] प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन व्यवहार के लिए दो धेरे पर यदि उसे अपने अधीन कर लिया जाय तो अधिक लाभ बनाता है । पहला "a" का घेरा होता है जहां उपका हो सकता है। फलम्यरूप पराजित कुल के सदस्यों को संबंध मित्रतापूर्ण होता है। उस घर के प्रत्येक सदस्य को गुलाम + रूप में रखा जाने लगा। यह मित्रता या सहदम्बकर उपके मन में हर्ष होता है । उपक दग्व को वह अपना योग की घोर पहला कदम था। यहाँ हत्या की अपेक्षा दम्ब मानना है और उसके मुख को अपना मुग्व । इतना शत्रु जावन को अधिक मूल्यवान मान लिया गया। है। नही म्बय दुम उटाकर भी उसे मुम्बी करना चाहना धीर-धार पराजित और विजेता का सम्बन्ध प्रजा और है। माता म्वयं भूखी रहकर सन्तान का पेट भरना चाहती राजा के रूप में परिणत हो गया। राजा रक्षक बन गया है। प्रेमी अपने प्रेमपात्र के लिये बड़े से बड़ा कष्ट उठाने और प्रजा की रक्षा करना अपना धर्म मानने लगा । दूसरी को तैयार रहता है । इस घेरे में मुम्ब का प्राधार प्राप्ति और प्रजा कर या अन्य रूपों में उसे सुख-सुविधाएं प्रदान नहीं, उ.सर्ग होता है । इमर के लिए त्याग करने और कष्ट करने लगी । वर्तमान लोकतन्त्र में यह भेद समाप्त भी हो उटाने में अानन्द प्राने लगता है। गया। राजा और प्रजा एक ही भूमिका पर भा गये। इस महाकवि भवभूति का कथन है कि प्रियजन एक एपी प्रकार शासन के क्षेत्र में हम विषमता से समता या शत्रता वस्तु जो बिना कछ किये ही दुःख दूर कर देती है। से मित्रता की धार बद।। और मुखों की सृष्टि करने लगती है परचा प्रेम बदलने बार पर की परिधिका दूसरा रूप भौगोलिक में कुछ नहीं चाहता। हम जिससे प्रेम करते हैं इनना ही मीमा धा । छोट-छोटे कल जब कृषि करने लगे तो वाहन है कि वह मुखा रहे । उसके मुम्ब एवं उन्नति के विभन्न स्थानों पर बम गये। इन बस्तियों को प्राम कहा समाचार सुनकर हदय तृप्त होता है। जाता था, जिसका अर्थ है समूह । किन्तु एक ग्राम का दूसरा घेरा "पर" का है। इस घर के व्यक्तियों को दमर ग्राम के मात्र सम्बन्ध मित्रतापूर्ण नहीं होता था। दो हम पर या शत्र मानने है उन्हें देखते ही हदय प्राशंका या ग्रामों के मिलने को मंग्राम कहा जाता था जिसका अर्थ भय में भर जाता है। उनका उन्नति मुनकर मन में ईर्ष्या युद्ध । धार-धीरे प्रामों में मित्रता पूर्ण संबन्धों का विकास होती है और हानि मुनकर प्रसन्नना। वे हमार विरन्द्व हश्रा और 4 जनपदों के रूप में मंगठित हो गये। किन्तु कुछ करे या न कर उनका अम्नि-व ही हृदय में अशांति एक जन का दूसरे जन के साथ सम्बन्ध युट के रूप में ही उत्पन्न करता रहता है। होना था । संस्कृत में इसे जन्म कहा जाता है जिसका 'स्व' का घंग जितना छोटा होता है व्यक्ति उतना ही ध्यप यय-दो जनों को मिलना और प्रचलित अर्थ है दुःम तथा निर्बलता का अनुभव करता है । यह घेरा ज्यो. युन । क्रमशः उनमें भा प्रेमपूर्ण सम्बन्धों का विकाग्र हुमा ज्या विस्त होता है उसका अन्त होना जाना है। बल और राष्ट्री का रूप लिया। कछ गट प्राकृतिक मीमाएँ नथा प्रानन्द की अनुभूति बदती चली जाती है। उच्च है। उच्च लिये हुए थे, उनका अन्य राष्ट्रों के माय अधिक संपर्क धार्मिक परम्परानों ने इसी बात पर बल दिया है कि पर पर नही रहा । फलस्वरूप ये युद्धों में बचे रहें और अपना के घेरे को घटान हुए म्व के घेरे को बढाने जाना चाहिए। सांस्कृतिक विकाम करते रहे । उदाहरण के रूप में चीन प्राचीन मानव छोटे-छोटे कुलों में विभक्त था और और भारत को उपस्थित किया जा सकता है । प्राकृतिक उनमें बराबर युद्ध चलते रहने थे। प्रायः विजेता कुल, मीमानों के न रहने पर राष्ट्रों में परम्पर पुद्ध चलते रहे। पराजित कुज को समाप्त कर देता था। क्रमशः उसने यह यूरोप का रक्तरंजित इनिहाम इसका पाती है। अनुभव किया कि पराजिन कुलों को मार डालने के स्थान वैज्ञानिक प्राविकारों ने भौगोलिक परिधियों को Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अनेकान्त समाप्त कर दिया है । रेडियो, टेलीविजन, हवाई जहाज दय ने पर-हानि का रूप ले लिया। धर्म, राजनीति पादि मादि के कारण पादान प्रदान बन गया है कि अब कोई सभी क्षेत्रों में जो संगठन परम्पर सहयोग द्वारा विकास के देश अपने को बाझ प्रभाव से मुक्त नहीं रख सकता। फिर लिये अस्तित्व में आये थे ये विध्वंसक प्रवृत्तियों में लग भी पुरानी परिधियां हमारे मानम को घेरे हुए हैं। अब भी गये। दूसरे शब्दों में किसानों ने अन्न का उत्पादन बंद उनके आधार पर स्त्र और पर का भेद किया जा रहा है। करके विदेशी वस्तुओं का उत्पादन प्रारम्भ कर दिया। यही वर्तमान मानव की सबसे बड़ी समस्या है। कारीगरों ने जीवन के लिये आवश्यक वम्सुए बनाना छोड जिस प्रकार जनपदों ने मिलकर राष्ट्रों का रूप ले कर हथियार बनाना शुरू किये। राजनानि के क्षेत्र में लिया, उसी प्रकार राष्ट्र मिलकर अलग-अलग गुट बना उन्होंने यन्दूक और नोपों का रूप ले लिया। मामाजिक रहे हैं और एक दूसरे के विनाश की तैयारी कर रहे हैं। क्षेत्र में परम्पर निन्दा और चुगली का धार्मिक मंत्र में प्राणविक अस्त्रों के विकास ने हम ममम्या को और भी मिथ्या प्रदर्शन, दंभ एवं प्राक्षप-प्रत्याक्षपों का। करगाणविकट बना दिया है। प्राचीन ममय में युद्ध करते समय कारी संगठन सेनाये बन गई। आवश्यकता इस बात का है प्रत्येक पक्ष अपनी जीत और दूसरों की हार की बात कि सब परिधियों को समाप्त करके पुनः सर्वोदय या पर्वसोचता था, किन्तु श्राणविक धम्त्रों ने इस धारणा को बदल मैत्री को अपना लक्ष्य बनाया जाय । कार्य-मर्यादा मीमित दिया है। समस्त विचारक यह मान रहे हैं कि यदि इनका रहने पर भी उय लक्ष्य को प्रतिक्षण मामने रहना आवश्यक प्रयोग हुमा तो जीत किमी की नहीं होगी। इस समय उद्धार है। उसे भूलने ही मानव पथभ्रष्ट हो जायगा। का एक ही मार्ग है कि परिधियों को समाप्त करके समस्त भगवान बुद्ध का कथन है कि माता जिस प्रकार अपने 'मानवता' एक ही भूमिका पर बाजाय सर्व 'मग्री' का इकलौते पुत्र से प्रेम करती है उसी प्रकार का प्रेम सारे पाठ सीखे। विश्व में फैला दी। बौद्धों की महायान शाखा में इस धर्म, राजनीति, अर्थशास्त्र मादि समस्त विद्याओं का मिद्धांत का विकास महाकरणा के रूप में हुअा। वहां करुणा जन्म मानव-कल्याण के लिये हमा। किसी ने उपक अभ्यं. अर्थात परोपकार के ये स्तर बनाये गए है। सबसे नीचा तर रूप को सामने रखा, किसी ने बाह्य रूप को और किसी किसान बाह्य रूप का बार किसी स्तर म्वार्थमुलक करुणा का है। इसका अर्थ है स्वार्थ को ने सामाजिक रूप को। किन्तु वह ही जब परिधियों से घिर लक्ष्य में रखकर दूसरे का भलाई करना । इसमें मुग्ध्य भावना गये तो असली लषय छूट गया । धर्म ने संप्रदाय का रूप प्रतिदान की रहती है। माधारण मामाजिक जीवन में ले लिया, राजनीति ने भौगोलिक अहंकार का, समाज शास्त्र परोपकार का यही रुप मिलता है। करुणा का दूसरा ने जातीय अहंकार का और अर्थशास्त्र ने वर्ग शोषण का स्तर वह है जहाँ स्वार्थ न होने पर भी दृमर को कष्ट में दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते है कि प्रत्येक संस्था का देखकर उसे निवारण का प्रयत्न किया जाता है । दमरे का जन्म सर्वोदय के लिये हुना। वह मानव-कल्याण के लिये दुःख हमारे मन में एक प्रकार की अशांति उत्पन्न करता प्रवृत्त हुई और मर्यादिन शक्ति तथा सुविधा की दृष्टि से है. यही घेचनी दमर की महायता के लिये प्रेरित करती है। क्षेत्रविशेष को चुन लिया। किन्तु जब उसके साथ अहंकार हम इसे करुणा का मानुषी रूप कह सकते हैं । नीमरा या लोभ मिल गया तो प्रतिम्पर्धा चल पड़ी और सर्वोदय स्तर वह है जहाँ द.सरों को सहायता या परोपकार हमारा ने 'स्वोदय' का रूप ले लिया। यहाँ स्व का अर्थ व्यक्ति स्वभाव बन जाता है । किमी प्रेरणा की आवश्यकता तथा उसके द्वारा बड़ी की गई परिधि है। अहंकार की नहीं होती। बादल यह नहीं देखता कि कौन-सी जमीन मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ती चली गई । अपनी उन्नति का लक्ष्य प्यासी है और कौन-सी मजल । बरसाना उपका स्वभाव है। धुंधला पड़ता गया और उसका स्थान दूसरे की हानि ने ले इसी प्रकार परोपकार के लिये बिना किसी बाझा प्रेरणा लिया। हमें अपने को ऊंचा उठाने की उतनी चिन्ता नहीं के सब कुछ अर्पित कर देना करुणा का सर्वोच्च रूप है। रही जितनी दूसरे को नीचे गिराने की । इस प्रकार स्वो. इसी को वहाँ करुणा कहा जाता है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मैत्री १०५ वेदान ने मित्रना का यह मंदर्शन ऐक्य या प्रभेद के रूप (१) व्यवहार और सर्वमंत्री-म का अर्थ है व्यवहार में दिया । उपनिषदों का कथन है जब नकद.मरा है भय में पमना । भगवान महावीर ने कहा कि जब तुम इ.मरे बना ही रहेगा। जब सब एक हो तो फिमको किमका भय है, को मारना, मताना या अपमानित करना चाहो तो वहां यह बताया गया। मारा विश्व ब्रह्म है-उसे प्राप्त करते उसकी जगह अपने को रखकर दग्यो। यदि वह प्यमहार ही मारी समस्याये मिट जायेंगी। इंगाई धर्म भी विश्व तुम्हें अप्रिय है तो दूसरे को मा अप्रिय होगा। जिस बात प्रेम को केन्द्र में रखकर विकसित हुआ है। को नुम अपने लिये ना पसंद करते हो उसका पाचरण जैनधर्म ने यह संदेश मंत्रालय में दिया । यहाँ द.मां के लिये मन करो । हम इसे स्व और पर में ममता माधु नथा श्रावकी कलिय दैनदिन अनठान के रूप में कह मह । इसी का विकाम अहिमा के रूप में हमा जो प्रतिक्रमण का विधान है। इसका प्रयी जानकर या पन- जैन शास्त्र की प्राधारशिला है। जान में लगे हा दोषी लिय परचात्ताप करके श्रामा (२) विचार में सर्वमैत्री-एक ही वस्तु अनेक को पुनः शुद्ध बनाना । प्रनि का अर्थ वापिम और क्रमण पहलू होते है । प्रत्येक व्यक्ति का जदय अपने-अपने पहलू का अर्थ है जाना । सांसारिक प्रवत्तियों के कारण प्रामा पर होता है। उदाहरण के रूप में एक ही व्यक्तिको बहिमुम्बी हो जाता है उसे अंगमुवी बनाकर पुनः अपने एक म्बी भाई कहती है, दमरी पुत्र, तीसरी पिता और म्वरूप में स्थापित करना ही प्रतिक्रमण है। उसके अंत में चौथी पति । ये चारों बाने परम्पर विरोधी होने पर भी संमार समस्त जीवों से नमा-प्रार्थना करके पर्वमंत्री विभिन्न अपेक्षाओं में मन्य हैं। यदि भाई करने वाली स्त्री की घोषणा की जानी है। अन्य स्त्रियों को झूठी कहेगी नो माय मे दूर चली जायगी। जो व्यक्ति कम-से-कम वर्ष में एक बार इस प्रकार इसके विपरीत जिम अनुपात में उन धारणाओं का म्यागत मा.मा-शुद्धि नहीं करता उसे अपने पापको जन कहने का कग्गी उसी अनुपात में मन्य के समीप पायेगी। जैनअधिकार नहीं है । जो मनोमालिन्य को चार महीने में। धर्म में इस अपेक्षा बुन्धि को अनेकान्त कहा गया है। उसका अधिक टिकाये रखता है, वह श्रावक नहीं हो सकता और। कथन है कि मन्य पर पहुंचने के लिए विभिन्न रष्टिकोणों जो पंद्रह दिन में अधिक रखता है वह माधु नहीं हो सकता। का म्वागत करना आवश्यक हमी का विस्तार नययाद तथा म्याद्वाद के रूप में हुया है, जो कि जन-दर्शन की मित्रता का प्राधार समना है, जहा एक व्यक्ति दूमर आधारशिला है। वर्तमान राजनीति में यही भावना बोकव्यक्ति में अपने को बड़ा मानना है, अपनी भावनाओं और तन्त्रक रूप में विकसित हुई है। वास्तविक लोक तन्त्र विचारों के ममान दमा की भावनात्रों और विचारों को वही है जहां मदम्या को अपने-अपने विचार प्रगट करने की भादर नहीं देना बहो ममता नहीं होती। पूरी छूट है और सभी पर महानुभूति के साथ विचार जिस प्रकार वैदिक धर्म में मंध्या नथा हम्जाम में किया जाना है। समाज का निभ्य-कृश्य के रूप में विधान है उसी प्रकार (३) न्याय में सर्वमंत्री-प्राचीन समय में न्याय का जन-धर्म में मामायक का है। इसका प्रथ-पमना की का प्रतिशोध रहा । उसका कथन था कि यदि कोई पाराधना । जैनधर्म और दर्शन का विकाम इसी को केन्द्र तुम्हारी प्राग्व फोरना तो उसकी प्राग्य फोड़ दो। यति रखकर हुअा है। तुम्हारा धन छीनना है तो उसका धन छीन ली। यदि तुम्हारी यहाँ ममना या मर्वमंत्री को अनेक रूपों में उपस्थिन पनी माथ बलात्कार करता है तो तुम भीमा ही कगे किया गया है। यदि उनका अध्ययन विश्व की वर्तमान यह न्याय है। कालान्तर में यह अधिकार व्यक्ति के हाथ समाम्यामो को लक्ष्य में दबकर किया जाय तो बहुत मे में हीमकर राजा या किमी प्रतीन्द्रिय मना के हाथ में समाधान मिल सकते हैं। संज्ञप में उन्हें नीचे लिखे अमुमार दे दिया गया किमतु दण्ड का रूप वही रहा। जैन-धर्म का उपस्थित किया जा सकता है। कथन है कि अन्याय या पाप करने वाला अपनी मामा को Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ अनेकान्त स्वयं निर्बल तथा कलुषित करता है। यह निबलता अपने इसी का नाम प्राभ्यन्तर और बाह्य में मित्रता है जो जैनभापमें दण्ड है । यदि तुम प्रतिशोध के रूप में दण्ड देते हो माधना की प्राधार्गशला है। तो तुम भी अपने प्रापको मलिन करते हो। यह व्यवस्था (५) अपरिग्रह-माम्यवाद का जन्म मामाजिक किमी प्रतीन्द्रिय शक्ति के हाथ में भी नहीं है। दण्ड के विषमता को दर करने के लिये हश्रा । माक्म तथा अन्य बदले में दण्ड या पाप के बदले में पाप न्याय नहीं है। विचारको ने देखा कि एक वर्ग पम्पन्न है और दूसरा इसके विपरीत पापी के प्रति हमारी भावना मित्रतापूर्ण दरिद्र । सम्पन्नवर्ग दरिद्रवर्ग का शोषण कर रहा है और होनी चाहिये । हम यह कल्पना करे कि उसने हिंसा या उसे पनपने नहीं देता। इस वर्गभेद का कारण वैयक्तिक पाप के द्वारा अपने प्रापको मलिन किया है उसे समझ सम्पत्ति है। फलस्वरूप उसने राजकीय विधान द्वारा प्राये और वह उस मलीनता को धोने का प्रयत्न करे । सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को ममाप्त कर दिया। मंत्री की यह भावना दोनों के हदय को पवित्र करती है। इस व्यवस्था में वर्गभेद को मिटा दिया और सभी को जैनधर्म के अनुसार न्याय का आधार दसरे की शुद्धि है, भोजन, निवास श्रादि जीवन मुविधायें प्राप्त होने लगीं। र नहीं । यहां प्रात्म शुन्द्वि के मार्ग को निर्जरा कहा गया किन्तु ऊपर से लादी जाने के कारण इस व्यवस्था ने है और प्रायश्चित्त उसका मुख्य तत्व है । इसके लिए स्वतन्त्र प्रतिभा का भा दमन किया। मानव विचार की मालोचना, प्रतिक्रमण, निदा, गर्दा, काय व्युत्मर्ग उच्च भूमिकाओं को छोड़कर निर्वाह की माधारण भूमिका प्रादि अनेक प्रक्रियाये बताई गई हैं । जैन-धर्म सिद्वान्त पर श्रा गया। जैन-धर्म विषमता की इस समस्या को न्याय के इसी रूप को प्रगट करता है । वहाँ यह बताया सुलझाने के लिए 'अपरिग्रह' का सन्देश देना है। वह यह गया कि किस प्रकार की बुराई करने पर प्रात्मा में किम मानता है कि परिग्रह वैषम्य को जन्म देता है उसे दूर प्रकार का मालिन्य पाता है। करने के लिये सर्वोच्च भूमिका अपरिग्रही या माधु की है (४) बाहय प्रौर प्राम्यन्तर में मैत्री-वर्तमान युग जो अपने पास कोई पम्पत्ति नहीं रग्वता । उसमें नीची की सबसे बड़ी समस्या विशवलिन व्यक्तित्व है । हम भूमिका श्रावक का है जो परिग्रह की स्वेच्छापूर्वक मर्यादा मांचतं कुछ है, कहत कुछ है और करत कुछ । मन में करता चला जाता है और विषमता में समता की ओर बढ़ता भी एक प्रकार का द्वन्द्व चलता रहता है । एक विचार है। श्रावक व्रतों में पांचवा वत 'परिग्रह परिमाण' है कछ करने को कहता है और दसरा कुछ । इस प्रकार जब और छटा या परिमाण । पहले में धन सम्पत्ति धादि व्याक्तित्व में काई शृंखला नहीं रहती तो वह शक्तिहीन संग्राह्य वस्तु को मर्यादा की जाती है और दूसरे में होता चला जाता है। प्रशांति बढ़ जाता है और हम व्ययमाय नया रोग । नत्र की है। प्रांतरिक प्राघात-प्रत्याधाता के कारण व्याकुल रहने लगते इस प्रकार हम देखते हैं कि जन-धर्म प्रत्येक क्षेत्र में है। शपियर के प्रमिट नाटक हेमलेट' और भगवद्- 'विश्वमैत्री' के लक्ष्य को लेकर चलता है। धर्म, दर्शन गीता में इसी अन्त' का चित्रण मिलता है। राजकुमार माधना. दैनिक कृत्य आदि सभी में उसकी झलक मिलती देमलेट तथा अर्जुन वार होने पर भी अंनद के कारण है। विश्वमैत्री का यह प्रादर्श ज्यों-ज्यों जीवन में उतरता कायर हो गये । जन-धर्म का कथन है कि मन, वाणी और है माधक ऊँचा उठता मला जाता है। अग्निम भूमिका कर्म में एक सूत्रता होनी चाहिये इसी को चारित्र कहा गया वीतराग की है जहां भेदबुद्वि मशा समाप्त हो जाती है। इसरी भोर मन के सामने एक उच्च लक्ष्य रहना है। न किसी के प्रति राग रहता है और न वैष । न कोई चाहिए। उसके प्रति निष्ठा होनी चाहिए । इसी का अपना होता है और न पराया । जब तक शरीर रहता है नाम सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र का सभी के कल्याण के लिये प्रयत्न चलता रहता है। इमीको ज्यों-ज्या विकास होगा जीवन में एक मृत्रता प्राती जायगी अरिहंत अवस्था कहने हैं जो जीवन की सर्वोच्च अवस्था है। (जैन प्रकाश से) Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म ही मंगल मय है ( अशोक कुमार जैन ) धम्मो मंगल मुक्कि पहिमा पंजमो तवा । शक्ति को मरोर देती है जिससे जीवात्मा अपने उदार कार्य देवा वि तं नमसंति जम्म धम्मे पयामणो । में असमर्थ बन जाता है। इसी में संयम में प्रवृत होना धर्म जीवनका मूलाधार है. शान्ति का प्रतीक है. समता. परता है, तब कहीं उस की अमंयम से रक्षा हो पाती है। का परिणाम है-जिम में राग-द्वंप-मोह श्रादि विकागे प्राचार्य कुन्दकन्द ने चारित्र को ही धर्म बतलाया है। का लेश नहीं है। धर्म वह अनुगामन हैं जो अन्तरालमा 'चारित्रं बल धम्मा' वह धर्म समता रूप है, और ममता को कवल म्पर्श ही नहीं करता प्रत्युत उसे अनुप्राणित भी मोह-क्षोभ के प्रभाव में होती है । जब चारमा रागद्वे पादि से करता है। प्रमण्व धर्म उत्कृष्ट मंगल पाप का विनाशक अपने निर्मल चैतन्य म्वभाव में रहता है, तभी का वाम्तहै। धर्म का वह मंगलरूप अहिमा संयम और नप द्वारा विक धर्म को पाता है। ऐसे धर्म का अनुष्ठान जिन्होंने प्रकट होता है। वही प्रामा की स्वतंत्रता का प्रतीक है। किया है उन्हें ही वास्तविक सुख प्राप्त होता है । नव ग्रामा धर्म का यथार्थरूप में प्राचरणा करता है लय उसे धर्म कसा भी दवहो जाता है और अधर्म से दव जीवन प्रदायिनी शान्ति प्राप्त होती है। मामा में राग, भी कसा बन जाना। धर्म है। जावका रक्षक है, उस से दंप. मोह, काम, क्रोध आदि विभाव जितनी जितनी मात्रा हादग्व दर होत है : भागन्तुक विपदानों से धर्म ही जीव में कम होने जान है उनी उननी मात्रा में ही जीवन में को बचाना मागे लोग धर्म की शरण में जाते हैं। धामिकता एव समता प्रकट होनी रहती है। धर्म ही उन्हें विपदाश्राम उम का उद्धार करता है। धर्मअहिया पयम और नपका आधार शिला है। हम क मय परिणति सही अर्थान धर्मका निदोष प्राचरय करने से बिना उनमें प्राण नही रहना । हिया जहां जीवन प्रदायिनी ही कम रूपी ग्रन्यि म्बुलना है। कपाय की शक्ति का रस शक्ति है । वहा श्रा-कल्याण की कमांटी भी है। हिया मूखता है। श्राम-बल में वृद्धि होती है। निर्दोष व्यक्ति को चोट पहुँचानी है, भय, दुर्बलता, हूँ प. व धर्म जीवमात्र का कारण बन्धु है । मंमार के समी निष्टरता को जन्म देती है । उमसे जावन प्रशान्त श्रीर दुखी जीव धर्म मम्बा दख जात है, और पाप में दुग्यो । धर्म बना रहता है। किन्न हिमा दुलो प्रति न्याय का मनार में मांसारिक मख और माता परिणति रूप भोग मामग्री करती हर जीवन को मरम और कार्यक्षम बनाती है, और मल बर-बर चक्रवती, बलभद्र और तीथंकरादि हिमा जीवन को कठोर, निर्दयी नया अन्याय को प्रोन जन उच्चकाटि क पद मिलते हैं। धर्म से शत्र भी मित्र बन देता है । इसी में बह गहित एवं न्याज्य है। जान है और पाप में मित्र भी शत्र हो जाने है। और अहिपक भावना की प्रेरक शक्ति संगम है । संयम धर्म से ही कठो माधना द्वारा जीव मुक्ति प्राप्त करना है। म्वभावगत दुर्बलतानों के प्रति कोई रियायत नहीं प्रदान जिसने अपने धर्म की रक्षा की, उसी ने पब की रक्षा की। करती । किन्तु प्रामीय दुर्बलताओं का दमन करने या जो अधर्मी है-पापी है, उसकी कोई दया नहीं करता । श्रतः नियंत्रण करने के साथ-साथ उसमें जीवमात्र के प्रति दया, ऐसे उत्कृष्ट मंगल मय धर्म का हमें मदेव भाचरगा करते न्याय और प्रेमका प्राग्रह निहित है। पारम-विकास में बाधक रहना चाहिये। और उस की प्राप्ति के लिये सदाकाल प्रयत्न दुर्बलताएं हैं, जिन्हें नीरम या शक्ति हीन बनाने के लिये करते रहना चाहिये । इस नोक परलोक में धर्म ही हमारा हमें इच्छाओं का निरोध करना प्रावश्यक है। क्योंकि प्रकारण बन्धु है-क्षक है। हमें उमी की शरया में जाना इच्छाएं मोह के मदभाव में उदित होती है। और वे जीवकी चाहिये। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तेरहवी-चादहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य ( डा० श्यामशंकर दीक्षित, एम० ए०, पी० एच० डी० ) संस्कृत महाकाव्य के उद्भव काल के सम्बन्ध में कोई निश्चित विचार प्रकट नहीं किया जा सकता । भारतीय परम्परा के अनुसार बाल्मीकि संस्कृत के प्रथम कवि और उनकी कृति 'रामायण' संस्कृत महाकाव्य की प्रथम रचना मानी जाती है, किन्तु इस के रचना-काल के सम्बन्ध में विद्वानों नहीं है। महाभारत का रचनाना-काल भी असंदिग्ध रूप से निश्चत नहीं किया जा सका है | परन्तु इतना सभी विद्वान स्वाकार करते हैं कि इन काव्यों की रचना सन ईस्वी से पूर्व हो चुकी थी और "सन् ईस्वी की प्रथम शताब्दी तक निश्चित रूप से संस्कृत की काव्य शैली निम्बर चुकी थी, काव्य-सम्बन्धी रूतियों बन चुकी थीं और कथानक में भी मोहक गुण और मादक प्रवृत्ति ले आने से सम्बन्धित काव्यगत अभिप्राय प्रतिष्ठित हो चुके ये वो कृत 'चरित' और 'मदन पाणिनि कृत 'जामवन्ती विजय' अब तक प्रकाश में आ गये थे, जिनमें उपर्युक्त सभी गुणों का समावेश था। जैन संस्कृत महाकाव्यों का उदय भी इसी समय से हुआ है और तब से लेकर अब तक जैन महाकाव्य की धारा अक्षर रूप से प्रवहमान रही। ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी तक जैनों द्वारा प्राकृत को अधिक अपनाये जाने के कारण, इस समय तक जैन संस्कृत महाकाव्यों को गति बहुत मंथर रही है, किन्तु इस समय के बाद उन्होंने गति पकड़ी है ! जैन संस्कृत महाकाय माहित्यका विकास कलिकाल सर्वशसनकोप श्रीमोहनलाल दलीचन्द दमाई कृत 'जैन साहित्यमो हेमचन्द्राचार्य से प्रारम्भ हुआ। ईसा की तेरवीं और चौदहवी शताब्दी में जैनों द्वारा जी विपुल और बहुमूल्य संस्कृत महाकाव्य - साहित्य रचा गया हैं, उसे निश्चय ही प्राचार्य हेमचन्द्र और उनकी कृतियों से प्रेरणा मिली है। आचार्य सर्ग संख्या 8 ८ ने स्वयं त्रिपष्ठिशलाका पुरपचरित्र तथा 'कुमारपाल चरित' नामक महाकाव्य लिखे। कतिपय महाकाव्यों की रचना श्रश्रय दाताओ का प्रेरणा पर हुई है। इन आश्रय दाताओं में (गुजरात) के राम " वस्तुपाल का नाम प्रमुख है। वस्तुपाल स्वयं भी एक श्रेष्ठ कवि था और उसने 'नरनारायणानन्द' नामक महाकाव्य की रचना की है ! कुछ कवियों ने पाण्डित्य काव्य-प्रतिभा और शास्त्र ज्ञान प्रदर्शित करने की भावना से प्रेरित होकर भारवि, माघ और श्रीहर्ष की श्रेणी में स्थान पान की महत्वाकांक्षा मे कृतिमा मिनोग किया है। ऐसे महान्यों में वादग्य' और 'पाण्डित्यं प्रदर्शन' ही प्रधान लक्ष्य रखे गये है, वे जन साधारण के लिए बोधगम्य नहीं। वे हृदय की अपेक्षा बुद्धि की उपज हैं और उसी को अधिक सन्तुष्ट भी करते है। किन्तु इन सबसे अधिक संख्या ऐसे महाकाव्यों की है जिनकी रचना स्वान्तः सुखाय हुई है । इनमें कवियों का मुख्य उद्देश्य अपने आराध्य तीर्थकरों के पावन जीवन का वर्णन करना रहा है । इनमें कहीं-कहीं उन कवियों का धर्म प्रचारक रूप भी सामने या गया है और कहीं-कहीं दार्शनिक पक्ष प्रबल हो गया है। १६ जैन संस्कृत महाकाव्य - साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग अभी तक अप्रकाशित है। प्रोफेसर वरार-नि महाकाव्य १ वसन्तविलास २ मल्लिनाथ चरित्र ३ नरनारायणानन्द १. संस्कृत के महा की परम्परा प्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आलोचना, जुलाई १९२२ । इतिहास, विविध इतिहास ग्रन्थ तथा श्रीश्ररचन्द नाहटा आदि विद्वानों के सहयोग से मुझे अभी तक इस युग के जिन जैन संस्कृत महाकाव्यों का पता लग सका हैं उनकी सूची इस प्रकार है : रचनाकाल ई० १३वीं शताब्दी कवि बालचन्द्रसूरि विनय चन्द्रसूरि वस्तुपाल Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकाव्य ४ कुमारपाल चरित्र ५ वासुपूज्य चरित ६ पार्श्वनाथ चरित ७ श्रं यांसनाथ चरित जगडू चरित * बालभारत ० पद्मानन्द्रमहाकाव्य ११ जयन्त विजय १२ धर्माभ्युदय महाकाव्य १३ अभयकुमार चरित १४ पाण्डव चरित १२ पुरीक परित शालिभद्र १७ मुनिसुचत चरित ८ यशोधर चरित ४६ नलायनम् २० शान्तिनाथ महाकाव्य २१ हम्मीर महाकाव्य २२ श्रोणिक चरित २३ चन्द्रप्रभ चरित २४ पार्श्वनाथ चरित २५ पार्श्वनाथ चरित २६ पार्श्वनाथ चरित २७ शान्तिनाथ चरित २८ शान्तिनाथ चरित २२ मुनिचरित ३० नेमिनाथ चरित चरित ३१ महापुरुष ३२ प्रत्येकबुद्ध चरित ३३ लीलावतीसार काव्य सर्ग संख्या १० ४ ང १४ ७ ८ पर्व ४४ सर्ग 18 १६ १५ १२ १८ मर्ग मर्ग सर्ग १४ सर्ग मर्ग ६ सर्ग स्कंध १०, १६ मर्ग १४ १६ 16 3 10 द १४ ८ १० ५ १७ २१ अनेकान्त ३४ संभवनाथ चरित ३५ सनत्कुमार चरित ३६ विवाहवल्लभ महाकाव्य १४ से अधिक का केवल १४ वां सर्ग श्री अभयजैन मंथालय बीकानेर भी १४वीं शताब्दी का ही होगा) रचना काल सन १३६५ सन् १९४२ सन् १३५५ सन् १२७५ सन् १२८१ ई० १० १३ वीं शताब्दी मन १२४० सन् १२२१ सन् १२९० से १२३३ ई० मध्य सन् ११५५ सन १२१३ सन् १३१५ सन् १२२८ १० १३ वीं शताब्दी उतरा ई० १३ वीं शताब्दी उत्तराद ई० १३ व १४ वी शताब्दी मन १३५३ सन् १२१६ सन १३१८ मन १२५५ सन् १२३४ ० १४वीं शताब्दी सन् १२१६ १० वीं शताब्दी पूर्वा सन् १२६५ सन् १२३७ सन् १२३२ के लगभग ३० १३ वीं शताब्दी मन् १२५४ २०१३ वीं शताब्दी मन् १३५६ सन् १२०५ १४वीं शताब्दी (अनुमान से) में सुरक्षित है। श्री नाहटा जी का कवि जयसिंह सूरि वर्धमान सूरि भावदेव मूरि मानतुरंग सूरि सर्वानन्द सूरि अमरचन्द्र सूरि अमरचन्द्र सूरि अभयदेवसूरि उदयप्रभ सूरि चन्द्र तिलक उपाध्याय मलधारिदेवप्रभ मूरि कमलप्रभ पूर्णभागखि विनयचन्द्र सूरि माणिक्य सूरि माणिक्य सूरि सुनिभद्र सूरि नयन्द्र सूरि जनप्रभसूर १०६ सर्वानन्द सूरि सर्वानन्द मूरि विनयचन्द्र सूरि मालिश्यचन्द्रमूहि मायिक हि मुनिदेव सूरि पद्मप्रभ उदयप्रभ सूरि मेरुतुगाचार्य मोतिक जिनग्न मूरि मेस्तुग जिनपाल उपाध्याय घशात (प्रस्तुत महाकाव्य अनुमान है कि यह ग्रंथ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनेकान्त महाकाव्य . मर्ग संख्या रचना काल कवि ३. धर्मशर्माभ्युदय ई. १३ वीं शताब्दी का प्रारम्भ हरिश्चन्द्र (प्रो. अमृतलाल जी शास्त्री, बनारस सं० विश्वविद्यालय तथा प्रिंसिपल चैनसुग्वदाय न्यायतीर्थ के अनुसार) "३८ मुनिसुव्रत चरित ई. १३ वीं शताब्दी का उत्तराद्ध अहहास ३१ वर्धमान चरित (श्री परमानंद शास्त्री के अनुसार ई. १३ वीं शताब्दी पअनन्दि इंडर भंडार में सुरक्षित है) १. भण्यमार्गोपदेश श्राकाचार जिनदेव ४१ ऋषभदेव महाकाव्य वाग्भट्ट (अनुपलब्ध) ४२ भरतेश्वराभ्युदय पं प्राशाधर (अनुपलब्ध) ४३ राजीमती-विप्रलम्भ , (अनुपलव्य) ४४ चन्द्रप्रभचरित वीरनन्दी यह ध्यान रखने की बात है कि ईसा की १४ वीं शील महाकाव्य माने जाते हैं। महाभारत और रामायण शताब्दी से पूर्व तक सर्गबद्ध काव्य ही महाकाव्य माना में इस मात्रा तक विकास हुआ है कि उनके मूल रूप और जाता रहा है इस समय तक सर्गों की संख्या किसी भी वर्तमान रूप में कोई समानता नहीं रह गई है। हिन्दी श्राचार्य ने निर्धारित नहीं की । सर्व प्रथम विश्वनाथ का प्रसिद्ध महाकाव्य चन्द वरदाई कृत 'पृथ्वीराज रासो' महापात्र ने महाकाव्य के लिए पाठ मर्गों की मंग्य्या को भी इसी लिए विकसनशील महाकाव्यों की कोटि में नियन की। विश्वनाथ का समय ईसा की १४ वीं शताब्दी रखा जाता है । नेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत का पूर्वाद्ध है अतः उनका यह निर्णय पूर्व की कृतियों पर महाकाव्यों में ऐसा कोई भी महाकाव्य नहीं जो कि एक माता पालिस कर हाथ की रचना न हो फलस्वरूप विकम्पनशीलमहाकाव्य कम होने भी की श्रेणी में कोई महाकाव्य नहीं पाता । सभी महाकाव्य कवियों ने उन्हें महाकाव्य कहा है और इन पंक्तियों के अलङकृत महाकाव्य हैं। लेखक ने भी उन्हें महाकाव्य स्वीकार किया है। इन इन महाकाव्यों को छ: भागों में बांटा जा सकता है महाकाव्यों में क्रम संख्या १ से लेकर २२ तक के तथा १. रीतिबद्द महाकाव्य २. शास्त्र काव्य ३. ऐतिहासिक ३. और ३८ क्रम संख्या वाले महाकाव्य प्रकाशित हैं महाकाव्य ४. पौराणिक महाकाव्य ५. रोमेन्टिक महाकाव्य शेष सभी प्रमुद्रित है। ६. पौराणिक रोमेन्टिक महाकाव्य । प्रथम भाग में उन महाकाव्यों की गणना की जा सकती है, जिनकी रचना पाश्चात्य तथा प्राधुनिक भारतीय विद्वान कहाकाव्य भामहः दण्डी और प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा निश्चित के दो भेद करते है :- 1. Epic of growth महाकाव्य-लक्षणों के अनुसार हुई है। इन महाकवियों के 2 Epic of Arts अर्थात् विकसनशील महाकाव्य । समक्ष भारवि, माघ और श्रीहर्ष का श्रादर्श रहा है। ऐसे और अलककृत महाकाव्य । विकासनशील महाकाव्य एक महाकाव्यो को रीतिबद्ध महाकाव्य कहा जा सकता है । व्यक्ति के हाथ की रचना नहीं होते। उनमें एक से अधिक रीतिबद्धता की यह प्रवृत्ति राज्याश्रय और दरबारी वातावरण का योगदान होता है । सैकड़ों वर्षो में, अगणित व्यक्तियों की देन थी, जहाँ प्रत्येक कवि अपने पाण्डित्य-प्रदर्शन, की प्रतिभा और वाणी के योग से उसका विकास होता वाक्चातुर्य, कल्पनातिरेक और अलकृत भाषा के द्वारा है । बाल्मीकिरामायण और महाभारत इसीलिए विकसन- अपने उत्कृष्ट कवित्व की धाक जमाना चाहता था। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य' पालोच्य युग के सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य 'धर्मशर्माभ्युदय' और कार्य में वह कितना सफल हना यह तो एक अलग निबन्ध 'नरनारायणानन्द' में यही प्रवृत्ति पाई जाती है । भारवि और का विषय है, किन्तु इतना तो मीकार करना ही होगा कि माघ की तरह इन महाकाव्यों के रचयिता भी कथाक्रम को भाषा पर उसका असाधारण अधिकार है किन्तु अनुप्रास छोड कर बीच में लगातार पांच छै. सर्गों तक चन्द्रोदय, के अत्यधिक प्राग्रह के कारण वह बहत विखट हो गई वन-विहार, जलक्रीड़ा, पानगोष्ठी तथा प्रकृतिका वर्णन करते है, जिससे उसका काव्य पण्डितों के उपयोग की वस्तु है चले गये हैं और बाद में विखलित कथा सूत्र को पकड़ जनसाधारण के उपयोग के लिए नहीं। कर आगे बढ़े हैं। 'भरनारायणानन्द' में तीसरे मर्ग के वान दूसरे भाग शाम्व-काव्य के अन्तर्गत ऐसे महाकाज्यों कथा सूत्र टूट जाता है और चौथे मर्ग मे नवे पर्ग तक की गणना है, जिनमें काव्य के साथ-साथ व्याकरण के ऋतुवर्णन, रैवतकवर्णन, चन्द्रोदय, मगगन-सुरतवर्णन, प्रयोगों का भी पूरा परिचय पाठकों को दिये जाने का उपक्रम सूर्योदय, वनक्रीडा, दोलान्दोलन और पुषगावचयन का रहता है । महाकाव्य का इस शैली की जनक भट्टि नामक वर्णन है । 'धर्मशर्माभ्युदय' में भी ग्यारहवें मर्ग से लेकर वयाकरण कवि को माना जाता है। उसने 'भट्टिकाव्य' की पन्द्रहवं मर्ग तक ऋतुवर्णन, वनक्रीडा, जलक्रीडा, चन्द्रोदय, रचना की थी। इस काव्य में रामकथा के वर्णन के साथ-साथ मद्यपान तथा पंभोग शृगार का वर्णन किया गया है। व्याकरण और अलंकार के प्रयोग भी बताये गए हैं। बारहवीं दोनों ही महाकाव्यों में कथानक गोंण है, अलङकृत वर्णन शताब्दी में प्राचार्य हेमचन्द्र ने 'कुमारपाल चरित' की तथा चमत्कार की प्रमुखता है । पाण्डित्य प्रदर्शन के द्वारा रचना की इसमें कुमारपाल के जीवन चरित के साथ-साथ पाठकों को चमत्कृत करने के लिए दोनों ही महाकाव्यों का संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश का व्याकरण भी बताया गया परा एक-एक मर्ग चित्र-काव्यों से भरा है। एक-एक है। मालोच्य युग में जिनप्रभमूरिने 'याश्रय' या 'श्रेणिक उदाहरण देग्विण : चरित' महाकाव्य की रचना की जिसमें महावीरस्वामी के कः कि कोककेकाकी किं काकः केकिकोऽककम् । समकालीन राजा _णिक के जीवन चरित्र के साथ-साथ कोकः कककक कैकः कः केकाकाकुककाट्टकम् ॥ संस्कृत व्याकरण के प्रयोगों को बताया गया है । एक -धर्मशर्माभ्युदय सर्ग १६ श्लोक ८२ उदाहरण दग्विएलोलानोलं लुलोलेली लाली लालल्ल लोललः । घोषवन्तोऽप्यघोषाः म्युम्नव प्रतिवादिनः । लोल लोल लुलरुलोलोल्लो लल्ली लाल लोलला॥ जिन्वतावादिनी बिभ्रत्युच्चतामनुनासिकम् ॥ नरनारायणानन्द मर्ग १४, श्लोक २३ यहाँ मगध देश के नागरिकों की विशेषतानों के वर्णन रीतिबद्धशैली का एक अन्य महाकाव्य दिल्ली के बाद के माथ-साथ व्यंजनों की घोष, अघोष और अनुनामिक शाह फीरोज शाह द्वारा प्रमानिन मुनिभद्रमूरि कृत 'शान्ति. मंजा होती है, यह बताया गया है ! नाथ चरित' है। इसमें भी अलकूत शैली द्वारा पागिडल्या ग्रालोच्य युग में जैन कवियों ने अनेक ऐतिहापिक प्रदर्शन करने की प्रवृनि परिलक्षित होती है । महाकाव्य की महाकाव्य लिखे हैं। ऐतिहासिक महाकाव्यों में कथानक प्रशस्ति में कवि ने बड़े गर्व से कहा है, कालिदास, भार्गव, इतिहास में लिया गया होता है और घटना क्रम भी इतिमाघ और श्रीहर्ष में जिन्हें दोष दिग्गई देते हैं। उन्हें हाप सम्मत होता है। शैली रीतिबद्ध ही होती है। कहने हममें गुण ही गुण दिखाई देंगे। संस्कृत के काव्य पञ्चक का प्राशय यह है कि उनमें वस्तु-व्यापार वर्णन, अलस्कृत मिथ्यात्व से अंचित है अतः साहित्याभ्यामियों के लिए उन शैली, प्रकृति-चित्रण, काव्य रूढियों का निर्वाह भादि सभी ग्रन्थों की जगह सम्यक्व-संवासना से युक्त यह महाकाव्य गुण होते हैं । कथानक में ऐतिहासिक जीवन वृत्त के साथपढाया जा सकता है।" कवि के इस कथन से स्पष्ट है कि साथ कभी-कभी काल्पनिक घटनाओं का उपयोग भी कवि उसके सामने संस्कृत के पंच महाकाव्यों के सभी गुणों से स्वतन्त्रता पूर्वक करता है । नयचन्द्र मूरिकृत 'हम्भीर महायुक्त एक जैन महाकाव्य बनाने की योजना रही थी। इस काव्य' इस युग का सर्वश्रंप ऐतिहामिक महाकाव्य है Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जिसमें रामपुर के चौहान राजा हम्मीर के शीर्यपूर्ण कार्य शरणागत-रक्षा और अलाउद्दीन खिलओ के साथ युद्ध का वर्णन है। साहित्यिक दृष्टि से भी यह एक महत्त्वपूर्ण कृति हैया का दूसरा ऐतिहासिक महाकाव्य जयसिंह सूरिकृत 'कुमारपाल चरित्र' है | गुजरात के चालुक्य नरेश जयसिंह मिराज और कुमारपाल का जीवनवृत्त जानने के लिए यह काव्य बड़ा उपयोगी है । सन् १२८१ में सर्वानन्द सूरी ने 'जगडूचरित' लिखकर जगहूशाह की कार्ति को अमर कर दिया, जिसने अपने गुरु के मुम्ब से आने वाले अकाल की बात जानकर प्रचुर अन्न का संग्रह किया और सन् १२५६-५८ ई० के गुजरात के भीषण दुर्भिक्ष में अन्न कष्ट से मरते हुए प्राणियों को दान द्वारा बचाया था। महाकाव्य में इस त्रिवर्षीय अकाल का सुन्दर वर्णन हुआ है | बालवन्द्र सूरि कृत 'वसन्तविलाम' में गुर्जरेश मृजराज से लेकर वीरधवल तक के राजाओं का ऐतिहासिक वृतान्त है और वस्तुपाला का मंत्री होना, भृगुकच्छ के शंख के साथ वस्तुपाल के युद्ध का तथा शंख की पराजय का वर्णन है । इसके बाद वस्तुपाल की यात्राओं के वर्शन से लेकर उसकी मृत्यु तक का वर्णन है। इस महाकाव्य में भी गुजरात के इतिहास की महत्व पूर्ण सामग्री सुरक्षित है। वस्तुपाल की यात्राओं से सम्बन्धित दूसरा ऐतिहासिक महाकाव्य 'धर्माभ्युदय महाकाव्य' है जिसके प्रथम और अन्तिम वर्गो में ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त है। इन सगों में वस्तुपाल, उनके गुरु तथा अन्य जैनाचार्यो से सम्बन्धित ऐतिहासिक वृतान्त है । अनेकान्त 7 जिनका उद्देश्य उपदेश देना या किसी मत विशेष का प्रचार करना होता है । अमरचन्द्र सूरि कृत 'बालभारत' और माणिक्य सूरि कृत 'नलायन' या 'कुबेर पुराण' पौराणिक महाकाव्य के अन्तर्गत प्राते हैं ! पुराणों की भांति ये महाकाम्य भी पत्रों और मर्गों में विभक्त है। 'बालभारत की कथा का संक्षेप में वर्णन किया गया है और 'नलायन' में नल-दमयन्ती का प्रसिद्ध कथा है। देवप्रभसूरि का 'पाचरित्र' भी पौराणिक शैली का महाकाव्य है । अधिकतर देखा जाता है कि पौराणिक महाकाव्यों का लक्ष्य केवल कथा कहना होता है अतः उनकी शैली में कवित्व कला और चमत्कार प्रियता का अभाव होता है, किन्तु ये तीनों महाकाव्य काव्यकला की दृष्टी से भी उच्च कोटि के काव्य हैं। ! इस युग में कुछ ऐसे भी महाकाव्य हैं जिन्हें पौराणिक महाकाव्य कहा जा सकता है। इन महाकाव्यों की शैली पुराणों से बहुत प्रभावित है ! पुराणों में प्रायः देखा जाता है कि उनमें कथा की अन्विति कम होती है और अवान्तर कवाओं की बहुलता तथा घटनाओं को विविधता रहती है, १. कार्ये निजे क्रियत एत्र खरोऽपि वप्ता २. प्रथमं दश्यते तैलं तैलधराय दृश्यते ३. सर्वोऽपि परस्याले स्थूलं पश्यति मोदकम् ४. वक्रं नाजनि रोमपि २. तालिका ने हस्तिका ६. गगने रोपिता झालोय युग में रोमेन्टिक शैली का प्रतिनिधि काव्य 'अभयकुमार चरित' है। इस महाकाव्य के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक अभयकुमार ऐसे-ऐसे अद्भुत कार्य करता है कि पाठक को दांतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। ऐसा कोई भी दुष्कर कार्य नहीं जिसे वह सम्पन्न नहीं कर सकता । महाकाव्य की कथा बड़ी जटिल, पेचीली और भ्रम्न व्यस्त है जिसे याद रखना कठिन है । प्रबन्ध भी शिथिल है। कवि ने जगह-जगह नई कथाएँ आरम्भ कर दी हैं, जिनका सम्बन्ध बाद में बड़ी कठिनता से जुड़ता है। किन्तु अभय कुमार के माहसिक कार्य तर का पता लगाना, वासवदत्ता का संगीत शिक्षा के लिए उदयन को चतुरता से लाना आदि अद्भुत कार्यो से इस महाकाव्य का रोमेन्टिक गुण बढ़ गया है, जो पाठकों के कौतूहल को बढ़ाने वाला है। मुहावरों और लोकोक्तियों का इस काव्य में भरमार है ये कालीन समाज में प्रचलित मुहावरे और लोकोक्तियों हैं जिनका प्रयोग आज भी हिन्दी में होता है । कुछ जोकोक्तियों व मुहावरे देखिए । अपने काम के लिए गधे को बाप बनाना पड़ता है । तेल देखों, तेल की धार देखो। दूसरे के थाल का लड्डू, हमेशा बड़ा दीखता है। बाल टेढ़ा न कर पाना एक हाथ से ताली नहीं बजती आकाश पर चढ़ना Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य ' इसी प्रकार अनेक मुहावरे और लोकोक्तियों उद्धत की जाती है। संस्कृत साहित्य तो बहुत विशाल है उसकी बात तो मैं नहीं करता, किन्तु उसके जितने अंश से मेरा परिचय है उसमें कहीं भी मुझे एले जीवित, मुहावरे दार भाषा के दर्शन नही हुए जैसी 'अभयकुमार चरित' में पाई जाती है। 1 धन्य शेष महाकाव्यों में पौराणिक और रोमन्टिक दोनों शैलियां मिलत हैं । विनयचन्द्रसूरि कृत 'मल्लिनाथ चरित' वर्धमानमूरि-कृत 'वासुपूज्यचरित' भावदेवसूरि कृत 'पार्श्वनाथ चरित', मानुतु गसूरि कृत 'श्र यांसनाथचरित' श्रमचद्रसूरि कृत 'पद्मानन्द महाकाव्य' कमलप्रभ कृत 'पुण्डरीक चरित' आदि सभा चरित काव्य है जिन्हें पौरा शिक-रोमन्टिक महाकाव्य कहना अधिक उपयुक्त है । इन महाकाव्यों के अतिरिक्त शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, यशोधर, मन कुमार, नेमिनाथ, संभवनाथ, मुनिसुव्रत, चद्रप्रभ, कुमार, शालिभद्र आदि के चरित्रों को लेकर अनेक महाकाव्य लिखे गये, जिनका उल्लेख ऊपर तालिका में किया जा चुका है | सामान्य कर से इनमें महाकाव्य क सभा लक्षणों का समावेश मिलता है किन्तु इनमें भाषा-शैली की उदारता और चमत्कार प्रियता अपेक्षाकृत कम है। इन पौरा शिक- रोमेस्टिक चरित काव्यों का मूल उद्देश्य तीर्थकरों के चरित्र का गान करना और धर्मभावना का प्रसार करना है माणिक्यदेवसूरि कृत 'यशोधरचरित' की रचना नवरात्रों में पाठ करने के लिए की गई है। इसका पाठ करने से पुत्र की उत्पत्ति होती है जाने इन शब्दों में कहा है- 1 ईद जातिस्मृतिकरं पटयंत नवरात्रेषु प्रयतैः परम्। पुत्र काम्यया ॥ मर्ग १, श्लोक ७. कभी-कभी इन पौराणिक रोमेन्टिक महाकाव्यों के रचयिताओं में भी अपने विविध ज्ञान को प्रदर्शित करने की इच्छा जाग पडी है और उन्होंने कथा प्रवाह की चिन्ता किये बिना ही अपना पाण्डित्य प्रदर्शन किया है। भावदेव सूरि-कृत पार्श्वनाथ चरित' के सप्तम सर्ग में कवि ने अपने वैद्यक ज्ञान का विस्तृत परिचय दिया है। इसी सगं में, लगभग ४० श्लोकों में मादिक ज्ञान का परिचय भी दिया गया है। ११३ द्वितीय सर्ग में कवि एक ज्योतिषी की भांति स्वप्नों के फन का विस्तृत वर्णन करने में लग गया है। इसी सर्ग में श्रागे शकुन और अपशकुनों की विस्तृत सूची प्रस्तुत की गई है। 'मल्लिनाथ चरित' में विनयचन्द्र सूरि का दार्शनिक ज्ञान मुखरित हो उठा है और उन्होंने सप्ततस्त्रों के निरूपण, सम्यकत्व और पञ्चावत सन्बन्धी विस्तृत विवरण दिये हैं। इनके अतिरिक्त अपने ज्योतिष ज्ञान का परिचय देते हुए उन्होंने 'होराज्ञान तत्वार्थ', 'मी प्रवर्धक लग्न' यदि के लम्बे, उबा देने वाले विवरण प्रस्तुत किये हैं । कमलप्रभ-कृत 'पुण्डरीक चरित' में प्राकृत के शास्त्रीय व तरणों को स्थल-स्थल पर उत त किया गया है और बांचबीच में 'वाद', 'समय', 'नस्य' किवटुना तथा रोक उवाच' आदि का प्रयोग है। विनयचन्द्र कृत 'मुनिसुमन चरित' के छटे मर्ग में मृतिशास्त्र के विधान का है जिससे कवि की शिवशास्त्र बन्दी विद्वत्ता प्रकट होती है। इस काव्य में दो एक जगह गद्य का भी प्रयोग है (देखिए सर्ग ७, श्लोक २८६ के बाद) । कहने का आशय यह है कि इन पौराणिक रोमेन्टिक महाकाव्यों में भी कवियों ने अपने विविध ज्ञान का परिचय दिया है, किन्तु कतिपय अपवादों को छोड़कर, उनकी भाषा सरहा रही है और मुहावरों का प्रयोग भी किया गया है । इन काव्यों में जिनोपत्ति, समवसरण, देशना, निर्वाण आदि के विस्तृत वर्णन मिलते हैं। अन्य धर्मावलम्बियों और जैन विद्वानों के शास्त्रार्थ का भी वर्णन हुआ है। यहाँ उनका उद्देश्य अन्य धर्मों पर जनधर्म की विजय दिखाना और जनधर्म का मित्र करना रहा है। इन पौराणिक - रोमेन्टिक महाकाव्यों में अनेक भ्राश्चर्यजनक कार्यों का और प्रति प्राकृत तत्वों का वर्णन है। इनका कथानक भी अपेक्षाकृत जटिल और असन्तुलित है, क्योंकि बीच-बीच में अनेक अवान्तर श्री प्रासङ्गिक कथाएँ, थाती रहती है। इनमें भूत-प्रेतों का आगमन, जादू-टोना, तन्त्र-मंत्र, पशु-पक्षियों की बातें, शाप, वरदान शकुन श्रशकुन आदि में विश्वास आदि अलौकिक और अप्राकृत बातों का वर्णन है, किन्तु इनका कथानक पूर्णतया पौराणिक है और इनका उद्देश्य महत है तथा इन सभी का पर्यवपान वैराग्य और शान्त रस में हुआ है। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ अनेकान्त इस प्रकार ईसा की तेरहवीं-चौहवी शताब्दी में जैनों उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता । चरितात्मक ने संस्कृत महाकाव्य-साहित्य की जो देन दी है वह परिमाण महाकाव्यों की भी अपनी अलग महत्ता है। यह ठीक है में ही नहीं, गुणों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है । उपमें कि इन महाकाव्यों में 'धर्मशर्माभ्यदय', 'नग्नारायणानन्द' भाषा-शली गत विभिन्नता उपलब्ध होती है। एक अोर पदमानन्द' 'बालभारत' श्रादि काव्यों जेसी साज-सजा, उसने 'धर्मशर्माभ्युदय' और 'नरनारायणानन्द' जैसे कॉट-छांट और चमक-दमक नहीं है, यह भी ठीक है कि शास्त्रीय रीतिबद्ध काव्य प्रदान किए हैं जिनका मूल्य प्रालो- इनमें प्रयत्नमाध्य अलंकार कृत्रिम भाषा, उक्तिचित्य आदि चना के किसी भी मानदण्ड से भार्गव के 'किरातार्जुनीय' गण नहीं है, फिर भी उनमें पौन्दर्य है, वैसा ही महज और माघ के 'शिशुपालवध' से कम नहीं है, तो दूसरी ओर मौन्दर्य जैमा किमी अनगढ़ जंगल का होता है, उपवन का 'बालभारत' और 'पदमानन्द' जैसे रस मग्न करने वाले प्रवन्न साध्य सौन्दर्य नहीं। उनका यह सौन्दर्य उनकी महाकाव्य दिए हैं। गजरात के इतिहास को सुरक्षित रखने मादगी, सरलता और अनलङ्कति में हैं और इसी के कारण में जो योग इस युग के ऐतिहासिक महाकाव्यों का है उसे उनका स्थाई महत्त्व हैं । जैन दर्शन और पातञ्जल योगदर्शन साध्वी श्री संघमित्राजी दर्शन केवल चिन्तन नहीं, साक्षात्कार है। साक्षात योगशब्द पर विचार श्रामगम्य होता है और इन्द्रिय गम्य भी । प्राप्मा में योगशब्द युज धातु से व्युत्पन्न है । युज धातु की मुल होने वाला साक्षात्कार प्रग्यवहित और अत्यन्त म्पष्ट होना प्रकृति द्वयर्थक है युजिर 'योगे' और युजड़च 'समाधी' । है । वह परमार्थ प्रत्यक्ष कहलाता है । इन्द्रियों के माध्यम व्याम भाप्य में समाध्यर्थक युज धातु का संकेत है । हरिभद्र से होने वाला साक्षात् प्यवहित होता है अतः वह अम्पष्ट ने योगार्थकर युज धातु को ग्रहण किया है । दोनों दर्शनों रहता है और व्यवहार प्रत्यक्ष कहलाता है। जिनका साक्षात में योग शबद की प्रावृत्ति सम हात हुए भी प्रकृति भिम है। जितना अधिक प्रारमा के निकट होता है, मन्य को वह योगशब्द के अर्थ पर विचार उतना ही अकि पकड़ पाता है। महर्षि पनजलि के अनुसार योग समाधि है। यह एक बिन्दु पर केन्द्रित दो मनुष्यों की दृष्टि एक ही सर्वोत्तम समाधान है। यह समाधान शरीर का नहीं है, रूप को देखती है, पर एक ही परमार्थ के साक्षात्कार में इन्द्रियों का नहीं हैं, किन्तु मन का समाधान है २ । ३, जहां ऋषियों के दर्शन ने विभिन्न रूप क्यों लिए । इस का मानसिक वृत्तियों का पूर्ण समाधान हो जाता है, शेष संस्कार स्पष्ट समाधान है कि सबके साक्षात् का माध्यम प्राम-गम्य भी विदग्ध हो जाते हैं, वहीं योग की पूर्ण प्राप्ति है। ही नहीं रहा। महर्षि चार्वाक का प्रत्यक्ष इन्द्रिय गम्य था। जैन दर्शन में योगका अर्थ है-जोडना । यह दो भिन्न तत्वों कुछ महर्षियों का साक्षात् श्रामगम्य होते हुए भी अधूरा था। को मंयोजित करता है । अध्यात्म क्षेत्र में योगवह है जो प्रात्मा इस अधपन और साक्षात्कार के माध्यम भिन्न-भिन्न थे को मोन से जोड़ता है। इस दृष्टि से धर्म के सभी व्यापार योग अतः दर्शन की धाराएं भी विभक्त हो गई। ही हैं ४ । निश्चय दृष्टि से योग 'ज्ञान दर्शन चारित्र' है। भारत में अनेक दर्शन पनपे । उनमें पातम्जल योग १-योग वि० श्लो०१ दर्शन भी एक है, जो महर्षि पतञ्जलि का प्रत्यक्ष है। २-न्यास भा० १ जैन दृष्टि से पातम्जलयोग दर्शन का अध्ययन करना प्रस्तुत ३-व्यास भा० १ पृ. ५ निबन्ध का अभिप्रेत है। ४-योग वि० श्लोक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और पाताल योगदर्शन ११५ उनकी उपलब्धि का प्रकृष्टतम माध्यम व्यवहार योग है। अहंकार और षोडशगण पैदा होते हैं। प्रकृति ही बन्धन योग का स्वरूप मित्त-वृत्तियों का निरोध है। चित्त- को प्राप्त होती है और यहीं मुक्त होती है। पुरुष में बन्ध वनियों का निरोध जहां में प्रारम्भ होता है. योग का अंकुर और मोक्ष की कल्पना उपचार मात्र है। वहीं में फूटता है । चिन की पांच भूमिका है-क्षिप्त, पुरुप प्रकता है. निगुणा है, भोक्ता है, अपरिणामी मृढ, विक्षिप्त, एकाग्र, निमद्ध। क्षिप्तावस्था रजोगुण प्रधान है। न उसके बन्धन होता है और न वह मुक्त होता है। है । इसमें चित्त विषयों में प्रामक्त बना रहता है मुढा- प्रकृति और पुरुष के बीच में बुद्धि है। बुद्धि उभय वस्था तमोगुण प्रधान है। इस अवस्था में चित्त मोह से मुम्ब दर्पयाकार है। उसमें एक और पुरुष का प्रतिबिम्ब प्रभावित रहता है। काम, क्रोध, लोभ उभरे हए रहते हैं। पढ़ता है। दूसरी और बाह्य जगत का । पुरुष के प्रतिबिम्ब विक्षिप्त अवस्था में चिन चल रहता।कान अवस्था से बुद्धि अपने में चेतना का अनुभव करती है। बुद्धि प्रतिमें चिन की वनियां का प्रवाह किर्म। एक विषय पर केन्द्रित बिम्बित मुख-दुम्ब का प्राभाय पुरुष का होता है, यही पुरुष हो जाना है। निगढ़ अवस्था समग्र प्रतानियों में शून्य है। का भोग है । पर यर्थाथ में पुरुष में कोई परिवर्तन नहीं जैन दर्शन में इन चिन भूमकानी की प्रतिरछाया हाता। प्रकृतिम अपने किमी भी प्रयोजन की गणना न करती यत्र-तत्र प्रतिरदायित। मुनि की भिक्षा-विधि के विवेचन हुई पुरुष के भोग और अपवर्ग के लिए प्रवृत्त होती है। में बताया गया है:-बन्याक्षिप्त चिन में मनि गोचरी प्रकृति पुरुष का मंयोग प्रकृति पुरुष के स्वरूप की उपलकरे। अव्याक्षिप्त ३शब्द में क्षिप्न और विक्षिप्त दोनों भूमि- ब्धि के लिए ही होती है। जब पुरुष अपने म्वरूप में काओं का पकत है। प्रनिष्ठिन हो जाता है, तब प्रकृति भी निवृत्त हो जाती है। अज्ञानियों के स्वरूप की व्याख्या देते हुए कहा गया दृष्टा पुरुष है और रश्य जब प्रकृति है। लक्ष्य प्राप्ति में है-४ मोह में जो पावन है, वे मृट है- अज्ञानी है । इम दोनों का अन्धे लंगर का मा प्रयोग है। प्रतिपादन में मृढावस्था का प्रतिबिम्ब है। पानम्जल योग दर्शन की यह मान्यता जैन दर्शन में ध्यान के विश्लेषण में प्राया है- ध्यान वह है, जहां मामा और कर्म के माथ मटित होती है। जैन दर्शन के एकाग्र-चिन्तन होता है अथवा योगों का निरोध होना है। अनुसार प्रान्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। कम ध्यान की व्याख्या में योग-दर्शन की एकान और निमन्द विमान Mata चित्त-भूमिका अभिव्यजित हो रही है। और स्वतन्त्र मामा के कभी कर्म का बन्धन नहीं होना । मांथ्य दर्शन में प्रकृति और पुरुष का अनादि सम्बन्ध कर्म महिन प्रान्मा ही कर्म का मर्जन करती है। उसक ही है। मत्त्व, रजम , तम इन तीनों की माम्यावस्था ५ का बनता । जैन दर्शन मानता. बर्मalal नाम प्रकृति है। के कंध समग्र लोक में फैल हुए हैं और वे वहां भी है प्रकृति की यह माम्यवस्था की रश्य नहीं बनती। जो जहां मुक्त प्रमाणे निवास करती है। वहां उनके कभी दृश्य है, वह इनकी विकृत अवस्था है। बन्धन नहीं होता । इम, मान्यता के आधार पर यह प्रकृति निग्य है, जब है, कर्मों की कर्ता है, परिणामी प्रमाणित होता है कि किमी अपेक्षा कर्म के ही कर्म का है। मंमार की मृष्टि का मूल प्रकृति है । इसमे बुद्धि, बन्धन होता है। कर्म ही प्रकृति की तरह कर्म का मजन करता है । जिसके बन्धन होता है, वहीं मुक्त होता है। 1-पा.यो. द. सू०२ दुःश्व क्या है ? दुःस्व का नु क्या है ? दुःख का प्रभाव २-यास. भा.१,पू०१ २-६०भ०५.१ली . २ -पा.यो. प्रदीप पृ.३२. ४-मा. श७४ -पा.यो.द. मा. मू. २१ ५-हरिभद्र मूरि कृत-षड्-दर्शन रखोक ३६ -पा० यो० द. मा. सू. २३ ६-हरिभद्र मूर कृत-पद-दर्शन श्लोक, १.-पड-दर्शन श्लोक ४२ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अनेकान्त क्या है। दुःख निवृति का साधन है ? मानव की सहज उपाय प्रत्यय । योगीजनों की समाधि उपाय प्रत्यय होती जिज्ञासा से भरे हुए ये चार प्रश्न कितने महत्वपूर्ण हैं। है। विदेह और प्रकृति लयों में भवप्रत्यय समाधि होती पतञ्जलि की दृष्टि में इन प्रश्नों का समाधान इस प्रकार से है। असा दृष्टा पुरुष है। दृश्य प्रकृति है। दष्ट और दृश्य विदह व कहलाते हैं - जो योगी प्रानन्दानुगत सम्प्रज्ञात का संयोग ही दुःख है। इस संयोग का कारण अविद्या है ।२ समाधि में चेतन तस्व की स्पष्ट अनुभूति करते हैं। उसीको अविद्या का प्रभाव हो जाने से संयोग का भी प्रभाव३ हो श्राम स्थिति समझकर रुक जाते हैं। इस प्रकार के योगी जाता है। यह हान अवस्था है । यही दृष्टा का केवल्य और शरीर को त्याग कर दिव्यलोक से भी ऊपर बहुत अधिक प्रकृति को मुक्तावस्था है। समय तक कैवल्य जैसे प्रानन्द को भोगते हैं। पुरुष को स्व और प्रकृति के विषय में भेद ज्ञान हो प्रकृनि लय वे कहलाते हैं, जो अस्मितानुगत समाधि जाना विवेकख्याति कहलाती है ।४ यह विवेक ख्याति ही हान में चेतन तत्व की अत्यन्त स्पष्ट अनुभूति करते हैं। उमीका का उपाय है। शामस्थिति समझ लेते हैं। वे शरीर को त्यागने पर इस जैन दर्शन कहता है-श्रामा और कर्म का संयोग ही अवस्था में दिव्यलोक से भी अधिक अवधि तक कैवल्य जैसे यथार्थ में दुःख है। यह संयोग नहीं होता तो दुःख भी अनन्त आनन्द का अनुभव लेते रहते हैं। ये जब पुनः नहीं होता । दुःख के हेतु अनेक है. जिनमें मिथ्या-ज्ञान ही मानवदेह में पाते है, तब उन्हें जन्म से ही श्रमम्प्रज्ञात सबसे पहला है। यही संसार की जड़ है। जड के टूट जाती। जाने से दुःख का वृक्ष भी शिथिल हो जाना है। दुःख का प्रभाव मुक्ति है । दुःख निवृत्ति के चार मार्ग जैन दर्शन में भी कुछ इसी प्रकार के रहस्य उदघटित हैं-इनमें ज्ञान का स्थान पहला है। यही पतञ्जलि की। हैं-लव सप्तम देव उपशान्त कषाय वाले होते हैं। योगी विवेक-व्याति है। उपयुक्त चार प्रश्नों को चतुव्यूह कहा ध्यान में कर्मों का क्षय करते हए चलने है । जब सप्त लव गया है। इस चतुम्यूह के समाधान में जैन-दर्शन और । जितने कर्म शेष रह जाते हैं, तब आयु टूट जाता है। यदि पातञ्जल योग दर्शन में विशेष निकटता है। इतना सा लम्बा प्रायु होता तो समग्र कर्मो का क्षय कर मुक्त हो जाता पर ऐसा न होने पर वे अनुत्तर विमान में अविद्या की व्याख्या करते हुए पतञ्जलि ने कहा जाते है और वे अन्य सब दवों में बहुत अधिक समय तक अनित्य ५ को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को मुम्ब और उपशान्त समाधि का अनुभव करने है। अनात्मतत्व में प्रात्मतत्व ज्ञान को मान लेना ही अविद्या अनेकान्तबाद भगगन महावीर की मालिक देन है। जैन दर्शन का समग्र प्रतिगदन इस पर टिका हुअा है। जैन दर्शन कहना है-प्रतत्व में तस्त्र बुद्धि मिथ्या योग दर्शन में भा अनेकान्त दृष्टि के प्रतिबिम्ब मिलते हैं। ज्ञान है ६ । सामान्यतः यह मिथ्याज्ञान और अविद्या की बुद्धि और पुरुष ६ के मरूप और विरूप पर विवेचन करते परिभाषा भी किननी सुन्दर और समकक्ष बनी है। हुए योग दर्शन में लिखा है-बुद्धि त्रिगुणात्मिकता है। समाधि के प्रकारों का विश्लेषण करते हुए पतञ्जलि त्रिगुण प्रकृति के धर्म हैं । प्रकृति अचेतन है । बुद्धि प्रचेतन कहते हैं -समाधि दो प्रकार की होती है-भव प्रत्यय और प्रकृति से उत्पन्न है । पुरुष गुणों का दष्टा है। वह त्रिगु५-पा० यो०६० सा० सू० २३ णात्मक नहीं है; अतः प्रकृति पुरुष सरूप नहीं है । पर २-पा० यो० द. सा. सू. २४ प्रत्यन्त विरूप भी नहीं है, क्योंकि बुद्धिज प्रतीतियों को ३-पा० यो० द० सा० सू० २५ ४-पा० यो० द. सा. सू. २६ .-पा. यो. द. ११९६ । ५-पा. द. सा. मृ.। ८-पा.यो. प्रदीप १८७ ६-० सि.दी. ७३ । ६-पा० यो० द. भा० पृ० ११२ । है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंदिरों का नगर-मड़ई नीरज जैन सतना (म० प्र०) सतना जिला पुरानव की दृष्टि से भारत वर्ष का एक पूर्ण स्थान होते हुए भी इस स्थान को पुरानत्व के किसी अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है, ईसा पूर्व दुसरा शती का भी विद्वान द्वारा अभी तक प्रकाश में नहीं लाया गया । हो भरहुन का बौद्ध स्तूप, दश का सर्वाधिक प्राचीन भुमरा का सकता है कि इस स्थान की दुर्गमता और पथ की दुरूहता शिव मंदिर, गुप्त काल की अनन्य कृति नचना का ही इसका कारण रही हो। चतुमुम्ब शिव पार्वती मदिर तथा इसी काल की गौरव जैन मंदिरों का समूह शव-समूह के उत्तर में स्थित था। शाली कृतियां मारा पहाडकी जैन गुफाएं आदि अनेक उस समूह का मारी ममृद्धि भूगर्भ में विलीन पडी है, कुछ एक-प.क बढ़कर शिल्प-अवशेष इस जिले में आस-पाप जो उपर थी वह नष्ट-भ्रष्ट हो गई या यत्र-तत्र चली गई बिम्बर पड़े है। है, पर अभी तक हम मम टील का सरसरी देख भाल मे मध्य काल में भी इस भुभाग पर अनेक मुन्दर-सुन्दर जो अनुमान हुवा है, उसके अनुसार यहां पर पंचायतन कलाकन्द्रों का निर्माण हया है, जिनमें पतियान दाई, बाबू- शैली के कम-से-कम पांच विशाल, शिखर बन्द जिन मंदिर पुर और मडई का स्थान प्रमुख है। विद्यमान रह है। इन मंदिरों की कला ग्वजुगहों की सममई नी कभी ग्वजुराहो की तरह मंदिरों का ही कालीन और ची ही चैविध्य पूर्ण सज्जा-महिन तथा नगर रहा होगा। ऐसा लगता है कि कालान्तर में भूकम्प मृत्तियों के परिकर सहित मुन्दर तथा अन्यंत प्रचुर मात्रा में आदि के नैविक प्रकोप से इन मंदिरों का विनाश हो गया विराज मान रही है। और उन्होंने टीला का रूप धारण कर लिया। यह स्थान पर्व प्रथम इस टीले को दम्वने पर मुझे जो अनुभूति न जाने कितनी शनादियों नक उजड पडा रहा, अभी सी- हुई उसका वर्णन मभव नहीं है । अचानक पता लगाना इम इंद मौ साल पूर्व यहां एक छोटी मी बम्ती बम गई है। टीले पर पहुंच गया और मैंने यहां पुरातन का कल्पनातीत यहां भी दजुराहो की ही तरह जैन, वणन और शैव वैभव बिम्बरा हुआ पाया । जिम पन्थर को पलटना वही सम्प्रदायों के अलग-अलग मंदिर समूह थे उनमें से केवल एक-न-एक नीर्थकर प्रतिमा निकलनी । हर पत्थर पर पांव जन भग्नावशेपों की चर्चा इस लंम्ब में की जायगी। रग्बन में प्राशंका होती कि ना जाने उमक नाच पद्मावती, यह नगर एक बड़े तालाब के किनार बमा हवा था। चक्रेश्वरी, अम्बिका अथवा कौन से नीर्थकर विराजमान हो। तालाब से लगा हुवा ही पहाड़ है। मध्यकाल में यह पहाड़ रामवन संग्रहालय के लिए मैंने हम टीले की कुल कलचुरियो की त्रिपुरी शाग्वा की राज्य मीमा पर था और सामग्री अभी कुछ समय पूर्व संकलित की है। इनमें अधिमडई का तालाब तथा मंदिर ममृह चन्दल राजाओं की कांश नो पद्मासन और बड़गामन तीर्थकर प्रतिमाएं ही कलाकृति थे, इस प्रकार यह स्थान मध्य कालीन मूनि कला है, पर कुछक बहुन मुन्दर शासन देवी मनियाँ भी प्राप्त का संगम रहा है, यह आश्चर्य की बात है कि इतना महत्व हुई है। इस मामग्री के अतिरिक्त कुछ विशान नीर्थकर शिष पृ० ११६ का] मूर्तियों तथा देवी मूर्तियों और द्वार तारण, देहरी, वेदिका, देखता है, उनको देवता हुआ अनदामक भी तदात्मक की म्तम्भ प्रादि विविध सामग्री वहाँ अभी भी बिग्वरी पड़ी है। तरह प्रतिभामित होता है। यह टीले के ऊपर की कहानी है। टील के नीचे भुगर्भ में इस प्रकार लगता है, दोनों दर्शन अपनो गहराई में जिप कला वैभव के पाये जाने की प्राशा है वह तो निश्चित और भी अनेक दृष्टियों से विचित्र साम्य लिए हए है। ही कल्पनातीत है। अनुमान है, कभी ये दोनों धाराएँ बहुत पार्श्ववर्तिनी रही प्राप्त सामग्री के आधार पर यह पहज अनुमान होना हैं और इन्होंने परस्पर एक दूसरे को अवश्य प्रभावित है कि यहाँ एक फुट श्राकार से लेकर मात-पाठ फुट उंची किया है। तक अनेक प्रतिमाएं थी, नथा याद तीन फुट ऊंची बगा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त बीच में एक पद्मासन तथा दोनों श्रोर बड़गासन तीथकर प्रतिमाएँ अंकित की गई है, जिनकी सीता तथा मनोजना अदभुत है। ११८ सन चौवीसी भी किसी मन्दिर में प्रतिष्ठित रही है। इस पीवीसी की सात-आठ प्रतिमाएँ क्वचित पंडित रूप में मुझे प्राप्त हो गई हैं जिनकी एक रूप रचना-विधि को देखकर चौवीसी की धारणा पुष्ट होती है । शासन देवियों के निर्माण के विशेष रचना कौशल का प्रयोग मध्यकाल की विशेषता रही है और वह यहाँ खूब पाई जाती है । रामवन में लाई गई गक अम्बिका मूर्ति तो साढ़े पाँच फुट ऊँची है। धरणेन्द्र, पद्मावती तथा चक्रेश्वरी और गौमुख यक्ष की कुछ अन्य मूर्तियां भी दर्शनीय हैं । इस संकलन में एक अति तीर्थंकर प्रतिमा भी मुझे प्राप्त हुई है। इस सुन्दर मूर्ति का चित्र इस लेख के साथ दिया जा रहा है। यह मूर्ति नहीं है वरन एक विशाल (लगभग ७ फुट) ऊँत्री पद्मासन प्रतिमा के छत्र का भाग है। इसपर सर्व प्रथम तीन छत्र अंकित हैं, जिनके पार्श्व में कुम्भ लेकर जल धारा दारते हुए दो सुन्दर गजों का अंकन है। इन गजों पर महावत, इन्द्र तथा गजवक्षों का अस्तित्व भी दर्शनीय है । इसके ऊपर स्तम्भों द्वारा कोष्ठक बनाकर आगमों के पाठ-भेद और उनकेमुख्य हेतु उम यह विश्व परिवर्तनशील है। इसमें काल के साथ-साथ सब कुछ बदलता है । केवल आदमी ही नहीं बदलता, के उपकरण भी बदलते हैं। केवल मानस ही नहीं बदलता. शब्द और अर्थ भी बदलते हैं। बदलने का इतिहास बढ़ा विचित्र है। पुराने ग्रंथों के पाठ भी बदल जाते हैं इम प्रसंग में जैन आगमों के परिवर्तन के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा | भाषा-भेद, लिपि-दोष और व्याख्या का मूल में प्रवेश ये पाठ परिवर्तन के मुख्य हेतु रहे हैं। श्राचारांग इस कोष्ठक के ऊपर शिखर की रचना दिखाई गई है। जिसमें बडी बारी की और सुन्दरता के साथ छज्जा, ग्रंग शिखर, चक्र तथा कलश की रचना है। वास्तव में यह कलावशेष मन्दिर का एक प्रतिनिधि अवशेष है इसकी शैली नाला की पृष्ठभूमि में से झांकती हुई विराटना से उन विज्ञान गगनचुम्बी कलात्मक जिनालयों की कल्पना श्रायानी से की जा सकती हैं जो कभी इस स्थान की शोभा रहे होंगे । शोध-टिप्पण |१|८|४|२०६ यह पुण एवं जाणिज्जा उवाहक्कने खलु हेमंते गिम्हे पवने हापरिजुन्नाई स्थाई परिट्ठविज्जा | ११२।५।६० जब तक कोई शिलालेख प्राप्त न हो तब तक निश्चित इतिहास तो कहना संभव नहीं है, पर मंडई का जब पूरी तरह प्रकाश में प्रावेगा तब निश्चित ही 'जैन मुनि कला और मंदिरों, तीर्थो के इतिहास में एक नया अध्याय नही तो नया पृष्ठ अवश्य जोड़ना होगा । मुनिश्री नथमलजी भाषा-भेद श्वेताम्बर आगम महाराष्ट्री प्राकृत में प्राप्त है किन्तु ferrer बाचार्य शौरसेनी में अधिक लिखते रहे है। उन्हों ने श्वेताम्बर आगमों से जो उदरण लिए उनका शौरसेनी में रूपान्तर हो गया । मृलागधना या भगवती श्राराधना की वृत्ति में अपराजित सूरि ने श्वेताम्बर श्रागमों से कुछ उद्धरण लिए हैं उनके तुलनात्मक अध्ययन से पाठ परिवर्तन का पता चल जाएगा- विजयोदया आश्वास ४ श्लोक संख्या ३३३ ग्रहण एवं जाउन उपातिकते हेमंते सुपडि से डिजुन मुत्र पदिट्ठावेज्ज Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध-टिप्पड़ वन्यं पडिगई कंचनं पायछणं उग्गहाणं च कडायणं प्रभुमु पादपंछणं, उग्गहं कडापणं, उन्नदरं उबघि पावेज इति । चा जाणिज्जा, उत्तमध्ययन २३१२६३६ अचलगो य जो धम्मो जो इमो मन्तरत्तो। आचेलक्को य जो धम्मो, जो वायं पुणरुत्तरो। दग्मिनो बदमागेण पासण य महाजमा ॥ देपिदो वदामाणेण. पासण य महप्पणा । पगकज्जपवन्नाणं विसस कि नुकारणं । पगधम्मे पवत्ताणं दुविधा लिंग-कप्पणा । लिंगे दुविहे. मेहावि । कहं विप्पच्चो न ने ॥ दश- उभामि पदिट्ठाण महं समय मागदा । वैकालिक ६६४ नगिणभर वा वि मुडम्म दाहरोमनहमिणां । गग्गणम्म य मुगदुम्म य दीड लोम णग्वम्प य । मेगा उवर्मनम्म कि विभूमाए कारियं ॥ मुहणादो विरत्तम्म कि विभृमा करिम्पदि ॥ लिपि-दोष लिपि क प बदलने रहे हैं। अतः प्रतिलिपि करने पयमेव लंचई केसे, पंचठाहिं समाहियो वालों के गामने पाने की कठिनाई रही है । जिम्बने में भागे चलकर यह इग प्रकार हो गयाप्रमाद भी रहा है । प्रतिलिपिक पब सय विद्वान नहीं मयमेव लुचई मे, पंचमुठीहि ममाहियो थे। इन कई कारणों में प्रतिलिपि-काल में पाठ-परिवर्तन हो गए। उत्तराध्ययन की संस्कृत वित्तयों में शान्त्याचार्य की वृहदत्ति सबसे प्राचीन है। उममें 'पंचठाहि' पाठ माना जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति [ सूत्र ३०, यत्र १३६, गया है- पंचाष्टाभिः- पंचमुष्टिभिः । [पत्र ४१०] पंच१३७] में रायपमेणवइयमे बहना कलाओं का पाठ उद्व न मुष्टिभिः आगे चलकर मृत्ल पाठ बन गया । किया गया है। उममें चौदहवी कला पोरकम्वे' है । वृत्ति श्रीपपानिक [मत्र १६] में 'ठाण ठिहए. पाट' था। कार शांति चन्द्र ने इसका अर्थ शीघ्र कविश्व किया है। वृत्तिकार के अनुसार 'ठाणाइए.' पाठान्तर था । किन्तु उत्तरसमवायांग [समवाय २] श्रीपानिक [मा ४०] और वर्ती वृत्तियों में 'ठाणठिहण' की भांनि 'ठाणाइए' भी मूल गयपर्मणय [कगिडका २१७] की प्राियों में यह पाठ पाठ बन गया। 'पोरेकन्वं' या 'पारकम्ब' बन गया। मूत्रकृतांग 1991 में विज्जा पाठ है। ___जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति [मत्र ३० पत्र 10] समवा उसका अर्थ विधान-कुर्यात किया गया । उत्तरवर्ती यांग [समवाय ..] प्रोपानिक मित्र . ] में ग्बंधावार प्रादों में कुर्यात-कुज्जा मूल पाठ बन गया । [वा बंधार माणं, नगग्माणं-पाठ है । पं० धेचरदामजी द्वारा विपाक [३३ पृष्ठ २९] में 'श्रोमारियाहि' पाठ है। सम्पादित रायपसेणइय [पृष्ठ ३४.] में यह पाठ 'बंधवारं उसकी वृति है 'श्रीमारियाहिनि प्रलम्बिताभिः । भागे माण वार' माण वार बन गया । चलकर पाठ बन गया-'लंबियाहि य प्रोग्य रियाहि । यहां व्याख्या का मूल में प्रवेश कुछेक उदाहरण प्रस्तुन fry गए है। उनके प्राधार पर पाठ-परिवर्तन की स्थिति को समझा जा सकता है। चूर्णि और वृत्ति के साथ प्रागमों का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को ऐसे पचासों उदाहरण प्राप्त होंगे कि चूणि १-जवृद्धीप प्रज्ञप्ति ति, मृत्र ३०, पत्र १३७ या प्राचीन वृत्तियों में जो व्याघ्या-शब्द है, वे उनम्वर्ती पुरः काव्य मिति पुरतः पुरतः काम्यम्-शीघ्रकविमित्यर्थः । वृत्तियों या प्रादर्शों में मूलपाठ बन गए हैं। उत्तराध्ययन २-'ठाण टिहए' तिन म्यान-कायोमर्गः । तेन स्थितिर्यस्य २२।२४ का उत्तरार्ध इस प्रकार था-- म स्थानस्थितिकः, पाठान्तरण ठाणाहपत्ति । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. गजा श्रीपाल उर्फ ईल नेमचन्द डोणगांवकर (न्यायतीर्थ) दिसम्बर ५२ के अनेकांतमें डॉ. वि. जोहरापुरकर श्री दिगंबर जैन मन्दिर श्री मन्न मिचन्द्राचार्य प्रतिका 'शमा पल' के नाम से लेख प्रसिद्ध हश्रा है। उसमें ब्रह्म ठित ॥ ज्ञानसागर (१७ वीं मदी) के नीवंदना के नीचे पद्य पर पहले शिला लेख के बारे में प्रो. जोहरापुरकर लिखने आपने विचार प्रगट किये हैं। पद्य इस प्रकार हैं हैं कि. ग्वाल गोत्री के प्रागे और गमसनु के पीछे कोई एयलराय प्रसिद्ध देश दक्षिण में जायो। शब्द छट गये होंगे। कारण मुनियों का गोत्र भी नहीं बताया एलूर नयर बग्बाण महिमंडल जम पायो । जा सकता। खरचो द्रव्य अनंत पर्वत मवि कोरायो । इस आशंका के साथ वह लेख 'ग्वाल गोत्री (श्रीपाल) पटदर्शन-कृतमान-इन्द्रगज-मन भायो । गम मेन (पदशात .......) इस तरह वांचा जाय तो उसका कार्तिक मुदि पूनम दिने, यात्रा श्रीजिनपायकी। अर्थ ठीक बैठता है । ग्वाल गोत्रीय राजा श्रीपाल ने रामसन ते पजत नित भावसू', प्रामा पुरत तामकी ॥३८॥ के उपदंश में [यह कार्य प्रारम्भ किया था और कुछ] । इस पद्य में उल्लंग्विनइंद्रराज (सन् ११४.८८) गष्टकृट वीरचन्द्र और राममन का गुरु-शिष्य सम्बन्ध इतिसम्राट ततीय-होने का प्राशय प्रगट करने हुए इंद्गज चतुर्थ हाम प्रसिद्ध है । उनका कार्य क्षेत्र भी धीपुर से एलीचपूर (सन १४-८८) नहीं होने का भाव प्रगट किया है । क्यों के समोवनाल का भाग ही रहा है । तथा काल भी ममान कि उस वक्त गष्ट्रकूटों की स्थिति मंकटापन्न थी। है। इनके विषय में जुगलकिशोरजा मुन्तारने तत्वानु लेकिन बाबू कामनाप्रमाद जी-इंद्रराज चतुर्थ को (मन शायन का प्रस्तवना में खूब विस्तार के साथ चर्चा की है। १७४.८२, का सम्राट कहने है, और उसे गंगवंशी राजा ईल राजा का समय निश्चित करने में वह बहुत उपयुक्त मारमिह ने राष्ट्रस्ट राजसिंहासन पर बैठाया मा पृचित ठहरी है। जिसके लिए में उनका ऋणी हैं। वमा नो अापने करते हैं। वह जैन धर्म का दृढ श्रद्धानी तो था ही साथ ही विक्रम की १० वीं शती का उत्तरार्ध में रामसेन का प्रारम्भ जनेतर दर्शनों का भी प्रावर करता था। __माना है। और शक ९५३ में माथुर संघ० स्थापन करने से इस लिग 'पददर्शन-कृतभान' यह विशेषण इमी को अन्तिम समय सं १०८८ ही ठहरता है। प्रारम्भ में नस्वानु ही शोभा दता है। तथा इस राजा की पूर्णवधि निश्चित शामन मं १०१०के पूर्व का नहीं होने से उन्होंने वि. की करने में इंद्रराज चतुर्थ का ही समय ठीक बठना है। भक्ता- १० सदी का उतरार्ध मान लिया। वहां अगर वीरचन्द मुनि मर की यंत्रमंत्र कथा में दो श्रीपुर नगर की कथा दी है। काममय सं० १...से १.३५ और रामसेन का समय जिममें श्रीपाल राजा तथा वीरचंद्र मुनिका उल्लेख है । जान १०३५ मे १.१.नक मान लिया तो धनुचित न होगा। पड़ता है इन्हीं वीरचंद्र मुनि के उपदेश से वच्छ देश मे पर इस वक्त वह थे, यह निर्विवाद है। श्रीपुर नगर के एक ग्वालने ईल्लि देश के (हरिपुर) एलिचपुर इंद्वराज चतुर्थ [मं० १०३८] के समय जब ईल राजा का राज्य लिया था। दिवो भ. कथा ३६ और ३०-३३] मामंत राजा थे तो अनायास वीरचन्द्र-रामसेन उनके मम सिरपुर के अंतरिक्ष पार्श्वनाथ चैत्यालय में जो कि श्री कालीन ठहरते हैं। पाल-इन राजा का बनवाया हवा कहा जाता है-३ शिला- [1] दूसरे शिला लेखों में 'मल्ल पमः' के शब्द से लेख पाये जाते है। अगर मलधारी पद्मप्रभदेव की सूचना हो तो, वह पद्मप्रभदेव [1] मंदिर के गर्भागारमें मानस्तंभाकार पाषाण पर- हमारे मामने आते हैं। जिन्होंने अपने 'लक्ष्मी महातुल्य ग्याल गोत्री राममेनु ...." सती सती सती' इस पार्श्वस्तुति के अन्त में गुरु पद्मनन्दी [२] मन्दिर के बाहर दरवाजों के ऊपर का उल्लेख किया है। यह पद्मनन्दी सं० १०३ में (प्रेमीजी श्रोल १ ली .... 'वसुन्धरो मल्ल पन....। जंबुदीव पण्णत्ति को पं० १०५३ के लगभग रची हुई "२ री .... 'अंतरिक्ष श्री पार्श्वनाथ ....॥ मानते हैं।) रचे हुये जंबूदीवपण्पत्ति के कर्ता पमनन्दी [३] मन्दिर के दरवाजे के ऊपर एक शिलपर-- सं० १०३०-१५ मानलिए जाएँ तो, उनके शिष्य पद्मप्रभदव Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध-टिप्पड़ १२१ का समय सं० १०५० से ७. मानना उचित ही होगा। परचाद्विशेष तत्त्वपरिज्ञानाथं विरचितस्य वृहद्भ्यस ग्रहस्य औरंगाबाद से पाये हुए हस्त लिखित ग्रंथों में 'गुरूनी अधिकार शुद्धि-पूर्वकत्वेन वृत्तिः प्रारभ्यते । विनती का एक जीर्ण-शीर्ण पृष्ट मिला है। जिसमें संस्कृत इसके विवेचन में मुख्तार माहब ने बताया है, कि 'ब्रह्मदेव भाषा में ७ अंक है। छंद दृष्टि से कुछ अशुद्ध होते हए के उक्त घटना-निर्देश और उनकी लेखन शैली से ऐसा भी भाव दर्शन में परिपूर्ण है । प्रारम्भ में एक अम्बुज प्रभ मालूम पडता है कि ये सब घटनाएँ साक्षात् उनको प्रांखों मलधारिका संक्त मिलता है। बाद में उनके गुण का वर्णन के सामने घटी हुई है। परमार राजा भोजदेव उनके महाहै । ५ से ७ श्लोक इतिहास की दृष्टि से महत्त्व के जान महलेश्वर श्रीपाल और उनके राजथंटी सोम तथा पडते है । वह इस प्रकार है । नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव-उनके समय में मौजूद थे । इत्यादि।" 'प्रय श्री प्रतिष्टाणपुर मुनिमुवतं वंदितात्मा । पद्यप्रभदेव के नया मन्दिर बनवाने के बाद, यह जो प्राप्नो देवगिरिमु संस्थान इलोर ममिपं वरम् ॥ ५ राजा का बनाया मन्दिर खाली था, उसमें वेदी प्रतिष्ठादि भागनानां जनानां वा, प्राग्रहान्नृपवांछया । कार्य इन्हीं नेमिचन्द्राचार्य ने किये हों तो धारचर्य नहीं । अम्मारी श्रीपुरं गत्वा, श्रीपादं पज्य खेश्वरम् ॥ ६ और इसी की मूचक वह शीन मन्दिर पर लगाई हो । विवादि भूतवाद हियक्वा श्रीजिनालयम् । ब्रह्मदेव के बताए हुये महामंडलेश्वर 'श्रीपाल' और नूतनं विरचय्यासी, दक्षिणापथगाम्यभूत ॥७॥ अन्तरिक्ष प्रभु की पुनः स्थापना करने वाले ईल-श्रीपाल वर्षा योग समाप्तिबाद वह मुनि प्रतिष्ठानपुर पैठन] अभिन्न जान पडने हैं। क्योकि डा. जोहरापुरकर भी एल में श्री मुनिमुघननाथ की पूजा कर, इलोरा के समीपवर्ती राजा को सामंत मूचित करने है । तथा पाश्रम-याशारम्यपुर देवगिरि में स्थित हुए। वहां श्राप हा लोगों के प्राग्रह से प्रेमीजी के कथनानुसार या श्वे. मूरि के कथनानुसार पैठण ही वह श्रीपुर पधारे। और वहां खेश्वर-अन्तरिक्ष प्रभ की हो, तो, वह उस वक्त एल राजा के प्राधीन था ही। वंदना की। बाद में भून जिनालय को छोड़कर नया बनवाया तथा ईल राजा के जीवन में २ युद्ध होने की सूचना और इसके बाद दक्षिण में चले गये। मिलती है पहला युद्ध उत्तरभारत में राज्य करने वाले अम्बुज प्रभ को पद्यप्रभ मान लिया जाय तो शिलालेख राजा वाकड (Vaked) के आक्रमण पर उसे परास्त करने नं. २ में इसकी और पुष्टि होती है कि, यह मलधारि वाला और दूसरा हुअा अब्दुल रहमान गाजी के साथ । पदमप्रभदेव (यह नियममारके टीकाकार से भिन्न हैं) इस दूसरे युद्ध में या युन्द्र के बाद जल्दी ही पंचपीरों से पौलाका मन्दिर छोड़ गाँव में नृतन मन्दिर बनाने में प्रेरक ठगा जाकर एन राजा को देह दण्ड मिला है। इस युद्ध का समय मुसलमानी ग्रंथों में सन १००१-६ बताया है। [३] तीपर लेख की चर्चा करते समय, हमारे सामने लेकिन यह समय बराबर न होते हुए कुछ साल बाद का ब्रह्मदेवमूरि का वृहदव्यसंग्रह की टीका का प्रथम भाग होने की सूचना अमरावती गजेटीघर में दी है। १५-२० प्राता है वह इस प्रकार है, “अथ मालय देशे धारानाम- साल के बाद की यह घटना मानी जाय तो भी-भोजदेव नगराधिपतिराज-भोजदेवाभिधान-कविकालचक्रवर्ति संबन्धिनः राजा का महामंडलेश्वर (बड़े प्रान्तका अधिकारी) पद को श्रीपाल-महामंडलेश्वरम्य संबन्धिन्याश्रमनामनगरे श्रीमुनि- भूषित करने वाला पराक्रमी श्रीपाल-ईल का ही रहना उचित सुत्रत-तीर्थकर-चैत्यालये शुद्धात्मन्यवित्ति-समुत्पन्न-सुग्वा- लगता है। इस प्रकार श्रीपाल ईल का अन्तिम समय मृतरसास्वाद-विपरीत नारकादि दुःखभयभीतस्य परमात्म- मं०१०७५ तक निश्चित होता है। जिसमे उपका राज्य भावनोत्पन्न-सुखसुधारमं पिपासितस्य भेदाभेद-रत्नत्रय भावना काल मं० १०३५ से ७५ तक ४० माल का निश्चित होता प्रियस्य भष्यवर- पुण्डरीकम्य भाण्डागाराद्यने-कनियोगा- है। इस काल में चार महान प्राचार्यो की सेवा करने का धिकारि-सामाभिधानराजश्रष्टिनो निमित्तं श्रीनेमि- चन्द्र- सौभाग्य उसे प्राप्त हुया था। प्राचार्य मलधारि पद्मप्रभदेव के सिद्धांतदेवः पूर्व पइ विशातिगाथाभिलधुद्रव्यसंग्रहं कृत्वा जीवन की घटनाएँ थोड़े फार पूरक से श्वे. 'अन्तरिक्ष Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनेकान्त पार्श्वनाथ' पुस्तक में मलधारि अभयदेव मुरि के नाम पर बनाए मुजय चार महान दिगंबर मुनियों की सेवा करने घटाई हैं । जो काल व्यत्यय पाने से ऐतिहासिक प्रतीत नहीं वान्ना नया मुक्नागिरी, एलोग, पातुर और प्रत्यक्ष शिरपुर होती। क्योंकि जब मं० १०७५ के लगभग डेल राजा का प्रादि जगह दिगंबर जैन स्थापत्य निर्माण कराने वाला जीवन समाप्त होता है, तब उसके ७० माल बाद उसके श्वेताम्बर संप्रदाय का नहीं हो सकता । अतः विद्वानो को हाथ से प्रतिष्ठा बताना उचित नहीं लगता। और उपर इसपर अधिक प्रकाश डालना चाहिए। ३ अनार्य देशों में तीर्थंकरों और मुनियों का विहार मुनिश्री नथमलजी ___ कुछ वर्ष पूर्व मैंने “अहिंसकपरम्परा" शीर्षक लेग्य अबइल्ल, यवन, सुवर्णभूमि, पराहव अादि म्लेच्छ देशों में पढ़ा था जिज्ञासा भर पाई । उसमें था-ईसवी मन की विहार किया था। भगवान ऋषभ दीड़ित हाने के प्रथम वर्ष पहली शताब्दी में और उसके बाद के हजारों वर्षों तक में ही प्रार्य और अनार्य देशो में गा थे । प्राचार्य हेमचन्द्र ने जैनधर्म मध्यपूर्व के देशों में किसी न किसी रूप में यहूदी अदंबइल्ल आदि म्लन्छ देशों में भगवान ऋषभ क बिहार धर्म, ईसाई धर्म और इम्लामधर्म को प्रभावित करता रहा का उल्लेख किया है वह अावश्यक नियुक्ति का अनुवाद है। प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेग्वक वान केमर के अनुसार मात्र है। मध्य-पूर्व में प्रचलित 'ममानिया' सम्प्रदाय श्रमण शब्द का द्वारिका-दहन हा, तब भगवान अरिष्टनेमि पहब अपभ्रश है । इतिहास लेखक जी. एफ. मुर लिखने है नामक धनार्यदश में थे। यह पल्हव भारत की सीमा में था कि हजरत ईसा के जन्म की शताब्दी से पूर्व इराक, म्याम या उसके बाहर यह अन्यषणीय है । प्राचीन पाीया (वर्त और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु मकडों की मान ईरान) के एक भाग को पल्हव या पराहय माना जाता संग्च्या में चारों और फैले हुए थे । “मियादत्त नाम ए है। काठियावाड में जूनागढ़ रियायत में एक इंगनी उपननासिर' का लेखक लिग्यता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी बंश की सम्भावना होती है। भारत में आर्य और अनार्य तबके पर जैनधर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। कलन्दर चार दोनों प्रकार के देश थे। कलिग आदि देशों में यवन शासकों नियमों का पालन करते थे-माधुता, शुन्द्रता, सन्यता और का भी उल्लेख मिलना है । कुमार पाश्र्य ने वहाँ एक यवन दरिद्रता । वे अहिमा पर प्रग्बगड विश्वास रखते थे। शासक को पराजित किया था। जैन माहित्य में विहार-क्षत्रों का कोई उल्लेख है या भगवान अरिष्टनेमि ने द्वारावती-दहन की बात बननहीं यह जानने की प्रबल उत्कण्ठा उत्पन्न हुई । किन्तु लाई । उस समय वे वहीं थे । उपक पश्चात वे वहीं के यात्रा व अन्य कार्य-बहुलता के कारण उसकी पुत्ति नहीं अन्य जनपदों में विहार कर गये। द्वागवती दहन में पूर्व एक हुई । समय पाकर यह भावना विलीन हो गई। वागय नानु बार फिर वे खत पर्वत पर श्राये । जब द्वारावती का ददन मास में हम लोग प्राचार्य श्री के समक्ष विशेषाध्यक भाष्य हुअा तब भगवान अरिष्टनेमि पल्हव देश में थे। इस मध्या और आवश्यक नियुक्ति का पारायण कर रहे थे। उसमें वधि में १२ वर्ष का काल बीता है। उसमें वे ईरान भी जा तीर्थकरों के विहार का उल्लेख पाया तो सुप्त भगवना पुनः सकते हैं और पौराष्ट्र में भी हो सकते है । किन्तु द्वारावती उदबुद्ध हो गई। उनमें लिखा है, ''बीस तीर्थकरी ने का दहन होने के पश्चात् कृष्ण और बलभद्र, पाण्डव प्रार्यक्षेत्र में विहार किया । भगवान् ऋषभ, अरिष्टनेमि मथुरा [वर्तमान मदुग] जा रहे थे। व पूर्व दिशा में चले, पार्श्व और महावीर ने अनार्यनेत्र में भी विहार किया था ?' सौराष्ट्र को पार किया और हस्तिकल्पपुर पहुंचे। वहाँ से ये चार नीर्थकर जिन अनार्य क्षेत्रों में देशों में गए दक्षिण की ओर प्रस्थान किया और कोसुम्बारण्य में गए । उनका पूरा विवरण प्राप्त नहीं है। फिर भी यत्र क्वचित इस यात्रा में भगवान अरिष्टनेमि के पास जाने का उन्लेग्व उनका नामोल्लेख मिलता है । आवश्यक नियुक्ति व नहीं है। द्वारावती-दहन के पश्चात् वे भगवान के पास नहीं विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार भगवान ऋषभ ने बहली, गये यह पाश्चर्य की बात है। यहींपर कल्पना होती है कि Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध-टिप्पण १२३ उस समय भगवान सौराष्ट्र में नहीं थे। यह भी हो सकता विपल संख्या में जैन श्रमण विहार करते थे। कालकाचार्य है भगवान उनके यात्रा-पथ से दूर थे । कुछ भी हो अन्तिम सुवर्ण भूमि [सुमित्रा] गये थे। उनके प्रशिष्य वहां पहले ही निर्णय के लिए अभी तक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। विद्यमान थे । भगवान पार्श्वनाथ ने कुरु, कोमल, काशी, सुह्य, जैन श्रावक समुद्र पार करते थे। उनकी समुद्र यात्रा अवती, गट, मालत, अंग, बंग, कलिंग पचाल, मगध, और विदेश व्यापार के अनेक प्रमाण मिलते हैं । लंका में विदर्भ भट, दर्शाया, सौराष्ट्र, कर्णाटक, कोकण, मेवाण, जैन श्रावक इसका उल्लेख बी माहित्य में भी मिलता लाट, दाविठ, काश्मीर, कच्छ, शाक, पल्लव, वत्स, भाभार है। महावंश के अनुसार ई.स. ४३० पूर्व जब अनुरुद्ध - आदि दशा में विहार किया था। इनमें अनार्य देशों का पर बमा नब जैन श्रावक वहां विद्यमान थे। निग्गंठ का नामोल्लंग्व नहीं है। किन्तु दक्षिण के कर्णाटक, कोकण, 'भा उल्लेख मिलता है। पल्लव, द्राविड आदि उस ममय अनार्य मान जाते थे। शाक भी अनार्य प्रदेश हैं । इसकी पहचान शाक्य दश या प्रार्य अनार्य देशों की चना के प्रमंग में यह ज्ञातव्य शाक द्वीप से हो सकती है । शाक्य भृमि नेपाल की उपन्य- है कि अनार्य देश भारत के बाहर ही नहीं रहे हैं ; यहां भी का में है। वहाँ भगवान पार्श्व के अनुयायी थे । भगवान विविध दृष्टिकोणों में विविध देशों को अनार्य कहा गया बुर का चाचा, म्वयं भगवान पार्श्व का श्रावक था। शाक्य है। धार्मिक दृष्टि से भारत के छः ग्बगड़ों में से केवल मध्य प्रदेश में भगवान का विहार हा हो, यह बहुत संभव है। क्षेत्र को प्रार्य देश कहा गया है । वृहनर भारत के छ. तगड भारत और शाक्य का बहुत प्राचीन काल से सम्बन्ध रहा है। उनमें पांच ग्वण्टु अनार्य हैं । छटा ग्बग्दु प्रार्य है । है । संभव है वहा भगवान पार्श ने विहार किया हो। उसमें भी बहुत अनार्य देश है। वहां धर्म सामग्री मुलन भगवान महावार व्रज भूमि, मुह्मभ मि, दृढभमि. श्रादि नहीं है इसलिए वे अनार्य हैं - भारत में प्रार्य-अनार्य दोनों अनार्य प्रदेशों में गये थे। वे बंगाल की पूर्वीय सीमा नक प्रकार के देश मान्य रहे है । फिर भी वर्तमान भारत [शायद बी सीमा तक गय थे । की सीमा से बाहर तीथंकर नहीं गये, ऐसा नहीं माना जा उनर पश्चिमी मामानान्त एवं अफगानिस्तान में सकता। ४ द्रोगागिरि डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जावरा निवारणकागदु के कथनानुमार द्वारगरि यह नीर्थक्षेत्र है। इस में प्राचार्य ने गुरुदन का निर्माणस्थान नाणिमन फल हाडी ग्राम के पश्निम में है तथा यहा में मदन श्रादि पर्वत बनलाया है तथा उमे लाट देश में चन्द्रपरी के मुनियों ने मोक्ष प्रान किया था। इस गन को दबने हुए समीप बनलाया है । जैसा कि मुविदित है. हरिषेणाचार्य के पं० प्रेमी ने अनुमान किया था कि शायद जोधपुर रिया- कथाकोष में शिवार्य की भगवती श्राराधना की गाथाओं के मत में मंदता नगर के पास जो पलोधी नाम का तीर्थ है उदाहरणों के रूप में कथाएँ मंगृहीत हैं। यहां उन्होंने गुरुउसी के समीप किमी ममय द्रोणगिरि रहा (जन माहिन्य दल का निर्वाणस्थान जो नोणिमत पर्वत बतलाया है उसे और इतिहास पृ० ४४२-४३) तथा वर्तमान द्रोणगिरि जो शिवार्य के शब्दों में (गुरुदत्तो य मुगिदी संबनियानीव दोणिबुन्देलखण्ड में मंदपा ग्राम के समीप है वह निर्वाणकागढ मतम्मि) देखें तो तोणिमत का प्राकृत रूप दोणिमंत ज्ञात में वणन द्रोणगिरि नहीं है । इस सम्बन्ध में एक और होता है । इस दौणिमन को निर्वाणकाण्ड में वर्णित दोण - संभावना की ओर हम विद्वानों का ध्यान आकर्षित करना गिरि से भिन्न समझने का कारण दिग्वाई नहीं देता। तात्पर्य चाहते है । निर्वाणकागढ़ के कथनानुसार द्रोणगिरि से गुरुदत्त यह हुआ कि हरिषेणाचार्य के कथनानुसार गुरुदरा का निर्वाण. मुनि मुक्त हुए थे। इन गुरुदत्त मुनि की विस्तन कथा हरि- स्थान तोणिमत् -द्रोणगिरि लाट देश में अर्थात वर्तमान षेणाचार्य के बृहत्कथाकोष की १३६ वाँ कथा में मिलती गजरात प्रदेश में कहीं होना चाहिये। हरिषेणाचार्य का समय Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अनेकान्त शक मं० ८५३ सुनिश्चित है अतः उन के इस कथन का मैसूर राज्य के धारवाड जिले में लच मेश्वर नामक ग्राम विशेष महत्व स्पष्ट है । उक्त कथा पर संपादक डा. उपाध्ये है जो पुरातन समय में परिकर पलिगेरे, हुलिगेरे या हुलजी ने जो टिप्पण लिखा है उस में कहा गया है कि उक्त गिरि-होलागिरि जैसे नामों से प्रसिद्ध था। यहां के मुग्थ्य तोणिमन के स्थान पर प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोष में द्रोणी- देव नेमिनाथ हैं जो शंखजिनेन्द्र इस नाम से प्रसिद्ध थे क्यों मति यह रूप पाया जाता है । ताणिमत-दोणिमंत-द्रोण- कि इस मूर्ति के चरणों का भाग शंम्बनिर्मित जैसा है । इस गिरि की एकता का यह भी समर्थक प्रमाण है। वर्तमान के सम्बन्ध में एक कथा का उल्लेख मदनीति की शापनगजरात में उक्त वर्णन के अनुरूप कोई स्थान है या नहीं चतुस्त्रिशिका में है। यह तीर्थ दिगम्बर संप्रदाय के अधिकार इस की खोज अवश्य होना चाहिए। में है। यहां के कई शिलालेख जैनशिलालेख संग्रह भा० २ २ शंखेश्वर तथा शंखजिनेन्द्र में हैं जिन से पता चलता है कि यह क्षेत्र मातवीं सदी में शंग्वेश्वर यह तीर्थक्षेत्र गजरान प्रदेश में वीरमगांव के ही प्रसिह था। पाम है । यहां के मुख्य देव पाश्वनाथ हैं । जिनप्रभमूरि के नाम की समानता के कारण इन दो क्षेत्रों की एक विविधतीर्थकल्प में इस के मन्बन्ध में एक कथा है जिम के समझ लेने का एक उदाहरण हमार अवलोकन में पाया अनुसार इस का नाम श्रीकृपाग द्वारा बजाय गये शंख के (पं० दरबारीलालजी द्वारा संपादित शासनचतुस्चिशिका कारण शंखपर पड़ा था। मुनि जयन्त विजयजी ने इस तीर्थ पृ० ४३-४७) का यह भ्रम दुहराया न जाय इस उई य से के सम्बन्ध में उपलब्ध स्तात्रों तथा अन्य साहित्यिक एवं यह टिप्पण लिखा है। शिन्नालेखीय उल्लेखों का संग्रह शंग्वेश्वर महातीर्थ नामक विस्तृत पुस्तक में प्रकाशित किया है। यह तार्थ श्वेताम्बर (जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर के आगामी प्रकाशन सम्प्रदाय के अधिकार में है। तीर्थवन्दनसंग्रहके दो अंश) (कहानी) गेही पै गृह में न रचे [ श्री कुन्दनलाल जैन एम० ए० ] शरस्कालीन शुक्लपक्षीय चतुर्दशी की चमकती हुई भगवान भास्कर अपनी प्राणिम प्राभा से नील गगन चन्द्रिका, धौत धवल रात्रि, नीलगगन, क्षीणालोक तारकों से को पालोकित करने लगे, विभाकर का कर स्पर्श पा कमल झिलमिला रहा था। राजगृही नगरी पूर्णतया निस्तब्ध एवं प्रमुदित हो उठे, राजकुमार वारिषेण के ध्यान का समय शान्त थी। नगर के सभी नागरिक जन प्रगाढ निद्रा में समाप्त हुअा जान, वे ध्यान से निवृत्त हो स्ववस्त्र धारण निमग्न थे। मध्यरात्रि का द्विनीय प्रहर राजकुमार वारिषेण करने ही वाले थे कि नागरिक सुरक्षा के अधिकारी दगडपाल शय्या त्यागकर नगर के बाहर दूर एक नीरव निर्जन उपवन अपने सैनिकों सहित वहां आ धमके और क्या देखते हैं कि में जा पहुंचे और कुछ प्रहरों के लिये सम्पूर्ण परिग्रह का साम्राज्ञी चेलना का अत्यन्त प्रिय बहुमूल्य मणिमुक्ताहार परित्याग कर ध्यान में निमग्न हो गए। ऐसा वे प्रत्येक वहां पड़ा हुआ दमक रहा है। राजकुमार वारिषेण इससे अष्टमी और चतुर्दशी की रात्रि को किया करते थे। बिल्कुल ही वेखबर थे। दण्डपाल ने सैनिकों को आदेश पूर्व दिशा में लाली छा गई, क्षितिज में उषा की अरुण दिया कि महारानी चेलना के बहुमूल्य हार का असली चोर भाभा प्रकट होने लगी। खगकुल अपने-अपने नीड़ों का यही है इसे पकड़कर महाराज श्रेणिक के न्यायाधिकरण में परित्याग कर कलरव सहित गगनमंडल में विहार करने लगे, उपस्थित करो, सैनिकों ने अपने अधिकारी की प्राज्ञा का Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेही पै गृह में न रचे १२५ अक्षरशः पालन किया। राजकुमार की निम्पृहता के सम्बन्ध में महाराज श्रेणिक के मगव नरेश महाराज श्रेणिक अपनी राज्यसभा में समन अपना प्रनिनिधित्व भी प्रस्तुत किया पर महाराज सब बैठ राज्यकार्यों में व्यस्त थे । प्रतिहारीने दण्डपाल के प्राग- कुछ जानते हुए भी अपने निर्णय पर सर्वथा अटल रहे। मन की सूचना महाराज को दी महाराज की स्वीकृति पर अन्ततः राजकुमार के प्राण दंड की तिथि भा गई। दण्डपान को महाराज की सेवा में उपस्थित किया गया। ___ अधिकारीगण उन्हें नगर के प्रधान चतुप्पथ पर ले जा रहे अपरावी वेश में राजकुमार बारिषेण महित दगडपाल को थे, कि कहीं से नगर चोर विद्य चर वहां मा पहुँचा, उसे राज्यसभा में पाया देख सभी पार्षदगण एवं महाराज म्वयं । जब सम्पूर्ण स्थिति का पता लगा तो उसका मन करुणा से विम्मय विमुग्ध हो गये । एक ज्ञण के लिए सम्पूर्ण राज्य विगलित हो उठा, 'अपराध कोई करे दंड कोई भोगे' विष : मभा जडवल निम्तब्ध हो गई । मभी महाराज के संकेत च्चर प्राम-ग्लानि में गलने लगा वह भागा-भागा महाराज पर दगडपाल ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया।" महाराज ! श्रेणिक के पास पहुँचा और उनके चरणों में गिर पड़ा अपराध क्षमा हो । बरं बंद एवं विनयपूर्वक निवेदन करता और विलग्व-विलख कर रोना हा बोला महाराज अपराध है कि माम्राज्ञी चलना के बहुमूल्य मुक्ताहार की चोरी क्षमा हो । राजकुमार वारिषेण सर्वथा निरपराध हैं, वह तो राजकुमार वारिषेण ने की है, माक्षी के लिए यह हार इनके पास गृहस्थ होकर भी माधु है। यह सब पाप तो मैंने किया था। में ही उपलब्ध हुअा है । अब महाराज की जो प्राज्ञा। नगर ननको कामलता ने किसी दिन महारानी चलना का अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत कर जब दण्डपाल मौन हो यह बहुमूल्य मुक्ताहार दम्ब लिया था, जिसे पाने के लिए गया, तो महाराज श्रेणिक ने वारिषेण को अपना पक्ष प्रस्तुत उपने मुझे बाध्य किया। उसके प्रेम पाश में अन्धा होने के करने के लिए कहा पर विगगी गृहस्थ वारिषेण क्या कहना? कारण मन इस हार को चुरा लिया, पर प्रहरियों की दृष्टि से उपका नो एक ही पक्ष था, जिसकी उपने बार-बार पुनरा- न बच सका, अतः अपने प्राण बचाने के लिए भागा पर जब वृत्ति की वह था "हे तान। यह सब कर्मो की विडम्बना । किमी तरह अपने को सुरक्षित न पा सका तो यह हार ध्यानहै, "जो-जो दखी वीतराग ने मो-मी होमी वीरांर । प्रन म्थ राजकुमार वारिपेण के समक्ष फककर वहीं झाही में छिप होनी कवह नहि होती, काहं होन अधीरा रे।" इत्यादि गया। इसी दुष्कृत्य का परिणाम है कि प्राज राजकुमार को महाराज श्रेणिक ने राजकुमार को अपना पक्ष प्रस्तुत करने प्राणदइ भोगना पड़ रहा है और वह भी श्राप जैसे निष्ठाको बार-बार कहा, पर गजकुमार वारिपेण उपयुक्त वाक्यों वान शायक के हाथों जो अपने पुत्र का भी ध्यान न रख के अतिरिक्त कुछ भी न कह सका । अन्ततोगत्वा महाराज मका। श्रेणिक ने ऐसे घृणित अपराध के दण्ड स्वरूप राजकुमार महाराज श्रेणिक विद्य रचर की बातें बड़े ध्यान से मुन को प्रागा दगड की घोषणा कर दी और बहुमूल्य हार लेकर रहे थे। वे मन ही मन विचलित हो उटै कि किमी का महारानी चलना के पास भिजवा दिया। दण कोई भीग रहा है। पर व विवश थे, प्रादश दे चुके राजकुमार वारिपेण के प्राण दंड की निधि की घोषणा थे, तीर हाथ में निकल गया था, क्या करे कुछ समझ में नहीं सम्पूर्ण नगर में करा दी गई । इस कठोर प्राज्ञा को जो पा रहा था। तभी प्रतिहारी ने सविनय निवेदन किया कि कोई मुनता उपकी आँग्वे अथ जल से गीली हो जाती, क्यों- देव "वारिषेण का वध करने वालों के हाथ किल गये हैं, कि राजकुमार की निम्पृहता एवं श्रेष्ठता से सभी नागरिक और राजकुमार के ऊपर पुष्पवृष्टि हो रही है" प्रतिहारी अच्छी तरह से परिचित थे, उन्हें पूर्ण विश्वास था कि के शब्दों से महाराज श्रेणिक का मनम्नाप शान्त हो गया राजकुमार ऐमा धणित कार्य नहीं कर सकता, पर हार राज- वे मन ही मन प्रमुदित हो जटे, प्रतिहारी को उचित रूप से कुमार के पास से पकड़ा गया था और वह अपने बचाव में पुरस्कृत कर विदा किया और स्वयं महारानी चेन्नना महिन कुछ कह भी नहीं रहा था अतः नागरिकों के समक्ष एक वध-स्थल को चल दिए जहां कुमार वारिपेण कायोन्मर्ग अति जटिल समस्या आ पड़ी थी। नागरिक शिष्ट मंडल ने धारण किए हुए विराजमान थे । महाराज श्रेणिक ने अपनी Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ अनेकान्त निष्ठुरता की क्षमा याचना करते हुए राजकुमार से घर चलने का संगी पार्था नहीं है, अापके शुभा-शुभ कर्म ही अापका का आग्रह किया, महारानी चेलना तो पुत्र प्रेम से विहल सदा साथ देंगे. अनः शाप ने दीक्षा धारण करली है व्यर्थ हो विलग्वने लगी और उसे घर चलने को मनाने लगी, पर ही उसे कलंकित करने का विचार न लायो।' वारिषेण का मन तो मंसार से विरक्त हो गया था । वे सोमशर्मा वारिण का उपदेशामृत पान कर मन ही कहने लगे मैंने संसार विडम्बना का रूप देख लिया, मेरी मन अत्यधिक प्रभावित हा, पर अपनी पत्नी को न भुला उसमें कोई प्राग्था नहीं है मेग दृढ निश्चय है कि प्राम- यक, वारिषेण को उनकी बगे चिन्ता थी. जब उन्होंने माधना का अनुष्ठान करूं। घर तो जल खाने के सदृश है। अपने उपदेशों का योमशर्मा पर कोई प्रभाव न देखा तो वे संसार की स्थिति को भली भांति समझ गये थे, उन्होंने स्वयं आदर्श प्रस्तुत करने की मोची, अतः सोमशर्मा को माता पिता को पांसारिक अस्थिरता से परिचित कराया और माथ ले चर्चा के बहाने राजगृह नगरी में महाराज अंणिक उनकी अनुमति लेकर स्वादाचा धारण करने के लिए वन के महलों में आ गये । रानी चलना पुत्र को घर पाया में चले गये। जान हर्प से पुलकित हो उठी, उन्हें विधि पृथक ग्रामवगा जब वारिषेण वन में प्रव्रज्या के हेतु जा रहे थे तभी कर घर में बंटाया, तब बारिपेण ने अपनी मां में अपनी उनके मित्र मामशर्मा भी उन के साथ हो गये और भावावेश सभी पन्नियों को मोलह शृगार में मुजिजान कर अपने वश उन्हीं के माथ बन में दीक्षित हो गये तथा तपस्या करने समन बुलाने को कहा। पुत्र के थादेश को मन पहल नो लगे, एक दिन योमशर्मा ने वीणा पर किन्नरों का निम्न गीत गनी विम्मित हुई पर पुत्र प्रेम में विह्वल वह कुछ भी न मुना पोच सकी और शीघ्र ही अपनी सभी वधुओं को सुन्दर कुवलयनवदलमममचिनयने मरमिजदल निभवर कर चरणे। वस्त्राभूषणों से मुजिन कर वहां ले पाई जहां वारिषेण श्रति सुखकर परभूतकलवदने कजिनननिर्मायमग्वि विधवदने। और सामशा बट थे, उन अप्सरा तुल्य सुन्दरियों के बहुमल मलिनशरीरा मलिन चलाधि विगततनुशोभा। सौन्दर्य को देख मोमशमा मन ही मन बड़े लज्जित हुए स्वदगमन दग्धह दया शोकातप शुष्कमुग्वकमला । और पोचने लगे अरे में बड़ा कामी हूँ जो इस प्रकार विमनागत लावण्या वर कान्ति कलाप परि मुक्ता ॥ विषयासक्त हो दीक्षा से विमुग्व हो रहा हैं। और दूसरी किं जीविष्यन्यवनिका नाथे पि गतऽ जय मोक्ष। ओर महाधीर संयमी एवं त्यागी वारिपेण हैं, जो ऐसी दवाउपयुक्त गीत को सुनने ही मामशर्मा को अपनी पत्नी गना तुन्य स्त्रीरत्नों को महज ही तणवत परिस् राग कर की याद अाई उपये मिलने के लिए व्याकुल हो उठे, उन्हों. हो चुका है, धन्य है इसका महानता और निम्पृहना की। ने वारिपेण से घर जाने की प्राज्ञा मांगी, वारिपेण मोमशर्मा निश्चय ही यह गृहस्थ होकर भी घर में श्रामक्त नहीं हुआ। की दुर्बलता को भांप गये, और उसे मांसारिक अग्थिरता है वारिषेण के त्याग और संयम को प्रत्यक्ष दग्य सामशर्मा का उपदेश देने लगे। हे भद्र. यह मंमार श्रमार है, की अांखे खुल गई । बिवेक जाग्रत हुा । विवेक की और इसके भोग विलाय तो शर्कग मिश्रित विष तल्या इस धारा ने हृदय गत राग की लालिमा को हटा दिया, अनन्त भवों से इन भोगों को भोगने पा रहे हो पर आज और अपनी संयमश्री को संभालने के लिये वैराग्य की तक कभी भी नप्ति नहीं हुई। अपना मन सयम और नि निर्मल धारा उपके अन्तर में वहने लगी। संतोष की ओर आकृष्ट करो । सर्वोच्च सुख के माधन वह सोचता है तूने ये १२ वर्ष व्यर्थ ही खो दिये। संयम और संतोष ही है। मनुष्य भव बहा दुर्लभ है, इसे अपनी कानी स्त्री के त्याग के कारण मैं इस पवित्र वेष को पाकर इस तरह व्यर्थ ही विषयभोगों में नहीं गंवा देना लजाता रहा है। अपनी प्रात्मा को ठगना रहा हैं । मेरे उस चाहिए, आप तो स्वयं विज्ञ हो सांसारिक विषय-भोगों से राग भाव ने मुझे सांसारिक दृढ़ बन्धनों में जकड दिया है। इस चंचल चिन को निवृत्त कर प्रात्म-चितन में रत रहो, यह भोग रोग के समान है । वे ही संमार में धन्य हैं पारिवारिक जनों के मोह जाल में व्यर्थ न फंसो, कोई किसी (शेष पृष्ठ १३३ पर) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और अनाग्रह की मर्यादा (मुनि श्री गुलाबचन्द्रजी 'निर्मोही') अनेकान्त दर्शन के प्रणेता भगवान महावीर समन्वय यंता का आरोप करत है। उन्होंने कहा-दानिक दृष्टि और महअस्निन्त्र का दिव्य सन्देश लेकर इस संसार में पंकुचित न होकर विशाल होनी चाहिए। वस्नु में जितने प्राण । भिन्न मतीय विवादो क कोलाहल पर्ण एवं प्राग्रह भी धर्म परिलक्षित होने है। उन सबका समावेश न दृष्टि भर वातावरण में तप को समझने की जो सच्म दृष्टि में होना चाहिए । किमी एक समय में किसी एक अपेक्षा से उन्होंने दी, वह मचमुत्र ही मानवीय विचारधारा में एक किपा एक धर्म का प्रमुग्पना नाम्य हो सकती है किन्तु उससे वैज्ञानिक उन्मंप है। अन्य सब धर्मों का अभापती नहीं दी जाना । इसी दृष्टि हमारे सामने अनेक वस्तुणं. प्राती-जाता रहती हैं। हम में उन्होंने वरतु को अन विगंधा-धर्म-युगलात्मक बनाया। अपने प्रयोजनानुसार उनका व्यवहार करते रहते है, पर यह वस्तु का स्वभाव हा गया है कि उसपर अनेक दृष्टियों से शायद हा मोचत होगे कि जिस समय वे हमें दिखलाई चिन्तन किया जा सकता है। इसी दृष्टि का नाम अनेकान्तपडती है, वहीं क्या उनका मालिक रूप है या और कुछ? वाद है। किसी एक धर्मी का एक धर्म की प्रधानता में जो किन्तु जब हम वस्तुओं के स्वरूप के बारे में सोचना नया प्रतिपादन होता है, वह 'म्यान' (किमी एक अपेक्षा या विश्प ण करना प्रारम्भ करने है। नब हम दर्शन क क्षेत्र में किसी एक दृष्टि से) शब्द में होना है, अतः अनकान्त की पहुंच जाते है। निरूपण पद्धति को म्यादात कहा जाता है । दार्शनिक क्षेत्र भगवान महावीर की दृष्टि में दर्शन, धर्म और सरकृति में महावीर की यह बहा बडी देन है। की जिज्ञासानों का मुन्दर समाधान है । उनके सामने अनेक अनेकान्तबाट के नेत्र में दी पत प्रधान हैं। एक यांग्यदार्शनिक परम्पराएं विद्यमान थी । एक-अनेक, निय-अनित्य, गांग दर्शन, दमग जन सन । ये दोनों दर्शन अपना-अपनी जड-चतन आदि विषयों का एकान्तिक आग्रह उनके सामने परिभाषाश्री द्वारा अपने अपने विचार चित्रय से अने. था। एक परम्परा निन्यवाद पर ही सारा बांक डाल देती थी कानन की स्थापना करना है। तो दूसरी परम्पग अनिन्यवाद को ही प्रमाण ममझती थी। माग्थ्य दर्शन मृल में दावों को ग्वीकार करना है-1किमी परम्परा को एकव में चरम नाव का अन्वेषण अभीष्ट पुरुप तस्व -प्रकृति नन्ध । उसके मन में गुरुप बह है था। नो अन्य किमी परम्परा में एकत्व का भया निषेध और कृपथ निन्य है। मं न कोई गुण है और न कोई ही परिलक्षित होता था, एक परम्परा मष्टि की विभिन्नता में धर्म । उसमें कभी किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं जड को ही कारणभूत मानती थी ना दमरी को आमतत्व होना । प्रकृति ठीक पु.17 का विपरीत रूप है। वह निन्य मे अन्यथा कुछ भी स्वीकार्य नहीं था। इस प्रकार अनेक होकर भी परिणमन काता गती है । यह दृश्यमान जगन विरोधीबाट एक दूसरे पर प्रहार करने में ही अपनी शक्ति इस प्रकृति का परम्परागत परिणमन है । अति सूक्म प्रकृनि का व्यय करते थे । यही कारण है कि उस समय का दार्श तत्व एक परिणाम से दमर, दृस में तीसरे इस प्रकार निक जगत शान्त न होकर कोलाहलपूर्ण व प्रशान्त था। परिणामों को प्राप्त करता हश्रा स्थूल रूप में परिणात होता इनरेतर विरोध हा दर्शन का ध्येय बन गया था। है। यह परिणमन ध., लक्षण और अमाथा इन तीनों महावीर ने अपने चिन्तन से इस विरोध की बुनियाद परिणामों के द्वारा होता है । धर्मीम्प प्रकृति से उपके धर्म में मिथ्या प्राग्रह पाया । उन्होंने इसे एकान्निक प्राग्रह की का एकान्त भेद बतलाना सम्भव नहीं । वस्तु का व्यक्त धर्म मंज्ञा दी । बस्तुनख का सूहमेशण से चिन्तन करके उन्होंने जब अव्यक्त तथा अव्यक्त धर्म जब व्यक्त बनना है, वह यह निष्कर्ष निकाला कि एक ही वरन में अनेक धर्म है किन्तु धर्म परिणाम है । यह धर्म-परिणाम धर्मी के म्पष्टरूप के दृष्टि की संकीर्णता से ही सब अपने-अपने प्राग्रह में यथा- अतिरिक्त और कुछ नहीं है, इसलिए कार्य और कारण में Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनेकान्त भेद भी है और अभेद भी । यदि भेद नहीं माना जाए तो है। सहभावी धर्म गुण कहलाता है । गुण और पर्याय का धर्मी का नाना धर्मों में रूपान्तरित होना असम्भव है । एक श्राधार दव्य है। द्रव्य परिणामी है अतः वह अपनी विभिन्न ही वस्तु रूपान्तर ग्रहण करती है इसलिए अभंद भी है। शक्तियों के द्वारा विभिन्न पर्यायों को उत्पन्न करता हुआ शाम को परिणमन करता है । जैन दर्शन के अनुसार एक द्रव्य अनन्त लक्षण परिणमन कहा जाता है । लनण परिणमन का अर्थ गुणों का प्राधार है । उस गृण समूह को गुणी दृव्य से ना और वर्तमान परिमन धिमी पृथक करना असम्भव है । द्रव्य एक द्रव्य में रहे हुए गणों में रहे हा धर्म का अनीत, अनागत और वर्तमान रूप में को भी गुणान्तर से पृथक करना शक्य नहीं। दव्य जब परिणमन होता है, द्रव्य रूप धर्मी का नहीं । वर्तमान समय अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा विभिन्न पर्यायों के रूप में में धर्मी का जो स्वरूप प्राविभृत है, वह कालान्तर में विलय परिणमन करना है, तभी गुण से गुणान्तर का भेद उपलब्ध होकर अतीत का विषय बन जाता है और अनागन रूप में होता है । द्रव्य से पर्यायों का भेद दिग्बलाई परता है। जो धर्म धर्मी की सत्ता में दिया हश्रा था, उमका प्राविभाव इसलिए एक दृष्टि से दप, गण और पर्याय में भेद भी है । होना है इसी प्रकार धर्म ममह तीनों कालों को म्पर्श द्रव्य स्वयं ही परिगमन करता है । इसलिए एक दृष्टि से करता हश्रा परिणमन करता रहता है । धर्मी इन तीनों वे तीनों अभिन्न भी हैं । पर्याय उत्पन्न और विनिष्ट होता कालों में धर्मों में विद्यमान रहकर नित्य कहलाना है। रहता है, पर द्रव्य और गण अपने स्वरूप का त्याग न लक्षण परिणाम का परिणमन अवस्था परिणाम करते हुए पर्यायों में पर्यायान्तर में परिणत होते रहते हैं । । कहलाता है। नया-पुरानापन ही अवस्था परिणाम है । मत- यांग्य्य दर्शन के कार्य की तरह पर्याय भी तीनों कालों के पिंड से जब घट कार्य रूप में प्राविभूत होता है, तब नया प्रवाह में बहना हया चला जाता है। न इसका अादि है, घट कहलाता है और प्रति दिन पुरानेपन की तरफ बढ़ता न अन्त ही । एक दव्य में अनेक गणों के पर्याय एक समय हुश्रा पुरानेपन में परिणमन करता है। इस तरह अनीन में वर्तमान रह सकते हैं, किन्तु एक गण के दो पर्यायों का कार्य मुदूर अतीत क रूप में और, सुदूर अनागत कार्य एक समय में रहना सम्भव नहीं। एक विशेप गण दुसरे निकट अनागत के रूप में परिणत होता रहता है। गण में रूपान्तरित नहीं होता। जेन-दर्शन के अनुसार चेतन सांख्य-योग दर्शन ने इस प्रकार के तीन परिणामों के म्वरुप प्राम: बद्रावस्था में हो या मुक्नावस्था में, दोनों अवस्थानों में अपने चतन स्वरूप को नित्य रखते हुए गणों द्वारा परिदृश्यमान जगत की व्याख्या की है। इस तरह के द्वारा परिणमन करता रहता है। अनन्त काल से कार्य-कारण का निस्वच्छन्न प्रवाह चलता पाता है । एक का लय तथा अपर की उत्पत्ति होती रहती कुछ विचारको का अभिमन है कि अनेकान्त वाद है, किन्तु कारण की सत्ता में उसकी कोई भिन्न मत्ता एकान्तवादो का समन्वय करने के लिए निष्पन्न हया, किन्तु नहीं है। यह उचित नहीं है । एकान्न दृष्टियों का समन्वय उम्पका जैन दर्शन चतन तब और जल-तत्व, इन दोनों तत्वों फलित है, किन्तु मूल आत्मा नहीं। को स्वीकार करता है। यह जड़ और चनन दोनों को उत्पाद वस्तु में जो अनेक प्रापेक्षिक धर्म है, उन सबका यथार्थ ध्यय और ध्रौव्यात्मक रूप से प्रतिपादित करता है, उत्पाद ज्ञान तभी हो सकता है, जब अपेक्षा को सामने रखा जाए। ग्यय और ध्रौव्य शब्द से एक ही वस्तु के दो स्वरूप प्रति- दर्शनशास्त्र में पक-अनेक वाय-प्रवाच्य तथा लोक व्यव. भासित होते हैं-१ अविनाशी, २ विनाशी। उत्पाद और व्यय हार में स्वच्छ-मलिन, सूक्ष्म स्थूल आदि अनेक ऐसे धर्म शब्द वस्तु के विनाशी स्वरूप को बतलाते हैं तथा धीच्य हैं जो श्रापेक्षिक है। इनका भाषा के द्वारा कथन उसी शब्द उसक अविनाशी म्वरूप का वाचक है। सीमा तक सार्थक हो सकता है, जहां तक हमारी अपेक्षा जैन परिभाषा में धर्मी को द्रव्य और उत्पाद व्यय शील उसे अनुप्राणित करती है । जिस समय जिस अपेक्षा से जो धर्म को पर्याय कहा गया है । वह वस्तु का क्रम भावी धर्म शब्द जिस वस्तु के लिए प्रयुक्त होता है, उसी समय उसी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और अनाग्रह की मर्यादा १२६ वस्तु के लिए किमी अन्य अपेक्षा से अन्य शब्द की प्रयुक्ति ५-यह मकान पांच मंजिल का है। भी नथ्यगत ही होगी। वह भी उतना ही प्रखंड सत्य -यह मकान लाल रंग का है। होगा जितना कि पहला । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा -यह मकान समाजवादियों का है। सकता है कि एक वस्तु के सम्बन्ध में ऐसे अनेक तथ्य होते प्रश्न होता कि मकान किसका समझा जाए ? उपयुक्त है जो हमारे ज्ञान में मनिहित हैं और एक ही समय में वाक्यों में एक भी ऐसा नहीं हैं, जिसे अप्रमाणित माना मब समान रूप से सत्य हैं फिर भी वस्तु के पूर्ण रूप की जाए। सभी प्रश्न भिक्ष-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही विषय अभिव्यक्ति में उनकी विभक्ति करनी ही पड़ेगी। यह तो में सत्य है । एक वाक्य में जो कयन है, दूसरे में वह उससे भाषा की विशेषता है कि वह एक ही शब्द में वस्तु के पर्वथा भिन्न है। फिर भी परस्पर में अबिरोध है। विरोध इस सम्पूर्ण स्वरूप को नहीं बांध सकनी । जिम धर्म का प्रति- लिए नहीं है कि प्रत्येक में अपेक्षा भेद है। वह मकान पादन करना हो उसके लिए नबोधक शब्द का प्रयुक्ति उपादान कारण की अपेक्षा से पत्थर का है। स्वामित्व की करके अवशिष्ट धर्मों के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग अपेक्षा से नरेश का है । कार्यक्षमता की अपेक्षा से रहने का होता है अर्थात प्रतिपाद्य धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों की है। काल की अपेक्षा से सन् १९१२ का है। श्राकार और मना का म्वीकरण तो है किन्तु वर्तमान में उसका कथन ऊंचाई की अपेक्षा से पांच मंजिल का है। वर्ण की अपेक्षा नहीं किया गया है। कभी-कभी 'म्यात्' शब्द की प्रयुक्ति से लाल रंग का है और किमी दल विशेष से सम्बन्ध की के अभाव में भी वस्तु धर्म का प्रतिपादन होता है, किन्तु अपेक्षा से समाजवादियों का है । प्रश्नकर्ता की भिन्न-भिक्ष वहां भी कथक के अभिप्राय में कथ्यमान धर्म के अतिरिक्त अपेक्षाएं उत्तरदाता को भिन्न-भिन्न उत्तर देने को उत्प्रेरित धर्मों का निराकरण करने की बात नही जानी चाहिए। तभी करती हैं। क्योंकि एक ही उत्तर से समस्त जिज्ञासाएं समावस्तु सम्बन्धी वास्तविकता का समादर किया जा सकता है। हित नहीं हो सकती। इस तथ्य को हम एक वाक्य में यों भी कह सकने हैं कि जोक भाषा और व्यवहार में मापेक्ष कथन का यह वस्तु सम्बन्धी सम्पूर्ण दृष्टि प्रमण तथा एक दृष्टिनय प्रकार जितना मौलिक और सत्य है उतना ही दर्शन जगत कहलाता है। में भी। उपरोक्त प्रावास सम्बन्धी ज्ञान में एकान्तवादिता प्रमाण और नय दोनों का उद्देश्य यही है कि वस्तु मल्य से जितनी दूर ले जाती है, उतनी ही तत्व ज्ञान के का प्रतिपादन उचित भाषा में हो और ज्ञाता उनके अभि- सम्बन्ध में भी। अतः दर्शन और लोक व्यवहार दोनों ही प्राय को ठीक प्रकार से हृदयंगम कर सके। इस वाक्य क्षेत्रों में म्यादाद का प्रयोग न केवल उचित ही है, किन्तु प्रणाली को अहिया की वैचारिक पृष्ठ भूमिका कहा जा अनिवार्य भी है। सकता है। क्योंकि यह यथार्थ कथन है और यथार्थता ही महावीर के म्याद्वाद के सम्बन्ध में कुछ हमर दार्शनिकों अहिमा है । यह प्रणाली कथित और कथनावशिष्ट धर्मो का खास तर्क यह है कि यदि कोई वस्नु 'मन' है तो 'अमन्' को, यदि वे वस्तु-प्रमाणित होते हैं तो समानरूप से वी कैसे हो सकती है? इसी प्रकार एक-अनेक, नित्य-अनित्य कार करती है । अलग-अलग अपेक्षाएँ अलग-अलग प्रादि परस्पर विरोधी स्वभाव एक ही समय में एक ही जिज्ञामाओं के प्रत्युत्तर से स्वयं प्रतिफलित होती हैं। एक पदार्थ मम टिक सकते है। इसी तर्क के आधार पर शंकरामकान विशेष के लिए प्रश्नकर्ता को उसकी जिज्ञामानों के चार्य और रामानुजाचार्य ने स्याद्वाद को 'मिथ्यावाद' कह कर अनुसार भिन्न-भिन्न समाधान दिये जा सकते हैं उसकी उपेक्षा की । राहुल मांकृत्यायन ने 'दर्शन-दिग्दर्शन' -यह मकान पत्थर का है। में बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों के आधार पर दही, २-यह मकान नरेश का है। दही भी है और उंट भी, तो दही खाने के समय ऊंट ग्वाने ३-यह मकान रहने का है। को क्यों नहीं दौड़त ? इस प्रकार के कथन से म्याद्वाद का ४-यह मकान सन् १९६२ का है। उपहास किया है। डा. राधाकृष्णन ने इसे 'अर्धमन्य' कह Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अनेकान्त कर ज्याज्य बताया है । इसी प्रकार किसी ने इसे 'छल' केवल ज्ञान प्राप्त किया। यह घटना ऋजुबालिका की अपेक्षा और किमी ने इसे 'मंशयवाद' की मंज्ञा प्रदान की है किन्तु से 'मन' है किन्तु भगवान महावीर ने 'पावापुरी में चल यह सब म्याहाद के हाई को नहीं समझने का ही परिणाम ज्ञान प्राप्त किया, यह 'ग्रमन' ही कहा जागा । काल भी है। प्राचीन बद्धमूल रूद धारणाएं नथा जैनेतर ग्रन्थों में जन अपेक्षित है। प्राचार्य श्री तुलसी को । मा ६२ को दर्शन के लिए किए गए कथन को ही प्रमाण घोषित करना अभिनन्दन ग्रंथ भेट किया गया। यह 'मन' है. किन दमक भी इसमें सहायक हुए हैं। अन्यथा पापेक्ष दृष्टि से 'हे' अतिरिक्त किसी अन्य काल का कथन वस्नु को प्रकट नहीं और 'नही है। के कथन में विरोधाभास होना ही नहीं करता । द्रव्य, क्षेत्र और काल की तरह भार भी अपेजित चाहिए। है। तरलता की भावना जल की मना को ही व्यक्त करती मर्राफ की दुकान पर किसी ने दुकानदार से पूछा- यह है, अन्यथा वाप कग या हिम भी उस अन्तर्गन होन, जेवर सोने का है न दुकानदार ने उत्तर दिया-'हां यह जो कि पानी नहीं किन्तु उपक रूपान्तर है। इस प्रकार मोने का हैं । दसरे व्यक्ति ने पूछा-'यह जेवर पीतल का है उपरोक्न 'मत-अमन' अथवा विधि-निये व पेन्निक न दुकानदार ने उत्तर दिया-'नहीं, यह पीतल का नहीं है। कथन के समान ही बम्न में एक अनेक, वाच्य अवाच्य यहाँ कथ्यमान जेबर के लिए 'यह जवर पाने का है। यह प्रादि विभिन्न धर्मों की मना विद्यमान है। कथन जितना सत्य है उतना ही यह पीतल का नहीं है यह किसी वस्तु या पदार्थ में जो अपना घटिननी है। भी माय है। एक ही जेवर में मोने की अपेक्षा से 'मन' उनका म्बीकरण ही अनेकान्त का मिन्द्रान्त है। इसका अर्थ और पीतल की अपेक्षा में 'अमत्' अर्थात् है' और 'नहीं यह नहीं है कि जिस वस्नु में जो अपेक्षा विद्यमान न हो, है। ये दोनों कथन सत्य है । म्याद्वान इसी मिन्दान्त की उपका भी अनेकान्त के माध्यम से स्वीकरण हो । शशकशृग पुष्टि है । 'मन' है तो 'अमन' कम हो सकता है, यह या गगन पुष्प की अस्तित्व सिद्धि में अनेकान्त यारेज नहीं संदह तो ठीक ऐसा ही है कि पुत्र है तो पिता कैसे हो सकता है, क्योंकि उममें अस्तित्व का हो अमिन्द्वि है। अनेकान्त है किन्तु वह अपने पिता का पुत्र है, तो अपने पुत्र का का क्वल यथाथता का प्रटीकरण करता है। वस्तु का पिता भी है। इसमें विरोध नहीं, कंवल अपेक्षा भेद है। यथेच्छ परिवर्तन उसे अभीष्ट नहीं है। प्रत्येक वस्तु और पदार्थ स्वराज्य, स्वतंत्र, स्वकाल और दर्शन क्षेत्र में महावीर का अनेकान्त विचार-क्रान्ति की स्वभाव की अपेक्षा से 'मन' और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल दिशा में एक नया मोड है। श्राचार-क्रान्ति के लिए विचार और परभाव की प्रणेता से 'अम्मन' है । इसे महजतया ही क्रान्ति आवश्यक होती है । अन. विचार-पक्ष को उदार, समझा जा सकता है। वस्त्र म्वद्रव्य रई की अपेक्षा में परिष्कृन पर संस्कृत बनाने के लिए अनेकान्त का प्रयोग 'मत्' और परदन्य मिट्टी की अपेक्षा से 'श्रमत' है। क्यों- अत्यन्त उपयुक्त एवं वास्तविक है। इसमे अनाग्रह दृष्टि कि वस्त्र, वस्त्र है मिट्टी नहीं । द्रव्य के समान वस्तु में क्षेत्र का विकास होता है और वही वस्तु मन्य एवं नत्व की परख भी सापेक्ष है भगवान महावीर ने ऋजुबालिका नदी के तट पर की वास्तविक मरणी है। *** अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें अवशिष्ट है जिनमें इतिहास पुरातत्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं। जो पठनीय तथा संग्रहणीय है । फाइलें अनेकान्त के लागत मूल्य पर दी जावेंगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा। ___ फाइलें वर्ष ८.१, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६. की हैं अगर बापने अभी तक नहीं मंगाई हैं तो शीघ्र ही मंगवा लीजिये, क्योंकि प्रतियों थोड़ी ही अवशिष्ट हैं। मैनेजर 'अनेकान्त' वीर सेवामन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्ली। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 . . 9.71 महाकोशल का जैन पुरातत्त्व (बालचन्द्र जैन एम० ए०, साहित्य शास्त्री, रायपुर संहालय) प्रस्तुत निबंध में प्रयुक्त 'महाकोशल' पद से पुराने मलयप्रदेश के उन मत्रह हिन्दी भापी जित्नों का निर्देश है, जाधव जबलपुर भर गयपुर कमिश्नास्यों के अन्तर्गत है। प्राचीन भूगल ने अनुसार भारत भूमि पर कोमल' नाम के दो प्रदश . जो क्रमश. उt कोमल और दक्षिण कामन कहे जाने । उत्तर कोमल दश में अयोध्या और उसका समापवती नत्र सम्मिलिन या, नथव दक्षिण कोमल छनीमगढ़ के गयपुर और बिलासपुर जिलों तथा सम्बलपुर के क्षेत्र नकम्तृित था । गत. दक्षिणा कामल प्रदेश उमा नाम + उत्तरीय प्रदेश में विस्तार में बड़ा था. अतएव इसे महाकोमल का जादा जाने कंगा थी । किन्तु प्राधनिक गजनीनिक जागरण ने म..कोशल की नयी मीमा का निर्माण किया जिसक अनुमा. प्राचान दक्षिण कोमलीय झंत्र * साथ जबलपुर, होगमावाद, नरसिंहपुर. बगडवा, मागर बालाघाट बैतूल अादि जिलों तक विग्लन नेय भी महाकौशल में मम्मिलित कर लिये गय । इस लेख में हमी बडे विस्तार वाले महाकोशल के जैन पुरातत्व के विषय में श्रावश्यक जानकारी संक्षप में दे दने का प्रयत्न किया गया है। ___ महाकोशल में ईम्बी पन ६०० से पूर्व की जन पुरातत्व सामग्री अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। किन्तु इससे यह अनुमान लगाना कि उसमे पूर्व के काल में यहा जैन रहने नहीं थे, उचित नहीं होगा। छत्तीसगढ़ में लगे उहीमा (अजितनाथ और मंभवनाय, ५० वीं शती ईम्बी, प्रदेश में जनधर्म का प्रचार भगवान महावीर के जीवनकाल्न में ही हो चुका था। नन्द-मौर्य और उसके पश्चात उडीमा कागनलाई. जिला जबलपुर) के चेदिवशीय खारवेल के समय में उड़ीमा जैन मतावलम्बियो जैन प्रतीत होने है। यह गामा मौर्यकाल की मानी गई है। का विश्चत केन्द्र बना हुआ था । गमी स्थिति में उसके गुप्तांत्तर काल की कुछ जैन प्रतिमाएं छतीसगढ में पडोमी छत्तीसगढ़ में अवश्य ही जैनधर्म का प्रचार रहा गयपुर और बिलासपुर जिला क गांवों में मिली है । रायपुर होगा । लेकिन या तो पर्याप्त सर्वेक्षण के प्रभाव अथवा जिले में इस प्रतिमा सामग्री का केन्द्र मिरपुर (प्राचीन श्रीकाल के दुष्प्रभाव के कारण छत्तीसगढ़ की प्राचीनतम जन पुर) और बिलासपुर जिले में मल्लार (प्राचीन मल्लाल) प्रतिमाएं आदि अभी तक अनुपलब्ध हैं । इसक विपरीत है। मल्लार को जन प्रनिगाए यहां-वहां बिखरा पड़ा है। कुछेक विद्वानों का मत है कि सिरगजा जिले की रामगढ कई-एक प्रतिमाएं नो विशालकाय है जिनका समय कलचूरपहाड़ी में स्थित जोगीमारा गुफा की कलाकृतियों के विषय कान है। किन्तु इस स्थान से जो अम्बिका देवी की खड़ी की Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अनेकान्त प्रतिमाएं प्राप्त हुई है, वे निश्चय रूप से ७ वी ८ वीं डाहलमण्डलीय क्षेत्र में बहुत मिलती हैं। जबलपुर जिले में शताब्दी की हैं। सिरपुर की जन प्रतिमाओं में पार्श्वनाथ त्रिपुरी, बहगांव रीठो, धाभाहिनौता, कारतलाई, बिलहरी की प्रतिमाएं विशिष्ट हैं। उसी प्रकार राजिम में, जो कि आदि स्थानों में कलचुरि काल में जैन केन्द्र स्थापित थे, वर्तमान में भी हिन्दुओं का एक मुग्व्य तीर्थ है, पार्श्वनाथ वहां अनेक मंदिरों और प्रतिमाओं का निर्माण हुश्रा । की एक प्रतिमा उपेक्षित पड़ी है । वह संकेत करती है कि त्रिपुरी की जैन प्रतिमाएं कलकत्ता और नागपुर के संग्रहाप्राचीन काल मे राजिम में जैन मंदिर स्थापित था, जिसके लयों में भी प्रदर्शित हैं । इनको कला उच्च कोटि की है। कोई अन्य अवशेष अब अप्राप्य हैं। बिलासपुर जिले के त्रिपुरी की दो प्रतिमाओं पर कलचुरि सं... के उत्कीर्ण रतनपुर में भी प्राठवीं-नौवीं शती की अम्बिका प्रतिमाएं लेग्स हैं । जबलपुर के हनुमानताल स्थित जैन मंदिर में मिली हैं। विराजमान कलचुरि कालीन प्रनिमा अतीय प्रभावपूर्ण है। कलचुरि राजवंश के राज्य काल में महाकौशल में बहुरीबन्द में शांतिनाथ की विशाल प्रतिमा है, वह कलचुरि अनेक जैन मंदिरों का निर्माण हुमा । इस वंश की डाहल- राजा गयाकर्णदेव के समय में स्थापित की गई थी। पिलमण्डलीय और दक्षिण कोमलीय, दोनों ही शाखाओं के हरी में जैन तीर्थंकरों की पद्मायन और कायोमर्ग दोनों नृपति बड़े ही धर्ममहिष्णु रहे हैं। डाहलमण्डलीय कल- श्रासनों की प्रतिमाएं मिलती है। वहां की बाहबलि प्रतिमा चुरियों की राजधानी त्रिपुरी (जबलपुर के निकट) और अपने किस्म की एक ही है । बडगांव की जैन प्रतिमाएं । दक्षिण कोसलीयों की राजधानी रत्नपुर (जिला बिलामपुर) वीं शती की हैं। कटनी के निकट कागतलाई नामक ग्राम में स्थापित थी। इसलिये इन दोनों ही स्थानों में जन में अनेक जैन मंदिरों के अवशेष बिम्वर पई हैं। इस स्थान कलाकृतियों का निर्मित होना स्वाभाविक था। प्रारंग (जिला की बहुत सी जन प्रतिमाएं अब रायपुर संग्रहालय में ले रायपुर) में बारहवों सती का एक जैन मंदिर आज भी खडा पाई गई हैं और वहां दीर्घा में प्रदर्शित हैं। इन अप्राप्त हा है। इस मंदिर की प्रतिमाओं के अतिरिक्त कुछ और प्रतिमाओं में विभिन्न तीर्थकरों यथा ऋपभनाथ, अजितनाथ. जन प्रतिमाएं उसी गांव के महामाया मंदिर में रखी हुई हैं। संभवनाथ, पुष्पदंत. शीतलनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ. ये सभी प्रतिमाएं बहुत ही सुन्दर हैं और भिन्न-भिन्न तीर्थ मल्लिनाथ, मानमुघतनाम, पार्श्वनाथ और महावीर की करों की हैं। इन प्रतिमाओं को देखने से एमा ज्ञात होता प्रतिमाओं, साथ जैन दवियों, अम्बिका, पद्मावती और है कि प्रारंग में कायोत्सर्ग आसन की प्रतिमाएं अधिकतर सरस्वती का भी प्रतिमा है । महनकृट जिन-बिम्ब और बनाई जाती थी । इन प्रतिमाओं के अलावा, प्रारंग में सर्वतोद्रिका प्रनमाग भी इस संग्रह में हैं और सबसे स्फटिक की तीन प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं, जो अब रायपुर के महत्वपूर्ण तो हैं द्विमूर्तिका-प्रतिमाएं त्रिमूर्तिका और चतुएक जैन मंदिर में विराजमान हैं। ये स्फटिक प्रतिमाएं १० विशतिपट्ट। वीं ११ वीं शती की प्रतीत होती है । उनमें से बड़े श्राकार नरसिंहपुर जिले में प्राप्त कुछ प्रतिमाएं नागपुर के की प्रतिमा पार्श्वनाथ की है और दोनों छोटी प्रतिमाएं संग्रहालय में हैं । इनका समय १३ वीं शती ई. है। शीतलनाथ की। सिरपुर (रायपुर जिला) रत्नपुर और बैतूल; और बुरहानपुर की प्रनिमाएं भी उसी संग्रहालय में धनपुर (बिलासपुर जिला) भी तत्कालीन जैन केन्द्र थे। सुरक्षित हैं । मुक्तागिरि श्राज भी एक जैन तीर्थ है । स्नपर की कलेक जैन प्रतिमाएं रायपुर के संग्रहालय में ले सागर और दमोह जिलों में भी अनेक प्राचीन जैन प्राई गई हैं। धनपुर में आज भी अनेक मूर्निरखण्ड तितरे- केन्द्र हैं, जिनमें रहली, फतहपुर और कुण्डलपुर मुख्य हैं। बितरे पड़े हैं। कल्लार की प्रतिमाओं का उल्लेख पहले मंढला का कुकर्रामठ जैन कहा जाता है। किया जा चुका है, उनमें से अनेक बड़ी विशाल हैं। इस प्रकार महाकौगल क्षेत्र में गुप्तोत्तर काल से लेकर त्रिपुरी के कलचुरियों के समय की जैन कलाकृतियों कलचुरि काल तक की प्राचीन प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गेही पं गृह में न रचे १३३ (पृष्ठ १२६ का शेप) रहता था, अब वह विष-कणिका निकल गई मानो मेरे जिन्होंने भववांछा को विनष्ट करने के लिये प्राशावल्ली उन्धान का ही शुभ दिन पाया है। अब मैं वास्तविक साधु के रस को निःशक्त बनाया है । भगवन मेरा यह गुरुतर बन पाया है। और मुझे विश्वास है, कि मेरी साधना अवश्य अपराध कैसे दूर होगा ? और में अपने जीवन को कैसे सफल होगी। वारिषेण पर यह उक्ति पूर्णतया चरितार्थ होती सफल बना सकृगा। वारिपेण जैमा महा मन्त ही मुझे है। गेही पै गृह में न रचे ज्यों जल में भिन्न कमल है। नगर संसार समुद्र पार कर सकता है । इस ने मेरा बड़ा उपकार । नार को प्यार यथा काद में हेम अमल है।' सोमशर्मा किया है । जिस में कभी भुला नहीं सकता । इसके तप वारिपेगा के साथ शीघ्र ही वन में पहुंचे, अब वे पूर्णतया निः और त्याग ने मुझे वह शक्ति प्रदान की है, जिसे में अब शल्य थे। प्राप्त निर्विकार भाव से उन्होंने पूर्णतया मुनिपद तक प्राप्त न कर सका था। मेरा चिन निरन्तर डांवा डोल का पालन किया और परन्परया मुक्ति पद पाया । * "जगत राय की भक्ति " ( गंगाराम गर्ग एम० ए०, रिसर्च स्कॉलर ) ईश्वर के प्रति नीव अनुरक्ति भक्ति कही जाती है। नन्दि की पंचविशतिका की प्रशस्ति में जगतराय को नन्दलाल धर्म प्राण देश होने के कारण भारत की काव्य-साधना की का पुत्र स्वीकार किया गया है ३ जो समीचीन प्रतीत होता पृष्ठभूमी में भक्ति का महत्त्वपूर्ण योग रहा है, चाहे सन्त है। जगतराय औरंगजेब के दरबार में उच्च पद पर पापीन काव्य हो अथवा वैष्णव काव्य; बौद्ध काव्य हो अथवा जैन ये। 'राजा' इनकी पदवी थी। अगरचंद नाहटा के विचारों काव्य कोई भी यहां भक्ति से अछूता न मिलेगा। एक बात के अनुसार डॉ. प्रेममागर जैन ने जगतराय को एक प्रभाव. और है-विभिन्न साम्प्रदायिक काव्य-धाराओं के दार्शनिक शाली धर्म प्रेमी, कवियों का श्राश्रयदाता दानवीर व चिन्तन में भेद दृष्टि गोचर हो सकता है किन्तु भक्ति के निरहंकारी बतलाया है। डॉ. जैन ने जगतराय के प्रागम विचार से इनमें कोई भेद भी नहीं प्रांका जा सकता विलाप, सम्यक्त्व कौमुदी, पंचविशतिका, छंद रत्नावली, उपाम्य का गुण-कथन अथवा महिमा-गान, श्रारम-निन्दा, मानानन्द श्रावकाचार प्रादि ग्रंथों की चर्चा की है किन्तु एक निप्ट भक्ति की कामना श्रादि मूलभूत बाते ऐसी हैं जो कवि का भक्त हदय केवल अद्यावधि प्राप्त १५२ पदों में पभी सम्प्रदाय क भक्तिसाहित्य में समान रूप से मिलती ही देखा जा सकता है। डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल ने है। जैन साहित्य भक्ति की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। पद्मनन्दि पंचविंशतिका के आधार पर जगतराय का काव्य जगतराय का परिचय-जगतगय का जैन भक्ति-साहित्य काल मं० १७२०-१७४० ई० ठहराया है। में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके पिता मह माईदास सिंघल जगनराय की भक्तिः -जगतराय ने अपने प्राराध्य गोत्रीय अग्रवाल जैन थे। माईदाम के दो पुत्र थे रामचन्द्र जिन भगवान् शान्त स्वरूप, निष्काम, विरागी, शोभायमान. और नन्दलाल । इन दोनों भाइयों में से जगतराम किन के महा-महिम, अक्षरविहीन वाणी द्वारा उपदिष्टा बतलाए हैं। पुत्र थे, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। कवि काशी. वे जिनन्द्र को पटकाय जीवों पर दयालु, सबका हितकारी दास ने अपनी सम्यक्व कौमुदी में इनको रामचन्द्र का पुत्र यष्टि का सेव्य भी मानते हैं। कहा है। अगरचंदानाहटा को भी यही राय हे २ किन्तु पद्म- पुण्य हर्ष, पदमनंदि पंचविंशतिका की प्रशस्ति १ सम्यक्त्व कौमुदी की प्रशस्ति, अनेकान्त वर्ष १० पग्रह, पृ. २३८ किरण १० ४ हिन्दी के भक्ति काव्यमें जैन माहित्यकारों का २ भारतीय साहित्य वर्ष २ अंक २ में जगतराय मंब- योगदान की पाडुलिपि । १२३ न्धी लेख १२३ । ५ देखो, जैनपद संग्रह Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अनेकान्त जगतराय के पदों में प्राराध्य का म्वरूपांकन अधिक ज्ञानादिक धन लूट लियो म्हारो नर्क न मोपै दया जी नहीं हुमा प्रत्युत् भक्त के अवगुण व अन्पता की व्यंजना अधिक हुई है । वे कहते हैं कि मैंने व्रत, तप, संयम, नीर्थ, 'जगत' उदधि ते पार करीजे मम दुःग्य संकट कौन जी दान कुछ भी तो नहीं किया और न ज्ञान, ध्यान धर्म व अधर्म को पहिचाना है। प्रतः मुझे तो तुम्हारी दया का है। 'जिन' के गुण तथा अपनी अल्पना व दुःग्य के कथन पाश्रय है के उपरान्त जगतराम को उनके विरद का स्मरण होता है। बत तप संजम कछु बनत न मौर्षे हो सिथिल क्रिया भक्त के अवगुणों का अवलोकन तथा उस पर विचार कठिनाई। करना भगवान के लिए उचित नहीं हो सकता क्योंकि उन याते 'जगराय' प्रभु नाम ही जगत निति अब कडू पर ध्यान देने से उत्पन्न ग्लानि उनके विरद-पतित-पावनता करिबो नेग बढ़ाई ॥ की पूर्ति में बाधक प्रमाणित होगी। यही सोच कर जगतराय जिनेन्द्र को उनके विरद का स्मरण कराते समय उसके सम्यक पालन के लिए उनके अवगुणों पर ध्यान न देने का निवेदन भी कर देते हैंकुछ ज्ञान ध्यान में न जानू अरु धर्म अधर्म न जिन जी न्यारोला जी हो ये...... ... .. ... ... ...। पहिचानू। मेरी करनी परि मति जइयो अपनों विरद सम्हारोला जी हो। चंद जगतपति जग भानू मेरे मोह तिभिर को अवता सरनो पकड़ यों तेरी जगतराय प्रति-पालालो जी ॥ हटा देना ॥ भक्त अपने उद्वार में श्राराध्य को दृढ़ता पूर्वक रुचि कभी दान हाथ से नाहि दिया कभी मुमरन मुग्व मे लिवाने के लिए उनके द्वारा उपकृत भक्तों का स्मरण भी नाहिं किया। उन्हें करा देते है । अजामिल, सेना, नरमी बाल्मीकि, कभी पग से मैं तीर्थ नाहिं गया मोहि धरम की रीति तीर्थ नाहि गया माहि धरम की रीति अहिल्या आदि के उद्वार की चर्चा वैष्णव भक्ति माहित्य मिग्वा देना ॥ में सर्वत्र दृष्टि गांचर होती है। जैन भक्त भी इस क्षेत्र में यह विनती है मोरी जगतपति मब जीवन के रखवाले पती। किसी से भी पाछे नहीं रहे। जिनेन्द्र भक्ति से संठ धनञ्जय तुम दया धुरंधर धीर सती 'जग' दया की धूम मचा देना॥ के पुत्र का विष उतरा, मानतुग के बंधन तोडे, वादिराज जैनधर्म में पुनर्जन्म तथा कर्मवाद का महत्त्वपूर्ण का कोढ़ मिटाया, मागर से श्रीपाल को बचाया, भविष्यदत्त स्थान है । मनुष्य के दुःख सुख का दाता ईश्वर नहीं प्रत्युत् को घर पहुँचाया, रमिला की प्राशाएं पूरी की, सिंहोदर वे कर्म हैं जो उसके पूर्व जन्मों में किये हैं । यद्यपि शुभ और को संकट में वज्रकरण के मान को घटाया तथा कुमुदचन्द्र अशुभ रूप उभय कर्म ही मोक्ष प्राप्ति में बाधक है किन्तु के दर्शन दिये आदि कथाओं में विविध भक्तों के प्रति की अशुभ कर्म अपेक्षाकृत अधिक कष्ट दायक और परित्याज्य गई रक्षा एवं उपकार के स्मरण ने ही जगतराय को अर्हन्त है जिसकी विद्यमानता में शुभ कर्म व ज्ञान-प्राप्ति की प्रेरणा की शरण में आने का साहस प्रदान किया हैही नहीं मिलती। इन अशुभ कर्मो की भयावहता से घबड़ा श्री परहंत शरण तेरी पायो । कर छूटकारा पाने के लिए जगतराम जिनेन्द्र से प्रार्थना माता मनिताको समयमा निजी करते हैं सेठ-धनं-जय स्तोत्र म्च्यो तब ताके सुत को विष उतरायो। अशुभकर्म म्हारी लेरा जी फिर छ, शिवपुर जाने न मान तुग के बन्धन तोडे वादिराज को कोढ मिटायो । देव दीनानाथ । कुमुदचन्द्र प्रभु पारसमेंटयों सागरमें श्रीपाल बचायो। भव-भव म्हारी गेल न बांडत दुःख-देतां कुछ नाही उर्मिला की वांछा पूरी भविष्यदत्त को घर पहुचायो। रैछ। सिंहोदर के संकट माहीं वज्रकरण को मान घटायो । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जगत राय की भक्ति" १३५ भक्त सहाय करी बहुतरी तिन के कथन पुरान बतायो। लगन रहत तुव प्रोरी। भई प्रतीनि सुनी जब महिमा तव 'जगराम' शरण चिन लायो। मनवां मेरा लाग्यो हो जिनेश्वर स्यौं । जैन भक्ति साहित्य में जिनेन्द्र के प्रतिमा-दर्शन को और न मोहि सुहाय कछु अब काम कहा पर मौं। महत्वपूर्ण स्थान मिला है। धानतराय, बनारसीदाम आदि जगतराम अपने प्राराध्य से किमी भौतिक पदार्थ सभी भक्तों के प्रतिमा-दर्शन से उत्पन्न प्रानन्द को व्यक्त अथवा मुक्ति की अभिन्नापा नहीं करतेः मुबुद्धि-दानी तथा करने वाले पद मिलते हैं। जगतराय भी जिन प्रतिमा के पाप विनाशिनी जिन मेवा तथा 'जिन' मंत्र का जप ही उन्हें दशन मात्र में अपने दम्वों के विनाश, हदय को प्रफलित अभीप्सित हैतथा अंग-प्रत्यंग को रोमाञ्चित पाकर गदगद हो उठे हैं - द हो जिनराज देव मेवा मोहि आपनी । प्रभु के दर्शन को भाये यावत ही दु.ख इंद नमाये । दन जो सुबुद्धि कुबुद्धि की उथापनी । देख दरम देऊनन मिराये निरम्वि-निरग्बि पुनि पुनि ललचाये। हूँ नो महा पातगी कह न अंग मातगी। सीम धारि कर चरन नमाये नमत नमत नेऊ न अधाये। सुनी में नरी सेवा है अनेक पाप कांपनी । हियरे-हरम-तरंग न माए तब सुर भरि रपना गुन गये। गुरौ 'जगराम' दास ग्राम प्रभु नाथ । अंग अंगनन पुलकित चाये अब सव काज मरे मन भाये । पाऊं नाम मंत्र के जपावन की जपावनी । 'जगतराय' सेवक सरमाये तीन लोक-पति माहिब पाये। जगतराय केवल इमी जन्म में अपने पाराध्य की सेवा के अभिलापी नहीं हैं प्रन्युन वह तो जन्म-जन्मांतरों में भक्ति की चरम परिणनि अनन्यता है । यह अनन्यता भी उनकी सेवा के उनके दर्शन व कथा श्रवण के भी सतत जगतराय के कई पदों में परिलक्षित होती है, जिसमे विदित आकांक्षी हैहोता है कि जगतराय की प्रीति तथा लग्न अन्य देवों की संवा फल यह पावृ तिहारी। अपेक्षा जिनेश्वर से ही लगी रहती है और उसके अतिरिक्त भव-भव म्वामि मिली नुमही ही सेवक हवं गुन गावू। उन्हें कुछ सुहाना नहीं तिहारी मृरति अपने ननन निरग्वि निरग्वि हरमाऊं। तो मो जारी प्रीति जिनराय निहारे चरण अपने करन ते अर्ध बनाय चढ़ावू । देव और मबनि माँ तारी। कथा निहारी अपने श्रवनन मुनत मुनन न अघावू । रम सब विरम भये तुम रम लम्बि, जगतराय प्रभु जबलों शिव द्यौ तबलौं हतना चितचावू। “जयपुर की संस्कृति साहित्य को देन-" श्री दलपतिराय और उनकी रचनाएँ प्रो० प्रभाकर शास्त्री एम० ए० । "भामेर" या "अम्बानगर" के शामक-महाराजाधि- प्रेमी थे और आपकी सभा में संस्कृत भाषा के कतिपय राज मिर्जाराजा रामसिंह प्रथम का नाम कछवाहवंशीय विद्वान सम्मानित थे। सम्मानित विद्वानों में एक श्री दलशासकों के इतिहास में प्रसिद्ध है । यह नगर राजस्थान की पतिराम या श्री दलपतिराय भी थे। वर्तमान राजधानी जयपुर से ६ मील उत्तर में जयपुर- श्री दलपतिराय का परिचय उपलब्ध नहीं होता। दिल्ली सडक पर स्थित एक प्राचीन रमणीक एवं ऐतिहा- केवलमात्र यह कहा जा सकता है कि इनका मुगल कालीन सिक स्थान है। मिर्जा राजा रामसिंहसंस्कृत भाषा के अत्यन्त शासकों से अच्छा परिचय था। उनकी रचनाओं के देखने Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान् इनौ, जो इतर जन ताहिं न बांचे । तामें पातिसाहन के नित्य fare दिन कृय, अदब की रीति, वैभव, प्रताप, मनसब जागीर मafra को व्योरा इत्यादिक अनेक प्रबन्ध हते । किताब को दल विशेष हतो । १३६ से यह पता चलता है कि ये पहले बादशाह के पास रहे थे और तदनन्तर आमेर के शासक मिर्जा रामसिंह के पास चले आये थे । 1 राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान, जोधपुर के हस्तलिखित पुस्तक संग्रहालयाध्यक्ष श्री लक्ष्मीनारायण जी गोस्वामी को एक गुटका प्राप्त हुआ था जिसमें प्राचीन अनेकों ग्रन्थ लिखे ये उसमें श्री दलपतिराम के नाम से रचनाएं उपलब्ध होती हैं (1) चकत्ता पातशाही की परम्परा और (२) राजरीति निरुपणम् कवि ने अपना वर्शन करते हुए उसमें अपने आश्रयदाता महाराज रामसिंह का यशोवर्णन एवं उनके आश्रय की प्रशंसा की है। प्रारम्भ में प्रास्ताविक परिचय उपस्थित करते हुए लिखा है कि लेखक ने वह विषय बादशाह अहमदशाह के उस्ताद महफूज खां नामक व्यक्ति की व्यक्तिगत पुस्तकें पढ़कर इस चकत्ता पातशाही की परम्परा" नामक रचना का प्रणयन किया है । इसमें बादशाहों के नित्यनैमितिक दिन कृत्य अदव की रीति वैभव, प्रताप, मनमब, जागीर आदि का स्तृित विवेचन है । यह पुस्तक उर्दू मिश्रित हिन्दी भाषा में हैं उक्त गुटके में उपर्युक्त ग्रन्थों के २३ पृष्ट हैं । 2 · इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में कुछ सामान्य विवेचन है"विनय विधिवाही विनेता के लायक है। जाकी चटसाल में विनय है भक्ति मेव (1) अरु दीनता परमसेव जाणो मनुष्य कौं च्यारिकों उपकार प्रतिकार है ।१ प्रभु २ माता पिता ३ गुरु ४ खाविंद || प्रथम प्रभु जान नरदेह दई सुरदेह 1 पुनीत दुसरे मातापिता जिन धाम सीत तीसरी गुरु, जो नरतन में नर गु (ण) न दायें । चौथो खाविंद जो अन्न बलते निन प्राण हि राम्बै । I aafa को प्रतिकार न ब बिना स्वामि के उपकार । जो वे सब ही नित्त नैमित्तिक देह के अधीन अरू देह अन्न के प्रश्न स्वामि के । ग्रन्थ लेखन की 'भूमिका' लिखते हुए श्री दलपतिराय लिखते है-"अथ विवुधन की शिलन्छ तिवारी में एक दिन महफूजपा [खां] नाम अहमदशाह को उस्ताद जो मोहू पै कृपा राखत हौ, ताकी बैठक के ताक में दोय यावनी किताबघरी हती । १. अदाबस्सहल तीन २. मिफ्ताहुज्जबाबित। ए दुई पातिसाही किताबखाना में आई इसी प्रतिबन्ध एक दिन खान के दिवानखाना के ताक तँ किताब में लई वांचनि लग्यो । ते ही प्रोसर [अवसर ] खान श्रायो । मोहि यनिये को निषेध कियो मोह जो नहीं द रही और पावन गीर्वाणवन ते जो जानिये में आई मो या संक्षिप्त प्रबन्ध में लिखी हैं। जो सीखे तिन्हें काम श्राव, चतुरनि की सभा में बादर बहाव । या प्रबन्धको नाम व [द] हुल प्रादाव धरयो है-ताको अर्थ है"विनय वि" बार्की उदय अधिकार इत्यर्थः ताम नाम पारसी में तल प्रत् श्रधिकार | इत्यादि” । । उपर्युक्त अवतरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यवनबादशाह अहमदशाह के पुस्तकालय की २ गोपनीय पुस्तकों के किचित् अध्ययन से सामग्री प्राप्त कर लेखक ने इन प्रयों का निर्माण किया है। इसके पश्चात १३ उ फारसी के पारिभाषिक शब्दों का अर्थ प्रस्तुत किया है। जैसे - [१] सिजदा को दण्डवत् । [२] तवाफकोपरिजुम्म । [३] सलाम को - कुशलपृच्छा । तसलीम की सौपियो । [५] कियाम कौ— ठाडो रहिवौ । [६] कलर की वैटियी [७] राम की शिष्टाचारइत्यादि । "चकत्ता पातशाही की परम्परा' नामक ग्रन्थ प्रथम पृष्ठ से प्रारम्भ किया जाकर पन्द्रहवे पृष्ठ तक लिखा गया है । यह पूर्ण है। इसकी भाषा पूर्व प्रदर्शित उद्धरण के समान है। अक्षरों का दुर्वाच्यता एवं लिपि के प्राचीन होने से उसका यथावत् अध्ययन कठिन है । इसके पश्चात् सोलहवे पृष्ठ से २३ वे पृष्ठ तक "राजरीति निरूपणम" नामक ग्रन्थ है । इसमें लेखक की विद्वत्ता का आभास अत्यन्त शीघ्ररूप में हो जाता है । सर्व प्रथम - ग्रहल खिदमत के नाम" शीर्षक के अन्तर्गत संस्कृत के शब्दों का प्रचलित उद् मिति भाषा में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के पर्यायवाची रूप में उल्लेख है । यथा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दलपतिराय और उनकी रचनाएँ १३७ "प्रतिनिधि-वकील, मुतलक, नायब, मुसाहिब । अमान्य: वजीर, दीवान, प्रधान । सनापति-बम्बमी। शालापनि = मीरमामान, खानमामा । मुलग्यक-मुन्शी । महत्तर==नाजिर। अनलाध्यक्ष मीर भातश, नोपखाना का दरोगा। वास्तुक==मीर इमारन । नगर गौप्तिक- कोटवाल । धर्माध्यन ==काजी। गणनायक रिमालेदार-इत्यादि । इस के पश्चात कारग्वानों के नाम दिए गए हैं। इनकी मंख्या ३६ बतलाई गई है। इससे पता चलता है कि उस समय ३६ कारखाने होते थे। इनका शब्दकोश की दृष्टि से अत्यन्त महत्व है। हर कारखानों के नाम दर्शनीय हैं [ ] शय्यागार==मुम्बगंज ग्वाना । [0] मजनागार:=गुमल्ल बाना, हम्माम । [३] देवायतन-तमन्बीह खाना । [४] भंपज्यागार==दवाई ग्वाना। [१] फलागार==मेवा खाना। [६] महानम==बबर्ची ग्वाना, रमौडा । [७] मुगंधागार==खुशबोई गाना । [=] प्रहरणागार-कोरमाना, मिनह ग्वाना । [6] मंन्तरागार==फराश बाना । [10] श्रीगृह -ग्वजाना । [31] मंदुग-अस्तबल, नरेला' ... - 'इस्यादि । उपयुक्त इन सभी का मस्कृत पद्या में विवेचन प्रस्तुत किया गया है। इसी रचना का नाम "राजरीति निरूपण" है। उदाहरण के लिए.-"अबल-खिदमत" के नामों में 'प्रतिनिधि' का उल्लेख किया गया है-वे लिखते हैं "वकील-मुनलक-नायब-मुसाहिब"प्राज्ञा भवेद्यदायत्ता हस्तलेखश्च भूपतः । जानीहि तं प्रतिनिधि राज्य सर्वस्वधूर्वहम् ॥३॥ वजीर-प्रधान-दीवान"प्रायद्वाराधिकाराः स्युर्यदायत्ताः महीभुजः । अमात्यं मन्त्रिणं विद्धि प्रधान सचिवं हि तत् ॥४॥ मुन्शी"पत्राणि प्रति पत्राणि लिखेद्यो हि नृपाशया। मुलेबक विजानीयाद् राजमन्त्र निकेतनम् ॥८॥ नाजिर'योs बरोधम्य कृत्यानि गुप्यादीनि विचेष्टते । महत्तरं विजानीयात तं प्रतीतं जितेन्द्रियम् ॥११॥ काजी"प्राचार व्यवहारेषु प्रायश्चिरोषु योजनात् । प्रवर्गयन्मान्यनमोधर्माध्यक्षः प्रकीर्तितः "२"इत्यादि । 'प्रहल विदमन' के नामों की परिभाषा देकर-शाला भेद' निर्दिष्ट किए हैं। जैसे-मुम्बसेज खाना "माचाः मम्तरणाय च यत्र तत्परिचारकाः। शट्यागारं विनिर्दिप्टं राजरातिविशारदः ॥३५॥ गुमल्ल म्वाना"यापङ्गनोद्वर्तनानि मचरोपम्करं जलम् । यत्र नन्मज्जनगृहं राजरातिज भाषया ॥३६॥ इत्यादि । इनके वर्णन करने के पश्चात्-देश विभाग तथा उपक अधिपों की परिभाषाएं प्रस्तुन की हैं जिनमें मूबा, पिरकार, प्रगणा (परगना) मौजे, बंदर, दयार, मजमूएदार का उल्लेख है सूबा"ममुद्र गिरिपर्यन्तं की चक्रं चक्री तदीश्वरः । मदांम्तम्य विभाग. स्याद् राष्ट्र जनपदं च तत् ॥१॥ "दयार"शिपिनः कर्मकागश्च व्यापार व्यवहारिणः । चतुरंग बलो राजा यत्र नदरंगमुच्यते ॥१०॥ चक्री चक्राधिपः सम्राट राष्ट्रपालः प्रकीर्तितः । मगदलेशी महाराजः सामन्तो विषयाधिपः ॥६॥ प्रामाणि कतिचिद्यम्य वशऽमी भौमिकः स्मृतः । ग्रामणीग्राममुख्यं (चौधरी) म्याद्रीनिजी देशपंडितः । [कानूनगो] ॥२॥ मजमुपदार'राजवेतनदानांशान प्रामाप्ति दशवार्षिकीम् । लिखित्वा धारयद्यम्नु लेखमंग्राहको मतः ॥१३॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ इसके पश्चात् परगनों के अधिकारियों की परिभाषाएं हैं जिनमें अमीन, करोटी, कोलकरोडी पोरांनी कार्य निगार या निवास, सहवलदार, कोटवाल फोजदार आदि का वर्णन है। 'पोनेदार' का वर्णन करते हुए लिखा है"राजद्रव्यं प्रजादन माददीत परीव्य यः । धनिको निक्षियेत पश्चात कथितः प्राप्तधारकः ॥ अन्त में उपसंहाररूप में लिखा है श्रनेकान्त " इत्यादयोऽधिकाराः स्युः प्रायशश्चकवर्तिनान् । सम्पत्तेरनुसारेण खन्येषां विद्धि भूभुजाम् ॥ १०२ ॥ एपा पद्धति राख्याना राजरीति वुभुत्सया । गर्भाजसेवा पाका मिश्च ॥ १०६ ॥ इति यवन पाठ्यनुकृत्या राजरीति निरूपणं नाम शतकं विरचितं दलपतिरायेण ॥ समाप्त शुभव पांचवे अध्याय में जिन धर्म अधर्म और श्राकाश द्रव्यों को एक-एक कहा है उन्हीं की और भी विशेषता प्रकट करने क लिये सूत्रकार कहते है : निष्क्रियाणि च ||७|| पद छेद : धर्मादीनि द्रव्याणि निष्क्रियाणि भवन्ति । धर्म, आदि द्वय धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य --क्रिया रहित हैं-- देशान्तर प्राप्ति रूप क्रिया से रहित हैं-हलन चलन क्रिया रहित है इस कथन से जीव पुदगल स्वतः क्रियावान भी सिद्ध हो जाते है । इस सूत्र का रहस्य समझने के लिये हमें पहले जैनधर्म के उत्पादव्यय का सिद्धान्त समझना आवश्यक है । द्रव्यों में निम्न प्रकार से उत्पाद व्यय होते हैं। । (१) पहली क्रियागुण द्वारा स्थान पतित दानि वृद्धि रूप उत्पाद व्यय है । यह परिणमन प्रत्येक aor at farकारण स्वतः सिद्ध स्वभाव है । द्रव्य एक स्थान पर अवस्थित रहे या दूसरे स्थान पर जाने के लिये गमन करे उस से इस परिणमन का कोई सम्बन्ध नहीं है । यह परिणमन तो छहों द्रव्यों में प्रत्येक समय स्वभाव या विभाव हर अवस्था में होता ही रहता है । यह ग्रन्थ के प्रारम्भ करते समय लेखक ने स्पष्ट रूप में बतलाया है कि इस ग्रन्थ का निर्माण बंद, कोश, स्वानुभव आदि के आधार पर किया गया है। वह एक प्रकार से यवन कालीन प्रमुख पारिभाषिक शब्दों का संस्कृतमेश है इसके द्वारा हम तकालीन शब्दों एवं श्रावश्यक व्यवहारों का ज्ञानकर सकते है । यह एक महत्वपूर्ण कृति है तथा प्रकाशन योग्य है । मोचशास्त्र के पांच अध्याय के सूत्र ७ पर विचार ( प० सरनाराम जैन, बड़ौत 'मेरट' ) मोरया तत्यात्र के परिणमन द्रव्य से तादात्म्य अनादि अनन्त है । केवलझान गम्य वचन गोचर है । 'पर्याय' रूप है । इस की अपेक्षा सब द्रव्य क्रियावान है पर यह क्रिया यहां इष्ट नहीं है। (२) डुमरी क्रियाभाव की हीनाधिकता रूप होती है बच्चे का ज्ञान अभी हीन है। फिर स्प जवान होता जाता है वह बढ़ता जाता है । बुढापे में घटने लगता है । यह जो ज्ञान की हीनाधिकता या मनिज्ञान से श्रुत. अवधि, मन पर्यय और केवल रूप परिणमन करना या दर्शन का अनु अधि केवल रूप परियमन करना । इसी प्रकार पुदगल में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण का परिणमन जैसे पीलेपने का तरतमरूप परिणमन या पीले से हरे रूप परिणमप धर्मद्रश्य का गतिहेतुत्य परिमन धर्म हस्य का स्थिति हेतु परिमन, आकाश का अवा परिणमन तथा काल का वर्तनाहेतुत्व परिणमन यह संयोग जनित परिणमन है; क्योंकि संयोग का सद्भाव या अभाव सापेज़ होता है । इस को 'स्वभाव गुरण व्यंजन पर्याय' कहते हैं । इस परिणमन मे भी उपरोक्त सूत्र का सम्बन्ध नहीं है क्योकि जब द्रव्य एक क्षेत्र में स्थित रहे तब भी यह क्रिया होती है और दूसरे क्षेत्र में जाय तब भी होती है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षशास्त्र के पांचवे अध्याय के सूत्र ७ पर विचार (३) तीसरी क्रिया केवल जीप में होती है। वह मोहनीयादि कर्म के उसे जीव का मिध्यात्र प्रवरति अवरति प्रमाद, कपाय रूप परिणमन है। यह विभाव क्रिया है सो जब तक उसका निमित्त कर्म रहता है तब तक तो ये होती है फिर निकल जाती है। इस को 'विभाव गुरग व्यंजन पर्याय' कहते हैं। जिस समय जीव में ये क्रिया होती है यद्यपि उस समय में हलन चलन रूप परिस्पन्दात्मक किया भी अवश्य होती है पर दोनों कियाएं भिन्न-भिन्न हैं। इन के गुण भिन्न भिन्न है, लक्षण भी भिन्न-भिन्न है और निमित्त भी भिन्न-भिन्न है। इसलिये यह राग रूप किया भिन्न हैं और परिस्पन्दात्मक किया भिन्न है उपरोक्त सूत्र का सम्बन्ध इस राग क्रिया से भी बिल्कुल नहीं है । (४) चौथी क्रिया- द्रव्य में एक ऐसी किया होती है जिस के द्वारा द्रव्य एक स्थान में दूसरे स्थान में जाना है । हिन्दी में इस को हलन चलन क्रिया कहते हैं और शास्त्र में इस प्रदेश परिस्पन्दाक है यह किया निमिन है गया रूप है। इसलिये प धर्म, आकाश और काल में तो इस क्रिया को अवकाश ही नहीं । पुद्गल में यह काल सापेन होती है अतः उस में परमाणु तथा स्कन्ध दोनों अवस्थाओं में रह सकती है । जीव में द्रव्यकम नोकम सापेन हैं। इसलिये संसार वस्या में रहती है । सिट में नहीं । श्रात्मा में शरीर अनुसार जितने आकार बनते हैं वे सब इसी क्रिया के कारण है और पुद्गल की जितना स्कन्धात्मक रचना बनती तथा बिगडती है वह सब इसी क्रिया के कारण है। इस क्रिया को 'द्रव्य व्यंजन पर्याय' कहते है। उपरोक्त सूत्र का सम्बन्ध इस परिस्पन्दात्मक क्रिया से है सूत्रकारका शकि धर्म, अधर्म, श्राकाश जिन तीन द्रव्यों का अधिकार चला आ रहा है, वे तीन द्रव्य इस परिस्पन्दात्मक क्रिया से सदा रहित है । यद्यपि निर्विशेष रूप से प्रयुक्त किया गया किया एक सामान्य शब्द है जो सभी क्रियाओंों का घोतक है पर यहां उस क्रिया को कोई विशेषण न देकर भी वह केवल परिस्पन्दात्मक क्रिया का वाचक है। बात श्रागम बल से १३६ स्पष्ट है। इसलिये 'निष्क्रियारिग' से भाव निरपरिस्पन्द क्रियाणि' से है । उपरोक्त चार क्रियाओं में से आदि की तीन क्रियाओं के कारण इव्य में जो परिणमन या पयाय उत्पन्न होते है उन की 'भावात्मकपरिणाम' वा 'भावात्मक पर्याय' या कवल 'भाव' कहने और किया से जो परिणाम या पर्याय उत्पन्न होती है उन को 'परिस्पन्दात्मक परिणाम' या 'परिस्पन्दात्मक पर्याय' या केवल 'क्रिया' भी कहते हैं। उपरोक्त तीन परिणाम गुणों से सम्बंधित है और चौथा परिणाम प्रदेशों से सम्बन्धित है यह भी कह सकते है क्योंकि ये क्रियाएं 'गुणपरिणामात्मक' है और यह क्रिया 'प्रदेश परिस्पन्दात्मक' है । उक्त तीनों गुणों का होने से 'गुण पर्यावरूप' है और चौथी क्रिया प्रदेशों का परिणमन होने से 'द्रव्य पर्याय रूप' है ऐसा भी कह सकते हैं । प्रश्न- इस क्रिया का ल क्या है ? उत्तर- 'उभयनिमित्तापेक्ष पर्यायविशेष: द्रव्यस्य देशान्तर प्रप्तिहेतुः किवा ( गजवार्तिक) अर्थ-स्व और पर अथवा अन्तरंग और बहिरंग कारण की अपेक्षा रखनेवाला पर्याय विशेष, द्रव्य की प्रदेशस्तर की प्राप्ति का 'क्रिया' है। किया विशेष्य है और तीन उस के विशेषण है 1 प्रश्न-तीन विशेषण देने का क्या कारण है ? उत्तर - उभय निमित्त सापेक्ष' देने का यह कारण है कि यह क्रिया गुरुलघु की क्रिया की तरह केवल स्वनिमित नहीं है किन्तु विभाव क्रिया होने के कारण उभय निर्मित है । वस्तु का निज परिणाम है महतो स्वनिमितक का अर्थ है और स्वभाव परिणाम नहीं किन्तु विभाव परिणाम है यह परनिमिन सापेक्षना है । स्वनिमित्तक क्रिया सदा रहती है । यह सदा नहीं रहती । यह इस विशेषण से स्पष्ट ज्ञात होता है। 'पर्यायविशेष' कहने से यह क्रिया स्वयं द्रश्य पा उस का त्रिकाली स्वभाव या गुण नहीं है किन्तु पर्याय है और पर्याय भी स्वभाव पयाय नहीं किन्तु विमात्र पर्याय है इस लिये पविशेष विशेषण दिया है। इससे यह भी फलि 1 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अनेकान्त तार्थ होता है कि यह क्रिया द्रव्य से भिन्न प्रदेश रूप नहीं है पड़ती है । इस के बिना इन्द्रिय ज्ञानी देख नहीं सकता। किन्तु स्वयं द्रव्य इस रूप होता है इसलिये ये द्रव्य की ही इसी प्रकार ये तीनों दध्य स्वयं नहीं चलने पर जब जीव पर्याय है। पुद्गल स्वयं चलने टहरते, या स्थान लेते है तो सहाय रूप 'द्रव्य की देशान्तर प्राप्ति का कारण' हम विशेषण पड़ जाते हैं ऐसा स्वतः सिद्ध वस्तु स्वभाव है । स्वभाव में तर्क से जो हम ने ऊपर दो और तीन नम्बर की ज्ञान और राग नहीं हुअा करता । स्वभाव तो केवल अनुभव द्वारा जानने क्रियाएँ बतलाई हैं उन में भिन्न किया है। क्योंकि वे द्रव्य की चीज है। की देशान्तर प्राप्ति का कारण नहीं है। प्रश्न-इस परिम्पन्दात्मक क्रिया का निरूपण श्रागम प्रश्न-यदि उपरोक्त द्रव्य निष्क्रिय हैं तो अपने अन्दर में कहां प्राया है जहां से श्राप के विवेचन की प्रमाणता का कोई क्रिया किये धर्म, जीव पुदगल के गमन में महायता निर्णय किवा जा सके , कैसे करेगा , अधर्म स्थिति में और आकाश अवगाह में उत्तर-१. श्री प्रवचन मार गाथा १२८ [ज्ञेयाधिकार] कैसे मदद करेगा क्योंकि अपने अन्दर कुछ क्रिया करेगा २. श्री पंचाम्तिकाय गाथा न. १८ [चूलिका] । तभी तो मदद करेगा जैसे घोड़। स्वयं चलंगा तभी तो ३. श्री गोम्मट्टमार जीवकाण्ड गा० न०५६१, ५१२ सवार को देशान्तर में जाने में मदद करेगा अन्यथा नहीं? [सम्यक्त्व मार्गणा]। उत्तर-धर्म धर्म अाकाश का जो मदद करने का ४. श्री वसुनन्दि श्रावकाचार गा० न० ३२ स्वभाव है वह प्रेरक कारण रूप नहीं है जो उसे स्वयं चलने ५. श्री पंचाध्यायी दुसरा भाग श्लो०२४,२५,२६,२७, की आवश्यकता पड़े किन्तु उदासीनरूप बलाधार निमिन है ६. इस मुत्र की टीका श्री सर्वसिदि. राजवानिक जैसे बिलकुल ठहरा हुश्रा जल भी मच्छली के चलने में तथा श्लोकवार्तिक श्रादि से देखिये । पर व्यानुयोग का और छाया पथिक के ठहरने में प्रत्यक्ष महाय पड़ती देखी वास्तविक ज्ञान होना परम आवश्यक है, क्योंकि आगम से जाती है । हमारी प्रांग्ख स्वयं कोई दंग्वने का कार्य नहीं प्रमाणता मिलने पर भी श्राप को अनुभव से प्रमाणता तो करती। जब प्रात्मा देखने का कार्य करना चाहे तो सहाय व्यानुयोग के बल से ही आयेगी । ब्रह्म जीवंधर और उनकी रचनाएँ (परमानन्द जैन शास्त्री) ब्रह्मजीवंधर माथुर संध विद्यागण के प्रख्यात भट्टारक ब्रह्मजीवंधर ने नं. १५६० में वैशाग्ववदी १३ सोमवार यशः कीर्ति के शिष्य थे । श्राप संस्कृत और हिन्दी भाषा के दिन भट्टारक विनयचन्द्र की वोपज्ञ चूनडी टीका की के सुयोग्य विद्वान थे। संस्कृत भाषा की चतुर्विशति तीर्थ- प्रतिलिपि अपने कानावरणीय कर्म के क्षयार्थ की थी। कर-जयमाला का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि वे इस से कवि १६ वी १७ वीं शताब्दी के विद्वान निश्चित संस्कृत में भी अच्छी कविता कर सकते थे। इन की हिन्दी होते हैं । रचनाएँ सभी महत्वपूर्ण और सम्बोधक भाव की भाषा की अनेक कृतियां देखने में पाती हैं, उस पर गज- स्प्रिट को लिये हुए हैं । कवि की रचनाओं का परिचय राती भाषा का प्रभाव अकित हशा जान पड़ता है। निम्न प्रकार है :रचनाओं में गणस्थानलि, खटोलाराम, भव'कगीत, गुणठाणालि -इस बेलि में प्रात्म-विकास के १४ श्रु तजयमाला, नेमिचरित, सतिगीत, तीन चौवीसी स्तति, स्थानों का सुदर परिचय कराया गया है। ये गणस्थान दर्शन स्तोत्र, ज्ञान-विराग विनती, बालोचना, वीसतीर्थकर र अात्म-विकाम अवस्था के प्रतीक हैं। जिन्हें गणस्थान कहा आ जयमाला और चौवास तीर्थकर जयमाला प्रसिद्ध हैं सभी १ ब्रह्म श्री जीबंधर तेनेदं चूनडि का टिप्पणं लिखितं रचनाएं सुन्दर और सरल हैं। ग्राम पठनार्थ सं० १५१० वैसाख बुदि १३ सौमे Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म जीबंधर और उनकी रचनाएँ १४१ गया है। वे गणस्थान मोह और योग के निमित्त से होते मिथ्यान नाम गणहठाण वसहिं काबु अनंतए। हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं - मिथ्यात्व सापादन, मिथ्यात पंचहु निन्य पूरे भमहिं चिहुगति जंतुए। मिश्र, अविरत पम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्त. अन्तरंग में दर्शन मोहनीय कर्म का 'उपशम, क्षय या विरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूचमसाम्पराय उप-क्षयोपशम से जो तत्त्वचि होती है वह उपशम सम्यग्दर्शन शान्तमाह, क्षीणमोह, पयोगकेवली और अयोगकेवली । है। जिस तरह जल में कीचड़ मिले हुए पानी में से कतक इनमें दूसरा और तीसरा गणम्थान गिरने की अपेक्षा हैं। फल (निर्मली) के निमित्त से जब कीचड़ नीचे बैठ जाती क्योकि मिथ्याव गगास्थान से प्रात्मा चौथे अविरत सम्यर- है, और पानी स्वच्छ हो जाता है । उसो तरह प्रात्मा में दृष्टि गुणस्थान में जाना है। कर्ममल के उपशान्त होने पर प्रात्म-परिणाम स्वच्छ एवं __मिथ्यात्व गणस्थान में दर्शनमोह के उदय से जीव की निल हो जाते है । यह प्रारम निर्मलता से कषायकलुषता दृष्टि विपरीत होती है और स्वाद कटुक होता है, हम को दबाती हुई विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ाती रहती है, जिससे कारण उसे वस्तुतत्व रुचि कर नहीं होना । जिस तरह कर्म जन्म कटुक रप धीरे-धीरे शक्तिहीन एवं शिथिल पित्तज्वर वाले रोगी को दृध कड़वा प्रतीत होता है उसी होता जाता है । सम्यग्दृष्टि प्रातही विरोध भाव कम हो तरह मिथ्यादृष्टि को ही धर्मतत्व रुचिकर नहीं होता। जाते हैं । ष्टि में दूसरों की बुराई की भोर उदासीनता हो यह जीव उम में अनन्त काल तक रहता है मिथ्यान्व के जाती है श्रात्म-दोषों के प्रति ग्लानि हो जाती है, आत्मपांच भेद हैं । विपरीत, एकांत, विनय, मंशय, अज्ञान। निरीक्षण करते समय ज्ञानी को अपने दोष दूर करने की प्रेरणा इन पांचो के द्वारा जीव के परिणाम में अस्थिरता रहती मिलती है, और बह निन्दा तथा गहां द्वारा अपने दोपों है, उसे हित कर मार्ग नहीं सूझना, इसी कारण वह संसार को दूर करने की चेष्टा करता है। इस तरह वह अपने ज्ञान में यत्र-तत्र अनेक पर्यायों में भटकता रहता है । कवि ने चारित्र-विवेक श्रादि के द्वारा अपने को प्रागे बढ़ाने की इस गणस्थान का कथन करते हुए उसकी प्रवृत्ति का चष्टा करता है । और चतुर्थ मादी से पांचवीं में, और मंक्षिप्त परिचय दिया है। और उसके कथन का पांचवीं में एटवी तथा मानवीं में पाकर अपने परिणामों सम्बंध उक्त वैलि में भगवान प्रादिनाथ के कैलाशगिरि की संभाल द्वारा अपनी म्वाम-स्थिति का लाभ पर यमवसरण सभासहित पधारने पर भरत चक्रवर्ती ने कर लेना है । और स्थितिप्रज्ञ बनकर प्रारम-विरोधी उनकी पूजा करने के पश्चात् चौदह गुणस्थानों का स्वरूप शक्तयों की परवा न करता हुमा साम्यभाव की उज्ज्वलना पृछा था । इसी प्रसंग का उल्लेख कवि ने किया है। जैसा को बढ़ाना हुआ से शक्ति पुज का संचय कर लेता है, जो कि कवि के निम्न दो पद्यों से स्पष्ट है : अंतमहत में मोहादि शत्रुओं को विनष्ट करता हुश्रा चैतन्य पंच परम गरु पाये नमा प्रणमवि गणहरविदजी । मय प्रशान रूपको पाकर जीवन्मुक्त हश्रा स्वपद में स्थित गण ठाणा गणगाविसु मनि धरि परमानन्द जी हो जाता है। मानुपीप्रकृति को दूर कर परमौदारिक दिव्य आनंद कंद जिणिद भाखे भेद भावहु भन्न ए । देह का धारी हुश्रा, और निरंतर ही अपनी ज्ञानादि गणठाण वेलि विलास जुत्ता सुक्ख पावहो सवए। चतुष्टयरूप निजसम्पत्ति की संभाल करता हुश्रा, तथा कैलास भूधर आदि जिणवर एक दिनि समोसरचा। सर्वजीवों को कल्याण का परमधाम बताता हुअा, उम सुर असुर खेचर मुनिवर तिण धर्म वर्षा तिहिं करया(१) मयोगकेवली अवस्था में निरत रहना है, जहां प्रघाति कर्मोदय जन्य शक्ति निर्जीव मी बनी रहती है । भरत नरेसर प्राविया भाविया सब परिवारे जी और जीवका कुछ भी अनिष्ट करने में समर्थ नहीं होती। रिसहेसर पाय वंदीए, पूजीए अपयारे जी जिस तरह रस्मी जब जाने पर निःशक्त हो जाती है परन्तु अटुपयारीय रचीय पूजा भरत राजा पृछए । उसकी ऐटन नहीं जाती, उसी तरह वे अयाति कर्म निःशक्त गुणटाण चौद विचार सारा भणहि जिणसुणि वच्छए। हो गये, इसीसे मोहके प्रभावमें केवली के शुधा तृषादिक Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनेकान्त कर्म बाधक नहीं होमे । और वह चिरकाल तक नवमउ अचुक शासनहि, पूजहिं सुरनर भव्य । चिदानन्दम्वभाव में मग्न हुमा समता रस का पान अक्किट्टिम किहिम पडिमा, तहउ बंदउ मच ॥ करता रहता है। कवि ने इस गणस्थानवर्ती जीवों की जिन मारग नवदेवता, मानै नहि जो लोइ । संख्या ८ लाख और अट्टाणवे हजार पांच से दो बतलाई काल अनंनइ परिभमइ, सुक्खु न पावइ मोह ॥ हैं। । इस तरह यह जीव तीसरे शुक्ल ध्यान का ध्यान चौथी रचना श्रत जयमाला है, जिसमें प्राचाराङ्ग करता हुआ स्वामानन्द में लीन हुश्रा १४ वीं सीटी आदि द्वादश अंगों का परिचय दिया गया है । रचना रूप प्रयोग अवस्था को प्राप्त करता है, और वहां पंचदम्ब संस्कृत श्लोकों में निबद्ध हैं। अक्षरों के उच्चारण काल में चतुर्थ शुक्ल ध्यान द्वारा पांचवीं कृति मनोहरराय या नेमिचरित गम है जिसमें पचासी प्रकृतियों की मत्ता का विनाश कर म्वा मोपलब्धि कवि ने लगभग ११५ पद्यों में वसन्त ऋतु के वर्णन के को पा लेता है स्वात्मापलब्धि प्रात्मा की शुद्ध निरंजन दशा बहाने से जैनियों के २२ व तीर्थकर नेमिजिन का चरित्र है, भात्मा उस अवस्था को पाकर अनन्तकाल तक अपने अंकित किया है । वमन्त वर्गान में कवि ने पुगनी रूढीक चिदानन्द रस में निमग्न रहता है। यह वह अवस्था है जिस अनुसार अनेक वृक्षों फलों फलों के नाम गिनाये हैं। मधुमास के बाद अन्य कोई अवस्था नहीं होती, इसी से वह म्बात्म- में होने वाली वन की शोभा का सुन्दर वर्णन उपस्थित सुधारम का पान करता रहता है और अजर अमर हो जाता किया है । उस समय वन में अनेक प्रकार के फूल फूले हुए है। इस तरह से कवि की यह बेलि रचना सुन्दर कृति है। हैं, उनकी मधुर और भीनी-भीनी मुरभि से सारा ही बन दूसरी रचना खटोला राम है, जिस में १२ पद्य हैं सुवासित हो रहा है। तरु लना, बेलें अपनी-अपनी मादकता जिनमें खटोलेका चित्रण करते हुए वस्तु तत्त्व का कथन से इठलाती हुई उन्माद प्रकट करती हैं। यह ऋतु कामी किया गया है । खटोले में चार पाय होत है दो वाही और जनों को काम वासना का प्रोत्तं जन देती है, राग-रंग में उन्हें दो सरुवे । उक्त खटोला रत्नत्रय रूप बाणों से बुना हुआ है। अनुरक्त करती है। कुछ फूले हुए वृक्षों के नाम कवि के उस पर शुद्धभाव रूपी सेज को संजम श्री ने बिछाया है। शब्दों में पढियेउस पर बैठा हुअा अात्मप्रभु परम आनन्द की नींद लेता बसंत ऋतु प्रभु श्राइयउ, फूली फली बनराइ । है, मुक्ति-कान्ता पंखा झलती है, और सुग्नर का समूह फूली करणी केतकी फूली वडल सिरि जाइ ॥ २६ सेवा कर रहा है । वहां आत्मप्रभु की अनन्त चतुष्टय रूप फुली पालिने वाली, फुली लाल गुलाल । स्वात्म-संवित्ति या सम्पदा का उपभोग करता है। यह भी राय वेलि फुली भली, जाकी वासु रमाल ॥२७ एक प्रात्म-संबोधक रूपक काव्य है। रचना साधारण होते फुलिड मरवा मोगरो, अरु फूले मचकुद । हुए भी भाव भीनी है। फूली कणियर सेवती, फूले सरि अरविंद ॥ २८ तीसरी कृति 'झुबिकगीत' है । जिस में जिन शापन फूले कदंबक चंपकी, अरु फूली कचनार । के नवदवों का कथन किया गया है, यह एक अत्यंत छोटी जुही चमेली फूलसी, फूली वन कल्हार ॥२६॥ रचना है, उस के दो पद्यों का मनन कीजिये । इस वसन्तोत्सव को मनाने के लिये द्वारिका [वारावती] १ केवलि गुणठाण तेरहमैं रमें सबि मिलिय महंत जी। के सभी नर-नारीजन उल्लास से भर रहे थे, और टोलियों आठौं लाख अठाणवें सहस्र पंचमै दो ए संत जी। टोलियों के रूप में वन की ओर जा रहे थे। सुन्दर गीतों की संतमारौ प्रायु पुरो तिहां रहि पाव भोगवै । ध्वनि से मानो मार्ग उस समय बोल ही रहा हो । जंगल के देसोनपूरव कोडि भव्यहं धर्म देशहि ते ठवें। पशु पक्षी भी कलरव कर रहे थे। राजकुल में बढी चहल तीजा मुकलह ध्याम ध्यावत केवल दृष्टि विंदए । पहल मची हुई थी। श्रीकृष्ण की सतभामा, रुकमणि और स्वात्म नै परमात्म विन्हें प्रत्यक्ष परमानन्दए । जामवन्ती प्रादि पाठों रानियाँ मुन्दर वस्त्राभूषणों से गुणठाणवेलि मज्जित हो और केसरकपुर मिश्रित वावन चंदन के Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म जीवंधर और उनकी रचनाएँ १४३ घोल को तय्यार कराकर साथ में ले जा रही थीं । नेमि जिन मन विषाद युक्त बन गया। में आगे क्या करूंगा। जब ये राज्य भी भाभियों की प्रेरणा से बसन्तोन्मय के लिये तय्यार हो करेंगे । अन्यथा कोई अन्य उपाय करना होगा । परिणाम गये थे। उस समय नमि कुवर की सुन्दर श्यामलि मृरत स्वरूप हलधर ने किसी नमित्तिक को बुलाकर पूछा कि बड़ी मुहावनी लग रही थी । वनमें पहुच कर कृष्ण की राज्य कौन करेगा? तब नैमित्तिक ने कहा कि नेमि जिन रानियों ने नेमि जिन के शरीर पर वावन चन्दन का घोल खूब राज्य नहीं करेंगे। पश्चात कृष्ण ने उनके विवाह का उपक्रम छिड़का। उन के वस्त्र केशर के रंग से तरबतर हो रहे थे। किया। और भूनागढ़ के राजा उग्रपन की लाड़ली पुत्री फिर भी ये रानियां अंजुलियों में घोल भर भर कर उनके राजमती के साथ विवाह निश्चित कर द्वारिका वापिस पाए। अंगों पर छिडक रही थी। और अनेक दोहा, गीत तथा रास्ते में एक बाडे में पशुओं को इकट्ठा किया गया, और अनुष्टु । छन्दों में उनकी म्नुनि की जा रही थी । इस तरह सागथि से कहा गया कि यदि ममि जिन पूछे तो बतला बपन्ता मत्र मना कर सब जने द्वारिका वापिस लोट आये। देना कि पशु बारात के आतिथ्य के लिये रोके गये हैं। कवि ने नेमि जिन की बाल अवस्था की उन्हीं घटनाओं यथा समय बागन सजधज कर चली, नेमि जिन ने का उल्लेख किया है, जिन का कथन हरिवंशपुराण पागदव- उन पशुओं की करुण पुकार सुनते ही रथ रुकवा दिया और पुराण और नेमि चरित वादि में पाया जाता है। मारायि से पूछा कि पशु क्यों रोके गए है । तब उस ने कहा एक दिन राजसभा में नेमि जिन के बल का कथन हो कि बारात के आतिथ्य के लिये कराए गये है। यह सुनने रहा था, इतने में बलदेव ने कहा कि यहां नेमिजिन से कोई ही उन्हें वैराग्य हो गया। उन्हों ने कहा मुझे उस विवाह से अधिक बलशाली नहीं है। इस बात को सुनकर श्री कृष्ण क्या प्रयोजन है जिसमें निरपराध पशुयों को मनाया जाय । को अभिमान पा गया । और उन्हों ने मिजिन से कहा उन्होंने सभी पशुश्रीको छडवा दिया और रथ से उतर कर कि यदि पाप धधिक बलशाली हैं नो माल युद्ध कर देव । रेवन गिरि पर चले गये । और दिगम्बरी दीक्षा लेकर ग्रामलीजिये। तब नेमि कुमार ने कहा - माधना में संलग्न हो गये। नेमि भणइ मुणि वधव ! मल्ल करहि मल युद्ध । जब इस बात को राजुलने सुना तो वह मूर्दा पाकर जुक्त नहीं नृप नंदन हं, जे निज मान घरंत ॥ गिर पड़ी। उपचार करने पर जब होश श्राया, तब वह जो तू बल देखो चहै, नमावइ ती मुझ पाउ । अपनी मग्वियों के साथ गिरनार पर जाने के लिये तय्यार अथवा कर कर सूधरी, के लहु अंगुलि नमाउ । हुई। माता पिता और परिजनों ने बहुत समझाया, परन्तु कन्ह वि लग्गउ पद हत्येहि, ने पुण नमइ न जाय । वह न मानी, और वहां दीक्षा लेकर तपश्चारण करने में निरत तिव मो धरि तिर्ण अंगली, नाम मुलायउ नाहु । रही । और प्रात्म-साधना द्वाग स्त्री लिग को छद कर गयण हि दुदुहि बाजा देव कर जयकार । अच्युत म्वर्ग में देय हश्रा। जैसा कि कवि के निम्न दोहे से मान गमायो प्रापण, विलखउ भयउ मुरार ॥ प्रकट है :नेमि जिन ने कहा, योद्धा मल्ल युद्ध करते हैं यह ठीक ----- है। किन्तु मल्ल युद्ध राजकुमारों को नहीं करना चाहिये। परम महोच्छवि श्राहा, नेमिजिन तोरण द्वार। जो तुम मेरे बल को देखना चाहते हो तो मेरा पांव अथवा हाथ तिव सवुदिहि दयावणे, पशुवहि कियउ पुकार ।।१०५ की अंगुली ही नमाश्रो । किन्तु कृष्ण से पांव नहीं नमाया दीन वयणु मुणेविकरि, मारथि पूछि नाम । जा सका । किन्तु नेमि जिन ने कृष्ण को अपनी अंगली से तिसु कहणी भेउ जाणियो, अधिहि नेमि जिन माम॥ १०५ ही झुला दिया । तब आकाश में दुदु भि बाजा बजा, और नेमामा इम बोलए विग धिग यह संसार । देवों ने जय जय कार किया, श्री कृष्ण विचार करते हैं कि राज्य विवाह कारणे को करइ जीउ संधार ॥ १.६ मैं यह नहीं जानता था कि नेमिजिन इतने बलशाली हैं, धरि विराग रथु फेरियउ, निहा ते करणाधार । इस घटना से उन का बड़ा अपमान हश्रा और उससे उ क पशु बंधन छोडाविकरि, नेमि डे गिरनार ॥ १.. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य समीक्षा १. गतिसार-संग्रह- महावीराचार्य, सम्पादक, और अनुवादको लक्ष्मी एम. एस. मी. जबलपुर, प्रकाशक, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर । पृष्ठसंख्या ३१२ सजिद मुख्य १२ रुपया लौकिक गणित का यह प्राचीन ग्रन्थ है । जो राष्ट्रकूट राजा अमोध वर्ष के राज्यकाल में रचा गया है । ग्रन्थ ६ अधिकारों में विभाजित है, मंज्ञा अधिकार, परिकर्म व्यवहार कला पयवहार प्रकाशव्यवहार वैराशिक व्यवहार मिश्रक व्यवहार, क्षेत्रगणित व्यवहार और छाया व्यवहार । इनमें से प्रथम अधिकार में क्षेत्र, काल, धान्य, सुवर्ण, रजत और लोद आदि की परिभाषाओं का परिचय दिया है। दूसरे अधिकार में प्रत्युत्पन्न (गुशन भाग, वर्ग, वर्ग, ) घनमूल प्रादि का स्वरूप संकलित किया है । तीसरे में भिन्न भागाद्दार और भिन्न सम्बन्धी वर्ग, वर्गमूल, वन घनमूल, तथा भिनात्मक श्रेणियों का संकलन, व्युनकलन और भागजाति का कथन करते हुए वैराशिक पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक तथा कय विक्रय और संक्रमण आदि का सुन्दर कथन किया गया है। सम्पादक ने अपनी महत्वपूर्ण प्रस्तावना में गणित के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए गणित का सुन्दर विवेचन किया है। गणित का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले के लिये ग्रंथ को प्रस्तावना यही उपयोगी है। प्रोफेसर लक्ष्मीचंद जी ने यूपी की प्रस्तावना मी सुंदर ली है। जैसे समाज को बड़ी आशाएँ हैं | सम्पादक ने विषय को स्पष्ट करने के लिये परिशिष्टों द्वारा उसे सरल बना दिया हैं। गणित जैसे कठिन विषय को समझने के लिये सम्पादक ने बहुत परिश्रम किया 官 | अनुवाद भी अच्छा हुआ है ऐसे सुंदर संस्करण के ? राजमती संयमधरी समकित रयण सहाय । अच्युत स्वर्गहिं सुरभयौ नारी लिगु विहाय । इस तरह कवि की यह रचना सरस है 1 छडी रचना चतुर्विंशति जिनस्तवन है, जो संस्कृत के पद्यों में रचा गया है, और जिसे अनेकान्त में प्रकाशित किया जा चुका है । सातवीं रचना 'सतीगीत' है जिस में २७ पद्य है । आठवीं रचना २० तीर्थकर जयमाला है जो बड़ी सुन्दर के प्रकाशन के लिये ग्रंथमाला संचालक और सम्पादक दोनों हो धन्यवाद के पात्र है : स्वर्गीय ब्रह्मचारी जीवराज गौतमचंद जी दोशी जी की जैन साहित्य के उदार की यह बलयती भावना और अधिक रूप में पल्लवित हो, यही भावना है। २. कसायपाहुड भाग (जयपलाटीका, हिंदी अनुवाद महित) सूज गुणधराचार्य, टीकाकार वीरसेनाचार्य, सम्पादक पं० फूलचंद सिद्धांतशास्त्री और कैलाशचंद शास्त्री, काशी, प्रकाशक, भा० द० जैन संघ चीरासी मथुरा, पृष्ठ संख्या ५६२ मुल्य १२ रुपया । 1 प्रस्तुत ग्रंथ जयधवला का छटा बंधक अधिकार है. इसके बंध और क्रम दो भेद है जिम अनुयोगद्वार में कर्मणाओं का मियाल आदि के निमित्त से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश भेद से चार पार कर्मरूप परिणम कर श्रात्म-प्रदेशों के साथ एक क्षेत्रवादरूप यंध का कथन किया गया है वह बंध अधिकार है और जिसमें बंधरूप मिध्यात्व श्रादि कर्मो का प्रकृति स्थिति आदि चारभेद से अन्य कर्मरूप परिणमन का विधान किया हैं वह संक्रम अधिकार हैं । इन्ही दोनों के विषय का स्पष्ट विवेचन यहां किया गया है के निशा के लिये यह भाग बड़ी सुन्दर सामग्री अध्ययन करने के लिये प्रस्तुत करता है, जिससे यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि प्रकृत्यादि चार प्रकार के बन्ध में संक्रमण कैसे होता है। स्वाध्याय प्रेमियों को इन सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन कर अपने ज्ञान की वृद्धि अवश्य करनी चाहिये । संघ के व्यवस्थापकों का कर्तव्य है कि वे जयधवला के अवशिष्ट भागों को भी यथाशीघ्र प्रकाशित करने का प्रयत्न करें। ग्रन्थ का सम्पादन प्रकाशन अच्छा हुआ है । है। नौवीं रचना तीन चोवासी स्तुति है, जिसमें २८-१६ पद्य हैं। दशवीं रचना ज्ञान विराग विनती है । और ग्यारवी रचना मुक्तावतिरास । है, संभव है वह इन्हीं की कृति है या अन्य की विचारणीय है, पुस्तक सामने न होने से उसके सम्बन्ध में निश्चयतः कुछ नहीं कहा जा सकता । इनके अतिरिक्त कवि की और भी रचनाएं होंगी, जो ज्ञान भंडारों के गुच्छों में संगृहीत होंगी। जिन का अन्वेषण होना आवश्यक है। *** Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदुषी सुमित्रा वाई की आर्यिका दीक्षा श्रीमती सुमित्राबाई ने अपने जीवन में विद्याभ्यास कर परहित का सम्पादन करते हुए निरन्तर म्वाध्याय आदि द्वारा जो ज्ञानार्जन किया, और माधु सन्तों तथा ज्ञानियों की तस्वचर्चा का रस भी लिया तथा पूज्य वणी गणेशप्रमाद जी जैसे मन्तका मानिध्य प्राप्त कर श्रामहित की तरंगों का प्रबलवंग बार बार उमड़ा. परंतु उसे कार्य रूपमें परिणत न कर सकी । किन्त कुछ समयवाद जय राग की पों-ज्यों मदंता और विवेक का जागृति होती गई सांसारिक झझटों की और उतनी ही उदासीनता बरती गई । अतः उचित समय पर आपने अपने भाई श्री नीरज जी की प्रतिबांधकर उनकी भी भावभीनी थनमति प्राप्त कर श्री श्राचार्याशवसागरजी से प्रायिका दीक्षा लेकर प्राम-माधना का मार्ग प्रशस्त किया है । प्राशा है. बाई जी अपनी प्राम-पाधना द्वारा ज्ञान-गग्य और ध्यान द्वारा अवलम्बन लेकर जीवन को सफल बनाने का यन्न करेगी। व मयं विदुपी है इस लिये उनके सम्बन्ध में कुछ कहना उचित नहीं प्रतीत होना। -परमानन्द जैन शास्त्री वीर-मेवा-मन्दिर और "अनेकान्त” के महायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता । २५०) श्री गमवम्प जी नेमिचन्द्र जी, कलकना १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन ट्रस्ट, १५०) श्री बजरगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकना श्री माह गीतलप्रमाद जी, कलकत्ता १५०) श्री चम्पालाल जी गगवगी, कलकना ५००) श्री रामजीवन मगवगी एटमम, कलकना १५०) श्री जगमोहन जी मगवगी. कलकना ५००) श्री गजगज जी गगवगी, कलकना १५०) श्री करतूरचन्द जी अानदीलाल, कलकता ५००) श्री नथमल जी गठी, कलकना १५०) श्री कन्हैयालाल जी मीताराम, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकना १५०) श्री प० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी भारी, कलाना ११०) श्री मालीराम जी गगवगी, कलकत्ता २५१) श्री रा. वा० हरखचन्द जी जैन, गची १५०) श्री प्रतापमलजी मदनलाल पाड्या, कलकत्ता -५३) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या). कनकना | १५०) श्री भागचन्द जो पाटनी, कलकत्ता -११) श्री म० मि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी। १५०) थी शिखर चन्द जी गगवगी, कलकत्ता २५.१) श्री मेट मोहनलाल जी जैन, १५०) श्री सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकना मैमर्म मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०३) श्री मारवाडी दि० जैन समाज, व्यावर २५.) श्री लाला जयप्रमाद जी जैन १०१) श्री दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी स्वस्तिक मेन्टल ववर्स, जगाधरी १०१) श्री मठ चन्दुलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई न०२ २५०) श्री मोतीलाल हीगचन्द गाधी, उम्मानाबाद । | १०१) श्री लाला शान्तिलाल कागजी, दग्यिागज दिल्ली २५०) श्री बन्दगीधर जी जुगलकिगोर जी, कलकना १०१) थी सेठ भवरीलाल जी बाकलीवाल, दम्फाल २५०) श्री जुगमन्दग्दास जी जैन, कलकता १००) श्री बद्रीप्रमाद जी ग्रान्माराम जी, पटना २५०) श्री मिघई कुन्दनलाल जी, कटनी १००) श्री रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री महावीरप्रमाद जी अग्रवाल, कलकना | १००) श्री बाबू नृपेन्द्र कुमार जी जैन, कलकता २५०) श्री बी० ग्रार० जैन, मी० कलकत्ता Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (1) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मृल्य-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थ में उन्छ त दुसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३२३ पद्य-वाक्यों की सूची । सम्पादक मुग्टनार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७. पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिर की भूमिका (Introduction) मे भृषिन है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बटा, माइज सजिलद १५) (२) प्राप्त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की बापज सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषय के सुन्दर विवेचन को लिग हुण, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद मे युक्त, सजिल्द । ८) (३) म्वयम्भृम्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुग्तार श्रीजुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महब की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से मुशोभित ।। (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोग्बी कृति, पापों के जीतने की कला, मटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुन्नार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-पहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी मुन्दर प्राध्यामिकरचना, हिन्दीअनुवाद-महिन ॥) (६) युक्यनुशायन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिग्यका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुअा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि में अलंकृत, जिल्द । ... (७) श्रीपुरपार्श्वनाथम्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ... ॥) (८) शामनचतुम्चिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीतिकी १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद-सहित ) (6) ममीचीन धर्मशास्त्र--स्वामी समन्तभद्र का गृहम्धानार-विषयक प्रत्युनम प्राचीन ग्रन्थ, मुन्नार श्री जुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाप्य और गपणामक प्रस्तावना से युक्त, पजिल्द । (1.) जैनग्रंथ-प्रशस्ति संग्रह-संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रशस्तियोंका मंगलाचरण यहिन अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं परमानन्दशास्त्री की इतिहास विषयक साहित्य परिचया मक प्रस्तावना से अलंकृत, मजिल्द । (11) अनिन्यभावना-प्रा. पदमनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ पहित ।) (१२) तत्वार्थमूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद नया व्याख्या से युक्त । (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१४) महावीर का सर्वोदय तीर्थ), (१२)समन्तभद्र विचार-दीपिका )। (१६) महावीर पूजा। (५७) बाहुबली पूजा---जुगलकिशोर मुख्तार कृत (16) अध्यात्म रहस्य--पं० श्राशाधर की सुन्दर कृति मुग्टतार जी के हिन्दी अनुवाद सहित (१९) जनप्रध-प्रशम्ति संग्रह भा० २ अपभ्रशके १२२ अप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रशस्तियोंका महत्वपूर्ण मंग्रह १५ ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और उनके परिशिष्टों महिन । सम्पादक पं परमानन्द शास्त्री मृग मजिन्द (२०) जैन माहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ पंच्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-संध प्रकाशन ...१) (२१) कसायपाहुड मुत्त-मृलग्रन्थ की रचना श्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह मौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालाल जी सिद्वान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बडी साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज, और कपड़े की पक्की जिल्द । (२२) Reality श्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजीमें अनुवाद बड़े आकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मू० (६ प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवान्दिर के लिए, पवन प्रिन्टिग वर्स, ३०१, दरीबा, दिल्ली मे मंद्रित Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ. मामिक अक्तूबर १९६४ अनेकान्त - SHAR MORE भगवान् सन्मति (महावीर) की सुन्दर मूर्ति, देवगढ़ Aiwar Suman ममन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अनेकान्त के प्रकाशन में विलम्ब 1: मुख्तार श्री जुगल किशोर जी |.' की ८८ वीं जन्म-जयन्ती विषय 1. श्री संभवजिन-ग्नुनि श्री ग्यमन्त द्राचार्य १४५] जैन सहित और इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान पं. २. राजस्थानी भाषा का प्रध्यान्म-गीत जुगलकिशोर जी मुन्नार की ८८ वी जन्म जयनी एटा में -अज्ञात कर्तक ५१६ | मानन्द मनाई जा रही है । मुख्तार पाहक याजकल ३. जैन दर्शन और उसकी पृष्ठभूमि एटा में अपने भतीजे डा. श्रीचन्द जी के पास टहरे पं. कैलाश चन्द्र जैन शाम्बी १४.हा है। ४. जैन धर्म में मृति पृजा हमारी हार्दिक भावना है कि मुख्तार माहय गत वर्ष -डा. विद्याधर जोहरापुरकर १५५ जीबी हों। १. संवेग -मुनि धी नथमलजी -अनेकान्त परिवार ६. दिल्ली पत्र के मूलमंधी भट्टारकों का समयक्रम -डा. ज्योति प्रसाद जैन १५६ ७. भारतीय दान की नीन धागा का कारण --भगवानदास बजाम.. १६४ अनकान्त जिम प्रय में छाना था उममें कार्य अधिक ६. देवनानी का गट देवगट -श्री नीरज जैन १६५ होने के कारगा कुछ अव्यवस्था मी रही, योर श्रमकान्त का १. गांधकरण परमानन्द जैन शाम्बी १६ । कुछ अावश्यक मैटर खो जाने से इस अंक के प्रकाशन में १०. कविवर भाऊ की काव्य-साधना अधिक विलम्ब हो गया है। इसके लिये हम पाठकों से -डा. कम्नरचन्द कागलीवाल १७२ नमा चाहते है। १. और श्राम दुलक पड़े (मार्मिक कहानी) रानरेन्द्र भाननावन एम० ए० पी०एन०डी । -प्रकाशक अनेकान्त १२. अजीमगंज के भंडार का रजतान्तरी कल्पसूत्र वीर-वाणी का विशेषांक -श्री भंवरलाल नाहटा 1७८ वीर-वाणी का विशेषांक बड़ी सजधज, के साथ १३. स्तनचन्द और उनका काव्य .. गंगाराम गर्ग एम. ए. १८८ | प्रकाशित हो रहा है । पाठक महानुभाव उसके ग्राहक बन १४ मान्मार्ग की दृष्टि से सम्यग्ज्ञान का निम्यगा कर पहयोग प्रदान करें। -परनाराम जन 12. प्रकाशक 11.नसमाज के समनचलन प्रश्न वीरवाया २ -कभार नन्दसिह दधारिया : ५६. मंन श्री गगा चन्द्र -परमानन्द शास्त्रा 156 ११. माहि य-यमीना -डा. प्रमागर जन । अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपये सम्पादक-मण्डल एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ न. पै. डा. आ. ने, उपाध्ये अनेकान्त में प्रकाशित विचासे के लिए सम्पादक डा. प्रेममागर जैन मंदल उत्तरदायी नहीं है। * श्री यशपाल जैन Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम महम अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् । वर्ष १७ वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्लो-६. वोर निर्वाण सं० २४६१, वि० सं २०२१ अक्टूबर सन् १९६४ किरण,४ श्री शम्भव-जिन-स्तुतिः नचेनो न च रागादिचेष्टा वा यस्य पापगा। नो वामः श्रीयतेऽपारा नयश्री वियस्य च ॥१८ पतस्वनवमाचार तन्वायातं भयादचा। स्वया वामेश पाया मा नतमैकार्य शंभव ॥१६ श्रीसमन्तभद्राचार्य अर्थ-जिनके पापबन्ध कराने वाली रागादि चेप्टाग्रो का सर्वथा प्रभाव हो गया है और जिनकी अपार नय लक्ष्मी को भूमि तल पर मिथ्यादृष्टि लोग प्राप्त नही हो सकते ऐमे, इन्द्र चक्रवर्ती भादि प्रधान पुरुषों के नायक! प्रद्वितीयपूज्य ! शभवनाथ जिनेन्द्र ! ग्राप सबके स्वामी हैं, रक्षक है अत: अपने दिव्य तेज द्वारा मेरी भी रक्षा कीजिए। मेरा प्राचार पवित्र और उत्कृष्ट है। मैं समार के दुखो मे डर कर शरीर के साथ अापके ममोप पाया हूं। भावार्थ- 'मैं किसी का भला या बुरा करू' इस तरह राग-द्वेष से पूर्ण इच्छा और तदनुकूल क्रियाए यद्यपि वीतराग भगवान के नही होती तथापि वीतरागदेवकी भक्ति से भक्त जीवों का स्वत: भला हो जाता है; क्योकि वीतराम की भक्ति से शुभ कर्मों में अनुभाग (रस) अधिक पड़ता है, फलत. पार कमों का रम घट जाता अथवा निबल पड़ जाता है और अन्तराय कम भी बाधक नहीं रहता, तब इप्ट की सिद्धि महज ही हो जाती है। इसी नयदृष्टि को लेकर प्रकार की भाषा में प्राचार्य समन्तभद्र भगवान शम्भवनाथ से प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं ससार से डर कर प्रापको शरण में पाया हूँ, मेरा प्रावार पवित्र है और मैं पापको नमस्कार कर रहा हूँ, प्रतः मेरी रक्षा कीजिये। पाप की शरण में पहुंचने में रक्षा कार्य स्वतः ही बिना पाप की इच्छा के बन जाता है । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी भाषा का अध्यात्म-गीत ( कर्ता अज्ञात्) रे मन र मिरहु चरगा जिनन्द जाह पठावहि निहवनि इद ।।टेक यहु ससार असार मुगोप्पिणु, बरु जिय धम्म दयालं ।। परजय तच्चु मुरण हि परमेट्ठिहि, सुमरहि अट्ठ गुग्गाल ॥१ जीउ अजीउ दुविह पुणु पासव, बन्ध मुणहि चउभेयं ।। संवरु निज्जरु मोखु वियागहि, पुण्यरु पाप विरगेयं ।।१ जीउ दुभेउ मुक्त संसारी मुवत सु मिद्ध वियागे। वमु गुरण जुत्त कलङ्क विवजिजय, भामिय केवलगगाणे ॥३ जे ससारि भमहिजिय सकूल, लख जोगगी चउरामी। थावर विलिदिय सयलिदिय, ते पुग्गल सहवामी ॥४ पच अजीव पढम तहि पुग्गल, धम्म अधम्मु अगास । काल अकाउ पंचकायामय, ये छह दवपयासं ॥५ पासउ दुविह दव-भावहँ, पुणु पंच पयार जिगुत्त । मिच्छाऽविरय पमाय कमायहि, जोगह जीव प्रमृत्त ॥६ चारि पयार बंध पयडिय ठिदि, तह अणुभाव पयेस । जोगा पयडि पयेस ठिदायणुभाव कसाय विसेसं ।।७ सुह परिगा।मे होइ सुहासउ, प्रसूहि अमूह वियागो। सुह परिणाम करहु हो भवियह जिम सहु होय नियारणे ।।८ संवरु करहि जीव जग मुन्दर, पासवदार- निरोहं। अरुह मिद्ध रामु यापु वियागहु सोहं मोहं मोह ।। रिगज्जर कम्म विगगासगा कारगु, जिय जिरण वयण संभाले। बारह विह तव दसविह सजम, पंच महावय पाले ।।१० घटविहि कम्म विमुक्कु परमपउ, परमप्पय थिरु वासो। रिगच्चलु गणाग सुखद समरापुरि, समरस भाव पयासो ॥११ जाणि प्रसारहु कहो क्या करणा, पंडित मनहि विनारइ। जिण वर सासणु भव्वु पयासणु, सोहिय बुह थिर धारइ ।।१२ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और उसकी पृष्ठभूमि पं० कैलासचन्द्र जैन शास्त्री, वाराणसी जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर ने पुण्य भारत वर्ष में प्रवेश करके एक नये समाज को स्थापना प्रदेश बिहार को न केवल अपने जन्म से पवित्र किया की थी। वैदिक काल मे सिन्धु और मरस्वती का ही था, किन्तु अपनी कठोर माधना के द्वारा उमी प्रदेश की यशोगान होता था। उन्ही के तट पर प्र. की बस्तिका ऋजुकूला नदी के तट पर केवलज्ञान को प्राप्त करके थी। ऋग्वेद की ऋचामो का बहुभाग भी सरस्वतीक राजगृही नगरी के विपुलाचल पर अपनी प्रथम धर्मदेशना तट पर रचा गया था। शेप तीनो वद और ब्राह्मण ग्रन्थ की थी। उस ममय राजा बिम्बसार अंणिक मगध के ऋग्वेद के बाद रचे गए थे । इम काल में वैदिक आर्य स्वामी थे और रानी चेलना के साथ भगवान के राम- दक्षिण पूर्व की ओर बढ़ गए थे और गगा के प्रदेश मे वमरण मे उपदेश श्रवण के लिये बराबर जाया करते थे। बम गए थे। यजुर्वेद और ब्राह्मण ग्रन्यो से जिस प्रदेश इमो प्रदेश के विद्वदशिरोमणि ब्राह्मणवशावतंस इन्द्रभूति को सूचना मिलती है वह है कुरुषों और पाञ्चालो का गौतम ने सर्वप्रथम भगवान महावीर के पादमूल मे देवा । सरस्वती और दृपद्धती नदी के बीच का क्षेत्र कुरुप्रवज्या ग्रहण करके उनका शिप्यत्व स्वीकार किया था क्षेत्र था और उससे लगा हुमा, उत्तर-पश्चिम से लेकर तथा भगवान के प्रथम गणधर पद को अलग करके दक्षिण-पूर्व तक फैला हा गंगा और यमुना के बीच का भगवान की देशना को बारह अगो मे प्रथित किया था। प्रदेश पाञ्चाल था। इमी को मनुस्मृति मे (२७) गौतम गणधर के द्वारा अथित वे बारह अग तो कालक्रम ब्रह्मावर्त कहा है । यही प्रदेश एक समय ब्राह्मण मम्यता से लुप्त हो गये किन्तु उनके ही माधार पर सकलित का घर था। और रचित जन-साहित्य आज भी भारतीय साहित्य सिन्धुदेश मे ब्राहाण सभ्यता का विस्तार किधर को भडार को समृद्ध बनाने में यथायोग्य योगदान कर हुमा, दमका निर्देग शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। उसमें लिखा है 'सरस्वती के तट से अग्निहोत्र ने गगा के अतः बिहार भूमि का जिन और जिनशासन स गहरा उत्तर तट पर गमन किया और फिर मग्यु, गण्डक, तथा सम्बन्ध है और जैनधर्म के अनुयायियो पर उसका महान कोसी नदी को पार करके सदानीरा नदी के पश्चिम तट ऋण है । उस ऋण को चुकाने के लिए ही आज भी पर पहुंचा। उगम अग्निहोत्र के मगध अथवा दक्षिण भारत के कोने-कोने से जैन स्त्री-पुरुप उम पुण्यभूमि की बिहार तथा बगाल मे प्रवेश करने का उल्लेख नहीं है। वन्दना के लिए जाते है और उसकी पवित्र धूलि को ऐतीय प्रारण्यक (२,१-१-५) मे वग, वगध पौर अपने मस्तक पर धारण करके अपने को कृतकृत्य मानते चेरपादो को वैदिक धर्म का विरोधी बताया है। इनमे है। उसका कण कण भगवान महावीर के चरण-चिन्हो मे मे वग तो बगाल ने अधिवामी, बगध' प्रशद प्रतीत मंकित है। होता है सम्भव नया 'मगध' होना चाहिये । चेरपाद भगवान् महावीर से पूर्व इस देश की धार्मिक स्थिति बिहार और मध्य प्रदेश के चर लोग जान पडते है । डा. के पर्यवेक्षण के लिए प्राचीनतम वैदिक साहित्य ही यत्कि- भण्डारकर ने (भण्डारवर इम्पीटयूट पत्रिका जि०१२, चित् सहायक हो सकता है । माधुनिक अन्वेषको के अनु- पृ० १०५) लिखा है-'ब्राह्मण काल तक अर्थात् ईसा सारमार्य जाति की एक शाखा ने मध्य एशिया से पूर्व ६०० लगभग तक पूर्वीय भारत के चार समूह मगध, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और उसकी पृष्ठ भूमि पुण्ड, वंग और चेरपाद प्राय सीमा के अन्तर्गत नहीं बेवात्य अर्थात् प्रब्राह्मण क्षत्रिय कहलाते थे। वे गणतन्त्र पाये थे।' राज्य के स्वामी थे। उनके अपने पूजा स्थान थे, उनको शतपथ ब्राह्मण में विदेह के राजा जनक का बार-बार प्रवैदिक पूजा विधि थी, उनके अपने धार्मिक गुरु थे। उल्लेख पाता है। उसने अपने ज्ञान से सब ऋषियों को वे जैनधर्म और बौद्धधर्म के प्राथयदाता थे । उनमें हतप्रभ कर दिया था। पाली टीका परमत्थ जोतिका महावीर का जन्म हुआ था, मनु ने उन्हें पतित बत(जि० १, पृ० १५८.६५) में लिखा है कि विदेह के लाया है। जनकवश का स्थान उन लिच्छवियों ने लिया, जिनका एक बात और भी ध्यान देने योग्य है । वात्य का राज्य विदेह का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था, मर्थ होता है घुमक्कड़, जो एक स्थान पर स्थिर होकर न तथा जो बज्जिगण के प्रमुख भागीदार थे। ये लिच्छवि रहता हो और वज्जिगण का वज्जि शब्द भी व्रज धातु काशी की एक रानी के वशज थे। इससे प्रकट होता है १ से बना है जिसका अर्थ होता है चलना। वज् से ही कि काशी के राजवंश की एक शाखा ने विदेह में अपना परिव्राजक शब्द बना जो साधु के अर्थ मे व्यवहृत राज्य स्थापित किया था (पोलिटिकल हिस्ट्री प्राफ होता है। एनिस एण्ट इण्डिया, पृ०७२)। डा० हावर ने लिखा है-प्रथर्व का० १५, सूक्त उपनिषदों के कतिपय उल्लेखों के प्राधार पर डा. १०.१३ मे लौकिक प्रात्य को प्रतिथि के रूप में देश में राय चौधरी का मत है कि विदेह राज्य को उलटने में घूमते हुए तथा राजन्यों मोर जन साधारण के घरों में काशीवासियो का हाथ था क्योकि काशीराज भजातशत्र. जाते हुए दिखलाया गया है। तुलना से यह सिद्ध किया विदेहराज जनक की ख्याति से चिढ़ता था। इसी के साथ जा सकता है कि प्रतिथि धूमने फिरने वाला साधु ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि ईस्वी पूर्व ८७७ मे है।........"प्राचीन भारत में एक ही व्यक्ति ऐसा है काशीराज के घर में जैनधर्म के तेईसवे तीर्थकर पावं. जिस पर यह बात घट सकती है वह है परिव्राजक योगी नाथ का जन्म हुमा था और उनके जन्म से २७८ वर्ष या सन्यासी । योगियों-सन्यासियों का सबसे पुराना पश्चात् वैशाली में लिच्छवि गणतन्त्र के नायक चेटक की पुत्री त्रिशाला की कुक्षि से भगवान महावीर का जन्म नमूना वास्य है । (भारतीय अनुशीलन, पृ०१६)। हुमा था । मतः प्राचीन प्रात्य यदि उत्तर काल में वज्जि कहे ___ मनुस्मृति में (म० १०) लिच्छवियों को वात्य कहा जाते हों तो कोई आश्चर्य नहीं है। इस तरह भगवान है। मोर वात्य शब्द ऋग्वेद के भनेक मन्त्रों में माता है। महावीर को जन्म देने वाली पुण्य भूमि बिहार के निवासी प्रतः स्पष्ट है कि 'व्रात्य' बहुत प्राचीन है । यजुर्वेद तथा विदेहों मगषों का सम्बन्ध भारत की प्रति प्राचीन उस त०मा० (३, ४-५-11 में व्रात्य का नाम नरमेध की परम्परा से है जिसने वैदिक क्रियाकाण्ड से शताब्दियों बलि सूची में माया है। और महाभारत में प्रात्यों को तक प्रप्रभावित रहकर उस तत्त्वचिन्तन मे अपना समय महापातकियों में गिनाया है। अथर्ववेद के १५३ काण्ड बिताया था, जिसने वेदान्त के रूप में उपनिषदों के के प्रथम सूक्त में वात्य का वर्णन है । और सायणाचार्य निर्माण में भाग लिया था । यहाँ इतना स्थान नहीं हैं ने उसकी व्याख्या में प्रात्य को 'कर्मपरैः ब्राह्मणविद्विष्ट' कि मैं उपनिषदों से उन सम्वादों को उपस्थित कर जिससे कर्मकाण्डी विद्वान विद्वेष करते थे, लिखा है। जिनमें वैदिक ऋषियों में मात्म-जिज्ञासा की भावना से प्रथर्ववेद में ही मागधों का वात्यों के साथ निकट सम्बन्ध क्षत्रियो का शिष्यत्व स्वीकार करने के उल्लेख हैं और बतलाया है। इसी से श्री काशीप्रसाद जी जायसवाल ने वैदिक ज्ञान को निकृष्ट मोर ग्राम ज्ञान को उकृष्ट (मार रिव्यु १९२९, पृ. ४६६) लिखा था 'लिच्छवि बतलाया है। इस विषय में डा० दास गुप्ता ने अपने पाटलीपुत्र के अपोजिट मुजफ्फरपुर जिले में राज्य करते थे भारतीय दर्शन के इतिहास में (जि. १, पृ० ३१) लिखा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त है-'यहां यह निर्देश करना अनुचित न होगा कि उप- लिया जो पाज तक जीवित है। दूसरी पोर ब्राह्मण निषदों में बारंबार पाने वाले सम्बादों से, जिनमें कहा परम्परा के प्राचार-विचार का प्रभाव श्रमण परम्परा गया है कि उच्च ज्ञान की प्राप्ति के लिए ब्राह्मण क्षत्रियों पर पड़ा । कपिल मूल में निवृत्ति-मार्गी बमण परम्परा के पास जाते थे, तथा ब्राह्मण ग्रन्थों के साधारण सिद्धान्तों के अनुयायी थे। किन्तु उनका केवल दर्शन बचा है के साथ उपनिषदों की शिक्षा का मेल न होने से और सम्प्रदाय नही । ज्ञात होता है कि बाद के शैव माहेश्वर पाली ग्रन्थों में वणित जन-साधारण में दार्शनिक सिद्धान्तों सम्प्रदाय में उसका अन्तर्भाव हो गया मौर उसके दार्शके अस्तित्व की सूचना से यह अनुमान करना शक्य है निक सिद्धान्तों को, जो मूल में मनीश्वरवादी थे, सेश्वरकि साधारणतया क्षत्रियों मे गम्भीर दार्शनिक अन्वेषण वादी बनाकर एक मोर पाशुपत शैवों ने और दूसरी मोर की प्रवृत्ति थी, जिसने उपनिषदों के सिद्धान्तों के निर्माण भागवतों ने अपना लिया। में प्रमुख प्रभाव डाला। अतः यह सभव है कि यद्यपि कपिल का सांख्य दर्शन प्राचीनतम दर्शन माना जाता उपनिषद ब्राह्मणों के साथ सम्बद्ध है किन्तु उनकी उपज है। कुछ उपनिषदों में सांस्य के कतिपय मौलिक विचार प्रकले ब्राह्मण सिद्धान्तों की उन्नति का परिणाम नहीं है, मिलते हैं। प्रतः डा. याकोबी का विचार था कि प्राची. प्रबाह्मण विचारों ने अवश्य ही या तो उपनिषद सिद्धान्तों नतम उपनिषदों के काल मे सौख्य-दर्शन का उदय हमा। का प्रारम्भ किया है अथवा उनकी उपज भार निर्माण में चूकि योग-दर्शन का निकट सम्बन्ध भी साख्य केसी फलित सहायता प्रदान की है, यद्यपि ब्राह्मणों के हाथों से इसलिए योगदर्शन का उदय भी उसी के साथ माना जाता ही वे शिखर पर पहुँचे है। अन्य भी अन्वेषक विद्वानो ने है। इन दर्शनों के उदय में प्रधान कारण प्रात्मामों इसी तरह के विचार प्रकट किये है। वस्तुतः इस देश अमरत्व मे विश्वास था, जो उस समय सर्वत्र फैला इमा मे प्रवत्ति और निवत्ति को दो परम्पराए' ऋग्वेद के था। यह एक ऐसा सिद्धान्त था जिसे मृत्यु के पश्चात समय में भी प्रचलित थीं। प्रवृत्ति परम्परा को देव विनाश से भीत जनता के बहुभाग का समर्थन मिलना परम्परा कहते थे, यज्ञविधि प्रादि उसी के प्रग है। यही निश्चित था। परम्परा ब्राह्मण परम्परा के नाम से विख्यात हुई। प्रारमानों के अमरत्व के सिद्धान्त ने ही तर्कभूमि में निवृत्ति परम्परा को मुनि परम्परा कहा जाता था। प्राकर जड़तत्त्व की भिन्नता को सिद्ध किया, जिसका यही परम्परा श्रमण परम्परा की पूर्वज थी। निवृत्ति- प्राचीन उपनिषदों में प्रभाव है। ये दोनों सिद्धान्त मार्गीय श्रमणों के अनेक सम्प्रदाय महावीर और बुद्ध से प्रारम्भ से ही जैन और सांख्ययोग जैसे प्राचीनतम दर्शनों पूर्व भी विद्यमान थे। अशोक ने अपने शिलालेखो में उसी के मुख्य भाग है । वैशेषिक और न्यायदर्शन का उदय तो माधार पर श्रमण ब्राह्मणों का उल्लेख किया है उसका बहुत बाद में हुमा हैं मोर इन दोनों ने भी उक्त दोनों मभिप्राय ब्राह्मण और श्रमणों की दो पृथक परम्परामों सिद्धान्तों को अपने में स्थान दिया है। बादरायण ने के अस्तित्व से था। पतञ्जलि ने पाणिनि के 'येषाञ्च ब्रह्मसूत्र में वेदान्त दर्शन को निबद्ध किया है । यद्यपि यह विरोषः शाश्वतिक:' सूत्र पर 'श्रमण ब्राह्मणम्' उदाहरण कहा जाता है कि उन्होंने उपनिषदों के सिद्धान्तों को ही देते हुए सूचित किया है कि श्रमणों और ब्राह्मणों का व्यवस्थित रूप दिया है किन्तु ब्रह्मसूत्र में भी जीव को पृथक-पृथक पस्तित्व चला पाता है। इन दोनों परम्प- अनादि और अविनाशी माना है। शंकराचार्य ने अपने रामों में बहुत कुछ मादान-प्रदान भी हुआ है। श्रमण भाष्य में भले ही इसके विरुद्ध प्रतिपादन किया है । इसके परम्परा के कारण ब्राह्मण धर्म में सन्यास प्राधम को सम्बन्ध में कलकत्ता के श्रीमभयकुमार गुह का 'ब्रह्मसूत्र में स्थान मिला, मोर प्राचार्य शंकर ने तो दशनामी सन्या- जीवात्मा' शीर्षक निबन्ध पठनीय है। सियों के रूप में श्रमणों जैसा ही नया संगठन खड़ा कर कठ और श्वेताश्वतर उपनिषदों में ब्रह्म से प्रारमायाँ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न दर्शन और उसकी पृष्ठभूमि १५० का पृथक अस्तित्व माना है। यद्यपि उनमें दोनों के ऐव का भी समर्थन मिलता है। किन्तु ब्रह्मसूत्र तो उन उप निषदों से भी एक कदम आगे बढ गया है । इस तरह स्वतन्त्र ग्रात्मानों की श्रमरता में विश्वास ने ही विचारों को नया रूप प्रदान करने मे मुख्य भाग लिया है । जैन घोर सापयोग भारत के प्राचीनतम दर्शन है जो वैदिक युग के अन्त के साथ ही सम्मुख माते है । ये दोनों ही अमर श्रामाश्रो के बहुत्व के तथा जड़ तत्त्व के पृथकत्व के समर्थक है। यद्यपि दोनों ही दर्शनों ने इन विचारो को अपने-अपने स्वतन्त्र ढंग से विकसित किया है फिर भी दोनों में कहीं-कहीं साया प्रतीत होता है। यहाँ हम विस्तार मे न जाकर क्षमे दो मुद्दो पर प्रकाश डालेंगे । जैन और साख्ययोग इस विषय में एक मत है कि जड़ स्थायी है किन्तु उनको अवस्थाएं अनिश्चित है। सांख्यमत के अनुसार एक प्रधान तत्त्व ही नाना रूप होता है, किन्तु जैनधर्म के अनुसार केद्रव्य नाना अवस्थाओं में परिवर्तित होता है - प्राकाश प्रादि द्रव्य परिवर्तनशील होते हुए भी प्रखण्ड प्रोर अविनाशी रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जब से जड़ और चेतन का भेद विचारकों के अनुभव मे आया नमी मे जड़ के विषय मे उक्त मत मान्य चला आता है। किन्तु उत्तरकाल में उक्त मूल सिद्धान्त में परिवर्तन होना दृष्टिगोचर होता है। यह परिवर्तन है चार या पाँच भूतो का एक दूसरे से एकदम भिन्न और स्वतन्त्र प्रस्त्वि माना जाना। यह मत चार्वाकों का था। चार्वाक साख्ययोग मे अर्वाचीन है । न्यायवैशेषिक ने भी इसी मत को प्रयत्न कर अपने ढंग से विकसित किया । जैन प्रोर साख्ययोग ने इस मत का एक मत से विरोध किया, जो इस बात का सूचक है। कि भूतवादी मत पर्यायीन होना चाहिए। जैन पुदगल को परमाणु रूप में मानते है किन्तु सौख्य प्रधान या प्रकृति को व्यापक मानता है। जैनों के धनुसार परमारों के मेल से धर्म द्रव्य, काल और माकाश के सिवाय शेष सब वस्तुए उत्पन्न हो सकती हैं । किन्तु सांख्यमत के अनुसार प्रधान में तत्त्व, रज और तम नाम के तीन गुण है और इन्ही के मेल रूप एक प्रधान से महान् अहंकार श्रादि पाँच तन्मात्रा पर्यन्त तस्यों की उद्भूति होती है और उन पांच सन्मा श्राम्र से पाँच भूत बनते है । श्रतः मूल सांख्यमत परमावाद को नहीं मानता था किन्तु सांख्य योग दर्शन के कुछ अन्धकार परमाणुवाद को मानते थे ऐसा प्रतीत होता हैकारिका की टीका मे गौड़पाद ने बिना विरोध किए परमाणुवाद का कई जगह निर्देश किया है। योगसूत्र (१४०) मे भी उसे स्वीकार किया है, उनके भाग्य मे तथा वाचस्पति मिश्र की टीका (१-४४ ) मे भी परमा का अस्तित्व स्वीकार किया है। इससे प्रमाणित होता है कि परमासद सिद्धान्त इतना अधिक लोकसम्मत था कि उत्तरकाल में सांख्ययोग ने भी उसे स्वीकार कर लिया । अव ग्रात्मतत्त्व को लीजिये- आत्मतत्त्व के विषय मे जैन और सांख्ययोग कतिपय मूल बातो मे हम है धाराएं सनातन अविनाशी है, चेतन है, किन्तु जड़ कर्मों के कारण, जो अनादि है, उनका चैतन्य तिरोहित है । मुक्ति अवस्था में कर्मों का अन्त हो जाता है । . किन्तु प्रात्मा के आकार के विषय मे जैन दर्शन का अपना एक पृथक मत है जो किसी भी दर्शन में स्वीकार नहीं किया गया । जैन दर्शन मानता है कि प्रत्येक आत्मा अपने शरीर के बराबर आकार वाला है। ऐसा प्रतीत होता है कि मूल सांख्य इस विषय मे अपना कोई स्पष्ट मत नही रखते थे । क्योकि योग भाष्य मे (१-३६) पञ्चशिव का मत उदघृत किया है जिसमे आत्मा को मात्र माना है। जबकि ईश्वर कृष्ण तथा पश्चात् के सभी ग्रन्थकारों ने मात्मा को व्यापक माना है । आत्मा के कर्म बन्धन और कर्मों से छुटकारे के सम्बन्ध मे भी सांख्ययोग और जैन दर्शन में बहुत भेद है । इसके सिवाय जैन दर्शन मानता है कि पृथिवी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति मे भी जीव है और उसके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय है । सारांश यह है कि जड़ मोर ग्रात्मा को लेकर जैन-दर्शन मोर सांख्ययोग में Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त इतना सुनिश्चित अन्तर है कि उसे देखते हुए यह निश्चय रखने वाले ही ऐसा प्रताप करते हैं कि प्रमुक वस्तु नित्य पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि जैनों ने सांख्ययोग से या ही है और प्रमुक वस्तु प्रनित्य ही है। सांख्ययोग ने जैनों से कुछ लिया है। फिर भी स ख्य जैन-दर्शन एक द्रव्य पदार्थ ही मानता है और उसे और जनदर्शन की प्रात्म-विषयक कुछ बातो मे समानता इस रूप में मानना है कि उसके मानने पर अन्य पदार्थ देखकर कुछ अन्वेपक विद्वानो का ऐमा मत है ये दोनो के मानने की आवश्यकता नहीं रहती। दर्शन लगभग समकाल में उदित हुए हैं । तथा ये दोनो ही प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार में द्रव्य का प्राचीनतम भारतीय दर्शन है। कौटिल्य के अनुसार लक्षण इस प्रकार किया हैउसके समय मे (३०० ई० पूर्व) सांख्ययोग और लोका- अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादस्वयषुवत्तसंजुत्त । यत ये दो ही ब्राह्मण दर्शन वर्तमान थे । अतः अवश्य ही गुणव च सपउजायं जंतं दण्यत्ति बुच्चति ।। ये कौटिल्य काल से प्राचीन है। प्रति--जो अपने अस्तित्व स्वभाव को न छोड़कर, जैन धर्म के प्रादि प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव थे उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य से सयुक्त है एक गुण तथा और अन्तिम प्रवर्तक थे भगवान महावीर । भगवान पर्यायों का आधार है उसे द्रव्य कहा जाता है। महावीर ने संमार के दुःखी जीवो के समुद्धार के लिए प्राशय यह है कि गुण और पर्याय के प्राधार को द्रव्य आहिमामयी धर्म का उपदेशा सार्वजनिक रूप में दिया था। कहते है । गुण और पर्याय उम द्रव्य के ही प्रात्मस्वरूप भगवान दुद्ध ने भी विश्व को दु.ख रूप मानकर क्षणिक है प्रत: वे किमी भी हालत मे द्रव्य से जुदा नहीं होते। कहा था। उनका उद्देश्य भी विश्व को वैराग्य की तरफ द्रव्य के परिणमन को पर्याय कहते है। पर्याय सदा कायम ले जाने का था । जिमसे अत्याचार, अतावार और हिसा नही रहती, प्रतिक्षण बदलती रहती है। एक पर्याय नष्ट का लोप हो जाये। किन्तु उनके उतराधिकारियोन होती है तो उमी क्षण मे दुसरी पर्याय उत्पन्न होती है। क्षणिकवाद के अाधार पर गुन्यवाद का प्रतिष्ठा कर इसी में पर्यायो के प्राधार द्रव्य को उत्पाद-व्यय से डाली। इसके विपरीत भगवान महावीर ने पर्याय दृष्टि मपवन कहा जाता है। और जिनके कारण द्रव्य सजासे विश्व को क्षणिक मानकर भी द्रव्य दृष्टि से नित्य तीय से मिलता हमा और विजातीय से भिन्न प्रतीत माना । उनका कहना है कि इस दृश्यमान जगत में जो होता है वे गुण हैं । गुण अनुवृत्ति रूप होते हैं और पर्याय प्रतिक्षण परिणाम हुग्रा करते है ये परिणाम ही प्रतिक्षण व्यावत्ति रूप होती है। इसी से जैन दर्शन में सामान्य होते रहने के कारण क्षणिक है किन्तु मल तत्व स्वय और विशेष नाम के दो पृथक पदार्थ मानने की प्रावश्यक्षणिक नही है। अन्य दर्शनों ने किसी को नित्य और कता नहीं समझी गई। किमी को अनित्य माना है । किन्तु जैन-दर्शन कहता यह द्रभ जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, प्रादीपमाव्योम समस्वभावं प्राकाम और काल के भेद से छह प्रकार है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जीव या प्रात्मा को अरस, प्ररूप, अगन्ध, स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । अध्यक्त, प्रशब्द, भूतों के चिन्हों से अग्राह्य, निराकार तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यद् इति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रलापाः तथा चैतन्य रूप माना है । यथाप्रर्थात -प्राकाश नित्य हो और दीपक क्षणिक हो, प्ररसमरूवगधं प्रवत्त चेवणागुणमसह। यह बात नही है। प्राकाश से लेकर दीपक तक सब एक जाण अलिगग्गहण दव्वणिविट्ठसठाण ॥ स्वभाव हैं, कोई भी वस्तु उस स्वभावका अतिक्रमण नही रूप, रस, गन्ध पोर स्पर्श गुण से युक्त पृथिवी, कर सकती क्योंकि सभी के मुह पर स्याहाद या अनेकान्त जल, अग्नि और वायु को पुद्गल कहते हैं। जिसमें स्वभाव की छाप लगी हुई है । हे जिनेन्द्र ! पाप से द्वेप पूरण-गलन हो उसे पुद्गल कहते हैं । पुद्गल द्रव्य अणु, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और उसकी पृष्ठभूमि १५२ और कब के मेद से दो प्रकार का है। परमाणुओं के संघात से बने पृथिवी मादि को स्कन्ध कहते हैं । जीव चौर पुद्गलों की गति में सहायक को धर्म कहते हैं और स्थिति में सहायक को अधर्म द्रव्य कहते काश देने वाले पदार्थ को प्राकाश कहते हैं मौर द्रव्यों के परिणमन में सहायक द्रश्य को काल कहते हैं। सम्पूर्ण जगत इन्हीं छह दव्यों का प्रसार है । चूंकि यह दर्शन प्रत्येक द्रव्य को परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले विश्व मनित्य, सत् प्रसत् प्रादि धर्ममय मानता है इसलिये इसे अनेकान्तवादी दर्शन भी कहते हैं । जैसे प्रत्येक वस्तु द्रश्य रूप से नित्य है और पर्याय रूप सेनिथ है, स्वरूप से सत् है औौर पर रूप की अपेक्षा इसी को अनेकान्तवाद कहते है अर्थात् एकान्त से नित्य, प्रनित्य प्रादि कुछ भी नही, किन्तु अपेक्षा भेद से सब है । इसी से इसे सापेक्षवाद भी कहा जाता है । अनेक धर्मात्मक वस्तु का बोध कराने के लिए 'स्याद्वाद' का अवतार किया गया है। 'स्याद्वाद' में स्यात् शब्द अनेकान्त रूप प्रर्थं का वाचक या द्योतक अव्यय है । प्रतएव स्याद्वाद और अनेकान्तवाद एकार्थक भी माने जाते हैं। जैन विद्वानों ने स्वाद्वाद के निरूपण में और समर्थन में बहुत बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे हैं, और अनेकान्तबाद ही शस्त्र के बल से उन्होंने अन्य दार्शनिकों के मन्तव्यों का निरसन किया । है समन्तभद्र घोर सिद्धसेन, हरिभद्र और कलंक, विद्यानन्द, हेमचन्द्र जैसे प्रकाण्ड जैन विद्वानों ने अनेकान्तवाद के बारे में जो कुछ लिखा है वह भारतीय दर्शन साहित्य में बड़ा महत्व रखता है। इसी से मात्र जब कोई अनेकान्त वाद या स्याद्वाद का उच्चारण करता है तो सुनने वाला विद्वान उससे जैन दर्शन का ही भाव ग्रहण करता है। प्रभावन्द्र तथा मनेकान्तबाद जंनाचार और विचार का मूल है । उसके ऊपर से जो अनेक वाद जैन दर्शन में अवतरित हुए उनमें से दो मुख्यबाद उल्लेखनीय हैं - एक नयवाद और एक सप्तभंगीवाद । नयवाद में दर्शनों को स्थान मिला और सप्तभंगीवाद में किसी एक ही वस्तु के विषय में प्रचलित विरोधी कथनों या विचारों को स्थान मिला। पहले बाद में सब दर्शन संग्रहीत है और दूसरे में दर्शन के विशंकलित मन्तव्यों का संग्रह है। प्राशय यह है कि भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन के अतिरिक्त वैशेषिक न्याय, सांख्य, वेदान्त, मीमांसा धोर बौद्ध दर्शन मुख्य है। इन दर्शनों को पूर्ण सत्य मानने में प्रापत्तियां थीं धौर सर्वथा प्रसत्य कह देने में सत्य का पापा उन्हें दृष्टि भेद से अधिक सत्य स्वीकार करने के लिए नयवाद का अवतार हुआ। इस तरह स्याद्वाद, सप्तभंगीवाद और नयवाद ये तीनों बाद बनेकान्तवादी जैन दर्शन की देन है जो इतर दर्शनों में नहीं मिलते। जैन दर्शन स्वपर प्रकाशक सम्यग्ज्ञान को प्रमाण मानता है मोर चूंकि ज्ञान स्वरूप मारमा है इसलिये धम्म की सहायता के बिना केवल भारया से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और इन्द्रिय प्रादि की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहते हैं । परोक्ष ज्ञान अपारमार्थिक होने से हेय है । पारमार्थिक प्रत्यक्ष केवलज्ञान ही उपादेय है। इन्द्रियजन्य ज्ञान की तरह इन्दियजन्य सुख भी अपारमार्थिक होने से हेय है । जैनधर्म का कहना है कि जिन प्राणियों की सांसारिक विषयों में रति है ये स्वभावतः दुःखी है क्योंकि यदि वे दुःखी न होते तो सांसारिक विषयों की प्राप्ति के लिए रात दिन व्याकुल क्यों होते । चूंकि वे विषयों की तृष्णा से सताए हुए हैं अतः उस दुःख का प्रतीकार करने के लिए विषयों में उनकी रति देखी जाती है, किन्तु उससे उनकी तृष्णा शान्त न होकर और भी अधिक प्रज्वलित होती है । इसलिए सच्चे सुख की प्राप्ति के लिये इन्द्रियजन्य वैषयिक सुख हेम है। ज्ञान की तरह सुख भी प्रात्मस्वरूप है । मतः मात्मोत्थ ज्ञान की तरह प्रात्मोत्थ सुख ही सच्चा सुख है । क्योंकि उसमें दुःख का लेश भी नहीं रहता । और न उसके नष्ट होने का भय रहता है । अतः जैन दर्शन संसार के सुख मे भूले हुए प्राणियों को उसी सच्चे सुख की प्राप्ति की सलाह देता है और उसके लिए मोक्ष का मार्ग बतलाता है । सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान प्रौर सम्यकचारित्र ही मुक्ति का मार्ग है। तस्वार्थ के बद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं तस्वार्थ सात जीव, जीव, मालव, बन्ध, संबर, निबंध और मोक्ष इन सात में से । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनकाम्त मल पदार्थ तो दो ही है जीव और मजीव। इन्हीं दोनों दृष्टि है। इन्हीं दोनों नय से उन्होंने अपने समयसार सम्बन्ध से संसार की प्रवृत्ति हो रही है। जीव की में उक्त नव पदार्थों का कथन किया है जिससे मुमुक्ष, प्रशुद्ध दशा का नाम ही ससार है मौर जीव की प्रशुद्ध जीव अभूतार्थ को छोड़कर भूतार्थ का मामय कर सके। दशा में जड़ कम निमित्त है । यह जड़ कर्म जीव में कैसे उदाहरण के लिए जीव को ले लीजिये। जीव क्या है? प्राता है और कैसे उसके नाथ बन्ध को प्राप्त होता है क्या जिस शरीर में जीव रहता है वह शरीर ही जीव हैं इन दोनों प्रक्रियानों को ही पासव और बन्ध कहते हैं। या वह शरीर जीव का है ? जीव मे होने वाले रागादि ये दोनों ही संसार के कारण हैं। और इनसे बचने की विकार क्या उसके है। इन प्रश्नों का उत्तर व्यवहार प्रक्रिया को संवर और निर्जरा पहते हैं। नवीन कर्मों के पोर निश्चन नय से इस प्रकार दिया जाता हैप्रागमन को रोकना संबर है और पूर्व-बद्ध कर्मों का १. जीव मोर देह एक हैं यह व्यवहार नय का कथन क्रमश: नष्ट होना निर्जरा है इन दोनों के होने से मोक्ष है। जीव पोर देह एक नहीं हैं पृथक-पथक है यह निश्चय की प्राप्ति होती है अतः ये दोनों मोक्ष के कारण हैं। नय का कथन है। इस तरह मुमक्ष को जीव और अजीव को, तथा संसार २. रागादिक जीव के है यह व्यवहार नय का कथन है ये जीव के नहीं है यह निश्चनय का कथन है। के कारण मानव और बन्ध को व मोक्ष और उसके कारण संवर निर्जरा को सविधि जानना चाहिए और उन ३ शरीर जीव का है यह व्यवहार नय का कथन है और शरीर जीव से भिन्न है यह निश्चय नय का पर श्रद्धान रखना चाहिए । श्रद्धा-विहीन ज्ञान की कोई । कथन है। कीमत नही है उसी तरह पाचरण-विहीन ज्ञान का भी इन दोनों शैलियों के द्वारा जोव के सोपाधि पौर कोई मूल्य नहीं है। निरूपाधि स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो जाता है और ऐसा होने से मुमुक्ष की दृष्टि सोपाधि स्वरूप से हट कर हतं जानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिना किया। निरूपाधि स्वरूप पर टिक जाती है। उपाधि चूक पावन शिलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पगुकः ।। पागन्तुक है प्रत. वह उपादेय नहीं है निपाधि स्वरूप क्रियाहीन ज्ञान व्यर्थ है और प्रज्ञानियों की क्रिया ही यथार्थ स्वरूप होने से उपादेय है। उसी की प्राप्ति के भी व्यर्थ है । एक जंगल में प्राग लगने पर एक अन्या लिये मुमुक्ष व्यवहार का अवलम्बन लेते हुए भी व्यवहार दौड़ते हुए भी जल मरा और एक लंगड़ा देखते हुए भी मय नहीं होता। वह व्यवहार को मान्य नहीं मानता, जल मरा । प्रतः सम्यक् श्रद्धामूलक ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान साधन मानता है। साध्य तो निश्चय है, व्यवहार को है सम्यग्ज्ञान-मूलक पाचरण ही सम्यक् चारित्र है। करते हुए भी उसी पर उसको दृष्टि केन्द्रित रहती है। सम्यकचारित्र ही यथार्थ धर्म है किन्तु उस धर्म का मूल इसी से वह व्यवहार विमूढ होकर अपने लक्ष्य से च्युत सम्यग्दर्शन है। नहीं होता। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने समयसार में कहा हैभयत्षणाभिगदा जोगजीवा य पुण्णपावं च, जैन धर्म का प्रावार या चारित्र गृहस्य और साधु पासवसवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मतं ।।१४।। के भेद से दो प्रकार का है। हिमा, सत्य, प्रवीयं, भूतार्थ नय से जाने हुए जीव-जीव, पुण्य-पाप, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को माधु पूर्ण रूप से पालता है, माधव, संवर निर्जरा, बन्ध और मोक्ष सम्यग्दर्शन है। और ग्रहस्थ एक देश रूप से पालता है। इसी से साधु प्राशय यह है कि भगवान कुन्दकुन्द की व्याख्यान महावनी कहलाते हैं और गृहस्थ अणुवती कहे जाते हैं। शैली दोनों पर प्राश्रित है। वे दोनों नय हैं- इस.बत पालन का एक मात्र लक्ष्य राग-द्वेष से निवृत्ति व्यवहार और निश्चय । इनमें से उन्होंने व्यवहार को है। रागदोष से निवृत्ति के लिए ही साधु चरित्र का पभूतार्थ तथा निश्चय को भूतार्थ कहा है और यह भी. पालन करता है। यग-देष की निवृत्ति हो जाने पर हिंसा कहा है कि भूतार्थ का पाश्रय लेने वाला जीव ही सम्यग- बगरह की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ मैन वन और उसकी पृष्ठभूमि जिस तरह जैन-दर्शन अनेकान्तमय है उसी तरह विशुद्धि के लिए मानसिक विशुद्धि प्रावश्यक है। मन के जैनधर्म अहिंसामय है। अनेकान्त पौर अहिंसा ये दो प्रविशुद्ध रहते हुए महिंसा का पूर्ण पालन प्रशक्य है । ऐसे तत्व हैं जो समस्त जैनाचार और विचार पर छाये मन के विकार ही मूलत: हिंसा के जनक हैं, इतना ही हए हैं । जैसे अनेकान्तविहीन विचार मिथ्या है वैसे ही नहीं किन्तु वे स्वय हिंसा रूप है। पहिसाविहीन प्राचार भी मिथ्या है । समस्त जैनाचार क्योंकि जब हम दूसरों को मारने या सताने का का मूल एक मात्र महिसा है। जिस प्राचार में जितना विचार करते है तो सर्वप्रथम उस दुविचार से अपनी ही हिंसा का मंश है उतना ही उसमें धर्म का मश है प्रात्मा का ही घात करते है। प्रत्येक मानसिक विकार उसके कर्ता के लिये ही सर्वप्रथम मनिष्टकारक होता पौर जितना हिसा का मंच है उतना ही प्रधर्म का प्रश है । सारांश यह है कि हिंसा धर्म है और अहिंसा धर्म है। अत: मात्मा को विकार शून्य कर देना ही पूर्ण पहिसा है। मौरमात्मा की उस निविकार अवस्था को है किन्तु अपने से किसी के प्राणों का पात हो जाने या किसी को कष्ट पहुँच जाने मात्र से जैन-धर्म हिंसा नहीं। ही मोक्ष कहते हैं। प्रतः पूर्ण माहिंसा ही मोक्ष का कारण है। मानता । जहाँ कर्ता का मन दूषित है-प्रमादी और किन्तु हम लोग तो गृहस्थ हैं प्रतः यद्यपि पूर्ण माहिंसा प्रसावधान है वहाँ बाहर में हिंसा नहीं होने पर भी का पालन करने में असमर्थ हैं तथापि प्रांशिक अहिंसा हिंसा अवश्य है और जहाँ कर्ता का मन विशुद्ध है उसकी का पालन करना हमारा कर्तव्य है। समाज की सुखप्रवृत्ति पूर्ण सावधानता को लिये हुए है वहाँ बाहर में शान्ति उसके सदस्यों की प्रहिंसा-मूलक वृत्ति पर ही हिंसा हो जाने पर भी हिंसा नहीं है । कहा भी है निर्भर है । जिस समाज के सदस्यो में जितना ही पारमरर व जीवदु जीवो प्रयदाचारस्स णिज्छिवा हिसा' स्परिक सौहार्द और सद्भाव होता है वह समाज उतना पयवस्स णस्थिबंधो हिसामेतण समिदस्स" ही सुखी होता है । यही बात राष्ट्रो के विषय मे भी जीव मरे या जिये, जो प्रयत्नाचारी है =प्रमादमूलक जानना चाहिये । विश्व के राष्ट्रों में जितना ही सद्भाव प्रवृत्ति करता है उसे हिंसा का पाप अवश्य होता है। होगा उतनी ही विश्व में शान्ति रहेगी। किन्तु जैसे किन्तु जो अप्रमादी है, सावधानता पूर्वक प्राचरण करता समाज में सभी सज्जन नहीं होते वसे ही सभी राष्ट्र है उसे हिसा हो जाने मात्र से पाप का बष नहीं होता। भी सज्जन नहीं होते और इसलिए जैसे दुर्जनों के बीच में इसी से कहा है-कि एक बिना मारे भी पापी पड़कर सज्जन को भी कष्ट भोगना पड़ता है वैसे ही होता है और दूसरा मार कर भी पाप का भागी नहीं लड़ाकू राष्ट्रों के बीच मे पड़कर शान्ति प्रेमी राष्ट्र को होता। भी लड़ाकू बनमा पड़ता है अन्यथा उसकी स्वतन्त्रता इस तरह जैन धर्म में हिसा की व्याख्या मध्यात्म. म. खतरे में पड़ सकती है। मलक हैं। यदि ऐसा न मानकर बाह्य हिंसा को ही हिंसा हमारा भारत देश सदा से शान्ति-प्रेमी रहा है माना जाता तो ससार में कोई अहिंसक हो नहीं सकता उसने कभी किसी बाहरी देश पर माक्रमण नहीं किया, था।कहा भी है प्राज भी वह अपनी उस नीति पर दृढ़ है किन्तु फिर भी विध्वग्जीवचिते लोकेगक परन कोऽप्यमोक्ष्यत्' एक पड़ोसी राष्ट्र ने मित्रता का स्वांग रचकर उस पर भावकसापनी बन्धमोमो चेन्नाभविष्यताम् । माक्रमण किया और माज भी वह हमारी भूमि दबाये यदि बन्ध और मोक्ष का एकमात्र साधन भाव बैठा है। ऐसे राष्ट्र पर माक्रमण करके अपनी भूमि (जीव के परिणाम) न होता तोच पोर जीवों से भरे हस्तगत करना हिंसा नही है, अहिंसा है । लुटेरों की हुए इस संसार में विचरण करने वाला कोई भी मनुष्य अहिंसा भी हिसा है और मातृभूमि की रक्षा के लिए क्या कभी मोक्ष प्राप्त कर सकता था? जूझने वाले वीरों की हिंसा भी महिंसा है। हिंसा और प्रतः अपनी वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति की पहिसा का यह पाठ हमें सदा याद रखना चाहिये । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म में मूर्तिपूजा डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जावरा १ त्रिविध सौदर्य व्यवस्था को लेकर समाज में मनमुटाव तथा कलह होते सौन्दर्य के तीन प्रकार हैं-मास्मिक, शारीरिक और इन सब बातों में हिंसा अवश्य ही होती हैं। तथा बाहा। शुद्ध प्रात्मा के ज्ञान दर्शन, चारित्र प्रादि इसी बात को देख कर स्वामी पात्रकेसरी ने कहा है कि गुणों की उत्कृष्टता मात्मिक सौन्दर्य है। निरावण शरीर जीव हिमा के लिए कारण भूत मन्दिर मादि क्रियामों का स्वाभाविक रूप शारीरिक सौन्दर्य है । तथा वस्त्रों का उपदेश केवलज्ञानी भगवान मरहन्त ने नहीं दिया एवं प्राभूषणों से प्राप्त सौन्दर्य बाह्य तथा कृत्रिम सौदर्य है, ये क्रियाएं तो श्रावकों ने स्वयं अपनी भक्ति के का मोह छोड़ना चाहिए तथा फिर शरीर से भी मुक्त कारण शुरू की हैहोकर मात्मिक सौन्दर्य में स्थिर होना चाहिए । विमोक्षसुखचंत्यवानपरिपूजनाबात्मिका: २ त्रिविध धर्म क्रिया बहुविधासुभन्मरणपीडनाहेतवः । स्वया ज्वलितकेवलेन न हि वेशिताः किं नु ता: सौन्दर्य के समान धर्म की भी तीन अवस्थाएं हैं त्वयि प्रसूतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः पावकः॥ मात्मिक, व्यावहारिक तथा प्रौपचारिक । प्रात्मा का ४.प्राचीन प्रागमों में मर्ति पूजा का प्रभाव ". निर्मोह. निष्क्रोध सम भाव में स्थिर होना यह उत्कृष्ट इस वर्णन को देखते हुए यह स्वभाविक ही प्रतीत मात्मिक धर्म है। जैसा कि कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है म होता है कि जैन साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थों में =जिन चारित खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिहिटो। की रचना वीरनिर्वाण के बाद की छह-सात शताब्दियों मोहखोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो । में हुई है मूर्तिपूजा के उपदेश या उल्लेख नहीं पाये मुनियों के महावत, समितिया प्रादि तथा गृहस्थों जाते । ग्यारह मंग, बारह उपांग, छह छेदसूत्र तथा चार के अणुव्रत, गुणवत तथा शिक्षावत व्यावहारिक धर्म में मूल सूत्र इन सभी भागमों में इस बात का वर्णन नही सम्मिलित होते है। इनके अतिरिक्त जो धार्मिक कार्य हैं है। पागमों का तात्पर्य जिस ग्रन्थ में भाचार्य उमास्वाति उन का-मूर्तिपूजा, मदिर प्रतिष्ठा, तीर्थ यात्रा मादि ने संकलित किया है उस तस्वार्थ सूत्र में भी मूर्तिपूजा का का-प्रौपचारिक धर्म में समावेश होता है। प्रौपचारिक EिNT धर्म तभी उपयुक्त होगा जब वह हमें व्यावहारिक (व्रत- ५ व्रतों में मूर्तिपूजा का समावेश-- पालन रूप) धर्म की मोर पोर मात्मिक (निर्मोह सम- प्राचीन परम्परा में मूर्तिपूजा का उपदेश न होने से भाव रूप) धर्म की भोर प्रेरित करेगा। मध्ययुग में जिन प्राचार्यों ने उसका वर्णन करना चाहा ३ मूर्तिपूजा क्या तीर्थ कर प्रणीत है? उनके सामने यह कठिनाई उपस्थित हुई कि इसका धर्म के इन तीन रूपों का परस्पर सम्बन्ध मौर समावेश गृहस्थों के किस व्रत में या किस प्रतिमा में किया तुलनात्मक महत्व भूलने के कारण हम अक्सर मूर्ति पूजा जाय । रत्नकरण्ड में स्वामी समन्तभद्र ने वैयावत्य शिक्षा पर बहुत अधिक जोर देते हैं । किन्तु मूर्तिपूजा के साथ व्रत का वर्णन करने के बाद देव पूजा का वर्णन कर दिया कई सामाजिक प्रवृत्तियां जुड़ जाती हैं। मूति-मन्दिरों है । इस प्रकार वे मुनियों की सेवा के साथ देव पूजा को की व्यवस्था के लिए नौकर रखे जाते हैं, उनके वेतन के - - ..इसी बात को लेकर सन् १४७० में बहमदाबाद लिए बामन्दिरों के जीर्णोद्धार मादि के लिए स्थायी में लोकाशाहने मतिपूजा विरोधी स्थानकवासी सम्पत्ति (घर, दुकान मादि) प्राप्त की जाती है, उस की संप्रदाय का प्रारम्भ किया था। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जैन धर्म में मूर्ति पूजा समाविष्ट करते हैं । गृहस्थों के मूल गुणों में उन्होंने इस प्रतः सांसारिक सुख की प्राप्ति यह जैन मूर्तिपूजा का वर्णन नहीं किया है । सोमदेव प्राचार्य ने यशस्तिलक का उद्देश्य नही है। में सामायिक शिक्षावत में पूजा का अन्तर्भाव किया है... जिन भगवान की पूजा का वास्तविक उद्देश स्वामी प्राप्तसेवोपवेश: स्यात् समयः समयापिनाम् नियुक्तं तत्र यत् कर्म तत् सामायिकमूधिरे ॥ समन्तभद्र ने स्वयम्भूस्तोत्र में प्रकट किया है न पूजार्यस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाय विवान्तवरे । ६. जैन मूर्ति पूजा का उद्देश्य तथापि ते पुण्यगुणस्मतिर्नः पुनातु चित्त दुरिताञ्जनेभ्यः ।। उपयुक्त वर्णन के बावजूद यह स्पष्ट है कि कम से कम दो हजार वर्षों से जैन समाज मे मूर्ति पूजा प्रचलित अर्थात् -हे भगवन् माप वीतराग है इसलिए है । ईसवी सन के प्रारम्भ के समय की कुछ मतिया । प्रापकी पूजा से लाभ नहीं तया प्रापवरहीन हैं इसलिए मथुरा से प्राप्त हुई है उनसे सिद्ध होता है कि तब भी प्रापको निन्दा से भी लाभ नहीं, फिर भी प्रापके पवित्र जैन समाज मे मूर्ति पूजा प्रचलित थी। प्रतः यह देखना गुणा का स्मृति हमारे मनको पाप रूपी कालिख से मुक्त - चाहिए कि इस का कोनसा उद्देश जैन दर्शन के अनुकूल पवित्र करे (यही अापकी पूजा का उद्देश है)। तात्पर्य - हो सकता है। जैन मूर्ति पूजा किसी वैयक्तिक सुख-लाभ भगवान जिनेन्द्र के पवित्र गुगो को स्मृति होना और (धन मिलना, रोग दूर होना, पुत्र होना) के लिए नही उन गुणों को प्राप्त करने के प्रयास की पोर प्रेरणा को जाती क्योंकि जैनों के प्राराध्य देव तीर्थङ्कर- मिलना यही देवपूजा का वास्तविक उचित उद्देश है। सिद्ध पद को प्राप्त हुए वीतराग महापुरुष है = वे ससार के किसी जीव के सुख-दुःख मे रुचि नही रखते। हम ७ वर्तमान पूजा पद्धति यद्यपि पूजा के प्रारम्भ मे कहते है कि हे भगवन् पत्र प्रव हमे यह देखना चाहिए कि इस समय जैन समाज मागच्छ प्रत्र तिष्ठ (यहाँ पाइये और ठहरिये) तथा मे पूजा की जो विभिन्न पद्धतियां है वे इस उद्देश से अन्त मे यह भी कहते हैं कि जिन देवों को यहाँ बुलाया कहाँ तक सुस गत है । इन पद्धतियों में सब से अधिक तथा पूजा की वे अपने स्थान को वापस जाये (ते मया- चमक-दमक वाली पद्धति श्वेताम्बर मन्दिर मार्गी भाइयों भ्यचिना भक्त्या सर्वे यान्तु निजालयम्) तथापि यह हमें में रूढ है । इस पद्धति में अभिषेक और पूजा के साथ अच्छी तरह मालम है कि तीर्थकर भगवान यहाँ न पाते देवभूति को वस्त्र और प्राभूषण भी पहनाये जाते हैं तथा है,न वापस जाते है। मासारिक मुख मिलने की प्राशा मूति का भौहों के स्थान पर लाख तथा माखों में कांच से उन की पूजा करना किसी तरह उचित नहीं है । या रत्न लगाये जाते हैं। स्पष्टतः यह पद्धति वीतराग चक्रेश्वरी, पदमावती, ज्वालामालिनी प्रादि की पूजा तो भाव का स्मरण कराने वाली नहीं है। साथ ही इससे सुख की प्राशा से करने में कोई प्रर्य हो सकता है क्योंकि मूर्तियो का स्वाभाविक सौन्दर्य भी प्राच्छादित या ये देषिया सराग है प्रतः कुछ हद तक भक्तों की सहायता विकृत होता है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी कर सकती है। किन्तु वीतराग जिनेन्द्र की पूजा का यह भगवान ऋषभदेव तथा भगवान महावीर ने निर्वस्त्र रूप उचित उहश नही हो सकता । वीतराग जिनदेव किसी मे दीर्घकाल तक विहार किया था। उन्ही की मूर्तियों पर प्रसन्न होकर सुख नहीं देते अथवा कुपित होकर दुःख को वस्त्र-भूषण पहनाना वस्तुत. सुसंगत नही है। इस नहीं देते। मनुष्य का मुख दुख उसी के अपने कर्मों का पद्धति से कुछ सादी रीति दिगम्बर समाज के बोसपंथी परिणाम है, जैसा कि अमितमति प्राचार्य ने कहा है-, भाइयों में रूढ़ है। वे मूर्तियों को वस्त्राभूषण निजाजित कम विहाय देहिनी नही पहनाते या लाख-कांच नही लगाते । किन्तु पुष्पन कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन । हार मतियों के गले में पहमाल है, चरणो को चन्दन Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेका लगाते हैं, मभिषेक में जल के साथ दूध, दही, घी. फलों खोपरे के टुकड़े ही काम में लाते है । किन्तु इस रीति के रस तथा कल्कचूर्ण (इलायची, लोग प्रादि का चूर्ण) मे पूजा के जो मन्त्र मभी रूढ़ हैं वे बीसपंथी पद्धति के मिले हुए जल का प्रयोग करते हैं एवं प्रष्ट द्रव्य पूजा मे ही है । इससे कुछ प्रसत्य भाषण का दोष उत्पन्न होता तरह तरह के पक्वान्नों एवं फलों का प्रयोग करते हैं। है। चन्दन, पुष्प तथा प्रक्षत तीनो के मन्त्र मलगयह पद्धति भी वीतराग भाव की पोषक नही कही जा पढ़े जाते है, किन्तु तीनो बार के बल चावल पर्पण किये सकती। इससे एक सामाजिक प्रश्न भी उपस्थित होता जाते । हैं इसी तरह नैवेद्य पौर दीप के मन्त्र अलग २ है। इस रीति में भगवान को जो फल एवं पक्वान्न होने पग भी पदार्थ एक ही (खोपरे का टुकड़ा) पित प्रपित किये जाते हैं वे पूजा के बाद निर्माल्य कहलाते हैं, किया जाता है। इस द्रव्य को बहुधा मन्दिर के नौकर (माली) अपने हमारी समझ मे पूजा का सर्वोत्तम तरीका यह होगा प्रयोग मे लाते हैं, किन्तु निर्माल्य द्रव्य का इस तरह कि भगवान को निगवण मूनि सन्मुख शान्त भाव से उपयोग करना पाप माना जाता है, प्रत. मन्दिर के खडे होकर उनके मुणों का पवित्र हृदय से स्मरण किया नौकरों को इस पापपूर्ण कार्य के लिए मौका देना कहाँ जाय, उस प्रकार के स्तोत्रों का पठन किया जाय तथा तक उचित है यह प्रश्न सहज ही उठता है । इस पद्धति 'मेरी भावना' जैमी उच्च भावनामों का चिन्तन किया मे सचित्त फल, फूक, पक्वान्न प्रादि वा प्रयोग बन्द करके जाय । जैन मूर्तिपूजा का जो वास्तविक उचित उद्देश दिगम्बर समाज के तेरापथी भाइयो ने काफी सादी पूजा है उससे यही पद्धति सुमंगत हो सकती है ऐसी पूजा यदि पद्धति अपनाई। वे अभिषेक में सिर्फ जल का प्रयोग सामूहिक रूप में की जाय तो उसका प्रभाव मधिक होता करते हैं तथा प्रष्टद्रव्यपूजा में भी मूर्ति को चन्दन या है तथा सामाजिक एकता के लिए भी वह बहुत उपयोगी फूल अर्पण नहीं करते, केवल चावल, सूखे फल तथा सूखे सिद्ध होती है। संवेग मुनि श्री मथमल जी वेग शब्द विज़-धतु से बना है। विज का अर्थ है मल-मूत्र के वेग को मत रोको, उसे रोकने से प्रनेक रोग दौड़ना, कम्पन करना। वेग दो प्रकार का होता है- उत्पन्न हो जाते हैं। शारीरिक और मानसिक । भूख, प्यास, रोना, हंसना, मुर्त निरोहे चक्ख, बच्चनिरोहे य जीवियं चयति । मल, मूत्र, वीर्य प्रादि शारीरिक वेग हैं । क्रोध, अभिमान, उड्डनिरोहे कोड, सुस्कनिरोहे भवह अपुमं ।। कपट लोभ, काम वासना मादि मानसिक वेग है । शारी. मूत्र का वेग रोकने से चक्ष की ज्योति नष्ट होती रिक बेग को रोकने से हानि होती है और मानसिक वेग. है। मल का वेग रोकने से जीवनी शक्ति का नाश होता को न रोकने से हानि होती है। मायुर्वेद की दृष्टि से भी है उर्ववायु रोकने से कुष्ठरोग उत्पन्न होता है भौर वीर्य शारीरिक वेग को रोकना लाभप्रद नहीं है । दणकालिक का वेग रोकने से पुरुषद की हानि होती है। सूत्र में कहा है- 'बच्चयुत्तम धारए' बेग का अर्थ है-स्फूर्ति या तीव्र गति से उपसर्ग Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगने से उसका अर्थ होता है मोक्ष के प्रति तीव्र प्रभिसामायिक या समता पांचों युगल जीवन की विषमतायें लाषा । मुमुक्ष साधु ही नहीं गृहस्थ भी हो सकते हैं, हैं। उनका त्याग ही सामायिक है। साधक में सबसे पहले यदि-मुमुक्षा के भाव प्रबल हों। गाधी जी एक दिन मुमुझा वृति होनी चाहिए उसके सुप्त होने पर सब सुप्त राजेन्द्र बाबू के घर पर गर। द्वारपाल ने उनकी वेष- हो जाते हैं । मुमुक्षा वृत्ति का परिणाम है-धर्म के प्रति भषा देखकर जाने नहीं दिया । दुतकार कर वापस कर श्रद्धा या इच्छा उत्पन्न होना। बिना प्रयोजन इच्छा दिया। गजेन्द्र बाबू ने इस अपमान की स्थिति को देख जागृत नहीं होती। बन्धन से मुक्त होने की इच्छा का लिया। वे दौड़कर नीचे पाये और गांधी जी से माफी पहला साधन धर्म है । इसीलिए धर्म के प्रति श्रद्धा होती मांगने लगे। उत्तर में गाधी जी ने कहा-मान अरमान है फिर उसका प्रावरण। एक व्यक्ति क्रोध मे जल उठता मात्मा का बन्धन है, मैं तो इससे मुक्त होना चाहता। है । दूसरा क्षमा करता है। क्षमा करने वाला प्रानन्द की अनुभूति करता है । तब वह निश्चय करता है कि क्षमा " ये विचार वही उठते हैं जहां ममता का भाव माता का मार्ग सुन्दर है। है मन के अनुकूल कार्य में गर्व की अनुभूति होती है और संवेग से अनुत्तर धर्म के प्रति श्रद्धा होती है और प्रतिकल स्थिति में हीन भावना सताती है। यह वृति उससे अधिक सवेग बढ़ता है। धर्म के प्रतिश्रद्धा है या मनुष्य को बार-बार दुःखी बनाती है । निन्दा और प्रशसा नही इसका सही उत्तर प्रात्म-निरीक्षण से मिलता है। में सम रहना अति कठिन है। किन्तु मुमुक्ष को उनमें जिसके मन में श्रद्धा होती है। वह क्षुद्र व्यवहार नही सम रहना चाहिए। करता । जहाँ उसके प्रति श्रद्धा का प्रभाव होता है वहाँ लाभा लाभे, सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा। सब कुछ होता है जो नहीं होना चाहिए। समो निन्दापंससासु. तहा माणावमाणयो। धर्म की वैज्ञानिकता लाभ और अलाभ, सुख और दुख जीवन और मरण धर्म वैज्ञानिक तत्व है । वैज्ञानिक तत्त्व यह होता है प्रशंसा मोर निन्दा, मान तथा अपमान, य पाच युगल जो देशकाल से अबाधित हो जिसका निष्कर्ष सब देश पक्ति में मानवीय दुर्बलता होती है। इसीलिए कार में ममान हो। प्रमरीका में प्रयोग करने से सफलता वह पांच मुगलों में से लाभ, सुख, जीवन, प्रशंसा और . र मिलती है तो भारत में भी उसका प्रयोग सफल होगा। मान को चाहता है, अलाभ, दुख मरण, निन्दा और अप निन्दा प्रार अप- एक वर्ष पहले प्रयोग में सफलता मिल जाती मान को नहीं चाहता । वास्तव में जिन पाँचों को व्यक्ति भी उसमें सफलता मिलेगी सर्वत्र और सर्वदा चाहता है वे भी बन्धन हैं और उनसे अधिक गहरे है. जो प्रयोग में एक रूप रहता है वह वैज्ञानिकतस्व होता जिनको वह नहीं चाहता। क्योंकि द्वेष और निन्दा की है। धर्म इस कसौटी में परम वैज्ञानिकतक्व है। धर्म बात समझ में प्रा जाती है, पर राग पोर प्रशसा की बात पाराधना, लंदन में भारत में या प्रमरीका में कहीं पर समझ में नहीं पाती। जब यह समझ में प्राजायेगा कि भी करो सबको प्रानन्द मिलेगा। आज कल और परसों ये भी बन्धन हैं तभी साधना सफल होगी। साधु बनने मात्र से जीवन ऊपर उठ जाएगा, यह मानना भूल कभी उसकी पाराधना करो, उसके परिणाम में कोई है। जीवन उन्नत तभी होगा जब इनकी साधना मन्तर नही पाएगा। धर्म की पाराधना करने वाले सब फल वती होगी । गृहस्थ की सामायिक मुहर्त भर तक मुक्त हो गए, वर्तमान में हो रहे हैं और भविष्य में होना होती है, साधु उसे जीवन भर के लिए स्वीकार करता इसलिए, धर्म प्रायोगिक है, कालिक है और देश का से प्रबाधित है। इसीलिए वह परम वैज्ञानिक तस्व है। सामायिक का अर्थ है-विषमता का सर्वथा परि. पाश्चात्य देशों में नए दाशिनिक यह मानने लगे कि हार लाभ और मलाभ दोनों में जीवन की विषमता है। प्रध्यात्म के बिना शान्ति नहीं मिलती। जैन मागमों में लाम पहा है तो मलाम गड्ढा। दोनों का समतल है यह उल्लेख है कि शैक्ष साधु साधुत्व में रमण करता Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनेकान्त १५२ हमा क्रमश: सुखों में आगे बढ़ता है । एक वर्ष की साधना सुख बढ़ता जाता है। हमें यथार्थ दृष्टि से देखना चाहिए। में वह भौतिक जगत के उत्कृष्ट पौद गलिक (सर्वार्थसिद्ध) उसके बिना हम सत्य तक नहीं पहुच सकते । यथार्थ दृष्टि सुखो को लाघ जाता है। पांच दश और पन्द्रह वर्षों तक से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि भौतिक सुख भी साधावपालने पर भी यदि मानन्द नहीं पाता, तब प्रश्न क्षणिक सुख है पर दुख इसलिए माना कि उसका परिउठता है कि-यह सिद्धान्त सही नहीं है या वह णाम सुखद है। उसकी प्राप्ति के लिए ही क्षणिक सुख हमारी पकड़ मे नही माया। पहली बात पकड़ की है। का त्याग किया जाता है। सुख केवल शारीरिक ही नही, वह सही है या नहीं? इसका निर्णय पकड़ के बाद ही मानसिक भी होता है । सब से बड़ा सुख मन की शान्ति हो सकता है । उसे पकने में ध्यान केन्द्रित करना जरूरी है । मनुष्य वाद-विवाद में थकने पर शान्ति की शरण में है। देवतामों का स्तर जैसे जैसे ऊपर उठता है वैसे-वैस उनका परि ग्रह, ममत्व और शरीर की प्रवगाहना कम जाता है। सबसे बड़ा दुख पशान्ति है। उसका मुल होती जाती है, शान्ति बढ़ती जाती है । निवृत्ति के साथ मावेग है। उस पर विजय पाना ही संवेग का मार्ग है। दिल्लीपट्ट के मूलसंघी भट्टारकों का समयक्रम शंषांग डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ पूर्व विवेचन से यह स्पष्ट है कि दिल्ली पट्टाधीश एक शाखा पट्ट बन चुके थे वे भी इस प्रधान पट्र केही भ० शुभचन्द्र की सुनिश्चित रूप से जात प्रथम तिथि प्राधीन थे और उनके भट्टारक अपने समकालीन दिल्ली वि० स० १४७६ है और पूर्ण स भावना इस बात की है पट्टाधीश को ही अपना अध्यक्ष एवं गुरु मानते थे, किन्तु कि वह वि० सं० १४७१ मे या उसके कुछ पूर्व भट्टारक भ. पद्मनन्दि के समय में ही या उनके उपरान्त उनके पद प्राप्त कर चुके थे। यह निश्चित रूप से नहीं कहा विभिन्न शिप्यो ने जो कई पट्ट स्थापित किये वे मागे से जा सकता कि उनके पूर्व पट्टधर का देहावसान एव रवयं परस्पर स्वतन्त्र चले, अपनी-अपनी पट्टावलियां भी वे सब उनका पट्टारोहण उस समय तक हो चुका था या नहीं। इन भ० पद्मनन्दि से ही प्रारभ करते हैं। ऐसा प्रतीत यदि उस समय तक नही हुआ था तो १७४१ और होता है कि मूल-नन्दि सघ-बलात्कारगण-सरस्वती गच्छ १४७६ के मध्य किसी समय हुमा। की जो पट्टावलियां प्रचलित है और जो भद्रबाह द्वितीय उनके पूर्व पट्टधर एवं गुरु भ० पद्मनन्दि का यह काल से प्रारभ होकर इन पपनन्दि पर समाप्त होती है, उनके पट्टावलि के अनुसार वि० सं० १३८५-१४५० लगभग ५६ मलरूप का निर्माण इन्ही के समय में माथा । शाखापट्टों वर्ष है। यह म० प्रभाचन्द के प्रधान शिव्य एव पट्टधर ने उस मल पटावली प्राय: समान रूप से अपनाकर उसके ये पद्मनन्दि के समय तक इस उत्तर भारतीय मूलसघ का मागे अपनी-अपनी परम्परा की पट्टायलियां उस में जोड़ पट्ट अविभाजित था। अजमेर, ग्वालियर प्रादि के जो दो दी। जिस एक पट्रावली मे प्रारम्भ से लेकर २० वीं शती १. देखिए भने कान्त, वर्ष १७ कि०२ (जन १९६४. वि. के पूर्वाधं तक के प्रत्येक प्राचार्य का पृथक २ पृ. ५४, ५६, ७४ पट्टारोहण काल प्राप्त होता है वह चित्तौड़-मामेर पटका २. वही, पृ०५४ . है। उसमें यह पट्टकाल १६ वीं या १७ वीं शती ई० से Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० बिल्लीपट्ट के मूलसंधी भट्टारकों का समयक्रम जोड़े जाने प्रारंभ हुए लगते हैं और प्रायः उसी समय प्राप्त मूत्तिलेखों की लिपियां भी सं० १४६०, १४९२, संभवतया पूर्वाचार्यों के पट्टकाल भी अनुश्रुति या अनुमान १४६७ है। टोडानगर (संभवतया टोडारायसिंह) में के आधार पर उसमें दर्ज कर दिये गये प्रतीत होते हैं। भूगर्भ से निकली २६ जिन प्रतिमाओं पर अंकित लेखों प्रतएव उनकी जीव अपेक्षित है। से विदित होता है कि उनकी प्रतिष्ठा सं०१४७० मे नन्दिसंघ के इन भट्टारकों में दिल्लीपट्टाधीश पद्मनन्दि के शिष्य विशाल कीति ने किन्ही गंगवाल गोत्रीय पचनन्दि का अत्यन्त प्रतिष्ठित स्थान है । वह एक महान खडेलवाल श्रावक के लिये की थी। इसी वर्ष (सन् प्रभावक प्राचार्य, उभयभाषाप्रवीण विद्वान एवं साहित्य- १४१३ ई.) की इन्हीं विशालकीति द्वारा विल्हण कार और राजमान्य गुरु थे। एक पट्टावली में उन्हे और उसके पुत्रो के लिये प्रतिष्ठापित मत्तियाँ टोंक में 'शास्त्रार्थवित एवं तपस्वी' विशेषण दिया है३, दूसरी में प्राप्तहुई बताई जाती हैं। १४१५ (वि० सं १४७२) में इन इन्हें 'अध्यात्मशास्त्री एवं यथास्यात चारित्र का प्रचारक' पद्मनन्दि के शिष्य नेमिचन्द ने प्रापा नामक किसी व्यक्ति बताया है। और एक अन्य में विशमिद्धांतरहस्यरत्न के लिये प्रतिष्ठा की थी और स्वयं उन्होंने (?) प्रसपाल रसाकर' तथा 'शाश्वत प्रतिष्ठा-प्रतिमागरिष्ठ'५ । एक नामक किसी व्यक्ति द्वारा उमी वर्ष पार्श्व प्रतिमा प्रति. पट्रायल के प्रान में लिखा है कि 'बलात्कार गण के ष्ठित कराई थी१०। सं० १४७२ को ही फागुन ब०१ अग्रणी इन गृह पतन्दि ने उर्जयत (गिरनार) गिरि को जिन भ. पद्मनन्दि ने बड़ जातीय उत्तरेश्वर पर सरस्वती की पाषाण प्रतिमा को बुलवा दिया था'३। गोत्रीय श्रावकों के लिये प्रादिनाथ पंचतीर्थी की प्रतिष्ठा इनके शिष्यों प्रशिष्पों आदि ने भी अपने अभिलेखों एव की थी११ । वह भी यही पद्मनन्दि प्रतीत होते हैं। उसी ग्रन्थ प्रशस्तियों में इनका प्रभून यशोगान किया है। वर्ष na laun वर्ष एवं तिथि के एक अन्य लेख के अनुसार उसी जाति लेख इनकी कृतियों के रूप मे श्रावकाचार सारोबार, अनेक एवं गोत्र के अन्य श्रावकों ने इन्हीं के उपदेश से मुनिसुव्रत स्त्रोत्र, कई पूजाए वर्धमान चरित्र आदि प्रसिद्ध है इनका जिनकी प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी१२। इस लेख के शिष्य परिवार भी पर्याप्त विशाल था, जिनमें इनके प्रधान श्री पद्यनन्दा पटेशा श्री नेमिचन्ट सिर पेट्रधर शुभचन्द्र मागवाडा, (बागड) एवं ईडर पट्टों के कि वह प्रतिष्ठा इन्होंने अपने शिष्य नेमिचन्द्र द्वारा संस्थापक सकलकीति, सूरत पट्ट के संस्थापक देवेन्द्र काति, कराई थी। इसी वर्ष एवं तिथि को हैबड़ श्रावकों के मलखेड पट्ट के रत्नकोति, ग्वालियर पट्ट के त्रिलोककोति लिये ही पद्यचन्द्र (पअनन्दि) शिष्य नेमिचन्द्र द्वारा या (देवेन्द्र कीति), तथा मदनकोति, विशालकीति, चित्तौड नगर में प्रतिष्ठा करने का एक अन्य लेख नेमिचन्द्र प्रायिका रत्नश्री कवि जयमित्र हल्ल आदि मिलता है१३ । सं० १४८० का एक लेख उनके किसी प्रसिद्ध हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है भ० शुभचन्द्र के पट्टधर का है (नाम खडित है)१४ । यह नेमिचन्द्र वही प्रतीत होते हैं जिनका उल्लेख पद्मनन्दि के प्र पट्ट पर उल्लेख वि० स०१४७१ के पश्चात् प्राप्त होते हैं । भ० देवेन्द्र कीत्ति का पट्टारंभ पट्टावलियों में वि० स० १४४४ जिनचन्द्र दीक्षा गुरु के रूप में पाया जाता है। पौर सकलकीत्ति का १४५१ पाया जाता है, किन्तु विशेष इस सबसे यही फलितार्थ निकलता है कि भट्टारक ऊहापोह से ऐसा लगता है कि सकलकत्ति गुरु पद्मनन्टि पद्मनन्दि की उत्तरावधि वि० सं०१४७२ (सन १४१५ के पास नैण वा में वि० स० १४६६ में गये तथा उन्हें शोषांक १६, पृ० २०८-२०६ भाचार्य पट्ट की प्राप्ति १४७१ या १४७७ में हुई। उनके ८ जं० प्र० प्रशास्ति संग्रह, भा० १, प्रस्तावना पृ० २१ '३.० सि. भास्कर भा० कि० ४, पृ०८१-८४६.कैलाशचन्द जैन-जैनिज्म इन राजस्थान, पृ०७४ ४. वही, शुभचन्द्र गुर्वावलि वीरवाणी ७ के प्राधार से ५. वही, भाग ६, कि० २, पृ० १०८.११६ १०. पट्टी, पृ०७५-प्रनेकांत, १३,१२६ के मापार से ६. वही, भा० २२, कि० १, पृ०५१-५१ ११. बीकानेर जं. ले. संग्रह, नं०१६४७॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ई) के घासपास है। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि वि० सं १४७० और १४७६ के मध्य किसी समय उनका स्वर्गवास हुप्रा । वि० सं १४६१ की पद्मनन्दि के गुरु भाई प्रभयकीति की दिल्ली नगर मे ही लिखाई गई एक प्रशस्ति में गुरु प्रभाचन्द्र का तो उल्लेख है किन्तु पद्मनन्दि का कोई उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार वि० सं० १४५४ में प्रभाचन्द्र के गृहस्थ शिष्य धनपाल कवि द्वारा रचित बाहुबलिचरित में भी भ० पद्मनन्दि का कोई उल्लेख नहीं है १५ । इस ग्रन्थ की रचना कवि ने चंदवाड़ के चौहान नरेश अभयचन्द्र के मन्त्री साधिप वासापर की प्रेरणा से की थी । प्रशस्ति में वासाघर के धाठ पुत्रों का उल्लेख है१६ इन्हीं वासावर के हितार्थ प्रस्तुत भ० पद्मनन्दि ने अपना श्रावकाचारसारोद्वार (पद्मनन्दि भाजकाचार लिखा था ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया दिया है और उसकी प्रशस्ति में वासावर के पुत्रों का भी कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु उनके पितामह, पिता और सात भाइयो का वर्णन है और उनके पिता सोमदेव के अवकाश ग्रहण करने की बात भी ऐसे लिखी है जैसे कि वह थोड़े समय पूर्व की ही घटना हो१७ । इससे प्रतीत होता है कि पद्मनन्दि के उक्त ग्रन्थ की रचना वि० स० १४५४ से पर्याप्त पूर्व संभव है पंद्रह-बीस वर्ष पूर्व हो चुकी वि० सं० १४५० में इन्हीं प्रभाचन्द शिष्य भ० पद्मननद ने चौहान राजा भंडुदेव ( जो शायद भदावर प्रान्तके कोई नरेश थे) के पुत्र श्री सुवर के राज्य में बोलाराखान्वयी बावक के लिये धातुमयी भादिनाय समवसरण की प्रतिष्ठा की मीरा उपरोक्त के अतिरिक्त इनकी कोई निश्चित तिथि अभी तक ज्ञात नहीं हुई है । हाँ, बीकानेर प्रदेश में दो प्रतिमाले ऐसे शप्त हुए है जिनमें 'श्री मूलचे भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेव गुरु १५. जं० प्र० प्रशास्ति संग्रह, भाग २, पृ० ३२-३७ १६. वही । राजा प्रभयचन्द्र की अंतिम ज्ञाततिथि भी वि०सं०] ८४५४ ही है। १७. जे० प्र० प्रशस्ति संग्रह मा० पृ० २०-२३ १५. कामताप्रसाद जैन-चै० प्रतिमा लेख संग्रह ܪ देशेन' रूप में एक पद्मनन्दि का उल्लेख प्राप्त होता है। इन लेखों में से एक संवत् १३७३ का है पोर दूसरा संवत् १३८७ का है १६] भव प्रश्न यह है कि क्या यह 'मूलसंघी भट्टारक पद्मनन्दि' हमारे दिल्ली पट्टाधीश म पद्मनन्दि से भिन्न है जिनका कि अस्तित्व वि० सं० १४७०-७१ तक तो पाया जाता है ? यदि ऐसा माना जायेगा तो उनका भट्टारक जीवन या पट्टकाल लगभग एक सौ वर्ष बैठता है जब कि पट्टायलियों के धनुसार भी यह केवल ६५ वर्ष ही है। इसके अतिरिक्त जैसा कि देखेंगे उनके गुरु प्रभाचन्द्र का अस्तित्व वि० ० १४१६ तक संभव है। ऐसी स्थिति में पद्मदि का प्राचार्य काल (भट्टारक जीवन या पट्टकाल) उसके आसपास या कुछ बाद ही प्रारम्भ होना चाहिए। पट्टाबलि प्रतिपादित ६५ वर्ष का समय उनके सम्पूर्ण मुनि जीवन का सूचक हो और यह संस्था ठीक हो तो भी वि० सं० १४१६ से पांच-सात वर्ष पूर्व दीक्षित होने पर वह ठीक बैठ जाता है उसके पूर्व उनका भट्टारक के रूप में अस्तित्व वहां होना असम्भव सा लगता है। मुनिदिवस ऐतिहासिक प्रमाणों के बाधार से जिस प्रकार उनकी उत्तरावधि वि० स० १४५० से बीस या पच्चीस वर्ष प्रागे खिसकानी पडी है उसी प्रकार उनकी पूर्वावधि १३८५ में भी उतनी ही, बल्कि उससे कुछ अधिक वर्षो की वृद्धि करनी पटगी२० मतएव बोकानेर के उक्त दोनो लेखों की तिथियों के पढ़ने लिखने या छपने में यदि कोई भूल नहीं हुई है तो १९. बीकानेर जैन लं० सग्रह, न० २५६ और ३१८ २०. जंसा कथन किया जा चुका है पट्टावलियों में म० पद्मनदि का पट्टकाल वि० सं० १३०५-१४५० दिया है। किंतु पं० परमानन्द जी ने (जं० प्र० प्र० सहभाग १, पृ० १६, २१ पर ) न जाने किस प्राधार पर सं० १३७५ सूचित किया है। इसी प्रकार का कैने जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० ७४ ] पर) भो न जाने किस माधार पर १३२५ ई० (वि० सं० १३८२) कथन किया है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके परमनन्दि कोई दूसरे ही पद्ममन्दि है- उसके कहने पर लाल वस्त्र धारण करके रक्ताम्बर हो प्रभाचन्द्र के पट्टधर दिल्ली पट्टाधीश पद्मनन्दि नहीं है। गये । बखतराम के बुद्धि विलास के अनुसार यह सं० यदि वे वर्ष (१२७३ और १३८७) शक संवत् के वर्ष १३७५ में दिल्ली पाये थे और तभी बादशाह फीरोज हों तो भी उनका अभिप्राय इन पचनन्दि से नहीं हो सकता शाह के दरबार में इन्होंने राघो और चेतन नामक दोनों लेखों को देखने से इसमें भी सन्देह नहीं लगता कि विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था और अपने मन्त्र बल से प्रमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखला दिया उनमें उल्लिखित पदमनन्दि परस्पर में अभिन्न हैं । एक पद्मनंदि (या पंक जनन्दि) भट्टारक ने वि० स० १३६२ था। कुछ अनुश्रुतियों में यह घटनाएं अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में हुई बताई जाती है। श्वेताम्बरामे 'भाराधना संग्रह' नामक ग्रन्थ की रचना की थी२१ । चार्य जिन प्रभसूरि (विविध तीर्थकल्प कर्ता) के सम्भव है कि उन लेखों के पद्मनन्दि यह ही हों। संबंध में भी ऐसी ही दन्त कथाए प्रचलित हैं-किन्तु दिल्ली पट्टाधीश पद्मनन्दि के गुरु एवं पूर्व पट्टधर उनका सम्बंध मुहम्मद तुगलक के दरबार से रहा बताया भ० प्रभाचन्द्र मोर भी महान एवं प्रभावक दिगम्बरा जाता है। यह भी कहा जाता है कि प्रभाचन्द्र प्रजमेर चार्य थे। पट्टावली के अनुसार उनका पट्टकाल वि० स० से समवतया सुलतान के निमन्त्रण पर दिल्ली प्राये थे १३१०-१३८५, लगभग ७५ वर्ष है । किन्तु उनको सर्व और फिर अन्त तक यही रहे। दिल्ली में इस पट्ट के प्रथम सुनिश्चित एवं ज्ञात तिथि वि० सं० १४०८ है- वरीय उस वर्ष की उनके द्वारा प्रतिष्ठित दाजिन प्रातमाए कवि धनपाल ने अपने पक्ति बाहबलिचरित (वि.सं. फफोसा तीथ पर विद्यमान बताई जाता ह२२। वि० १४५४) में लिखा है कि 'गुज्जर देश के पहलणपुर नगर सं० १४१२ में जिन प्रतिष्ठाचार्य प्रभाचन्द्र ने कुछ में राजावीसलदेव के शासनकाल में पुरवाडवंशी जिनभक्त लंबकञ्चक भावकों के लिए पातुमयी महत् प्रतिमा राज्यधेष्ठि भोवई थे, उन के पुत्र सुहर थे और मुहड के की प्रतिष्ठा की थी २३ । वह यही प्रतीत होते हैं। पुत्र यह धनपाल थे। एक बार महागणि श्री प्रभाचन्द्र वि० सं० १४११ पौर. १४१३ के प्रतिमा लेख इन्ही भ्रमण करते हुए अनेक शिष्यों सहित उस नगर मे के है२४ - वि० सं० १४१६ में इनके शिष्य ब्रह्मनाथूराम पधारे । किशोर धनपाल दर्शनार्थ गये और हाथ जोड़ ने दिल्ली में ही स्वपठनार्थ भाराधना पंजिका की कर गुरु को नमस्कार किया। उसे देखकर गुरु ने कहा प्रतिलिपि की थी२५ । उसकी प्रशस्ति मे उन्होने स्वगुरु कि यह लड़का मेरे प्रमाद से विचक्षण पुरुष बनेगा । प्रभाचन्द्र का जिस प्रकार उल्लेख किया है उससे वह पस्तु धनपाल गुरु की सेवा में रहकर विद्याभ्यास करने उस समय विद्यमान रहे प्रतीत होते हैं। उसके उपरान्त लगा और उन्ही के साथ पट्टण, ख भात, धारानगरी, भी वह विधमान रहे या नहीं और रहे तो कितने समय देवगिरि मादि होता हुमा अन्त में योगिनीपुर (दिल्ली) तक यह नहीं कहा जा सकता। पहुँचा। वहां भव्यजनों ने एक सुमहोत्सव किया और पं. पन्नालाल दूनी वालों के विद्वज्जनबोधक के प्रभाचन्द्र को रत्नकीति के पट्ट पर अभिषिक्त किया। अनुसार वि. सं. १६०५ में यह प्रमाचन्द्र दिल्ली के इन भ. प्रभाचन्द्र ने महमूद साहि के मन को मनुरजित बादशाह के निमन्त्रण पर उसके दरबार में गये पर किया था भोर अपनी विद्या द्वारा वादियों के मान का - भंजन किया था। कुछ समय पश्चात् गुरु की माज्ञा २१. हि०० अन्य कर्ता मोर उनके प्रस्थ .. लेकर धनपाल गोरिपुर की यात्रा के लिए गये। मार्ग २२. जैन यात्रा दर्पण, पृ०१६। में चंदवार नाम का सुन्दर नगर देखा और वहाँ उनकी २३कामताप्रसाद जैन- जन प्रतिमालेख संग्रह जिनभक्त वासाघर से भेंट हुई।' उसके उपरान्त , वह २४. जैन सि• भास्कर, भा० २२, कि० २, पृ० ४.५ फिर दिल्ली मा गये प्रतीत होते हैं । और कालान्तर में २५. ना० रा०प्रेमी-90 सा००, पृ०५१ फु० नोट वासाघर के निमन्त्रण पर चन्द्रवार में ही जाकर रहने Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्लीपट्ट के मूल संघीय भट्टारकों का समयकर्म लगे । वहां उन्ही को प्रेरणा से उन्होने अपना बाहुबलि तुगलक (वि० सं० १३८२-१४०) ही प्रतीत होता है। चरित (अपभ्रंश) लिखा जो वि० स०१४५४ में समाप्त ऐसा लगता है कि वे उसके राज्यकाल के प्रारम्भ में ही उसके निमन्त्रण पर यह दिल्ली पधारे थे पोर यहीं हुमा। उपरोक्त वर्णनों मे उल्लिखित दिल्ली के सुलतानों पट्टस्थापन करके रह गये। सुलतान की इच्छानुसार इन्होंने रक्ताम्बर भा धारण कर लिया प्रतीत होता है। के तीन नाम प्राप्त होते हैं। फ़ीरोज, पलाउद्दीन मोर प्रस्तु हो सकता है कि १३७५ के लगभग यह पजमेर मे महमूद शाह । खिलजी वंश के प्रथम सुलतान जला-लु स्वगुरु रत्नकीति के स्वर्गवास के उपरान्त प; पर बैठे द्दीन फ़ीरोज ने वि० सं० १३४७ से १३५३ तक राज्य हों, १३८२-८३ मे दिल्ली पधारे हों, १३८५ - दिल्ली किया। उसके उत्तराधिकारी अलाउद्दीन खिलजी ने वि० पट्ट की स्थापना की हो। वि.सं. १३८७ के पश्चात् सं० १३५३ से १३७३ तक। उसके बाद गयासुद्दीन ही सुलतान की प्रवृत्ति बदलने लगी थी, उसकी नशंसता तुग़लक ने १३७७ से १३८२ तक मुहम्मद बिन तुगलक एव प्रसहिष्णुता भी बढ़ने लगी थी अत: ऐसी स्थिति में ( मुहम्मद शाह) ने १३८२ से १४०८ तक और फीरोज यह देशाटन को निकल गये हों वि० सं० १४०४ के लग. शाह तुगलक ने १४०८ से १४४५ तक। भग धनपाल से भेंट हुई और एक दो वर्ष बाद उसी सुल्तान प्रभाचन्द्र को उत्तरावधि को तया धनपाल के कथन के अन्तिम वर्षों में फिर दिल्ली मा गये हों। भव्य जनों ने को ध्यान में रखते हुए प्रभाचन्द्र का दिल्ली प्रागमन उनके इस पुनरागमन पर महोत्सव किया हो । वि. सं. स०१३०५ मे तो हो ही नहीं सकता। यह शक वष हा १४२० के लगभग धनपाल शोरिपुर प्रादि की यात्रा के प्रति वि० सं० १४४०) हो तो वह भी असम्भव है। लिए गया हो और फिर स०१४२५ के लगभग गुरु का जलालटीन फीरोज के समय में प्राने की भी संभावना स्वर्गवास हो जाने पर चन्द्र वाड मे ही जाकर रहने लगा कम है। जायसी की पद्मावत के अनुसार राघो चेतन हो। अलाउद्दीन खिलजी का दरबारी था-किन्तु उसके समय भ० प्रभाचन्द्र के गुरु एवं पूर्व पट्टघर रत्नकीति का को भी यह घटना प्रतात नहा हाता। स० १३७५ का पट्टकाल पट्टावली मे वि० सं० १२६६-१३१० दिया है, तिथि भी मात्र अनुमान पर प्राधारित प्रतीत होता है। जो अवश्य ही गलत है किन्तु अवधि १४ या १५ वर्ष जिनप्रभसरि मुहम्मद तुगलक के समय में दिल्ली पधारे ठीक हो सकती है। वह मजमेर मे ही पद पर बैठे थे, उनसे सबाधत अनुश्रुतिभा सुलतान क दबार म पोर वही शान्त हुए थे, प्रतः उनका समय वि० सं० उनके द्वारा राघो चेतन की पराजय भोर प्रमावस्या को १३६०-७५ के लगभग रहा प्रतीत होता है। | दिखाने मादि का वर्णन करता है। अपन उनके पूर्व पद्रधर भ० धर्मचन्द्र थे जिनका काल प्रारंभिक शासन काल में यह सुलतान पर धर्म सहिष्णु वि० सं०१२७१-९६ लगभग २५ वर्ष बताया है। इसमे था, हिन्दू जैन प्रादि मुसलमानेतर सन्तों का सन्मान भी तिथियां गलत है, वर्ष संख्या ठीक हो सकती है। माया और उनके वाद विवादों में रस लेता था। उनका एक बहधा प्रयुक्त विशेषण-'हम्मार भूपाल उसने दिल्ली के सराबगियों के हितार्थ एक फर्मान भी सचित :' य एक फमान भा समचित पादपद्म' प्राप्त होता है, जिससे स्पष्ट है कि जारी किया था२६ । उसका उत्तराधिकारी फ़ीरोज पह हम्मीर नाम के किसी नरेश से सम्मानित हुए थे। तुग़लक पर धर्म असहिष्णु कट्टर मुसलमान था। प्रतएव रणथभौर के सुप्रसिद्ध चौहान नरेश राणा हम्मीरदेव का धनपाल द्वारा उल्लिखित महमूदसाहि जिसने भ० समय वि० सं० १३४०-५८ है। और हमारी गणना के प्रभाचन्द्र का सम्मान किया था, उनसे प्रसन्न था पौर अनुसार भ० धर्मचन्द्र का पट्ट काल वि. स. १६५जिसके दर्बार मे उन्होंने वादियों का मान भजन १३६० पाता है । प्रतएव यह दोनो व्यक्ति समकालीन किया था, उनसे प्रसन्न था यह मुहम्मद बिन थे और इस बात की पूरी सम्भावना है कि इन्ही हम्मीर २६. शोधांक-१९, पृ. ३२४-३२५ भूपाल द्वारा म. धर्मचन्द सम्मानित हुए थे। रणथंभौर Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शनको तीन धाराएँ भगवानदास विज़, एम० ए० (संस्कृत) जब से पाश्चात्य विद्वानों ने भारत के प्राचीन किया जायेगा। ग्रन्थों का अध्ययन प्रारम्भ किया है तब से भारतीय दर्शन की तोन महत्वपूर्ण धाराएं हैं। भारतीय दर्शन के प्रति कुछ गलत धारणाए प्रथम ब्राह्मण परभरा का मूल प्राधार है उपनिजम गई हैं। उदाहरण के रूप में कुछ पाश्चात्य षदों का प्रात्मवाद, दूसरी बौद्ध परम्परा का अनात्मविचारकों का मत है कि समस्त भारतीय दार्शनिक वाद और तीसरी जैन परम्परा का स्याद्वाद । 'सत्य' परम्परागों का उद्गम उपनिषदों से हुआ है। उनका कहना है कि भारत में प्रचलित समस्त धार्मिक पर पहू पर पहें चने के लिए तीनों परम्परामों के सर्वथा परमराएँ हिन्दु धर्म' को ही विभिन्न शाखाएं हैं। भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। अनिषद् तथा ब्राह्मण परकुछ एक तो यहां तक पहुँच गये है कि भगवान् मारा का अनुमरण करने वाले अन्य सम्प्रदाय महावीर तथा बुद्ध ने उपनिषद काल के ऋषियों के 'सत्य' को प्रान्तरिक शक्ति अर्थात् प्रात्मा पर ग्राधाकार्य को ही मागे बढ़ाया। इसमें उनको वैयक्तिक रित मानते हैं। ये प्रात्मा को निविकार, निविकल्प कोई देन नहीं है । अतः बौद्ध और जैन दोनों पर. तथा अस्थिर पदाथों से सर्वथा भिन्न मानते हैं । म्पराएं अपना भिन्न अस्तित्व न रखकर उपनिषद् इन परम्परामों का अभिमत है कि 'आत्मा' का बाह्य परमरा के ही अतिक्रमण रूप हैं। किन्तु ये विचार पदार्थों से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसे 'प्रात्मवाद' का कहाँ तक तर्क-संगत हैं, यह ब्राह्मण (हिन्दू), बौद्ध, सिद्धान्त कहते हैं। अपने मौलिक सिद्धान्त के रूप में तथा जैन तीनों परमरानों के मूलभूत सिद्धान्तों के अवैत वेदान्त बाह्य दिखाई देने वाली अस्थिर विवेचन से पता चलता है। प्रस्तुत लेख में तीनों वस्तुओं को सत्य नहीं मानता, बल्कि उन्हें माया के परम्परागों के मूलभूत सिद्धान्तों का ही स्पष्टीकरण प्रावरण के कारण मिथ्या दृष्टि का परिणाम का यह चौहान वंश प्रजमेर के हो चौहान वंश को शाखा या मोर राणा हम्मीर देव सुप्रसिद्ध पृथ्वीराज चौहान के ही वंशज थे। इस प्रकार इन मूलसंधी भट्टारकों के पट्टकाल निम्न प्रकार स्थिर होते हैंधर्मचन्द्र वि० सं० १३३५.१३६० (१२७८- १३०३) ई० लगभग रस्नकोत्ति , १३६०-७५ (१३०३. १३१८ ई.) लगभग प्रभाचन्द्र , १३७५-१४२५ (१३१८- १३६८) ई० लगभग पद्मनन्दि वि० सं० १४२५-१४७५ (१३६८ १४१८ ई०) लगभग शुभचन्द्र ॥ १४७५-१५०७ (१४१८ १४५० ई०) लगभग जिनचन्द्र , १५०७,१५७१ (१४५०. १५१४ ई.) लगभग इससे स्पष्ट है कि जिनचन्द्र से पूर्व की सब तिथियां पट्टावली में १६ वीं वा १७ वीं शती में केवल अनुमान से दर्ज करवा दी गई हैं, वे सही नहीं हैं। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन की तीन धाराएं १६५ मानता है । 'प्रात्मा' और परमात्मा में कोई भेद सर्वथा भिन्न मानता है :नहीं है, ऐसा शंकराचार्य ने स्वीकार किया है। एतच्च सुगतसेष्टम भावी नरात्म्यकीर्तनात् । सर्वतीर्थकृतां तस्मात् स्थितो मूनि तपागतः ॥ संक्षेप में अद्वैत वेदान्त आत्मा को परिवर्तन रहित टी० एस० ३३४० एवं स्वप्रकाश चैतन्य स्वरूप मानता है। इस परम्परा के अनुसार वस्तु मों में कोई निवि. सांख्य दर्शन यद्यपि इतनी दूर तो नहीं जाता, कार तथा निर्विकल्प नाम का प्रान्तरिक तत्व परन्तु फिर भी मात्मा की स्थिरता एव शाश्वतता को नही है । परन्तु प्रत्येक वस्तु प्रवाह समान है । बौद्धों स्वीकार करता है। सांख्य मे प्रात्मा के स्थान पर के लिए अस्तित्व क्षणिक स्वलक्षण तथा धर्मपात्र है। पुरुष शब्द का प्रयोग किया गया है। न्याय तथा यह नश्वर तथा अमूर्त रूप है। अत: यहाँ प्रात्मा वैशेषिक प्रात्मा के सत्य स्वरूप का प्रतिपादन करते की शाश्वतता को भ्रान्तिजनक माना गया है जो कि हैं। उनके अनुसार प्रात्मा अद्वितोय है । वे प्रात्मा अविद्या के कारण मिथ्या विचारो की उत्पत्ति है। तथा उसके गुणों को समान रूप देते है। ये परम्प- इसे केवल रूप विषयक सत्यता कहा जा सकता है। राएं प्रात्मा के अस्तित्व को केवल स्वीकार ही इस प्रकार से बौद्ध अपने ज्ञानशास्त्र तथा प्राचार नही करतों, बल्कि इच्छा, अनिच्छा सुख-दु.ख आदि शास्त्र के साथ अध्यात्मविद्या का साम्य स्थापित को प्रात्मा के हो गुण मानती है। इनके अनुसार करते हैं। यही नही अनुमान, अनुभव तथा मानसिक प्रात्मा शाश्वत तथा विनाशहीन है। यह 'विभु' रचना का विकल्प भी प्रात्मा की अस्थिरता पर मानो गई है, क्योकि समय अथवा देश आदि का अाधारित है। यहाँ तक कि इस सिद्धान्त का कर्म इस पर प्रभाव नहीं पड़ता है। दोनों परभराग्रा के तया पुर्नजन्म के सिद्धान्त के साथ भो समन्वय प्रध्यात्म शास्त्र ज्ञानशास्त्र तथा प्राचारशास्त्र का एक स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है। अविद्या जो केन्द्र है-पात्मा । ज्ञानशास्त्र म अात्मा हा कि समस्त दुःखों का मूल कारण है. प्रात्मा में मिथ्या अनुभव का ऐक्य तथा पूर्णता स्थापित करती है। ।ह। विश्वास है। ज्ञान का अर्थ है- इस मिथ्या विश्वास ये परम्पराएं दमरो विचार-पद्धतियों की अपेक्षा, का हट जाना तथा इससे उत्पन्न बुराइयों का सर्वथा अनुमान, स्मृति तथा वैयक्तिक साम्य का अच्छी छा, उन्मूलन । तरह से विवेचन करती हैं । यहाँ बन्ध, प्रात्मा का प्रस्तुत विचार पद्धतियाँ ब्राह्मण तथा बौद्ध मिथ्याज्ञान माना गया है अथवा यू' कह सकते हैं दोनों, एक दूसरे का विरोध करती है । जहाँ ब्राह्मण कि अनात्मा का प्रात्मा के साथ साम्य हो गया है। परम्परा प्रात्मा की नित्यता को स्वीकार करती है, 'प्रात्मन्यनात्मा ध्यासे' इसके विपरीत मोक्ष प्रात्मा वहाँ बौद्ध परम्परा केवल प्रात्मा ही नहीं परन्तु तथा अनात्मा का स्पष्टीकरण है। अत: यह स्पष्ट दसरे तत्वों को भी शून्य मानती है। बौद्ध प्रात्मा है कि ये सब परम्पराए' प्रात्मा को मुख्यता देती की स्थिति को कुछ एक विचार शृखला को रूप में हैं। इन परम्पराओं का मूल प्राधार उपनिषद् षद् हो स्वीकार करते हैं। विचार पद्धति है जहाँ प्रात्मा को ही परमात्मा माना गया है। तोसरी महत्त्वपूर्ण दार्शनिक परम्परा है 'जन' दूसरी परम्परा बौद्धों की है जिसमें प्रात्मा जहां ब्राह्मण परम्परा तथा बौद्ध एक दूसरे का विरोध तथा इससे सम्बन्धित अन्य तत्त्वों के अस्तित्व को करती हैं, वहाँ जैन दोनों के विरोध का समन्वय स्वीकार नहीं किया जाता। प्राचार्य शान्तरक्षित के करती है अर्थात् यह प्रात्मा तथा इसके पर्यायों की अनुसार नैरात्म्यवाद भगवान् बुद्ध के विचारों को समान सत्यता प्रदान करती है। द्रव्य 'पाश्मा' के १-न्याय-भाष्य १.१.१० बिना पर्याय का अस्तित्व नही है, तथा पर्याय के Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना द्रव्य (मात्मा) का अस्तित्व नहीं है१ । सत्यता अज्ञानो तथा अनभिज्ञ ऐसा नहीं कर पाता। अत: अनेकान्तात्मक है, अतः स्वभाव भी विभिन्न प्रकार दिन प्रतिदिन के जीवन में जो हम किसी वस्तु का का है। एकात्मक होते हुए भी पार्थक्य लिए हुए ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह केवल विशेष समय तथा है, सार्वलौकिक होकर भी विशेष रूप से स्थायी परिस्थितियों पर आधारित होता है। अतः हमारा होकर भो परिवर्तनशील है। ज्ञान सोमित तथा हितों के विपरीत होता है। हमारे इस प्रकार से जैन दार्शनिकों ने अपने ज्ञान- दिन प्रतिदिन के झगड़ों का भो एकमात्र यही शास्त्र का निर्माण इस विचार पद्धति पर किया कारण है। यहाँ पर चार अन्धों का भी उदाहरण तया स्थावाद के तर्क का प्रतिदिन किया। यहाँ दिया जाता है जिन्होंने हाथो का स्वरूप विभिन्न स्थाद्वाद पर दो शब्द उपयुक्त होगे। प्रकार से दिया, क्योंकि उन्होंने हाथी को सम्पूर्ण स्याद्वाद अथवा 'प्रत्येक निर्णय सापेक्ष है' का रूप से न देखकर एक-एक अंग को छकर देखा। सिद्धान्त जैन परम्परा की आधारशिला है। इसने अतः यह जैन विचार पद्धति तीसरी धारा है ही जैन धर्म को 'सहिष्णु धर्म' के नाम से प्रसिद्ध जो दो प्रतियों अर्थात् 'पास्मा है' तथा 'आत्मा नहीं किया। जन विचारकों का कथन है कि विभिन्न है' के मध्य मार्ग को अपनाती है। अतः यह परम्परा प्रकार की वस्तुमों से सम्बन्धित तत्कालीन अथवा कालीन ज्ञान जो हमारे पास है वह यह सिद्ध करता अब्राह्मण तथा अबोद्ध भी कहो जाती है। अब्राह्मण है कि प्रत्येक वस्तु अथवा द्रव्य के अनेक गण हैं। इसलिए क्योंकि इस परम्परा ने वेदान्त के प्रात्मवाद एक सर्वज्ञ 'केवल ज्ञान के द्वारा अनेक गुणों वाले के सिद्धान्त को पूर्ण रूप से अस्वीकार नहीं किया द्रव्य का तत्कालीन ज्ञान प्राप्त कर सकता है. परन्तु और अबौद्ध इसलिए क्योंकि इसने बुद्ध धर्म के १--द्रव्य पर्याय विर्त पर्याया द्रव्य वजिताः। अनात्मवाद' के सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं किया। एक कदा केन कि रूपा दष्टा मानेन केनवा ।। सन्मतितर्क २--उमा स्वाति तत्त्वार्थ सूत्र ५ अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनश्रत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक बनें और बनावें। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवताओं का गढ़ : देवगढ़ श्री नीरज जैन, सतना प्राज से तीस वर्ष पूर्व मेरे पिता जी ने बुन्देलखंड दिल्ली बम्बई रेल मार्ग पर ललितपुर एक प्रमुख की तीर्थ बन्दना की थी। तब मैं केवल माठ वर्ष का था स्टेशन है' यह एक अच्छा व्यापारिक केन्द्र है और उत्तर परन्तु बेलगाडियों पर लम्बे समय तक घूमते रहने के प्रदेश झांसी जिले का एक प्रमुख स्थान भी है। पही से कारण उस यात्रा की अनेक धुघली परन्तु ममिट स्म- एक पक्की सड़क देव गढ़ तक जाती है जिस पर प्रतिदिन तियां पाज भी मेरे मस्तिष्क मे सुरक्षित है। देव गढ़ की मोटर बस चलती है, ललितपुर से देवगढ़ के बल १८ मील याद उन सब मे प्रमुख है जहाँ मूर्तियो के बम्बार लगे ये है। क्षेत्र पर एक चौगान मे धर्मशाला तथा चैत्यालय है और एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर तक जाने के लिए मोर इसी के दो कमरों में कुछ महत्व की मूतियों को मूर्तियों के टुकड़ों पर से ही होकर जाना पड़ता था। एकत्र करके एक छोटे संग्रहालय का रूप दे दिया गया है। जब तक श्रद्धालु यात्रियों ने दर्शन पूजन का पुण्य लूटा, यहाँ एक शिलालेख है जिस पर मट्ठारह भावानों का तब तक हम प्रज्ञान बालकों ने कलात्मक मूर्ति खण्डों का प्रकन है तथा जिसे "शान शिला" कहा गया है। यही एक छोटा ढेर ही एकत्र कर लिया था। छत्यालय मे एक उपदेश देते हुए प्राचार्य को उत्तिष्ठ इस यात्रा के बाद देवगढ़ में गजरथ की बात सुनी, पदमासन मूर्ति है जिस पर शिला लेख भी है। जीर्णोद्धार के समाचार पढ़े, डाकूमों से प्रातक की खबरे धर्मशाला से लगभग पौनमील की दूरी पर विन्ध्य सुनी और अंत मे दो तीन वर्ष पूर्व सुना कि देवगढ़ की . की शाखा एक सुन्दर पहाड़ी है और उसको अपनी लपेट अनेक महत्वपूर्ण सुन्दर मूर्तियों का सिर काट कर कुछेक मे लेती हुई बेतवा नदी एक अद्भुत सुन्दरता का सृजन नराधम पाधुनिक मूति-भंजक तस्करों ने च गेज खो करती हुई प्रवाहित हो रही है । इसी पहाड़ी पर देवगढ़ मौर औरंगजेब को भी मात कर दिया है, पर देवगढ़ के प्रति प्राचीन मन्दिरों और ध्वंसावशेषों के रूप मे जैन दर्शन का सुयोग केवल इसी माह मिल सका। देवगढ़ की मूर्ति कला समय की अपेक्षा उत्तर गुप्त पुरातत्व का प्रपार भण्डार हमारी उपेक्षा और काल की काल से लेकर १८ वी शताब्दी तक की मजिलो से गुजरी कठारता पर हसता मुसकराता हुप्रा पड़ा है। एक बरं M परकोटे के अन्दर छोटे बड़े कुल ३१ जिनालय पौर जिनसे भारत मे जैन वास्तु शिल्प के क्रमिक विकास मोर अनेक मानस्तम्भ भी यहाँ दर्शनीय हैं ही: साथीकार नागरी लिपि के विकास पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। के सहारे तथा मन्दिरों के पीछे सैकडों नही हजारों मति जैन शामन देवतामों का भी जितना वैविध्य-पूर्ण पोर खण्ड अभी भी उपेक्षित पड़े हुए हैं । जब जमीन के ऊपर सांगोपांग पंकन देवगढ़ में पाया जाता है उतना अन्यत्र की यह दशा है तब देवगढ़ के भूगर्भ में हमारी जो बहुत कम देखा गया है। यहां मकित कला की इन निधियो छिपी पड़ी हैं उनकी वर्षा करने को तो ऐसा विधामों का विश्लेषण एक छोटे से लेख में कर सकना मान लेना चाहिए कि-मभी समय ही नहीं पाया है। संभव नही है इस लिए इस विषय पर अलग से लिखने इस परकोटे के बीचों बीच सबसे विशाल मन्दिर का प्रयास मैंने प्रारम्भ किया है । यहां तो इस महत्व पूर्ण (मंदिर न. १२) स्थित है जिसकी कलात्मक मिति. क्षेत्र की साधारण जानकारी कराना ही मेरा अभीष्ट उत्तंग शिखर पौर विशालता देखते ही बनती है। इसी मंदिर की पाझ भित्ति पर चौबीसों तीपंकरों की Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्रतिमानों के नीचे उनको शासन सेविका यक्षिणियों की एक सर्वांग सुन्दर मूर्ति का चित्र इस लेख के साथ दिया मूतियां तथा उनके नाम अंकित हैं जो जैन पुरातत्व का जा रहा है । इस मूर्ति की सज्जा, परिकर और इन्द्रादिक एक दुर्लभ प्रौर महत्वपूर्ण अंग है। भगवान नेपिनाथ के तो बोलते से प्रतीत होते हैं तथा मूर्ति की सौम्यता और इस मदिर का प्रवेश द्वार भी अपनी कलापूर्ण सज्जा मनोज्ञता मे मनन्त शान्ति के दर्शन होते हैं। मति के पौर विशाल प्राकार-प्रकार के कारण अनोखा है तथा भामण्डल के चारों ओर अग्नि शिखा का अंकन "ध्यान इसी मदिर में भगवान नेमिनाथ की यक्षी देवी अम्बिका अग्नि कर कर्म-कलक सबै दहे" का स्मरण दिलाती की तदाकार सुन्दर मूर्तियाँ हैं । प्रथम तीर्थ कर की यक्षी है और अपने ढंग की प्रतितीय बन पड़ी है। चक्रेश्वरी की मर्व सुन्दर और २४ भुजा वाली अद्भुत अन्य मदिरों तथा स्तम्भों पर यत्र तत्र उत्कीणित मूर्ति भी इमी मदिर की देव-कुलिकामों में से एक मे , हजारों तीर्थकर मूर्तियाँ, सैकड़ों प्राचार्य, मुनि, प्रायिका स्थापित है। इनके गर्भगृह मे नेमिनाथ को जो प्रतिमा प्रतिमाए', अनेक शासन देवियों की मतियां और कुछेक स्थापित थी वह ग्यारह हाथ ऊँची रही होगी ऐसे प्रमाण विरल कृतियां भी दर्शनीय हैं । ऐसी प्रतिमानों में शचीउपलब्ध हैं। कालान्तर में वह प्रतिमा नष्ट हो जाने पर सेवित शयन करती हुई तीर्थ कर की माता की प्रतिमा, जीर्णोद्धार के समय सत्रहवी शताब्दी मे एक पाठ फुट शास्त्रार्थ करते हुए मुनियों की प्रतिमाए तथा प्राचार्यों ऊंची शांतिनाथ की मूर्ति यहाँ प्रतिष्ठित कर दी गई है की मूर्तियां उल्लेखनीय है। जो आज भी प्रसिद्ध है। इसी मदिर को घेर कर एक छोटा परकोटा जीर्णो- देवगढ़ अपने कोष में अनन्त सौंदर्य के प्रक्षय भण्डार द्वार के समय बना दिया गया था जिसके दोनों ओर लग को लेकर हमारी यश और गौरव गाथा का वाहक-प्रचाभग एक हजार प्रतिमाए बड़ी बेतरतीबी और कम हीनता रक बन कर खड़ा है। हमें इसकी व्यवस्था, उन्नति और से चिन दी गई है, उन तीर्थकरो तथा अम्बिका, चक्र प्रचार पर ध्यान देना चाहिए। श्रावक-शिरोमणि, दान. खरी धरणेन्ट- पटामवती प्राटि की प्रतिमा प्रमख वीर साहु शातिप्रसाद जी द्वारा बुन्देलखंड के प्रहार, जो सातवी शती ईसा पूर्व से लेकर सत्रहवी शती ईसा पपौरा, चन्देरी, कन्धार, थूबौन, बानपुर प्रादि जिन पूर्व तक की कला का प्रतिनिधित्व करती है। मेरा तो क्षत्रा पर क्षेत्रों पर जीर्णोद्धार का कार्य हो रहा उनमें देवगढ़ भी अनुमान है कि इस दीवार के बीच में भी प्रचुर मात्रा में शामिल है। और यहाँ काम हो भी रहा है" अपेक्षाकृत वंशावशेषों का उपयोग किया गया होगा; क्योंकि देवगढ की महत्ता को देखते हुए श्री साहु जी के दान के जीणोद्धार के जमाने में वही सबसे सस्ता और सहज द्रव्य का जो अंश देवगढ़ को चाहिए वह अभी उसे सुलभ पाषाण देवगढ़ में प्राप्य था, साथ ही हम खंडित प्राप्त नहीं हो पा रहा । उनकी ओर से काम कराने के मूर्तियों के कलात्मक महत्व को भूल चुके थे। लिए बाव विशनचद जी एक प्रोवरसियर यहाँ रह रहे मंदिर नं० २५ में लगी हुई सामग्री संम्भवत: इस हैं जो एक उत्साही और पुराने सामाजिक कार्यकर्ता क्षेत्र की प्राचीनतम सामग्री है। मेरा विश्वास है कि हैं; इस क्षेत्र का निरीक्षण यदि कभी श्रीमान साह जी में स्थापित जिन विज तथा गायनासोर करेंगे तो निश्चित ही इस के काम में प्रगति मौर विशिइन्द्र, विद्याधर तथा शासन देवियों के गठन से उनका ष्टता हो जायगी। निर्माण काल गुप्त काल का उत्तरी भाग मोकना उचित हम और पाप भी क्षेत्र की बन्दना करके उसके होगा। इसी मंदिर के मूलनायक भगवान सन्मति की उद्धार-यज्ञ में यथा शक्ति पाहुति तो छोड़ ही सकते हैं। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध-कण परमानन्द न शास्त्री भनेकान्त वर्ष १६ किरण ४ मे शोषटिप्पण के अन्त- हो या एक ने दूसरे का मनुकरण किया हो। र्गत पंचास्तिकाय को 'एक महत्वपूर्ण प्रति' नामक एक डा० विद्याधर जोहरापुरकर की यह कल्पना ता टिप्पण डा. विद्याधर जोहरापुरकर का लिखा हुप्रा प्रका- और भी विचित्र जान पडनी है कि पहले इनका नाम शित हुपा है । जिसमें पंचास्तिकाय के टीकाकार जयमेन जपमेन होगा बाद में ब्रह्म देव हो गया हो। पर पौर ब्रह्म देव (व्यसग्रह-दीकाकर्ता) दोनों विद्वानो को इम का क्या प्रमाण है। उसका कोई उल्लेख नही किया। अभिन्न बतलाने का प्रयास किया है। ब्रह्मदेव को मं० बहादेव कोई उपनाम नहीं है और न आधि सूचक ही १४६८ मे पहले का विद्वान घोपित किया है। इस पर है, किन्तु ब्रह्मदेश प्रीब्रह्म देवी नामों का उल्लेख मिलता विचार करना ही इम शोध-कण का विषय है। पचास्तिकाय ग्रन्थ का मटीक प्रकाशन रायचन्द्र शा एक ब्रह्म देव मूलमंघ सूरस्थगण के विद्वान थे। उन्हें स्त्रमाला मे जिम हस्तलिखित प्रति पर से हरा था वह भानुकीनि मिद्धान्ताव के गृहस्य शिष्य कलूकणि-नार सं०१३६६ की लिखी हुई थी १। उसमे ब्रह्म देव का समय के शामक मामन्त-मे वय नायक ने हेवदि ठाडि मे म. १४६८ मे ही नही किन्तु उसमें एक शताब्दी पूर्व एक ऊंचा चैत्यालय बनवाया और पावनिन की स्थापना सं० १३६१ मे भी पूर्ववर्ती है। इसमें उक्त मंत्रन वानी कर पूज्य-वा, मन्दिर मरम्मत और पाहार दान प्रादि. प्रति को कोई महत्ता नही रह जाती, क्योंकि पवानि. के लिये उक्त ब्रह्मदेव को पाद प्रक्षालन पूर्वक 'मरूहनकाय टीका के प्रारम में टीकाकार जमेन ने स्वय अन्यत्र तिमी हल्लि' नाम का गाव दान मे दिया था। शिलालेख का मोमवेष्ठि निमित्त द्रव्यमंग्रहादी' २ वात्य दिया हुमा कालक मंवत १०६४ (वि. मं० ११९९) है। इम से इनना कहा जा माता है कि टीकाकार जयमेन ब्रह्मदेवी का उल्लेव बधेरा के प्रति लेखों में पाया जाता बहादेव द्वारा मोमश्रेष्ठी के लिये रची गई द्रव्य संग्रह है। जिमने मं० १२४५ मे जिन मूनि की प्रतिष्ठा कराई पकाने परिचित थे। इसी मे उन्होने नगका उल्लेख किया थी। इन उल्लेखों में स्पष्ट है कि ब्रह्मदेव पौरब्रह्मदेवी है। किन्तु उससे दोनों विद्वानों की भिन्नता का गम्बन्ध नाम प्रामाणिक हैं, जयमेन मे ब्रह्मदेव हो गया हो ऐसा नही जोडा जा सकता, क्योकि शोधटिप्पण म डा० नही है। यदि ऐसा हुप्रा है तो उसका मप्रमाण उल्लेख जोहरापुरकर ने दोनों की एकता के माधक कोई प्रबल करना चाहिये, केवल कल्पना मे यह समय नहीं है। प्रमाण या युक्ति बल उपस्थित नही किया । मात्र कथन- द्रव्य मंग्रह के कर्ता नमिचन्द्र और ब्रह्मदेव दोनों सम शैली या टोका सरणि का अध्यात्म होने के कारण साम्य मामयिक है । इसकी पुष्टि द्रव्य सग्रह के टीकाकार ब्रह्महोना ही अभिन्नता का द्यातक नही है । दोनो ही टीका- देव की टीका के निम्न उत्यानिका वाक्य में स्पष्ट है:कारो के ग्रन्थों की प्रामाणिक जाच करने पर परस्पर छ "प्रथ मालन पेश धारानामनगरविनिराजा-भोज विशेषता अवश्य दृष्टि गोचर होगी। हो सकता है कि एक देवाभिधान-कलिकाल चक्रवर्ती-मम्बन्धिन : श्रीपाल-महाही टीकाकार को दूसरे को टोका देखने का अवसर मिला मण्डलेश्वरस्य सम्बन्धिन्याश्रमनामनगरे श्री मुनिसुव्रत-' १-वि० नवत् १३६६ वराश्विन शाद्ध. १ भौमदिने। तीर्थकर-चैत्यालये शुद्धान्मद्रव्य-मवित्ति-ममुत्पन्न मुस्खा पना० टी० पृ० २२५ मृतरमा-म्वाद-विपरीत-नारकादि दुःवभयभीतस्य पर२-पंचास्तिकाय टीका रामचन्द्र शास्त्रमाला पृ०६ ३-देखो, जैनशिलालेख स. भा०३०४२ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्मिभावनोत्पन्न-मुख सुधारसपिपासितस्य भेदाभेद नक्त नेमिचन्द्र के शिष्य पंचाणचंद की मूति बनी थी। लत्रय भावनाप्रियस्य भब्यवरपुण्यरीकस्य भाण्डागा- २-दूसरे नेमिचन्द्र वे हैं, जो प्रभयनन्दी प्राचार्य के द्य ने क नियोगाधिकारि मोमाभिधान तो शिष्य थे, और जिन्होने वीर नन्दी और इन्द्र नन्दी को भी नमित्त श्री नेमिचन्द्रमिद्धान्त देवैःपूर्व षडविंशति गाथा अपना गुरू बतलाया है। ये सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि भर्लघु द्रव्यसंग्रहं कृत्वा पश्चाद्विशेषतत्वापरिज्ञानार्थ से समलंकृत थे । और गोम्मटसार लब्धिसार क्षापणामार, त्रिलोकसार के कर्ता थे । इन्होने गंगवशी राजा राचवरचितस्य बहद्-द्रव्यसंग्रहस्याधिकार शुद्धि-पूर्व कत्वेन मल्ल के मत्री और सेनापति चामुण्डराय के अनुरोध से ति. प्रारम्यते ।' - इसमें टीकाकार ने मूलग्रन्थ के निर्माणादि का सम्ब गोम्मटमार की रचना की थी। चूंकि चामुण्डराय ने 'ध बतलाते हुए, पहले नेमिचन्द्रसिदान्त देव द्वारा सोम' अपना चामुण्डगय पुराण (सठशलाका पुरुष पुराण) नाम के राज श्रेष्ठि के निमित्त प्राधम नामक नगर के शक सं० १०० (वि० सं० १०३५) में बनाया था। प्रतः इनिसुवत चैत्यालय मे २६ गाथात्मक द्रव्यसंग्रह के लघु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती का समय भी विक्रम की प में रचे जाने, और बाद में विशेष तत्त्व परिज्ञानार्थ ११ वी शताब्दी का पूर्वार्ध है। ३-तीसरे नेमिचन्द्र नयनन्दि के शिष्य थे। जिनके उन्ही नेमिचन्द्र के द्वारा बृहद्रव्यस ग्रह की रचना हुई सम्बन्ध मे कोणर' लेख में निम्न पद्य दिया हुआ है .है, उस बृहदद्रव्यस ग्रह के अधिकारों के विभाजन मा मुनिमुख्यनशिष्यं श्रीमच्चारित्रक्रि सुजन विलासं । वक यह वृत्ति (टीका) प्रारंभ की जाती है। साथ मे भमियकिरीग्ताडित कोमलनखरश्मिनेमिचन्द्र मुनि । 'ह भी मूचित किया है कि उस समय पाश्रम नाम का इस शिलालेख का समय सन् १०८७ ई० दिया है, ह नगर धाराधिपति भोजदेव नामक कलिकाल चक्रवर्ती यह वि० सं० ११४४ अर्थात् विक्रम को १२ वी शताब्दी । सम्बन्धी श्रीपाल नामक महामण्डलेश्वर (प्रान्तीय- के विद्वान है । प्राचार्य वमुनन्दि ने भी वसुनन्दि श्रावका सक) के अधिकार में था, और सोम नाम का राज. चार की प्रशस्ति में नयनन्दि के शिष्य के रूप में अपने ष्ठि भाण्डागार (कोष) प्रादि अनेक नियोगों का अधि- गुरू नेमिचन्द्र का उल्लेख किया है२ । बहुत संभव है कि जारी होने के माथ साथ, तत्त्वज्ञानरुप सुधारस का पिपा- दोनो ही नेमिचन्द्र परस्पर अभिन्न हो। था । ब्रह्मदेव का उक्त घटना-निर्देश और लेखनशैली ४-चौथे नेमिचन्द्र वे है जो मूल संघ देशियगण पुस्तक गच्छ यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये सब घटनाएं उनके कोण्ड कुन्दान्वय के विद्वान नयकोति के शिष्य थे। इनका सामने घटी हैं। और नेमिचन्द्र मिद्धातदेव तथा सोम उल्लेख हलेवीड के शिलालेख में पाया जाता है, जिसका प्रेष्ठि उस समय मौजूद थे, और उनके समय मे ही लघु समय सन् ११३३ (वि० सं० ११६०) है ३ । तथा बृहत् दोनों द्रव्यसंग्रहों की रचना हुई है। ब्रह्म देव ५-पांचवें नेमिचन्द्र वे है जो एक कवि के रूप में प्रसिद्ध ने दो स्थानों पर 'पत्राह सोमाभिधानो राजश्रोष्ठि, है। और जिसने वीर वल्लाल देव और लक्ष्मणदेव इन दो क्यों के द्वारा तथा टीका गत प्रश्नोत्तर सम्बन्ध से उसकी राजारों की राजसभा में प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। और भी पुष्टि होती है। क्योंकि नामोल्लेख पूर्वक प्रश्न ६-छटवें नेमिचन्द्र वे हैं। जो प्रवचन परीक्षा के का है, बिना समक्षता के नहीं हो सकते । और जिनका समय सन् १३७५ ई० से १४२५ ई० के यहां नेमिचन्द्र के सम्बन्ध में विचार करना भी अन- मध्य बतलाया जाता है। ७-मातवें नेमिचन्द्र वे हैं जो भ० विद्यानन्द के सधर्मा पयुक्त न होगा । नेमिचन्द्र नाम के अनेक विद्वान हो गये। थे। इन्होंने पोम्बयं में पाश्र्वनाथ वस्ती (मन्दिर) है उनमें कौन से नेमिचन्द्र द्रव्य संग्रह के कर्ता हुए हैं और ..... १०५८ वर्षे चैत्र वदी २ सोमे धारागञ्ज प० नेमचन्द्र उनका समय क्या है ? यह विचारणीय है। शिष्य पचाणचन्द मूत्ति । जैन शिलालेख २ भाग पृ० १६ १-प्रथम नेमिचन्द्र वे हैं, जो पंडित नेमिचन्द्र कहलाते २-देखो जैन शिलाल० सं०भा०२ ५० ३३७ ये मोर स० ५० वर्ष में चैत्र वदी २ को धारागज में ३-देखो हम्मच शिलालेख Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन मजिल की बनवाई थी। पौर बडी भक्ति के साथ उपाधि का गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाया ३६७वे में इसकी प्रतिष्ठा की थी। उल्लेख किया है। दूसरे गोम्मटसार के कर्ता ने भावाश्रत्र --पाठवे नेमिचन्द वे हैं, जो धनंजय कवि के दिमघान के भेदों मे प्रमाद को परिगणना नही की, और प्रविनि काध्य की टीका पदकौमुदी' के कर्ता है, और विनयचन्द्र के १२ भद भी दूसरी तरह से सम्रहीत किये है १ । जबकि द्रव्यसग्रह कार ने भावाश्रव के भेदों में प्रमाद को पंडित के मन्तवासी देवन के शिष्य थे । जिन्होंने लो गिनाया है और प्रविति के पाच भेद भी स्वीकार किये क्यकीति के चरण प्रसाद से उक्त टीका की रचना की है। ऐसी स्थिति में मान्यता भेद के कारग द्रमा थी। टीका कर्ता ने टीका मे अपना कोई समय नहीं दिया के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती नही हो स.1, है। इस लिये इन नेमिचन्द्र का ठीक समय निश्चित करना क्योंकि एक ही ग्रन्यकार अपनी रचना में इस प्रकार का कठिन है। पदकौमुदी टीका की एक प्रति पाश्वनाथ मत-भद व्यक्त नहीं करता। मन्दिर भडार जयपुर मे सं० १५०६ को लिखी हुई ७८ जीमरे नेमिचन्द्र, जो नयनन्दि के शिष्य थे, और पत्रात्मक मौजूद है। जिसका बेठन नं. ११३ है । इससे जिनका समय कोगूर शिलालेख मे सन् १०८७ (वि.. सं० ११४४) दिया है, या वे नेमिचन्द्र जी श्रीनन्दि के नेमिचन्द्र की उत्तराबधि स. १५०६ से पूर्ववर्ती है । हो शिष्य नयन्दि के शिष्य होने के माय वसुनन्दि के गुरू सकता है कि वे १४वी या १५ वी ताब्दी के विद्वान हो। ३। दोनो में से कोई एक व्यसपह के का प्रया ह-नौवे नेमिचन्द्र वे है जो गोमम्टसार की जीवतत्वप्रदीपिका दोनों के प्रभिन्न सिद्ध हो जाने पर भी वे द्रव्यसम्र के टीका के कर्ता है, जो मूलसघ, बलात्कारगण, शारदा- कर्ता हो जो बहुत सम्भवह क्योंकि वे सिद्धान्त के पारगामी समान विचार भी थे मोर लोक मे विख्यात थे शेष नेमिचन्द्र नाम के विद्वान द्र व्यस ग्रह के रचयिता रहीं हो सकने। क्योंकि जो भट्टारक ज्ञानभूपण के शिष्य थे और प्रभाचन्द्र ने वे बाद के विद्वान ठहरते है। जिन्हे प्राचार्य पद प्रदान किया था। इनका समय ईमा की १६ वी शताब्दी का प्रथम चरण है। ___ ऊपर के इस सब विवचन पर में स्पष्ट है, कि ब्रह्म. इन सब नेमिचन्द्र नाम के विद्वानो में से प्रथम और देव का पहला नाम जयसे । नहीं था, पौरन वे बाद को हितीय मिचन्द्र तो 'द्रव्य संग्रह के कर्ता नही हो सकते। ब्रह्म देव ही बने । किन्तु ब्रह्मदेव पौर जयसेन दोनो प्रथम नेमिवन्द्र तो इसके कर्ता हैं ही नही, किन्तु कुछ भिन्न भिन्न व्यक्ति हैं । प्रागा है इससे डा० विद्याधर, विद्वान दसरे नेमिचन्द्र को द्रव्यसंग्रह का कर्ता बतलाते ओहरा पुरकर का समाधान होगा। हैं। यद्यपि उन्होने अपने को द्रव्यसंग्रह का कर्ता कही १मिच्छत अविरमण कसाय जोगाय पासवा होति । प्रकट नही किया, और न कोई ऐमा पुरातन उल्लेख ही पणवारम पणवीस परसा होति तब्भया ।। उपलब्ध हुमा है । जिसमे ननके द्वारा द्रव्यस ग्रह के रचे गो० क०५६ जाने का उल्लेख हो। फिर भी जनसाधारण में उनके २ मिच्छता विरदि-पमा-जोग-कोहादयोऽथ विष्णया। कतत्व का प्रचार है । लघुद्रव्य मंग्रह के कर्ता ने अपने पण पण पणदह निय चतु कमसी जोगा दु पुरस्म । को नेमिचन्द्र गणी, भौर बृहद्रव्य संग्रह में उन्होंने तनु द्रव्य स ३० सुत्तधरेण, पल्प तधर बतलाया है। टीकाकार ने उन्हे "सिद्धान्त देव भी बतलाया है किन्तु सिवान्त पक्रवर्ती ३मिस्मो सस्म जिणागम- जलगिहि वेलानर गधोयमणो। नहीं बतलाया। संजामो सयलजए विक्वापो मिचन्दुत्ति ॥ जब कि गोम्मरसार के कर्ता मे सिद्धान्त पक्रवती को वसुनन्दि मा. प्रशस्ति Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर भाऊ की काव्य साधना डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम० ए० पी० एच०डी० [ प्रस्तुत निबन्ध के पहले पैराग्राफ से ऐसा बिक्षित हुमा कि लेखक कवि भाऊ का निश्चित रचना काल बताने । जा रहा है किन्तु द्वितीय पैराग्राफ का अन्तिम वाक्य लिपिकाल ही बता कर मौन हो गया। जिस कवि ने प्रपनी किसी रचता में निर्माण-काल का सकेत तक न किया हो, उसको प्राचीन-से-प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों के प्राधार पर केवल अनुमान ही करना पड़ता है। यदि डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल भाऊ का निश्चित रचना काल खोज सके तो हिन्दी पाठक उनके ऋणी रहेंगे। मुनि कान्तिसागर ने 'भाऊ' को 'मादित्य-कथा' की प्राचीन प्रति सं० १७२० को लिखी हुईखोजी थी ग. कासलीवाल को त १६२६ को लिखी हुई मिली है और मैने भाऊ को अन्य कति 'नेमिनाथरास' को स १६६६ बाली प्रति का उल्लेख अपने अन्य 'जैन हिन्दी भक्ति काव्य और कवि' में किया है। तीनों ही उनके रचना काल मापने के पैमाने हैं। निश्चित समय नहीं है। कवि 'भाऊ' की 'मादित्यवार कथा' और 'नेमिनाथ रास' में दूसरी रचना ही साहित्यिक है, पहली की लोकप्रियता जन-समाज में रवि-व्रत के अधिक प्रचलन के कारण यो। मेरी दृष्टि में 'भाऊ' ऐसे कवि नही थे कि उनकी . रचनाओं को 'काव्य-साधना का नाम दिया जा सके। -प्रेमसागर जन ] हिन्दी जैन कवियों में भाऊ कवि का नाम विशेपत मेंमगृहीत मिलती है अब तक उपलब्ध प्रतियों में जयपुर उल्लम्वनीय है। कवि हिन्दी के प्रच्छ विद्वान थे प्रोर के पाश्वनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संवत् १६२६ काव्य रचना में रूचि रसते थे। उन्होने अपने जीवन में की प्रति सबसे प्राचीन है । जो एक गुटके मे सगृहीत है कितनी कृतिया लिखी इसकी निश्चित जानकारी अभी और जिसकी लिपि पामेर मे हुई थी। यदि इस प्रति तक प्राप्त नहीं हो सकी है। अब तक कवि की दो रच- को कवि के समय का प्राधार मान लिया जावे तो कवि नायें एवं एक पद उपलब्ध हुना। इन कृतियों में काव न का समय १६ वी शताब्दी अथवा इमसे भी पूर्व का हो उनके रचना काल का उल्लेख नहीं किया और न किसी सकता है। समकालीन एव परवर्ती विद्वान ने कवि के सम्बन्ध मे परिचय-कवि अग्रवाल श्रावक थे। गर्ग उनका कुछ लिखा है इस लिये कवि के काल के सम्बन्ध में गोत्र था। उनकी माता का नाम कुवरी तथा पिता का कितनी ही धारणाये है । प्रभी नागरी प्रचारिणी पत्रिका नाम मलूक था । कवि न अपनी ये सभी रचनाये व्यपार वर्ष ६७ प्रक ४ मे मुनि कान्तिसागर जी ने भाउ के सम्ब- व्यवसाग करते हुये लिखी थी। त्रिभुवनगिरि इनका न्ध मे दो स्थान पर अपने विचार लिखे है। पत्रिका के निवास स्थान था जिसका उल्लेख मादित्यवार कथा पत्र ३०६पर कवि को १८ वीं शताब्दी का माना गया है मे निम्नप्रकार है : . पौर पृष्ठ ३३३ पर कवि के समय के सम्बन्ध मे कोई अग्रवालि यह कीयो बखाण, निश्चित मत नही लिखा गया । इसी तरह डा. प्रेम कुवरी जननि तिहुवरण गिरि थान । सागर जी ने अपनी नवीन कृति 'हिन्दी जैन भवित काव्य ___ गहि गोत मलुको पूत, पौर कवि' मे कवि के समय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं भाउ कवित जन भगति सजत ॥१५॥ किया और प्रतियो के लेखन काल को गिना कर उनके प्राविस्यवार कया-यह कवि की सबसे लोकप्रिय रचना है जिसके पठन पाठन एव स्वाध्याय का किसी समय का अनुमान करने का काम पाठको पर छोड़ दिया कवि की सबसे प्रसिद्ध कृति 'प्रादित्य वार कथा है। समय प्रत्यधिक प्रचार था। एक प्रति मे इसका दूसरा राजस्थान में वह अत्यधिक लोकप्रिय रचना रही है इस नाम पाश्र्वनाथ कया भी मिलता है। रचना में रविवार लिए उसकी सैकड़ों प्रतिया राजस्थान के जैन शास्त्र के व्रत का महारभ्य दिया हुमा है। रविवार पार्वनाय भण्डारों मे उपलब्ध होती है। अधिकाश प्रतियां गुटकों का दिन है इसलिये उस दिन विधिपूर्वक व्रत करने से Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर भाकको काव्य साधना १७३ अपार पुण्य लाभ होता है तथा सम्पदा एवं वैभव की प्राप्ति होती है । कवि ने रविवत के महात्म्य को निम्न शब्दों में वर्णन किया है । पारसनाह रविव्रत सार, सेवत नव विधि होइ अपार । नारि पुरुष जो मन धरि सुनई, नासइ पाप भाउ कवि भगई ।। भरो लोह दुख संकटु सहै। कुष्ट व्याधि जो पीड़ा हरे। विग्रह बेधी होय नारद, सुमिरत सेवइ पाम जिरगद ॥१४६।। रचना २४ तीर्थकरो के स्तवन से प्रारम्भ होती है । फिर वाराणसी नगरी और उसके नगर सेठ मतिसागर का वर्णन है । सेठ के यहाँ हीरे जवाहरात का काम होता था। वह धन सम्पन्न होते हुए भी प्रतिदिन जिन पूजन करता था और दान देने से तो एक क्षण के लिए भी विमुख नही हया। नगरी धनी बसइ बह लोग, कीजइ पान फूल कउ भोग। मतिसागर कोडी धज साह, अादर बहत करइ नर नाह ॥१॥ वरिणजे हीरा पदारथ लाल, बेचइ मोती सुरग प्रवाल । कसे कसौटी परखे दाम, आदर बहुत रायदे ताम ।।१६।। देव पूज नित भोजन करइ, राग दोष नवि मनमहि धरइ । समल कुटंब वहै अपार, स लहहि विषराय साधार ॥१७॥ विधि सुदान सुपाहि देइ, दश लक्षण को धर्म करेइ । जीव दया पालइ बहु भाइ, ताकी उपमा दोजे काइ ॥१८॥ उसी मतिसागर के सात पुत्र थे । सभी पुत्र दया. बान एवं बुद्धिमान थे । सबसे छोटे पुत्र को उसने पढने भेजा। व्युत्पन्न मति होने के कारण उसने सभी विद्याए सीख लीं। एक बार नगर के महस्रकूट चैत्यालय में जैन संत पाये तो नगर के सभी जन उनकी बन्दनाथं गये। मुनि श्री ने सभी उपस्थित श्रोतामो को धर्मोपदेश दिया तथा ससार की प्रसारता बतलाते हुए रविवत पालने के लिए निम्न विधि बतलाई सुदि अषाढ़ जब रवि दिन होइ सत सजम प्रारम्भह सोइ । खीर धार दीजहु मन लाई, सुपात्तहु दोजिहु दान वोलाई॥ वरस बरस दिन नव नववार, नवह वरस करहु इकसार। अथवा एक वरसि निकताय, बारह मास करह मन लाय ।। धान इक्यासी अब बिजोर, नीबू सरम नदाफल और। मारु सकति चुन फल करउ, पास जिरगद चलण प्रणुसरउ।। इतना फन अइसी विधि जारिण, नो घर देह मरावा वागि। हरि हरि बरस करहु इच्छ जोग, दुख कलक न व्यापइ रोग ।। मतिसागर के घर में दारिद्र ने डेरा डाल दिया। उसके सब मोती जवाहरात छिन गये । सेठ को बड़ी चिन्ता हुई। उसे अपने कार्यों पर पश्चाताप होने लगा। पौराणिक महापुरुषों के जीवन को याद किया। माता-पिता का दुखो देखकर उनका मबसे छोटा पत्र विदेश रवाना हो गया लेकिन पुत्र को भी विदेश प्रवास में अनेक दुख उठाने पड़े। रविवन पालने के कारण अाखिर उसका सकट दूर हो गया और उसे पहिले से भी अधिक सम्पत्ति प्राप्त हई । प्रागे कथा को भाउ कवि ने रोचक ढग से वर्णन किया है। कवि ने कथा मे धन की बहुत प्रशसा की है इस से कवि के जीवन का भी कुश अनुमान लगाया जा सकता है । कवि के शब्दों मे धन की प्रशंसा पढ़िये नासइ बुधि होइ तनु खीण, कहिये बुरे पुरिष धन हीण । धन विणु सेवगू सेव नही करइ, धन विनु नारि पुरिषु परिहरइ । धन विणु मान महत को होइ, नही कपूत कहइ सब कोइ। धन विणु परीर काम कराइ, धन विगु भोजन लूखी खाइ।। कवि को यह रचना चौपई छन्द मे है । पद्यो की संख्या सभी प्रतियो मे समान नही है। एक प्रति में १५३ हैं तो दूसरी में १५६ है। और इसी तरह प्रम्य प्रतियों में भी छन्द सख्या में प्रसमानता है। रचमा को भाषा सरल एवं प्रवाह रूप है। कवि ने कहीं कहीं पालइब करे। ताको Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ सूक्तियों का भी प्रयोग किया है । दो उदाहरण देखिये (१) जो नर प्रभाग्यो खेती करई, बैल मरे कि सूका पड े । (२) जब दिन बुरे पड़त हइ भाइ, गुरा कहिया चौगुण वै भाइ ॥ कथा का प्रादि प्रन्त भाग निम्न प्रकार है आदि भाग श्री रिसहनाह पण विजई जिरगद, जा प्रसन्न चित्त होइ प्राणन्द । परणवह अजित पणासठ पापू दुख दालिद भउ हरै सतापु ॥ संभवनाथ तरणी युति करू, जह प्रसन्न भव दुत्तरु तरू । अभिनन्दन सेवहू सेवहु वरवीर, जा प्रसन्न पारोगि शरीर । अन्तिम छन्द प्रकान्त कारण कथा कररण मति भइ, तो यहू धर्मकथा पर मनपरि भाउ मुणो जो को सोनर सुरग देवता होइ ॥ १५६ ॥ नेमिनाथरास - नेमिनाथरास कवि की दूसरी रचना है जिसकी एक मात्र प्रति लेखक को प्राप्त हुई है प्रोर जो जयपुर के पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार मे संगृहीत है। पूरेरास में १५५ पद्य हैं। सभी चौपई छन्द मे है। नेमिनाथरास की मुख्य कथा में २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन की संक्षिप्त घटनाओं का वर्णन निहित है । यह एक भावात्मक प्रबन्ध है जिनमे काव्य के नायक के विवाह एवं वंशग्य इन दो घटनाओं को प्रमुख स्थान मिला है। काव्य के सभी वर्णन सुन्दर एवं अनूठे हैं। काव्य में श्रृंगार एवं विरह दोनो ही रसों का समावेश है । जहाँ एक प्रोर राजुल के श्रृंगार भाव को पढ़ कर चित्त प्रसन्न होता है वहां उभरी विरह वेदना हृदय को को फाने वाली भी है। क्योंकि राजुल घोर नेमिनाथ के मिलन की वेला विरह एव शोक में परवर्तित हो गई थी। लेकिन उक्त वर्णन के प्रतिरिक्त काव्य में नेमिनाथ का शक्ति प्रदर्शन प्रात्मचिंतन तथा शिवा देवी एवं नेमि नाथ का सवाद आदि भी प्रति रोचक प्रसंग हैं इनमें काव्यत्व की अच्छी झलक मिल सकती है । कवि ने जगत के स्वरूप का हृदयहारी वर्णन किया है— धन जोवन गरवीयो गवार, प्रीतम नारि देखि परिवार । रहमान ज्यों यह जीउ फिर. छोटे एक एक सौ करइ ॥१५॥ अवतर कबहूँ स्वर्ग देव कबहू नरक घोर सो परं । कबहू नरक बहू सिरपच निपजं जीव करें परपच ॥५६॥ कहूं उत्तम कबहूं नीच, कबहूं स्वामी कबहूं मीच । कबहूं धणी निरघणी भयौ, इहि संसार फिरत जम गयौ ।। ५७॥ इधर नेमिनाथ ने भी वैराग्य धारण कर लिया और उधर राजुल जो कुछ समय पूर्व फूली नहीं समा रही थी, संसार की बात सुनकर मूति होकर गिर पडी नेमिनाथ के अभाव मे उसका सारा जीवन फीका हो गया । हार श्रृंगार तथा वंभव सभी दुखदाई लगने लगे । सुगनु कुवरि जांबे चौपासु माथी पुनि धुनि ले उसास ॥१००॥ आव तं दई कहा यह कियो, जिरण बिछोहु मोकहु दुख दियो । जिरा विनु घडी वरिस वरजाइ जिण विणु घर वाहिर न सुहाइ ॥ १०१ ॥ जितु बिनु मेरो फर्ट होयो, जिन बिनु जनमु प्रकारच जियो जिन दिनु जोवनु काजे काइ जिन विनुरुप लहु सवनाइ ।। १०२ ।। जिg बिपु नाहि सबै सिंगार, जियु बिनु सूनौ यह संसार जिरणवर गुरणगहि दिसा घरी, जिरावर बिना रहि कहां करौ ॥ १०३ ॥ इस प्रकार नेमिनाथरास एक सुन्दर काव्य है जिसके सभी वर्णन सजीव हैं। रास को भाषा ब्रज भाषा के अधिक समीर है। रचना में कवि ने अपने नामोल्लेख Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामिक कहानी ...और प्रांसू ढुलक पड़े डा. नरेन्द्र भानावत, एम० ए०, पी० एच० मे०, जयपुर मित्र लोग टोलिया बनाकर जगह २ इन्हे घेरने के और महावीर लोट पड़े। लिए मोर्चावनी करते । कोई जलेबी उछालकर कहतामभिग्रह पूराहमा महीनों बीत गये घूमते घामते। याद है वर्तमान ! इसी तरह बचपन में गंद उसाल २ प्रतिदिन नई समस्याए सामने माती। कोई कहता यह 'कर जलेबी खाई थी।'कोई पत्तल में गुलाबजामन लेकर बहा घमक्कड है । इधर से उधर, उधर से इधर माता मोर स्नेह भरे शब्दो में कहता--'तम्.होया गया बराबर षमता रहता है। न कुछ देता है न कुछ लेता महावीर! पांव माह बीत रहे हैं और तम भोसले दौड रहे हो। देखो न ये गोल-गोल रस भरे जामुन । दूसरा प्रतिवाद करता है बड़ा तपस्वी! सुनते हैं उसी दिन 'डाल कामडी' खेलते २ तुमने पचास-साठ किसी राजा का लडका था पर राजसी ठाठ-बाट को गुलाब जामुन एक २ कर ऊपर से मुह मे झले थे।' पर टोकर मारकर भरी उमर मे यह साध बनकर निकल महावीर चुप । कोई प्रतिक्रिया नही। पडा । पाम ही खडी स्त्री बोल उठती-'मेरी यह बटोरी पच्चीस दिन और गुजर गये। महावीर के पास एक जीभ तो उस बूढी काकी की तरह जूठे पातल तक चाटने पट्टालिका की ओर बढ़ चले। मुनमान वातावरण अट्टाको लालायित रहती है पर इस युवक मुनि ने तो उम दिन है लिका की भव्यता और कलात्मकता पर व्यंग कर रहा नगर सेठ के छप्पन भोगो को प्रख भर के भी नहीं देखा, ॥ दखा, था। वे प्रकोष्ठ में पहुंचे तो उन्हे अपने अभिग्रह का चित्र है यह कोई न कोई विलक्षण पुरुष ।' उभरता सा दिखाई दियामहावीर सब सुनते, मुस्कराते और चल देते। जहा इयोडो के बीच एक अनुपम सुन्दरी खडी है। उसके भी जाते वहां उनके सामारिक पक्ष के सैकडों रिश्तेदार लावण्य का कटोग अपने भाप मे न समा सकने के कारण मान-मनुहार करते। कोई खीर-पूटी लेकर माता पौर वात्सल्य भरे शब्दों से कहता- 'बेटा भूखा न रह । यह फूट २ कर बाहर बह रहा है। उसकी देहस्थली मे कामार्य का वसन्त क्रीड़ा कर रहा है, पवित्रता की कोकिला कूक कंचन की काया राख बन जायगी। इसे खीर-पूड़ी की रही है और शालीनता की बयार रोम-रोम में कंपन भर माग में तपा-तपाकर कुन्दन बना। वे क्या बोलते? 'तपस्या ही पग्नि है, कष्ट ही रही है। वह रूप में रंभा और शील मे सती है पर उसके कसौटी है' कहकर चुप रह जाते ।। हापो में रग-बिरंगी मोहक चूड़ियों के स्थान पर कठोर कभी धेबर, बर्फी और लड्डू मे थाल मजाकर कोई लोहे की हथकड़ियां हैं, पांवों में छुप छनन२ की झंकार बहिन कहती-'भया ! रुक जा। यों न भाग। तब तो पैदा करने वाली पायलों के स्थान पर स्वतन्त्रता की तू ने मेरी लाइयों में राखी बाधकर मेरी रक्षा करने का अपहरण करने वाली बेड़िया है। मुखचन्द्र का सुषामान भार अपने कधो पर लिया था और माज भैया-दूज पर करने वाले 'नीलधन शावक से सुकुमार'घु घराले रेशमी तू बिना कुछ खाये पिये मुह मोड़ कर चला जा रहा है।' बालो के स्थान पर सिर मुहा हुपा है। शरीर पर तारों वे कोमल स्वर में इतना ही कहते- 'संसार मे कोई खचित नील परिधान के स्थान पर वल्कल है। वह निर. किसी का रक्षक नही । स्वय को मात्मा ही रक्षक और पराधिमा है। तीन दिन से भूखी है। पारणा के लिए भक्षक है। उबाले हुए उड़द के बाकले उसके हाथ में हैं, रहें भी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दान देने के लिए वह किसी प्रतिथि की राह में प्रसन्नता टिड्डी दल की भांति शत्र टूट पड़े है। खून की नदियां की पांखें गडाये हुए है। बह चली है। दुश्मन नगरी लूट रहे है। श्रीमन्तों की पर यह क्या? महावीर लोट पड़े। उनका यह तिजोरियो के ताले तोड़ दिये गये है । गरीबों की झोपअभिग्रह-चित्र अधूरा रहा। प्रसन्नता की मांखों में ड़ियां जला दी गई है। स्त्रियों और बच्चों को बन्दी सास्विक भावों के प्रांसू वहां छलछलाये नहीं। बना लिया गया है । सैनिक दैत्य बनकर नाच रहे हैं। लो घांखों में मांसू ढुलक पडे । यह क्या? चन्दना चौंक पडी। राजमहल में शत्र चन्दना का प्रायश्चित ही जैसे पिघल कर बह गया। घुस माये ? अन्तःपुर में हाहाकार मच गया। रथारोही वह अपने पाप को धिक्कारने लगी। सैनिक चन्दना और उमकी माता धारिणी को लिए बडे 'मेरे भाग्य ही खोटे हैं । भगवान भी मुह मोड़कर वेग से बढ़ा जा रहा है। चलते बने । जिनसे माशा थी वे भी किनारा कर गये। घनघोर जंगल मा गया। सैनिकका पशत्व उभर मैंने कौनसा अपराध किया? मैं जीवन भर अविवाहित पड़ा। धारिणी के रूप का लोभी बनकर वह उसके चारों रही। कभी किसी को धोका नहीं दिया । कभी किसी का पोर मडराने लगा । धारिणी ने शील की रक्षा के लिए दिल नही दुग्वाया। मैं कोई पतित नही, दृष्टा नहीं। अपनी जीभ खीच ली। फिर भगवान तुम क्यों चले गये? तुम तो दीनानाथ हो चन्दना काप रहा ह-वह भी जीभ खीचना चाहती है। पर रथारोही ने प्रागे बढ कर उसका हाथ पकड़ न? करुणा सागर हो न? अब कौन तुम्हें इन नामों मे । लिया है । वह ग्लानि से भरकर बोल रहा है-'बेटी अब पुकारेगा? मेरे पास गजमी वैभव नही, षटरस व्यंजन इस महापाप से मुझे कलकित न कर । मैं पापात्मा है, नही, मेरे शरीर पर स्वर्णाकार नही, मेरी मूत्ति मन मोहिनी नही । पर इनमे क्या ? तुम तो इनसे कोसों दूर दुष्ट हूँ। तू सता है, साध्वा है। 'मा पाहि मां पाहि ।' चन्दना ध्यानस्थ हो गई। मन उर्ध्वगामी हमा। हो न, तुम तो स्वय इन्हे लात मारकर निकले हो न? तुम तो शुद्ध-प्रबुद्ध वीतरागी हो न? फिर यह कोप-दष्टि उसने देवाक्यों ? भक्त की यह उपेक्षा क्यो ? भगवन् ... - एक सैनिक की पत्नी नागिन बनकर फुफकार रही है। बार फिर'.. ...... 'तु यह सौत कहा से उठा लाया ? मुझे यह नही चाहिये, मुझे चाहिये हीरे, जवाहरात, सोना, चांदी। इसे बेच मा। नही तो..... .. दो मांसू भोर डुलक पड़े। और दम मिनट बाद चन्दना बाजार में खडी है। उसे चन्दना का चिन्तन रुका नही। पूर्व-जीवन की स्मृ बेजान वस्तु की भांति बेचा जा रहा है। उसकी बोली तियां एक २ कर उसके मागे उभरने लगी लग रही है। बीस लाख मुहरों मे वह बिक गई है। 'चन्दना राजबाला है। अपने पिता की इकलौती एक वेश्या ने उसे खरीदा है । बेटी है। रत्नजटित झूले मे झूल रही है। नन्दन वन की वह काप गई है । उसने दृढ़ता से कहा-'मैं वेश्या समता करने वाले उद्यान में फूला के साथ हस रहा है, वत्ति नही करू गी । मेरा विचार प्रात्मा का विचार है. स माच नाच रही है, कोयल के साथ गा रहा है। शरीर का नही। मै रूप की रानी बनकर नहीं रहना सब उसे प्यार कर रहे है । उपके पाव धरती पर नही चाहती,मैं मरूप की पाराधिका बनकर जीना चाहती टिकते । वह हाथों हाथ उठाई जा रही है। . मन ने मचानक पल्टा खाया। उसके सामने युद्ध का चन्दना का चेहरा चमक उठा। उस पर दढ़ दृश्य मा गया । चम्पा नगरी पर कौशाम्बी के राजा निश्चय और प्रात्म-बल की रेखाएं खिंच गई । बन्दरो शतानिक ने, उसके ही मौसा ने धावा बोल दिया है। की एक टोली उसे नजर माई। उसने वेश्या को बह Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और तिलक पर लुहान कर दिया, वह चीख कर भाग खडी हुई। दिखाई दिये। उसके हर्ष का ठिकाना न रहा। वह पाचग्दना नावह सेठ की दासी है। जी तोह अपने को धन्य मानने लगी। काम करती है। सेठ उसे बेटी की तरह दुलारता है पर यह क्या ? महावीर लौट पड़े। इम गरीबनी 'पषिक काम न कर बेटी और चन्दना पिता तुल्य सेठ का प्रातिष्य स्वीकार नहीं किया ? उसकी मांगों पर की सेवा करना अपना परम कर्तव्य समझती है। माई और दो प्रांसू दुलक पड़े। सेठपका-मांदा बाहर से लौटा है। चन्दना गर्म तीन पानी लाकर उसके पांवों को पो रही है । उसके लम्बे २ महावीर ने धमकर देखा । उसका अभिग्रह-चित्र जी तब तक अधूरा था, मासुमों की माता कोमलता पाकर बास धरती को रहे हैं। सेठ वात्सल्य भाव से उन्हे पूरा हो गया। वे वापिस लोट पड़े। चन्दना के राजे उठाकर उसकी पीठ पर रख रहा है। पघरो पर मुस्कराहट फैल गई। उन्होंने उसव के अचानक चन्दना का हाथ सिर पर गपा-लम्बे २ बाकलों की भिक्षा ली। साभिग्रह छमासी पूरा हमा। बाल वहां न थे। उसे याद आया माकाश में 'महो दान, ग्रहो दान' की दुन्दुभि बज उठी। 'ममी तीन दिन ही हुये, सेठानी मूला ने बदला लेने चन्दना पारम-विभोर हो गई। उसकी प्रसन्नता का की भावना से उसे कोठरी में बन्द कर रखा है। उसके पारावार उमड़ पड़ा, वह प्रारमा के विभ्रत कुंज में इतनी लम्बे २ बाल कतर डाले हैं, उसके सिर मे घाव कर तन्मय होकर नाची, कि सृष्टि का कण २ उसके साप दिया है हाथ में हथकड़ियां पौर परो मे बेडियां डाल नाच उठा । उसकी बेडियो फूलमाला बन गई। मुटित दी। वह तीन दिन से भूखी है ।' अनायास ही उसकी मस्तक पर नागिन मी वेणी लहरा उठी। रत्नमटित दृष्टि अपने हाथों की ओर गई। उसने देखा प्राभूषणों से शरीर जगमगा उठा। उबाले हुए सड़द के बाकले हायो मे है। वह सोच पर चन्दना ने यह सब कब चाहा पा? उमने जो ही रही थी कि किसी पतिथि का स्वागत कर इन्हे चाहा था वह उसे महावीर के चरणों में मिला। वह सार्क । इतने में उसे भगवान महावीर सामने प्राते हुए छब्बीस हजार साध्वियों को प्रवत्तिनी बनी। - (पृ० १७४ का शेष) के अतिरिक्त मोर कोई परिचय नही दिया है । गम मे चलण सीस धरि बारम्बार, तिरिण कि मत्ति तिरी भव पार॥६॥ कवि ने सरस्वती बन्दना के समय अपने नाम का उल्लेख , अन्तिम भाग--और तिर प्रापुरण तिर, किया है - चह सघ जिराण रक्षा करो। सरस्वती माता बुद्धि दाता करह पन्तकु लेई पशु पंखी दीन्हा मुकलाय, उर पहिरि हार करि सिगार हस चढी वर देई ।।७।। चढि गिरनार कियौ तपुजाइ ॥१४४॥ सेवत सुरनर नवहि मुनिवर छहों दरिसग तोहि। सुर नर वन्दनीकु जो भयो, कवि जपउ भाउ करि पभाउ बुद्धि फलू मोहि । सोश्री नेमिसभा को गयौ । १५६॥ रचना का प्रावि पन्त भाग निम्न प्रकार है भाउ कवि का एक पद जयपुर के पाटोदी मन्दिर भारम्भ-प्रथम तीर्थकर परण: चौबोस, के गास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । पर"बलि जायोमिसब जिरिणन्द अपि लेउ जमीस । जिनंद की" से प्रारम्म होता है। पद स्तुति परक है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीमगंज भंडार का रजताक्षरी कल्पसूत्र भंवरलाल नाहटा हवेताम्बर जैन समाज में कल्पसूत्र का महत्व प्रत्य- एकाध चित्र को हर व्यक्ति फेम में जड़वा कर अपने कक्ष विक है। पयूषण के पाठ दिनो में इस शास्त्र को हाथी की शोभा वृद्धि कर सकता है। इस दुरभिसंधि से ग्रन्थोके प्र.द पर भारुढ करके गाजे बाजे के साथ लाकर गुरु चित्रों को निर्दयता पूर्वक कतर कर फम मे मढवा दिये महारान के पास बहुमान के साथ श्रवण करने की प्राचीन गए । क्या साघु और क्या श्रावक और क्या दलाल व प्रथा है। ऐसे शास्त्रों के लिखवाने मे जैन समाज ने प्रचुर व यूरियो के व्यापारी इस पाप कार्य से बच न सके । द्रव्य राशि व्यय की पौर स्वाक्षरी, रजताक्षरी गगा उनके हृदय में जिनाज्ञा व भव-भ्रमण का भय न रहा जमनी, स्वर्ण व विविध रंग व हांसिये के चित्रों वाले पौर अपनी इस दुष्प्रवृत्ति में भी शुभ कार्य कर रहे है, कल्पसूत्र व कालिकाचार्य कथा की प्रतियां लिखवाते रहे। मनधिकारी-प्रज्ञानियों के हाथ में न रह कर हम मर्मन काली स्याही से लिखी सचित्र प्रतिया तो सैकड़ों की संख्या मौर अधिकारियो के हाथ मे जाने से वस्तु का महत्व मे उपलब्ध हैं पर स्वर्णाक्षरी, रौप्याक्षरी की प्रतियां तो बढेगा और उत्कर्ष ही होगा। इस स्वकल्पित मान्यता प्रायः प्रच्छे अच्छे शान भडारो में मिल जाती है। भारतीय प्राचीन कला की मोर पाकर्षण बहाने से पूर्व ही । ने बहुत बहा मन कर डाला। प्रसंगवश एतदिषयक विचारों को प्रगट कर माशा की जाती है कि समाज विदेशी लोग बहुत सी कला सामग्री कौड़ी के मोल मे। खरीद कर ले गये और इनके दलालों ने छोटे छोटे गांवों तक अपना पुरातत्व सपत्ति की रक्षा के लिए विशेष उपाय मे पहुंच कर जिस किसी प्रकार से तिकड़म बाजी द्वारा o सोच कर प्रबन्ध करेगा। सा ही भण्डार के भण्डार खाली कर दिये । प्रज्ञानियो के भधि कल्पसूत्रादि शास्त्रों की विशिष्ट प्रतियों को प्राचीन काष्ठ से ही जान भंडार के संरक्षकों ने उन्हें सुरक्षित कार में रही वस्तु तभी सुरक्षित रह सकती है जबकि उनके । हृदय में उसके प्रति बहुमान गौरव एवं ज्ञान की प्रासा रखने का प्रयत्न किया था उनमें सांपकी काचली, म गरेता तना का भय हो । अन्यथा कई जगह ऐसा देखा गया है जड़ी बूटी प्रादि रख कर जीवजन्तुषों से सुरक्षित किया कि खुले पत्रों को पूर्ण समझ कर गत या मकान की गया। कई प्रतियों के नष्ट पत्रों को दक्ष नीव में दे दिये गये। कई अन्य राशि व खण्डित जिन व्यक्तियों के पास उसी रंग व कागजादि पर लिखवा कर प्रतिमानों को नदी सरोवरादि में प्रवाहित कर दिया चिपका कर जीर्णोद्धार कराया गया और जो ग्रन्थ विवेकी गया। कुछ लोगों ने स्वर्णाक्षरी शास्त्रों को सोना निकालने व्यक्तियों की नजर में न माये नष्ट भी हो गए। पाज के के लिये जला तक डाले, यहां तक सुना गया है। प्राचीन वैज्ञानिक युग मे शास्त्रों को जीर्णोद्धारित कर उन्हें चिरशास्त्रोंको यह दशा देखसुनकर हृदय कांप उठता है । मज्ञानी स्थायी किया जा सकता है। और दिल्ली के पुरातत्व द्वारा शास्त्रों की अवहेलना हुई यह तो हुई पर उसके ममंश विभागादि द्वारा मागम प्रभाकर पुण्यमूर्ति मुनिराज श्री पौर शानी कहे जाने वाले व्यक्तियों ने भी शास्त्र भण्डारों पुष्प विजय जी महाराज ने शास्त्रोद्वार का बड़ा भारी से ग्रन्थों को उड़ाने में कसर नहीं रखी । यदि कोई शास्त्र मादर्श उपस्थित किया है। इसी प्रकार प्रावश्यकता है न उड़ा सका तो उसके कुछ पत्रों को हो चुरा कर ऊचे कि जिनके पास भी जीर्ण दशा में शास्त्र हों उन्हें जीणोंदामो में कलाप्रेमी व्यक्तियों को बेच हाले । क्योंकि पूरे दारित करवा के चिरस्थायी कर देना चाहिए। शास्त्र के उतने दाम नहीं उठते जितने एकाध पत्र के। अभी मजीमगज के भण्डार की एक स्वाक्षरी और सैकड़ों पत्रों के लिए बड़ी भारी धनराशि चाहिए। एक रौप्याक्षरी प्रति कल्पसूत्र को अवलोकन में पाई। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गरगरवतावरी कल्पसून इसमें से स्वर्णाक्षरी प्रति का परिचय एक अन्य लेख में १५ पत्रांक ५१ में एक तरफ नेमिनाथ सपरिकर प्रतिमा दिया गया है. यहाँ रोप्याक्षरी प्रति का परिचय देना भी. १६ पत्रांक ५१ में चौदह स्वप्न व नेमिनाथ जन्म ष्ट है। यह प्रति जीर्ण शीणं पोर कुछ पर विहीन भी है। १७ पत्रांक ५१ में नेमिनाय का विवाह के लिए जाना यह सचित्र प्रति पत्रांक ४ से ६३ तक की सचित्र है, पशुपों काबाड़ा देख कर रथ मोडना । मादि के ३पत्र नहीं है पन्त में पE७ में कल्पमत्र समाप्त १८ पत्राक ५२ में नेमिनाथ दीक्षा की १६ पत्रांक ५४ में नेमिनाथ समवशरण होती है जो 1158३ पान गई है। इस प्रति २० पत्राक ५५ में दस तीर्थकर को दो काम मेघागरा है और चारों पोर दिये २१ पत्राक ५६ मे दम तीर्थकर गये बोर्डर (हासिये) में विभिन्न प्रकार की फर पत्तिपा २२ पाक ५८ मे ऋषभदेव जन्म इन्द्रद्वारा मानना व हंस, बा, शुकादि की पतिया चित्रित है प्रथ के २३ पाक ६७ में स्थूलभद्र स्वामी गुफा मे गो मक्षर बहुधा काले पड़ गये हैं व प्रति भी जीर्ग हो गई माय व मिह रूप धारी है। पत्रक ११, २९, ३०, ३४, ३५ ३६, ५" ५३ २४पाक मे पार हों 4.4 मावा महारा ५१, ५६, ६०, और ६३ वा शताब्दी पूरा ही काले २५ पाक ७२ मे प्राचार्य महाराज दोक्षायों को दोना प्रक्षरों से नये लिवा कर डालेगाथे प्रगले और भी हरा पत्रकनहरही है। इस के दिन सुन्दर पोर मुनहरे २६ पत्राक७ मे प्राचार्य महाराज के समक्ष चतुर्विधमत्र है। पाठको की जानकागे क लिए यहाँ कल्पसूत्र और कालकाचार्य कथा:कालकाचार्य कथा के चित्रों की सूची दी जा रही है : २७ पत्राक ८८ मे गजा-रानी (कालकाचार्य के माता१ पत्राक १२ मे हरिणेगमेषी देव पिता) २ पत्राक १३ में वीर गर्भापहार २८ पत्राक ८६ गर्दभिल्ल, सरस्वती व कालकाचार्य ३ पत्राक २१ मे मज्जन शाला में सिद्धार्थ ४ पत्राक २५ मे स्वपन फल पाठक २६ पत्रा० अश्वारोही राजा व कालकाचार्य ५पत्राक ३१ में भगवान महावीर का जन्म ३० पत्राक १२ माही (शाकी) राजा के सामने कालका६ पत्राक ३२ में इन्द्र द्वारा प्रभु का जन्माभिषेक चार्य ७ पत्रांक ३७ में महा और प्रभु की दीक्षा ३१ पत्राक ६२ मे ईट के भट्ट से कालकाचार्य बाग ८. पत्राक ३८ ए में कार दीक्षा नोवे प्रभु के कानों में स्वर्ण सिद्धि ___ कीला ठोंकना, ३२ पत्रांक ६३ मे गर्दभिल्ल का गर्दभी विद्या साधन व पत्राक३८बी में ध्यानस्य प्रभु महावीर कालकाचार्य का तौर संधान । १० पत्राक ४० मे महावीर समवशरण इस समय इस प्रति में ३२ चित्र है, जो पत्र नष्ट हो ११ पत्रांक में ४२ में केवली गौतम गणधर गए उनमें भी कतिपय चित्र अवश्य रहे होंगे। पृष्ट भूमि १२ पत्रांक ४६ में पाश्र्वनाथ माता के ऊपर १४ स्वप्न लाल व क्वचित् ब्लू रंगादि भी है। इस कल्पसूत्र की और नीचे जन्म लेखन प्राशस्ति न होने से किस संवत् में व किसके द्वारा १३ पत्रांक ४८ में पार्श्वनाथ (सप्त फक मंडित) ध्यानस्थ लिखी गई यह नहीं कहा जा सकता। पर अनुपाना. १४ पत्रांक ५० में पाश्र्वनाथ निर्माण यह पद्रहवीं शती में लिखी गई प्रतीत होती है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग की दृष्टि से सम्यग्ज्ञान का निरूपण सरना राम जैन, बड़ोत जान का कार्य पदार्य को जानना है जैसे दीपक का है="निज 'शुद्ध प्रात्मा में स्थिरता ।" यह अतज्ञान कार्य प्रकाश करना है। क्षायोपशमिक ज्ञान है । शायक का वास्तविक रूप नही ज्ञान कुल पांच होते है मति, क्षत, अवधि, मनःपर्यय है। इसलिये इसकी बारहवें गुण तक व्यवहार सम्य. पौर केवल । जिनमे मति, अवधिः, मनःपर्यय तो मोक्ष ज्ञान संज्ञा है। सातवें से बारहवें गुणस्थान के सम्य. मार्ग में कोई खास प्रयोजन भूत है नही । श्रतज्ञान, ज्ञान का फल केवलज्ञान है, क्योंकि बारहवें के अन्त में जब मिथ्यात्व का प्रभाव हो जाता है तब सम्यग्ज्ञान इसका व्यय होकर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। हो जाता है। उस समय से मोक्षमार्ग का प्रग बन जाता 'माये परोक्षम्' इस सूत्र के अनुसार श्रुतज्ञान है और जीव का गुणस्थान चौया हो जाता है । चौये, परोक्ष ही होता है। वस्तु स्थिति से यह परोक्ष ज्ञान पांचवें, छटवें मे जिस जीव के गुणस्थानानुमार जितनी ही है पर द्रव्यानुयोग तथा अध्यात्म की ऐपी कुछ शैली काय का प्रभाव हुआ है उतना तो अन्तरग मे शुद्ध है है कि सातवेंसे बारहवें तक इसको प्रत्यक्ष संज्ञा भी है। जो हर समय संवर निर्जरा का कार्य करता है और कुछ इसके लिये प्रागम में हेतु यह दिया है कि यहां मुनि को ब्रश शुभ राग द्वारा द्वादशाग के सूत्रो के विचार मे प्रात्मा का कोई प्रलौकिक सवेदन होता है और वह प्रयुक्त होता है क्योकि इन तीन (चौथे पांचवे छठे) इतना परमानन्द रूप है कि उस समय होने वाली किसी गुणस्थानों में शुद्धि के साथ शुभ राग भी है अर्थात् परोषह तथा उपसर्ग का भी वेदन नहीं होने देता। बद्धिपूर्वक शुभ विकल्प है। इसलिये इसके प्रखण्ड इसलिये इस सातवें से बारहवें गुगस्थान तक के थत. परिणमन को व्यवहार सम्यग्ज्ञान ही कहते हैं । इसमें शान को वस्तु मर्यादा के अनुसार तो परोक्ष ही कहा जितने प्रश मे शद्धता है उतने प्रश मे सवर निर्जरा है जाता है पर प्रारमानुभव की अपेक्षा प्रत्यक्ष भी कहते और जितने प्रश में राग है उतने प्रश में पुष्पबन्ध है। हैं। यह हमने पागम प्रमाण से लिखा है। हमको स्वयं सातवा गुणस्थान जब पाता है उस समय उम इसका कोई अनुभव नहीं है क्योंकि हम तो धत सम्यग्ज्ञान की दशा एक दम पलट जाती है। सूत्रो सम्यग्दृष्टा है। इस पात्मानुभव मे इतनी ताकत है कि यह दृढ़बद्ध धातिकमों को जड़ मूल से नष्ट कर देता है का बुटिपूर्वक विचार बिलकुल समाप्त हो जाता है और और केवलज्ञान रूपी सूर्य का उदय हो जाता है यहाँ जीव सम्पूर्ण प्रयोग निज शुद्ध प्रात्मा का प्राश्रय करके उसमे का मोक्ष इसलिये नहीं हो पाता कि श्रु तज्ञान मे प्रघाति अडोल, प्रकम्प एवं स्थिर हो जाता है । प्रबुद्धिपूर्वक कर्म को नष्ट करने को सामर्थ्य ही नहीं है। वह सामथ्र्य कुछ राग रहता है अवश्य, पर वह कोई खास गिनती में केवलज्ञान में है। नहीं है, क्योंकि उसकी सामध्यं इतनी हीन हो गई है केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही गुणस्थान तेरहवां बन कि वह अगले भव की देवायु का बन्ध नहीं कर सकता जाता है। ज्ञान परोश से पूर्ण प्रत्यक्ष हो जाता है और पौर बिना बंध के प्रगला जन्म कैसे हो सकता है? व्यवहार सम्यग्ज्ञान से निश्चय सम्यग्ज्ञान बन जाता है। नहीं होता। इसलिये वहाँ से वह श्रु तज्ञान वीतराग इसका फल प्रघाति कर्मों का नाश करके सिद्ध पद की गिना जाता है और उसका फल केवलज्ञान माना जाता प्राप्ति कराना है। है। सातवें से बारहवें गुणस्थान तक इसकी शुद्धि के उपरोक्त लेख को सार यह है कि सम्यग्ज्ञान की उत्तम मश बढ़ते ही रहते हैं पर, दशा इसकी एक ही तीन दशा है। पहली दशा चौथा पांचवां छठा गुणस्थान Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त १८३ जहाँ तत्त्वों की जानकारी है। दूसरी दशा सात वें से उपरोक्त भाव पर से ही द्रव्यसग्रहकार ने यह गाथा बारहवा गुणस्थान जहां प्रात्मा का संवेदन है और रची हैतीसरी दशा तेरहवा चौदहवां गुणस्थान जहाँ इसकी ससयविमोह विभमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स। पूर्ण प्रत्यक्ष प्रात्म-दशा है । व्यवहार निश्चय की अपेक्षा गहण सम्मण्णाण सायारमरण्यभेय तु ॥४२॥ द्रव्य संग्रह दो ही दशा हैं। चौथे से बारहवें तक व्यवहार सम्य अर्थ-अपनी शुद्ध मात्मा के स्वरूप का और पर ज्ञान और तेरहवें चौदहवे में निश्चय सन्यज्ञान । के स्वरूप का सशय विपर्यय मोर अनध्यवसाय रहित प्रत्यक्ष परोक्ष की अपेक्षा तीन दशा हैं। चौथे पाचवे म प्राकार सहित (भेद सहित) जानना मम्यग्ज्ञान है पोर छठे मे परोक्ष ही है। तेरहवे चौदहवे में प्रत्यक्ष ही है। वह सम्यग्ज्ञान अनेक भेद बाला है। और सातवे से बारहवे तक कथचित प्रत्यक्ष पौर भावार्थ-माकार कहकर इमे दर्शनोपयोग से भिन्न कथचित परोक्ष हैं । यह मोक्षमार्ग की दृष्टि से सम्यग्ज्ञान किया है और 'अनेक भेद' कहकर चौथे से बारहवें गुणका कथन है। स्थान में श्र तज्ञान को क्षायोपशमिक ज्ञान होने के कारण, अध्यात्म मे सबसे पहली विचारणीय बात यह है जो अनेक तरतम रूप शुद्धि के भेद है उनका संकेत किया कि अनादि मिथ्यादृष्टि को इस त सम्यग्ज्ञान की है। क्वल श्रतज्ञान क प्रवान्तर शुदि क भदा का बा प्राप्ति केसे हो? इसका उत्तर यह है कि जो जीव भव्य सिद्धान्त दृष्टि के भेद प्रभेदों से यहा क छ प्रयोजन नहीं पवेन्द्रिय सज्ञी हो और काल ग्रादि लब्धियां जिगकी है और यह अनेक भेद की बात वे वलज्ञान मे नही है ऐसा पक गई हों, उस का काम बनता है ऐसा कछ वस्तु भी इससे प्रगट किया है। जैसे 'माकार' लिम्बकर इसे नियम है । वस्तु की मर्यादा ही ऐसी है। इसमें अपने निराकार दर्शन से भिन्न किया है ऐसे ही 'अनेक भेद' वम की बात नही है। हां ऐसा समय मा जाने पर इस लिखकर अभेदरूप केवलज्ञान से भिन्न किया है । जीव को क्या पुरुषार्थ करना पड़ता है जिससे इसका इस श्रुत ज्ञान का ऐसा कुछ अनादि का विकृत रूप मिथ्याज्ञान सम्यग्यान हो जाता है वह है स्व-पर का "भेव है कि इसमें संशय, विपर्यय और मनध्यवसाय ये तीन विज्ञान' जो श्रीदक प्राचार्य महाराज ने सम्यग्जान दोष रहा करते है। सोस्व के स्वरूप की जानकारी में के इस लक्षण में अकित किया है। पौर पर के स्वरूप की जानकारी मे इतना परिश्रम करना सम्यग्ज्ञान का लक्षण (चौथे से बारहवें गुणस्थान होगा कि ये दोप बिलकुल न रहें । ठोक बजाकर पक्का निर्णय हो । प्रचल, प्रकम्प, अडोल जिसको संसार की तक का) कोई ताकत इधर उधर न कर सके। हिला भी न मके। अधिगमभावोणाण हेयोपादेयतच्चाण १५२।। तब श्रुतज्ञान सम्यक श्रु तज्ञान नाम पाता है। संगयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ॥५॥ प्रब विचारना यह है कि वह स्व पर क्या वस्तु है नियमसार जिसका भेदशान करना है वह स्त्र वस्तु है निज शुद्ध अर्थ-हेय (पर) और उपादेय (स्व) तत्वों के मात्मा जो कि ममूर्तिक है और सिद्ध समान है और शेष जानने रूप भाव सम्यग्ज्ञान है और वह सम्यग्ज्ञान संशय सब कुछ पर है । उस प्रात्मा को मात्र केवलज्ञान ने जाना विमोह पौर विभ्रम रहित होता है। है। प्रत; सर्वप्रथम सर्वज्ञ देव जिन भगवान की श्रया करनी होगी और फिर उसके कहे हुए मागम की। वह भावार्थ-अपना निज शुद्ध पात्मा (शायक-अन्स मागम सर्वथा सर्वज के वचनानुसार लिखा प्रा होना स्तत्व) उपादेय है भोर शष सब कुछ (बहिस्तत्त्व) हेय चाहिए । इसलिये ममक्ष को अनेक प्रप्रामाणिक प्रागों है। इस प्रकार संशय विपर्यय, अनभ्यवसाय रहित को छोड़कर सच्चे प्रामाणिक मागम को ढूंढना होगा। निस्सन्देह निश्चित रूप से जानना सभ्यग्ज्ञान है। सर्वज्ञका कहा हुमा पनेकान्तरूप पूर्वापर दोषों Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोलमार्ग की दृषि से सन्याताल का निरुपण फिर उसमें से छः द्रव्य, पचास्तिकाय, नवपदाथी उसमे से बिलकुल हटाना है, और जिसको स्व तत्व का यथार्थ अनेकान्त स्वरूप जानना होगा । ये तो सब निश्चय किया है उममें उपयोग को मर्वया जोरकर पर द्रव्य हैं। प्रजीव तत्त्व है। इनमे रहने वाला एक ध्यान करना है। यह वह कार्य है जो कमो को क्षय प्रनाक्षि मनन्त, स्वसिद्ध आहेतु शुद्ध जीरास्तिकाय करता है। इस कार्य को बिना व परके जाने वैसे ही क मानीवनमा मुनि बना हुमा व्यक्ति कैसे करेगा? तीन काल में नहीं में गुप्त रूप से निहित है जिसके कार येन तत्त कर सकता। इसलिए स्व परका जानना अत्यन्त जरुरी तिरते हैं । वह ऐमा लश मे पायेगा जैसा सिद्ध । उममे है और इतना जरूरी है कि छठा गुणस्थान तो क्या उस स्व पर के जाने बिना चौथा गुणस्थान ही नहीं पाता। पौर मिद्ध में एक बाल भर का अन्तर नहीं है । बस वह शिष्य -यदि पर को न जाने और स्वही स्वको स्वतत्त्व है। निज शुद्ध प्रात्मा है । उपादेय है जीव तत्व जान ले तो क्या प्रापत्ति है? है। शेप छः द्रव्य पचास्तिकाय पोर नव पदार्थ सबकुछ गुरु-पर को जानने की इसलिये जरूरत है कि है जीव तन्व है पर है। इसको देय उपादेय और स्त्र उममे से उपयोग को हटाना है और स्व को इसलिए पर कहते है। इनका स्वरूप जैसा कुछ है वैसा ही लक्ष जानने की जरूरत है कि उममें उपयोग को जोड़ना है। में माना चाहिये । जैसा मर्वज्ञ ने देखा है ठीक वैसा। दूसरे इमलिए भी स्वर को जानने की पावश्यकता है न कमती, न वेशी, न उलटा, जमे का तैमा, सन्देह रहित, कि पर का कोई मश स्व में ना पा जावे और स्व का पक्के अटल विश्वाम को लिए हा ज्ञान में प्राना चाहिए कोई प्रश पर मेन चला जाय। यदि जरा भी किसी जब वह मशय विपर्यय, अनध्य वमाय रहित ज्ञान मे पा प्रश गड़बड़ी हो गई तो फिर भेदविज्ञान न होगा। जाएगा तब स्व पर का ज्ञान होगा और तभी मम्यग्दर्शन तोमरे भेदविज्ञान हमेशा दो मिले हए पदार्थो मे ही पकप्रनादि का कुवतज्ञान मुश्र त मै परिणत हो किया जाया करता है जमे दूध पानी में | मोना कीट में जाएगा। उम ममय चौथा गुण स्थान पायेगा पोर जीव मादि । उन दोनों को जानकर फिर भिन्न भिन्न किया मम्यग्दष्टी नाग को प्राप्त होगा। फिर पाचवे छठे जाता है। गुणस्थान मे अणुव्रतों महाव्रतो को धारण करता हमा शिष्य-उस भेदविज्ञान द्वारा कैसा अपना निज इस भेद विज्ञान का निरन्तर प्रश्याम करके इमे विशेष शुद्ध पात्मा हाथ लगेगा जिससे सातवाँ गुणस्थान वाला उज्ज्वल और दृढ बनाता रहेगा। एक क्षण के लिये भी प्रात्मध्यान द्वारा अनुभव करेगा? इसका उत्तर स्वयं इसका विरह न होने देगा । इस प्रकार इन तीन गुणस्थानों प्राचार्य महाराज निम्न गाथाहारा देते हैंकी दशा को पार करेगा। जो पस्सदिपप्पाण प्रब' अणण्णमविसेसं । शिष्य-यदि जीव उपरोक्त परिश्रम न करे और अपवससन्तमझ पस्सवि जिण सासण साजर समयसार दिगम्बर भिक्षु हो जाय तो क्या फिर उसका काम न अर्थ-जो सम्यग्दृष्टी मुनि मात्मा को प्रबद्धस्पृष्ट बनेगा? उत्तर गुरु महाराज स्वय गाथा मे देते हैं अनन्य, प्रविशेष, तथा उपलक्षण से नियत पोर मसंयुक्त मागमहीगो समणो णेवप्पाणं पर वियाणादि। इन पांच भावों वाला देखता है"अनुभव पूर्वक जानता है अपिजाणतो पट्ट लवेदिकम्माणि किष भिक्खू ३-३३॥ वह सम्पूर्ण जिनशासन को देखता है-जानता है कि जो प्रवचनसार जिन शासन बाह्य द्रव्यश्रत तथा अभ्यन्तर शान रूप प्रयं-प्रागमज्ञान रहित श्रमण प्रात्मा को (निज भाव श्रत वालाहै । को) पौर पर को नही जानता है। पदार्थों को नही (१) प्रबद्धस्पृष्ट-व्यवहार से प्रात्मा द्रव्यकर्म से जानता पा साधु कर्मों को किस प्रकार क्षय करे? बद्ध पौर नोकर्म से स्पृष्ट होने के कारण बडस्पष्ट है नहीं कर सकता। किन्तु निश्चय से इनसे रहित होने से पडस्पष्ट है। भावार्थ-क्या पाप गुरु देव के भाव को समझे ? (२) अनन्य-व्यवहार नप से नर, नारक मावि यह कहना चाहते हैं कि मागे सातवा गुणस्थान है। नाना पर्यायल्प होने से अब मन्य है पर निश्चय से इन उसमें उपयोग को, जिसको पर तत्व निश्चय किया है से रहित होने से मनन्य है। TO Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त (६) नियत-व्यवहार से ज्ञान, दर्शन भादि के तक छठ गुणस्थान में है तब तक वह तो व्यवहार से पर्याय में पविभाग प्रतिग्छेदों की हानि वृद्धि होने से मति इतकेवली है और जो सारे द्वादशांग को भले न जानता झान मावि ज्ञान तथा चक्ष दर्शन मादि दर्शन रूप परि• हो किन्तु उसके मक्खन स्वरूप निज शुरु मारमा को गमता होने से मनियत है किन्तु निश्चय से ज्ञान मोर मप्रमत्त दशा में अनुभव करता है वह तो निश्चय से बत. वर्शन मादि से परिपूर्ण होने से नियत एकरूप है। केवली है। इतनी इस सम्यक् श्रुतवान की महिमा है। (४) विशेष-व्यवहार से ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व सातवें से बारहवें गुणस्थान तक के सम्यज्ञान का निकपादि गुणों से, प्रगुरुलघु की पर्यायों से तथा प्रसंख्यात पण करता है। प्रदेशों से विशेषतावाला है क्योंकि इनके साथ उस का भागे तेरहवें चौदहवें गुणस्पान के सम्पग्मान का लक्ष्य लक्षण भेद है पर निश्चय से सब विशेषतामों से रहित विशेष है। निरूपण इस प्रकार हैप्रसंयुक्त-व्यवहार से मिथ्यात्व, क्रोध मादि राग जारणदि पस्सदि सम्वं ववहारणएण केवली भगवं । भावों से संयुक्त होता है पर निश्चय से इन भावों से केवलणाणी जाणदि पस्सदि रिणयमेण अपारणं ॥१४६ रहित होने के कारण असंयुक्त है। नियमसार ऐसे पाच भावों से युक्त प्रात्मा को जो पप्रमत्त पर्ष-व्यवहार नय से केवली भगवान सब को दशा मे पाकर अनुभव करता है मानो वह सारे द्रव्य जानते हैं और देखते हैं। निश्चय से केवलज्ञानी पारमा भावरूप श्रुत का अनुभव करता है क्योंकि सम्पूर्ण श्रत का मक्खन यह भास्मा ही है । जिसने इनको अनुभव कर को (स्वयं-निज शुद्ध पारमा को) जानते है देखते ।। लिया उसने सभी पागम को जान लिया। शिष्य-बारहवें गुणस्थान से इसमें क्या पन्तर बिलकूल इसी बात को श्री प्रवचनसार मे भव्य पहा? शम्मों में इस प्रकार कहा हैजो हि सुदेण विजाणदि अप्पारणं जाणगं सहावेण । ___ गुरु-वहाँ छपस्थ पुरुषार्थपूर्वक अपने उपयोग को पर से हटाता या मोर स्व में स्थित करता या महान त सयेकेवलिमिसिगो भांति लोयप्पदोवयरा ॥३३॥ परुषार्थ करना पड़ता था जिसको कोई भी छपस्थ समयसार ६,प्रवचनसार ३३ मन्तम हर्त से अधिक नहीं कर सकता। उसके फलस्वरूप मर्ष-जो अतज्ञान के द्वारा स्वभाव से शायक घातिकर्म का नाश होता है और उस पाति कर्म ने जो (शायक स्वभावी) पास्मा को जानता है उसे लोक के प्रात्मा का स्वभाव तिरोभूत कर दिया था वह स्वयं प्रकाशक ऋषीश्वरगण निश्चय से श्रतकेवली कहते प्राविर्भूत हो जाता है। इसकी स्वयंभू संज्ञा हो जाती है। फिर वह स्वतः अनन्त काल तक स्व में स्थित रहता भावार्थ-कुछ विद्वान इस गाथा को चौथे गुणस्थान है। उपयोग को पुरुषार्थ पूर्वक स्व में जोड़ने की पावकी कहते है पर ऐसा नहीं है। यह गाथा तो सातवें से श्यकता नहीं रही और इतना ही नहीं। उपयोगको जो पुरुषार्थ पूर्वक पर से हटाता था उसकी भी आवश्यकता बारहवें गुणस्थान की है। इसका भाव ऐसा है कि जो नही रही अर्थात् उपयोग लगाकर पर का मानना ही नहीं सम्यग्दृष्टि मुनि सातवें गुणस्थान में ज्ञायक स्वभावी रहा किन्तु पर स्वतःझलकता है और स्वत: जाना जाता अपन निज शुखमात्मा का भाव तशान वारा अनुभव है जिसको केवली का व्यवहार से पर का जानना कहत करता है वह निश्चय से श्रुतकेवली है। चाहे गणपर हैं। यह सम्यग्ज्ञान की प्रतिम उत्कृष्ट दशा है जिसको भी हो, जो पूर्ण द्वादशांग को जानने वाला है वह जब निश्चय सम्यग्ज्ञान कहते हैं। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसमाज के समक्ष ज्वलंत. प्रश्न · कुमार चन्द्रसिंह बुधोरिया, कलकत्ता श्री रघोरिया जी ने प्रस्तुत निबन्ध में, जैन समाज के बिखरे तत्त्वों को एक सूत्र में प्राबद्ध होने का निमन्त्रण क्या है । एकता की बात नई नहीं पुरानी हैं, समय-समय पर चली है और चल-चल कर छूटती रही है। यह सच है कि प्राज की परिस्थितियां कुछ अधिक प्रतियोगात्मक हो गई है और हमें एक होना चाहिए। प्रश्न केवल महावीर जयन्ती के अवकाश का ही नहीं है पौर भी अनेक है। दिल्ली विश्वविद्यालय में 'बौद्ध चेयर' स्थापित है महावीर पीठ" नहीं, मागरा विश्वविद्यालय में जैन दर्शन का कोई स्वतन्त्र प्रश्नपत्र नहीं है, उत्तरप्रदेशीय विश्व विद्यालयों में प्राकृतभाषामों के अध्ययन-अध्यापन का कोई सुबीता नहीं। यह सब एकता के बल पर ही निर्भर है। हो कसे? ... -सम्पादक]. "जैन-समाज के प्रतीत और वर्तमान का चित्र जब पीढी के नेतामों और कर्णधारों की शिथिलता के कारण, कभी दृष्टि के सामने खड़ा होता है तो लार्ड कर्जन के इस प्राज स्थिति विल्कुल भिन्न और विपरीत है। समाज पाज कथन की ओर कि-"हिन्दुस्तान की धन-दौलत का स्वार्थपरता, फिरकापरस्ती और दलगत भावनामो से अर्थाश जैनियों के हाथ से गुजरता है"... ध्यान अनायाम आक्रान्त है, जिसका परिणाम सारे ममाज को भोगना ही माफष्ट हो जाता है । शीघ्रता से बदलने वाली अर्थ पड़ रहा है । जिस जैन-ममाज की जन-जीवन के क्षेत्र मे व्यवस्था और धन-सम्पदा के विकेन्द्रीकरण के इस काल प्रमुखता रहो, प्राज वह परमुखापेक्षी बनता जा रहा है। में यह कोई बहुत अच्छी मिशाल नहीं मानी जायेगी। देश का यह अग्रणी समाज आज लगातार उपेक्षित होता फिर भी, इस कथन से कम से कम इतना तो स्थिर हो जा रहा है। जाता है कि, लार्ड कर्जन के जमाने में जैनियों की जो देश मे राष्ट्रीय सरकार की स्थापना के बाद भारत की स्थिति थी उसमें भोर प्राज की स्थिति मे कितना अन्तर विभूतियों को जयन्तियाँ एवं पुण्य-तिथियां मनायी जाने मा गया है। लगी हैं । दिवंगत विभिन्न नेतामो की जयन्तियों पर जैन-समाज की उपलब्धियों का एक बड़ा कारण यह रहा विशेष डाक टिकट जारी होने लगे हैं और उन दिनों है कि समाज के नेतागण पुरुषार्थी जीवन व्यतीत करने सरकार की प्रोर से ड्रट्रियाँ घोषित की जा रही हैं। के साथ ही समाज के अधिकार एवं सामूहिक हित के लेकिन घोर सन्ताप की बात है कि, सारे संसार को लिए सदा सर्वदा जागरूक रहते थे । प्राधिक साधनों के अहिंसा, अपरिग्रह और समभाव का अमूल्य सन्देश प्रभाग में जो व्यक्ति अपने गुणों और हुनरों का विकास देने वाली मानवजाति की महान विभूति. भगवान नहीं कर पाते थे, समाज के सम्पन्न व्यक्तियों के ध्यान महावीर की जन्म अथवा निर्वाण तिथियों पर अखिल में यह बात माते ही तत्काल उनकी सहायता की व्यव.. भारतीय स्तर पर समारोह करने की बाते तो दूर स्था हो जाती थी। समाज के सुख-दु.ख में शामिल होने रही, हम इस परम पावन दिवस पर सरकारी उद्री के साथ ही समाज के उत्थान एवं अभ्युदय की भावनाये भी स्वीकृत नहीं करा पाये हैं। इसका प्रधान कारण उस समय समाज के नेताओं के हृदय में कूट-कूट कर समाज की शिथिलता है। भी हुई थी। पुरुषार्थ मोर बुद्धिकौशल पर प्राधारित जो जैन. लेकिन कालान्तर के प्रभाव से हो अथवा वर्तमान समाज वाणिज्य-व्यवसाय के क्षेत्र में ही नहीं, जन-जीवन Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त “के प्रत्येक क्षेत्र में अपना प्रमुख स्थान रखता था वह माज कारण प्राज समाज विश्वलित है। उसकी भाषाज का क्रमशः पिछड़ता जा रहा है, इसके कारणो की गहराई मे माज कोई प्रभाव नहीं है। हम चाहे तेरहपंथी हों अथवा प्रवेश करने की क्या हमने कभी कोशिश की है ? स्थानकवासी या मन्दिर मार्गी, श्वेताम्बर हों या दिगम्बर शायद इमके दो प्रमुख कारण हैं। पहला संगठन का सम्प्रदाय-गत संकीर्ण भावनामों को त्याग कर एकता के प्रभाव और दूसरा समाज की इकाइयों तथा परिवार दृढ़ पाश में पावर हा मोर एक जैन समाज के रूप में एक व्यक्ति की प्रतिभा, प्राधिक क्षमता में क्रमशः ह्रास । सोचे और कार्य करे -जैन समाज अस्तिस्व कायम रखना जैन ममान को यदि फिर से देश का अग्रणी समाज चाहता है तो इसके अतिरिक्त और दूसग मागं नही बनना है, तो उसके लिए उसे अपने सगठन एवं अपनी है। इकाइयों की शक्ति को दृत करना होगा और उन्हे वन- परिवनित परिस्थितियों में सोचने, विचारने और मान वातावरण के अनुकूल मोडना होगा। कार्य करने के तौर-तरीफ भी बदले हैं और भीनता से हमारे देश में गणतान्त्रिक प्रणाली का उदय हो रहा बदलने रहंगे । समाज को एकता के सूत्र में प्रावत कर है। गणतान्त्रिक प्रणाली मे व्यक्ति का नही, समुदाय का एवं उपमे सगठन की भावना जपत करने के लि! महत्त्व होता है। व्यक्ति कितना ही गुणशाली एव बडा समाज के प्रगुणो और कण धारो को नये कार्यक्रम ग्रहण हो, जब तक उसके पीछे मुमगठित जन-समुदाय को करने होगे। बदली परिस्थितियों में केवल पञ्च शक्ति नही होती तब तक उसका महत्व नहीं होता । गण- कल्याणक पूजन एवं व्यापाणमालामों के पायो मन मात्र तान्त्रिक मागन प्रणाली के उदय की इम बता में जो से ही अपक्षित एकता का प्राविर्भाव नही होगा । मामाममाज या समुदाय शिथिल रहेगा, प्रकर्मण्य रहेगा और जिक सगठन एवं प्रगति के लिये हमें मध्यात्मिक क्षेत्र अपने सामूहिक मधिकागे के प्रति सजग और जागरूक नही के बाहर भी व्यापक कार्यक्रम बनाने होंगे। ' रहेगा, वह अपना महत्व खो देगा। उस समाज की कोई स्वतन्त्रता की उगलन के बाद हमारे देश में जनप्रतिष्ठा नही रहेगी। यही बात हमारे जैन ममाज पर भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नपी उपल-पल मवी है। लागू है। प्रत्येक समान मांग बढ़ने के लिए हाथ पर फैला रहा जैन समाज एकत्र होकर, एक घर में महावीर है। लेकिन यह माधन सम्पन्न जैन-पमात्र ही है, जिसमें जयन्ती एव निर्वाण दिवस" पर मार्वजनिक सुट्टी के लिए प्राज अजीव निर्जीवता छायी हुई है। स्वतन्त्रता के इन प्रावाज बुलन्द करे और इसके लिए सुमगठिन प्रयाम करे १५-१६ चर्चा के बाद भी हमारे ममाके मेतामों एव तो फिर इस मांग को ठुकराना किसी के वश की बात नही सामाजिक सस्या प्रो के सामने समाज का वास्तविक चित्र रह जायेगी। मरकार को समाज की मामूहिक मांग पर नही है । और न इगके लिए उनके पास समय ही प्रतीत झुकने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। होता है। लेकिन यह तभी सम्भव है, जब हममे समाज के समाज के प्रतीत की गुणगरिमा के बखान मात्र में ही एकाकरण की भावना का उदय हो। वर्तमान युग में जन- वर्तमान पीढ़ी के कर्णधारों पोर नेतामों का अधिकाश शक्ति और सगठन का बहुत बड़ा महत्व है। जैन-समाज समय व्यतीत हो जाता है । ममान एवं पाज के नाएक तो अन्य समाजों की तुलना में माकार में यो हो युवकों के सामने क्या क्या समस्याएं है और उनका छोटा है, तिम पर भी, इस समय फिरकापरस्ती का निराकरण कैसे हो सकता है, उसके प्रति हम उदासीन शिकार है। होते है । न तो सामूहिक रूप से चितन, मनन एक समाज के विभिन्न फिरके अपनी अलग-अलग डफली विचार विमर्श की कोई व्यवस्था है और न उसकी कोई बजा रहे हैं और अलग-अलग राग अलाप रहे हैं, जिसके जरूरत ही महमूस की जाती है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के समक्षाबलंत प्रश्न देश में परिवर्तनों की बात सोपा गयी है। जिधर सारी जिम्मेवारी सरकार पर छोड़ कर हाथ पर हाथ इष्टि जाती है, वहीं परिवर्तनों की भरमार दिखाई देती घरे नहीं बैठ सकता। ।। जन-जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जो परिवर्तनों समाज को शीघ्रता से परिवर्तित होनेवाली परिस्थिके प्रवाह से अछूता हो। तियों और नये वातावरण के अनुकूल बनाने के लिए परि. पूर्ण जागरुकता पौरतैयारी कोपग पग पर पावश्यकता है। स्वाधीनता लाम करने के बाद हमारी राष्ट्रीय हमें सुनियोजित एवं योजनाबद्ध पद्धतियों में अग्रसर होना सरकार की योजनाएं और गतिविधियां भारतीय समाज होगा। तभी हम इन परिवर्तनों का लाभ उठा सकते हैं। पौर उसको इकाइयों-सम्प्रदायों के ढांचे को तेज रफ्तार बदली हुई परिस्थितियां और प्रबाध रूप से होने वाले से बदल रही हैं । धन सम्पदा के उत्पादन एवं वितरण ये परिवर्तन समाज के नेतामों के लिए नया दायित्व की पुरानी प्रणालियों शीघ्र गति से परिवर्तित हो रही हैं । लेकर पाये है । हमे अपने लिए ही नहीं, भावी पीढ़ी के साथ ही, सामाजिक मादर्श भी तेजी से बदल रहे है और प्रति भी अपने गुरुतर दायित्व का निर्वाह करना है जीवन के नये मूल्यों का निर्माण हो रहा है। समाज के नेताओं, कर्णधारो,विचारकों और शुभहमारा नवजात प्रजातन्त्र समाजवादी समाज-व्यव चिन्तकों को परिवर्तनशील स्थितियों के प्रति पूर्णरूप से स्था की पोर अग्रसर हो रहा है। दृष्टिकोण एवं जीवन जाग्रत रहना होगा मोर इस नये उत्तरदायित्व को ग्रहण यापन के तरीकों के माथ सयुक्त परिवार का ढाँचा भी करना होगा एव बदली हुई स्थितियों के अनुरूप समाजका बदल रहा है। नेतृत्व तथा मार्ग दर्शन करना होगा। यह प्रतियोगिता का युग है । प्रारम्भ से ही व्यक्ति हमारा प्रतीत जितना गौरवमय रहा हो, पाज को शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए, रोजगार के लिए, उसकी गुण गरिमा का बखान करने मात्र से काम नही वाणिज्य व्यवसाय में सफलता के लिए प्रतियोगिता का : चलेगा । वर्तमान स्थिति के प्रति प्राखमूद कर बैठे रहना सामना करना पड़ता है-यहा तक कि विवाह के इच्छुक समाज के प्रति खतरनाक साबित होगा। मवयुवकों पोर नवयुवतियों को भी प्रतियोगिता का प्रश्न यह पैदा होता है कि, हम समाज को इस घोर शिकार होना पड़ता है। प्रतियोगिता के लिए कैसे तैयार करे? इसके लिये हमें हमारे देश की वर्तमान शिक्षा एवं प्रशिक्षण पद्धति में कोई भी कार्य प्रारम्भ करने के पूर्व समाज की वास्तविक मानिक प्रतियोगी विश्व की प्रावश्यकतामो को पूरा स्थिति का पता लगाना होगा । यह देख कर दिल को करने की सामथ्र्य नहीं है। इसके अलावा, पाठ्यक्रमों में ठेस लगती है कि, साधन सम्पन्नता के बावजूद भी अपने अनिवार्य सांस्कृतिक एवं सृजनात्मक कार्य-कलापों का समाज की वास्तविक स्थिति का सम्पूर्ण चित्र हमारे समाविशन होना छात्रों के व्यक्तित्व के विकास में भारी सामने नही है। इसे जानने के लिए कल्पना या प्रादाज बाधक है। पोर वर्तमान युग मे वैज्ञानिक एवं तकनीकी से काम नही चल सकता। इसके लिए हमे माधुनिक शिक्षा के बिना जीवन में प्राधिक सफलता एवं प्रतिष्ठा वैज्ञानिक तरीकों को अपनाना होगा। साख्यिक पद्धतियों प्राप्त करना बहुत ही कठिन है। द्वारा सामाजिक सर्वेक्षण (Sociological Survey by प्रब समय मा गया है, जबकि प्रत्येक भारतीय नाग- Statistical Methods) से समाज की स्थिति का वास्तरिक, कुटुम्ब, सम्प्रदाय निरंतर अपनी योग्यता एवं विक चित्र उपलब्ध हो सकता है। सक्षमता की जांच करें कि प्रतियोगिता का वह किस स्वाधीनता की प्राप्ति के पश्चात् प्रजातान्त्रिक ढांचे प्रकार सरलतापूर्वक सामना कर सकता है। प्रतएव, जो के अन्तर्गत देश के राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक. समाजसततजागरूकनहीं रहेगा, वहमपने अस्तित्व को ही खो सास्कृतिक एव जन जीवन के अन्य विविध नेत्रों में बत गा। ऐसी परिस्थितियों में कोई प्रगतिशील सम्प्रदाय [ष पृ० १९२ पर] साग Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत श्री गुणचन्द्र परमानन्द शास्त्री भट्टारक गुणचन्द्र मूलसघ सरस्वतिगरछ बलात्कार- पद्यों में समाप्त हुई है, और दूसरी रचना ६५ पद्यो में गण के भट्टारक रत्नकीतिके प्रशिष्य, और रत्नकीर्ति द्वारा- पूर्ण हुई है अन्य सभी रचनाए इनसे परिमाण में छोटी है। दीक्षित भव्यशकीति के शिष्य थे। यश कीति अपने प्रस्तुत 'राजमतिराम' में जैनियो के २२वें तीर्थङ्कर समय के अच्छे विद्वान थे। यश-कीर्ति का स्वर्गवास भगवान नेमिनाथ और राजमति का जीवन-परिचय दिया भीलोडा (गुजरात) मे स० १६१३ में हुआ था १ । और गया है जब भगवान नेमिनाथ का विवाह सम्बन्ध राजा इसी वर्ष सं० १६१३ मे गुणचन्द्र का पट्टाभिषेक सावल उग्रसेन की पुत्री राजकुमारी (राजुल) के साथ होना गाँव में हुआ था २। यशः कीति सस्कृत और हिन्दी भाषा निश्चित हुअा और जब बारात सज धजके चली तब बारात के अच्छे विद्वान और कवि थे । पापको दो कृतियों सस्कृत मे नेमिकुमार रथ में बैठे हुए जा रहे थे। मार्ग में एक भाषा मे उपलब्ध है। अनन्तनाथ पूजा जिसे कवि ने बाड़े मे घिरे हुए पशु समूह के चीत्कार शब्दो को सुनकर सं० १६३० में हुंबड वशी सेठ हरकचन्द दुर्गादास नामक और निरपराध पशु समूह को देखकर नेमिकुमार का हृदय बणिक की प्रेरणा से, सागवाड़ा के प्रादिनाथ मदिर मे दया से भर गया, नेमिकुमार ने सारथी से रथ रुकवाकर रहकर उन्हीं के व्रत उद्यापनार्थ बनाई थी। दूसरी रचना 'मौनवत कथा है जिसे उन्होंने संस्कृत मे रचा है ३ । प्राप पूछा कि ये पशु क्यों घिरे हुए है ? मारथी ने कहा प्रभो, आपके विवाह मे ममागत अतिथियों के लिए इनका वध संस्कृत के साथ हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान थे, पाप की अनेक रचनाएं पद्य मे लिखी गई है। अनेक पद किया जायगा। इतना मुनने ही नेमिकुमार रथ से उतर भी मिलते हैं। परन्तु उन रचनाओं की भाषा पर राज पडे और सोचने लगे कि मुझे उम विवाह से क्या प्रयोजन स्थानी और गुजराती का भी प्रभाव प्रकित मिलता है । है। जिसके लिए निरपराध पशुमों को सताया जाय । अजमेर शास्त्र भडार के एक गुच्छक में आपकी अनेक उन्होंने तत्काल ही पशुओं को छुड़वा दिया और हार ककण मुकुट आदि बहुमूल्य वस्त्राभूषणो को उतार कर हिन्दा रचनाए सगृहीत थी, उन्हें देखकर ही कुछ नोट्स में लिए थे। उनका सार प्रस्तुत लेख में दिया गया है। ले तपश्चरण द्वारा प्रात्म-साधना करने लगे । इधर जब यह फैक दिया, और वे गिरनार पर्वत पर चढ़ गए। और दीक्षा भट्टारक यशःकार्ति ने स० १६५३ में सागवाड़ा में समाचार राजमतीको मिला, तब वह मूछित होगई, शीतलोप. देहोत्सर्ग किया था । उक्त गुच्छक में प्रापकी निम्न रचनाएं उपलब्ध हैं - चार द्वारा जब मूर्छा दूर हुई, तब माता पिता ने पुत्री को राजमति सतुरासु । दयारस रास, आदित्यव्रत कथा, बारह बहुत समझाया परन्तु राजुलने उत्तर दिया, कि इस भव के पति देव तो नेमकुमार ही है । अन्य से मुझे प्रयोजन ही मासा, बारह व्रत, वीनती, स्तुति नेमिजिमैन्द्र, ज्ञानचेतानु क्या है ? मैं भी जिनदीक्षा लेकर तपश्चर्या द्वारा प्रात्मप्रेक्षा, पशु वाणी और पद । इन मे प्रथम रचना २०४ साधना करूंगी। उक्त रासा मे कवि ने राजुल और सखी १. जैन सि० भा० भा० १३ पृ० ११३ । के सवाद तथा प्रश्नोत्तर को कितने सुन्दर शब्दो मे व्यक्त २. जैन सि. भा. भा० १३-पृ० ११३ । किया है उससे राजुल के सतीत्व पर अच्छा प्रकाश पड़ता ३. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० १ पृ. ३४, ८० । ४. जैन सि. भा. भा०१३ पृ० ११३ । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनेकान्त सखी राजकुमारी से कहती है कि वर्षा ऋतु मा गई जब लग रहइ उसासु, है, पाषाढ का महीना है, देश मे चारों ओर बादल धुमड तब लगु पेम न छाडिए ॥४॥ रहे है, नन्ही-नन्ही बूंद भी पड़ रही है, चातक 'पिउ-पिउ' राजकुमारी सखी की रागरस भरी बातो को सुनकर शब्द सुना रहा है, बिजली जोर से कड़क रही है, जो जो उत्तर देती है वह कितना सुन्दर है और शील की दढता पति के विरह की ससूचक है। नारी जन पचम स्वर मे पति के को व्यक्त करता है। हे सखि तू सती के स्वभाव का नही गीत गाती हैं, दादुर बोल रहे है, हृदय उमड़ रहा है, जानता । अपना पति अमृत के समान है, पौर पर पुरुष वह स्थिर नही रहता । समार में भोग भले है राजकुमारी विष के समान । ऋतु अषाढ़ मे हृदय उमड़ता है, तब मेरी बात सुनो, दूध भात मीठा है। अन्य जन्मों को सती पति के पावन गुणो का स्मरण करती है, उसका मन कौन देखने गया है, अतएव जब तक हस शरीर में है, हर समय पति के गुणों में अनुरक्त रहता है, वह उनके तब तक ही यह सब व्यवहार है, हे मखि स्वर्ग नरक कुछ सुम्व में मुखी और दुःख मे दुखी रहती है। सती का मन भी नही है, समार यो ही भूल रहा है। भोगों के किये पति से दूर नहीं रहता। हे सखि, स्वर्ग और नरक यही पति का समागम ही भला हे, सो जब तक शरीर मे पर है, तू इनका विचार क्यों नहीं करती, जो पर पुरुष उच्वास है, तब तक प्रेम का परित्याग न करना से गग करती है वह पाप के फल स्वरूप नरक को जाती चाहिए। जैमा कि कवि के निम्न वाक्यो से प्रकट है- है और वहाँ अनेक प्रकार का सताप सहती है, किन्तु जो 'तब सखि भणहन जानसि भावा, शील संयमादिका दृढता से पालन करती है वह कभी हति प्रसाढ कामिनि सहलाया। दुर्गति में नही जाती। और न उसे दुःख ही भोगना पडते बावर उमडिरहे चहुँ देसा, है। शील के पालन से देवगति मिलती है । हे बाला! विरहनि नयन भरह अलिकेसा ॥३७॥ तू शील की महत्ता को नही जानती । नारी का शील ही नन्हीं नन्हीं बूंद धनागम मावा, भूषण है, वही ससार के दुखों से जीवका सरक्षण करता चातक पिउ पिउ शम्ब सुनावा । है। जो शील का पालन नहीं करते, उन्हें ससार मे व्यर्थ दामिनि बकित है अति भारी, ही भ्रमण करना पडता है। और जन्म भी उनका सफल विरह वियोग लहरि अनिवारी ॥३८॥ नही हो पाता है। भामिनि पियगुन लवह प्रपारा, यह शरीर हड्डी, मज्जा, चबी, खून और पीब प्रादि पंचम गति मधुर झुणकारा । मलो से भरा हुआ है, दुर्गधित है, क्षणभगुर है-विनाबाएर बोल गहिर अमोरा, शीक है, ऐसे शरीर से भव-भीरु पुरुष कैसे राग कर हिमउ उमगधरत नहि तोरा ॥३६॥ सकता है ? अतएव जब तक आयु नही गलती तब तक भोगु भले सुनि राजकुमारी धर्म का साधन करो, जब धर्म का पालन होने लगता है हमरी बात सुनह जगसारी। तब अनायास ही सुख मिलने लगता है, और मानव जन्म दूधभातु मीठउ उमरी माया, भी सफल हो जाता है। जैसा कि कवि के शब्दों से प्रकट अवर जनम को देखन गया ॥४०॥ दोहा- अब लगु हंस सरीर महि, तब लग सब विवहार। राजमती सुनि बोलत वयना, हे सखि सुरण न नरफुकहा, भूला सबु संसाए -४१॥ पिउ अपना मन्नत रसधारा, सोरठा-कोजा भोग विलास, अपर पुरिष विव सम प्रचारा॥ पिय संगम सखि हा भला। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा फूल और अंगारे, लेखक मुनि श्री नवमल जी, प्रकाशक-सेठ चांदमल जी बांठिया दृस्ट, पाश्र्वनाथ जैन लायरी, जयपुर १०, ८३, मूल्य ३ १०, वि० स०-२०१७ । इम अल्पकाय पुस्तक में मुनि जी की ६१ कवितामों का संकलन है। वे वि.स २००४ से २०१६ के मध्य ममय-समय पर लिखी गई हैं। मुनिजी एक माने जाने मातिप्राप्त विद्वान् है । दर्शन और शोध में उनकी महज गति है। वही उनका मुख्य विषय है। मैंने देखा है कि दर्शन की मूश्म परतो मे घंपता दार्शनिक कवि बन जाता है और कविता की अनुभूतियों में रमता कवि दार्शनिक हो उठता है। मेरी दृष्टि मे 'दर्शन' कारा चिन्तन नही है। उसकी तह में पडी 'दृश्' धातु भावोन्मेष के बिना साधक को दृश्य नहीं बनने देती । इसी कारण जैनाचार्यों ने 'दर्शन' का प्रर्थ 'श्रद्धान' लिया है। उसका भावना से सीधा सम्बन्ध है । तो मुनि जी का 'दर्शन' जब उमड़ा, कविता के रूप में बह पड़ा । 'दर्शन' का यह भावपरक प्रवाह जैन परम्परा के अनुरूप ही है । अनेक जैन कवियो ने 'दर्शन' को भावनामों को थपकियों में महेजा है मुनिजी ने मानव जीवन के इस महत्र सत्य को कि उसमें कठोरता, कोमलता दाहकता शीतलता तथा स्थूलता और सूक्ष्मता का समन्वय होता है, महज भाव-भीनी भाषा में अभिव्यक्त किया है। उनकी यह कृति मानवदर्शन को सहन अभिव्यक्ति है। 'निधिकला' के माधक की यह कल्पना पाठक को निर्विकल्प' मे लीन कर देती है, कोई इसे पाश्चर्य माने, मैं तो सहज स्वाभाविक ही कहता हूँ। मुनि जी की विशेषता है-मरलता और उन्मुक्तता। वह उनकी ममूची कवितामों में झलकती है, चाहे बात गारों की हो या कठोरता की। अभी तक नो उन पर किसी 'वाद' का प्रभाव नहीं है । वे काव्यशास्त्र की, रूढियों की पौर वादों के घेरों की बन्दिशो में बंधने वाले जीव नहीं हैं। दूसरी पोर अग्रेजी कविता के अनुकरण पर हिन्दी मे लय और विदेशी भावनाप्रों के महारे नवीनता को डीग भी उन्होने नहीं हाकी है। उनके विचार मूक्ष्म और मौलिक हैं। उन्हें सहज बोध अभिव्यक्ति देने में भी वे अकेले हैं। प्राधुनिक हिन्दी काग को उनकी यह देन अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस कृति में उनकी प्रत्येक कविता वन की लहलहाती टहनी-सी खूबसूरत है। 'पीड और विहग' की कतिपय पंक्तिया देखिए रंग क्या वह आह मिश्रित, अश्र कण से धुल न जाए। ग्रन्थि क्या वह प्रेमके प्राघात, से जो खुल न जाए। अश्रु बन मिलते रहो तुम धार बन चलता रहूँगा। विजय क्या वह हार की, अनुभूति ले जो मुड न जाए? हृदय क्या यह वेदना के, तार से जो जुड़ न जाए। नीड़ बन मिलते रहो तुम, विहग बन पलता रहूँगा ॥ जैन वर्शन के मौलिक तत्व, प्रथम भाग, लेखक-मुनि श्री नथमल जी, प्रबन्ध सम्पादक-छगनलाल शास्त्री, प्रकाशक-मोतीलाल बेंगानी चेरिटेबल ट्रस्ट, ११४ मी. खगेन्द्र चटर्जी रोड, काशीपुर, कलकत्ता-२, प्रबन्धक-- पादर्भ साहित्य संघ चूक (राजस्थान), पृष्ठ संख्या-५४६, मूल्य-१०००। प्रस्तुत ग्रन्थ 'जैन दर्शन के मौलिक तत्व' का पहला भाग है । इसमें पाँच खण्ड हैं-जैन संस्कृति का प्रागऐतिहासिक काल, ऐतिहासिक काल, जैन साहित्य, जैन धर्म का समाज पर प्रभाव तथा संघ व्यवस्था पौर चर्या । इन खण्डों में ३१ अध्याय है। अन्य में प्राचार्य तुलमी विरचित 'जैन सिद्धान्त दीपिका' और 'भिक्ष न्याय कणिका'का तार है और कुछ विषय प्रतिरिक्त भी हैं। मुनि जी ने पहले और दूसरे खण्ड को हृदयहारी बना दिया है। इनमें Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ साहित्य-समीक्षा ऋषभदेव, भरत और बाहुबली से सम्बन्धित घटनाओं का इतिवृत्त है. किन्तु उनके निरूपण में इतिवृत्तात्मकता नहीं है भावुक स्थलों पर लेखक भी भावुक हो उठा है। इससे इतिहास की लता का परिहार हुआ है। इसे पढ़तेपढ़ते पाठक विभोर हो उठेगा और उपन्यास जैसा प्रानन्द प्रायगा । ज्ञान और प्रमाण का विवेचन ऐसे सहज तथा विशद रूप में प्रस्तुत किया गया है कि साधारण जन भी प्रासानी से समझ जाता है। इससे मुनिजी का विषय के साथ तादात्म्य स्पष्ट ही है । विवव पर विकार हो, शैली बोधगम्य हो और भाषा में सरलता एवं प्रवाह हो तो दार्शनिक विवेचन कभी भी उबा देने वाला नहीं हो सकता। इस ग्रन्थ का कोई स्थल ऐसा नहीं, जिसे पढ़कर पाठक थकान का अनुभव करे । मुनिजी ने जैनदर्शन का तलस्पर्शी अध्ययन किया है । दूसरी भोर उनका अनुभूति परक दिल wear है । ग्रन्थ का अभिनन्दन होगा, ऐसा मुझे विश्वास है । अन्त में पाँव परिशिष्ट हैं-टिप्पड़ियाँ, जैनागमसूक्त, जैनागम परिमाण, जैनदार्शनिक प्रौर उनकी कृतियां तथा पारिभाषिक शब्दकोष इन्हें पढ़कर ही विद्वान समझ सकेंगे कि वे कितने उपादेय और उपयोगी है। सम्बोधि रचयिता - मुनि श्री नथमल जी, अनुवादक मुनि मीठालाल, प्रकाशक - सेठ चांदमल बांठिया ट्रस्ट, पार्श्वनाथ जैन लायब्र ेरी, जयपुर, पृष्ठ- १७६, वि० सं० २०१८ । इस पुस्तक में १६ अध्याय और ३४४ श्लोक है। श्लोकों की रचना मुनि श्री नथमल जी ने की है। संस्कृत मासान है। प्रारम्भिक ज्ञान रखने वाला भी समझ सकता है। उनका हिन्दी अनुवाद मुनि मीठालाल जी ने किया है। वह मूल के अनुरूप ही है। पुस्तक का प्रारम्भ एक प्रसिद्ध कथानक से हुआ है। महाराजा श्रेणिक के पुत्र मेघकुमार ने भगवान महावीर से दीक्षा ले ली। राजपुत्र दीक्षित साधु बन गया । किन्तु पहली रात मुश्किल से बीती । भूमि कठोर थी, वहां निय साधु अधिक थे और वह मार्ग में सो रहा था, जिससे माने जाने वाले साधुओं की ठोकरें लगती थीं रात शत-शत प्रहरों को लिए बीती । प्रातः वह भगवान् के पास गया, दीक्षा समाप्त करने का मन लिए । भगवान् ने सम्बोधा । भगवान् की वाणी अनेक प्रागम ग्रन्थों में संगृहीत है। उनका सार मुनिओ ने लिया । कवि विषय कहीं से ले; किन्तु उसके भाव अनुभाव भी उसमें भूमि बिना नहीं रह सकते। जाने-अनजाने उनका स्वर बज ही उठता है। वाणी भगवान की है। मुनि ने जिस श्रद्धाभाव से उसे अभिव्यक्त किया है वह उनका घपना है। मुनि का पुण्य बड़ा तो पाठकों का भी विकसित हो सकता है। इसी दृष्टि से पुस्तक की उपादेयता सिद्ध है। हम स्वागत करते हैं । डा० प्रेमसागर जैन [१०] १८० गति से होने वाले परिवर्तनों के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक रहने की प्रावयश्कता अनुभव की जाती है। क्योंकि मवाधरूप से होने वाले इस परिवर्तनों के प्रति ओ समाज या सम्प्रदाय उदासीन रहेगा, वह सदैव के लिए पिछड़ जायेगा । परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल समाज को मोड़कर ही सामाजिक जीवन को मुखरित एवं समुन्नत बनाया जा सकता है, जिसका लाभ भावी पीढ़ी को भी पहुँचेगा । इस दृष्टि से, जैन समाज के अन्तर्गत विभिन्न समुदायों शाखा प्रशाखार्थी संगठनों, परिवारों एवं व्यक्तियों को परिवर्तित वातावरण के प्रति पूर्णरूप से जाग्रत रखना एवं नव निर्माण के लिए प्रेरित करना समय की एक बड़ी और मपरिहार्यं प्रावश्यकता है। मतएव, देश के का शेष ] विभिन्न भागों में बसे हुए जैन समाज का सांख्यिक पद्धति द्वारा सामाजिक सर्वेक्षण नितान्त प्रावश्यक है। इस सर्वेक्षण द्वारा जहाँ जैन भाई बहनों की संख्या का सकलन होगा, वहां उनकी वित्तीय, शैक्षणिक, सामाजिक एवं रोजगार की स्थिति का भी जीवित विवरण उपलब्ध होगा । समाज के प्रति हमारे नेताओंों के कर्तव्यपालन का मूल्यांकन इस बात से नहीं होगा कि हमने कितने मंदिरों का निर्माण कराया, कितने सभा सम्मेलनों की अध्यक्षता की, कितने सामूहिक भोजों का प्रायोजन किया। समाज के प्रति वर्तमान नेताओं के कर्तव्यपालन को खरी कसोटी तो यह होगी कि उन्होंने बदलती हुई स्थितियों का सामना करने के लिए किस सीमा तक समाज को तैयार किया। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान डायरेक्टरी का प्रकाशन एक जैन डायरेक्टी के प्रकाशित करने का आयोजन किया गया है...। जिसमें विविध विषयों पर लेख रहेंगे, नदर्शन, जन साहित्य, जैन धर्म के विविध भेद-प्रमेन, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, तीर्थ दर्शन, जैन, मन्दिर, शिक्षण सम्थाएँ जन पत्र व्यापारिक संस्थान, जिन पदाधिकारी, जन जागृति के अग्रवृत, विज्ञापम डण्यादि । .. . .. इसकी सम्पूर्ण श्राय परोपकार के कार्यों में व्यय की आवमी। सभी महानुभाव सुझाव, सन्देश, शुभ कामनाएँ और परिवाया लेख प्रादि भेजें. . ... . . .. । - - . . . . . . . . . . . . . . निबद्रक-डा.ताराचन्द जैन अख्शी • I........ .... . .. . MOGALLE.D. पापा भवन, न्यूकालाना, जर M.Sc, LL.. B. वमी भवन, न्यू कालोनी, जयपुर।) ....... . ... ... ... . . . . . .।।... । ... स्वीर मेवा-मन्दिर और "अनेकान्त” के सहायक .. .। 6) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द ज़ी जैन, कलकना ,१५०) श्री चम्पालाल जी सररावमी, कलकत्ता १००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन ट्रम्ट, . . .. .. ., १५०) श्री जगमोहन जी मगवमी; बालकत्ताः ।। श्री साह शीतलप्रमाद जी, कलकत्ता . , १५०)धी करतूग्चन्दा नी ग्रानदीनाल, कलकत्ता - ५००) श्री गमजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता १५०) श्री कन्हैयालाल जी मीनागम, कलकत्ता । ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता, १५०प० बाबूलालजी जैन, कलकत्ता : 100) श्री नथमल जी सेठी, कलकता. १५०) श्री मालीगम जी मगवगी, कलकत्ता. . ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकता ...१५०) धी प्रतापमलजी मदनलाल पाड्या, कलकत्ता Jon) श्री रतनलाल जी झाझी, कलकना ।१५०) श्री भागचन्द जीपाटनी, कलकता । २५१) श्री ग० वा० हरख चन्द,जी जैन, गंची 10) श्री शिवरचन्द जी मरावगी, कलकत्ता ।। श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता १०) श्री सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता.. F५१) श्री म० मि. धन्यकुमार जी जैन, कटनी |१०१) श्री मारवाडी वि जैन समाज, व्या वरः ।। २५१) श्री मठ मोहनलाल जी जैन, १०.१.श्री दिगम्बर जैन ममाज, केकडी.।. मैमम मुन्नालाल द्वारकादास, कलकना |१०१) श्री सेठचन्दूलाल करतूरचन्दजी, बम्बई न०२ २५.) थी लाला जयप्रमाद्र जी जैन १०१). श्री बाला गान्तिलाल कागजी, दरियागज दिलं म्वस्तिक मेन्टल ववसं, जगाधरी , १०१.) श्री सेठ भवरीलाल जी.बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री मोतीलाल हीगचन्द गाधी, उम्मानाबाद १०१) बा० शान्ति प्रमाद जो जैन २५०) श्री बन्गीवर जी जुगलकिशोरी, कलकना जैन बुक मजेन्सो, नई दिल्ली . २५०) श्री जुगमन्दरदास जी जैन, कलकत्ता .१००) श्री बद्रीप्रसाद जी ग्रान्माराम जी, पटना . २५०) श्री मिघई कुन्दनलाल जी, कटनी . . |१००) श्री रूपचन्द जी जैन, कलकत्ता । २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १००) श्री जैन रत्न सेव गुलाबचन्द्र जी टोग्या २५.०) श्री बी० आर० जैन, सी० कलकत्ता । । । ... : इन्दौर । ५०) श्री. रामस्वरूप जी नेमिच-द्रजी, कलकत्ता १००) श्री बाबू नृपेन्द्र कुमार जी जैन, कलकत्ता ...' १५०) श्री बजरगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता : .. " Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन मभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (1) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल्य-ग्रन्यों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिनन्धों में उद्धत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। पच मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । सम्पादक मुग्ख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्वकी ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और ढा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-ग्वाज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बडा, साइज सजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की म्बोपन मटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषय के मुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८) (३) म्वयम्भृम्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्रकी अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, मानुवाद और श्रीजुगलकिशोर मुग्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । १॥) (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पंचाध्यायीकार कवि राजमल्लकी सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दीअनुवाद-सहित ) (६) युक्त्यनुशासन-नवज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की अमाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद महीं हुश्रा था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द। ... १) (७) श्रीपुरपार्श्वनाथम्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महन्व की स्तुनि, हिन्दी अनुवादादि सहित। ... ॥) (5) शासनचतुम्बिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनीतिकी १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद-पहित ) (6) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवंचनामक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त. सजिल्द । (10) जैनग्रंथ-प्रशस्ति मंग्रह-संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रशस्तियोंका मंगलाचरण महित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं परमानन्दशास्त्री की इतिहाम-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । (11) अनित्यभावना-प्रा. पदमनन्दी की महत्व की रचना, मुग्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१२) तन्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारधी के हिन्दी अनुवाद तथा ध्याच्या से युक्त । (१३) श्रवणबंजगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१४) महावीर का सर्वोदय तीर्थ ), (14) समन्तभद्र विचार-दीपिका =)। (१६) महावीर पूजा। (१०) बाहुबली पूजा जुगलकिशोर मुग्टनार कृत (11) अध्यात्म रहम्य-पं० प्राशाधर की मुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित (११) ननथ-प्रशस्ति संग्रा भा. २ अपभ्रशके १२२ अप्रकाशित ग्रंथोंकी प्रशस्तियोंका महत्वपूर्ण संग्रह १५ प्रन्धकारों के निहासिक ग्रंथ-परिचय और उनक परिशिष्टी महिन । सम्पादक पं परमानन्द शास्त्री मूल्य सजिल्द १२) (२०) जैन साहित्य और इतिहास पर विशः प्रकाश, पृष्ठ संग्य्या ७४० मजिन्द (वीर-शासन-मंघ प्रकाशन ...) (२१) कपायपाहुड मुत्त-मूल ग्रन्थ की रचना अाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यनिवृषभाचार्य ने पन्द्रह मौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चर्णिमूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालाल जी पिन्द्वान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बडी पाइज के १०..से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज, और कपड़े की पक्की जिल्द । (२२) Reality प्रा. पूज्यपाद की ममिन्द्रि का अंग्रेजीमें अनुवाद बढे प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मु. (६ प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवामन्दिर के लिए, पवन प्रिन्टिग ववर्स, ६०१, दरीबा, दिल्ली में मुद्रित Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैमासिक अक देवगढ़ के मन्दिर और मानस्तम्भ समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र दिसम्बर १६६४ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ विषय-सूची अनेकान्त को सहायता १०) जैन समाज के प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् श्री विषय ० | ५० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपनी ८८वीं जन्म १. श्रीपद्मप्रभ-जिनस्तवन-समन्तभद्राचार्य १६३ ६३ | जयन्ति के उपलक्ष मे निकाले हा दान मे से दस रुपया २. भीतर और बाहर (कविता)-भूधग्दाम १६४ अनेकान्त को प्रदान किये है इसके लिए वे धन्यवाद के ३. भारतीय संस्कृति मे बुद्ध और महावीर पात्र है। -मुनि श्री नथमल ४. अपभ्रश का एक प्रेमाख्यानक काव्य-विलास ५) प० रूपचन्द जी गार्गीय पानीपत के सुपुत्र चि० | सुरेश कुमार के विवाहोपलक्ष मे निकाले हए दान मे से वई कहा-डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री पाच रुपया सधन्यवाद प्राप्त । ५. समयमार नाटक- डा०प्रेममागर जैन ५) जयपुर निवासी प० सुरज्ञानी चन्द जी न्यायतीर्थ ६. मगध और जैन संस्कृति के मुपुत्र श्री भवरलाल जी के विवाहोपलक्ष मे पाँच रुपया -डा० गुलाबचन्द चौधरी एम. ए पी. एच. डी २१२ डा० कस्तूर चन्द जी कासलीवाल को मार्फत सधन्यवाद ७ प्राचीन मथुरा के जैनों की सघ-व्यवस्था प्राप्त हुए। --डा. ज्योतिप्रमाद जैन, लखनऊ २१७ ८ जैन समाज के लिए तीन सुझाव अनेकान्त के स्थायी सदस्य बनें -प्राचार्य श्री तुलमी अनेकान्त के प्रेमी पाठको से अनुरोध है कि वे अपने १. दशवकालिक के चार शोध-टिप्पण | मित्रो को ग्राहक बनाये। साथ ही विद्वानो और समाज -मुनि श्री नथमल जी २२२/ के कार्यवाहको से निवेदन है कि वे अनेकान्त के स्थायी १० नेमिनाह चरिउ-श्रीअगरचन्द नाहटा २२६ मदस्य बने । और अपने मित्रों आदि को बनाने का यत्न ११ कल्पसूत्रः एक सुझाव करे । स्थायी सदस्य फीस १०१) रु० है। प्राशा है, -कुमार चन्द सिह दुधौरिया कलकत्ता २३० । माधर्मी महानुभाव अनेकान्त के स्थायी सदस्य बनकर १२ जैन संघ के छ अग जैन धर्म और जैन सस्कृति के विकास में अपना सहयोग -डा० विद्याधर जोहग पुरकर जावग २३१ | प्रदान करेंगे। १३ जैन सन्त श्री वीरचन्द की साहित्य-सेवा -व्यवस्थापक -डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल एम ए अनेकान्त पी. एच. डी. जयपुर वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, १४. तृतीय विश्व धर्म सम्मेलन दिल्ली। -डा० बूलचन्द जैन १५ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपये सम्पादक-मण्डल एक किरण का मल्य १ रुपया २५ न०१० डा० प्रा० ने० उपाध्ये अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक डा. प्रेमसागर जैन मण्डल उत्तरदायी नहीं है। श्री यशपाल जैन २३६ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम प्रहम् अनेकान्त परमागस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुर विधानम् । सकलनयविलमिताना विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष १७ १ वर्ष १७ । किरण-५ । औ र-सेवा-मन्दिर, २९ वरियागंज, दिल्ली-६ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण मवत् २४६१, वि० ग० २०२१ दिसम्बर । सन् १६६४ श्रीपद्मप्रभ-जिन-स्तवन बभार पद्मा च सरस्वतीं च। भवान् पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्भ्याः ॥ सरस्वतीमेव समग्र-शोभा । सर्वज्ञ-लक्ष्मी-ज्वलितां विमुक्तः ॥२॥ -समन्तभद्राचार्य अापने प्रतिमुक्ति-लक्ष्मी की प्राप्ति के पूर्व-अहंन्त-अवस्था मे पहले- लक्ष्मी और सरस्वती दोनो को धारगा किया है-उस समय गृहस्थावस्था में पाप यथेच्छ धन-सम्पत्ति के ग्वामी थे, अापके यहाँ लक्ष्मी के ग्राट भण्डार भर थे, माथ ही अवधिज्ञानादि लक्ष्मी में भी विभूषित थे और मरस्वती आपके कण्ट में स्थित थी। बाद में विभक्त होने पर-जीवन्मुक्त (अहंन्त) अवस्था को प्राप्त करने पर-अापने उस पूर्ण शोभा वाली मरस्वती को-दिव्यवाणी को ही धारण किया है, जो सर्वज-लक्ष्मी मे प्रदीप्त थी--उस समय आपके पाम दिव्यवाणीरूप मरस्वती की ही प्रधानता थी, जिसके द्वारा जगत के जीवों को उनके कल्याण का मार्ग सुझाया गया है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीतर और बाहर रखता नहो तन की खबर, अनहद बाजा बानिया। घट-बीच मडल बाजता, बाहर सुना तो क्या हुया ॥१॥ जोगी तो जगम मेवडा, बहलाल कपडं पहिरता । उम रंग में महरम नही, कपडे रगे तो क्या हुया ॥२॥ काजी किताब खोलता, नसीहत वताव और को । अपना अमल कीन्हा नही, कामिल हुअा तो क्या हुमा ।।३।। पोथी के पाना बाचता, घर-घर कथा कहना फिरै। निज ब्रह्म को चीन्हा नही, ब्राह्मण हुअा तो क्या हुअा ॥४॥ गाजारु भाग अफीम है, दारू शराबा पोगता। प्याला न पीया प्रेम का, अमली हुया तो क्या हुअा ॥५॥ शतरंज चौपरगंजफा, बहुमर्द खेले है सभी। बाजी न खेली प्रेम की, ज्वारी हुया तो क्या हृया ॥६॥ 'भूधर' वनाई वीनती, श्रोता मुनो मब कान दे । गुरु का वचन माना नही, श्रोता हुआ नो क्या हुमा ।।७।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में बुद्ध और महावीर मुनिश्री नयमल ढाई हजार वर्ष पहले का काल धर्म-दर्शन का उत्कर्ष केवलज्ञान की उपलब्धि हई। वे वर्धमान से महावीर बन काल था। उम समय विश्व के अनेक अचलो मे महान् गए । मध्यम पावापुरी में उन्होने धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन धर्म-पुरुप अवतीर्ण हुए थे। किया। उमी ममय भारतीय क्षितिज पर दो पृष्प अवतीर्ण भारतीय संस्कृति हा। दोनो क्षत्रिय, दोनो गजकुमार और दोनों जनमनाक राज्य के अधिवामी। एक का नाम था मिद्धार्थ भारतीय संस्कृति श्रमण और वैदिक इन दोनो प्रोर क का नाम था वर्धमान । मिद्धार्थ ने नेपाल की गागयों का गगम है। फिर भी कुछ विद्वान् इग विषय मे नगई में कपिलवस्तु में जन्म लिया। वर्षमान का जन्म उलझे हुए है। श्रमण मंस्कृति को वैदिक मस्कृति की वैशाली के उपनगर क्षत्रिय कुण्रपुर में हया। सिद्धार्थ के शाखा मानने में गौरव का अनुभव करते है। लक्ष्मण माता-पिता ये माया और शुद्धोदन । वर्धमान के माता शास्त्री जोशी ने लिखा है-जैन तथा बौद्धधर्म भी वैदिक पिता थे त्रिशला और गिद्धार्थ । दोनो श्रमण परम्पग के मस्कृति की ही शाम्बाएँ है। यद्यपि मामान्य मनुप्य इन्हें अनुयायी थे। दोनो श्रमण बने और दोनो ने उमका वैदिक नही मानता। मामान्य मनुष्य की दम भ्रान्त उन्नयन किया। धारणा का कारण है मूलत इन शाखायो के वेद-विरोध मिद्धार्थ का धर्म-चक्र प्रवर्तन की कल्पना। सच तो यह है कि जैनो और बौद्धो की तीन अन्तिम कल्पनाग-कम-विपाक, ममार का बन्धन और सिद्धार्थ गुरु की शोध में निकले। वे कालाम के ___ मोक्ष या मुक्ति -अन्ततोगत्वा वैदिक ही है। शिष्य हए । सिद्धान्तवादी हुए. पर उन्हें मानसिक शान्ति हिन्दू संस्कृति को वैदिक मस्कृति का विकास तथा नही मिली । वे बहाँ में मुक्त होकर उद्रक के शिष्य बने। विस्तार मानने में बीती हुई मदी के उन अाधुनिक विद्वानो समाधि का अभ्यास किया पर उममे भी उन्हे मन्तोप को आपत्ति है जिन्होन भारतीय मस्कृति और हिन्दू-धर्म नही हुआ। वे वहाँ से मुक्त हो गया के पाम उमवेल गाव का अध्ययन किया है। वे टम निर्णय पर पहुँचे है कि में गए । वहाँ देह-दमन की अनेक क्रियायो का अभ्याम किया। उनका शरीर अस्थिपजर हो गया पर शान्ति नही विद्यमान हिन्दू मस्कृति अमल में वैदिक तथा प्रवैदिक, मिली। देह-दमन में उन्हें कोई मार नही दीखा। अब वे प्रार्य और अनार्य लोगो की विविध मरकृनियों का स्वय अपने मार्ग की शोध मे लगे। वैशाखी पूर्णिमा को सम्मिश्रण स्वरूप है। इन मनीषियो के मन में मूर्तिपूजा उन्हे बोधि लाभ हुआ। महाभिनिष्क्रमण के ६ वर्ष बाद करने वालो की पौराणिक मस्कृति अवैदिक एव गनाएं बुद्ध बने । माग्नाथ में उन्होंने धर्म-चक्र प्रवर्तन किया। ममूहो द्वारा निमित मस्कृतियो की उनगधिकारिणी है और जन तथा बौद्धधर्म वैदिकी धर्म के प्रतिद्वन्द्री हे, वर्धमान का धर्म-तीर्थ प्रवर्तन वैदिको को परास्त करने वाले प्रबल विद्रोही है। इनके वर्धमान प्रारम्भ में ही अपने निश्चित मार्ग पर चले। कथनानुमार विमान हिन्दु मरकृति भिन्न-भिन्न विचाउन्होने कोई गुरु नहीं बनाया न केवल कठोर तप ही तपा को की चार धागों के मन में बनी है। पहली धाग और न केवल ध्यान ही किया, नप भी तपा और ध्यान है वेदो के पूर्ववर्ती अनार्यों की मूल संस्कृति की, दूमरी भी किया। उन्हे अपनी माधना-पद्धति में पूर्ण मन्तोप वेदो के पूर्ववर्ती काल के भारतीय अनार्यो पर विजय पान था। महाभिनिष्क्रमण के माडे बारह वर्ष पश्चात् उन्हे वाले आर्यों द्वाग स्थापित वैदिक मस्कृति की, नोमरी Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वेदों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले जैनो तथा बौद्धो के द्वारा यज्ञ की कल्पना लौकिक और पारलौकिक दोनों है। निर्मित सस्कृति की और चौथी वेद-पूर्व सस्कृति के प्रावि- उसका लौकिक फल है सुख-शान्ति प्रोर पारलौकिक फल प्कार के रूप में अवस्थित मूर्तिपूजक पौराणिक धर्म को१। है स्वर्ग७ । ऋण और वर्ण-व्यवस्था इन दोनो का फल है शास्त्री जी ने जिन अन्तिम कल्पनायो-कर्म-विपाक, समाज की सस्थापना और मघटना । तीन ऋण ब्रह्मचर्य समार का बन्धन और मोक्ष या मुक्ति को अन्ततोगत्वा और गृहस्थ इन दो प्राथमो के मूल है। ब्रह्मवर्य प्राश्रम वैदिक कहा है, वे मूलत अवैदिक हे। मे रहकर वेदाध्ययन किया जाता और गृहस्थ आश्रम वैदिक साहित्य मे प्रात्मा और मोक्ष की कल्पना ही प्रविष्ट होकर सम्मान का उत्पादन । वानप्रस्थ और नही है। इनके बिना कर्म-विपाक और बन्धन की कल्पना सन्याम जैस प्रायम उन व्यवस्था मे अपेक्षित नही थे। का विशेष प्रर्थ नही रहता। TOTO मैकडोनेल का प्रभि- वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्त ने जातिवाद को तात्त्विक मत है-बाद में विकमित पूनर्जन्म के सिद्धान्त का वेदो रूप दिया और ऊँच-नीच ग्रादि विषमतामो की मष्टि की। मे कोई मकेत नही मिलता, किन्तु एक 'ब्राह्मण' मे यह श्रमण-संस्कृति के मूल तत्त्व उक्ति मिलती है कि जो लोग विधिवत् मम्कागदि नही थमण-सस्कृति के मून तत्त्व है-व्रत, मन्यास और करते वे मत्यु के बाद पुन. जन्म लेते है और बार-बार समता । व्रत और सन्याम का मूल है मोक्षवाद । समता मन्यु का ग्रास बनते रहते है। का मूल है यात्मवाद । आत्मा का ध्येय है बन्धन से मुक्ति वधिक संस्कृति के मूल तत्त्व की ओर प्रयाण । बमण-सस्कृति मे ममाश्वस्त ममाज का __ वैदिक संस्कृति के मूल तत्त्व है-यज, ऋण और ध्येय भी यही है। इसीलिए सामाजिक जीवन समानता वर्ण-व्यवस्था । यज्ञ के मुख्य प्रकार तीन है--पाक-यज्ञ, की अनुभूति से परिपूर्ण हुआ। आर्थिक जीवन को व्रत से हविर्यज्ञ और सोमयज्ञ३। नियमित किया गया। वैयक्तिक जीवन को सन्याम से ऋण तीन प्रकार के माने जाते थे-देव-ऋण, ऋषि साधा गया । इस प्रकार जीवन के तीनो पक्ष-वयक्तिक, ऋण और पित-ऋण । यज्ञ और होम मे देव-ऋण चुकाया आर्थिक और मामाजिक-विशुद्धि से प्रभावित किए गए। जाता है। वेदाध्ययन के द्वारा ऋपि-ऋण चुकाया जाना इन्ही तत्त्वो के आलोक मे वुद्ध और महावीर ने वैदिक है। सन्तान उत्पन्न कर पितृ-ऋण चुकाया जाता है। मस्कृति के मूल तत्त्वो-यज्ञ ऋण और वर्ण-व्यवस्था का 'शतपथ ब्राह्मण' मे चौथे ऋण-मनुष्य ऋण का भी विरोध किया था। उल्लख है। उसे औदार्य या दान मे चकाया जाता है। सस्कृति संगम वर्ण-व्यवस्था का प्राधार है मष्टि का उत्पत्ति-क्रम । वैदिक और थमण सस्कृति का यह विचार-द्वन्द्व ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुगा, क्षत्रिय बाह से, बुद्ध-महावीर का बुद्ध-महावीर कालीन नही था । वह बहुत पहले से ही वैश्य ऊरु मे और शूद्र पैरों से६ । चला आ रहा था। इसमे कोई सन्देह नही कि भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध ने उस विचार क्रान्ति को १. वैदिक .स्कृति का विकास, पृष्ठ १५, १६ इतना तीव्र स्वर दिया कि हिसा अहिमा के मामने निष्प्राण २. वैदिक माइथोलोजी, पृष्ठ ३१६ बन गई है । 'हाहिमा परमोधर्म' का स्वर प्रबल हो उठा। ३. विशद् विवरण के लिए देखिए वैदिक कोप, 'अपुत्रस्यगतिर्नास्ति' के स्थान पर सन्यास की महिमा पृष्ठ ३६१-४२५ गाई जाने लगी। जन्मना-जाति का स्वर कर्मणा-जाति के ४ तैत्तिरीय महिता ६।३।१०।५ स्वर में विलीन हो गया। भगवान् पार्श्व के काल में ५ शतपथ ब्राह्मण १।७।२।१-६ ६. ऋग्वेद सहिता १०१९०१२ श्रमण और वैदिक संस्कृति का जो सगम प्रारम्भ हुआ था, वह अपने पूरे यौवन पर पहुंच गया । ब्राह्मणोस्य मुख मासीद्, बाहू राजन्य. कृत ।। अरू तदस्य यद् वैश्यः, पद्भ्या शूद्रो अजायत. ॥ ७. वैदिक माइथोलोजी, पृष्ठ ३२० Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में बुद्ध और महावीर श्रमण परम्परा मुख्यत क्षत्रियो और वैदिक परम्परा माण्डा। जिस समय वह दही होता है, उस समय न उसे ब्राह्मणो की है । क्षत्रियो ने आत्म-विद्या और अहिमा का दूध कहते है, न मक्वन, न घी, न घी का माण्डा । इसी विस्तार किया और आगे चल वे दोनो परम्परामो की प्रकार भिक्षुग्रो, जिस समय मेग भूतकाल में जन्म था मगम स्थली बन गई । क्षत्रियो ने आर्य शब्द वैदिक मार्यो उस समय मेरा भूतकाल का जन्म ही सत्य था, यह वर्तसे लिया। मान और भविष्यत् का जन्म असत्य था। जब मेग क्षत्रियो ने वैदिक परम्पग या प्रार्य जाति का महत्व भविष्यत् काल का जन्म होगा, उस समय मेग भविदेते हुए आर्य शब्द को अपनाया किन्तु उमका अर्थ अपनी प्यत्काल का जन्म ही सत्य होगा, यह वर्तमान और भूतपरम्परा के अनुसार किया । वैदिक आर्य यज्ञानुष्ठान मे काल का और भविष्यत्काल का जन्म अमत्य होगा । यह हिमा करते थे उसके प्रतिपक्ष मे क्षत्रिय परम्पग में यह जो अब मेरा वर्तमान में जन्म है. गो इम समय मेग यही घोष उठा कि प्राणियो की हिमा करने वाला प्रायं नही जन्म सत्य है, भूतकाल का और भविष्यत्काल जन्म होता । प्राय वह होता है जो किमी की हिसा न करे- अमत्य है। अर्थात् अहिसा ही प्रार्य है? । मब प्राण, भूत, जीव और भिक्षम्रो यह लौकिक सज्ञा है, लौकिक निरुक्तियाँ है, मत्व हन्तव्य है, यह अनार्य वचन है। मब प्राग, भूत, लौकिक व्यवहार है, नौकिक प्रज्ञप्तियाँ है- इनका तथाजीवन और मत्व हन्तव्य नहीं है, यह आर्य वचन है। गत व्यवहार करते है, लेकिन इनमे फमते नही । भिक्षम्रो, इम प्रकार भारतीय संस्कृति का वर्तमान रूप अनेक "जीवन (ग्रान्मा) और शरीर भिन्न-भिन्न है" ऐमा मत धारानी का मगम है। रहने गे श्रेष्ठ-जीवन व्यतीन नही किया जा मकता और बुद्ध-महावीर को भारतीय संस्कृति को देन जीव (प्रात्मा) तथा शरीर दोनो एक है, ऐमा मन रहने व्रत, सन्यास और ममता की स्थापना तथा यज्ञ, ऋण से भी श्रेष्ठ जीवन व्यतीत नही किया जा सकता। और वर्ण-व्यवस्था का प्रतिकार बुद्ध और महावीर की देन इसलिए भिक्षुग्रो, इन दोनो मिरे की बातों को छोडनहीं है, वह श्रमण-परम्पग की दन है। उसमे इन दोनो कर तथागत बीच के धर्म का उपदेश देते हैव्यक्तियो का महान् योग है। उन्होंने प्राचीन परम्पग की अविद्या के होने मे सस्कार, मस्कार के होने में विज्ञान, ममद्धि मे केवल योग ही नही दिया किन्तु उसे नए उन्मेप विज्ञान के होने से नामम्प, नामरूप के होन मे छ आयतन, भी दिए। छ प्रायनन के होने मे स्पर्श, स्पर्श के होने मे वेदना, वेदना बुद्ध ने दो नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए–प्रतीत्य के होने में तृष्णा, तृष्णा के होने से उपादान, उपादान के समुत्पादवाद और पार्य-चतुष्टय । होने मे भव, भव के होने में जन्म, जन्म के होने में बुढापा, प्रतीत्य समुत्पाद मग्ना, शोक, गना-पीटना, दुग्य, मानगिक चिन्ता तथा भिक्षयो ! जो कोई प्रतीत्य (समुत्पाद) को समझता परेशानी होती है। है, वह धर्म को समझता है जो धर्म को समझता है, वह इस प्रकार इस मारे के गारे दुख-स्कन्ध की उत्पत्ति प्रतीत्य समुत्पाद को समझता है। जैसे भिक्षुमो जी' से होती है। भिक्षुनो, इसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहते है । दूध, दूध से दही, दही से मक्खन, मक्खन से धी. घी से मार्य चतुष्टय घीमाण्डा होता है। जिस समय में दूध होता है। उस आर्य सत्य चार है-१. दुख, २ दुख ममुदाय, समय न उसे दही कहते है, न मक्वन, न घी, न घी का । ३. दुख निरोध, ४ दुख निरोध की योर ले जाने वाला १. धम्मपद धम्मट्ठवग्ग मार्ग । भिक्षुम्रो ! दुख-आर्य सत्य क्या है ? न तेन परियोहोति, येन पारणनि हिमति । अहिंसा सव्व पाणानं, अरियोति ववुच्चति ॥१५॥ _ पैदा होना दुःख है, बूढ़ा होना दुख है, मरना दुख २. पाचा राग १०४।२ मूत्र १. बुद्धवचन, पृष्ठ २६-३० Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ अनेकान्त है. शोक करना दुख है, गेना-पीटना दुग्व है, पीडित होना भी बना रहता है अथवा जो अपना अस्तित्व रहते हुए भी दुख है, चिन्तित होना दुख है, परेशान होना दुख है, उत्पन्न पोर विपन्न होता है, वही सत् है और जो सत् है इच्छा की पूर्ति न होना दुख है, थोडे मे कहना हो तो वही तत्व है। पाँच उपादान स्कन्ध ही दुख है। रत्नत्रयी भिक्षुमो यह जो फिर-फिर जन्म का कारण है, यह गौतम ने पूछा-भन्ने ! क्या ज्ञानयोग मोक्ष का मार्ग है? जो लोभ तथा गग मे युक्त है, यह जो कही-कही मजा भगवान्-नही । लेती है, यह जो तृष्णा है, जैसे काम-तृष्णा, भव-तृप्गा तो भन्ने ! दर्शन योग (भक्ति-योग) मोक्ष का मार्ग है ? तथा विभव-तृष्णा यह तृष्णा ही दुख के ममृदय के बारे मे भगवान-नही। मार्य मत्य है२ । भिक्षुमो, दुख के निगेध के बारे में प्रार्य दो भन्ते ! चारित्र-योग (कर्म-योग) मोक्ष का मार्ग है ? मत्य क्या है ? उसी तृष्णा मे सम्पूर्ण वैगग्य, उम तृष्णा भगवान-नही। का निगेध, त्याग, परित्याग, उम तृष्णा मे मुक्ति, अना- नो फिर मोक्ष का मार्ग क्या है? सक्ति-यही दुख के निरोध के बारे में प्रायं मत्य है। भगवान्-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्विति अष्टागिक मार्ग दुख निरोध की ओर ले जाने वाला ही मोक्ष का मार्ग है। है, जो कि है स्याद्वाद १ मम्यक् दृष्टि महावीर सन्याश और पूर्ण मत्य-इन दोनो को न जा २. सम्यक मकल्प मर्वथा अभिन्न मानते थे और न सर्वथा भिन्न । पूर्ण रूप ३. मम्यक् वाणी मे मर्वथा वियुक्त होकर पत्याश मिथ्या हो जाता है और ४ सम्यक् कमन्ति पूर्ण मत्य में मर्वथा अभिन्न होकर वह वचन द्वारा अगम्य बन जाता है । अत मत्य की उपलब्धि के लिए अनेकान्त ५. मम्यक् पाजीविका और उमके प्रतिपादन के लिए स्याहाद अपेक्षित है। ६. मम्यक् व्यायाम एकान्तवादी धागणाएँ इसीलिए मिथ्या है कि वे पूर्ण सत्य ७. मम्यक् स्मृति ममाधि४ मे वियुवत हो जाती है । नित्यता मिथ्या नहीं है, क्योकि ८. सम्यक् ममाधि एक बार भी जिमका अस्तित्व प्रमाणित होता है, उसका महावीर ने तीन नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किये अस्तित्व पहले भी था और बाद में भी होगा । अनित्यता विपदी, २ रत्नत्रयी, ३ स्याद्वाद । भी मिथ्या नहीं है। क्योकि रूपान्तरण की प्रक्रिया त्रिपदी अस्तित्व का अनिवार्य अग है । किन्तु नित्यता और अनिगौतम ने पूछा-भन्त ! नत्त्व क्या है ? त्यता दोनो अविच्छिन्न है। वे सापेक्ष रहकर सत्याश भगवान ने उत्तर दिया-उत्पन्न होना । बनते है और निरपेक्ष स्थिति मे वे मिथ्या बन जाते हैं। फिर पूछा-भन्ते ! तत्त्व क्या है ? खुले रत्न रत्न की कहलाएंगे। एक धागे में पिरो लेने पर फिर उत्तर मिला-विपन्न होना। उसका नाम हार होगा। इसी प्रकार जो दार्शनिक दृष्टिया प्रश्न आगे बढा-तत्व क्या है ? निपेक्ष रहती है, वे सम्यग् दर्शन नही कहलाती । वे उत्तर मिला--बने रहना। परस्पर सापेक्ष होकर ही सम्यग्-दर्शन कहलातो है।। फलित यह हुमा-जो उन्पन्न और विपन्न होने हर विपन्न हात हुए महावीर की इम चिन्तन धारा ने सत्य को सर्व१. दीघनिकाय, पृष्ठ २२ मग्राही बना दिया। उसके फलित हुए-सह-अस्तित्व २. वही, पृष्ठ २२ और समन्वय इन तत्त्वो ने भारतीय मानस को इतना प्रभा३. वही, पृष्ठ २२ विन किया कि ये भारतीय-सस्कृति के मूल प्राधार बन गये । ४. सयुक्तनिकाय, पृष्ठ २२ १. सन्मति प्रकरण ११२२-२५ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभूश का एक प्रेमाख्यानक काव्यः विलासवईकहा डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री अपभ्रंश-साहित्य के अनुशीलन मे गब यह तथ्य सका है। इमी प्रकार चारण कवि गणपति कृत "मालवास्पष्ट हो गया है कि हिन्दी भाषा में लिखे गए मुफी तथा नल कामन्कन्दला" की ओर भी विशेष ध्यान नहीं है। प्रेमाख्यानक काव्यो की प्रमार-भूमि के लिए पहले में ही अपभ्रश के ये दोनो ही उत्कृष्ट प्रेमास्थानक काव्य कहे भारतीय-माहित्यिक काव्य-परम्पग में ऐगे रूपो की रचना जा सकते है । अभी तक "विलारावईकहा" की केवल दो हो चुकी थी जो इस देश की सास्कृतिक और मामाजिक ताडपत्र प्रतियाँ जेमलमेर के प्रभण्डार में उपलब्ध हो चेतना को विभिन्न विद्याभो में मुखरित कर चुके थे। सकी है। इस कथाकाव्य का मर्वप्रथम परिचय प. अपभ्रश में ही नहीं, प्राकृत-माहित्य में भी बहुत स य बेचदास जी दोसी ने "भारतीय विद्या पत्रिका" में दिया पहले ही इस प्रकार की रचनाए लिखी जा चुकी थी। था। तदनन्तर सन् १९५६ मे डा० शम्भूनाथ मिह ने अतएव परवर्ती रचनामों पर इनका प्रभाव पडना स्वा- "हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप विकास" नामक अपने शोधभाविक ही था। वयं-विपय, शैली, छट तथा प्राकृत- प्रवन्ध में इगका अत्यधिक मक्षिप्त परिचय दिया था। अपभ्रश काव्यो के प्रबन्ध-शिल्प के अनुरूप जो मूफी तर मे कई बार श्री यगचन्द जी नाहटा प्रभृनि विद्वानो प्रेमाख्यानक या प्रेमकाव्य लिखा गया उसका मूल स्रोत ने इनकी चर्चा की, किन्तु पालोचनात्मक दृष्टि ने अभी उक्त काव्य-साहित्य कहा जा सकता है जो चिराचरित तक इसका अनुशीलन नही किया गया। अपने मोधप्रबन्धरूप मे भारतीय साहित्य में प्रतिष्ठित हो चका था। प्रवन्ध में दग प्रेमाख्यानक काया काव्य का हमने विस्तृत इसलिए उसके बाद जो साहित्य लिखा गया वह उस विवेचन किया है, और इसका विशेषतानो पर पूर्ण प्रकाग माडल के अनुरूप ही छन्दोबद्ध शैली मे रचा गया। डाला है। अपभ्र श में ऐसे कई प्रेमाख्यानक काव्यो की लम्बी विलागवतीकथा के लेग्यक दवेताम्बर जैन माधु गिद्धमेन परम्परा मिलती है जो प्राकृत के प्रेमाख्यानक काव्यो मे मूरि थे। उनका मरम्थ दगा का नाम 'माधारण" था । विकसित हए है । इस लेख में अपभ्रश के एक ऐसे ही इमलिए उन्हें साधारण मिद्धमन मूरि कहा जाता है । प्रेमाख्यानक काव्य का परिचय दिया जा रहा है जा जन-सालिय में मिद्धगेन नाम के चार विद्वान व ग्राचायों विषय-वस्तु, शैली और प्रबन्ध-रचना में सूफी प्रेमाख्यानक का पता लगता है। साधारण सिद्ध मन "न्यायावतार" काव्यों से बहुत कुछ समानता रखता है। जन-जीवन में तथा "सन्मति तक" के रचयितानो से मर्वथा भिन्न थ। प्रचलित रहने वाली लोक कथाओं को अपना कर लिखे पहले प्राचार्य मिद्धसेन दिवाकर थे, दूसरे मिद्धमन, तांगरे जाने वाले काव्य मध्ययुगीन-भारतीय साहित्य के साधारण सिद्धगेन और चौथे मिद्धमैन मूरि । इस प्रकार विशिष्ट अंग रहे है । उस युग के काव्यो की लगभग साधारण सिद्धमेन दार्शनिक सिद्धमेन मूरि से भिन्न थे । सभी विशेषताएं आलोच्यमान काव्य में उपलब्ध होनी केवल साहित्यिक रूप में उनकी प्रसिद्धि प्राप्त होती है। कवि ने कुछ स्तोत्र भी लिखे थे पर आज वे उपलब्ध नही वस्तुत. "विलासवईकहा" या "विलासवती" कथा होते। परन्तु उस समय उनके बनाए हुए स्तोत्र तथा की भोर अभी तक विद्वानो का ध्यान आकृष्ट नही हो स्तुतियों को विभिन्न प्रददों में अत्यन्त चाव में लांग पढ़ते थे । कवि का जन्म मूलकुल के वाणिज्य तथा गण १. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य है-"भविसयत्तकहा कौटिक शाखा के वज्र वश में हुआ था। कवि काव्यकला और अपम्र श-कथाकाव्य" शीर्षक लेखक का शोध- के मर्मज्ञ तथा कवियों की सन्तान में उत्पन्न हुअा था। वह प्रबन्ध। साधारण नाम से हा प्रसिद्ध था। जान पड़ता है कि कवि Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त काव्य-रचना में अत्यन्त निपुण था और साधु-दीक्षा लेने कथा मे कवि की कोई मौलिक उद्भावना नहीं लक्षित के पूर्व ही उसकी प्रसिद्धि फैल चुकी थी। परन्तु 'विलास- होती है। परन्तु हँसी का वियोग-वर्णन वास्तव में कवि वईकहा" की रचना मुनिदशा में ही की गई । भीनमाल की कल्पना प्रसूत है । यथा(मिल्लमाल) कूल के शिरोमणि लक्ष्मीधरशाह के कहने खणे गएणह उडुहि खणे जलि बुडहि विरहजलणसंतावियइ पर यह कथाकाव्य लिया गया । गुजगत प्रदेश में स्वर्ण तीरलयावणे संकमति सुरसरिहि पुलिणे विरलइ भमंति अहमदाबाद के निकट धन्धुका नाम के नगर मे इम निमुणे वि सद्दु एवहि मिलनि पुरणु चक्कवाय संक्ए छलति प्रेमाख्यानक-काव्य की रचना हुई। काव्य का लेखक तो गरुय सोय अभिभूययाह हुय मरण वेबि कय निच्छयाड गुजगत प्रदेश के ही किमी भाग को अल कृत कर चुका सुरमरिहि सौति बुड्डन्ति जाम्व पक्खालिउ कुकुम सयल ताम्ब था। गुजगत का यह कवि वास्तव मे अपनी इस मुन्दर पेक्खाव परोप्परु धवलकाउ तो दोण्हवि पच्चमि जाणु जाउ रचना के कारण अमर हो गया, इसमे कोई सन्देह नहीं है। अर्थात्-विरह की ज्वाला से संतप्त हो वह हमी इम कथाकाव्य की रचना वि०म० ११२३ को गुजरात क्षण भर में प्राकाश में उडती और छिन-छिन मे उम के धन्धुका नाम के नगर में हुई थी। यह वही नगर है जलाशय मे डुबकी लेती। दूसरे क्षण मे व्याकुल हो वह जिमे प्रा. हेमचन्द्र मूरि और "मपामचग्यि" के लेखक सरोवर के तौर पर पा जाती और वन मे तथा पुलिनो लक्ष्मणगणि जमे विद्वानो को जन्म देने का मौभाग्य प्राप्त पर व्यथित हो भ्रमण करती। हस के समान शब्द सुन हुआ था । काव्य-ग्रन्थ ३६२० श्लोक रचना प्रमाण है। कर वह चौक पडती । किन्तु फिर चत्रवाक का मशय यह काव्य मन्धिवद्ध है । इममे ग्यारह मन्धियाँ है । पहली होने पर वह भ्रम से दुखी हो जाती। इस प्रकार गुरुतर मन्धि मे मनत्कुमार और विलासवती का ममागम, दूसरी शोक से अभिभूत हो उस हसी ने मरण का निश्चय में विनयधर की सहायता, तीमरी में समुद्र-प्रवाम मे नौका- किया। और वह उसी समय सरसरिता के सोते मे जा भग, चौथी मे विद्याधरी-मयोग, पाचवी मे विवाह-वियोग, कर जैसे ही इबी वैसे ही उसका समस्त शरीर कुकुम छठो मे विद्या-साधना सिद्धि, सातवी मे दुर्मुखवध, पाठवी प्रक्षालित हो गया। मे मनगरतिविजय और राज्याभिषेक, नवी मे विनयधर __इस प्रकार उक्त पक्तियों में लेखक ने नाटकीय दृश्य मयोग, दमवी में परिवार समागम और ग्यारहवी मे तथा वातावरण प्रस्तुत करते हुए नायक सनत्कुमार की सनत्कुमार तथा विलामवती के निर्वाण-गमन का वर्णन है। मनोव्यथा को प्रकृति मे अत्यन्त सुन्दर विधि से चित्रित इम प्रकार विलामवती और सनत्कुमार की कथा रोमाचक किया है और प्रकृति के माध्यम से अनेक कार्यशैली मे इस समूचे कथाकाव्य मे वणिन है। व्यापारी का सुन्दर चित्र अकित किया है। समस्त काव्य काव्य-चयिता ने इम महाकाव्य की विषय-वस्तु को में ऐसे कई सुन्दर चित्र अकित हुए है जो बिम्बों से स्फीत प्रा. हरिभद्र सूरि कृत "समराइच्चकहा" से उद्धृत किया तथ सौन्दर्य-बोध से सयुक्त है। प्रत्येक सन्धि मे विविध है । यह कथा ज्यो-की-त्यो उद्धृत की गई है। इसलिए स्थलो पर कवि ने प्रकृति के संश्लिष्ट वर्णन के द्वाग मनुष्य के प्रान्तरिक भावो को अभिव्यक्त किया है । काव्य १. एक्कारमहि सएहि गएहि नबीम वरिसअहिगहि । पढ़ते-पढते हठात् बाण भट्ट की समस्त पदावली का पोस चउदमि सोमे सिप्रा घधुबकय पुरम्मि ।। स्मरण हो पाता है । जैसे कि-अन्तिम प्रशस्ति लडियतडविडवनिवडंतसडियफला। कुररकारबंकल२. एसा य गणिज्जति पाएणा णट्रभेण छदेण । हमकोलाहल । कुचवबकायसारसियसदाउला। तवसुमहसपुण्णाइ जाया छत्तीस सयाइ वीमाह । वही ल्लकल्लोलमालाउलविउलविलुलंत संखउलवेलाउल । ३. समगडच्चकहाउ उद्धग्यिा सुद्धमघिबघेण । कोऊहलेण एमा पसन्नवयणा विलासवई॥ प्रकृति के विविध वर्णनों में सौन्दर्य के स्पष्ट चित्र ६. अन्तिम प्रशस्ति । अकित है। शब्द-विन्यास मे कवि की सुष्टुता विशेषरूप Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मे लक्षित होती है। इसके साथ ही विभिन्न प्रसगो मे कवि ने मानसिक दशाओं का विशेष चित्रण किया है। काव्य मे कई मार्मिक भाव पूर्ण स्थल मिलते है जिनमे काय की वृत्ति विशेष रूप से रक्षा को अभिव्यक्त करने में समर्थ हुई है । समुद्र में नौका भग्न हो जाने पर मनत्कुमार की मन स्थिति का कवि ने अत्यन्त मजीव वर्णन किया है। कही कही भाषा अत्यन्त मरल प्रोर स्फीत है । यथा हा सुमित हा गुजरवणायर, यश का एक प्रेमास्थानक काव्य: विलासबाई कहा भो वसुभूइ कत्वमह सायर । हा हि जहिहि मनवि बन्नउ तह विणु कि करेमि हजं सुन्नजं ॥ इसी प्रकार - कहिवि धारस दोमंत वर विदुमं कवि लहरोहि लहलंत तीरदुमं । कहिवि उट्ठत जावत ग्रह दुग्गमं, कहिविप्रनेन जल वन्न नह संयमं ॥ fafभन्न स्थानो पर गीति शैली के दर्शन होते है । काव्य में कई स्थान उपन्यास जैसे रोचक तथा मधुर हैं। कादम्बरी की भाँति विभिन्न घटनाएँ प्रस्थिता मे पटिन होती है। देवी मयोग और eस्मिक घटनाम्रो की मयोजना से काव्य में आदि में ग्रन्त तक उत्सुकता और कुतूहल बना रहता है। कथा मे पाये जाने वाले किसी न किसी रूप मे प्रेमरूपानक काव्य में भलीभाँति विकसित मिलते है। अतएव नाटकीय दृष्यों की योजना तथा वातावरण अत्यन्त प्रेरक एवं विशद परि लक्षित होता है। उदाहरण के लिए विलासवती के वियोग में अत्यन्त व्यक्ति तथा समुद्रीय नौका के भग्न हो जाने पर अकेला भटकता हुआ मनत्कुमार जब वनस्थली के सघन कुज के निकट पहुँचता है तब वह एक मधुर माधवी जनता को बाहुपाशी में बद्ध देखता है नायक के हृदय मे तुरन्त ही स्मृतियों का संचार होने लगता है और वह महकार (कलमी ग्राम) वृक्ष के नीचे बैठ जाता है। मगुन होने लगते है। देखता है उस वन मे मामने मे कोई मगनयनी नीचा मुख किये हुए चली रही है। जिसका मन मे चिन्तवन कि था वही सामने भी उसके प्रागमन से वन के सूखे पत्तं विखर गये थे। मरमर ध्वनि - २०१ सुनाई पड़ रही थी १ । इम प्रकार कवि ने विभिन्न स्थलो पर कुतूहल तथा उत्सुकता को बढाते हुए नाटकीय दृश्यो की सयोजना की है। उक्त प्रसंग को पढते ही विनासवनी के आगमन तथा पूर्ववर्ती घटनाओ के अनेक रगीनी चित्र यो के सामने भूलने लगते है। पाठक के मन में तरहतरह की कल्पनाएँ उठने लगती है । कवि अलबम की भाँति एक-एक कर सुन्दर विषो की झाँकी प्रकृति की रगस्थली में अकित करता जाता है। विलासवती कथा की यह विशेषता वस्तुत बहुत कम काव्यो मे परिलक्षित होती है । काव्य मून्कियो, कहावतो और मुहावरों से बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है । कुछ उदाहरण इस प्रकार है— प्रमिला कुम सम्प अर्थात् योवन टटके हुए प्रमूनों की भांति होता है। वास्तव मे ना में जो मौग्भ और मधुरता होती है बड़ी वॉचन में देखी जाती है और उमी मौन्दर्य का आकर्षण होता है । ग्रहवा क्षयकाल समुठियाहं, उठतिय पख पिपीलियाहं । अर्थात् मत्यु के समय चीटियों के भी पर निकल आते है । एक्कहिं दिसि मच्छ नदु विसालु, वि बाधु वाढा करा अर्थात् एक और विशाल नदी है और दूसरी ओर विकराल बाघ है | इस और नदी है और उस ओर खाई । जिह सप्पु मरइ न लट्ठियावि, गतिहि चितहि बुद्धि कावि । अर्थात् जिस प्रकार माप मेरे और लाठी भी न उस प्रकार विचार कर बुद्धिमान् मनुष्य को कार्य करना चाहिए। १ अनहि दियहे भमतएण माहविलय प्रालगिउ दिट्ठउ । ग्रहमणहरू महारत तस्म ममीवे कुमर उबविट्ठउ | मामुह णि लोण वणम्मि, जा अच्छइ चिनितउ मणमि । ता सुक्कह पन्नह वित्थरउ, आयनिउ मम्मर ग्य १५, २४ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अनेकान्त सांप मरे न लाठी टूटे। है। भाव, भाषा और शैली में यह अन्यन्त स्फीत तथा इस प्रकार अनेक स्थलों पर सुभापित तथा कहावते प्रसाद गुणोपेन काव्य है। प्राय' सभी रसो की मयोजना मिलती है, जिससे भाषा और भावों मे सजीवता लक्षित इस काव्य मे हुई है। परन्तु मुख्य रूप से विप्रलम्भ होती है । सक्षेप मे, काव्य-कला की दृष्टि से विलासवनी. शृङ्गार की अभिव्यजना परिलक्षित होती है। कथा अपभ्रश के प्रेमाख्यानक काव्यो में उत्कृष्ट रचना 'समयसार' नाटक डा० प्रेमसागर जैन कवि बनारसीदास ने 'नाटक समयमार' की रचना मिले है । माझा और मोहविवेक युद्ध भी नवीन है। इन की थी। वे अपने युग के प्रख्यात माहित्यकार थे। यद्यपि सब कृतियो में अध्यात्म या भक्ति ही प्रमुख है । बनारसीउनका जन्म एक व्यापारी कुल मे हया था१"किन्तु वे अपने दास ने एक प्रात्मचरित भी लिखा था जो समूचे मध्यभावाकूल अन्त मानस को क्या करते, सदैव कविता के रूप कालीन साहित्य का एकमात्र प्रात्मचरित्र है। हिन्दी जगत में प्रस्फुटित रहने के लिये बेचैन रहता था। उन्होने १५ मे उसकी पर्याप्त प्रशसा हुई है। बनारसीदास ने ही वर्ष की आयु मे ही एक नवरस रचना लिख डाली, जिममे उसका नाम 'प्रधकथानक' रखा था। इसका बम्बई और एक हजार दोहे-चौपाइया थी। इस रचना में भले ही प्रयाग से प्रकाशन हो चुका है। 'मासिखी का विसेस वरनन' था, किन्तु काव्य-कला की बनारमीदास की सर्वोत्कृष्ट कृति 'नाटक समयमार' दृष्टि से वह एक उत्तम कोटि का काव्य था। एक दिन है। उसकी रचना प्रागरे मे वि० स० १६६३, पाश्विन जब बनारसी ने उस कृति को गौतमी में बहा दिया, तो सुदी १३, रविवार के दिन पूर्ण हुई थी। उस समय मित्र हा हा करते हुए घर लौटे । बनारसीदास की दूसरी बादशाह शाहजहाँ का राज्य था। इस कृति में ३१० कृति है नाममाला । एक छोटा-सा शब्दकोश है। इसमे सोरठा-दोहा, २४५ सवैया इकतीमा, ८६ चौगाई, ३७ १७५ दोहे है । उसका मुख्य आधार धनञ्जय की नाम- तेईमा सवैया, २० छप्पय, ७ अडिल्ल और ४ कुडियाँ माला है। किन्तु इनमे केवल सस्कृत का ही नही. अपितु है। समूचे भक्ति-युग में प्राध्यात्मिक भक्ति का निदर्शन प्राकृत और हिन्दी का भी समावेश है, अत. यह एक ऐमी अन्य रचना नहीं है। मौलिक रचना है। ऐसा सरस शब्दकोश अन्य नही है। नाटक समयसार का पूर्वाधार प्रागरा के दीवान जगजीवन ने वि० स० १७०१ मे 'नाटक समयसार' का मूलाधार था प्राचार्य कुन्दबनारसीदास की बिखरी ६५ मक्तक रचनायो को एक कुन्द का समयसार पाहुड़। प्राचार्य कुन्दकुन्द विक्रम ग्रन्थ के रूप मे सकलित किया था और उसका नाम सवत् को पहली शती मे हुए है। उनके रचे हए तीन ग्रन्थ रक्खा था 'बनारसी विलास ।' प्रब बनारसीदास की कुछ समय समयसार, प्रवचनसार और पचास्तिकाय अत्यधिक प्रसिद्ध अन्य रचनाये भी प्राप्त हुई है, जो 'बनारसी बिलास' मे है। जैन परम्परा में प्राचार्य कुन्दकुन्द भगवान् की भांति संकलित नही है। कुछ पद जयपुर के शास्त्र-भडारो मे हापू को ही पूजे जाते है। श्री देवसेन ने वि० सं०६९० में अपने दर्शनसार नाम के ग्रन्थ मे लिखा है कि यदि कुन्दकुन्दा१. इनके पिता का नाम खडगसेन था, वे हीरा- चार्य ने ज्ञान न दिया होता तो पागे के मुनि जन सम्यक जवाहरात का व्यापार करते थे : अर्धकथानक । पथ को भूल जाते । श्रुतसागरसूरि कृत षट्प्राभूत की टीका Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयसार' माटक २०३ के अन्त में उनको कलिकाल सर्वज्ञ कहा गया है। चन्द्र- कर बनारसीदास को प्रात्मा के विषय में भ्रम हमा था। गिरि और विन्ध्यगिरि के शिलालेखो मे उनकी अत्यधिक इसका अर्थ यह हुआ कि प० गजमल जी समयसार का प्रशसा की गई है। समयसार अध्यात्म का मर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ सही अर्थ समझने में असमर्थ थे। समयसार एक कठिन है। अपने स्वभाव और गुण-पर्यायो में स्थिर रहने को ग्रन्थ है, बड़े बड़े पण्डित भी चकरा जाते है। प. 'समय' कहते है। ऐसा होने के कारण ही जैन मान्यता- राजमल ने भी कही कही भूल की हो तो प्राश्चर्य क्या नुसार छ. द्रव्य 'समय' मज्ञा मे अभिहित किये गये है । इनमे है । बनारसीदास के नाटक ममयमार पर उपर्युक्त तीनो भी प्रात्मद्रव्य ज्ञायक होने के कारण सारभूत है। उसका प्राचार्यों का प्रभाव है। मुख्यतया विवेचन करने से इम ग्रन्थ को समयमार करते नाटक समयसार को मौलिकता है१ । इममे प्राकृतभाषा में लिखी गई ४१५ गाथाय है। नाटक समयसार प्राचार्य प्रमतचद्र के मस्कृत कलशो इमका प्रकाशन बम्बई, बनारस और मारौठ ग्रादि कई का अनुवाद भर ही नहीं, अपितु यथेष्ट रूप से मौलिक स्थानो से हो चुका है। भी है। अमृतचद्र की आत्मच्याति टीका में केवल २७७ कलशे है, जबकि नाटक समयसार मे ७२७ पद्य हे। प्रत इन प्रावृत गाथामी पर प्राचार्य अमृनचन्द्र ने वि० का १४वा 'गुणस्थान अधिकार' तो बिल्कुल स्वतत्र रूप से म० की हवी शती में 'प्रात्मख्याति' नाम की टीका मस्कृत लिखा गया है। प्रारम्भ और प्रत के १०० पद्यो का भी कलशो मे लिखी । प्राचार्य अमनचन्द बहुत बडे टीकाकार प्रात्मख्याति टीका से कोई सम्बध नही है। जिनका थे । उन्होने केवल ममयमार की ही नहीं, अपितु पचास्ति सम्बध है वे भी नवीन है। उनमें कलश का अभिप्राय तो काय और तत्त्वमार की भी टीकार्य लिखी। टीका की अवश्य लिखा गया है, किन्तु विविध दृष्टान्तो, उपमा और विशेषता है कि उसका मूल ग्रन्थ के साथ पूर्ण तादात्म्य उन्प्रेक्षामों मे ऐमा रम उत्पन्न हुआ है, जिसके समक्ष होना चाहिए। ऐमा प्रतीत होता है जैसे कि अमृतचन्द्र ने कलश फीका जंचता है। तुलना के लिये एक उदाहरण प्राचार्य कुन्दकुन्द की प्रतिभा मे घुस कर ही टीका का देखिएनिर्माण किया हो । प्राचार्य अमनचन्द्र विद्वान् थे और नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यस्त्वं फलं विषयसेवनस्य ना । कवि भी, किन्तु प्रात्मख्यानि टीका, ममयमार पाहड़ का जानबंभवविरागताबलात्मेवकोऽपि तदसोऽसेवक ॥ सच्चा प्रतिनिधत्त्व करती है, अत: उममे दार्शनिकता ही अमनचद्राचार्य के इम मस्कृत कलग पर नाटक समयअधिक है, कवित्व कम । प्राचार्य अमतचन्द्र ने जिन अन्य मार का हिदी पद्य इस प्रकार है-- ग्रन्थो का निर्माण किया है, वे भी दार्शनिक ही है। जैसे निशिवासर कमल रहे पंक ही में, 'पुरुपार्थसिद्धय पाय उनकी मौलिक कृति है। पकज कहा न बाके डिंग पंक है। वि० म० को १७वी शती में प० रायमल्ल ने 'ममय जैसे मन्त्रवादी विषधर सो गहावे गात, मार' पर बालबोधिनी नाम की टीका लिग्वी, जो हिन्दी मन्त्र की शकति बाके बिना विष उक है। गद्य मे थी। प० गयमल्ल की विद्वत्ता की ज्यानि चन जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूख चंग, दिक व्याप्त थी। वे हिन्दी पौर मस्कृत दोनो ही के पानी में कनक जैसे काई से अटक है। विद्वान थे। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षक और ममुन्नत था। विद्वत्ता के ममन्वय ने उसे और भी निग्वार दिया तसे ज्ञानवान नाना भौति करतूत ठान था किन्तु अर्धकथानक मे लिखा है कि इस टीका को पढ किरिया ते भिन्न माने यात निकलंक है१॥ १. बनारमीदाम नाटक ममयमार, हिन्दी ग्रन्थ १. प्राचार्य कुन्दकुन्द, ममयसार, दि. जैन ग्रन्थमाला, नाकर कार्यालय, बम्बई, ७।१५ पृ० १६७-६८ । इमी मारोठ (मारवाड़), फरवरी, १९५३ । दूसरी गाथा, के नीचे फुटन्गेट में प्रस्तचन्द्राचार्य का लोक दिया है। अमृचंतद्राचार्य की सस्वृत टीका, पृ. ८-६। वही, उत्थानका, १६वां पद्य, पृ० १७ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अनेकान्त यहाँ स्पष्ट है कि "ज्ञानवान नाना कार्यों को करता जैसा है। नाटक समयसार में यह पंचामृत भोजन पग-पग हुमा भी उनसे पृथक रहता है" नाम का दार्शनिक सिद्धान्त पर उपलब्ध है। "देह विनाशवान है, उसकी ऊपरी चमक सस्कृतकलश की अपेक्षा नाटक समयसार मे अधिक सजीव धोखा देती है" इस तथ्य पर बनी बनारसीदास की एक है। उसमे वह उपयुक्त शब्दो के चयन, पंक्तियो के गठन, अनुभूनि देखिएप्रसादगुण और दृष्टान्त मलकार की सहायता में भावक्षेत्र रेत को सो गढ़ो किधौ मढ़ी है मसान के सी, का भी विषय सन सका है। मच तो यह है कि ममयमार और उसकी टीकाएँ दर्शन में सम्बन्धित है, जब कि अन्दर अन्धरी जैसी कन्दरा है सैल की। बनारसीदास का 'नाटक समयसार' माहित्य का ग्रन्थ है। ऊपर की चमक बमक पटभूखन की, उसमे कवि की भावुकता प्रमुख है जब कि समयसार में धोखे लगे भली जैनी कली है कर्नल की। दार्शनिक का पाण्डित्य । दर्शन के रूखे सिद्धान्तो का प्रौगुन को प्रोंडो महा भौड़ी मोह की कनौडी, भावोन्मेप वह ही कर सकता है, जिसने उन्हे पचाकर माया की मसूरति है मूरति है मल की। प्रात्ममात् कर लिया हो । कवि बनारसीदाम ने अपनी ऐसी देह याहि के सनेह याकी सगति सों, प्राध्यात्मक गोष्ठी मे समयसार का भलीभाति अध्ययन, ह रही हमारी मति कोल के से बैल की। पारायण और मनन किया था। इसमें उन्होने अनेक वर्ष 'समयसार' की 'नाटक' सज्ञा खपा दिये थे। बीच मे गलत प्रथं समझने के कारण __ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ममयसार को नाटक मज्ञा से उन्हे कुछ भ्रम हो गया था, जो पाण्डे रूपचन्द्र से गोम्मट अभिहित नहीं किया था। सर्वप्रथम प्राचार्य अमतचन्द्र ने सार मुनकर दूर हो गया। पाण्डे रूपचन्द की ममूची समयसार को नाटक कहा । किन्तु केवल कह देने मात्र से शिक्षा-दीक्षा बनाग्म में हुई थी। वे एक ख्याति प्राप्त विद्वान थे। मही प्रथं ममझने के उागन्त बनारसीदास ने कोई ग्रन्थ नाटक नही बन जाता । उसमें तदनुरूप भावो न्मेप की पावश्यकता बनी ही रहती है। प्रात्मख्याति अपने माथियो के माथ एक बन्द कोठरी मे नग्न मुनि टीका मे भावोन्मय नहीं है। बनारसीदास की भावपरकता बनने का प्रयास समाप्त कर दिया और मनन में अधिक ममय व्यतीत करने लगे। परिणामबगान अर्थ अधिका ने समयसार की 'नाटक' मज्ञा को सार्थक किया और इसी कारण उनके ग्रन्थ का 'नाटक समयसार' नाम उपयुक्त । धिक स्पष्ट हो गया। किन्तु केवल अर्थ ज्ञान होना और बात है तथा उमकी अनुभूति दूमगे। अनुनि तभी हो सकती है जब कि अर्थ को समझा ही नहीं अपितु पचाया उसमे सात तत्त्व-जीव, अजीव, आम्रव, बन्ध, संवर, भी गया हो । पचाने का अर्थ है उसका साक्षात् करना। निर्जरा और मोक्ष अभिनय करते है। इनमें प्रधान होने अर्थात् अनुभूति के लिए ज्ञाता ही नहीं, अपितु द्रष्टा होना के कारण जीव नायक है और अजीव प्रतिनायक । उनके भी पावश्यक है। बनारसोदास ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रतिस्पर्धी अभिनयो ने चित्रमयता को जन्म दिया है। समयसार की गाथाम्रो का अमृतचन्द्र की ग्रात्मख्यानि जीव को अजीव के कारण ही विविध रूपों मे नृत्य करना टीका के माध्यम गे मध्ययन किया, आध्यात्मिक गोष्ठी पड़ता है। प्रात्मा के स्वभाव और विभाव को नाटकीय में मनन किया और एकान्त मे साक्षात् किया। इस भाति ढग से उपस्थित करने के कारण इसको नाटक समयसार जाग्रत हुई अनुभूति ने नाटक समयसार को जन्म दिया। कहते हैं । यह एक प्राध्यात्मिक रूपक है। इसमे पात्मा बनारसीदास की दृष्टि मे सच्ची अनुभूति सच्चा ब्रह्म ही रूपी नर्तक सनारूपी रंगभूमि पर ज्ञान का स्वाग बना है। तज्जन्य प्रानन्द परमानन्द ही है। वह कामधेनु और कर नृत्य करता है। पूर्वबध का नाश उमको गायक विद्या चित्राबेलि के समान है। । उसका स्वाद पचामत भोजन है, नवीन बंध का संवर ताल तोड़ना है, नि शकित पाठ १. अनुभी की केलि यहै कामधेनु चित्रावेलि, अग उसके सहचारी है, समता का पालाप स्वगे का अनुभौ को स्वाद पच अमृत को कोर है। उच्चारण है और निर्जरा की ध्वनि ध्यान का मृदंग है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयसार' नाटक २०५ वह गायन और नृत्य में लीन होकर प्रानन्द मे सराबोर उसके गुणो-पर्यायो की परम्परा भी आदि काल से चली पा रही है। जीव अपनी गुण पर्यायो को लेकर नृत्य करता पूर्वबन्ध नास सो तो संगीत कला प्रकास, है। उसका वह नृत्य विलक्षण है नव बन्ध षि ताल तोरत उछरिक। अंसे वट वृक्ष एक, तामै फल है अनेक, निसंकित प्रादि प्रष्ट अंग संग सखा जोरि, फल फल बह बीज, बीज बीज बट है। समता प्रलापचारी कर सुर भरिके॥ वट माहि फल, फल माहिं बीज तामै वट, निरजरा नाव गाजे ध्यान मिरवग बाजे, को जो विचार, तो अनंतता प्रघट है ।। छक्यो महानन्द मै समाधि रीझि करिक तसे एक सता मै, अनन्त गुन पर जाय, सत्तारंग भूमि मै मुकत भयो तिहूँ काल, पर्ज मैं अनन्त नृत्य तामैं अनन्त ठट है। नाचं शुद्ध दृष्टि नट ग्यान स्वांग परिकं ॥ ठट में अनन्त कला, कला में अनन्त रूप, प्रात्मा ज्ञानरूप है और ज्ञान तो समुद्र ही है, जब रूप मै अनन्त सत्ता, ऐमो जीव नट है ॥ वह मिथ्यात्व की गाट फोडकर उमगता है, तो त्रिलोक इस मसार रूपी रंगशाला में यह चेतन जो विविध में व्याप्त हो जाता है। इसी को दूसरे शब्दो में यों कहा भाति के नृत्य करता है, वह अचेतन की मगति से हो । जा मकता है कि जब प्रात्मा मिथ्यात्त्व को तोडकर केवल तात्पर्य है कि अचेतन उमे ममार में भटकाता है। चेतन ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो ब्रह्म बन कर घट-घट में जा का समार मे भटकना ही उसका नाचना है। यदि अचेविगजता है। इसी को कवि ने एक रूपक के द्वाग प्रस्तुत तन का नग छूट जाय तो उमका यह नृत्य भी बन्द हो किया है । रूपक में प्रात्मा को पातुरी बनाया गया है। जाय । इसी को कवि बनारमीदास ने लिखा हैवह वस्त्र और प्राभुपणो गे सजकर गत के ममय नाटय- बोलत विचारत न बोलेन विचारे कछु, शाना में, पट को प्राडा करके पानी है, तो किसी को भेख को न भाजन पै भेख को धरत है। दिखाई नही देती, किन्तु जब दोनो प्रोर के शमादान ठीक ऐसो प्रभु चेतन प्रचंतन की सगति सौं. करके पर्दा हटाया जाता है, तो मभा के मब लोग उमको उलट पुलट नटवाजो सो करत है। भलीभाति देख लेते है। यही दशा मान्मा की है जब चेतन मचेतन की मगति छोड दता है, तो वह जैसे कोऊ पातुर बनाय वस्त्र प्राभरन, उम नाटक का केवल दर्शक भर रह जाता है, जो भ्रमप्रावति खारे निसि पाडौ पट करिके। युक्त, विशाल एवं महा अविवेकपूर्ण अवार्ड मे अनादिदुहुँ ओर दोवटि संवारि पट दूरि कोज, काल में दिखाया जा रहा है । यह अग्वाड़ा जीव के घट सकल सभा के लोग देख दृष्टि परिकं ।। (हृदय) में ही बना है। वह एक प्रकार की नाट्यशाला तस ज्ञानसागर मिथ्याति प्रथि भेवि करि, है। उममे पुदगल नत्य करता है और वेष बदल बदल कर उमग्यो प्रगट रह्यौ तिहूँ लोक भरिकं । कौतुक दिग्वाता है। चिन्मूरति जो मोह मे भिन्न और ऐसो उपदेस सुनि चाहिए जगत जीव, जड मे जुदा हो चुका है, इस नाटक का देखने वाला है। शुद्धता संभार जग जाल सौ निसरिक ॥ अर्थात चेतन मोह और जड से पृथक् होकर शुद्ध हो जाता जीव एक नट है और वह वट-वृक्ष के समान है। वट- है, प्रत वह सासारिक कृत्यों को केवल देवता भर है। वृक्ष में अनेक फल होते है, फल में बीज होते है और उनमे सलग्न नही होता । यह रूपक इस प्रकार हैप्रत्येक बीज में नट-वृक्ष मौजूद रहता है। बीज मे बट या घट में भ्रम रूप अनादि, पौर वट में बीज की परम्परा चलती रहती है। उसकी विशाल महा अविवेक अखारौ। अनन्तता कम नहीं होती। इसी भाति जीवरूपी नट की तामहि और स्वरूप न दोसत. एक सत्ता मे अनन्त गुण, पर्याएँ और कलाएँ है । जीव और पुग्गल नत्य कर प्रति भारी। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ००६ अनेकन्त फेरत भेष दिखावत कौतुक, शेन कर चेतन प्रचेतनता नींद लिये, सौंजि लिये वरनादि पसारौ। मोह की मरोर यहै लोरन को ढंपना ॥ मोह सों भिन्न जुदो जड़ सौं, उदै बल जोर यह श्वास को शबद घोर, चिन्मूरति नाटक देखनहारो॥ विर्ष सुखकारी जाकी दौर यहै सुपना। एक नट जब रगमंच पर अभिनय करता है, तो ऐसी मूढ़ दशा में मगन रहै तिहुँ काल, अभिनयोपयुक्त वेशभूपा और वातावरण मे अपने को भूल पावै भ्रम-जाल में न पावे रूप अपना । जाता है। किन्तु नाटक की तन्मयता से उभरते ही वह 'नाटक समयसार' मे वीरग्म के अनेक चित्र है, अपने सच्चे रूप मे पा जाता है। उसे विदित हो जाता जिनमे से एक मे प्रास्रव और ज्ञान का युद्ध दिखाया गया है कि नाटकीय दशा मेरी वास्तविक अवस्था नही थी। है । कर्मों के आगमन को आस्रव कहते है। वह बहुत चेतन का भी यही हाल है। वह घट में बने रगमच पर बड़ा योद्धा है, अभिमानी है। ससार में स्थावर और अनेक विभावो को धारण करता है। विभाव का अर्थ है जगम के रूप में जितने भी जीव है, उनके बल को तोड कृत्रिम भाव । जब मुदृष्टि खोलकर वह अपने पद को फोडकर आम्रव ने अपने वश में कर रक्खा है। उमने देखता है, तो उसे अपनी असलियत का पता चल जाना मूछो पर ताव देकर रणस्तम्भ गाड दिया है। अर्थात् है। चेतन रूपी नट के इस कौतुक को देखिये उसने अपने को अप्रतिद्वन्द्वी प्रमाणित करने के लिए अन्य ज्यों नट एक घरं बहु भेख, योद्ध.प्रो को चुनौती दी है। अचानक उस स्थान पर कला प्रगट बहु कौतुक देखें। ज्ञान नाम का एक सुभट, जो सवाये बल का था, या प्राप लखे अपनी करतति, गया । उसने प्रावव को पछाड दिया, उसका रण-थभ बहै नट भिन्न विलोकत पखं । तोड दिया । ज्ञान के शौर्य को देखकर बनारसीदास नमत्यों घट में नट चेतन राव, स्कार करते हैविभाउदसा घरि रूप विसेख। जते जगवासी जीव थावर जंगम रूप, खोलि सुदृष्टि लख अपनो पद, ते ते निज वस करि गखे बल तोरि के। दुद विगरि दसा नहि लेखे ॥ महा अभिमानी ऐसो पाखव प्रगाष जोधा, रोपि रन थंभ ठाढ़ो भयो मंछ मोरिके। चेतन मूव है, वह अचेतन के धोखे मे मदेव फंमा पायो तिहि थानक अचानक परम धाम, रहता है। अचेतन चेतन को या तो भटकाता है अथवा मोह की नीद में मुला देता है, अपना रूप नही देखने ज्ञान नाम सुभट सवायो बल फोरिके। देता । 'नाटक ममयसार' मे चेतन की मुपुप्तावस्था का एक प्रास्रव पछार्यो रनथंभ तोरि डार्यो ताहि, चित्र अकित किया गया है। वह काया की चित्रमारी में निरखि बनारसी नमत कर जोरिके॥ माया के द्वाग निर्मित मेज पर मो रहा है। उम सेज पर नाटक समयसार में भक्ति-तत्त्व कलपना (तडपन) की चादर बिछी है। मोह के झकोगे निकल और सकल अर्थात् निर्गुण और सगुण की से उसके नेत्र ढंक गये है। कर्मो का बलवान उदय ही उपासना का समन्वय जैन भक्ति की विशेषता है । कोई श्वास का शब्द है। विपय भोगो का प्रानन्द ही स्वप्न जैन कवि ऐसा नही जिमने दोनो की एक साथ भक्ति है। इस भाति चेतन मस्त होकर मो रहा है। वह मूढ- न की हो । जैन सिद्धान्त मे आत्मा और जितेन्द्र का एक दशा मे तीनो काल मस्त रहता है। भ्रम-जाल में फंमा ही रूप माना गया है, अतः वह शरीरी हो अथवा अशरीरी, रहता है। उससे कभी उभर नही पाना जैन भक्त को दोनों ही पूज्य है। नाटक समयसार में काया चित्रसारी में करम परजंक भारी, इस परम्पग का पालन किया गया है । कवि बनारसीदास माया को संवारी सेज चादर कलपना । ने यदि एक ओर निकल ब्रह्म की आराधना की है, तो Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयसार' नाटक २०७ दूसरी पोर 'सकल' के चरणो मे भी श्रद्धा क पुष्प चढाये जबकि सासारिक कलक निकल जाय । तभी उसे अनत सुख और केवलज्ञान उपलब्ध हो सकता है। वह सिद्धनिष्कल का दूसरा नाम है 'सिद्ध'। कर्मों के प्राव लोक का शाश्वत निवासी भी तभी बन सकता है । ऐसे रण से मुक्त प्रात्मा को सिद्ध कहते है। नाटक समयमार भगवान के भक्त का भक्तिपरक मापदण्ड निश्चय रूप में शुद्ध प्रात्मा के प्रति गीतो की भरमार है। एक स्थान से ऊँचा है। पर कवि ने लिखा है कि शुद्धात्मा के अनुभव के अभ्यास जो अपनी दुति माप विराजत, से ही मोक्ष मिल सकता है, अन्यथा नही ?१ उनका यह भी है परधान पवारय नामी। कथन है कि आत्मा के अनेक गुण-पर्यायो के विकल्प में चेतन ग्रंक सवा निकलक, महासुख सागरको बिसरामी॥ न पडकर शुद्ध प्रात्मा के अनुभव का रस पीना चाहिए । अपने स्वरूप में लीन होना और शुद्ध प्रात्मा का अनुभव जीव मजीव जिते जग मै, करना ही श्रेयस्कर है । सिद्ध शुद्धात्मा के ही प्रतीक है। तिनको गुन शायक अन्तरजामी। उनके विशेषणो का उल्लेख करते हए कवि ने उनकी जै सो सिवरूप बस सिवधान, जैकार की है। वह पद्य देग्विा ताहि विलोकि नमै सिवगामी ॥ निर्गुनिये सन्तो की भाति ही बनारसीदास ने यह अविनामी अविकार परमरस-धाम है, स्वीकार किया कि जिनगज घट-मन्दिर में विराजसमाधान सरवंग सहज अभिराम है। मान रहता है। उसमें ज्ञान-शक्ति विमल पारसी सुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त है. की भाति जाग्रत हा जाती है । उसके दर्शन में जगत शिरोमनि सिद्ध सबा जयवन्त है। महारम उपलब्ध होता है। महारस वह है, जिसमें एक दूसरे स्थान पर कवि ने शिवलोक में विराज एक ओर मन की चपलता नही रहती, तो दूसरी मान 'शिवरूप' की बन्दना की है। उनका कथन है कि ओर योग मे भी उदासीनता आ जाती है । अर्थात् प्रात्मा जो अपने पात्मज्ञान की ज्योति से प्रकाशित है, सब सहजयोगी का रूप धारण कर लेती है। सहजयोगी का पदार्थों में मुख्य है, निष्कलक है, सुख-मागर में विश्राम तात्पर्य है कि परम महाग्स के प्राप्त हो जान से योगी करता है, संसार के सब जीव और अजीवो के घट-घट का को योग की दुम्ह साधना में स्वत निवृत्ति मिल जाती जानने वाला है और मोक्ष का निवासी है, उसे भव्य जीव है । वह माधना के बिना स्वाभाविक ढग से ही योगी सदैव नमस्कार करते है । भक्त के वन्दनीय को बना रहता है। बनारसीदास की 'सहजना' में बज्रया'शिवरूप' तो होना ही चाहिए, साथ ही तेजवान भी, किन्तु नियों के सहजयानी सम्प्रदाय का 'सहज' नहीं है, इसमें तेज भौतिक न होकर दिव्य हो, वह तभी हो सकता है आत्मा का स्वाभाविक रूप ही प्रमुख है । अर्थात् बना ग्मी दास रहले महारस प्राप्त करते है, तब सहजता रजाउद्धरण भाविक ढग से मा ही जाती है। सहजयानी पहले सह१. शुद्ध परमातम को अनुभो अभ्यास कीज, जता प्राप्त करते है फिर महाग्स की ओर अखि लगाते यहै मोख-पथ परमाग्थ है इतनी । है। कुछ भी हो बनारसीदास घट में शोभायमान सहज-नाटक समयमार, बम्बई, १०।१२५, पृ०३८। योगी चेतन की बन्दना करते है । २. गुन परजे मे द्रिष्टि न दीज, निरकिलप अनुभौ रस पीज । १. जामैं लोकालोक के सुभाव प्रतिभामे सब, पाप समाइ आप मे लीजै, जगी ग्यान सकति विमल जैमी पारसी। तनुपौ मेटि अपनुपौ कीजै । दर्सन उद्योत लीयो अन्तराय प्रत कीयो, -वही, १०१११७, पृ० ३८३३ गयो महामोह भयो परम महारसी ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अनेकान्त जैन प्राचार्यों ने पाम महारस मे डूबी प्रात्मा को की यह ही दशा होती है। उन्हें जीवन्मुक्त कहा जा ब्रह्म कहा है। बनारसीदास ने भी उसे ब्रह्म कहा और सकता है। वे सशरीरी ब्रह्म है। प्राचार्य 'जोइन्दु' ने उसके स्याद्वादरूप का विवेचन किया। उन्होंने लिखा है उन्हे 'सकल ब्रह्म' की सज्ञा से अभिहित किया है । सूर कि वह एक भी है और अनेक भी, अर्थात् वह प्रात्म- और तुलसी ने ऐसे ब्रह्म को सगुण कहा है। बनारमीसत्ता मे एकरूप है और परमत्ता में अनेक रूप । वह ज्ञानी दास ने सकल ब्रह्म की भक्ति से भक्त का निर्भय होना है और अज्ञानी भी, अर्थात् शुद्ध रूप मे ज्ञानी और कर्म स्वीकार किया है । भगवान् पार्श्वप्रभु का शरीर सजलसंगति मे अज्ञानी है। इसी भाति वह प्रमादी है और जलद की भांति है। उनके शिर पर सप्तफणियों का अप्रमादी भी । वह जब अपने रूप को भूल जाता है तो मुकुट लगा है। उन्होने कमठ के अहकार को दल डाला प्रमादी और जब अनेप रूप को जाग्रत होकर स्मरण है। ऐसे जिनेन्द्र की भक्ति से भक्त के सब डर भाग जाते करता है तो अप्रमादी । अपेक्षाकृत दृष्टि से ही वस्तु का है। फिर तो वह यमराज से भी डरता नहीं। भगवान् वास्तविक निरूपण हो सकता है, अन्यथा नही। इस दृष्टि उमके पापो को हरण कर लेता है, इतना ही नही उमे को ही स्याद्वाद कहते है। यह सिद्धान्त प्रात्मा पर भी भव-समुद्र से भी पार लगा देता है । वह भगवान् कामघटित होता है। प्रात्मा का ऐसा निष्पक्ष और सत्य देव को भस्म करने के लिए रुद्र के समान है। भक्त जन विवेचन अन्यत्र दुर्लभ ही है । बनारमीदाम ने उम प्रात्म- मदैव उसकी जै जै के गीत गाते है। जिनेन्द्र की भक्ति ब्रह्म की प्रशसा की है : की सामर्थ्य का बग्वान करते हुए लिग्या है कि जिनेन्द्र की देख सखी यह ब्रह्म विराजित, भक्ति कभी तो मुबुद्धि रूप होकर कुमति का हरण करती याको दसा सब याही को सोहै। है, कभी निर्मल ज्योति बन कर हृदय के अन्धकार को एक मैं अनेक अनेक में एक, दूर भगाती है, कभी कणा होकर कठोर हृदयो को भी बुंदु लिये दुविधामह दो हैं। दयालु बना देती है, कभी स्वय प्रभु की लालसा कप होकर अन्य नेत्रो को भी तप कर देती है। कभी प्रारती पाप संभारि लख अपनौ पद, का रूप धारण कर भगवान के सन्मुख पाती है और पापु विसारि के प्रापहि मोहै। मधुर भावो को अभिव्यक्त करती है। कहने का तात्पर्य व्यापक रूप यह घट अन्तर, यह है कि भक्ति भक्त को प्रभु की तद्रूपता का प्रानन्द ग्यान मै कौन अग्यान मै को है। - १. मदन-कदन-जित बनामीदाम ने 'सकलब्रह्म' के भी गीत गाये । सकल परम-धरमहित, सुमिरत भगति भगति सब डरसी । ब्रह्म वह है, जो केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी प्राय मजल-जलद-तन मुकुट कर्म के प्रवशिष्ट रहने में विश्व में शरीर महिन मौजूद सपत-फन, कमठ-दलन जिन नमत बनारसी ॥ रहता है। अर्थात् उमके घातिया कर्मों का क्षय हो जाता है, प्रत उसकी प्रात्मा में ब्रह्मत्व तो जन्म ले ही नेता है, . वही, मगलाचरण, पृ०२॥ किन्तु आयु के क्षीण होने तक उसे ससार मे रुकना २. पर अघ-रजहर जलद, पड़ता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने के उपरान्त अर्हन्त सकल जन-तन भव-भय-हर । मन्यामी महज योगी जोग मो उदासी जामे, जमदलन नरकपद-छयकरन, प्रकृति पचामी लगि रही जरि छारसी । अगम प्रतट भव जल तरन । सोहै घट मन्दिर मैं चेतन प्रगट रूप, वर-सकल-मदन-वन-हरदहन, ऐमो जिनराज ताहि बन्दत बनारसी ॥ जय जय परम अभय करन । -नाटक समयसार, बम्बई, ११२६, पृ०५६। -वही, मंगलाचरण, पृ. ३ । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयसार' नाटक २०६ देती है। वह पद्य देखिए . उन्हें कोई प्रयास ही करना पड़ता। वे शरणागतों की कबहूँ सुमति कुमति को विनास करें, रक्षा करते हैं, शरणागत भले ही पापी हों। उन्हें मौत कबहूँ विमल ज्योति प्रन्तर जगति है। का डर नही सताता । वे धर्म की स्थापना और भ्रम कबहूँ क्या ह्व चित्त करत दयाल रूप, का खण्डन करते हैं। वे कर्मो से लडते है किन्तु विनम्र कबहूँ सुलालसा ह लोचन लगति है ॥ होकर, क्रोध और भावावेश के साथ नहीं। ऐसे मुनिराज कबहूँ प्रारती के प्रभु सनमुख प्राव, विश्व की शोभा बढ़ाते है बनारसीदास उनका दर्शन कर कबहूँ सुभारती व बाहरि बगति है। नमस्कार करते है। धरं दसा जैसी तब कर रीति सी ऐसी, भक्त पाराध्य की वाणी मे भी श्रद्धा करता है । हिरवे हमारे भगवन्त को भगति है। उसकी महिमा के गीत गाता है । जिनवाणी जिनेन्द्र के एक स्थान पर भक्त कवि ने जिनेन्द्र की मूर्ति अथवा हृदयरूपी तालाब से निकलती है और श्रुत-सिन्धु मे समा बिम्ब का विवेचन करते हुए लिखा है कि--उसे देखकर जाती है, अर्थात् वह एक सरिता के समान है। इस वाणी जिनेन्द्र की याद आती है। उनके गुणों को प्राप्त करने के द्वारा सत्य का वास्तविक रूप प्रगट हो जाता है । की चाहना उत्पन्न होती है । जिनेन्द्र में कुछ ऐसा सौन्दर्य सत्य अनन्त नयात्मक है । अनेक अपेक्षाकृत दृष्टियों से वह होता है, जिसके समक्ष इन्द्र का वैभव तुच्छ-सा प्रति विविध रूप है । उसका कोई एक लक्षण नहीं, एक रूप नही। उसे समझने के लिए भी सात्विकता से युक्त भासित होता है। उनके यश का गान हृदय के तमस को भगा कर प्रकाश मे भर देता है। अर्थात् जिनेन्द्र का सामर्थ्य चाहिए। अर्थात् सम्यग्दृष्टी ही उसे समझ सकता यशोगान एक मन्त्र की भांति है, जिसमें 'तमसो मा है, अन्य नहीं । बनारसीदास का कथन है कि वह जिनज्योतिर्गमय' की पूर्ण सामर्थ्य है। उससे बुद्धि की मलिनता वाणी सदा जयवन्त हो :-- तासु हृद-बह सौ शुद्धता में परिणत हो जाती है। इस भाति जिनेन्द्र बिम्ब निकसो, की छवि की महिमा स्पष्ट ही है१ ।। सरिता सम ह्र श्रुत-सिन्धु समानी। यात अनन्त नया तम लच्छन, बनारसीदास ने केवल निष्कल और सकल ब्रह्म की सत्य स्वरूप सिद्धन्त बखानी। ही नहीं, अपितु उन सब साधुग्रो की भी वन्दना की है, बुद्ध लख न लख दुरबुद्ध, जो सदगुणो से युक्त है। उन्होंने लिखा है कि मुनिराज ___सदा जगमाहि जग जिनवानी ॥ ज्ञान के प्रकाश के प्रतीक तो होते ही हैं, वे सहज सुख कवि बनारसीदास ने नवधा भक्ति का निरूपण सागर भी होते है। अर्थात् ज्ञान के उत्पन्न होते ही उन्हें थात् ज्ञान के उत्पन्न होते हा उन्हें किया है। उन्होंने लिखा है, "श्रवण, कीरतन, चितवन, परम सुख स्वत. ही उपलब्ध हो जाता है। उसके लिए सेवन, वेदन ध्यान । लघुता, समता, एकता नौधा भक्ति प्रवान ।" नाटक समयसार में इस नौधा भक्ति के उद्ध१. जाके मुख दरस सौ भगत के नैननि को, रण बिखरे हुए है। थिरता की बानि बढे चचलता बिनसी। नाटक समयसार को भाषा मुद्रा देखि केवली की मुद्रा याद प्रावै जहाँ, कवि बनारसीदास ने अपने अर्धकथानक की भाषा जाके प्रागै इन्द्र की विभूति दीमै तिनसी । को 'मध्य देस की बोली' कहा है। डा० हीरालाल जैन जाको जस जपत प्रकास जगै हिरदे मैं, ने उसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि-बनारसीदास सोइ सुद्धमति होइ हुती जु मलिन सी। जी ने अर्धकथानक की भाषा मे ब्रजभाषा की भूमिका कहत बनारसी सुमहिमा प्रगट जाकी, लेकर उस पर मुगलकाल मे बढ़ते हुए प्रभाव वाली खड़ी सोहै जिनकी छवि सुविद्यमान जिनसी॥ - -वही, १३१२, पृ० ४६१ १. वही, मंगलाचरण, प० ६ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० अनेकान्त बोली की पुट दी है और इसे ही उन्होंने 'मध्य देस की किन्तु फिर भी अधिकांशरूप में 'प' का ही प्रयोग हुन बोली' कहा है, जिससे ज्ञात होता है कि यह मिश्रित है। विषधर, भेष, दोष, विशेष और पिऊष में ष तथा भाषा उस समय मध्य देस मे काफी प्रचलित हो चुकी पोख अभिलाख, विशेखिये में 'ख' देखा जाता है । थी१ । डा. माताप्रसाद गुप्त का कथन है 'यद्यपि मध्यदेस अर्धकथानक मे 'ऋ' कही कही ही सुरक्षित रह पाया की सीमाएं बदलती रही है, पर प्राय सदैव ही खड़ी है, किन्तु नाटक समयसार मे उसका कही पर भी स्वराबोली और ब्रजभाषी प्रान्तो को मध्यदेस के अन्तर्गत देश नही हया है। वहाँ अधकथानक की भॉति दृष्टि को माना जाता है और प्रगट है कि अर्धकथानक की भाषा दिष्टि नहीं किया गया है, अपितु 'दृष्टि' ही सुरक्षित है। मे व्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का किचित सम्मिश्रण इसी भाँति कृपा, कृपाण, मषा प्रादि शब्द भी ऋकारान्त है। इसलिए लेखक का भाषा विषयक कथन सर्वथा सगत जान पडता है।" यह सत्य है कि अर्धकथानक में सस्कृत के सयुक्त वर्णो को स्वरभक्ति या वर्णलोप के खडी बोली और ब्रजभाषा का समन्वय है। इस भांति द्वारा प्रासान बनाने की प्रवृत्ति नाटक समयसार मे भी यह जनमाधारण की भाषा है। प० नाथूराम प्रेमी ने पायी जाती है। जैसे-निहर्च (निश्चय), हिरदै (हृदय), 'बोली' को बोलचाल की भाषा कहा है। 'मध्यदेम' की । विवहार (व्यवहार), सुभाव (स्वभाव), शकति (शक्ति), बोली ही मध्यदेस की बोलचाल की भाषा थी। सासत (शाश्वत), दुन्द (द्वन्द्व), जुगति (युक्ति), थिर बनारसीदास ने अर्धकथानक बोलचाल की भाषा मे (स्थिर), निरमल (निभल), मूरताक (मू (स्थिर), निरमल (निर्भल), मूरतीक (मूर्तिक), सरूप लिखा, किन्तु उनके अन्य ग्रन्थ साहित्यिक भाषा मे है। (स्वरूप), मुकति (मुक्ति), अभिग्रन्तर (प्राभ्यन्तर), साहित्यिक का तात्पर्य यह नही है कि उसमे खडी बोली अध्यातम (अध्यात्म), निरजरा (निर्जरा), विभचारिनी और व्रजभाषा निकल कर दूर जा पडी हो। रही दोनो (व्यभिचारिनी), रतन (रत्न) और प्राचारज (आचार्य), किन्तु संस्कृत निष्ठ हो जाने से उन्हे साहित्यिक की मज्ञा प्रादि । नाटक समयसार मे 'य' के स्थान पर पूर्णरूप से से अभिहित किया गया। प्रर्धकथानक मे प्रत्येक स्थान 'ज' का ही प्रयोग हुआ है, जैसे-जथा (यथा), जथारय पर 'श' को 'स' किया गया है, जैसे 'शुद्ध' को 'सुद्ध', (यथारथ), जथावत (यथावत), जोग (योग), विजोग 'वश' को 'वस' और 'पात्र' को 'पास' । किन्तु नाटक (वियोग) आदि । कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ 'य' का समयसार में अधिकाशतया श' का ही प्रयोग है, जैसे- प्रयोग हुप्रा हो । चेतना, अशुभ, शशि, विशेष, निशिवासर और शिवसता तदभव परक प्रवृत्ति के होते हुए नाटक मे सस्कृतआदि । अर्धकथानक में 'प' स्थान पर 'स' का आदेश निष्ठा को कोई व्याघात नही पहुंचा है। भले ही परपरदेखा जाता है, किन्तु नाटक ममयसार मे सब स्थानो पर गति कर दिया गया हो, किन्तु शब्द तो सस्कृत का ही 'ष' का ही प्रयोग है । उस समय 'ष' का 'ख' उच्चारण है। निर्मल को निरमल और निर्जरा को निरजरा कर होता था, अतः लिपि मे वह 'ख' लिखा हुआ मिलता है, देने से न तो वह 'चलताऊ' बना और न उर्दू-फारसी का। इसके अतिरिक्त सस्कृत के तत्सम शब्दो का भी बहुत १ अर्धकथानक : संशोधित संस्करण, हिन्दी ग्रन्थ अधिक प्रयोग हुआ है, जैसे-ज्ञानवन्त, कलावत, सम्यक्त्व रत्नाकर कार्यालय प्राइवेट लिमिटेड, बम्बई, भूमिका, . मोक्ष, विचक्षण और निर्विकल्प आदि । अर्धकथानक मे अर्धकथानक की भाषा, डा. हीरालाल जैन लिखित, उर्दू-फारसो के शब्द भरे पड़े है, किन्तु समूचे नाटक समयपृ० १६ । सार मै बदफैल और खुराफाती जैसे शब्द दो चार से २. अर्धकथा. हिन्दी परिषद्, प्रयाग विश्वविद्यालय अधिक नही मिलेगे। बनारसीदास उर्दू-फारसी के अच्छे इलाहाबाद, डा० माताप्रसाद गुप्त लिखित, भूमिका, जानकार थे। उन्होने जौनपुर के नवाब के बड़े बेटे चीनी पृ० १४-१५। किलिच को उर्दू-फारसी के माध्यम से ही सस्कृत पढ़ाई Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समयसार' नाटक थी। किन्तु नाटक समयसार का विषय ही ऐसा था, परकता को अभिवृद्ध किया है। बनारसीदास एक भक्त जिसके कारण वे फारसी के शब्दो का प्रयोग नहीं कर कवि थे। उनके काव्य मे भक्तिरस ही प्रमुख है। उनकी सके । बनारसीदास ने विषयानुकूल ही भाषा का प्रयोग भक्ति अलकारों की दासता न कर सकी, अपितु अलकार किया है। यह उनकी विशेषता थी। ही भक्ति के चरणों पर सदैव अर्पित होते रहे। वे रस भाषा का सौन्दर्य उसके प्रवाह मे है, सस्कृत अथवा स्कूल के विद्यार्थी थे। रस प्रमुख रहा और अलंकार फारसी-निष्ठा मे नहीं । प्रवाह का पर्थ है भाव का गुम्फन गौण । शरीर की विनश्वरता दिखाने के लिए उत्प्रेक्षा के साथ अभिव्यक्तीकरण । नाटक समयसार के प्रत्येक के लालित्य के साथ रस का सौन्दर्य देखिये .पद्य मे भाव को सरसता के साथ गृथा गया है। कहीं थोरे से धका के लगे ऐसे फट जाय मानो, विशृखलता नही है, लचरपन नही है । यह एक गुलदस्ते कागद को पुरी किषों चावर है चल की। की भांति सुन्दर है । दृष्टान्तों की प्राकर्षक पंखुड़ियों ने उसके सौन्दर्य को और भी पुष्ट किया है। विचारों की छन्दो पर तो बनारसीदास का एकाधिपत्य था। अनुभूति जब भावपरक होती है तो उसका प्रकट करना । उन्होंने नाटक समयमार मे मवैया, कवित्त, चौपाई, छप्पय, प्रासान नहीं है, किन्तु बनारसीदास ने महज में ही प्रकट अडिल्ल, कुण्डलिया और दोहा-सोरठा का प्रयोग किया कर दी है। इसका कारण है उनका मध्मावलोकन । है । सर्वया तो वैसे भी एक रोचक छन्द है. किन्त बनारमी उन्हें बाह्य मसार और मानव की अन्त प्रकृति दोनो का दाम के हाथो मे वह और भी अधिक सुन्दर बन गया है। मूक्ष्म-ज्ञान था। इसी कारण वे भावानकल दृष्टान्तो को दोहा-सोरठा के बाद उन्होने मबसे अधिक सवैया लिम्बे चनने और उन्हे प्रस्तुत करने में समर्थ हो मके । एक और उनमे भी 'मवैया इकतीमा'। मवैया तेईसा भी है उदाहरण देखिए : किन्तु कम । जैसे भैया भगवतीदास को कवित्तों का गजा जैसे निशिवासर कमल रहै पंकहि में, कहते है, वैसे बनारसीदाम को सवैयो का। समुचे मध्यपंकज कहावं पं न वाके ढिंग पंक है। कालीन हिन्दी साहित्य मे ऐसे सर्वये अन्य नही रच सके । जैसे मन्त्रवादी विषधर सों गहाव गात, कहने का तात्पर्य यह है कि बनारसीदाम ने जैन मन्त्र को सकति वाके बिना विष इंक है ।। ग्राध्यात्मिक विचारो का हृदय के साथ तादात्म्य किया जैसे जीभ गहै चिकनाई रहै रूखे अंग, प्रथोत् उन्होंने जैन मन्त्रो को पढ़ा और समझा ही नही, पानी में कनक जैसे काई सों अटक है। अपितु देखा भी। इसी कारण मन्त्रद्रष्टाग्रा की भांति वे तसे ज्ञानवन्त नाना भांति करतूति ठाने, उन्हे चित्रवत् प्रकट करने में समर्थ हो सके । ऐसा करने किरिया को भिन्न मान याते निकलंक है। में उनकी भाषा सम्बन्धी शक्ति भी सहायक बनी। वे दृष्टान्तों के अतिरिक्त उत्प्रेक्षा, उपमा और रूपकों शब्दो के उचित प्रयोग, वाक्यो के कोमल निर्माण और की छटा भी अवलोकनीय है। अनुप्रासो मे सहज मौन्दर्य अत्रकारो के स्वाभाविक प्रतिष्ठापन में निपुण थे। उनकी है। बनारसीदास को अलकारो के लिए प्रयास नही करना भाषा भावों की अनुवतिनी रही, यही कारण था कि वह पहा । वे स्वतः हो पाये है। उनको स्वाभाविकता ने रस- निर्गनिए मन्तो की भाँति अटपटी न बन सकी। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगध और जैन संस्कृति To गुलाबचन्द चौधरी एम. ए. पी. एच. डी. प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के केन्द्र मगध देश का गौरवपूर्ण नाम इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में प्रति है । यहाँ का इतिहास, निसन्देह, न केवल भारत में, बल्कि विश्व मे बेमिशाल रहा है। ऐसे विरले ही देश होगे, जहाँ से एक साथ साम्राज्यचक्र और धर्मचक्र की घुराएँ अपने प्रबल वेग से शताब्दियों तक जगती-तल पर चलती रही हो। मगध को ही श्रमण-संस्कृति के लिए जीवनदान, संवर्धन एवं पोषण करने का श्रेय प्राप्त है तथा विश्व में उसके परिचय देने और प्रसार का कार्य यहीं से सम्पन्न हुआ था। भारत के विशाल भूभाग को एकछत्र के नीचे लाने वाले साम्राज्यवादरूपी नाटक के अनेक दृश्य यही खेले गए थे। वर्धमान महावीर और तथागत बुद्ध की सर्वप्रथम श्रमरवाणी सुनने का सौभाग्य इसी स्थल को मिला था और जैन तथा बौद्धधर्म के उत्कर्ष के दिन इसी भूमि ने देखे थे। इतना ही नही, आजीवक आदि अनेक सम्प्रदाय और दर्शनों को जन्म देने और उन्हें सदा के लिए इतिहास की वस्तु बना देने का गौरव भी इसी क्षेत्र को प्राप्त है। इसी महीखण्ड पर आध्यात्मिक विचारधारा और भौतिक सभ्यता ने गठबन्धन कर भारतीय राष्ट्रवाद की नीव डाली थी । प्रतापी राजा बिम्बसार श्रेणिक एवं अजातशत्रु, नन्दवशी राजा, सम्राट् चन्द्रगुप्त भी उसका पौष प्रियदर्शी अशोक शुगवशाय सेनानी पुष्यमित्र तथा पीछे गुप्त साम्राज्य के दिग्विजयी सम्राट् समुद्रगुप्त और उनके वशजो ने इसी प्रदेश से ही विस्तृत भूभाग पर शासन कर इसे विश्व की सारी कला, नाना ज्ञान-विज्ञान और अनेक भौतिक समद्धि का केन्द्र स्थल बनाया था। यहां के कलाकारो, मेधावियों और राजनीतिज्ञों की जगत् में प्रशसा होती थी । प्रसिद्ध कवि अश्वघोष, महान् राजनीतिज्ञ चाणक्य मौर कामन्दक, महावैयाकरण वररुचि और पतजलि छन्दकार विङ्गन, महान् ज्योतिर्विद् आर्यभट्ट और तार्किक धर्मकीति, शांतिरक्षित आदि विद्वान् इस प्रान्त को विभूतियाँ थे ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी से लेकर छठवीं । शताब्दी पश्चात् तक यहाँ से राज्यधुरा का चक्र परि चालित होता रहा। पीछे बंगाल के पाल और सेनवशी राजाओं की अधीनता मे पहुँचने पर यद्यपि राजनीतिक दृष्टि से इस क्षेत्र का महत्व कुछ कम हो गया हो, पर सभ्यता और संस्कृति की गरिमा की दृष्टि से इसे जो भन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त थी उसमें तनिक भी कमी नही हुई । नालन्दा और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों द्वारा मगध ने अपना अन्तर्राष्ट्रीय उत्कर्ष पाया । इन विश्वविद्यालयों में ७-८ सौ वर्षों तक भारतीय दर्शनों की, धर्म और साहित्य की कला और संगीत की तथा भैषज्य एवं रसायन शास्त्र की शिक्षा देश-विदेश के विद्यार्थियो को बिना किसी भेदभाव के साथ दी जाती थी। मगध के इतिहास का पृष्ठ यदि राजगृह और पाटलिपुत्र के उत्थान के साथ खुलता है तो वह नालन्दा के पतन के साथ बन्द हो जाता है। इतना विशाल गौरव पाने का बिरले ही देशों को मिला होगा। इसी कारण से मारा प्रान्त आज विहार नाम से पुकारा जाता है। इस प्रदेश की महिमा न केवल भारतीय विद्वानों ने बल्कि अनेक विदेशी यात्रियोटा, जस्टिन मेगस्थनीज, फाहियान, ह्वानच्वाग आदि ने मुक्तकण्ठ से गायी है । श्रमण-संकृति का केन्द्र भारतवर्ष सनातनकाल मे ही अनेक संस्कृतियो का सगमस्थल रहा है। उन संस्कृतियों में एक बहुत प्राचीन संस्कृति श्रमणधारा का क्षेत्र पूर्वीय भारत था । मगध के इतिहास की यदि हम सास्कृतिक पृष्टभूमि टटोने तो हमे मुदूर अतीत से ही यह श्रमण-सकृति का केन्द्र मालूम होता है। तथाकथित वैदिक संकृति के प्रभाव से यह एक प्रकार से मुक्त था। इसकी अपनी भाषा, साहित्य मौर कला-कौशल था । प्राचीन मगध की राजधानी राजगृह के Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगध और जन-संस्कृति आस-पास की खुदाई से प्राप्त पकी मिट्री (टेसाक्टा) के यहाँ तक कि इस क्षेत्र मे प्राण-त्याग भी पाप गिनते हैखिलौनों से, जिनमें स्त्री, पुरुष, राक्षस और पशुमों के 'मगह मरे सो गदहा होय' । अाज भी मिथिला के ब्राह्मण चित्र हैं, मालम होता है कि इस क्षेत्र का सम्बन्ध मोहे- गगा पार मगध की भूमि मे मृत्यु के अवसर को टालते जो-दारो और हरप्पा आदि की प्राचीन संस्कृतियो से है। श्रोत-सूत्रों से यहां रहने वाले ब्राह्मण को ब्रह्म नन्धु अवश्य रहा है। पार्यों के प्रागमन के पहले के कुछ कहते है, जिसका अर्थ जातिमात्रोपेत ब्राह्मण है, शुद्ध अवैदिक तत्त्वो से मालूम होता है कि यहाँ पापाणयुगीन ब्राह्मण नही । आज कल भी यहाँ ब्राह्मण 'बाबाजी' नाम से पुरुषो के वशज रहते थे। यहीं कृष्णागों (नेगरिट) और पुकारे जाते है और किसी काम के बिगड जाने व किसी आग्नेयों (अस्टरिक) की संस्कृति का सम्मिश्रण हा वस्तु के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर उसे भी उपहास रूप था । पार्य और आर्येतर सस्कृतियों का प्रादान-प्रदान 'यह बाबाजी हो गया' कहते है । यद्यपि महावीर और विशेषत. इसी प्रान्त में हया था। पार्यो ने यहाँ के विद्वानों बुद्ध के उदय होने के काफी पहले से मगध मार्यों के से कर्मसिद्धात, पुनर्जन्म और योगाभ्यास की शिक्षा ली अधीन हो गया था, पर यहाँ पुरोहित वर्ग को वैसा और अपनी होम विधि के मुकाबले में उनकी पूजा विधि सम्मान कभी नही मिला, जैसा उसे प्राय देशों में मिला अपनाई। वेदों में यहां के निवासियों को व्रात्य नाग, है। वैदिक संस्कृति एक प्रकार से यहां के लिए विदेशी यक्ष प्रादि नामो से कहा गया है। ऋग्वेदादि ग्रन्थो मे थी, इसीलिए पीछे महावीर और बुद्ध के काल में, वहाँ व्रात्यों की निन्दा और स्तुति के अनेक प्रसग मिलते है। उसका जो थोडा-बहत प्रभाव था, वह भी उठ गया। अथर्ववेद के पन्द्रहवे काण्ड में व्रात्य शब्द का अर्थ और मात्य प्रजापति का सुन्दर वर्णन प्रायः श्रमण नामक मगध से जैनधर्म की प्राचीनता और विकास : ऋषभदेव को लक्ष्य कर कहा गया लगता है। वहाँ यह मगध से जहाँ तक जैनधर्म और सस्कृति का सम्बन्ध भी लिखा है कि व्रात्य की नारी श्रद्धा थी, 'मागध' है वह साहित्यिक प्राधारो पर भगवान् महावीर से पहले उनका मित्र था और विज्ञान उसके वस्त्र थे । यहाँ मगध- जाता है। - जाता है । बौद्ध ग्रथ दीघनिकाय के सामञ्जफल सूत्रों में मागधवासी शब्द इस प्रसंग मे ध्यान देने योग्य है। मगध भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के चातुयाम सवर बासियो के नेतृत्व में पूर्वीय जन समुदाय ने पार्यों की (अहिमा, सत्य, अस्तेय एव अपरिग्रह) का उल्लेख है। दासता से बचने के अनेक प्रयत्न किये थे। ब्राह्मण-सस्कृति उत्तगध्ययन के केशी गौतम सवाद में और भगवती-सूत्र के पुरातन ग्रन्थो मे श्रमण सस्कृति के अनुयायी मगधवासी में पापित्यो (पाश्वपरम्परा के मुनियो) के सम्वाद से एव पूर्वीय जनवर्ग तथा उनके भू भाग को बहुत ही हेयता मालूम होता है कि मगध में भगवान पार्श्वनाथ की और घृणा के भाव से देखा गया है। ऋग्वेद से लेकर शिक्षायो एव उनके समय के व्यवहागे का प्रचलन था। मनुस्मृति तक के अनेक ग्रन्थो मे इस बात के प्रमाण भरे भगवान् महावीर का ममकालीन प्राजीवक मक्खलि पड़े है । मागध (मगध-जनवासी) शब्द का अर्थ ब्राह्मण गोमाल अपने ममय के मनुष्य समाज के छह भेद करता कोपो मे चारण या भाट है। सभव है, जीविकानार्थ है, जिममे तीमग भेद 'निर्ग्रन्थ' ममाज था। इसमे विदित कुछ लोग मगध से चारण, भाटो का पेशा करते हए प्रार्य होता है कि निर्ग्रन्थ मगठन पहले गेही एक उल्लेखनीय मगदेशो में जाते हो, जहाँ उन्हे मगध शब्द से कहते-कहते टन रहा है। प्राचाराग मूत्र मे मालूम होता है कि भगपीछे उसी अर्थ मे मागध शब्द की रूढि हो गई हो। वान् महावीर के माता-पिता श्रमण भगवान् पार्श्व के मनुस्मृति मे गिनाए गये ब्रह्मपि देशो में मगध का नाम उपासक थे । इन तथा छान्य गवल प्रमाणों में सिद्ध है कि शामिल नहीं है। वहाँ मगध शब्द का अर्थ वर्ण मकर से मगध मे जैनधर्म भगवान महावीर मे बहुत पहले से था। है। इस क्षेत्र वासियों ने पुरोहितों और वैदिक देवतायो मगध की राजधानी राजगह गेनो के बीमवे तीर्थडुर की सर्वोच्च सत्ता प्राय न के बराबर स्वीकारी थी। मुनिमुव्रतनाथ के-गर्भ, जम्म, दीक्षा, केवलज्ञान-य इसलिए पुरोहित वर्ग इस क्षेत्र को अपवित्र मानते है और चार कल्याणक हुए थे। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अनेकन्त भगवान महावीर ने दीक्षा काल से निर्वाण प्राप्ति उसके उत्तराधिकारियों के सरक्षकत्व मे सारे भारत पर तक के वयालीस वर्षों में १४-१५ चतुर्मास इसी मगध मे छा गया था। जैन शास्त्रों के अनुमार श्रेणिक भगवान् नालन्दा, राजगृह और पावापुरी में बिताए थे। यहाँ महावीर का अनुयायी हो गया था। उसकी रानी चेलना की पावनभूमि को ही सौभाग्य प्राप्त है कि उन्हें केवल और उसके अनेक पुत्र जैन-मुनियो के परम भक्त थे। ज्ञान इस क्षेत्र की एक नदी ऋजु कला (वर्त० कि ऊल) जैनागमो का कुणिक और श्रेणिक का उत्तराधिकारीनदी के किनारे ज़ भक गाँव (वर्तमान जमुई का क्षेत्र) मे अजात-शत्रु जैनधर्मानुयायी था। उसका बेटा उदयभद्द प्राप्त हुआ था और उनका प्रथम उपदेशामत गजगृह या अपने पिता के समान ही पक्का जैन था। पाटलिपुत्र को पावापुरी में मगध की जनता को सुनने को मिला था। प्रकर्ष देने का श्रेय उदायि को ही है। जैनागम ग्रन्थ बौद्ध ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि भगवान् बुद्ध के समय आवश्यक सूत्र के अनुसार उसने नई गजधानी के मध्य मगध मे जनो के कई केन्द्र थे, जिसमें नालन्दा, राजगह एक जैन चंत्य गृह बनवाया था और अष्टमी चतुर्दशी और पावा प्रमुख थे। मझिम निकाय के अनुमार को प्रोषध का पालन करता था। उदायि ने अनेकों बार नालन्दा मे ही अनेक धनी जैन रहते थे। मगध के कई उज्जैन के राजा को पराजित किया था। प्रभावक जैन श्रावक और श्राविकाओं का नाम बौद्धग्रन्था उदायि के बाद मगध का साम्राज्य अनेक राजमे मिलता है, जैसे राजगह का सचक, नालन्दा का उपालि नीतिक एवं धार्मिक प्रतिद्वंद्वितापो का शिकार बन गया, नीतिक ni fre गृहपति आदि । पर जन-हृदय पर जैनधर्म के प्रभाव की धाग कम हो भगवान् महावीर के समय गजगह अनेक विद्वानो क्षीण हो सकी। जैन-ग्रन्थो मे उदायि के बाद और नवऔर प्रसिद्धवादियो का केन्द्र था। उनके प्रथम उपदेश नन्दो के आविर्भाव के बीच के राजापो का नाम नही को समझने और धारण करने वाला प्रथम शिष्य इन्द्र- मिलता । नन्द राजा और उनके मन्त्रीगण भी जैन थे। भूति, जो गौतम गणधर नाम से प्रसिद्ध हुआ, इसी स्थान उनका प्रथम मन्त्री कल्पक था, जिसकी सहायता से नन्दों का एक विशिष्ट ब्रह्मण था भगवान् के ग्यारह गणधरों ने क्षत्रिय राजानो का मान-मर्दन किया था। नवमे नन्द मे छह तो इसी प्रदेश के थे। कहते है कि राजगृह से का मन्त्री शकटाल भी जैन था, जिसके दो पुत्र थेभगवान् महावीर का जन्म-जन्मान्तरो से सम्बन्ध था। स्थूलभद्र और श्रीयक । स्थूलभद्र तो जैन साधु हो गया, पर और पवित्र पाँच पर्वतों से घिरा हा यह नगर अनेक श्रीयक ने मन्त्रि-पद ग्रहण किया। नन्द राजा जैन धर्मामहापुरुषों की लीला-भूमि तथा मुक्ति-प्राप्ति का स्थान नुयायी थे, यह बात मुद्राराक्षस नाटक से भी मालूम होती रहा है। केवलज्ञान प्राप्ति के समान ही भगवान् महा- है। नाटक की सामाजिक पृष्ठभूमि मे जैन प्रभाव स्पष्ट वीर को निर्वाण पद देने का सौभाग्य मगध की पावन- काम कर रहा है। नन्दो के जैन होने के अकाटय प्रमाण भूमि को ही प्राप्त है। ईसापूर्व ५२७ मे 'पावा' से सम्राट् खारवेल का शिलालेख है, जिसमे उल्लेख है कि वर्धमान मोक्ष प्राप्त हुए थे । पटना के कमलदह (गुल- नन्द गजा कलिग देश से आदिनाथ की प्रतिमा अपनी जार बाग) नामक स्थान से महाशीलवान् सुदर्शन सेठ ने विजय के चिन्ह स्वरूप मगध ले आया था। नन्दों के समाधि पाई थी। समय मगध का साम्राज्य चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था। महाभारत और पुराणों से विदित होता है कि नन्दों के बाद भारत की विदेशी प्राक्रमणों से रक्षा प्रागैतिहासिक-युग में मगध के प्रतापी नरेश जरासन्ध ने करने वाला, सारे भारत को एकछत्र के नीचे लाने वाला समस्त भारत पर राज्य स्थापित किया था । वह भगवान सम्राट चन्द्र गुप्त निर्विवाद रूप से जैन था। बौद्ध अनुनेमिनाथ का युग था। पुनः ईसा की छठवीं शताब्दी पूर्व श्रुति मे उसे मोरिय नामक व्रात्य क्षत्रिय जाति का युवक श्रेणिक बिम्बसार के नेतृत्व में मगध ने ऐसे साम्राभ्य बताया है। जैन ग्रन्थ 'तिलोय पण्णत्ति' मे उसे उन वाद की नीव डाली जो पीछे जैन सम्राट चन्द्रगुप्त और सम्राटों में अन्तिम कहा गया है, जिन्होने जिन-दीक्षा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगध धौर जन-संस्कृति लेकर अन्तिम जीवन जैन मुनि के रूप मे व्यतीत किया था। वह श्रुत- केवली भद्रबाहु की परम्परा का अनुयायी था और ई० पू० २६० के लगभग दक्षिण भारत मे कर्नाटक देश के श्रवणबेल गोला स्थान मे उसने समाधि मरणपूर्वक देहत्याग किया था। आचार्य हेमचन्द्र के परि शिष्ट पर्व के अनुसार सम्राट् चन्द्रगुप्त का महाराजनीतिज्ञ मन्त्री चाणक्य भी अपने जीवन के शेष दिनो में जैनधमं की शरण प्राया था। उसके अन्तिम दिनो का वर्णन इसी लिए हमे जैन शास्त्रों के अतिरिक्त कहीं नहीं मिलता। आगमों का संग्रह जैनागमो का सर्वप्रथम सकलन इसी मगध देश की राजधानी पाटलिपुत्र में प्राचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व मे हुआ था। उस सकलन की एक रोचक कहानी है । भगवान महावीर का जो उपदेश इस मगध की धरा पर हुआ था, वह उनके शिष्यों द्वारा १२ अग और १४ पूर्वो मे विभक्त किया गया था, जो श्रुत परम्परा से चल कर शिष्य-प्रशिष्यो द्वारा कालान्तर में विस्मृत होने लगा था। यह बात नन्द-मौर्य साम्राज्य के सक्रमण काल की है। इस समय तक बौद्धो ने अपने श्रागमो को राजगृह और वैशाली की दो समतियों द्वारा बहुत कुछ व्यवस्थित कर लिया था पर जैनों की ओर से कोई सामूहिक प्रयत्न नहीं हुआ था । नन्द-मौर्य राज्यतन्त्र के मक्रमण काल मे जैन सघ के प्रमुख आचार्य भद्रबाहु थे । हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्ट पर्व के एक उल्लेख से ज्ञात होता है कि उस समय मगध मे बारह वर्ष व्यापी भयकर दुर्भिक्ष पडा था । उस दुष्काल मे जब साधुग्रो को भिक्षा मिलना कठिन हो गया था. तब साधु लोग निर्वाह के लिए समुद्र तट की ओर चले गए और उन्होंने बारह वर्ष के महाप्राण नामक ध्यान की आराधना की थी । दिगम्बर अनुश्रुति के अनुसार भद्रबाहु दक्षिण की ओर अपने संघ सहित चले गये थे। मगध में कुछ जैन मुनि प्राचार्य स्थूलभद्र की प्रमुखता में रह गये थे । भीषण दुर्भिक्ष के कारण मुनि संघ को अनेक विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं। अन्त में श्रागम ज्ञान की सुरक्षा के हेतु प्रा० स्थूलशद्र के नेतृत्व मे एक परिषद् का सगठन हुआ जिसमे श्रवशिष्ट आगमों का सकलन हुआ। भद्रबाहु के अनुगामी मुनिगण जब मगध २१५ लौटे, तो उन्होने सकलित आगमों की प्रामाणिकता पर सन्देह प्रकट किया और तत्कालीन साधु-संघ जो श्वेत वस्त्र का प्राग्रह करने लगा था, को मान्यता प्रदान नही की । इस तरह इस मगध की धरा पर ही दिगम्बर और श्वेताम्बर नाम से जैन संघ के स्पष्ट दो भेद हो गये । यहाँ जो श्रागम सग्रह किया गया, उसे दो भागो में बाँटा गया - एक तो वे जो महावीर से श्रमण परम्परा मे प्रचलित थे, इसलिए उन्हें पूर्व कहा गया पौर महावीर के उपदेश को '१२ अग' नाम से सगृहीत किया गया । श्रागमों की भाषा '' का मगध देश की भाषा मागधी या मगही कहलाती है। इसका जैन श्रागमो की भाषा पर खासा प्रभाव है। जैनागमो की भाषा अर्धमागधी कही जाती है। अर्धमागधी का अर्थ उस भाषा से है, जो माधे मगध में बोली जाती थी अथवा जिसमे मागधी भाषा की प्राधी प्रवृत्तियाँ पाई जाती थी। हो सकता है कि मगध की भाषा को ही अधिक समुदाय के लिए बोधगम्य बनाने के हेतु उसमे पडौस के कोशल सूरगेन यादि प्रदेशों के प्रचलित शब्द शामिल कर लिये गये हो, भाषाविदो के अनुसार मागधी भाषा की मुख्यत तीन विशेषताएँ थी - ( १ ) उच्चारण 'ल' होना (२) तीनो प्रकार के ऊष्म 'शस, प' वर्णों के स्थान पर केवल तालाव्य 'श' पाया जाना, (३) अकारान्त कर्तृ कारक एक वचन का रूप 'श्री' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय होना । इन तीन मुख्य प्रवृत्तियों में अन्तिम प्रवृत्ति अर्धमागधी मे बहुलता से पाई जाती और र का ल होना कही कही पाया जाता है। इसकी शेष प्रवृत्तियाँ पौरनी प्राकृत से मिलती है, जिससे अनुमान होता है कि इसका रूपान्तर मगध के पश्चिम देशो में हुआ होगा । जो हो, जैनो ने पूर्वी भाषा ( मागधी ) का कुछ परिवर्तन संस्कार तो अवश्य किया पर बहुत हद तक वे उसे ही पकड़े रहे। उनके आगम जिस अव मागधी भाषा मे है, उसमें बौद्धागमो की भाषा पालि से मगध की भाषा के अधिकतत्त्व पाये जाते है। जैन, प्राकृतों के 'एयो, दुयों आदि धनेक शब्द मगध में बाज भी बोले जाते हैं। वर्तमान जैन आगमो में प्रमागधी भाषा के अनेक स्तर परिलक्षित होते है। उनमें श्राचा Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अनेकान्त राग आदि कुछ तो प्राचीनतम स्तर वाले हैं पर अधि- का मौका मिल गया । पर मगध की श्रमण-संस्कृति का कांश ग्रन्थों में मध्य युगीन आर्य भाषा के दूसरे स्तर की प्रभाव व्यर्थ नही गया । उसने अन्य संस्कृतियों से समप्रवृत्तिया-समीकरण, सरलीकरण एवं वर्ण लोप आदि न्वय कर उनके रूप निखारने में सहयोग दिया। नवीन प्रवेश कर गई है । सम्भवतः ये उन आगमो की मौखिक ब्राह्मण वर्ग को उसने देवी-देवताओं की भक्ति, उपासना, परम्परा के कारण ही काल क्रम से घुस गई है। मूर्ति पूजा एवं जीव दया आदि बातें प्रदान की और मगध में चोदह वर्ष व्यापी भिक्ष की घटना जैन वैदिक धर्म के पुनरुद्धार काल में वह शक्तिहीन एवं प्रवधर्म के इतिहास की वह भयकर घटना थी, जिसने सघ नत हो गया और कुछ अंश उनमें समा गया। भेद के साथ-साथ जैन धर्म के पैर मगध की भूमि पर इतना सब होने पर भी जैन जनता युगों-युगों में कमजोर कर दिये । वह धीरे-धीरे इस भूमि के जन मानस मगध से अपना सम्बन्ध बनाये रही । जैन कवियो ने से विस्मृत-सा होने लगा और अपने विस्तार का क्षेत्र उसे अपनी पूण्यभूमि को तीर्थ रूप में सदा स्मरण किया पश्चिम और वाराणसी मथुरा की तरफ, पूर्व मे बगाल ग का तरफ, पूर्व म बगाल है। इस बात का प्रकाश हमें नालन्दा बडगाँव के जैन दक्षिण पूर्व कलिग तथा दक्षिण भारत मे ढढने लगा। मन्दिर से पाल वशी राजा राज्यपाल के समय (१०वी पर मगध के वक्ष स्थल पर जैन इतिहास की जो मह्व- शताब्दी का पूर्वार्ध) के एक लेख से मिलता है। लेख में पूर्ण घटनाएं घटी थी, उससे वह जनो की पुण्यभूमि तो मनोरथ का पुत्र वणिक श्रीवैद्यनाथ अपनी तीर्थ-वन्दना बन चुका था। आज भी राजगृह की पच पहाडियां, नालन्दा, पावा, गुणावा और पाटलिपुत्र एक साथ जैनो के ये पांच तीर्थ स्थान इसी मगध की पुण्यभूमि है और प्राज मगध के प्रमुख स्थानों मे जैन जनता वाणिज्य इसके पडोसी प्रदेश हजारीबाग मे सम्मेदशिखर, कोलुपा के लिए बसी है । मगध के जैन सास्कृतिक केन्द्र उनकी पहाड़ तथा मानभूम जिले के अनेक ध्वंमावशेष जैन धर्म सहायता की राह देख रहे है। चारों ओर विकास की के गौरव को उद्घोषित कर रहे है । योजनाएं लागू हो रही हैं । क्या वह मगध जिसने जैन संस्कृति को जन्म क्षण से पाला पोसा है, प्राज फिर उपसंहार उसके विकास के लिए पात्र नहीं हो सकता ? तीर्थमौर्य वंश के बाद मगध पर शुङ्ग और कण्ववश का यात्रा के नाम पर जैन जनता हजारो रुपये इस भूमि पर का राज्य हा। इन वशो के नरेश ब्राह्मण धर्म के प्राकर खर्च करती है, पर जैन-संस्कृति के प्रसार सबधी अनुयायी एवं पोषक थे । इनके समय में मगध हतप्रभ आदानो से, यह प्रान्त आज भी वचित है, जो बड़े खेद था और विदेशियो को भारत मे राज्य स्थापना करने की बात है। अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त को कुछ पुरानी फाइले अवशिष्ट हैं जिनमें इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए है जो पठनीय तथा सग्रहणीय है। फाइलें अनेकान्त के लागन मूल्य पर दी जावेंगी, पोस्टेज खर्च अलग होगा। फाइले वर्ष ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६ वर्षों की हैं। थोड़ी ही प्रतियां प्रवशिष्ट हैं। मंगाने की शीघ्रता करें। ___ मैनेजर 'अनेकान्त' वोरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन के जैनों की संघ व्यवस्था मथुरा | डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ ] उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध मथुरा नगर चिरकाल पर्यन्त जैनधर्म और उसकी सस्कृति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। मौर्य काल के प्रारम्भ से लेकर गुप्त काल के अन्त पर्यन्त लगभग एक सहस्त्र वर्ष का काल मश्रा जैन मध का स्वर्ण युग था और उसमे उसकी मध्यवर्ती तीन शताब्दियों (लगभग १०० ईसा पूर्व से सन ई० २०० तक) उनका चरमोत्कर्ष काल था। साहित्यिक धनु श्रनियों के अतिरिक्त मथुरा नगर के विभिन्न भागो तथा उसके आसपास के प्रदेश मे पुरातात्त्विक शोध योज मे प्राप्त विपुल सामग्री, और उसमे भी विशेष रूप मे बहुसंख्यक शिलालेख हम बात के जीवन्त प्रमाण है। मथुरा से अब तक लगभग अढाई मौ शिलालेख प्राप्त हो चुके है जिनमें से दो तिहाई के लगभग जैनो से संब पित है। उनमे ८० लाख ऐसे है जिनमे विविक्षित धर्मकार्यों के प्रेरक माधु और माध्वियों के नाम भी अकित है। इस प्रकार उस काल मे मथुरा मे विचरने वाले लगभग ६५ विभिन्न जैन मुनियों और २५ कामो के नाम प्राप्त होते है । साधु साध्वियो के नामाfee शिलालेखो मे ६५ ऐसे है जिनमे उल्लिखित साधु माध्वियों के गण, शाखा, कुल आदि का भी निर्देश है, इन शिलालेखो मे से ५१ तिथियुक्त भी है । पार्थि जिन लेखो मे केवल दान देने वाले श्रावक या धाविका का ही उल्लेख है वे इन लेयो मे सर्वाधिक प्राचीन मान्य किये जाते है और उनमें से अधिकतर संभवतया मौर्य शुभ काल लगभग (२००-१०० ईसापूर्व ) से सम्बन्धित हैं । जिनमे साधु साध्वियों के नाम तो है किन्तु उनके गरण, शाखा, कुल प्रादि का कोई उल्लेख नही है वे प्राय ईस्वी सन् के पूर्व और पश्चात् की दो पतियों के अनुमान किये जाते है। प्रथम शती ई० के अभिलेखों मे कही केवल 'गण' का, कही 'कुल' का और कहीं मात्र 'शाखा' का उल्लेख भी पाया जाता है । किन्तु जिन अभिलेखो मे गण, छाला और कुल, तीनों के ही स्पष्ट नाम साथ-साथ मिलते है वे निश्चित रूप मे कृषण कालीन धर्यात् मम्राट कनिष्क चतुर्थ राज्य वर्ष (मन ८२ ई०) के उपरान्त के है । इसमे प्रतीत होता है कि उससे पूर्व के ममरा के जैन साधुधो मे गण-गच्छ शाखा- कुल भादि का विशेष मोह नही था । यह भेद उनकी उदार एव समन्वयात्मक विचारधारा के धनुकम नहीं थे, भेदभाव के ही पोषक थे। वह सब तो मात्र जैन साधु थे और मथुरा के थे । इम प्रत्यक्ष तथ्य की घोषणा करना भी निरर्थक था । भेदभाव को प्रोत्साहन या प्रश्रय देने वाले दक्षिणी एवं पश्चिमी, दोनो ही दनों से वे पृथक थे । किन्तु जैसे जैसे मथुरा मे जैनधर्म का प्रभाव बना गया और उत्कर्ष होता गया उत्तर भारत के अन्य जैन केन्द्रों के मधुगण भी उसकी मोर अधिकाधिक धाकृष्ट होने लगे और यहाँ ग्राकर अपने-अपने अधिष्ठान या केन्द्र स्थापित करने लगे। उच्चनगर, वरण (मभवतया वरन जिसे उतर प्रदेश के बुलन्दशहर से चीन्हा जाता है. इसी का एक भाग उच्चनगर भी कहलाता था ), कोल ( उ० प्र० में अलीगढ के निकट कोल या कोइल), ग्रहिच्छत्रा (जिला बरेली का रामनगर), मकिषा (जिला फरुखाबाद मे) माध्यमिका ( राजस्थान में चिलौट के निकट नगरी), वजनगरी हस्तिनापुर, गढ ( बगाल ) इत्यादि मे भाकर मथुरा मे स्थायी हो जाने वाले इन माधुधो को पृथक् पृथक् चीन्हने के लिए उन्हे अथवा उनकी शिष्य परम्परा को संभवतया उक्त स्थानो के नाम सहित पुकारा जने लगा। शनं शनै इन साबु सघी म ये नाम रूढ होने लगे। और मभवतया उन सबसे स्वय को भिन्न सूचित करने के लिए ठंठ मथुरा वाले साधुगण अपने प्रापको 'स्थानिय कुल' का कहने लगे । 3 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ अनेकान्त प्रथम शताब्दी ई. के मध्य के उपरान्त इस भेद नाम के चार उपसंघों की स्थापना की बताई जाती है सूचक प्रवृत्ति ने अधिक बल पकड़ा दीखता है जो प्रकारण और कहा जाता है कि उनके शिष्य चन्द्रसूरि ने चन्द्र नही था । इस समय के लगभग तक दक्षिणापथ के जैना- गच्छ को और प्रशिष्य सामन्तभद्र ने बनवासीगच्छ की चार्यों ने अपनी परम्पग में सुरक्षित पागम ज्ञान के बहु- स्थापना की थी। वज्रसेन के पूर्व भी-शुग-शककाल मेंभाग को कसाय पाहुड, पटखडागम, मूलाचार, कुन्दकुन्द शायद कुछ एक गणगच्छ आदि स्थापित हो चुके थे, प्रणीत पाहुड ग्रन्थों आदि के रूप मे यथावत या सार रूप ऐसा कतिपय पट्टावलियो से ध्वनित होता है, किन्तु किसी सकलित एव लिपिबद्ध कर लिया था। इसमे सभवतया भी पट्टावली में उन पूर्ववर्ती गणगच्छादि की उत्पत्ति एवं मथुग का सरस्वती आन्दोलन भी पर्याप्त प्रेरक रहा था। विकास का कोई इतिहास, या सक्षिप्त सूचनाएं भी, दूसरी पोर पश्चिमी एव मध्य भारत का साधुदल इस उपलब्ध नही होते । मथुरा के इन शिलालेखो मे अवश्य प्रकार पागम सकलन एव लिपिबद्धीकरण तथा स्वतन्त्र ही उनमें से कुछ के नाम प्राप्त होते है । ग्रन्थ प्रणयन का भी विरोधी ही बना हुआ था। इसी वस्तुतः प्रथम शती ई० के उत्तगध मे जैन संसार मे समय के लगभग एक वृद्धमुनि सम्मेलन मे दक्षिणापथ के घटित होने वाली उपरोक्त क्रान्तिकारी घटनाओ के सघाध्यक्ष आचार्य अहंबलि ने उक्त मध को, जिसे प्रभाव से मथुरा के जैनी अछूते नहीं रह सकते थे। क्या मूलमघ कहा जाने लगा था, नदि सिह, देव, सेन, भद्र, आश्चर्य है जो उन्होने भी अपने गण-शाखा-कुल प्रादि प्रादि उपसघों मे सगठित होने की अनुमति दे दी थी उन नामो के आधार पर जिन्हे वे सुविधा के लिए मूल सघ में यह उपसघीकरण उसके कुछ पूर्व ही अस्तित्त्व विशिष्ट स्थानो से आने वाले का विशिष्ट गुरु की मे आ चुका होगा, तभी तो उसे उक्त सम्मेलन मे मान्यता परम्पग मे होने वाले साधुप्रो को चीन्हने के लिये सौ प्रदान की गई । दक्षिणापथ के साधुप्रो के इन दोनो कार्यो दो सौ वर्ष से ही प्रयुक्त करना प्रारम्भ कर चुके थे अब (शास्त्र लेखन एव सघ-सगठन) का ही यह परिणाम (प्रथम शती ई० के उत्तरार्ध मे) ही विधिवत व्यवस्थित हुया प्रतीत होता है कि वि० स० १३६ (सन् ७६ ई०) एव सगठित किया हो। मे गुजरात की बलभी नगरी मे उस केन्द्र के साधु मघ ने स्वय को दक्षिणी साधु सघ से पृथक स्वतन्त्र घोषित कर मथुरा के इन शिलालेखों मे तीन गण-कोटिय, दिया । या तो उन्होने स्वय अथवा दक्षिणी साधुग्रो ने उन्हे वारण और उद्देहकिय; ६ शाखा-वइरी, उच्चै नगरी, प्राय. उसी काल से श्वेताम्बराम्नायी कहना प्रारम्भ विद्याधरी, मज्झमिका, हरितमालगढ़ीय, पचनागरी, कर दिया था१ । मभवतया इसी की प्रतिक्रिया के रूप में वज्रनागरी, साकिष्य और पोतपुत्रिका, तथा १४ कुलमहावीर निर्वाण स०६०६ (सन् ८२ ई०) मे दक्षिण के स्थानीय, ब्रह्मदासीय, चेटिय (चेतिय), वच्छलिका, मलमपी साधयो ने भी विशेषकर रथवीपर मे स्वय को सतिनिक, पेतिवामिक, हट्टिकिय, कन्यस्त (या अय्यभ्यस्त), श्वेताम्बरों से भिन्न सूचित करने के लिए दिगम्बराम्नायी कन्यासिका, पुष्यमित्रीय, नाडिक, मौहिक, नागभूतिय और के नाम से घोषित कर दिया। परिधासिका के नाम उपलब्ध होते है । इनके अतिरिक्त इस समय श्वेताम्बर संघ के नायक वचस्वामि के दसवी-ग्यारहवी शती ई० के तीन मूर्तिलेखो मे से एक मे पट्टधर वज्रसेन थे जिनका निधन ६३ ई० मे हुआ। इन्ही नवी 'भोधाय गच्छ' का और दो में (९८१ ई० और १०७७ प्राचार्य वनसेन ने नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति एव विद्याधर ई० के मे) श्वेताम्बर माथुर सघ का उल्लेख प्राप्त होता है। १०२३ ई० मे एक प्रतिमा सर्वतोभद्रिका दिगम्बर १. दर्शनसार, भावसग्रह, भद्रबाहु चरित आदि में प्राम्नाय की भी यहाँ प्रतिष्ठित हुई थी, किन्तु उसमे निबद्ध दिगम्बर अनुश्रुति । किसी गण-गच्छ का उल्लेख नहीं है । 'भोधायगच्छ' का २. तपागच्छ पट्टावली, विशेषावश्यक भाष्य आदि मे श्वेताम्बर परम्परा के ८४ गच्छो अथवा दिगम्बरो के निबद्ध श्वेताम्बर, अनुश्रुति । अनेक सघ-गण-गच्छों में से किसी के साथ समीकरण Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन मथुरा के जैनों को संघ-स्यवस्था नही बैठता । श्वेताम्बर माथुर संघ के ये उल्लेख भी विरल हेमचन्द्राचार्य के परिशिष्टपर्व (१२वी शती) मे उक्त हैं, अन्यत्र कहीं इस मंघ का उल्लेख पाया गया नही जान दोनो पट्टावलियो मे उल्लिखित प्राचीन गुरुप्रो के मबन्ध पडता। दिगम्बर परम्परा के माथुर सघ की स्थापना मे अनेक सूचनाएँ एव कथाएं मिलती है, और तेरहवी से मुनि राममेन ने मथुरा नगर मे वि० सं० ६५३ मे की थी लेकर १६वी शती तक लिखी जाने वाली जो दर्जनो ऐमा देवमेन कृत दर्शनसार से मूचित होता है । यह तिथि पट्टावलियाँ उपलब्ध है उनमे महावीर निर्वाण से लेकर कुछ सदिग्ध हो सकती है किन्तु उक्त सघ के उल्लेख प्रागमो की संकलना तक, लगभग १००० वर्ष के बीच मथुग के निकटवर्ती प्रागरा आदि स्थानो मे ११-१२वी होने वाले श्वेताम्बर परम्परा सम्मत गुरुपों के विवरण शती से मिलने प्रारम्भ हो जाते है अन्यत्र भी। प्रतएव उन दोनो पट्टावलियो के आधार पर ही निबद्ध हुए है। ऐसा लगता है कि १०वीं शती ई. के मध्य लगभग दोनों इन प्राचीन पट्टावलियो (थेरावलियों) की प्राचीनतम ही परम्पराओं ने मथुरा में अपने सस्थानो के पुनरुद्धार उपलब्ध प्रतियाँ भी १२वी शती से अधिक प्राचीन नहीं का प्रयत्न किया था---प्राप्त अवशेषो से सिद्ध होता है प्राप्त होती, अतएव उनके प्राधार पर उनके मूलपाठ उस काल में, प्राय' तभी निर्मित एक दिगम्बर तथा की वास्तविक प्राचीनता निश्चित करना भी कठिन है। श्वेताम्बर मन्दिर ककाली टीला स्थित प्राचीन स्तुप के यह सभव है कि वे देवद्धिगणी के उपरान्त भी कई बार आस-पास विद्यमान थे। अतएव यह कहना तो कठिन है परिवर्तित, मशोधित, सवधित प्रादि हुई हो। कि किसने किसका अनुकरण किया, सभव है दोनो ने जिस रूप में भी ये उपलब्ध है, नन्दी सूत्र की पट्टामहयोग सद्भाव पूर्वक ही यह पुनरुद्धार कार्य किया हो वली मे तो गण-शाखा-कुलो का कोई उल्लेख ही नही और उसी उपलक्ष में इस कार्य का नेतृत्व करने वाले है । कल्पसूत्र थेरावलि के दो सस्करण प्राप्त होते हैउभय सम्प्रदाय के प्राचार्यों में अपना-अपना माथुर सघ एक 'मक्षिप्त वाचना', दूसरी 'विस्तार वाचना' । सक्षिप्त स्थापित किया हो । एक बात और ध्यान देने को है कि वाचना में भगवान महावीर ११ गणधरो के नाम और मथरा में इसके पूर्व दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद लक्षित नही गोत्र तथा उनके उपरान्त सुधर्म से लेकर वज्रसेन पयन्त होता। और जबकि उसमे प्राचीन शिलालेखो से अकित १५ थेरो के नाम और गोत्र अनुत्रम से दिये है। उममे (तथा लेख रहित भी) सभी जिन प्रतिमाएँ पूर्णतया । हवे नम्बर पर सुहस्ति के शिष्य युगल-मुस्थित और दिगम्बर है, उन लेखों मे उल्लिखित उपरोक्त गण- सुप्रतिबद्ध का नाम दिया है और उनका समुच्चय विशेषण गच्छादि में से अनेक का उल्लेख केवल श्वेताम्बर अनु- 'कोडिय काकदण' बताया है। इन दोनो का थेर पद थतियों में ही प्राप्त होता है, किसी दिगम्बर ग्रन्थ में स क्त रहा मूचित होता है। अतिम थेर वज्रसेन के अभी तक नही हुआ है। चार शिष्या-नाइल, पोमिल, जयन्त और तापस से __श्वेताम्बर सम्प्रदाय की पट्टावालियो-गुर्वावालियो नाइली, पोमिला, जयन्ती और तपस्वी नामक चार आदि मे कल्पसूत्र थेरावली और नदीसूत्र पट्टावली ही शाखायो के चल निकलने का निर्देश करके यह पट्टावली सर्वप्राचीन मानी जाती है। इन दोनो के मूल रचयिता समाप्त हो जाती है। किन्तु इसके उपरान्त विस्तार श्वेताम्बर प्रागमों के सकलन एव पुस्तकारूढ़ का वाचना' मे उपरोक्त १५ थेगे के सम्बन्ध मे कतिपय देवद्धिगणी क्षमाश्रमण (४५३-४६६ ई.) बताये जाते अन्य सूचनाएं भी दी है जिनमें प्राचीन गण, शाखा, है। कतिपय नियुक्तियो (छठी शती ई०), वसुदेव हिडि कुलो प्रादि की उत्पत्ति की कथाएँ उल्लेखनीय एव इस (६-७वी शती), हरिभद्रीय विशेषावश्यक भाष्य (८वी प्रसग मे महत्त्वपूर्ण हैं । शती ई.) भद्रेश्वर की कथावली (११वीं शती) और (क्रमशः) Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के लिए तीन सुझाव प्राचार्य श्री तुलसो विगत दो ही दशको में हम सबने सामाजिक और संवत्सरी पर्व राष्ट्रीय स्थितियो मे इतने विराट परिवर्तन देख लिए जैन-समाज की भावात्मक एकता के लिए अत्यन्त है. जितने हमारे पूर्वज शताब्दिया और सहस्राब्दियों में अपेक्षित है कि समग्र जैन समाज का संवत्सरी पर्व एक देखा करते थे । शासन-तन्त्र बदला है, अर्थ-तन्त्र बदला है हो। इससे जैन-समाज में एक नया उल्लास व नया बल व नाना सामाजिक मूल्य बदले है। वर्तमान स्थितियो में पायेगा, ऐसा विश्वास है। विगत के इतिहास को देखते उस वर्ग व उस समाज के लिए स्वाभिमान का जीवन जी हुए यह कार्य कठिन लगता है, किन्तु वर्तमान की अपेलेना कठिन है, जो केवल अपने ढर्रे पर ही अवलम्बित न है, जा केवल अपन ढर पर हा अवलाम्बत क्षाओ को समझते हुए हमे इसे सरल बना लेना रहता है। चाहिए। प्राग्रह हर समन्वय को कठिन बनाता है और आज मजदूर, किसान व हरिजन सभी अपने संगठन उदारता उसे सरल । श्वेताम्बरो मे सम्वत्सरी सम्बन्धी के बल पर आगे बढ़ रहे है, अपने प्राचार-विचार व मतभेद चतुर्थी या पचमी बस इतने में समा जाते है। रहन-सहन की पद्धतियाँ बदल रहे है और विभिन्न दिगम्बरो में दश लाक्षणिक उमी पचमी से प्रारम्भ होते क्षेत्रों में प्रभाव अजित कर रहे है। जैन समाज तो सदा है। श्वेताम्बर परम्पराए यदि चतुर्थी या पचमी के विकल्प से ही दूरदर्शी समाज रहा है। देश-काल के साथ उसने से केवल पचमी के विकल्प को अपना लेती है तो वे सदा ही सामजस्य बैठाया है। वह जितना अर्थ-प्रधान है परस्पर मे एक हो ही जाती है साथ ही दिगम्बर समाज उतना बुद्धि-प्रधान भी है। इस समाज के प्राचार्य व मुनि को भी वे एक-सूत्रता में जोड़ लेती है। उस स्थिति में भी युग-द्रष्टा रहे है। देश-काल के अनुरूप अनुसूचन वे दिगम्बर समाज का भी नैतिक दायित्व हो ही जाता है सदा से ही समाज को देते रहे है। नाना वादी व नाना कि वह अपने दश लाक्षणिक पर्व के अन्तिम दिन की भौतिक विचार-सरणियो से सकुल वर्तमान युग मे उनका तरह ग्रादि को भी आध्यात्मिक महत्व देकर जैन एकता दायित्व और बढ़ जाता है कि वे यथासमय यथोचित की कडी को और सुदृढ करे। मार्ग-दर्शन समाज का करे। वर्तमान युग में जीने की इस परिकल्पना मे न किसी परम्परा की न्यूनता है, और विकासोन्मुख बने रहने की पहली शर्त है-संगठन । न किसी परम्परा विशेष की अधिकता। यत किचित जैन समाज अनेक शाखाग्रो व उप-शाखायो मे बँटा है। सभी को बदलना पड़ता है और बहुत कुछ सभी का बीसपथ और तेरापथ----ये दो उपशाखाएँ दिगम्बर समाज सुरक्षित रह जातः है । प्रश्न रहता है चिरतन परम्परामो की हैं तथा मूर्तिपूजक, स्थानकवासी व तेरापथ--ये तीन मे यत्किचित् भी परिवर्तन करने का हमारा अधिकार उपशाखाएं श्वेताम्बर समाज की है । कुछ अन्य भी रहता है क्या ? इसका उत्तर परम्पराएँ हा स्वय दे देती प्रवान्तर शाखाएँ होगी । सभी शाखा-प्रशाखाग्रो मे है। इतिहास ऐसी अनगिनत परम्पराएँ हमारे सामन मौलिक भेद बहुत कम है । जो है उसे और कम करना, रखता है जो देश-काल के साथ बनती है और देश-काल अाज हमारा सबका कर्तव्य है। इस दिशा में आगे बढ़ने के साथ बदलती रही है। शास्त्रीय परम्पराओं की भी के लिए मैं वि० स० २०२१ तथा वीर निर्वाण समय-समय पर नवीन व्याख्याएँ बनी है। एकान्तवादिता स० २४६१ के वीर निर्वाण दिवस-दीपावली पर्व पर से हटकर सोचने से ऐसे अनेक मार्ग सहज ही मिल सकते समग्र जैन समाज के सम्मुख तीन सुझाव प्रस्तुत करता है जो शास्त्र और परम्परा से अवरोध रहकर हमे रास्ता दे सकते है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के लिए तीन सुझाव अखिल भारतीय जन प्रतिनिधि संगठन समग्र जैन समाज के प्रतिनिधित्व के लिए एक सुदृढ अखिल भारतीय जैन प्रतिनिधि संगठन की नितांत अपेक्षा है। सभी प्रमुख सम्प्रदायो अथवा सम्प्रदायो की प्रतिनिधि सस्थाओं द्वारा प्रेषित प्रतिनिधि संयुक्त रूप से जैनधर्म के सार्वभौम हितो के सरक्षण व विकास पर विचार कर सके व तद्नुकूल प्रवृत्त हो सके, यह उस संगठन का ध्येय हो । सयुक्त राष्ट्रसघ इस बात का उदाहरण है कि परम्परा विरोधी राष्ट्र भी एक संगठन में आ सकते है तथा मानव हित की अनेक प्रवृत्तियों संयुक्त रूप से वे चला सकते है । जैन शाखा प्रशाखाओ के तो मतभेद ही नगण्य है । स्यादवाद सबका आधार है । जैनत्व के संरक्षण और विकास में सबका रस है । ऐसी स्थिति में यह जग भी असम्भव नही लगता कि ऐसा सर्वमान्य सगठन जैन समाज बना ही नही सकता व उसकी उपयोगिता से लाभ उठा ही नही सकता । अपेक्षा है कुछ ही सक्रिय लोगो के आगे बढ कर कदम उठाने की । भगवान महावीर को २५वी निर्वाण शताब्दी यह सुविदित है कि आज से ठीक १० वर्ष बाद महावीर निर्वाण के २५०० वर्ष पूर्ण हो रहे है। सभी जैन परम्पराएँ एतद् विषयक काल-गणना में एक मत है । जैनधर्म की प्रभावना का यह सुन्दर अवसर है। बौद्धों ने सिहली परम्परा के ग्रन्थ 'महावश की काल-गणना के अनुसार कुछ ही वर्ष पूर्व बुद्ध निर्वाण के २५०० वर्ष उल्लेखनीय समारोह से मनाये थे सब बौद्ध परम्पराएं महावश की इस काल गणना से सहमत नहीं थी, फिर भी उस समारोह को अन्तर्राष्ट्रीय रूप देने के लिए साथ दिया । विश्व के कोने-कोने मे एक साथ बुद्ध का सन्देश प्रतिध्वनित हुआ। जैन समाज के सामने भी ऐसा ही अवसर है । काल-गणना मे जिस प्रकार समस्त जैनमान्यताएं एक है, उसी प्रकार यदि समग्र जैन समाज २२१ समति होकर २५वी महावीर निर्वाण शताब्दी विशेषकर त्याग और तपस्या से मनाएँ तो सचमुच ही जैनधर्म को एक नव-जावन मिल सकता है। उसका गौरवपूर्ण इतिहास, उसका स्याद्वाद मूलक दर्शन व अहिसा मूलक आचार एक साथ विश्व के सामने या सकता है। त्याग, तपस्या व धर्म-प्रभावना मूलक आयोजनो से जैन समाज कृतार्थ हो सकता है। अपेक्षा है व्यवस्थित व योजनावद उपक्रम की । इस समारोह की सफलता के लिए यथासमय अखिल भारतीय जैन प्रतिनिधि संगठन बनने की तथा सवत्सरी पर्व भी तब तक हमारा एक होने की अपेक्षा है । इस स्थिति मे हम सभी को अविलम्ब इस दिशा मे दत्तचित्त हो जाना चाहिए। संक्षेप में मैंने ये तीन बाते जैन समाज को सुभाई है। आशा है, सभी शाखा प्रशाखानों के प्राचार्य, आध्याय, मुनि तथा प्रतिनिधि संगठन इन पर सहृदयता से विचार करेंगे । इस अपेक्षाशील युग में भी यदि जैन समाज ने कुछ करके नही बताया तो आने वाली पीढी वर्तमान पीढी की अकर्मण्यता व अदूरदर्शिता पर अनुताप करेगी । जंन शिखर सम्मेलन उक्त सारी परि कल्पनाओ को साकार रूप देने के लिए समग्र जैन प्राचार्यों व प्रभावशाली मुनियों का एक शिखर सम्मेलन शीघ्र ही प्रायोजिन होने की अपेक्षा है, जिससे सभी समाजों के अग्रणी धावको का सम्मिलित होना उचित होगा। यह सम्मेलन कहाँ हो, कब हो, और हो सभी प्रश्न विचारणीय है। अपेक्षा है, सभी मुनि व अग्रणी श्रावक इस विषय पर विचार करे व अपने-अपने सुझाव प्रस्तुत करें। अपने-अपने सुझाव प्रस्तुत करें। इस प्रकार का शिखर सम्मेलन हम सब मिलकर कर सके तो जैन-शासन के लिए सचमुच ही वह एक स्वर्णिम घटना होगी । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक के चार शोध-टिप्पण मुनिश्री नथमल जी दावकालिक सूत्र मे अनेक शब्द ऐसे है जो प्राचीन परम्परामो और संस्कृति के द्योतक है। हम यहा 'धूव- णेति', 'हड', 'सिणाण' और 'पद्मग' इन चार शब्दों की मीमांसा प्रस्तुत करते है। इसका प्राधार अगस्त्यसिंह स्थविर तथा जिनदास चूणि द्वय और हरिभद्रसूरि की टीका है। १. धूम-नेत्र (धूव-णेत्ति) शिर-रोग से बचने के लिए धूम्रपान करना अथवा धूम्र-पान की शलाका रखना अथवा शरीर व वस्त्र को धूप खेना-यह अगस्त्यसिह स्थविर को व्याख्या है। जो क्रमशः धूम, धूम-नेत्र और धूपन के आधार पर हुई जिनदास महत्तर के अनुसार रोग की आशंका व शोक आदि से बचने के लिए अथवा मानसिक आह्लाद के लिए धूप का प्रयोग किया जाता था। निशीथ में अन्य तीथिक और गृहस्थ के द्वारा घर पर लगे धूम को उतरवाने वाले भिक्ष के लिए प्रायश्चित का विधान किया है५ । भाष्यकार के अनुसार दद्रु आदि की औषधि के रूप मे धूम का प्रयोग होता था। ___यह उल्लेख गृह-धूम के लिए है किन्तु अनाचार के प्रकरण मे जो धूमनेत्र (धूम-पान की नली) का उल्लेख है, उसका सम्बन्ध चरकोक्त वरेचनिक, स्नैहिक और प्रायोगिक धूम से है। प्रति दिन धूम-पानार्थ उपयुक्त होनेवाली वति को धूम-नेत्र का निषेध उत्तराध्ययन में भी मिलता है। यद्यपि टीकाकारो ने धूम और नेत्र को पृथक् मानकर व्याख्या की है पर वह अभ्रान्त नही है । नेत्र को पृथक् मानने के कारण उन्हे उसका अर्थ प्रजन करना पडा३, जो कि बलात् लाया हुआ-सा लगता है। १. अगस्त्य चणि ।। धूग पिबति 'मा सिररोगातिणो भविस्संति' प्रागेगपडिकम्म, अहवा "धूमणे" त्ति धूमपानसलागा, धूवेत्ति वा अप्पाणं वत्थाणि वा। २. उत्तराध्ययन, १५८ ....... "वमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं । पाउरे सरणं तिगिच्छिय च त परिचाय परिव्वए स भिक्खू ॥ ३. उत्तराध्ययन १५८ नेमिचन्द्रिया वृत्ति, पत्र २१७। नेतं ति नेत्रशब्देन नेत्तसंस्कारकमिह समीरांजनादि गृह्यते। ४. जिनदास चरिण पृ० ११५ धूवर्णत्ति नाम आरोग्यपडिकम्म करेइ धूमपि, इमाए मोगाइणो न भविष्सति, अहवा अन्न वत्थारिण वा धवेई। ५. निशीथ १२५७, जे भिक्खू गिहधूम अण्णउत्थिएण वा गारित्थएण वा परिसाडावेत वा सातिज्जति । ६. (क) निशीथ भाष्य गाथा ७६८ घरधूमोसहकज्जे, ददु किडिभेदकच्छु अगतादी। घरधूमम्मि णिबधो, ताज्जातिम सूयणट्ठाए । (ख) चरकसहिता सूत्र ३।४-६, पृ. २६ ___कुष्ठ, दद्रु, भगन्दर, अर्श पामा आदि रोगों के नाश के लिए कई योग बतलाए है। उनमे छठे योग में और वस्तुओं के साथ गृह-धूम भी है मन शीलाले गृहधूम एला काशीसमुस्तार्जुनरोध्रमर्जा. ॥४॥ कुष्ठानि कृच्छाणि नवं किलासं सुरेन्द्रलुप्त किटिम भगन्दराशस्यपची सपामां हन्युः प्रयुक्तास्त्वचिरान्नराणाम ॥६॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिक के चार शोध-टिप्पण प्रायोगिकी वर्ति, स्नेहनार्थ उपयुक्त होनेवाली वर्ति को स्नैहिकी- वर्ति और दोष - विरेचन के लिए उपयुक्त होने वाली बात को रेचनिकी बति कहा जाता है। प्रायोगिकी बर्ति के पान की विधि इस प्रकार बतलाई गई है --षी प्रादि स्नेह से चुपड़ कर बर्ति का एक पार्श्व धूम-नेत्र पर लगाए और दूसरे पाव पर याग लगाए। इस हितकर प्रायोगिकी वति द्वारा धूमन्यान करें । उत्तराध्ययन के व्याख्याकारों ने धूम को मेनसिल श्रादि से सम्बन्धित माना है२ । चरक मे मेनसिल प्रादि के धूम को शिरो विवेचन करने वाला माना गया है३ । धूम-नेत्र कैसा होना चाहिए, किसका होना चाहिए और कितना बडा होना चाहिए तथा धूम्रपान को और कब करना चाहिए, इनका पूरा विवरण प्रस्तुत प्रकरण में है। सुश्रुत के चिकित्मा-स्थान के चालीसवे अध्याय मे धूम का विशद वर्णन है। वहाँ धूम के पाँच प्रकार बतलाए है । चरकोक्त तीन प्रकारो के अतिरिक्त 'मन' और 'वामनीय' ये दो और है । नाग मे पन और पयान दोनो का निषेध ४। शीलाक मूरि ने इसकी व्याख्या मे पिया है कि मुनि शरीर और वस्त्र को धूप न दे श्रौर वासी आदि को मिटाने के लिए योग-वर्ति-निष्पादित धूम न पीए५ । सूत्रकार ने धूप के अर्थ में 'पूर्ण' का प्रयोग किया है और सर्वनाम के द्वारा धूप के अर्थ मे उसी को ग्रहण १. चरक सूत्रस्थानम् ५।२१ शुष्क निगर्भा ता यतिधमनेावानरः । स्नेहाक्तामग्निसप्लुष्टा पिवेत्प्रायोगिकी सुखाम् ॥ २. उत्तराध्ययन १५१८ नेमिचन्द्रिया वृत्ति, पत्र २१७ धूम मनः शिलादिसम्बन्धि ३ चरक सूत्रस्थानम् ५।२३ श्वेता जोतिष्मती चंद हरितालं मनःशिला। गन्धाश्चागुरुपत्राचा धूमः शीर्षविरेचनम् ॥ ४. (क) सूत्रकृताग २।१।१५ पत्र २१७ णो धूवणे, णो वं परिभाविएज्जा । ५. ( ख ) वही, २।४।६७, पत्र ३७० णो धूवरित विश्राइते । २२३ किया है। इससे जान पडता है कि तात्कालिक साहित्य में धूप और धूम दोनो के लिए 'धूवण' शब्द का प्रयोग प्रचलित था । हरिभद्र सूरि ने भी इसका उल्लेख किया है। प्रस्तुत श्लोक मे केवल 'धूवण' शब्द का ही प्रयोग होता तो इसके धूप और धूम ये दोनो ही धयं हो जाते, किन्तु यहाँ धूप-पंति' शब्द का प्रयोग है इसलिए इसका सम्बन्ध धूमपान से ही होना चाहिए। वमन, विरेचन और वस्तिक के साथ 'धूम-नेत्र' का निकट सम्बन्ध है६ । इसलिए प्रकरण की दृष्टि से भी 'घूपन' की अपेक्षा 'धूमनेत्र अधिक उपयुक्त है। है अगस्त्य सिंह स्थविर ने 'धूवणोत्ति' पाठ को मूल माना और 'धूमणेत्ति' को पाठान्तर हरिभदरिने मूल पाठ 'धूत्रणेत्ति' मानकर उसका संस्कृत रूप धूपन किया है। और मतान्तर का उल्लेख करते हुए उन्होंने इसका अर्थ धूम-पान भी किया है। पर्व की दृष्टि से विचार करने पर चूणिकारो के अनुसार मुख्य अर्थ धूमपान है और धूपखेना गौण अर्थ है । टीकाकार के श्रभिमत में धूप- खेना मुख्य अर्थ है और धूम-पान गौरा। इस स्थिति मे मूलपाठ का निश्चय करना कठिन होता है, किन्तु इसके साथ जुड़े हुए 'इति' शब्द की अर्थ-हीनता और उत्तराध्ययत मे प्रयुक्त 'धूमन' के माधार पर ऐसा लगता है कि मूल 'भ्रमण' या '' रहा है। बाद में प्रतिलिपि होते. होते यह 'धूवणे' त्ति के रूप में बदल गया ऐसा सम्भव है । प्राकृत के लिंग तन्त्र होते है, इसलिए सम्भव है कि यह 'धूवणेत्ति' या 'धूमणेत्ति' भी रहा हो । बौद्ध भिक्षु धूमपान करने लगे तब महात्मा बुद्ध ने उन्हें घूमनेत्र की अनुमति दी फिर भिक्षु वनं रौप्य 1 ६. सूत्रकृताङ्ग । १।१५, टीका पत्र २६६ तथा नो शरीरस्य स्वीयवस्त्राणा वा धूपन कुर्यात् नापि कासाद्यपनयनार्थ एवं योगवतिनिपदितमापिबेदिति । ७. चरक सूत्रस्थान ५।१७।३७ ८. धगत्यसिंह चूर्ण-पूर्वमेति सिगोगो २. हारिभद्रीय टीका, पत्र ११० धूपनमित्यात्मवस्त्रादेरनाचरितम् प्राकृतसंन्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपानमित्यन्ये व्याचक्षते । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अनेकान्त प्रादि के धूम-नेत्र रखने लगे। इससे पता लगता है कि 'हड' वनस्पति 'हढ' नाम से भी जानी जाती थी। भिक्षयों और सन्यासियो में धूम पान के लिए धूम-नेत्र हरिभद्र सूरि ने इसका अर्थ एक प्रकार की प्रबद्धमूल रखने की प्रथा दी, किन्तु भगवान महावीर ने अपने वनस्पति किया है७ । जिनदास महत्तर ने इसका अर्थ द्रह, निर्ग्रन्थों में इसे रखने की अनुमति नहीं दी२। तालाब आदि मे होने वाली एक प्रकार की छिन्नमूल २ हट (हडो) वनस्पति किया है । इसमे पता चलता है कि 'हड' बिना सूत्रकृताङ्ग में 'हड' को 'उदक-संभव' वनस्पति कहा मूल की जलीय वनस्पति है। गया है। वहाँ उसका उल्लेख उदक, अवग, पणग, सेवाल, सुश्रुत में मेवाल के माथ 'हट' तण पद्मपत्र प्रादि कलम्बुग के माथ किया गया है३ । 'प्रज्ञापना' सूत्र में का उल्लेख है । इसमे पता चलता है कि सस्कृत मे 'हड' जलरुह वनस्पति के भेदों को बताते हुए उदक आदि के का नाम 'हट' प्रचलित रहा । यही हट से पाच्छादित जल माथ 'हढ' का उल्लेख मिलता है४। इसी सूत्र में साधारण को दूषित माना है । इससे यह निष्कर्ष महज ही निकशरीरी बादर-वनस्पतिकाय के प्रकारो को बताते हए 'हढ' लता है कि 'हड' वनस्पति जल को आच्छादित कर रहती वनस्पति का नाम पाया है। प्राचाराङ्ग निर्यक्ति मे है । 'हढ' को मस्कृत मे 'हट' भी कहा गया है१०॥ अनन्त-जीव वनस्पति के उदाहरण देते हुए सेवाल, कत्थ, हड' वनस्पति का अर्थ कई अनुवादो में घास ११ अथवा भाणिका, अवक, पणक, किण्णव आदि के साथ 'हढ' का वृक्ष १२ किया गया है । पर उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि नामोल्लेख है ६ । इन समान लेखो से मालम होता है कि १. देग्यो पृष्ठ ६३, पाद-टिप्पण नं०८ अबद्धमूलो वनस्पति विशेष । २. विनयपिटक. महावग्ग ८।२।७ : जिनदास चणि, पृष्ठ ८६ भिक्ख उच्चावचानि धूमनेतानि-सोवण्णमय हढो णाम वणस्सइविसेमो, मो दहतलागादिष छिण्णरूपिमय । मूलो भवति । ३. सूत्र वृताङ्ग २१३१५४, पत्र ३४६ ६. सुश्रुत (मूत्रस्थान) ४५७ प्रहावर पुरक्खायं इहेगतिया सत्ता उदगजोणिया तत्र यत् पकवालहटतृणपद्मपत्रप्रभृतिभिरवच्छन्न उदगसंभवा जाव कम्मनियाणेण तत्थबुक्कमा णाणा शशिसूर्यकिरणानिल भिजुष्ट गन्धवर्णा मोपमष्टच विहजोणिएसु उदएस उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए ताव्यापन्नमिति विद्यात् । सेवालत्ताए कलबुगत्ताए हडताए कसे रुगताए-- १०. प्राचागग नियुक्ति, गाथा १४१, पत्र ५४ विउट्टन्ति सेवालकत्थभाणिका वकपनककिण्वहठादयो नन्तजीवा ४. प्रज्ञापना ११४५, पृष्ठ १०५ गदिता। ११. (क) Das. (का० वा० अभ्यङ्कर) नोट्स, पृ० १३ से कि तं जलरुहा ?, जलम्हा प्रणेग विहा पन्नत्ता । The writer of the Vritti explains it as a तजहा-उदए, अवए, पणए, सेवाले, कलबुया, हढेय । kind of grass which leans before every breeze that comes from any direction. ५. वही, ११४५, पृष्ठ १०८, १०६ (ख) समीसाजनो उपदेश (गो०जी० पटेल) पृ० १६ से कि तं साहारणसरीरबादरवणस्स इकाइया ? । ऊंडां मूल न होवाने कारणे वायुथी पाम तेम फेकाता साहारणसरीरबादरवणस्म इकाइया अणोगविहा 'हड' नामना घासपन्नत्ता। तजहा-किमिरासि भद्दमुत्था णागलई पेलुगा १२. दशवकालिक (जी० घेलाभाई), पत्र ६ इय । किण्हे पउले य ह हरतणुया चेव लोयाणी । हड नामा वृक्ष समुद्रने कीनारे होय छे । तेनु मूल प्राचारोग नियुक्ति, गाथा १४१, पृष्ठ ५४ बराबर होतू नथी, अने माथे भार घणो होय छे अने सेवालकत्थभाणियप्रवए पणए य किनए य ह । ममुद्रने कीनारे पवननु जोर धणु होवाथी ते वृक्ष एए अणन्तजीवा भणिया मण्णे लोयाणी ॥ उखडीने समुद्रमा पडे अने त्या हेराफेरा कर्या करे । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशर्वकालिक के चार शोष-टिप्पण ये दोनो शुद्ध है। 'हट' का अर्थ जलकुम्भी किया गया है १ । इसकी पत्तिया बहुत बड़ी कड़ी और मोटी होती है । ऊपर की सतह मोम जैसी चिकनी होती है। इसलिए पानी मे डूबने की अपेक्षा यह आसानी से तरती रहती है । जल-कुम्भी के पाठ पर्यायवाची नाम उपलब्ध है२ । ३. गन्ध - चूर्ण ( सिणाणं ) दशकालिक ६।६३ मे 'सिणाण' शब्द आया है । उसका अर्थ चूर्ण है टीकाकार ने 'स्नान' को उसके प्रसिद्ध अर्थ अग-प्रक्षालन मे ग्रहण किया है३ । वह सही नहीं है। बृद्वि मे इसको विशेष जानकारी नहीं मिलती फिर भी उससे यह स्पष्ट है कि यह कोई उद्वर्तनीय गन्ध द्रव्य है४ । उमास्वाति ने इसको प्राणेन्द्रिय का विषय बतलाया है५ । उससे भी इसका गन्ध-द्रव्य होना प्रमाणित है। मोनियर-मोनियर विलियम्स ने भी अपने सस्कृत। अग्रेजी को में इसका एक अर्थ सुगन्धित चूर्ण किया है६॥ १. सुत (सूत्रस्थान) ४५४७ पाद-टिप्पणी न० १ में उद्धृत अश का अर्थ हट जलकुम्भिका अभूमिग्नमूलस्तृणविशेषः इत्येके । २. शालिग्राम निषष्ट भूषण, पृष्ठ १२३० कुम्भिका वारिपर्णी च वारिमूली समूलिका । आकाशमूली कुतृणं, कुमुदा जनवल्कनम् ॥ ३ हारिभद्रीय टीका, पत्र २०६ 'स्नान' पूर्वोक्तम् । ४. अगस्त्य चूर्णि सिणाण सामायिगं उवण्हाण प्रथवा गन्धवट्टवो । ५. ( क ) प्रशमरति प्रकरण ४३ स्नानाडश रागवर्तिकवर्णकधूपाधिवासपटवासैः । अमितमनस्को मधुकर इव नाशमुपयाति ॥ (ख) प्रशमरति प्रकरण ४३ स्नानामंगलप्रक्षालनं चूर्णम् । Page 6. A Sanskrit English Dictionpry. 1266: Anything used in ablution (E. G. water, Perfumed Powder) ४. पद्म- केसर ( पउमनाणि ) अगस्त्य चूर्णि७ के अनुसार 'पद्मक' का अर्थ 'पद्मकेसर' अथवा कुकुम, टीकाकारद के अनुसार उसका अर्थ कुकुम और केसर तथा जिनदास चूर्णि के अनुसार कुकुम है। सर मोनियर-मोनियर विलियम्स ने भी इसका अर्थ एक विशेष सुगन्धित द्रव्य किया है१० । पद्मक का प्रयोग महाभारत मे मिलता है-तुलाधार ने जाजलि से कहा "मैंने दूसरो के द्वारा काटे गये काठ और घास फूस से यह घर तैयार किया है । प्रलयतक ( वृक्ष विशेष की छाल), पद्मक (पद्माख), तुगकाष्ठ तथा चन्दनादि गन्ध-द्रव्य एव छोटी-बडी वस्तुनो को मैं दूसरो से खरीद कर बेचता हूँ११ ।” सुश्रुत में भी इसका प्रयोग हुआ है— न्यग्रोधादि गण में कहे प्राम्र से लेकर नन्दी वृक्ष पर्यन्त वृक्ष की त्वचा, शंख, लाल चन्दन, मुलहठी, कमान, गैरिक, भजन ( सुरमा), मंजीठ, कमलनाल, पचास-इनको बारीक पीस कर दूध मे घोल कर शर्करामधु मिला कर, भली प्रकार छानकर ठण्डा करके जलन अनुभव करते रोगी को बस्ति देवे १२ । 1 अगस्त्य चूर्णि 'पउम' केसर कुकुम वा ८. हारिभद्रीय टीका, पत्र २०६ पद्मकानि च कुकुमकेसराणि । ६. जिनदास चूर्णि, पृष्ठ २३२ ७. २२५ पउम कुकुम भण्णइ । Page, 10. A Sanskrit English Dictionary. 584. Padmaka-A Particular Substance. ११. महाभारत शान्तिपर्व, श्रध्याय २६२, श्लोक ७ परिच्छिन्नः काष्ठतृणमयेद शरण कृतम् । अलक्त तुड्ग गन्धाश्चांच्यावचास्तथा ।। १२. सुश्रुत, उत्तर भाग ३६, १४८ आमूदीना त्वयं चन्दनामलकोत्पलैः ॥ गौरिकांजनमंजिष्ठानातान्यव पद्मकम् । लक्ष्णापिष्टं तु पयसा शर्करामधुसपुतम् ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाह चरिउ श्री अगरचन्द नाहटा उत्तर भारत की सभी प्रान्तीय भाषाश्री की जननी अपभ्रंश भाषा मे ८वी शताब्दी से लेकर संवत् १७०० तक में जो विशाल साहित्य का सृजन हुआ, उसमें कति पय सिद्धों तथा 'सन्देश रासक' के अतिरिक्त जितना भी साहित्य है वह सभी जैन विद्वानों की रचना है। श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दोनों सम्प्रदाय के कवियों ने विविध प्रकार का और बहुत बड़ा साहित्य अपभ्रंश मे रचा है । उसमे से दि० अपभ्रंश साहित्य की जानकारी तो काफी प्रकाश में या चुकी है पर स्वेताम्बर अपन श साहित्य की जानकारी बहुत हो थोड़ी प्रगट हो सकी है। क्योंकि कुछ रचनाएँ तो प्राकृत और संस्कृत ग्रन्थों में सम्मिलित है और बहुत-सी रचनाएँ अब भी अप्रकाशित अवस्था में ही पड़ी है । उन रचनाओ का इतना अधिक प्रचार भी नहीं हुआ, इसलिए दि० अपभ्रंश रचनाओं की तरह उनकी हस्तलिखित प्रतियों भी अधिक नहीं मिलती। महत्वपूर्ण रचनाओ की भी एक-दो प्रतियाँ ही किसी भंडार में प्राप्त है, उदाहरणार्थ प्रस्तुत लेख में श्वे० अपभ्रश साहित्य के सबसे बड़े काव्य का सक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है । इसकी एक प्राचीनतम ताड़-पत्रीय प्रति जैसलमेर भण्डार मे है । इसी तरह 'विलास वइ कहा' नामक बहुत ही सुन्दर कथा-ग्रन्थ की २ ताडपत्रीय प्रतियाँ भी जैसलमेर भण्डार में ही है। 'सयम मजरी टीका' की भी एकमात्र प्रति भण्डारकर ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट, पूना में है । इसी तरह जिन प्रभरि की कई अपना रचनाएँ है पर उनकी ताड़पत्रीय प्रतियाँ केवल पाटण के जैन भण्डार में ही प्राप्त है । दि० अपभ्रंश साहित्य मे बड़े-बड़े काव्य अधिक है। इ० अपभ्रंश साहित्य मे नेमिनाह चरिच' और विलास बई- कहा के अतिरिक्त सभी छोटी-छोटी रचनाओं के रूप में है 'विलास बईकहा' की कथा और प्रतियों का सक्षिप्त परिचय मैंने अपने अन्य लेख में दिया है, जो उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से प्रकाशित 'त्रिपथगा' नामक पत्रिका में छपने भेजा हुआ है । इस काव्य का परिमाण ३६२० श्लोक का है जब कि प्रस्तुत लेख मे जिस 'नेमिनाह चरिउ' का वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है उसका परिमाण २०३२ इलोक का है। अर्थात् 'विलास नई कहा' से दुगनी से भी अधिक है। रायपुर के डा० देवेन्द्रकुमार जैन को मैंने 'विलासवई कहा' की प्रतिलिपि अहमदाबाद से प्राप्त करने की सूचना दी थी१ । तदनुसार उन्होंने उसको मगाकर पढ़ा तो उनका कहना है है कि समूचे अपभ्रंश कथा साहित्य मे 'विलासवई कहाँ" सबसे सुन्दर है। उन्होंने इस कथा का विशेष परिचय अपने शोध प्रबन्ध मे दिया है । मिनाह चरिउ बड़गच्छ के श्रीचन्द्र सूरि के शिष्य हरिभद्रसूरि की रचना है। इसका सर्वप्रथम परिचय डा. हरमन जाकोबी को प्राप्त हुआ था । उन्होंने उस काव्य के ३४३ रड्डा पद्यो वाले सनतकुमार चरित को सन् १९२१ मे सम्पादित करके जर्मनी से प्रकाशित किया था। मेद है कि ४३ वर्ष बीत जाने पर भी इस महत्वपूर्ण महा काव्य के प्रकाशन की बात तो दूर पर उसको पढ़ कर आवश्यक विवरण प्रकाशित करने का भी आजतक किसी ने कष्ट नही उठाया, यद्यपि सन् १९२३ में प्रकाशित जैसलमेर जैन भाण्डागारीय जैन प्रथानाम सूचीपत्रम् के पृष्ठ २७-२८ मे इस काव्य के आदि और अन्त के कुछ पद्य भी प्रकाशित हुए थे। फिर भी अपभ्रंश साहित्य पर स्वतन्त्र शोध प्रवन्ध लिखने वाले डा० हरिवंश कोछड़ ने अपने 'अपभ्रंश साहित्य' नामक ग्रन्थ के पृष्ठ २२३-२२६ में सनतकुमार चरित्र का तो परिचय दिया है पर नेमि नाह चरिउ' का केवल कोष्ठक में नामोल्लेख के अतिरिक्त १. डा० याकोवी के सन् १६१५ के लगभग उक्त प्रति राजकोट के एक मुनि के पास मिली वह प्रति ने साथ ले गये थे । अन्यत्र भी जरूर होगी। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाह चरित २२७ कुछ भी विवरण नहीं दिया है। पं० परमानन्द जैन नेमिनाह चरिउ और चन्द्रप्रभ चरित्र दोनों के परिमाण शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'जन-ग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह' की में एक भी श्लोक का अन्तर कैसे नही पाया ? मल्लिप्रस्तावना के पृष्ठ ४१ में 'सनतकुमार चरिउ' के अतिरिक्त नाथ चरित्र का परिमाण भी १००० श्लोकों का जिन-रत्न हरिभद्र के नेमिकुमार चरिउ का अलग से उल्लेख किया कोष में बतलाया है। इस तरह उपलब्ध तीनों तीर्थङ्कर है और उसे मुद्रित लिख दिया है, पर पता नही उनके करीब २५००० श्लोक परिमित है। इससे श्री मोहनलाल 'मुद्रित' का आधार क्या है।' सनतकुमार चरिउ 'नेमि- देसाई ने अपने 'जैन साहित्य नो इतिहास' पृष्ठ २७६ में नाह चरिउ' का ही प्रश है, सम्भव है इसकी उन्हें जान- यह विचार व्यक्त किया है कि इस हिसाब से यदि २४ कारी न हो। इसलिए दोनो के नाम अलग-अलग दे दिये तीर्थङ्करों का चरित्र उन्होने लिखा हो तो उन सब का और प्रकाशित है तो सनतकुमार चरिउ पर उसके प्रागे परिमाण २ लाख श्लोक के करीव का आयेगा। चन्दप्रभ मुद्रित न लिखकर नेमिकुमार चरिउ के मागे मुद्रित शब्द और मल्लिनाथ चरित्र प्राकृत भाषा में है और नेमिनाह गलती से लिख दिया होगा या छप गया होगा। चरिउ अपम्रश मे। जिन-रत्न कोषादि मे कहीं-कहीं इसे मन् १९२६ मे प्रकाशित स्व० मोहनलाल देसाई के प्राकृत और अपभ्र श दोनों भाप का भी बतलाया है। जैन गुर्जर कवियो प्रथम भाग के प्रारम्भ मे 'जनी गुजराती प्रत. इसमे प्राकृत का कितना अश है और अपभ्रश का नो इतिहास' ३२० पृष्ठो मे दिया गया है, उसके पृष्ठ ७२ कितना अंश है यह तो पूरे ग्रन्थ को पढने पर ही निश्चयमे नेमिनाह चरिउ का सक्षिप्त विवरण देते हुए लिखा है पूर्वक कहा जा सकता है पर प्रधानतया यह अपभ्रश का कि इसे डा० जाकोबी प्रकाशित करने वाले है। इसके हा लगता है। प्रथम भाग में नेमि-राजमति के नव पूर्व भवों का विस्तृत इस महाकाव्य की रचना सवत् १२१६ कातिक १३ वर्णन है और द्वितीय भाग में तीर्थर चरित्र के माथ- को अश्विनी नक्षत्र सोमवार को हुई थी। प्राग्वाट ज्ञानीय साथ श्रीकृष्ण और पाण्डवो का चरित्र भी दिया गया है। सरस्वती वरलब्ध महामति पृथ्वीपाल की अभ्यर्थना में ग्रन्य की एक ही प्रति प्राप्त होने के कारण इस महाकाव्य यह काव्य ८०३२ श्लोकों मे रचा गया। इन सब बातो को देखने और पढने का अवसर अब तक सुलभ न हो का उल्लेख ग्रन्थ की प्रशस्ति मे दिया हुआ है। उपलब्ध मका इमीलिये श्वे० अपभ्रश साहित्य का सबसे बडा तीनो चरित्र ग्रन्थ पृथ्वीपाल के लिये ही रचे गये प्रतः काव्य होने पर भी विद्वद् जगत इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ से उसके वश की विस्तृत प्रशस्ति तीनो ग्रन्थो के अन्त मे अज्ञात-सा रहा। कवि ने दी है। जो ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत ही 'नेमिनाह चरिउ' के रचयिता बड़गच्छीय हरिभद्र महत्वपूर्ण है। चन्द्रप्रभ चरित्र की प्राकृत भाषा की प्रशस्ति सूरि बहुत बड़े कवि और विद्वान थे। 'चन्द्रप्रभ चरित्र' पाटण भण्डार सूची के पृष्ठ २५२ से २५६ में प्रकाशित के उल्लेखानुसार इन्होंने २४ तीर्थङ्करो के चरित्र बहुत हो चुकी है। नेमिनाह चरिउ की प्रशस्ति का थोडा-सा विस्तार से और सुन्दर रूप में बनाये थे१ पर खेद है अब अश जैसलमेर भण्डार सूची में छपा था पर अभी मुनि पुण्यविजय जी ने जैसलमेर भण्डार का उद्धार करते समय तो उनके रचित चन्प्रप्रभ, मल्लिनाथ और नेमिनाथ इन पूरी प्रशस्ति की नकल पूरी कर ली थी अत. इस लेख में तीन तीर्थरो के चरित्र ही प्राप्त है। इनमे से चन्द्रप्रभ प्रारम्भ के तीन पद्य तो जैमलमेर सूची से दिये जा रह चरित्र की एकमात्र ताड़-पत्रीय प्रति पाटण के जैन भडार है और अन्त की पूरी प्रशस्ति मुनि पुण्यविजय जी मे है, जो सवत् १२२३ की लिखी हुई थी। उसका ग्रन्थ सम्पादित, पर अभी तक, अप्रकाशित जैसलमेर-मूची से परिमाण में भी ८०३२ श्लोको का ही है। पता नही उद्धृत करके दी जा रही है। १. चउवीसइ जिरणपुगवसुचरियरयणाभिराम सिगारो। जैन विद्वानों ने अनेक ऐतिहासिक साधनों का निर्माण एसो विणेयदेसो जानो हरिभद्द सूरि त्ति ।। किया है, उनमें ग्रन्थ की रचना और लेखन की प्रशस्तियाँ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्पसूत्र : एक सुझाव कुमार चन्द्रसिंह दुषौरिया, कलकत्ता सम्वत्सरी की परम पावन तिथि पर जैन समाज मे आचार्य श्रीमद भद्रबाहू द्वारा विरचित कल्पसूत्र के वाचन एवं श्रवण की परम्परा है। परन्तु कालान्तर के प्रभाव से इनके प्रति सर्वसाधारण जैन जनता के आग्रहभाव मे क्रमशः ह्रास होता जा रहा है, जिसे कदापि शुभ नही माना जा सकता है । जैन धर्म और जैन दर्शन की वह अमूल्य निधि - कल्पसूत्र, घर्धमागधी किंवा प्राकृत भाषा मे है और इसी भाषा मे जो अब मतप्राय है— इसका वाचन होता है जिसे युवा पीढी समझ नही पाती । यही कारण है कि इम अनमोल सूत्र के प्रति नवयुवको मे उदासीनता बढती जा रही है । मेरे इस कथन के पीछे इस सूत्र के वाचन एवं श्रवण की प्रचलित परिपाटी के प्रति किसी प्रकार की अनास्था अथवा अश्रद्धा का भाव कदापि नही है । मैं तो इस तथ्य की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूँ कि जिस काल मे आचार्य भद्रबाहु महाराज ने इस महान सूत्र को विरचित किया, उस समय अर्धमागधी ही सर्वसाधारण की भाषा थी । संस्कृत को छोड़ कर अर्धमागधी मे कल्पसूत्र को विरचित करने के पीछे भी प्राचार्य महाराज की यही भावना प्रतीव होती है कि वह हम सूत्र को सर्वसाधारण के लिए अधिकाधिक बोधगम्य एवं व्यापक बनाना चाहते थे। इसीलिए उन्होने इस सूत्र की तत्कालीन लोकभाषा मे रचना की । श्रतएव इस कल्पसूत्र का हिन्दी एवं अन्य प्रादेशिक भाषाओ मे रूपान्तर करने की प्रोर जब हमारी दृष्टि जाती है तो वह धाचार्य श्रीमद् भद्रबाहु महाराज के दृष्टिकोण एवं भावनाओं के सर्वथा अनुरूप ही है। इस ममूल्य सूत्र की सार्थकता वस्तुत इसे अधिकाधि सरल एवं बोधगम्य बनाने मे है । यदि समय रहते इस अनमोल कल्पसूत्र को बोधगम्य न बनाया गया तो उसमे निहित भावनाओं एवं आदर्शो की जानकारी के अभाव में पर्यापता एवं क्षमायाचना का हमारा यह पर्व केवल एक परम्परागत रीति के रूप मे ही रह जायगा और जिस महान आदर्श एवं लक्ष्य को यह अपने में सजोये हुए है वह शनै शनैः विलुप्त होता जायेगा । . वर्तमान वस्तुवादी युग और सभ्यता की पाध में धर्म एवं धार्मिक विषयों के प्रति लोगों की आस्था, निष्ठा एवं चि मे यो ही कमी होती जा रही है। ऐसी स्थिति मे कल्पसूत्र का वाचन अर्धमागधी या प्राकृत भाषा मे किया जाना नवयुवको को उससे विमुख करने सहायक ही होगा । अतएव, आज समस्त जैन समाज और उनके मनीपियो, साचायों, विचारको एवं शुभ-चिन्तको से मेरा यह हार्दिक आग्रह है कि वे जमाने के तकाजे या समय की मॉग से विमुख न होकर कल्पसूत्र को बोधगम्य बनाने की दिशा में ठोग एवं निश्चित कदम उठायें जिससे हम कल्याणकारी सूत्र को सर्वसाधारण के द्वारा सरलतापूर्वन हृदयगम किया जा सके। प्राचार्य श्रीमद् भद्रबाहु ने हम सभी पर जो असीम उपकार किया है और कल्पसूत्र जैसे महान् सूत्र एवं उसमे निहित धनमोल सन्देशो को प्रदान किया है उस महान् सूत्र को बोधगम्य बनाकर उनके उन दिव्य सन्देशो को जन-जन तक पहुँचा कर हम कुछ प्रश तक उस उपकार के ऋण से उऋण हो सकते है । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संघ के छः अंग डा० विद्याधर जोहरा पुरकर, जावरा प्राचीन समय में जैन सघ के चार भाग किये जाते थे--मुनि, प्रायिका, श्रावक व श्राविका। किन्तु जो व्यक्ति श्रावक और मुनि की मीमारेखा पर होते हैं उनका इस विभाजन में ठीक तरह से वर्णन नहीं हो पाता । उदाहणार्थ-वर्तमान समय में जो क्षुल्लक अथवा ऐलक पद के व्यक्ति है वे आचार-ग्रन्थो की दृष्टि से श्रावक हैं किन्तु व्यवहारतः वे साधुवर्ग मे ममाविष्ट समझे जाते है। मध्ययुग मे जब दिगम्बर मुनि नहीं के बराबर थे तब यह समस्या विशिष्ट रूप में सामने पाती रही होगी। इस विषय पर करीब चार शताब्दी पूर्व की एक रचना अभी हमारे अवलोकन मे आई, जिमे पाठको के लाभार्थ उद्धृत किया जाता है। इस रचना का शीर्षक 'सधाष्टक' है । इसमे छप्पय छद के दस पद्य है। इसके रचयिता ब्रह्म ज्ञानसागर है जो काष्ठामघ-नन्दीतटगच्छ के भ. श्रीभूषण के शिष्य थे। विक्रम की सत्रह्वी सदी मे उनका समय निश्चित है। ज्ञानसागर ने जैन संघ का विभाजन इस प्रकार किया है-१. श्रावक, २. श्राविका, ३. पडित, ४. व्रती, ५. प्रायिका, ६. भट्टारक । भट्टारक के आदर्श का कवि का वर्णन पटनीय है। यदि सभी भट्टारक इस आदर्श को प्राप्त करने का यत्न करते तो मायद भट्टारक-विरोधी तेरापथ-सप्रदाय का उद्भव ही न हुआ होता । अस्तु, कवि की मूल रचना इम प्रकार है: वरज तीन मकार पंचउबर परित्यागे। व्यसन सात गत दूर दयाभाव अनुरागे ॥ देव शास्त्र गृह भाव निशिभोजन परिहारी। जल प्रासुक पोवंत सप्त तत्व मन धारी।। दशविध धर्मामृत पियो मिथ्या पंचमनथें त्यजे । ब्रह्म ज्ञानसागर बदति सो श्रावक जिनमत भजे ॥२॥ श्रावकनी जग कही पतिसहित व्रत पाले। माराधे जिनदेव पंच मिथ्यामति टाले। देत दान नित च्यार जिनवर पूज रचावं। करे पर उपकार भावना हृदयमा भाव।। धरे सम्यक्त्व पाले दया गरु वंदे पातक त्यजे । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति सो श्रावकनी पद भजे ॥३॥ सामायिक मन शुद्ध मुख नवकारह अंपे। थावर जगम जीव तास घात मन कंपे। धर्मध्यान नित करत देव शास्त्र गुरु वंदे । प्रतिमा पालत पाठ प्रास्रव सकल निकवे ॥ व्यवहार धर्म पाले सदा शुद्ध भाव मनमा घरे। श्रावकनी ते जाणिये ब्रह्म ज्ञान इम उच्चरे ॥४॥ पडित कहिये सोहि जोहि व्याकरण बखाणे । पंडित कहिये सोहि जोहि पागम गुण जाणे ॥ पंडित कहिये सोहि हस्त क्रिया जिस प्रावे। पडित कहिये सोहि जोहि संयम व्रत पावे ॥ महा भिषक शांतिक बडुं होम मत्र जप उच्चरे। ब्रह्म ज्ञान सागर वदति सोपडित पूजा करे ॥४॥ ब्रह्मचार सोहि जाण जोहि जिनवाणी रत्ता। प्रतिमा पाठ घरंत व्रत सामायिक जुत्ता। इंद्रिय करे निरोष समावंत गणधारी। मदन कषाय निरोष व्यसन सात परिहारी॥ करे तीर्थ समता घरे परम साघु पासे रहे । ब्रह्मचार ते जाणिये इस विध ज्ञानसागर कहे ।।६।। संघाष्टक सेवे जिनवर देव धर्म दशलक्षण धारे। गृहसेवे नित साधु व्यसन कषाय निवारे॥ दान च्यार नित देत बारे व्रत नितपाले। रत्नत्रय मन धरत पंच मिथ्यामति टाले ॥ सामायिक नवकार गृह क्रिया सकल पाले सदा । धावक ते जाणो निपुण ब्रह्मज्ञान बोले मुदा ॥१॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अनेकन्त कहिये बाइ सुजाण जेह व्रत पूरण पाले । श्वेत वस्त्र पेहरंत धर्मध्यान अजुनाले ॥ संयम निर्मल घरत दयाभाव बहु राखे । जिनवर गुण ध्यायत पंचंद्रिय दम शोषे ॥ जाप जप जिनराजको परमरय पद संचरे । बाइ कहावत सो मली ब्रह्म ज्ञान इम उच्चरे ॥७॥ पंच महाव्रत सहित मलगण निर्मल पाले । पड़त पढ़ावत शास्त्र राग द्वषमव टाले । विहरत देश अनेक धर्मध्यान प्रगटावे । करे धर्म उद्योत सकल सज्जन मन भावे ।। क्रिया सकल मनिवर तणी विविध प्रकारे प्राचरे । बस व्रती ते जाणिपे बाह्म ज्ञान इम उच्च रे ।।८।। भट्टारक सोहि जाण भ्रष्टाचार निवारे। धर्म प्रकाशे दोइ भविक जीव बहु तारे ॥ सकल शास्त्र संपूर्ण सूरिमंत्र पाराधे। करे गच्छ उद्धार स्वात्मकार्य बह साधे। सौम्यमति शोभाकरण क्षमाषरण गंभीरमति। भट्टारक सोहि जाणिये कहत ज्ञानसागर पति ॥६॥ श्रावक गुण भंडार श्रावकनी अरु पडित । ब्रह्मचार व्रतधर्म प्राजिका पापविखंडित ॥ पंच महावत धीर वीर चारित्र निधानह । भट्टारक गुणपूर पावत त्रिभुवन मानह ॥ सकल धर्म उद्योतकरण संघाष्टक पावनमति । भावसहित नित सेविये कहत ज्ञानसागर यति ॥१०॥ [पृ० २२६ का शेष] वर-वारि-तुरग-करि-रयणविसयलक्खण विसिट्टिण, एहु समत्थिउ कह वि नियपरियणसाहज्जम्मि । तयणु लिहा विवि पुत्थयह , सइहि सयल सिद्धत । पच्चक्खरगणणाए, सिलोगमाणेण इह पबंधम्मि । पाराहिवि तित्था हिवह चलण जणियजम्मत ।। अट्ठेव यस्सहस्सा, बत्तीस ८०३२ सिलोगया होति ।। समणुमधु वि विविहवत्यहि पडिलाहिवि ज किचि मए अणुचियमुवइट्ठ तुच्छमइविसेसाओ। अप्पु कयकिच्चु करिवि सहम्मकम्मिण । त पसिउ मह सुयणा, सोहतु कयप्पसाय त्ति ।। नियजणणी जणयइ वि धम्महे उ जिणनाहभत्तिण । यस्याहिद्वयनखमणिमयूखसक्रातसुरपतिश्रेणी. । पुह इप्पाल महाइह अब्भत्थणह वसेण । निजलघुतामिव कथयति, वपुषाऽपि जयत्वसौ नेमि ॥ इह हरिभद्दमुणी मरिण, चरिउ र इउ लेसेण ।। यावच्चन्द्रो यावद् दिवाकरो यावदमरगिरिरत्र । यह न तारिसु वयणविन्नाणु न य मत राजति तावज्जीयात् श्रीनेमिजिनेन्द्रचरितमद. ।। ततप्फुरणु जइ वि तह वि पहुभत्ति जोगिण । उद्यल्लक्षण शास्त्रसचयनिधीन् सद्धर्म मुद्रावधीन्, इहु नेमिजिणेसरहचरिउ र इउ मर गुरू पसाइण । सिद्धान्तकसहस्त्रपत्रतरणीन् सद्वादि चूडामणीन् ।। इय इहु भुवण मुहावउणउ सुयणहु सुणहु चरित । तध्विन्यतरून् मनोभववधूवैधव्यदीक्षागुरून्, अहव सयं पि हु ते विवुह, चितामणि सुरवि ।। साहित्यामृतसागरान् मुनिवरान् श्रीचन्द्रसूरीन् स्तुवे ॥ कुमरवालह निवह रज्जम्मि अणहिल्लवाडइ नयरि अनणुमुयणबुड्यणह मगमि । इति श्री चन्द्रसूरिक्रमकमलभसल श्री हरिभद्रसूरि सोलुत्तर बारसई १२१६ कत्तियम्मि तेरसि समागमि विरचित नवभवोपनिबद्ध श्री नेमिनाथ अस्तिणि रिक्खिण सोमदिणि, सुप्पवित्ति लग्गम्मि । चरितं समाप्तम् ॥६॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संत भ० वीरचन्द्र की साहित्य-सेवा डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, एम. ए. पी-एच डी; जयपुर चौदहवी-पन्द्रहवी शताब्दी से राजस्थानी जैन मन्तो बने थे । यद्यपि इनका मरत गादी से सम्बन्ध था लेकिन ने साहित्य-रचना में विशेष रुचि ली। इन सन्तो के ये राजस्थान के अधिक समीप थे और बागड प्रदेश में प्रमुख थे भट्टारक सकलकीर्ति (मं० १४४३-१४६६), खूब विहार किया करते थे। जिन्होने साहित्य सेवा को विशेष लक्ष्य बनाया। भट्टारक मन्त वीरचन्द्र प्रतिभा सम्पर विद्वान् थे। व्याकरण सकलकीति के पश्चात् बागड एव गुजरात प्रदेश मे जितने एव न्यायशास्त्र के प्रकाड वेत्ता थे। छन्द, अलकार, मगीत भी भट्टारक हए उन्होने मस्कृत एवं हिन्दी मे सैकड़ो शास्त्र में उनकी विशेष गति थी। वे जहाँ जातं अपने कृतियाँ लिखी एव उनके प्रचार में अत्यधिक योग दिया। भक्तो की संख्या बहा लेते एव विरोधिया का सफाया कर इन सन्तो की रचनाएँ राजस्थानी के अधिक ममीप है देते। वाद-विवाद में उनमे जीतना बडे-बडे महारथियो और जिमकी भाषा एवं शैली पर गुजराती का पूरा प्रभाव के लिये भी महज नही था। वे माधु-जीवन को पूरी तरह है। इन मन्तो की माहित्य मेवा का अभी तक उचित निभाने और गहस्थों को मय मिन जीवन रखने का उपदेश मूल्याकन नहीं हो सका है। इसलिए इस पोर विशेप खोज देते । एक भट्टारक पदावली में उनका निम्नप्रकार परिचय की आवश्यकता है। कुछ विद्वानो की इतनी अधिक दिया जाता है.माहित्य मेवा है कि उस पर एक-एक शोध-प्रबन्ध लिग्वा "तद्व शमण्डन-कदपंदपंदलन विश्वलोक हृदयजन जा सकता है और ऐसे विद्वानो में भ. मकलकीति, ब्रह्म महाव्रतीपुरन्दगणा नवमहसप्रमुखदेशाधिप महाराजाधिराज जिनदाम, भ० शुभचन्द्र, भ. कुमुदचन्द, रत्नकीति, मोम- महाराज श्री अर्जुनजीवराज सभामध्यप्राप्तमन्मानाना कीति एव भ वीरचन्द प्रादि है । इन्होने माहित्य-सेवा के षोडशवर्षपर्यन्तशाकपाकपववालशास्त्रोदनादिपि प्रभृति अतिरिक्त भारतीय पुरातत्त्व की बहुत सेवा की। प्रस्तुत मरमाहार पग्विजिताना दुर्वाग्विादिम गपवंतीचीकरण लेख में भट्टारक वीरचन्द की माहित्य-सेवा पर प्रकाश वज्रापमान प्रथमवचनखण्डनपण्डिनाना व्याकरणप्रमयडाला जा रहा है। कमलमार्तण्ड छन्दोलकृतिमार माहित्य-मगीत-मकलतकं ____ भट्टारकीय बलात्कार गण शाग्वा के मस्थापक भट्टा सिद्धान्तागम शास्त्रसमुद्रपारगताना मकलमूलांतर गुणगण रक देवेन्द्र की ति थे जो सन्त शिरोमणि एव भट्रारक पद्म- माणमण्डिताववुधवर श्री वीरचन्द्र भट्टारकाणा.....।" नन्दि के शिप्यो मे से थे। जब देवेन्द्रकीर्ति ने सूरत मे उक्त प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि बोरचन्द्र ने नवभट्टारक गादी की स्थापना की थी, उस समय भट्टारक सारी के शामक अर्जुन जीवगज में बहुत मन्मान पाया सकलकीति का राजस्थान एवं गुजगत में जबरदस्त तथा मोलह वर्ष तक नीग्म पाहार का मेवन किया। प्रभाव था । सम्भवत. इसी प्रभाव को कम करने के उद्दश्य बीपचन्द्र की विद्वना का इनके बाद होने वाले कितने ही से देवेन्द्रकीर्ति ने एक नई भट्टारक सस्था को जन्म दिया। विद्वानो ने उल्लेख किया है। भट्टारक शुभचन्द्र ने अपनी भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के पीछे एवं वीरचन्द्र के पहिले तीन कार्तिकेयानुप्रेक्षा की मस्कृत टीका में इनकी प्रशमा में और भट्टारक हुए जिनके नाम है-विद्यानन्दि (मवत् निम्न पद्य लिग्वा है - १४६९-१५३७), मल्लिभूषण (१५४४-५५) और भट्टारक पदाधीशः मूलसंधे विविराः। लक्ष्मीचन्द्र (१५५६-५२) । वीरचन्द्र भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र रमा वीरेन्द्र-चिद्रूप-गुरवो हि गणेशिनः ॥1॥ के शिष्य थे और इन्ही की मृत्यु के पश्चात् ये भट्टारक भ. सुमतिकीनिं ने इन्हे वादियो के लिए अजेय स्वी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ अनेकान्त कार किया है और वादियों रूपी पर्वत के लिए इन्हें वज पहुँचने के पूर्व ही नेमिनाथ एक चौक में बहन से पशुओं को के समान माना है। अपनी प्राकृत पचमग्रह की टीका में घिरा हुआ देखते है और जब उन्हे सारथी द्वारा यह मालूम इनके यश को जीवित रखने के लिए निम्न-पद्य लिखा है- होता है कि वे सभी पशु बरातियों के भोजन के लिए एकत्रित दुर्वार दुर्वाविकपर्वतानां बजायमानो वरवीरचन्द्रः। किये गये है तो उन्हे तत्काल वैराग्य हो जाता है और वे तदन्वये सूरिवरप्रषानो जानावि भूषो गणि गच्छराजः॥ ककरण तोड़कर गिरनार पर चले जाते है। राजुल को इसी तरह भ. वादिचन्द ने अपनी सुभग सुलोचना जब उनके वैराग्य लेने की बात मालूम होती है तो वह चरित में वीरचन्द्र की विद्वत्ता की प्रशसा की है और घार विलाप करती है, बेहोश होकर गिर पड़ता है। वह कहा है कि कौनसा मूर्ख उनके शिष्यत्व को स्वीकार कर स्वय भी अपन सब आभूपणो को उतार कर तपस्वी जीवन विद्वान् नही बन सकता: धारण कर लेती है। रचना के अन्त मे नेमिनाथ के वीरचन्द्रः समाश्रित्य के मुर्खा म विदो भवत् । तपस्वी जीवन का भी अच्छा वर्णन मिलता है। तं (श्रये) त्यक्त सर्वान्न बीप्त्या निजित काञ्चनम् ॥ फाग सरस एवं सुन्दर है। कवि के सभी वर्णन अनूठे इस प्रकार उक्त उद्धरणो से वीरचन्द्र की प्रतिभा, है और उनमे सजीवता एवं काव्यत्व के दर्शन होते है। विद्वत्ता एवं लोकप्रियता का सहज ही मे आभास मिलता नेमिनाथ की सुन्दरता का एक वर्णन देखिए : केलि कमलदल कोमल, सामल वरण शरीर । वीरचन्द्र जबरदस्त साहित्य-मेवी थे। वे सस्कृत, त्रिभुवनपति त्रिभुवन तिलो, नीलो गुण गंभीर ॥ प्राकृत एव हिन्दी गुजराती के पारगत विद्वान थे । यद्यपि माननी मोहन जिनवर, दिन दिन बेह विपत । उनकी अब तक केवल ६ रचनाएं ही उपलब्ध हो सकी है प्रलब प्रताप प्रभाकर, भवहर श्री भगवत ॥८॥ लेकिन वे हो उनकी विद्वत्ता का परिचय देने के लिये लीला ललित नेमीश्वर, अलवेश्वर उवार । पर्याप्त है । इनकी रचनाओ के नाम निम्न प्रकार है महसित पकज पखडी, प्रखंडी रूपि अपार ॥ (१) वीर-विलास फाग (२) जम्बू स्वामी वेलि अति कोमल गल कबल, प्रविमल वाणी विशाल । (३) जिन प्रातरा (४) सीमघर स्वामी गीत (५) अंगि मनोरम निरुपम, मदन.....निवास ॥१०॥ सबोध सत्ताणु (६) चित्त-निरोध कथा। इसी प्रकार राजुल के सौन्दर्य वर्णन को भी कवि के १. वीर-विलास फाग शब्दो मे पढिय :वीर-विलास फाग एक खण्ड-काव्य है जिसमे २२वे कठिन सुपीन पयोषर, मनोहर अति उतंग । तीर्थङ्कर नेमिनाथ के जीवन की एक घटना का वर्णन चंपकवर्णी चन्द्राननी, माननी सोहि सुरंग ॥१७॥ किया गया है। फाग मे १३७ पद्य है। इसकी एक हस्त- हरणी हरावी निज वपगोड, वपणोड साह सुरंग। लिखित प्रति उदयपुर के खण्डेलवाल जैन-मन्दिर के शास्त्र बंत सुपंती दीपंती, सोहंती सिरवेणी बघ ॥१८॥ भण्डार में संगृहीत है, यह प्रति सवत् १६८६ मे भ. कनक केरी जसी पूतली, पातलो पदमनी नारि । वादिचन्द के शिष्य भ. महीचन्द के उपदेश से लिखी गई सतीप शिरोमणि सुन्दरी, भवतरी प्रवनि मझारि ।१९। थी। ब्र. ज्ञानसागर इसके प्रतिलिपिकार थे। ज्ञान विज्ञान विचक्षणी, सुलक्षणी कोमल काय । रचना के प्रारम्भ मे नेमिनाथ के सौन्दर्य एव शक्ति बान सुपात्रह पोखती, पूजती श्री जिनवर पाय ॥२०॥ का वर्णन किया गया है इसके पश्चात् उनकी होने वाली राजमत राजमती रलीयामणी, सोहामणी सुमधुरीय वाणी। पत्नी राजुल की सुन्दरता का वर्णन मिलता है। विवाह अंभरम्भोली भामिनी, स्वामिनी सोहि सुराणी ॥२१॥ के अवसर पर नगर की शोभा दर्शनीय हो जाती है तथा रूपि रंभा सु-तिलोत्तमा, उत्तम मगि माचार । बारात परणितुं पुण्यवंती तेहनि, नेहकरी नेमिकुमार ॥२२॥ बड़ी सज-धज के साथ माती है लेकिन तोरण द्वार पर फाग के अन्य सुन्दरतम वर्णनों मे राजुल विलाप भी Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संत भ० वीरचंद्र की साहित्य-सेवा २३५ एक उल्लेखनीय स्थल है : वर्णन के पढने के पश्चात् श्री मूलसंघे महिमा निलो मने देवेन्द्रकीरति सूरिराय । पाठकों के आँसू बह निकलते है । इस वर्णन का एक स्थल श्री विद्यानं दि वसुधा निलो, नरपति सेवे पाय ॥१॥ पर देखिये : तेह पाटे उदयो जति, लक्ष्मीचंद्र जेण प्राण । कनकीय कंकडा मोडती, तोडती मणिमि हार । श्री मल्लिभूषण महिमा घणो, नमे ग्यासुदीन सुलतान ॥२॥ लुंचती केश कलाप, विलाप करि अनिवार ॥ तेह गरु चरण कमल नमी, ऊने वल्लि रची छे रसाल । नयणि नीर काजलि गलि, टलवलि भामिनी भूर। श्री वीरचन्द्र सूरीवर कहें, गांता पुण्य प्रपार ॥३॥ किम करू कहि रे साहेलडी, विहि नडि गयो मझ नाह। जंब कुमर केवली हवा, प्रमे स्वर्ग मुक्ति वातार। काव्य के अन्त मै कवि ने अपना जो परिचय दिया जे भवियण भावे भाव से, ते तरसे संसार ॥४॥ है वह निम्न प्रकार है - कवि ने रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया श्री मूल संघि महिमा निलो, जती निलो श्री विद्यानन्द । है। सूरी श्री मल्लिभूषण, जयो जयो सूरी लक्ष्मीचद ॥१३५॥ ३. जिन प्रांतरा जयो सूरी श्री वीरचंद गुणिद रच्चो जिणि फाग । यह कवि की लघु रचना है जो उदयपुर के उसी गातो सांभलता ए मनोहर सुखकर श्री वीतराग ॥१३६॥ गुटके मे सग्रहीत है। इसमे २४ तीर्थकरी के एक के बाद जीहां मेदनी मेरु महीधर, दीपसायर जगि जाम । दूसरे तीर्थकर के होने मे जो समय लगता है उसका वर्णन जिहां लगि ए चंदो नंदो सदा फाग ए ताम ।।१३७॥ किया गया है । काव्य सौप्टव की दृष्टि से रचना सामान्य कवि ने फाग मे रचनाकाल का कही भी उल्लेख है। भापा भी वही है जो कवि की अन्य रचनाओ की नही किया है। लेकिन यह रचना सवत् १६०० क पहल है। दो वर्णन देखिये - की मालूम होती है। "उणा प्रउढ मासे करी वरस हुंता जब च्यार । २. जम्बू स्वामी वेलि श्री प्रादिनाथ तब शिव गया त्रीजा काल मझार ॥१॥ यह कवि की दूसरी रचना है। इसकी एक अपूर्ण प्रति सत्तर पथ त्रोहों वरस, सुहनों त्रीयो काल । श्री बद्धमान सिद्धोतरा, भंजनी भव जंजाल ॥२॥ लेखक को उदयपुर (गजस्थान) के खण्डेलवाल जैन जेणे प्रांतरे जिन जेहवा, तेह यूँ तेह माहे पाप । मन्दिर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हुई थी। जो एक गुटके मे मग्रहीत है। प्रति जीर्ण अवस्था में है और उसके सागरोपम कोडाकाडि एणी पेरें पुरो थाप ॥३॥" कितने ही स्थलो के अक्षर मिट गये है। इसमे अन्तिम रचना का अन्तिम भाग निम्न प्रकार हैकेवली जम्बू स्वामी का जीवन चरित वर्णित है। जम्बू 'सत्यशासन जिन स्वामीनं जेहन तेहनो जग। स्वामी का जीवन जैन कवियों के लिये अाकर्षक रहा है। हो जावे वशे भला, ते नर चतुर सुचग ॥६॥ इसलिये संस्कृत, अपभ्र श, हिन्दी, राजस्थानी एव अन्य जगे जनम्यं धन्य तेहनूं तेहनूं जीव्यूं सार । भाषामो में उनके जीवन पर विविध कृतियाँ उपलब्ध रग लागे जेहने मने, जिन शासनह मझार ॥७॥ होती है। श्री लक्ष्मीचन्द्र गुरु गच्छपती तिस पाटे सार शृंगार । वेलि की भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी है जिस श्री वीरचन्द्र गोरे कहा, जिन प्रांतरा उदार ॥८॥" पर डिगल का प्रभाव है । यद्यपि वेलि काव्यत्व की दृष्टि ४. संबोध संताणु भावना से उतनी उच्चस्तर की रचना नहीं है किन्तु भाषा के यह एक उपदेशात्मक कृति है जिसमे ५७ पद्य है तथा अध्ययन की दृष्टि से अच्छी रचना है। इसमे दोहा सभी दोहो के रूप मे है। उसकी प्रति भी उदयपुर के त्रोटक चाल छन्दो का प्रयोग हुआ है । रचना का अन्तिम उसी गुटके मे सगृहीत है जिसमे कवि की अन्य रचनाये भाग जिसमे कवि ने अपना परिचय दिया हुआ है जो लिखी हुई है। भावना के अन्त में कवि ने अपना जो परिनिम्न प्रकार है : चय दिया है वह निम्न प्रकार है : Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ "रि श्री विद्यानंद जय श्री मल्लि तस पाढे महिमा निलो, गुरु भी लक्ष्मी तेह कुल कमल दिवसपति जंपती जाति वीरच सुगर्ता भणतां ए भावना, पानीए परमानन्द ॥६७॥ मुनिन्द्र । ॥१६॥ अनेकान्त भावना मे सभी दोहे शिक्षाप्रद तथा सुन्दर भावों से परिपूर्ण है । कवि के कहने की शैली सरल एवं अगम्य है। कुछ दोहो का प्रास्वादन कीजिए. "धर्म धर्म नर उच्चरे न धरे धर्म कारण प्राणि हणे व गणे धर्मनो मर्म । निष्ठुर कर्म ॥ ३॥ + + + + धर्म धर्म सह को कहो, न लहे धर्म तूं नाम । राम राम पोपट पढ़े, बूझे न तो जिम राम ॥ ६ ॥ धनपाले धनपाल ते, धनपाल नामें भिखारी । लाछि नाम लक्ष्मी तगूं, लाछि लाकडां वहे नारी ॥ १७ ॥ + + + + दया बीज विण जे क्रिया, ते सघली शीतल संजन जन भरघा, जेम चडाल + प्राणी दया, दया ते जीवनी माय । भाट भ्रान्ति न प्राणीए भ्रान्ति धर्म जो पाय ॥२१॥ + + + धर्म मूल प्रमाण । न वाण ॥ १६ ॥ विश्वधर्म सगम की महासभा ने यह निश्चय किया है कि तृतीय विश्वधर्म सम्मेलन का आयोजन दिल्ली मे श्रागमी २६, २७ र २८ फरवरी सन् १९६५ को किया जाय । प्राणि दया विण प्राणी नंः एक न इक्यूँ होय । तेल न बेलू बोलतां तूप न तोप विलोय ॥२२॥ कंड विणू वान जिम, जिम विष व्याकरणं वाणि । न सोहे धर्म दया बिना, जिम पोषण विण पाणि ॥ नीचनी संगति परि हरो, धरो उत्तम प्राचार | दुर्लभ भव मानव सणो, जीव तूं प्रालिम हार ॥ ४१ ॥ " ४. सीमधर स्वामी गीत : है जिसमे सीमधर स्वामी का विश्व धर्म संगम का उद्देश्य विश्व धर्म संगम एक पंजीकृत संस्था है जिसके प्रवर्तक हैं- मुनि श्री सुशीलकुमार जी महाराज। इस यह एक लघु दी स्तवन किया गया है । ५ चित्त निरोध कथा यह १५ पद्यो की लघु कृति है जिसमे चित्त को वश मे रखने का उपदेश दिया गया है। यह भी उदयपुर वाले गुटके में ही मग्रहीत है । अन्तिम पद्य निम्न प्रकार है"सूरि यो मल्लभूषण, जय जय श्री लक्ष्मीचंद्र । तास वंश विद्यानिलु, लाड नीलि श्रृंगार । श्री वीरचन्द्र सूरो भणी, वित्त निरोध विचार ।।१५।। " इस प्रकार भ० वीरचन्द की अब तक छः कृतिया साहित्य प्रेम के दर्शन प्राप्त राजस्थान एव गुजरात के शास्त्र भण्डारो की पूर्ण खोज होने पर अभी और मी रचनाये प्रकाश में आवेगी ऐसी आशा की जाती है । तृतीय विश्व-धर्म-सम्मेलन डा० मूलचन्द जैन उपलब्ध हुई है, जो इनके करने के लिए पर्याप्त है। सस्था का उद्देश्य विभिन्न धर्मों में परस्पर सहिष्णुता की भावना का विकास करना और विश्व बन्धुत्व के द्वारा विश्व शान्ति के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना है । विश्व धर्म सम्मेलन क्यों ? मानव-मानव के बीच जो तत्व-भेद तथा संघर्ष का निर्माण कर रहे है, उनका निराकरण समस्त धर्मों की Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय विश्व-धर्म-सम्मेलन २३७ मयुक्त नैतिक शक्ति को सपोजित करने से सभव है। तृतीय विश्व धर्म सम्मेलन विश्व धर्म सम्मेलन का प्रायोजन इसका साधन है। इस बार तृतीय विश्व धर्म सम्मेलन पुन दिल्ली मे विश्व धर्म सम्मेलन के प्रायोजन का एक शुभ परि- करने का निश्चय जागतिक परिस्थितियो को ध्णन में णाम यह भी होगा कि विभिन्न धर्मों का, सास्कृतिक रख कर किया गया है। यह प्राशा की जा रही है कि पृष्ठभूमि का, तथा ज्ञान-विज्ञान का ममन्वयात्मक अध्ययन इस बार सम्मेलन में बाहर से बहत बडी मख्या में प्रतिका योग्य अवसर प्रतिनिधियो को उपलब्ध हो सकेगा। निधि तथा गणमान्य महानुभाव पधारेंगे। जिससे अन्ततोगत्वा धर्म के सारभूत तत्त्वो पर मानव की यह प्रसन्नता की बात है कि विश्व धर्म मगम के श्रद्धा तथा निष्ठा जमेगी और विश्वबन्धुत्व की स्थापना प्रवर्तक मुनि श्री सुशील कुमार जी महाराज जिन्होंने मे सहायता मिलेगी। इस तरह धार्मिक शक्तिया विश्व- पहले दोनो सम्मेलन कगये थे, तृतीय विश्व धर्म सम्मेलन शान्ति की स्थापना की दिशा मे मक्रिय रूप से उपकारक को अपना पुनीत पाशीर्वाद प्रदान करने की अनुकम्पा की मिद्ध होगी। एक दिन ऐमा भी या मकता है जब धर्म है। के नाम पर होने वाले मघर्ष एवं पृथकतावादी तत्त्व इस सम्मेलन को सफल बनाने के लिए अनेक महाममाप्त होगे । इस अर्थ मे विश्व धर्म सम्मेलन अहिमा, पुष्पो, राजनेताप्रो एव विशिष्ट जनो की एक स्वागतसत्य और भातृभाव पर आधारित विश्व-शान्ति का एक समिति गठित की गई है। प्रबन्ध के लिये अनेक सक्षम पावन अभियान है। समाज-सेवको के सहयोग से विभिन्न उपसमितियो का विश्व धर्म मगम द्वारा आयोजित विश्व धर्म सम्मेलनो निर्माण किया गया है । तृतीय विश्व धर्म सम्मेलन में भाग में भाग लेने वाले भिन्न-भिन्न धर्मों के प्रतिनिधि अपने लेने वाले ममम्त अतिथियों, प्रतिनिधियो तथा प्रागन्तुक ही धर्म का गुणगान नहीं करते बल्कि वह इम बात पर महानुभावो के स्वागत, सत्कार का यथेष्ट प्रबन्ध होगा। बल देते है कि उनका धर्म किस प्रकार समूचे विश्व मे खुला प्रामन्त्रण मानव कल्याणकारी शक्तियो का मयोजित करने में तृतीय विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकता है । समस्त उन नागरिको एव मस्थायी को मारह निमन्त्रण है जो धार्मिक, विश्व-बन्धुत्व की भावना के विस्तार में प्रथम सम्मेलन विश्वास रखते है। और इसको प्रसारित करने में अपना प्रथम विश्व धर्म सम्मेलन सन् १९५७ मे दिल्ली में योगदान देना चाहते है। इसका प्रतिनिधि शुल्क ५०) हुना था। जिसमे भिन्न-भिन्न धर्मों के कोई २०२ प्रति रुपया रखा गया है। सदस्यता के लिये एक आवेदन-पत्र निधियो ने लगभग २८ दशो से आकर भाग लिया था। प्रपित करना होगा। खुले अधिवेशन मे ५ लाख से अधिक नागरिको ने उपस्थित होकर सम्मेलन की कार्यवाहियो मे सहयोग प्रदान मुनि श्री सुशीलकुमार जी का भाषण किया था। भारत के महामाहम राष्ट्रपति जा तथा हम विश्वास करते है कि विश्व के सभी देशो, मभी उपराष्ट्रपति जी, प्रधान मन्त्री, शिक्षा मन्त्री जी तण राष्ट्रो एव मभी जातियो का विकास, धर्म एव मस्कृति के अनेकों धार्मिक पुरुषो एवं राजनेतानो ने उपस्थित हो, * पुरुषा एवं राजनतामा न उपस्थित हो, आधार पर ही हमा है। धर्म ने ही मनुष्य को राष्ट्रभेद, सम्मेलन के उद्देश्यो को बल प्रदान किया था। भाषाभेद, भौगोलिक एव रहन-सहन के भेदी से ऊचा उठा द्वितीय-विश्व-धर्म सम्मेलन कलकत्ते में फरवरी कर कौटुम्बिकता के धागे में पिरोया है। १९६० मे हुमा या। इस सम्मेलन में विश्व के अनेक समार की कोई विचारधाग और विश्व का कोई देशो के २५० से भी अधिक प्रतिनिधियो ने भाग लिया दुसरा वाद बिना धर्म के मानव जाति को एक नही कर था। सकता। धर्मिक एकता के प्राए बिना मानव-जाति के Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त २३८ पिछडेपन और वैचारिक दरिद्रता को हम मिटा नहीं सकते। विश्व धर्म सम्मेलन के द्वारा हमें सारे संसार की धार्मिक शक्तियों की समूचे मनुष्य समाज के दुख और दन्य को मिटाने के लिए उन्मुख करना है । युद्धजनित पीड़ाएं और धर्महीन समाजवादी पैशाचिक व्यवस्थाए मनुष्य को सदा के लिए जड़ता की ओर धकेल देगो । लाखों वर्षों के चिन्तन के बाद मनुष्य समाज केवल धरती और धन के बटवारे मे ही मिट्टी, पानी, अग्नि के समवाय मे ही उलझा रहे, इससे ऊपर उठकर अपने आत्मा के शाश्वत अस्तित्व को मान ही न सके इससे बड़ा ससार के लिए अभिशाप श्रीर क्या हो सकता है । धरती और पन जैसी प्रकृति वस्तुयो पर मनुष्य का एकाधिकार धर्म की दृष्टि से निषिद्ध है । ससार के किसी भी धर्म के द्रष्टा या धर्म-प्रवर्तक ने किसी भी प्रकार के मग्रह और शोषण को प्रश्रय नही दिया । यह तो केवल राजनीतिक महत्वकांक्षाओ और सामाजिक कुरीतियो का दुष्परिणाम है--जो आज ससार मे विपमता के रूप मे दिखाई दे रहा है। हमे आश्चर्य होता है कि जब धर्महीन समाजवादी सत्ताधीश मानव जाति की आध्यात्मिक संस्कृति को नष्ट करने पर उतारू होते है—यह संस्कृति एवं धर्म के लि बडा सकटकाल है। हमे पूर्ण विश्वास के साथ मसार की समस्त धार्मिक शक्तियो को इकाई और समष्टि की के सुरक्षा शाश्वत एकता, अखण्डता और पूर्ण विकास की लिए विश्व व्यापी मोर्चा बनाने जा रहे है । आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि श्राज से छोटे बारह वर्ष पूर्व विश्व धर्म सम्मेलन का सूत्रपात बहुत से रूप में बम्बई से हुआ था । सन् १६५७ के विश्व-धर्म सम्मेलन का विराट् रूप श्राज देख चुके है । कलकत्ता के द्वितीय विश्व धर्म सम्मेलन के बाद विश्व के भूखण्डों मे इस धर्म सम्मेलन ने प्राशातीत प्रगति की है- यह हमारे लिए गौरव का विषय है । संसार के पचास राष्ट्रो का विश्व धर्म सम्मेलन को सहयोग प्राप्त हो चुका है। हम विश्वास करते है कि आगामी २६, २७ र २८ फरवरी १६६५ को होने वाले तृतीय विश्व धर्म सम्मेसन मे साठ देशों का प्रतिनिधित्व प्राप्त होगा । एशिया के भूखण्डो से उठे इस धर्म के प्रकाश ने सारी मानव जाति को सांस्कृतिक एवं प्राध्यात्मिक चेतना मे श्राबद्ध किया है । हम इस अभियान को ऐसे समय चलाने जा रहे है-जब कि भारत पर चारों ओर से धर्महीन- समाजवादी व्यवस्थाएं, संस्कृति नष्ट करने पर - श्राक्रमण के लिए सन्नद्ध हो रही है । हम समझते हैं कि यह नास्तिकता का श्राक्रमण भारत पर ही नहीं मानवीय धर्म और संस्कृति पर है। अगर धार्मिक शक्तियाँ ऐसे सकट के समय पर भी एक नही हो सकती तो मानव जाति को सवनाश से बचाए रखना अत्यन्त कठिन है । -M हम विश्व धर्म सम्मेलन को मानवीय धार्मिक चेतना को बचाए रखने का सजग प्रहरी समझते है और इसी पवित्र विश्वास के आधार पर हम इस धर्म ग्रान्दोलन को समार की सभी धार्मिक शक्तियों के सहारे से एवं मानवके सहयोग से एव प्रभु की पवित्र प्रेरणा से ही इस काम मे जुटे है । हम श्राशा करते है कि हमारा यह प्रयास समाजवाद के अन्तःस्थल मे भी धर्म को प्रतिष्ठित करने मे सहायक हो सका तो राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, जरवृस्थ, मूसा, ईसा, मोहम्मद, नानक और गाँधी तक की निर्दिष्ट मानवता का पूर्ण रूप ससार मे निखर उठेगा। ईराक के प्रेजीडेण्ट का सन्देश "The cornerstone of Islam is belief in one God. This makes the faithful join in the worship of God and God alone. They are, without regard to race or colour, equal before him and the subjects of his mercy and forgiveness." The message further says "The Quoran enjoins Muslims to help the needy, the stranger and those cut off from their lands, who have no means to live with. Islam prohibits murder, vice, robbery aud marauding. It commends humbleness and forgiveness. It does not believe in compulsion in spreading its tenets, though it is ready to sanction force in self-defence......... “Islam” says the Field Marshal president, "is against aggression. We seek peace and like to see people living in amity and no one trespassing on another." Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १. दिगम्बर जैन मन्दिर मूर्ति-लेख संग्रह-संग्रह- दिल्ली-६ । पृष्ठ संख्या १६६, मूल्य दो रुपया । 1 प्रकाशक, मूलचन्द किसनदास कापाडया, प्रस्तुत ग्रन्थ मे वती जीवन के अन्त में होने वाले क पडिया भवन गांधी चौक, सूरत । पृष्ठ ३३४ बिना मूल्य समाधि-मरण का सुन्दर विवेचन किया गया है। मूल ग्रथ ६ पैसे पोष्टेज भेजने पर प्राप्त । भ. सकल कीर्ति गणि की एक अप्रकाशित कृति है जिसे शिलालेखो की तरह मूर्तिलेख भी इतिहास मे उप- प्रकाश में लाया गया है। ग्रथ सस्कृत के २१५ पद्यो में योगी होते है । प्रस्तुत पुस्तक मे सूरत और मूरत जिले के समाप्त हुआ है। पुस्तक में मानव जीवन की सफलतामन्दिर और मूर्तिलेखो का संग्रह किया गया है। इससे सूचक सलेखना के साथ देहोत्सर्ग करने का विधि-विधान अनेक जातव्य बातो पर प्रकाश पड़ता है। इन मूर्तिलेखो अकित करते हुए उसकी महता पर प्रकाश डाला गया है से भट्टारको, प्राचार्यो, विद्वानो और श्रावक-श्राविकाग्रो अनुवाद मूलानुगामी है। ग्रन्थ को जो बाने अनुवाद मे आदि के इतिवृत्त का मकेत मिलता है, साथ ही मामयिक, स्पष्ट नहीं हो सकी, उनको स्पष्ट करने के लिए मम्पादक धार्मिक कार्यों की जानकारी भी प्राप्त होती है। ये लख ने विशेषार्थ द्वारा स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है और एतिहासिक तथ्यो के निर्णय में सहायक होते है। इनगे उसे दूसरे बारीक टाइप में छपाया है। विविध जातियो के इतिहास पर भी प्रकाश पडता है। वयोवद्ध विद्वान श्री जुगलकिशोर मुख्नार ने अपने इस मग्रह में विक्रम की १२वी शताब्दी से २०वी शताब्दी प्राक्कथन में सल्लखना के स्वरूप, उसका प्रयोजन तथा तक के मूतिलेखों का मग्रह किया गया है। मल्लेखना की विधि का अच्छा दिग्दर्शन कराया है। श्री कापडिया जी प्रपनी लगन के एक ही व्यक्ति है, और सम्पादक ने अपनी प्रस्तावना में भ० सकलकाति जो इतनी वृद्धावस्था म भी समाज-गेवा के कार्यो में दिन- और उनकी कृति का ऐतिहासिक परिचय कराते हुए चस्पी रखते है । जैन समाज मे अनेक रिटायर्ड पेन्सन- मल्लेग्वना के सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला है, मरण के याफ्ता व्यक्ति है जो आजीविकादि कार्यो से पेन्मन पा गये १७ प्रकारो का उल्लेख करते हुए, समाधि-मरण कराने है और अपना शेष जीवन धार्मिक एवं मास्कृतिक कार्यों वाले माधुग्री की मख्या और उनका कर्तव्य भगवती में व्यतीत करना चाहते है। उन्हें ऐसे धार्मिक और आगधना के अनुसार बनलाया है। ममाधिमरण की साहित्यिक कार्यो में सहयोग देना चाहिए। भारत में जैन आवश्यक्ता और प्रयोजन का उल्लेख करते हुए समाधिमन्दिर और मूर्तियाँ प्रचुर मात्रा में है। यदि उन सबके मरण कराने में कम से कम दो व्यक्तियों के महयोग का लेखो का सकलन हो जाय, तो जैन इतिहास के निर्माण में निर्देश किया है। साथ ही परिशष्टो द्वारा हिन्दी के बहुत कुछ सहयोग मिल सकता है। प्राशा है समाज इस समाधि-विषयक अन्य पाठो को भी सङ्कलित कर दिया पर ध्यान देगी । पुस्तक सुन्दर और सग्रहणीय है। है। जो समाधि के इच्छुक व्यक्ति के लिये उपयोगी है। २. समाधि मरणोत्साह-दीपक-मूलकता गरिण इसमे ग्रन्थ की उपयोगिता अधिक बढ़ गई है। ममाधिसकलकीति, अनुवादक प. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री, मरण के इच्छुको को चाहिये कि वे इस ग्रन्थ को मगाकर प्राक्कथथन प० जुगलकिशोर मुख्तार, सम्पादक और अवश्य पढे और अपने इष्ट-मित्रों को पढ़ने की प्रेरणा प्रस्तावना लेखक प० दरबारीलाल जैन कोठिया एम. ए., करे। इस सुन्दर सस्करण के लिये सयोजक, सम्पादक न्यायाचार्य प्राध्यापक हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, और प्रकाशक धन्यवाद के पात्र है। प्रकाशक मन्त्री वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट, २१ दरियागज ३. कुण्डलपुर- रचयिता श्री नीरज जैन, सुषमा Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अनेकान्त प्रकाशन सतना (म० प्र० ) । पृष्ठ संख्या ६२ मूल्य चालीस पैसा । प्रस्तुत पुस्तक में श्रीनीरज जी ने मध्य प्रदेश के प्रतिजय क्षेत्र कुण्डलपुर का परिचय इतिहास और पूजन दी है, जो सर्व साधारण के लिए उपयोगी है। वहाँ के मन्दिर मे विराजमान मूर्ति जिसके कारण वह अतिशय क्षेत्र बना, और जिसे लोग बडे बाबा के नाम से पुकारते है तथा उसे महावीर कामी की मूर्ति बताते है। लेखक ने अपनी प्रस्तावना में उसे आदिनाथ की मूर्ति सप्रमाण बताई है। इसमें सन्देह नहीं कि प्रस्तुत मूर्ति प्रादिनाथ की ही जान पड़ती है । इस पुस्तक में नीरज जी की तीन कविता और पूजन दी हुई है, जो महावीर की मूर्ति को लक्ष्य करके लिखी गई है पूजन यदि आधुनिक स्तर पर दिली जाती तो अधिक उपयुक्त होती । ग्रस्तु, कविता सुन्दर है, भावपूर्ण है, और विनाकर्षक है। कविता के कारण पुस्तक बोल उठी है। उससे क्षेत्र का वैभव साकार हो उठा है। नमूने के कुछ पद्य देखिये । धर्मानुरक्त नृप छत्रसाल, क्या कभी भुलाया जावेगा। उसका यश गौरव घर-घर में सदियों तक गाया जावेगा ॥ वह महावीर का परमभक्त, जिन शासन का अनुयायी था । 'औ' दीन-हीन दुखियों का वह रक्षक भी था सुखदायी था । प्रभु केटिंग श्राकर एक बार बोला, चरणों में झुका शीश । आज मांगने आया हूँ, यह वर मुक्त को दीजं मुनीश ॥ · क्षण भर में ही कुछ यवन वहाँ वेदी पर चढ़से टूट पड़े, दर्शक- पूजक हत बुद्धि हुए श्री' विस्मित से रह गये खड़े । सबसे प्रागे खुद बादशाह, कर में टांकी लेकर प्राथा, पर जाने क्यों कर अकस्मात उसका तन श्रौ' मन थर्राया । यह वीतराग छवि निनिमेष अब भी बंसी मुस्काती सी थील शांत पर लगती थी उसको उपदेश सुनाती सी । सुन पड़ा शाह के कानों में मिट्टी के पुतले सोच जरा, यह ग्रहकार धन-धान्य सभी कुछ रह जावेगा यहीं धरा ।" जीवन की धारा में अब भी तू परिवर्तन ला सकता है. अब भी अवसर है अरे मूढ़ ! तूं मानव कहला सकता है। . नीरज जी उदीयमान लेखक और कवि है । उनसे समाज को बड़ी बाधाएं है। पुस्तक सुन्दर है, लेखक से मंगाकर पढ़ना चाहिए। परमानन्द शास्त्री अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्याति प्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याथियों, सेठियों, शिक्षासंस्थानों, संस्कृत विद्यालय कालेजों और जनभूत की प्रभावना में अद्धा रखने वालो से निवेदन करते है कि वे शोध ही 'अनेकान्स' के ग्राहक बनें और बनाये । 9 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक महत्त्वपूर्ण पत्र वीर सेवामन्दिर दिल्ली से प्रकाशित द्वैमासिक अनेकान्त पत्र का एक अंक मिला । मै उसे प्राद्योपात पढ गया। जैनसमाज का यह ऐतिहासिक पत्र सुन्दर निकल रहा है, इसमें पाठक को पढने और अनुमधान करने के लिए बहुत सामग्रो रहती है । सभी लेख महत्त्वपूर्ण और पठनीय होते है। दुर्भाग्य है कि जैन-समाज ऐसे प्रभाविक और महत्त्वपूर्ण पत्र को अपना सहयोग प्रदान करती मालूम नही होती, अन्यथा यह पत्र 'कल्याण' के समान प्रगति करता। जनसमाज के धनिक वर्ग को चाहिए कि वह आर्थिक सहयोग प्रदान करे, जिससे सचालकगण इसे और भी ऊँचा उठा सकें। मै पत्र की उन्नति का इच्छुक हूँ। सुरेशचन्द सक्सेना एम ए. लुधियाना। वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता | १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकता १०००) श्री देवेन्द्र कुमार जैन, ट्रस्ट, १५०) , जगमोहन जो सरावगी, कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता १५०) , कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड सस, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०) , पं. बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०) ,, प्रतापमल जो मदनलाल पांड्या, कलकता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कखकत्ता १५०) , भागचन्द जो पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्सा २५१) श्री स०सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , मारवाड़ी दि. जैन समाज, व्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १०१) ,, दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी मंसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं०२ २५१) श्री ल.ला जयप्रकाश जी जैन १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, बरियागंज दिलना स्वस्तिक मेटल वर्स, जगाधरी १०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद १०१) ,, शान्ति प्रसाद जी जैन २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता जैन बुक एजेन्सी, नई दिल्ली २५०) श्री जुगमन्दरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्डया झूमरीतलया २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी १००) , बद्रीप्रसाद जो प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. प्रार० सी० जन, कलकत्ता १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता इन्दौर १५.) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता | १००) , बाबू नपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन ___ सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुरातन-जनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थों में उदधृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो की सूची। सम्पादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास माग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषय के सुन्दर विनेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द। ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व की गवेपणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, मानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-महित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर आध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १॥) (६) युक्त्यनुशासन- तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द। ... ॥) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-आचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि महित। .. .) (८) शासनचतुस्थिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित ।।।) (E) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युनम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना मे युक्त, सजिल्द । ... ३) (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह-सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण महित अपूर्व मग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो की और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलकृत, सजिल्द । (११) अनित्यभावना-प्रा० पद्मनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ अहित ।) (१२) तत्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्था से युक्त। " (१३) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१४) महावीर का सर्वोदय तीर्थ ), (१५) समन्तभद्र विचार-दीपिका =), (१६) महावीर पूजा ।) (१७)'बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (१८) अध्यात्म रहस्य-१० पाशाधर को सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित (१६) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा० २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियोका महत्वपूर्ण मंग्रह ५५ ग्रन्थकारोके ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और उनके परिशिष्टों सहित । म०५० परमानन्द शास्त्री सजिल्द १२) (२०) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर-शासन-संघ प्रकाशन ... ५) (२१) कसायपाहुड सुत्त--मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिमूत्र लिखे। सम्पादक प० हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी पारशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़ी साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठो मे । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । २०) (२२) Reality प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजीमे अनुवाद बड़े आकार के ३०० पृष्ठ पक्को जिल्द मू०६) प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिग हाउस, दरियागज दिल्ली से मुद्रित りりりり Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिक अनेकान्त फरवरी १६६५ खजुराहो का श्रादिनाथ जिनालय ( १२ वी शती ) छाया - नीरज जन समन्तभद्राश्रम (वीर- सेवा - मन्दिर) का मुखपत्र Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अनेकान्त को सहायता विषय २२२ पृष्ठ ११) श्रीमान सेठ भगवानदास शोभालाल जी जैन चमेली चौक सागर, (म० प्रदेश) ने निसई जी तीर्थ क्षेत्र १. श्रीसुपार्श्व-जिन-स्तवन-समन्तभद्राचार्य २४१ मल्हारगढ पर कलशारोहण और स्वाध्याय भवन के २. होयसल नरेश विष्णुवर्धन और जैनधर्म उद्घाटन के समय निकाले हुए. दान में से ग्यारह रुपया –के. भुजबली शास्त्री मूडबिद्री धन्यवाद सहित प्राप्त हुए। ३. श्रीपुर में राजा ईल से पूर्व का जैन मन्दिर -नेमचन्द धन्नूसा जैन न्यायतीर्थ २४५ -व्यवस्थापक - 'अनेकान्त ४. वाग्भट्ट के मगलाचरण का रचयिता -क्षुल्लक सिद्ध सागर २४८ ५. रइधू कृत 'सावयचरिउ' 'समत्तक उमुई' ही है -प्रो० राजा राम एम. ए, पारा । २५० ६ जैन-दर्शन मे सप्तभंगीवाद स्थायी सदस्यों की विश्यकता -उपध्याय मुनि श्री अमरचन्द ७ यज्ञ और अहिसक परम्पराएँ अनेकान्त जैसे प्रतिष्ठित और कातिप्राप्त शोधपत्र -प्राचार्य श्री तुलसी २५६ के लिए हमे.२५. .. स्पया प्रदान करने - अपभ्र श का एक प्रमुख कथाकाव्य वाले ३१ स्थायी सदस्य हये। समाज के प्रतिष्टित ---डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री रायपुर धर्मात्मा धनी महानुभावो से प्रार्थना है कि वे अनेकान्त ६. खजुराहो का प्रादिनाथ जिनालय के स्थायी सदस्य बने, और अपने मित्रो को बनाएँ। -नीरज जैन ७५ | जिसमे अनेकान्त को और भी ऊँचा उठाया जा सके । १०. माणिकचन्द . एक भक्त कवि -गगाराम गर्ग एम. ए, जयपुर २७८ -व्यवस्थापक ११ ३८वे ईसाई तथा सात बौद्ध विश्व सम्मेलन अनेकान्त की श्री जन सघ को प्रेरणा वोर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, -कनक विजय जी महाराज-वागणसी २८१ दिल्ली। १२. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री २८५ १३. वार्षिक विषय-सूची अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया सम्पादक-मण्डल एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ १० डा० प्रा० ने० उपाध्ये अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक डा० प्रेमसागर जैन मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। श्री यशपाल जैन २८७ ★ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् अहम् अनेकान्त परमागस्य बीजं निषिद्ध नात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। वर्ष १७ । किरण-६ । ___बीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६१, वि० स० २०२१ 5 फरवरी । सन् १९६५ श्रीसुपार्श्व-जिन-स्तवन स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेष सां। स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा ।, तषोऽनुषंगान्न च तापशान्तिरितीद मास्यद्भगवान् सुपार्श्वः ॥१॥ -समन्तभद्राचार्य 'यह जो प्रात्यन्तिक स्वास्थ्य है-वह विभाव परिणति से रहित अपने अनन्तज्ञानादिमय स्वात्म-स्वरूप में अविनश्वरी स्थिति है-वही पुरुषों का-जीवात्मा का- सच्चा स्वार्थ है--निजी प्रयोजन है, क्षणभगुर भोगइन्द्रिय-विषय-सुख का अनुभव-स्वार्य नहीं है, क्योकि इन्द्रिय-विषय-सुख के सेवन से उत्तरोत्तर तष्णा की-भोगाकाक्षा की-वृद्धि होती है और उससे ताप की-शारीरिक तथा मानसिक दुःख की-शान्ति नही होने पाती। यह स्वार्थ और अम्वार्थ का स्वरूप शोभनपावो-सुन्दर शरीराङ्गो के धारक (और इसलिए अन्वर्थ-सज्ञक) भगवान सुपार्श्व ने बतलाया है। भावार्थ- इस पद्य मे प्राचार्य समन्तभद्र ने सातवे तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का स्तवन करते हुए स्वार्थ और अस्वार्थ का जो स्वरूप निर्दिष्ट किया है, वह महत्वपूर्ण है। ज्ञानी जीवो का स्वार्थ स्वात्मोपलब्धि की प्राप्ति है । वे उसी की सम्प्राप्ति का निरन्तर प्रयास करते है । क्षणभंगुर इन्द्रिय-विषयों की ओर उनका झुकाव नहीं होता, क्योकि वे सन्ताप बढाने वाले हैं, शान्ति के घातक हैं, अतएव वह ज्ञानी जनो का प्रस्वार्थ है। भगवान सुपाश्वं ने उसी सम्यक् स्वार्थ को प्राप्त किया, और जगत् को उसी की सम्प्राप्ति का मार्ग भी बतलाया है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होयसल नरेश विष्णुवर्धन और जैनधर्म के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्रो [होयसल नरेश महाराजा विष्णुवर्धन वैष्णव थे, किन्तु जैनधर्म पर भी उनका अगाध प्रेम था, यह बात विद्वान लेखक ने प्रामाणिक उद्धरणों से सिद्ध की है। अन्त में एक किंवदन्ती का उल्लेख है कि दारसमुद्र के ७५० मनोज जैन-मन्दिरों को विष्णुवर्धन ने ही, वैष्णव होने के उपरान्त नष्ट करवाया था। शायद लेखक इससे सहमत नहीं है। अच्छा हो कि कोई अन्य विद्वान इसे अपनी खोज का विषय बनायें। -सम्पादक] पश्चिमी घाट की पहाडियों मे कडूर जिले के मूडगेरे किन्तु इस विषय में मै निम्नलिखित बातो पर विद्वानो का तालुका मे 'प्रगडि' नामक एक स्थान है। इसका प्राचीन ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। पहली बात यह है कि नाम शशकपुर था । यही स्थान होयमलो का उद्गम विष्णवर्धन की 'सम्यकत्व-चूडामणि' उपाधि स्वय उन्हे स्थान है। यहाँ पर आज भी वान्तिकादेवी का पुराना जैनधर्म-श्रद्धालु सिद्ध करती है । दूसरी बात है कि विष्णुमन्दिर मौजूद है । क्योकि इस समय यह मन्दिर वैदिको वर्धन के द्वारा मन्दिरो के जीर्णोद्धार और मुनियों के के अधिकार में है। पर मैने अपने एक लेख में इस आहार दानार्थ शल्य प्रादि ग्रामो का दान देना भी उन्हे वासन्तिकादेवी को पद्मावतीदेवी मिद्ध किया है। वासतिका स्पष्ट जैनधर्म का प्रेमी प्रकट करती है१ । तीसरी बात है पद्मावती का ही अपर नाम है। जैन मन्दिर होने के कि गगराज, हल्ल, भरत और मरियण्ण प्रादि कट्टर जनकारण ही मुनि सूदन यहाँ पर रहा करते थे। आज भी धर्मावलम्बियो को सचिव, सेनानायक जैसे दायित्वपूर्ण देखने पर वामन्तिका की मूर्ति पद्मावती की मूर्ति से ज्यो सर्वोच्च पदों पर स्थापित करना भी जैन धर्मानुयायियो की त्यो मिलती है। से विष्णुवर्धन का अटूट अनुराग व्यक्त करता है। एक गेज यही पर 'मल' नामक एक सामन्न ने एक । यहा पर 'मल नामक एक सामन ने एक खासकर गगराज पर विष्णुवर्धन को बड़ा गर्व था। व्याघ्र से सुदत्त मुनि की रक्षा करने के हेतु 'पोयसल' नाम नरेश प्रधान सेनानायक गगरज को बहुत मानते थे। प्राप्त किया था। यही 'पोयमन' नाम आगे चल कर श्रवण बल्गोल के लेख न०६० (२४०) में पाया जाता 'होयमल' बना। इस वश के भावी नरेशों ने अपने को है कि "जिस प्रकार इन्द्र का वज, बलराम का हल विष्णु 'मलपरोलगण्ड' अर्थात् पहाडी मामन्तो में प्रधान कहा है। का चक्र, शक्तिधर की शक्ति और अर्जुन का गाण्डीव उसी इसमे सिद्ध होता है कि प्रारम्भ में होयसल वश पहाडी प्रकार विष्णुवर्धन नरेश के गगराज सहायक थे।" गगराज था। इस वश मे पागे विनयादित्य, बल्लाल आदि कई जन्म से ही सेनानायक-परम्परा के रहे। पाप नृपकाम के प्रतापी नरेश हुए है। बल्कि बल्लाल ने ही अपनी राज- विश्वासपात्र महासेनानी एच के सुयोग्य पुत्र थे । अपने धानी शशकपुर से 'बेनूर' मे हटा ली। हाँ उनकी राज- शौर्य, साहम एव राजनिष्ठा के कारण गगराज द्रोहघरट्ट' धानी 'बेलूर' के सिवा द्वारसमुद्र या वर्तमान हलेबाडु मे -द्रोहियो को चूर-चूर करने वाले इस समुन्नत उपाधि से भी रहने लगी। बल्लाल के उत्तराधिकारी विष्णुवर्धन के विभूषित थे। विष्णुवर्धन अपने को पितृ तुल्य मानने पर समय मे होयसल नरेशो का प्रभाव बहुत बढ़ गया। भी गगराज उन्हे बड़ी गौरव-दृष्टि से देखते रहे। गगराज गगवाडि का पुराना राज्य मब उनके अधीन हो गया और वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध एव समरविद्या पारङ्गत थे। उन्हे जैन विष्णुवर्धन ने कई अन्य प्रदेश भी जीते ।। अधिकाश विद्वानो का मत है कि प्रारम्भ में विष्णु- १. श्रवणवेल्गोल लेख न० ४६३ (शक १०४८) वर्धन जैनधर्मावलम्बी थे, पर बाद मे वैष्णव हो गये थे। देखे। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होयसल मरेश विष्णुवर्षन मोर जनधर्म धर्म पर अचल थद्धा रही। तलकाड के गग-नरेशो की माता माचिकब्जे कट्टर जिनभक्ता रही। उन्होंने प्रत समय परम्पग मे जन्म लेने वाले स्वाभिमानी तथा राष्ट्रप्रेमी मे प्रभाचन्द्र, वर्धमान और रविचन्द्र के तत्वावधान में गंगराज शक्ति, माहस, युद्धनैपुण्य, देशनिष्ठा प्रादि सदगुणो विधिवत् सल्लेखना स्वीकार कर एक माह के उपरान्त के मूर्तस्वरूप थे। श्रवणबेल्गोल मे शरीर त्याग किया। शातला के मातृगृह गगराज शौर्य निधि एवं उत्तुग पराक्रमी होने के काण वाले भी शुद्ध जैनधर्मानुयायी ही रहे। उनके समय मे होयसलों को मर्वत्र विजय ही विजय प्राप्त शातलादेवी पादर्श गृहिणी थी। साथ ही साथ वीरहुई। साथ ही माथ पर्याप्त कीति भी। पुनीश, भरत पत्नी भी। महाराज विष्णुवर्धन के राज्य-कार्यों में भी आदि अन्य जैन सेनानायकों को भी गंगगज पर बडा शातला बराबर भाग लेती थी। एक बार प्रधान सेनाअभिमान था । खासकर तलकाड और चोलों के युद्ध मे नायक गगगज को भी उन्होने ललकारा था। हाँ, बाद में गगगज को इन मेनानायको ने सकल महयोग प्रदान उन्हे इसके लिए पश्चाताप अवश्य हुमा । यो तो जातलाकिया था । गगगज धर्मात्मा थे। अत विजित गज्यो की देवी गगगज को बहुत मानती थी। एक बार गंगगज के एजाग्रो को किमी भी प्रकार का कष्ट नही देते थे। द्वारा गनी 'माता' के नाम से पुकारी जान पर वह 'शरणागतवत्सल' उनकी यह अघि सार्थक थी। अपने सविनय कहने लगी कि "अमात्य जी, भविष्य में कभी भी मेनापट्टाभिषेक के शुभावसर पर गगगज नरेश के द्वारा मुझे माप इस नाम मे मम्बाधित न करे। मै आपकी महपं प्रदत्त 'बिडिगेन विले' ग्राम को अपने उतराधिका- बेटी हूँ, माता नहीं है । शातला वाद्य, गीत और नृत्य इन रियो को न मौर कर तुरन्त श्रद्धेय स्वगुरु शुभचन्द्रदेव के तीनो मे बडी विदुपी थी। इस प्रकार रानी अनुकूल पत्नी, चरणों मे समर्पित करते है । देग्विथे गगराज की निस्वार्थ प्रादर्श राजकारिणी, प्रजावत्मला एवं उत्तमकुलपरिशुद्धा धामिक बुद्धि ! वस्तुत गगगज आदर्श मन्त्री, प्रतापी होने के कारण भारतीय श्रेष्ठ नाग-मणियो की पहली मेनानायक, अनन्य स्वामिभक्त, असीम प्रजानृगगी एव पक्ति में शामिल होने की योग्यता रखती थी। अप्रतिम देशभक्त थे। ऐसे महान व्यक्तियो पर जैनधर्म अन्त मे शांतलादेवी ने शक १०५० मे बेगलुर मे आज भी गर्व कर रहा है। करीब ३० मील दूरी पर स्थित 'शिवगंगे' में समाधिचौथी बात है कि प्रधान महिपी गातला का अन तक मरणपूर्वक शरीर त्याग किया था । बंगलूर के के.बी. जैनधर्म पर अचल रहना भी एक विचारणीय गम्भीर अय्यर नामक लेखक ने 'शातला' नामक अपनी रचना में बान है। अगर विष्णुवर्धन जैनधर्म के कट्टर विरोधी होते शातला की इम मृत्यु को 'प्रात्महत्या' लिम्व माग है। नो यातलादेवी जैनधर्म को पवको अनुमायिनी नही हो मैने उसका विरोध किया था। बल्कि हाल ही में मैमूर मकती थी। नरेश गतिला के जैनधर्म मम्बन्धी किसी भी विश्वविद्यालय के कन्नड प्राध्यापक डा. चिदानन्दमूति ने धार्मिक कार्य में बाधक नही बने है। बल्कि शातला के अपने महाप्रबन्ध में मेरे ही मन का समर्थन किया है। प्रत्येक धार्मिक कार्य में सहायक हो रहे है। शातलादेवी ने उनका भी कहना है कि शिलालेख में स्पष्ट "मुडिवि श्रवण बेल्गोल में 'सनिगन्धवाराणवस्ति' के नाम से एक स्वर्गले या दलु-मरकर स्वर्गामीन हुई।" लिखा है। मुन्दर जिनालय निर्माण करा कर उममें स्वनामानुकूल ऐमी विवेकशीला एव धर्मात्मा महिला की मृत्यू को शातिनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापित की थी। 'मति- आत्महत्या कहना निरी भूल है। शॉतला वस्तुत. एक गन्धवारण' शातलादेवी की अन्यतम उपाधि थी। प्रादर्श महिला थी। रानी शातला के श्रदय गुरु प्रभाचन्द्र एव प्रगुरु नेमि- पाँचवी बात है कि गगगज के पुत्र बोप्पदव ने अपने चन्द्र विद्यदेव उस समय के प्रमुख भाचार्यों में से थे। पूज्य पिता की स्मृति मे द्वारममुद्र पर जो विशाल एव शातला रूप, शील, दया, भक्ति आदि मानवोनित सभी मुन्दर जिन-मन्दिर निर्माण कराया था, उसकी प्रतिष्ठा के गुणों से अलकृत थी । रानी के पिता शंब होने पर भी बाद पुजारी लोग शेषाक्षत लेकर महाराजा विष्णुवर्धन के Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पास बंकापुर गये। उसी समय महाराज ने मसन नामक लक्ष्य में भट्टारक जी को 'बल्लाल जीवरक्षक' की उपाधि शत्रु को वषकर उसका देश प्राप्त किया था और उनकी भी दी गई थी जो कि शिलालेखों में भी इस बात का रानी लक्ष्मी महादेवी को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी। उल्लेख पाया जाता है । अगर विष्णुवर्धन को जैनधर्म एवं नरेश ने उन पुजारियों की वन्दना की और भक्ति से जैन गुरु पर भक्ति नहीं होती तो वह चारुकीर्ति जी के गन्धोदक एवं शेषाक्षत अपने मस्तक में लगाये। उस समय इलाज के लिये प्राग्रह ही क्यों करते ? विष्णुवर्धन ने कहा कि "इन भगवान की प्रतिष्ठा के पुण्य सारांश यह है कि महाराज विष्णुवर्धन कारणात से से ही मैंने विजय एवं पुत्र का जन्म पाया। इसलिए मैं वैष्णव होने पर भी जैनधर्म पर उन्हें प्रेम तथा अभिमान इन भगवान् को 'विजयपार्श्वनाथ' नाम से पुकारूँगा। कम नही हुमा था। इस बात को स्पष्ट करने के लिये मौर मैं अपने पुत्र का नाम 'विजय नरसिहदेव' रक्खूगा। उपर्युक्त प्रमाण पर्याप्त है । हाँ, एक किंवदन्ती है कि द्वारसाथ ही साथ महाराज ने मन्दिर के जीर्णोद्धार के लिए समुद्र माहलेबीडु मे विष्णुवर्धन के समय मे लगभग ७५० 'जावगल्लु' नामक ग्राम भेट किया था। न० १२४ सन् विशाल एव मनोज जैन मन्दिर थे और वैष्णव होने के ११३३ का यह लेख बस्तिहल्ल (हलेबाड़) मे पाश्र्वनाथ उपरान्त विष्णुवर्धन ने ही उन सब मन्दिरो को नाश मन्दिर के बाहरी भीत पर एक पाषाण में अकित है। कराया। प्राज हलेबीडु मे दृष्टिगोचर होने वाले मन्दिरो छठी बात है कि जिस समय विष्णुवर्धन के बड़े भाई के भग्नावशेषो से भी मन्दिरो के विनाश की बात यथार्थ बल्लाल एक असाध्य रोग से विशेष पीड़ित थे तब विष्णु- मालूम होती है। पर यह विनाश-कार्य कब और किससे वर्षन के प्राग्रह से ही श्रवणबेल्गोल के तत्कालीन मठा- हुआ यह बात अनिश्चित है। इस विषय मे अनुसन्धान धीश श्री चारुकीति जी का इलाज किया गया और उस की मावश्यकता है । तब ही इस बात को सच्चाई प्रकट इलाज से बल्लाल स्वस्थ हो गये थे। बल्कि इसी के उप- हो सकती है। 'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य ब्योरे के विषय मेंप्रकाशन का स्थान वीर सेवा मन्दिर भवन, २१ दरियागज, दिल्ली प्रकाशन की अवधि द्विमासिक मुद्रक का नाम प्रेमचन्द राष्ट्रीयता भारतीय पता २१, दरियागज, दिल्ली प्रकाशक का नाम प्रेमचन्द, मन्त्री वीर सेवा मन्दिर राष्ट्रीयता भारतीय पता २१, दरियागज, दिल्ली सम्पादकका नाम डा० मा. ने. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट्, कोल्हापुर डा. प्रेमसागर, बडौत यशपाल जैन, दिल्ली राष्ट्रीयता भारतीय पता मार्फत वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली स्वामिनी संस्था बीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली मैं, प्रेमचन्द घोषित करता है कि उपरोक्त विवरग मेरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है। १७-२-६४ ह.प्रेमचन्द (प्रेमचन्द) Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपुर में राजा ईल से पूर्व का जैन मन्दिर नेमचन्द धन्नुसा जैन, न्यायतीर्थ [श्रीपुर 'प्रतरिक्ष पाश्र्वनाथ' का अधिष्ठान रहा है। इसे प्रतिशय क्षेत्र कहते हैं। इसके मन्दिर में 'प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा अधर में स्थित है। इसका उल्लेख वि० स० पहली शताब्दी के कुन्दकुन्दाचार्य की 'निव्वाणभत्ती' में प्राप्त होता है। इस मन्दिर का निर्माण राजा ईल से पूर्व खरदूषण ने करवाया था। लेखक ने परिश्रमपूर्वक अन्वेषणबुद्धि से एतद् सम्बन्धी ऊहापोह किया है। -सम्पादक आम तौर पर समझा जाता है कि श्रीपुर पार्श्वनाथ भाग में जब आया था, तब उसका प्रागमन श्रीपुर मे क्षेत्र का निर्माण राजा ईल ने ही किया है । लेकिन उप- हुमा था। (देखो चारुदत्त चरित्र) तथा कोटीभट लब्ध जैन साहित्य, ताम्रपत्र तथा दतकथाओं के प्राधार श्रीपाल-भ० नेमिनाथ के ममकालीन-वत्मनगर (वाशीम पर यह सिद्ध हो सकता है कि श्रीपुर मे ही खरदूपण जिला अकोला) पाया था तब वह इस नगर के बाहर राजा के समय से इस सातिशय प्रभु की स्थापना हो गयी उद्यान में स्थित एक विद्याधर को विद्यासाधन में सहायक थी। श्रीपुर का उल्लेख सातिशय क्षेत्रों में हमेशा हमा हुमा था। 'वत्सगुल्म (वाशीम) महात्म्य' इस किताब मे है । हाँ इतना तो जरूर मानना पडता है कि ईल गजा बताया है कि, पौराणिक काल मे वाशीम का विस्तार के कुछ पहले इस क्षेत्र का विध्वस हो गया हो और प्रभु १२ कोम का था। अत. हो सकता है -उम थोपाल के जी को हस्ते-परहस्ते जल प्रवेश करना पड़ा हो। उसके जमाने में श्रीपुर का स्थान वासम नगरी के बाहर नजीक बाद ईल राजा ने यहाँ धर्म प्रभावना के साथ क्षेत्र का उद्यान जैसा हो। अन्यथा गांव के हलकल्लोल में विद्याउद्धार किया, उस समय भी यह प्रतिमा अधर (प्रतरिक्ष) साधना नहीं हो सकता। रहने से इसका नाम तभी से अतरिक्ष पडा। 'लस थी श्रीपुर का सातिशय क्षेत्र में उल्लेख-(१) इसका प्रतरिक्ष कहा' यह उल्लेख इसका साक्षी है। उल्लेख करने वाले पहले प्राचार्य श्री कुन्द कुन्द (ई. सन् अब सवाल यह पैदा होता है-प्राचीन मन्दिर था, की पहली शताब्दी) के है । वह 'निव्वाण भत्ती' में यहां के तो क्या श्रीपुर नगर भी प्राचीन है ? मन्दिर कहाँ था, पार्श्वनाथ को वदन करते है। देखो 'पास सिरपुरि वदमि । और पहले प्रतिमाजी कैसी विराजमान थी? होलगिरी शख दीवम्मि। इस सातिशय प्रतिमा को राजा खरदूषण ने ही (२) दूसरा उल्लेख (जैन शिलालेख संग्रह भाग २ निर्माण किया, इस बाबत सब दिगम्बर साहित्य एकमत पृष्ठ ८५) राजा चालुक्य जयसिह के ताम्रपत्र में है। ई. है। लेकिन श्वेताम्बर माहित्य में दो मत है। प्राचीन स० (४८८) मे इस क्षेत्र को कुछ भूमि दान दो श्वेताम्बर प्राचार्य माली-सुमाली को निर्माता मानते है, तो गई थी। तथा अकोला जिले के १९११ के गजेटियर में लावण्य विजय से लेकर बाद के सब श्वेताम्बर आचार्य लिखा है कि 'माज जहाँ मूर्ति विराजमान है उसी भोयरे भी खरदूषण को निर्माता मानते हैं। इसका सीधा अर्थ में यह प्रति संवत् ५५५ ई. स.४६८ के वैमाख शुद्ध यह है कि इनके ऊपर दिगम्बरी साहित्य का प्रभाव ११ को स्थापित की गई थी। वहाँ राजा का नाम गंगपड़ा है। सिंह है, जो जयसिंह भी हो सकता है । श्रीपुर को प्राचीनता-चारुदत्त श्रेष्ठी (म० नेमि- इस पर से विश्वास होता है कि यह गजेटियर लिखते नाथ के समकालीन) धन कमाने के इरादे से इस समय उनके पास कोई प्रबल प्रमाण जरूर होगा, नही तो Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनेकान्त ऊचाइन वह निश्चित तिथि और जगह नही देते । अतः इस उल्लेख इसमे श्रीपुर की जिन प्रतिमा अंतरिक्ष में प्रधर में हमे विश्वास पाता है कि प्राचीन मन्दिर गाँव मे है स्थित होने की स्पष्ट सूचना मिलती है तथा उसकी ऊंचाई उमी जगह होगा। इसका समर्थन नीचे के प्रमाण से भी भी स्पष्ट बताई है कि मामने खड़े होने वाले व्यक्ति के होना है। ऊँचाई मे निकलकर अर्थात कुछ अधिक ऊंचाई पर वह (३) जैन शिलालेख संग्रह भाग २ पृष्ट १०६ मे प्रतिमा स्थित थी। बताया हे कि, "मुनिश्री विमलचन्दाचार्य के (ई० स० श्वेताम्बर विद्वान् श्री जिनप्रभसूरि, सोमधर्मगणी तथा ७७६) उपदंश से पृथ्वी निर्गुन्दराज की पत्नी कूदाच्ची लावण्य विजय सूरि भी इस बात की पुष्टि करते है कि ने धीपूर के उत्तर मे 'लोकतिलक' नाम का मन्दिर बन- श्रीपुर में पहले एक पुरुष से अधिक ऊँचाई पर प्रतिमा वाया 'पा। तथा इसकी मरम्मत, नई वृद्धि, देवपूजा मादि अधर स्थित थी। के लिए एक ग्राम दान दिया था।" टन श्रीविमलचट्टाचार्य देखो-जिनप्रभसूरि-'श्रीपुर मे पहले पानी भरने की प्रतिष्टित मौर भी छोटी-छाटी धातु तथा पापारण की वाली स्त्री (मूर्ति के नीचे) से निकल जायगी इतनी प्रतिमाएं श्रीपुर मे सलेख पाई जाती है । अधर प्रतिमा थी।' (थी अतरिक्ष पार्श्वनाथ कल्प) मोमधर्मगरणी-'एक स्त्री अपने मस्तक पर घट-पर-घट इम पर से स्पष्ट प्रमाणत होता है कि, वह मन्दिर रख कर उम बिब के नीचे मे पहले निकल जा मकनी श्रीपुर के उत्तर दिशा में बनाया गया था। मन्दिर श्रीपुर थी। ऐमा श्रीपुर के वृद्ध लोग कहते है।' (उपदेश के उत्तर भाग में ही है। तथा उत्तर दिशा नकशे में अग्र मप्तति उन्लोक (२१-२२)। लावण्य समय-'प्रतिमा के भाग में ही रहने मे या गिद्धस्वरूपी त्रिलोकीनाथ यहाँ नीचे में पहले एक अमवार निकल जा मकता था' आदि । विगजमान होने से इम मन्दिर का 'लोकमिलक' ऐसा (थी अतरिक्ष पार्श्वनाथ छद) साथ मे ये तीनो श्वेताम्बर नाम रखा होगा। विद्वान एक आवाज मे कहते है कि 'अब यह प्रतिमा एक (४) पाठयी मदी के श्वेताम्बर विद्वान हा भद्रमूरि अगुल भर ही अधर है।' ममगच्चकहा मे पृष्ठ ३६८-३६६ पर श्रीपुर का उल्लेख प्राचार्य श्री विद्यानन्दी (ई० म०६४०) का श्रीपुर करते है। उस श्रीपुर का बलामा अनेकात जून १९६२ ।। पाश्वनाथ स्तोत्र' सूचित करता है कि, ईल राजा के पहले में पृष्ठ ८६ पर इस प्रकार पाया है-'४६ श्रीपुर थीपर मे गातिशय पार्श्वनाथ की मूर्ति तथा मन्दिर था। विविध तीर्थ कल्प के अनुमार श्रीपुर में अतरिक्ष पाश्वनाथ बाबू कामताप्रमाद जी लिखते है कि 'श्रीपुर में पार्श्वकी प्रतिमा स्थापित की गई है। श्रीपुर का निर्माण नाथ भगवान का ममवशरण पाया था' (स० जैन इ. मानी मुनानी ने किया है। भाग १ पृ० ८८) इमका मीधा अर्थ यह है कि श्वेताम्बगे के प्राचीन इसके बाद का तथा श्रीपाल ईल गजा के पहले का माहित्य में भी श्रीपुर का अस्तित्व मानीमुमाली के जमाने कोड और माहित्यिक उल्लेख दृष्टि में नही पाया। हाँ, में माना जाता है। जो पाया है उस पर अगर विश्वास रखे कि वह वादिराज (५) श्री जिनमेनाचाय (ई० स० ७८४) हलिवश मुनि का ही है तथा श्रीपुर सबन्धी ही था तो श्रीवादिराज पराण अध्याय ५७ श्लोक ११०-१२३ मे श्रीपुर, ग्रचल- के (ई० म०८६०-७०) जमाने मे श्रीपुर के मन्दिर का पर (प्रचलसपुर) आदि ८५ नगर्ग को दिव्य नगर कहा विध्व स हो गया होगा। और मूर्ति जलकूप मे विराजित है। और मागे कहा है कि 'वहाँ के जिन मन्दिर मे स्थित हुई होगी। यह जलक्रूप वह ही जान पड़ता है, जो पौली प्रतिमाएं यद्यपि अपने-अपने स्थान पर स्थित है. तथापि मन्दिर के बाजू में ही है। [ऐसा आज भी अनुभव होता म मने खड़े होकर देखने वालो को ऐमी दिग्वाई देती है है, कि उम कुएँ का जल एक मास तक सेवन करे तो मानो उन स्थानो मे निकलकर आकाश मे ही विद्यमान उमसे सब उदर रोग चले जाते हैं।] भानुविजयगणी के हो ।। श्लोक १३६॥ (वि० स० १७१५) के कथनानुमार भी, यह कृप इमली Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोपुर में राजाल से पूर्व का जन मन्दिर के पेड़ के नीचे ही माता है। जहाँ ईल राजा ने विश्रांति बुलाया गया। उन्होंने 'लक्ष्मी महातुल्य सती...' स्तोत्र ली थी। और हाथ-मुह धोकर जल पान किया था। तथा प्रभु की स्तुति कर धरणेद्र को प्रसन्न किया । पौर धरणे श्वेताम्बर वि. विजयराज (स. १७३७) लिखते हैं- से प्रतिमाजी वहाँ से न हटाने का ममाचार जानकर (गी 'एक दिन राजा घूमते हुए बगीचे मे गया। वहाँ उसको मे) वहाँ ही प्रतिमा के ऊपर मन्दिर निर्माण कराया। मुड़े जल का प्रवाह मिला। राजा घोड़े पर से नीचे सकता है राजा को काष्ठासघीय समझकर या सघ माम्ना उतरा। वह वहाँ बैठा और हाथ-पांव धोये तथा अपने भेद का झगडा फिर खडा न हो। इसलिए माम जनर महल को लौटा' प्रागे फिर कुएं को जाने का तथा कुएँ से को भी प्रार्थिक और श्रमिक मदद देकर मन्दिर निर्मा मूर्ति निकलने का वर्णन है।। का उपदेश दिया हो। __ प्रत. राजा ईल ने इस कूप मे सयत्न यह मूर्ति निकाल यहाँ पौली मन्दिर निर्माण मे राजा को गर्व होने के कर प्रथम वहाँ के तोरणद्वार (महाद्वार) मे स्थापना की सवाल ही पैदा नहीं होता, अत: यह भ्रामक कल्पना बा और पूजी तथा राजधानी की तरफ उसे ले जाते समय वह में शामिल की होगी। क्योकि श्वेताम्बर जिन प्रभ अपनी पुगणी जगह आ गई और रुक गयी। राजा ने पीछे मोमधर्मगणि प्रादि विद्वान भी प्रतिमा के ऊपर ही मन्दि देखा तो प्रतिमाजी स्थिर हो गयी। या मान लो योगायोग का निर्माण मानते है। (प्रचीकरच्च प्रोत्तुगं प्रासादं प्रतिम गजा ने वहा कहो पीछे देखा तो, मूर्ति वहां से न हटी। परि ।) मादि। तब राजा ने जोशी लोगो से जाना कि, मूर्ति राजधानी इस प्रकार मिद्ध हो सकता है कि खरदूषण गजा एलिचपुर नहीं चलेगी, तो उमने सोचा होगा कि अच्छा हो जहाँ में इस लाया वहाँ पर ही विराजमान कन्दू । इसी प्राजतक श्रीपुर ही अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ भगवान क विचार से पौली मन्दिर का निर्माण हुआ । इसमे भट्टारक अधिष्ठान है। ऐसा नहीं होता तो, दिगम्बर या श्वेताम्ब रामसेन ( ई० स०६८० से १०३५) का पूरा सहयोग साहित्य मे उम अन्य जगह का जरूर ऊल्लेख मिलता। था। स्थानीय लोग उनके हाथ में प्रतिष्ठा होना पसन्द कुछ लोग एलोग का इस मूर्ति के प्रथम स्थान नही करते थे । इसलिए वाद उपस्थित होने लगा तो गम- सम्बन्ध लगाते है, लेकिन वह भ्रात है, क्योकि एलोरा सेन ने भी प्रघूरे मन्दिर में जल्दी से प्रतिमा विराजमान गुफा निर्माण करने से ही ईल राजा का उससे सम्बन्ध है कर बाद मे शेप काम (शिखर मादि) करने का विचार न कि मूर्ति वहाँ से लाने से । ऐमा नहीं होता तो एलोर किया होगा। किन्तु योग के अनूमार प्रतिमा वहाँ मेन और श्रीपुर सम्बन्धी लिखने वाले ब्रह्मज्ञानसागरज हटी। तब मन्दिर को अधूरा ही छोड़कर रामसन वहाँ से (१७वी सदी) इसका जरूर उल्लेख करते । इति अलम् अलग हो गये है। हो सकता है इसमें मेरी भी भूल हो गयी हो तो फिर राजा की अनुमति से मलधारि पद्मप्रभ को विद्वान लोग इस पर अधिक प्रकाश डाले। "बादल सागर का क्षार (बारा) जल पीकर और उसे मीठा एवं स्वादिष्ट बना कर लोक हित की दृष्टि से बरसा देता है। उसी तरह सज्जन पुरुष भी दुर्णनों के दुर्वचनों को सुनकर और उनके परिताप को सह कर उत्तर में मधुर, हितकारी और प्रिय साचन ही बोलते हैं।" Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वागभट्ट के मंगलाचरण का रचयिता श्री क्षुल्लक सिद्धसागर [सेठ कन्हैयालाल पोद्दार के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'संस्कृत साहित्य का इतिहास (प्रथम भाग पृ० २५४) में तीन वाग्भटों का उल्लेख मिलता है। पहले वाग्भट जैन थे, और उन्होने 'वाग्भटालंकार' का निर्माण किया था। उस पर पांच टीकाएँ उपलब्ध हैं । टीकाकार सिंह गणि ने उन्हें कवीन्द्र, महाकवि और राजमंत्री कहा है। दूसरे वाग्भट प्रजन थे, उनके पिता का नाम सिंहगुप्त था, उन्होंने एक वैद्यक ग्रन्थ का निर्माण किया था। इसी ग्रन्थ के मंगलाचरण को दार्शनिक पहलू से प्रांक कर क्षुल्लक सिद्धसागर ने जैन सिद्ध किया है। प्रतीत होता है कि उनका कथन प्रामाणिक है। -सम्पादक] रागादिरोगान् सततानुषक्ता इम मगलाचरण का रचयिता न तो सर्वथा नित्यवादी ही नशेषकायप्रसृतानशेषान् । हो सकता है और न क्षगिकवादी बौद्ध ही। तथा जो पौत्सुक्यमोहारतिदाजघान ईश्वर को सर्वव्यापक तथा अनादि शुद्ध मानते है, उनके योऽपूर्ववैद्याय नमोस्तु तस्मै ॥ मत से रागादि का उमके उत्पन्न होना तथा रागादि रोगो जो लोग जीव के अस्तित्व को नही समझते है, उनके का नष्ट किया जाना सम्भव नही हो सकता है, अत यह ति में जीव के न होने वाले गगादिको का अस्तित्व सिद्ध होता है कि उक्त वाग्भट्ट कृत मगलाचरण परिणामी म्भिव नहीं हो सकता है। तथा जो जीव को सर्वथा नित्य वस्तु को मानने वाले किसी पार्हत् मतानुयायी का नत्य या शुद्ध ही मानते है, उनके मन्तव्य के अनुसार भी रचा हुआ है। भाव रागादि हो सकते है और न द्रव्य ही । ऐसी कोई जिसके मत मे न ईश्वर के कोई शरीर है और न वह स्तु नही, जो सर्वथा नित्य ही हो और अनित्यता उसमे सर्वव्यापक होने से कोई परिस्पन्दवती क्रिया ही करता है, । हो । इसका कारण है कि वस्तु सत् है तथा परिणामी वह जीवो के रागादि तथा आनुपतिक और काय मे होने नत्य है । इसके विपरीत जो सर्वथा क्षणिक ही है, जिसमे वाले रोगो को कैसे दूर कर सकता है ? वह शरीर के नत्यता किसी प्रकार भी नही है, उस वस्तु का अस्तित्व बिना जीवो को मोहादिक रोगों को दूर करने के उपाय ही नही हो सकता । वस्तु सत् स्वरूप होती है और मत् को बताने वाला अपूर्व वद्य कैसे हो सकता है ? त्पाद्-व्यय-ध्रौव्ययुक्त होता है। हाँ, जो पहले संसारी जीव होता है तथा जो अपने रागादि रोग उत्पन्न हो तथा वे जीव मे कुछ काल मोहादिक को दूर कर, अठारह दोप रहित, निर्दोष सकल हक कायम रहें तभी तो उसका रत्नत्रय रूप त्रिफला से परमात्मा बनता है, वह परमौदारिक निरोग शरीर मे हर करने का उपाय भी बन सकता है। किन्तु जिसके स्थित परमात्मा, जिसके दिव्य-वाणी पाई जाती है, वह न्तव्य के अनुसार उनका होना तथा कुछ काल तक अपने और दूसरे के रागादि रोगो को दूर करने वाला हो पी संसारी जीव के उनका बना रहना असम्भव है, उसके सकता है। ति मे उनका निराकरण भी सम्भव नहीं है। ___ "स्थित्युत्पत्तिलयान् गच्छति, इति जगत्।" इस जो लोग सदा से अनादि से ही जिस ईश्वर विशेष को कथन के अनुसार सम्पूर्ण विश्व या जगत् परिणामी नित्य गादि रहित मानते है उनका यह कहना कि उसने है तथा उस मन्तव्य के अनुसार जीव के रागादिक रोग गादि रोगो को नष्ट किया है स्ववचन बाधित है, अतः तथा काय में होने वाले रोगों का होना तथा उनका Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वागभट्ट के मंगलाचरण का रचयिता २४६ निदान आदि करके निराकरण किया जाना सम्भव है। चार्वाक नास्तिक इस मंगलाचरण का रचयिता नहीं शरीर में या जीव में होने वाले रोगों के प्रकार अनेक है। हो सकता है, क्योंकि वह पुद्गल से अलग जीव का तथा उनके उपाय भी अनेक हैं। एक रोगके लिए भनेक औष. अस्तित्व नहीं मानता, उसके मत मे जीव के रागादिक का धियां हो सकती हैं तथा अनेक रोगो के लिए एक प्रौषधि भी होना सम्भव नहीं है। उपयोगी हो सकती है। इस प्रकार रोगी, रोग, उनके कारण प्रात् मत के सिवाय किमी भी मन्तव्य के अनुसार और शमन के उपाय आहे त् मतानुमार अनेकान्तमय है। उपर्युक्त मंगलाचरण का रचा जाना संभव नहीं है । जो जीव के रागादिक रोग होते हैं, वे निष्कारण नही क्षणिकवादी है, वह मगलाचरण के रचने के विचार के हो सकते हैं । जीव, शरीर और कर्म से बंधा हुआ है। समय ही चल बसेगा । प्रत. वह तो उसे रच ही नही उम बध के हेतु मोहादिक है । यदि नवीन अपराध, मोह, सकता है। तथा जो सर्वथा नित्य है, बढ़ मगलाचरण हिमा आदि रूप से न किया जावे तथा कर्मोदयादि से रचने के पहले जैसे नित्य मंगलाचरण रचने के विचार होने वाले पुराने रोगों का अन्त करने के लिये इच्छा- से रहित था, वैसे ही रहने से मंगलाचरण रचने के नवीन निरोध रूप तप करके उनको प्रांशिक रूप से समाप्त कार्य को नहीं करा सकता है। किया जावे, तो फिर पूर्णरूप से मुक्ति भी असम्भव नही जो द्रव्य दृष्टि से वस्तु को ऊर्ध्व सामान्य या अन्वय है। जो निर्दोष सर्वज्ञ हैं उनके शरीर में मोहादि का की अपेक्षा से कथञ्चित् नित्य तथा पर्याय अपेक्षा से प्रभाव होने से कोई रोग और उपसर्ग नही होता है। कथञ्चित् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त मानता है उस पाहतु यदि जीव को काया से सर्वथा अबद्ध माना जावे तो मत की अपेक्षा से उस मगलाचरण का रचा जाना सम्भव काय में उत्पन्न होने वाले रोगो का असर ससारी जीव मे है। "प्रसद् का उत्पाद् नहीं होता है तथा सत् निर्मूल क्यो हो ? अन्य के शरीर के समान निजी शरीर के रोग नही होता है।" इस कथन के अनुसार समस्त वस्तुएँ मे भी उसे वेदना नहीं होनी चाहिये ? किन्तु पीड़ा का अनादि निधन है। जो वस्तु है उमी में कुछ उत्पाद व्यय अनुभव मोही जीव को होता है। वह राग जीव का परि- प्रादि होते रहते है। जो कुछ भी नही है उसमे न कोई णाम है । वह रागादिक रोग निष्कारण नहीं होना है। उत्पाद है न व्ययादिक है। जो वस्तु है, वही परिणामी जीव विवेकरहित होकर अपराध कर कर्म बन्ध कर उसके नित्य है, वही वस्तु हो सकती है। इस प्रकार वस्तु उभफल पाता है । इसीलिये प्राचार्य धनञ्जय ने कहा है कि- यान्वय से और अविनाभाव से सहित है। "नरक यात्य मेधश ।" __ यदि रोग का कारण सर्वथा नित्य है, तो रोग का उक्त कथनों पर से यह फलित होता है कि-जीव उपचार व्यर्थ होता है। यदि रोग क्षणिक है, वह स्वत. अजीव के साथ अपराध करने से बँधा हुमा शरीर रूपी नष्ट होता है, तो भी उसका उपाय व्यर्थ है। जो रोग कारागार में पड़ा हुमा है। वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी निष्कारण प्रति क्षण उत्पन्न हो तथा नष्ट हो, उमके मत भगवान् अपूर्व वैद्य है-जैसा कि वैद्यक ग्रथों मे स्वयंभू मे आयुर्वेद शास्त्र कार्यकारी नही हो सकता है। किन्तु प्रजापति या मादिदेवरूप धनवन्तरी को रागादि रोगों को जो रोग के प्राधार रोग के कारण, रोग तथा रोग के दूर करने वाला वैद्य प्रतिपादित किया है। जीवका स्वरूप उपचार को, पाहत् मत में कहे हुए द्रव्य, क्षेत्र, काल और जानना देखना है या उपयोग है, तथा मजीव अचेतन रूप भाव से सहित परिणामी नित्य, मानता है, उसके मत में है, अपराध पाश्रव है, तथा उससे कर्म बन्ध होता है, जब ही प्रायुर्वेद शास्त्र तथा मगलाचरण-प्रणयन प्रादि की जीव अपराध को नहीं करने रूप (सम्यक्त्व सहित) संवर सफलता सम्भव है। को करता है, तथा रागादि रोगों के कारण कर्म को अंश यदि औषधि रूप से पाये जाने वाले द्रव्य सर्वथा रूप से निर्जरारूप करते हुए पूर्णरूप से जब उसे खिरा नित्य हैं, तो वे कोई असर नही कर सकते तथा क्षणिक देता है. मुक्त होता है। [शेष पृष्ट २५२ पर] Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रइधू कृत 'सावयचरिउ' 'समत्तकउमुइ' ही है प्रो० राजाराम जैन, पारा [रइष अपभ्रंश के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने 'समत्तकउमह" का निर्माण किया था। उनकी रचना 'सावयचरिउ' का ही दूसरा नाम 'समत्तकउमई' था। पं० परमानंद और प्रो. राजाराम दोनों की ऐसी मान्यता है । श्री अगरचंद नाहटा ने 'भूल की पुनरावृत्ति' कहकर उसका खण्डन किया है। किन्तु प्रस्तुत निबंध में प्रो. राजाराम ने नाहटा जी के कथन को नितान्त भ्रामक प्रमाणित कर दिया है। अच्छा होता यदि नाहटा जी अपने 'खण्डन' को प्रखण्ड न मानते। -सम्पादक अनेकान्त के वर्ष १७ किरण १ (अप्रैल १६६४) में सुरसेन-देवमेन (मेहेसर० शह) आदि लेखकों, सिद्धान्ताचार्य श्री बाबू अगरचन्द्र जी नाहटा ने एक लेख कजकित्ति-कमलकीत्ति (णेमि० अन्त्यप्रशस्ति) लिखकर महाकवि रइधू कृत "मावयचरिउ" का "समत्तक- आदि माथुर-गच्छीय पुष्करगणशाग्या के भट्टारको, एव उमुई" नाम अनुपयुक्त माना है। उन्होंने अपने मत का रामचरित-पउमचरिउ एव बलहचरिउ, समर्थन करते हुए भिक्ष स्मृति ग्रंथ (कलकत्ता १९६१) मे मेहेमरचरिउ-आदिपुराण, प्रकाशित "अपभ्र श-भाषा के मन्धिकालीन महाकवि रइधू" मम्मइजिणचरिउ---वीरचरिउ एव बढमाणचरिउ, नामक मेरे निबन्ध एव श्री ५० परमानन्द जी शास्त्री मिग्विालचरिउ-सिद्धचक्कमाहप्प एव सिद्धचक्कद्वारा सम्पादित 'प्रशस्ति संग्रह द्वि० भाग की प्रस्तावना विहि, (पृ० १०२) मे उल्लिखित र इधूकृत "समत्तकउमुइ" नाम- वित्तमार-चरितमार, तथा कोभी" "ठीक नहीं" बतलाया है। किन्तु जिसे श्री नाहटा मिणाहचरिउ-अस्ट्रिण मिचरिउ एव हरिवशपुराण जी ने "भूल की पुनरावत्ति" कहा है, मेरे दृष्टिकोण मे आदि स्वचरित रचनाओं के नाम-नामान्तरो के प्रयोग मत्य का समर्थन वस्तुतः उसी से होता है। उपलब्ध होते है। यही नहीं, उसने स्वयं अपने नाम के ___ "सावयचरिउ" के प्राद्योपान्त अध्ययन से यह स्पष्ट भी नाम-नामान्तर प्रस्तुत किये है। जैसे उसने 'रइधृ' ज्ञात हो जाता है कि 'सावयचरिउ' एवं 'ममत्तकउमुइ' इस नाम का तो प्रयोग किया ही किन्तु कही-कही 'सिहसेन' एक ही रचना के दो नाम है। रइधू-साहित्य का विद्यार्थी (सम्मइ० ११५१०-११; मेहेसर० ११३८-६) का भी होने के कारण मुझे रइधू का प्रायः समस्त उपलब्ध प्रयोग कर लिया तो सन्धियों के अन्त्य पत्तों में रइ, साहित्य देखने का अवसर मिला है तथा उसकी कई (सम्मइ० १११६।११, २।१६।१७, ३१३८।१७,४।२१।१५, विशेषताओं में से एक यह विशेषता भी दृष्टिगोचर हुई ॥३८॥१२:६।१७।१३, सावय० ३।२६) रइधर (सावय० है कि लेखक ने नायकों, भट्टारकों एवं रचनामों के कई श१३) जैसे नामान्तरों के उल्लेख भी किये हैं। ठीक कई पर्यायवाची नाम अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किये हैं। इसी प्रकार 'सावय चरिउ' के भी कवि ने कई नामो के जैसे उल्लेख किये है । जैसे "कौमुदी कथा प्रबन्ध" (जीवन्धर० रविपहु-अर्ककीत्ति (पासणाह० ३।११।१), ११३); 'कौमुदी प्रबन्ध' (णेमि० ११२) 'कौमुदी कथा' हयसेणु-अश्वसेन (पासणाह० ३३११४, ३।२।१४), (जीवन्धर० ११४ तथा उसकी अत्यन्त प्रशस्ति) 'सम्मत्त सत्तुदमन-अरिदमन (सिरिबाल० ३।२), कउमुइ' (सावय० अन्त्य पुष्पिका) एवं 'सावय चरिउ' । हरिरह-मृगरथ (सिरिवाल० २११) आदि नायकों, उपर्युक्त उदाहरणो से यह भी स्पष्ट अवगत होता है कि Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रह कृत 'सावयचरित' 'समतकउमुई हो है २११ कवि रइधू ने 'सावय चरिउ' मे ही 'सावय चरिउ' का ता कइणा पडिउत्तरूपउत्तु । नामोल्लेख किया है किन्तु अपनी अन्य रचनामों में तुह कहिउ करमि हउ सुह णिरुत्तु ।। पूर्ववर्ती स्वरचित रचनायो के उल्लेखो के प्रसंग मे सर्वत्र परणियमिणसोयाणरपहाणु । 'कौमुदी कथा' प्रादि के नाम से ही उसका स्मरण किया जो सच्छभानु उब्वहइ जाणु ॥ है, 'सावय चरिउ' के नाम से नही। फिर 'सावय चरिउ' जाचहिणउ कोवि महत्तु होइ । की चतुर्थ सन्धि की पुष्पिका मे 'सम्मत्त कहतर' एव ता किम विच्छरइ ससच्छु लोइ । उसीको अन्त्य पुष्पिका मे सम्मत्तक उमुइ' का स्पष्ट सावय० ॥३॥५-८ नामोल्लेख मिलता ही है, तब पता नही उसे 'सावयचरिउ' प्रतीत होता है कि टेक्कणि साह की प्राथिक स्थिति के कहलाने का ही आग्रह श्री नाहटा जी क्यों करते हैं ? बहुत अच्छी न थी तथा कवि बिना प्राश्रय प्राप्त किए ___ जहाँ तक विषयवस्तु का प्रश्न है 'सावयचरिउ' एव रचना कर सकने में असमर्थ था। अतः उक्त साहु ने 'समत्तक उमुइ' में कोई अन्तर नही । सस्कृत की सम्यक्त्व तुरन्त ही गोपाचल के श्री कुशराज का परिचय कवि को कौमुदी ही इसका मूलाधार है अथवा यदि चाहे तो यह दिया तथा समय पाकर एक दिन वह कुशराज को लेकर भी कह सकते है कि सस्कृत की सम्यक्त्व कौमुदी का स्वय कवि के पास पहुंचे तथा कुशराज की पूर्व चार गट कळ थोड से हेर-फेर के साथ अपभ्रंश-सस्करण हा है। पीतियो का परिचय देते हए । शराज के विषय म इसके उदितोदय एव सुयोधन राजा, सुबुद्धि मत्री, रूपखुर , एव सुवर्णखुर चौर, अहंदास सेठ तथा उसकी मिश्री एयाह मभि. कुल-भवण-दीउ । आदि पाठ सेटानियाँ दोनो ही ग्रथो मे समान है। कुसराज महासइणिरुविणीउ ।। कथानक भी वही है । दोनो ही ग्रन्थो में 'कौमुदी-महोत्सव' तुहु पुरु सठिउ विण्णवइ एहु । कथानक-विस्तार का मूल कारण है । इस आधार पर यह सत्थत्थज्जाणु किण्णउ मुणेहु ॥ स्पष्ट है कि 'सावय चरिउ' एवं 'समन कउमुइ' एक ही इहु णिव्वाहइ सकइत्त भारु । रचना के दो नाम है। इय मुणिवि करहि किण चरिउ चारु । श्री नाहम जी ने 'सावयचरिउ' का ग्रन्थ प्रेरक सेउ इहु कवियण मणभत्तउ पहाणु । माहू के पुत्र कुसराज को माना है। मैं इससे भी सहमत तुम्हह कीरेसइ अहिऊ माणु ॥ नही । 'सावयचरिउ' के प्रणयन की मूल प्रेरणा वस्तुत. सावय० १।४।१३-१६ टेक्कणि साहु ने ही की । यथाप्रायमचरि उपुराणवियाणे । टेक्कणिसाहु गुणणपहाणे । टक्कणि साह मे कुशराज का परिचय प्राप्त कर रइधू ग्रन्थ प्रणयन की स्वीकृति देते हुए कहते हैं - पडितच्छतण विणन उ । करमउले प्पिणु वियसियवत्तउ॥ धत्ता इहु सच्चु कइत्तहु भ: वहेइ। भो भो कइयणवर दुक्किय रयहर णिम्मलु जस पसरु विइह लहेइ ।। पइकदत भर वहिउ मिरि । माहम्मिय वच्छल गुण पवितु । गिसुणहि रिणम्मलमणरजिय कि कि ण करमि एयहु पउत्तु ।। सावय०१४.१८-१६ बुह्यण सव्व सुहायर सच्चगिरि ॥ सावय० १।२।१७-२० इसके बाद रइधृ एव कुश गज का परस्पर में कुछ ..........."तह सावइ चरिउ भणेह इच्छ ।। वार्तालाप होता है और रइधू अपना कार्यारम्भ कर देते सावय० ११३।४ है। इन प्रसगो से यह बिल्कुल स्पष्ट ही है कि कुशराज कवि टेक्कणिसाहु की प्रार्थना सुनकर अपनी कुछ ग्रंथप्रेरक नहीं बल्कि प्राश्रयदाता है । ग्रंथप्रेरक तो वस्तुत. असमर्थता दिग्व लाता है। वह कहता है टेक्कणि साहु ही है, क्योकि टेक्कणि साहु यदि कवि से Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ अनेकान्त परिचित न होते अथवा कुशराज से कवि का परिचय न संरक्षण के लिये जो कुछ किया वह भारतीय वाङ्मय का कराते तब 'सावयचरिउ' के लिखे जाने का कोई प्रश्न ही एक अद्भुत अध्याय है। उनकी कृपा से साहित्य-प्रणयन न उठता। रइधू की अन्य रचनाओं में भी यही परम्परा का जो एक तूफान पाया उसी का यह फल है कि भारतीय उपलब्ध होती है कि ग्रन्थ-प्रणयन की प्रेरणा कोई अन्य जैन शास्त्र भण्डार उनसे भरे-पड़े है । शत-प्रतिशत करता है जबकि पाश्रयदाता वही अथवा अन्य दूसरा कोई भट्टारक प्रायः साहित्यकार थे, जिन्होंने विशाल साहित्य होता है। लिखा, साथ ही उन्होंने जन-जनेतर विद्वानों से भी सावयचरिउ अथवा समत्त कउमुइ के विषय में जो साहित्य-सृजन का कार्य कराया। भट्टारक यशः कीर्ति की कुछ भ्रान्त धारणाएं जगी है, उसका मूल करण यथार्थ में प्रवृत्ति हिन्दी के भारतेन्दु बाबू की भांति थी। उन्होने नागौर शास्त्र-भण्डार के अधिकारी भद्रारक एवं वहाँ की साहित्य एव साहित्यकार दोनों का ही निर्माण किया । प्रबन्ध समिति ही है। मध्यकालीन राजनैतिक, साम्प्रदायिक एक अोर साहित्य-प्रणयन का ऐसा उत्साह-भरा वातावरण एव धार्मिक उथल-पुथल के समय जन जैन साहित्य, कला था तो दूसरी ओर नागोर शास्त्र-भण्डार का द्वार साहित्यएवं सस्कृति अवनति के कगार पर खड़ी एक धक्के की जिज्ञासुमों के लिए बन्द रहता है, दोनों प्रवृत्तियों में कोई प्रतीक्षा कर रही थी। उसी समय भट्टारकों ने उनके मेल नहीं । [पृ० २४६ का शेष] द्रव्य एक क्षण मे गुण-रहित हो जाता है, तो वह रोग वस्तुओं के क्षेत्र के अनुसार भी भिन्नता होती है तथा और गेगी पर अपना प्रभाव कैसे डालेगा? अनेकता होती है। भिन्न-भिन्न देशों की प्रकृतियों का यदि सब द्रव्य एक रूप ही हैं तो एक ही औषधि से उल्लेख पायुर्वेद में प्रतिपादित है तथा उसके अनुसार रोग सन रोग दूर हो जावेगे । शेष प्रौषधियों से भी वैसा ही का निदान उपचार प्रादि यथासम्भव कर उचित है। होगा किन्तु इस विषय मे कोई एकान्त नियम नही पाया भिन्न-भिन्न कालों या ऋतुओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के जाता है । अनेक औषधियाँ भी एक रोग को दूर करने के रोगों के कारण रोगी और उपाय पाये जाते है अत. काल निमित्त होती है तथा एक प्रौषधि भी अनेक रोगो को दूर की अपेक्षा भी द्रव्य का विचार किया जाता है। करती है, अत: प्रत्येक द्रव्य अनेकान्तात्मक तथा उत्पादव्यय-ध्रौव्य युक्त है। किस वस्तु मे कौन-सा गुण या विटामिन कितनी औषधि की मात्रामो में जो भिन्नता पाई जाती है, मात्रा में पाया जाता है तथा किसमे किस प्रकार की शक्ति वह वस्तु की शक्तियो की भिन्नता की द्योतक है। जब कम मात्रा में मौजूद है और कौन-सी अधिक मात्रा में वस्तु को स्वत. अनेकान्त रुचिकर है तो हम आईत् मत विकसित है, यह सब वस्तु को 'अनेकान्तात्मक' सिद्ध को कैसे टाल सकते है ? करती है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन में सप्तभंगीवाद उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द [सप्तभगीवाद जैनदर्शन के 'स्याद्वाद' का विश्लेषण है। जंन प्राचार्यों ने स्यावाद को सात रूपों में विभक्त कर समझाने का सफल प्रयास किया है। इन सात रूपों को हो सप्तभंग कहते हैं। यायिकों ने अपनी भाषा में उलझा कर इसे दुरुह बना दिया, परिणामतः विद्वान् भी 'सप्तभंगी' का नाम सुन कर घबड़ाते है। इस निबन्ध में मनि अमरचन्द जी ने 'सप्तभंगी' को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। प्राशा है कि पाठक न ऊबेंगे न उकतायेगे, अपितु उनको जिज्ञासा वृत्ति को प्रानन्द प्राप्त होगा -सम्पादक] मास्पदर्शन का चरम विकास प्रकृति पुरुष-बाद में अधिगम के दो भेद है-स्वार्थ प्रौर परार्थ३ । हमा, वेदान्तदर्शन का चिद् अद्वैत में, बौद्ध दर्शन का स्वार्थ ज्ञानात्मक होता है, पगर्थ शब्दात्मक । भग का का विज्ञानवाद में और जैन दर्शन का अनेकान्त एव प्रयोग परार्थ (दूसरे को बोध कराने के लिए किया जाने स्याद्वाद मे। स्याहाद जनदर्शन के विकास की चरम- वाला शब्दात्मक अधिगम) में किया जाता है, स्वार्थ रेखा है। इसको समझने के पूर्व प्रमाण एव नरा को (अपने आपके लिए होने वाला ज्ञानात्मक अधिगम) मे समझना आवश्यक है। और प्रमाण एव नय नही । उक्तवचन-प्रयोग रूप शब्दात्मक परार्थ अधिगम को समझने के लिए सप्तभगी का समझना भी आवश्यक के भी दो भेद किये जाते है--प्रमाण-वाक्य और नयही नही परम आवश्यक है। जहा वस्तुगत अनेकान्त वाक्य । उक्त प्राधार पर ही सप्तभगी के दो भेद किये के परिबोध के लिए प्रमाण और नय है, वहा प्रतिपादक हैं-प्रमाण सप्तभंगी पोर नय मातभगी। प्रमाण वाक्य वचन-पद्धति के परिज्ञान के लिए मातभगी है। यहाँ पर को सकलादेश और नय वाक्य को विकलादेश भी कहा मुख्य रूप में मनभगीवाद का विश्लेषण ही अभीष्ट है। गया है । वस्तुगत अनेक धर्मो के बोधक वचन को सकलाग्रत प्रमाण और नय की स्वतन्त्र परिचर्चा मे न जाकर देश और उसके किसी एक धर्म के बोधक-वचन को सप्तभगी की ही विवेचना करेंगे। विकलादेश कहते है। जैनदर्शन मे वस्तु को अनन्त सप्तभंगी धर्मात्मक माना४ गया है। वस्तु की परिभाषा इस प्रश्न उठता है कि सप्तभगी क्या है ? उमका प्रयो- प्रकार की है-जिसमे गुण और पर्याय रहते है, वह वस्तु जन क्या है ? उसका उपयोग क्या है ? विश्व की है। नत्त्व, पदार्थ और द्रव्य ये वस्तु के पर्यायवाची शब्द है। प्रत्येक वस्तु के स्वरूप-कथन में मात प्रकार के वचनो का प्रयोग किया जा सकता है, इसी को मप्तभगी ३. अधिगमोद्विविध, स्वार्थ. परार्थश्च, स्वार्थोजानात्मक. पगथं शब्दात्मक । म च प्रमाणात्मको नयाकहते है। त्मकश्च ..... "इयमेव-प्रमाणमातभगी च कथ्यते । वस्तु के यथायं परिबोध के लिए जनदर्शन ने दो -मप्तभगीतरांगणी, पृ० १ उपाय स्वीकार किये है-प्रमाण२ और नय । ससार की अधिगमहेतु द्विविध......'तत्त्वा० ग० १-६-४ किसी भी वस्तु का अधिगम (बोध) करना हो तो वह . ४. अनन्नधर्मात्मकमेव तत्त्वम् बिना प्रमाण और नय के नही किया जा सकता। अन्ययोग व्यवच्छेदिका का० २२ १. सप्तभि प्रकारर्वचन-विन्यासः सप्तभंगीतिगीयते । ५. वसन्ति गुण-पर्याया अस्मिन्नितिवस्तु-धर्माधर्मा -स्याद्वाद मजरी, का० २३ टीका।। ऽऽकाश पुद्गल-काल जीवलक्षणं द्रव्य षट्कम् । २. प्रमाण नये रधिगम.--तत्त्वार्थागम मू० १.६ । -स्याद्वादमजरी, कारिका २३ टीका । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अनेकान्त सप्तभगी की परिभाषा करते हुए कहा गया है, है । अनेकान्त एक लक्ष्य है, एक वाच्य है और सप्तभंगी कि-"प्रश्न उठने पर एक वस्तु मे अविरोध-भाव से जो स्याद्वाद एक साधन है, एक वाचक है, उसे समझने का एक धर्म-विषयक विधि और निषेध की कल्पना की एक प्रकार है। अनेकान्त का क्षेत्र व्यापक है, जबकि जाती है, उसे सप्तभगी कहा जाता है।" भंग सात स्याद्वाद का प्रतिपाद्य विषय व्याप्य है, दोनों में व्याप्य ही क्यों हैं ? क्योंकि वस्तु का एक धर्म-सम्बन्धी प्रश्न व्यापक-भाव सम्बन्ध है। अनन्तानन्त अनेकान्तों मे सात ही प्रकार से किया जा सकता है। प्रश्न सात ही शब्दात्मक होने से सीमित १ स्याद्वादो की प्रवृत्ति नहीं प्रकार का क्यो होता है ? क्योकि जिज्ञासा सात ही हो सकती, अतः स्याद्वाद अनेकान्त का व्याप्य है ब्यापक प्रकार से होती है । जिज्ञासा सात ही प्रकार से क्यों होती नहीं। है ? क्योंकि संशय सात ही प्रकार से होता है। प्रत भंग कथन पद्धतिकिसी भी एक वस्तु के किसी भी एक धर्म के विषय मे शब्द शास्त्र के अनुसार प्रत्येक शब्द के मुख्य रूप में सात ही भग होने से इसे सप्तभंगी कहा गया है। गणित दो वाच्य होते है-विधि और निषेध । प्रत्येक विधि के शास्त्र के नियमानुसार भी तीन मूल वचनो के सयोगी साथ निषेध है और प्रत्येक निषेध के साथ विधि है । एवं प्रसयोगी अपुनरुक्त भग सात ही हो सकते है एकान्त रूप से न कोई विधि है, और न कोई निषेध । कम और अधिक नही। तीन असयोगी मूल भग, तीनद्वि इकरार के साथ इन्कार और इन्कार के साथ इकरार सयोगी भंग और एकत्रिसंयोगी भंग। भग का अर्थ है सर्वत्र लगा हुआ है। उक्त विधि और निषेध के सब विकल्प प्रकार और भेद । मिलाकर सप्तभंग होते है । सप्तभगो के कथन की पद्धति सप्तभंगी और अनेकान्त यह है - वस्तु का अनेकान्तत्त्व और तत् प्रतिपादक भाषा की १. स्यास्ति, २. स्यादनास्ति, ३. स्पाद् अस्तिनिर्दोष पद्धति स्याद्वाद, मूलतः सप्तभगी मे सन्निहित है। नास्ति, ४. स्याद् प्रवक्तव्य, ५ स्याद् अस्ति प्रवक्तव्य, अनेकान्त दृष्टि का फलितार्थ है, कि प्रत्येक वस्तु मे ६. स्याद् नास्ति प्रवक्तव्य, . स्याद् अस्ति नास्ति सामान्य रूप से और विशेष रूप से, मित्रता की दृष्टि से प्रवक्तव्य ।। पौर प्रमित्रता की दृष्टि से, नित्यत्व की अपेक्षा से और सप्तभगी में वस्तुत: मूलभग तीन ही है.-अस्ति, अनित्यत्व की अपेक्षा से तथा सद्रूप से और असद्रूप से नास्ति और प्रवक्तव्य । इसमे तीन द्विसयोगी और एक त्रिअनन्त धर्म होते है । सक्षेप मे-"प्रत्येक धर्म अपने प्रति- सयोगी-इस प्रकार चार भंग मिलाने से सात भंग होते पक्षी धर्म के साथ वस्तु मे रहता है।"यह परिबोध है। दिसंयोगी भंग ये है अस्ति-नास्ति, अस्तिग्रवक्तव्य और अनेकान्त दृष्टि का प्रयोजन है। अनेकान्त स्वार्थाधिगम है, प्रमाणात्मक-श्रुतज्ञान है। परन्तु सप्तभगी की उप- १. अभिलाप्पभाव, अनभिलाप्यभावो के अनन्तवे भाग योगिता इस बात में है कि वह वस्तु-गत अनेक अथवा है-पण्णवणिज्जाभावा, अणन्तभागो दु प्रणभिनअनन्त धर्मों की निर्दोष भाषा मे अपेक्षा बताए, योग्य प्पाण । गोम्मटमार-अनन्त का अनन्तवां भाग भी अभिव्यक्ति कराये। उक्त चर्चा का साराश यह है कि अनन्त ही होता है। प्रत वचन से भी अनन्त है। अनेकान्त अनन्तधर्मात्मक वस्तु स्वरूप को एक दृष्टि है, तत्त्वार्थश्लो० १,६,५२ के विवरण में कहा हैऔर स्याद्वाद अर्थात् सप्तभगी उस मूलज्ञानात्मक दृष्टि "एकत्र वस्तुनि अनन्तानां धर्माणामभिलापयोग्यनाको अभिव्यक्त करने की अपेक्षा-सूचि का एक वचन-पद्धति मुपगमादनन्ता एक वचन मार्गा स्याद्वादिना भवेयु । यह ठीक है कि वचन अनन्त है फलत स्याद्वाद भी १. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधि- प्रतिषेध अनन्त है, परन्तु वह अनेकान्तधर्मो का अनन्तवाँ विकल्पना सप्तभगी। (तत्त्वा० रा० वा. १,६,५१ ।) भाग होने के कारण सीमित है, फलत व्याप्य है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन में सप्तभंगीवाद २५५ नास्ति प्रवक्तव्य । मूलभग तीन होने पर भी फलितार्थ स्वरूप की सत्ता भी मानी जाय १, तो उनमे स्व-पर रूप से सात भगो का उल्लेख भी आगमों में उपलब्ध विभाग कसे घटित होगा ? स्व-पर विभाग के प्रभाव में होता है। भगवती सूत्र में जहाँ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का सकरदोप उपस्थित होता है, जो सब गुड़-गोबर एक कर वर्णन आया है वहाँ स्पष्ट रूप से सात भंगों का प्रयोग देता है। प्रत. प्रथम भग का यह अर्थ होता है कि घट की किया गया है? ? प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सात भंगों का नाम सत्ता किसी एक अपेक्षा से है, सब अपेक्षामो से नहीं। गिनाकर सप्तभग का प्रयोग किया है । भगवती सूत्र और वह एक अपेक्षा है स्व की, स्वचतुष्टय की। में प्रवक्तव्य को तीसग भंग कहा है३ । जिन भद्रगणी द्वितीयभंगः-स्याद नास्ति घट क्षमाश्रमण भी प्रवक्तव्य को तीसरा भग मानते हैं४ । यहाँ घट की सना का निषेध पर-द्रव्य, परक्षेत्र, पर कुन्दकुन्द ने पचास्तिकाय में इसको चौथा माना है, पर काल और परभाव की अपेक्षा से किया गया है। प्रत्येक अपने प्रवचनसार में इसको तीसरा माना है५ । उत्तरकालीन पदार्थ विधिरूप होता है, वैसे निषेध रूप भी । प्रस्तु घट प्राचार्यों की कृतियो में दोनों क्रमो का उल्लेख मिलता है। मे घट के अस्तित्व की विधि के साथ घट के अस्तित्व का प्रथम भंग:--स्याद् अस्तिघट निषेध-नास्ति भी रहा हया है। परन्तु वह नास्तित्व उदाहरण के लिए घट गत मना धर्म के सम्बन्ध मे अर्थात् सत्ता का निषेध, स्वाभिन्न अनन्त पर की अपेक्षा मातभगी घटाई जा रही है। घट के अनन्त धर्मों में एक से है। यदि पर की अपेक्षा के समान स्व की अपेक्षा से धर्म मत्ता है, अस्तित्व है। प्रश्न है कि वह अस्तित्व किस भी अस्तित्व का निषेध माना जाए, तो घट नि स्वरूप हो अपेक्षा मे है ? घट है, पर वह क्यो और कैसे है ? इमी जाये२। और यदि नि स्वरूपता स्वीकार करे, तो स्पष्ट का उत्तर प्रथम भग देता है। ही सर्वशन्यता का दोष उपस्थित हो जाता है। प्रतः द्वितीय घट का अस्तित्व स्यात् है, कथ-चित् है, स्वचतुष्टय भंग सूचित करता है कि घट कथचित् नही है, घटभिन्न की अपेक्षा में है। जब हम चाहते है कि घडा है, तब पटादि की, परचतुष्टय अपेक्षा मे नही है। स्वरूपेग ही हमारा अभिप्राय यही होता है, कि घड़ा स्वद्रव्य स्वक्षेत्र, सदा स्व है, पर रूपेग नहीं । स्वकाल और स्वभाव की दृष्टि से है। यह घट के अस्तित्व ततीय भंग : अस्ति नास्ति घट की विधि है, अत यह विधिभग है। परन्तु यह अस्तित्व परन्तु यह आस्तत्व जहाँ प्रथम समय मे विधि की और द्वितीय समय में की विधि स्व की अपेक्षा है, परकी अपेक्षा से नहीं है। निषेध की क्रमशः विवक्षा की जाती है, वहाँ तीसरा भंग विश्व की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व स्वरूप से ही होता होता है। इममे स्व की अपेक्षा सत्ता का प्रौर पर की है, पर रूप से नही। "सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण अपेक्षा अमत्ता का एक साथ, किन्तु क्रमश' कथन किया नास्ति च ।" यदि स्वयं से भिन्न अन्यसमग्र पर स्वरूपो । गया है। प्रथम और द्वितीय भग विधि और निषेध का स्वमे भी घट का अस्तित्व हो, तो घट फिर एक घट ही तन्त्ररूप मे पृथक-पृथक प्रतिपादन करते है, जबकि तृतीय भंग क्यों रहे, विश्व रूप क्यो न बन जाए ? और यदि विश्व- साथ किन्त क्रमश विधि-निषेध का उल्लेख करता है। रूप बन जाए, तो फिर मात्र अपनी जलाहरणादि क्रियाएँ चतुर्थ भंग : स्याद प्रवक्तव्य घट ही घट में क्यो हो, अन्य पटादि की प्रच्छादिनादि क्रियाएँ जब घटास्तित्व के विधि और निपेध दोनों की युगपत् क्यो न हो ? किन्तु कभी ऐसा होता नही है। एक बात । अर्थात् एक समय में विवक्षा होती है, तब दोनो को एक और है। यदि वस्तुओं में अपने स्वरूप के ममान पर १. स्वरूपोपादानवत् पररूपोपादाने सर्वथा स्वपर-विभागा१. भगवती सू० श० १२, ३. १०, प्र०१६-२० । २. भाव प्रसंगात् । स चायुक्तः। पंचास्तिकाय गाथा १४, ४ । ३. भगवती सू० श० १२, -तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक १,६,५२ ३०,१०प्र०१६-२०। ४. विशेषावश्यक भाष्य गा० २. पररूपापोहनवत स्वरूपापोहने तु निरुपाख्यत्व-प्रमगात् । २, ३२। ५. प्रवचनसार जेयाधिकार गा० ११५ । -तत्त्वार्थश्लो० वा० १,६,५२ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ अनेकान्त कालावच्छेदेन एक माथ अक्रमश. बताने वाला कोई शन्द विधि-निपंध की अपेक्षा से--'घट' है, घट नही, घट न होने से घट को प्रवक्तव्य कहा जाता है। शब्द की शक्ति प्रवक्तव्य है" यह कहा गया है। सीमित है। जब हम वस्तुगत किसी भी धर्म की विधि चतुष्टय को व्याख्या का उल्लेख करते है, तो उसका निषेध रह जाता है, और प्रत्येक वस्तु का परिज्ञान विधिमुखेन और निषेध मुखेन जब निषेध कहते हैं तो विधि रह जाती है। यदि विधि- होता है । स्वात्मा मे विधि है और परमात्मा से निषेध निषेध का पृथक्-पृथक् या क्रमश. एक साथ प्रतिपादन है, क्योकि स्वचतुष्टयन जो वस्तु सत् है वही वस्तु परकरना हो तो प्रथम तीन भगों मे यथाक्रम 'अस्ति-नास्ति' चतृष्टयेन असत् है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इसको और अस्ति-नास्ति शब्दों के द्वारा काम चल सकता है, चतुष्टय कहते है। घट स्व-द्रव्यरूप में पुद्गल है। चतन्य परन्तु विधि-निषेध की युगपद वक्तव्यता में कठिनाई है, आदि पर द्रव्यरूप में नही है। स्वक्षेत्र रूप म कपालादि जिसे प्रवक्तव्य शब्द के द्वारा हल किया गया है। स्याद् स्वावयवो में है, तन्त्वादि पर अवयवो मे नही है। स्वप्रवक्तव्य भग बतलाता है कि घट वक्तव्यता क्रम में ही कालरूप में अपनी वर्तमान पर्यायो मे है । पर पदार्थों की होती है, युगपद् मे नही । स्याद् प्रवक्तव्य भग एक और पर्यायो मे नही है। स्वभाव रूप में स्वय रवतादि गुरगो में ध्वनि भी देता है । वह यह कि घट के युगपद् अस्तित्व है, पर पदार्थो के गुग्गों में नही है । अतः प्रत्येक वस्तु स्वनास्तित्व का वाचक कोई शब्द नहीं है । अत. विधि-निषेध द्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव से सत् है, और परका युगपतत्त्व प्रवक्तव्य है। परन्तु वह प्रवक्तव्यत्व सर्वथा द्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, पर-भाव मे असत् है । इस अपेक्षा सर्वतोभावेन नही है । यदि सर्वथा सर्वतोभावेन प्रवक्तव्यत्व में एक ही वस्तु के मत और अमत् होने में किसी प्रकार की माना जाये, तो एकान्त प्रवक्तव्यत्व का दोष उपस्थित होता बाधा अथवा किमी प्रकार का विरोध नही है। विश्व का है, जो जैन दर्शन में मिथ्या होने से मान्य नहीं है। अत. प्रत्येक पदार्थ स्वचतुष्टय की अपेक्षा मे है, और परचतुष्टय स्याद् प्रवक्तव्य सूचित करता है कि यद्यपि विधि निषध की अपेक्षा से वह नही भी है। का युगपत्व विधि या निषेध शब्द से वक्तव्य नही है, स्यात शब्द की योजना प्रवक्तव्य है, परन्तु वह प्रवक्तव्य सर्वथा प्रवक्तव्य नहीं मप्तभगी के प्रत्येक भग में स्व-धर्म मुख्य होता है। है 'ग्रवक्तव्य' शब्द के द्वारा तो वह युगपत्व वक्तव्य ही है। और शेष धर्म गौण अथवा अप्रधान होते है। इसी गौणपञ्चम भंग स्याद् अस्ति प्रवक्तव्य घट मुख्य विवक्षा की सूचना 'स्यान' शब्द करता है । "स्यात्" यहाँ पर प्रथम समय मे विधि और द्वितीय समय में जहाँ विवक्षित धर्म की मुख्यत्वेन प्रतीति कराता है, वहाँ युगपद् विधि-निषेध की विवक्षा करने से घट को स्याद् । १ जिगमे घटबुद्धि और घट शब्द की प्रवृत्ति (व्यवहार) अस्ति अवनतव्य कहा गया है । इसमे प्रथमाश अस्ति, स्व है, वह घट का स्वात्मा है, और जिसमें उक्त दोनों रूपेण घट की सना का कथन करता है और द्वितीय की प्रवृत्ति नही है, वह पट का पटादि परात्मा है । प्रवक्तव्य अश युगपद् विधि-निषेध का प्रतिपादन करता "घटयुद्धय भिधान प्रवृत्ति लिग स्वात्मा, यत्र तयोहै । पचम भग का अर्थ है-घट है, और प्रवक्तव्य भी है। रप्रवृत्ति. म पगत्मा पटादि । षष्ठ भंग : स्याद् नास्ति प्रवक्तव्य घट -तत्वार्थ राजवातिक १,६, ५ पृ. ३३ यहाँ पर प्रथम समय में निषेध और द्वितीय ममय में २. अथ तद्यथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तच्चतुष्क च । एक साथ युगपद् विधि निषेध की विवक्षा होने से घट द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेन तथाऽथवापि भावेन ।। नही है, और वह प्रवक्तव्य है---यह कथन किया गया है। -पचाध्यायी १, २६३ सप्तम भंग : स्यात् मस्ति नास्ति प्रवक्तव्य घट ३. स्याद्वाद मजरी (का० २३) मे घट का स्वचतुष्टय यहाँ पर क्रम से प्रथम समय मे विधि और द्वितीय क्रमशः पार्थिव, पाटलिपुत्रकत्व, शशि रत्व और समय में निषेध तथा तृतीय समय एक साथ में युगपद् श्यामत्व रूप छपा है, जो व्यवहार प्रधान है। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन-वर्शन में सप्तमंकीबाब २५७ अविवक्षित धर्म का भी मर्वथा अपलापन न करके उसका किया जाए। गौणत्वेन उपस्थापन करता है । वक्ता और श्रोता यदि अन्य बर्शनों में भंग-योजना का रहस्यशब्द-शक्ति और वस्तु स्वरूप की विवेचना मे कुशल है। नो 'म्यात्' शब्द के प्रयोग की प्रावश्यकता नहीं रहती। भगों के सम्बन्ध मे स्पष्टता की जा चुकी है, फिर भी अधिक स्पष्टीकरण के लिए इतना समझना प्रावश्यक बिना उमके प्रयोग के भी अनेकान्त का प्रकाशन हो जाता है। 'अहम् अस्मि ' मैं हैं। यह एक वावय प्रयोग है। इस है, कि सप्तभगी मे मूलभग तीन ही है-अस्ति, नास्ति में दो पद है-क 'ग्रहम' और दुमग 'अस्मि'। दोनों में और प्रवक्तव्य । शेष चार भग सयोगजन्य है तीन द्विमे एक का प्रयोग होने पर दूसरे का अर्थ स्वत ही गम्य मयोगी और एक त्रिमयोगी है । प्रत वेदान्त, बौद्ध और मान हो जाता है, फिर भी स्पष्टता के लिये दोनों पदों वंशपिक दर्शन की दृष्टि से मूल तीन भगो की योजना का प्रयोग किया जाता है। इमी प्रकार 'पार्थो धनुर्धर इम प्रकार की जाती है। इत्यादि वाक्यो मे एव' कार का प्रयोग न होने पर भी अद्वैत वेदान्त में एकमात्र तत्त्व ब्रह्म ही है। किन्तु तन्निमित्तफ 'अर्जन ही धनुर्धर है-यहाँ अर्थबोध होता है वह 'अस्ति' होकर भी प्रवक्तव्य है। उसकी मना होने और कुछ नही२ । प्रकृत में भी यही मिद्धान्त लागू पडता पर भी वाणी से उसकी अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। है। स्यात्-शून्य केवल 'अम्ति घट' कहने पर भी यही अर्थ अत: वेदान्त में ब्रह्म 'अस्ति' होकर भी 'प्रवक्तव्य है। निकलता है, कि "कथाचित् घट है, किमी अपेक्षा से घट बौद्ध-दर्शन में प्रन्यापोह 'नास्ति' होकर भी प्रवक्तव्य है। है।" फिर भी भूल-चक को माफ करने लिए किवा वना के क्योकि वाणी के द्वारा अन्य का सर्वथा प्रपोह करने पर भावो को समझने में भ्रान्ति न हो जाये, इमलिये 'स्यात्' । किमी भी विधिम्प वस्तु का बोध नही हो सकता। प्रतः शब्द का प्रयोग अभीष्ट है । क्योकि ममार मे विद्वानी की बौद्ध का अन्यापोह 'नास्ति' होकर भी प्रवक्तव्य रहता अपेक्षा माधारण जनो की मख्या ही अधिक है। अत: है । वैशेपिक दर्शन में सामान्य और विशेष दोनो स्वतन्त्र मप्नभगी जैसे गम्भीर तत्त्व को ममझने का बहुमत-सम्मत है। सामान्य-विशेष अम्ति-नास्ति१ होकर भी प्रवक्तव्य गजमार्ग यही है. कि मर्वत्र 'स्यात्'३ शब्द का प्रयोग रहता है । वैशेषिकदर्शन मे मामान्य और विशेप दोनों १. अप्रयुक्तोऽपि मर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते । स्वतन्त्र है । मामान्य-विशेष प्रस्ति-नास्ति होकर प्रवक्तव्य विधी निषेधेऽप्यन्यत्र, कुशलश्चेत्प्रयोजक ॥६३॥ है। क्योकि वे दोनो किमी एक शब्द के वाच्य नही हो लघीयस्त्रय, प्रवचन प्रवेश मकन है और न मर्वथा भिन्न मामान्य-विशेप में कोई अर्थ २. सो प्रयुक्तोऽपि नज्ज सर्वत्रार्थात्प्रतीयते, क्रिया ही हो सकती है। इस दृष्टि में जैन सम्मत मूलतथैवकारो योगादि व्यवच्छेद प्रयोजन.॥ भगो की स्थिति अन्य दर्शनो में भी किसी न किसी रूप -तत्त्वार्थ इलोक वा० १, ६, ५६ मे स्वीकृत हे२। ३. स्यादित्यव्ययम् अनेकान्त द्योतकम् ।। स्याद्वाद मजरी सकलादेश और विकलादेश का० ५ प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि स्यात् को अनेकान्त बोधक ही मानते हैं, अतः उन्हे स्यात् प्रमाण में यह बताया जा चुका है कि प्रमाण वाक्य को सकलाअभीप्ट है, नय में नहो ।-सदेव सत् स्यात्मदिति देश और नय-वाक्य को विकलादेश कहते है। फिर भी विधार्थ....."अयोग० का०२८। जबकि भट्टाकलक उक्त दोनो भदो को और अधिक स्पष्टता से समझने की लघीयस्त्रय ६२ मे स्यात् को सम्यग् अनेकान्त मौर आवश्यकता है। पाच ज्ञानी में थतज्ञान भी एक भेद है। मोर सम्यग् एकान्त उभय का वाचक मानते है, प्रत. -" उन्हें प्रमाण और नय-दोनो मे ही स्यात् अभीप्ट १. विशेष व्यावृत्ति हेतुक होने से नास्ति है। २. देखो, प. महेन्द्र कुमार सम्पादित जैनदर्शन पृ. ५४३ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ अनेकान्त उस श्रु तज्ञान के दो१ उपयोग हैं-स्याद्वाद और नय। प्रमाण सप्तभंगीस्याद्वाद सकलादेश है और नयविकलादेश । ये सातो आगम और युक्ति से यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि ही भग जब सकलादेशी होते है, तब प्रमाण और जब वस्तु मे अनन्त धर्म है। अत. किसी भी एक वस्तु के विकलादेशी होते हैं, तब नय कहे जाते है । वस्तु के समस्त पूर्णरूप से कथन करने के लिए तत् तद् अनन्त धर्म-बोधक धर्मों को ग्रहण करने वाला सकलादेश और किसी एक अनन्त शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। परन्तु न यह धर्म को मुख्य रूप से ग्रहण करने वाला२ तथा शेष सम्भव है, और न व्यवहार्य ही। अनन्त धर्मो के लिए धर्मों के प्रति उदामीन अर्थात् तटस्थ रहने वाला विकला पथक-पृथक अनन्त शब्दो के प्रयोग मे अनन्तकाल बीत देश कहा जाता है। प्राचार्य सिद्धसेन के शब्दों में-स्याद्- सकता है, और तब तक एक पदाथ का भी समग्रबोध न वाद सम्पथविनिश्चायी है३ । अतः वह अनेकान्तात्मक हो सकेगा। प्रस्तु, कुछ भी हो, हमे किसी एक शब्द से पूर्ण अर्थ को ग्रहण करता है । जैसे 'जीव.' कहने से जीव ही सम्पूर्ण अर्थ के बोध का मार्ग अपनाना पड़ता है। वह के ज्ञान प्रादि असाधारण धर्म, सत्त्व आदि साधारण एक शब्द ध्वनि-मुखेन भले ही बाहर मे एक धर्म का ही धर्म और अमूर्तत्व आदि साधारणा-साधारण आदि सभी कथन करता-सा लगता है, परन्तु अभेद प्राधान्य वृत्ति गुणो का ग्रहण होता है। प्रत. यह प्रमाण-वाक्य है अथवा अभेदोपचार से वह अन्य धर्मों का भी प्रतिपादन स्याद्वाद वचन है। नय वाक्य वस्तु के किसी एक धर्म । कर देता है । उक्त अभेद प्राधान्य वत्ति या अभेदोपचार का मख्य रूप से कथन करता है जैसे "जो जीव" कहने मेक शब्ट के द्वारा एक धर्म का कशन जोते भाभी से जीव के अनन्त गुणो में से केवल ज्ञानगुण का ही प्रखण्डरूप से अन्य समस्त धर्मो का भी युगपत् कथन हा बोध होता है, शेषधर्म गौणरूप से उदासीनता के कक्ष में जाता है। अत. इसको 'प्रमाण-सप्त' भगी कहते है। पड़े रहते है। सकलादेशी वाक्य के समान विकलादेशी वाक्य मे भी 'स्यात्' पद का प्रयोग अनेक प्राचार्यों ने प्रश्न है, कि यह अभेद वृत्ति अथवा अभेदोपचार किया है। क्योकि वह शेष धर्मों के अस्तित्व की गौणरूप क्या चीज है ? जबकि वस्तु के अनन्त धर्म परस्पर भिन्न से मूक सूचना करता है। इस आधार से सप्तभगी के है, उन सबकी स्वरूप सत्ता पृथक् है, तब उनमे अभेद दो भेद किये जाते है-प्रमाण-सप्तभगी और नय-सप्त- कसे माना जा सकता है ? सिद्धान्त प्रतिपादन के लिए भंगी। केवल कथन मात्र अपेक्षित ही नहीं होता, उसके लिए कोई ठोस प्राधार चाहिए। समाधान है कि वस्तु तत्त्व के १. उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ, स्याद्वाद नय-सज्ञितो । प्रतिपादन की दो शैलियों है-अभेद और भेद । अभेदस्याद्वाद. सकलादेशो नयो विकल सकथा ।। -लघीयस्त्रय श्लोक ६२ शैली भिन्नता मे भी अभिन्नता का पथ पकड़ती है और २. पनेक-धर्मात्मक वस्तुविषयक-बोधजनकत्व सकला भेद शैली अभिन्नता में भिन्नता का पथ प्रशस्त करती है। देशत्वम् । जास्तु, अभेद प्राधान्य वृत्ति या अभेदोपचार विवक्षित एक धर्मात्मक-वस्तु-विषयक-बोधजनकत्वं विकला- वस्तु के अनन्त धर्मों को काल, प्रात्म, रूप, अर्थ, सम्बन्ध देशत्वम् । -सप्तभग तरगिणी पृ० १६ उपकार, गुणिदेश, ससर्ग और शब्द की अपेक्षा से एक साथ ३. नयनामेकनिष्ठाना, प्रवृत्ते श्रुतवमनि; अखण्ड एक वस्तु के रूप में उपस्थित करता है । इस सम्पू थिंविनिश्चायी, स्याद्वाद श्रुत मुच्यने । प्रकार एक और अखण्ड वस्तु के समस्त धर्मो का एक साथ -न्यायावतार सूत्र श्लो० ३० समूहात्मक परिजान हो जाता है । -क्रमशः Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्ञ और अहिंसक परम्पराएं प्राचार्य श्री तुलसी [प्रस्तुत निबन्ध में श्रमण और वैदिक परम्परामों की दृष्टि से 'यज्ञ' का तुलनात्मक विश्लेषण है। श्रमण सस्थाएँ नितान्त हिसक थीं। उसके प्राचीन ग्रन्थों से प्रमाणित है कि पहले बलि-यज्ञ नहीं होते थे, वे मौषधि-यज्ञ के रूप में प्रचलित थे। पहले वेदानुयायो भी यज्ञों में अलि नहीं देते थे। जैन तीर्थकर मनिसुव्रतनाथ के तीर्थकाल में यह कार्य प्रारम्भ हुमा । यही राम-लक्ष्मण का भी युग था। इनका विरोध केवल जैन और बौद्ध संस्थानों ने ही नहीं, अपितु सांख्य, शेव, कृष्ण और महर्षि नारद से सम्बधित तत्वों ने भी किया। इस भाँति लेख में प्राचार्य श्री को गहन विद्वत्ता के दर्शन होते हैं। उन्होंने गवेषणा-पूर्ण तथ्यों को प्रायासहीन रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। काश, शोध में संलग्न विद्वान यह ढंग अपना सके। -सम्पादक] यज्ञ भारतीय साहित्य का बड़ा विश्रुत शब्द है। यज्ञ का विरोध-- इसका सामान्य अर्थ था देवपूजा । वैदिक विचार धारा थमण सस्थाएँ अहिसा-निष्ट थी, इसलिए वे प्रारम्भ के योग से यह विशेष अर्थ म रूढ़ हो गया-वैदिक कम- से यज्ञ का विरोध कर रही थी। उसका प्रज्वलित रूप काण्ड का वाचक बन गया। एक समय भारतीय जीवन हमे जैन, बौद्ध साहित्य और महाभारत में मिलता है। मे यज्ञ संस्था की धूम थी, आज वह निष्प्राण मी है। महाभारत यद्यपि श्रमरणों का विचार-ग्रन्थ नहीं है, पर वेद-काल मे उसे बहुत महत्व मिला और उपनिषद्काल । उसका एक बहुत बडा भाग उनकी विचार-धारा का मे उसका महत्व कम होने लगा। प्रतिनिधित्व करता है । सास्य और शंव भी यज्ञ-सस्था के ऋग्वेदकालीन मान्यता थी-"जो यज्ञ रूपी नौका _"जो यज्ञ स्पी नौका उतने ही विरोधी रहे है, जितने जैन और बौद्ध । प्रजापर सवार न हो सके, वे अधर्मी है, ऋणी है और नीच। पति दक्ष के यज्ञ मे शिव का आह्वान नही किया गया। अवस्था में दबे हुए है।" महर्षि दधीचि ने अपने योग बल से यह जान लिया कि ये सब देवता एक मत हो गए है, इसलिए उन्होने शिव इसके विपरीत मुण्डकोपनिषद् मे कहा गया है---"यज्ञ को निमत्रित नही किया है। उन्होंने प्रजापति दक्ष मे विनाशी और दुर्बल साधन है । जो मूढ इनको श्रेय मानते कहा-."मैं जानता हूँ, आप सब लोगों ने मिल-जुलकर, है, वे बार-बार जरा और मृत्यु को प्राप्त होते रहते शिव को निमत्रित न करने का निश्चय किया है परन्तु मैं शंकर से बढकर किसी को देव नही मानता । प्रजापति १. ऋग्वेद संहिता १०॥४४॥६ दक्ष का यह विशाल यज्ञ नष्ट हो जाएगा४ । प्राविर न ये शेकूर्यजिया नावमारूहमीर्मव ते न्यवियन्त वही हुमा । पार्वती के अनुरोध पर शिव ने वीरभद्र की केपय । सष्टि की। उसने प्रजापति दक्ष के यज्ञ का विध्वस कर मुन्डकोपनिषद् ११२७ डाला। प्लावा ह्यते प्रदृढा यज्ञरूपा, अप्टादशोक्तमवर येषु कर्म । ३. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २८४११६ एतच्छे यो येऽभिनन्दन्ति मूढा, ४. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २८४१२१ जरामृत्यु ते पुनरेवापि यन्ति । ५. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २८४१२६-५० Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त __ यह कथा बताती है कि शिव उस संस्कृति के थे, देवताओं ने उनसे कहा-अज मे यज्ञ करना चाहिए और जिसे यज मान्य नहीं था। इसीलिए देवतानो ने उन्हे इस प्रकरण मे आज का अर्थ बकरा ही है। ब्रह्मर्पियो ने निमंत्रित नहीं किया था। कहा-यज्ञ मे बीजो द्वारा यजन करना चाहिए, यह वैदिक साख्य कारिका मे स्पष्ट है कि सारूय लोग यज्ञ में श्रति है । बीज का नाम ही अज है, बकरे का वध करना विश्वास नहीं करते थे। वे इसे हेय मानते थे। उचित नही। यह मत्युग चल रहा है, इसमें पशु का बध महर्षि कपिल और स्यूमरश्मि के संवाद में भी यही कैसे किया जा सकता है?? देवता और ऋषि मवाद कर प्राप्त होता है। स्यूमरश्मि हिंसा का समर्थन करता है रहे थे, इतने मे गजा वसु उम मार्ग से निकला । वह और महपि कपिल पहिसा की प्राचीन परम्परा को पुष्ट मत्य-वादी था । सत्य के प्रभाव से उपरिचर था-आकाश करते है। उन्होंने त्वष्टा के लिए नियुक्त गाय को देखकर मे चलता था। उसे देख ब्रह्मर्पियो ने देवतानो से कहानिश्वास लेते हुए कहा-हा वेद ! तुम्हारे नाम पर लोग वसु हमारा सन्देह दूर कर देगा। वे सब उसके पास गये । ऐसा-ऐसा अनाचार करते है। प्रश्न उपस्थित किया। राजा ने दोनो का मत जान अपना स्यूमररिम ने कहा-पाप वेदो की प्रमाणिकता में निर्णय देवताग्रो के पक्ष में दिया । वह जानबूझ कर असत्य सन्देह करते है। महर्षि कपिल बोले-मैं वेदो की निन्दा बोला, अत. ब्रह्मपियो ने उसे शाप दिया और वह आकाश नहीं करता हूँ। किन्तु वैदिक मत रो भिन्न दूसरा मत से नीचे गिर पाताल में चला गया। है-कमों का प्रारम्भ न किया जाए-उसका प्रतिपादन जैन-माहित्य मे भी 'प्रजैयंप्टव्यम्'-इम विवाद का कर रहा हूँ। यज्ञ आदि कार्यों में पालम्बन (पगु-वध) न उल्लेख मिलता है । एक बार साधु-परिपद मे 'अज' शब्द करने पर दोष नहीं होता और मालम्बन करने पर महान को लेकर विवाद उठ खडा हुमा। उस समय ऋषि नारद दोप होता है। मै अहिमा से परे कुछ भी नही देखता। ने कहा-जिसमे अकुर उत्पन्न करने की शक्ति नष्ट हो गई, राक्षस नाग प्रादि यज्ञ विरोधी थे। पुराणों के अन- वैमा तीन वर्ष पुगना जो 'अज' कहलाता है। पर्वत ने इसका सार असुर माहंत धर्म के अनुयायी हो गये थे।गवण ने प्रतिवाद किया । वह बोला-अज का अर्थ बकरा है। भी राजा मरत को हिमात्मक यज से विमुख किया था। उम परिषद् में पर्व का अर्थ मान्य नहीं हुआ । वह यज्ञ के प्रकार क्रुद्ध होकर वहा से चला गया। उसने महाकाल अमुर से यज्ञ के मुख्य तीन प्रकार मिलते है मिल जाल रचा। स्थान-स्थान पर यह प्रचार शुरू १. प्रौपचा-यज्ञ, जिसमें फल-फूल आदि का व्यवहार किया-"पशुप्रो की सृष्टि यज्ञ के लिए की गई है। होता। उनका वध करने से पाप नही होता किन्तु स्वर्ग के द्वार २. प्राणी-यज्ञ, जिसमे पशु और मनुष्य की बलि दी जाती। १ महाभारत, शान्तिपर्व श्लोक ३३७।३-५ ३ प्रात्म-यज्ञ, जो प्राध्यात्म व्रत से सम्पन्न होता। २. महाभारत, शान्तिपर्व, श्लोक ३३७१६-१७ औषधी-यज ३ उत्तरपुराण, पर्व ६७, श्लोक ३२६.३३२ 'अजयंष्टव्यम्'-इस वैदिक श्रुतिका अर्थ-परिवर्तन गच्छत्यव तयो. काले कदाचित्साधुसंसदि । किया गया, तब पशु-बलि प्रचलित हुई। इससे पूर्व अजैहोतव्यमित्यस्य वाक्यस्यार्थप्ररूपणं ॥ प्रौपधि-यज्ञ किए जाते थे। महाभारत का एक प्रसग है विवादोऽभून्महास्तत्र विगताकुरशक्तिकम् । एक बार ब्रह्म-ऋषि यज्ञ के लिए एकत्रित हुए। उस समय यवबीज त्रिवर्षस्थमजमित्यभिधीयते ।। तद्विकारेण सप्ताचिमुखे देवाचंन बिद. । १. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६८, श्लोक ७-१७ वदन्ति यज्ञमित्यास्यदनुपद्धति नारद । २. विष्णुपुराण ३११७,१८ पर्वतोप्यज शब्देन पशुभेदः प्रकीर्तितः । ३. त्रिषष्ठिशलाका, पुरुष चरित्र, पर्व ७, सर्ग २, पत्र ७ यज्ञेग्नौ तद्विकारेण होत्र मित्यवदद्विधी.॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्ञ और अहिंसक परम्पारएं खुल जाते है।" राजा सगर को विश्वास दिलाकर पर्वत यज्ञ पूर्णत. औषधि यज्ञ था। एमसे यह भी स्पष्ट होता है ने माठ हजार पशु यज के लिए प्राप्त किए । मत्रोच्चारण कि श्रीकृष्ण भी पशु-बलि के नितान्त विरोधी थे। उन्होने पूर्वक उन्हे यज्ञ-कुण्ड मे डालना शुरू किया। महाकाल वसु को दर्शन इसीलिए दिया कि उसने अपने यज्ञ मे पशुअसुर ने दिखाया कि वे मब पशु विमान मे बैठ सदेह बलि का सर्वथा तिरस्कार किया था। स्वर्ग जा रहे है । उस माया में लोग मूढ हो गए । यज्ञ प्राणी यज्ञ में मग्ने को स्वग प्राप्ति का उपाय मानने लगे। राजा जैन पुराणों के अनुसार पशु बलि वाले यज्ञों का वमु की सभा में भी नारद और पर्वत का विवाद हुमा । प्रारम्भ बीसवे तीर्थडुर मुनिसुव्रत के तीर्थकाल में हुमा। गजा वमु ने पर्वत की मा (अपने गुरु की पत्नी) के यही काल राम लक्ष्मण का अस्तित्व काल है। इस काल प्राग्रह मे पर्वत का पक्ष ले अज का अर्थ बकग किया। मे महाकाल अमुर और पर्वत के द्वारा पशु यज्ञ का विधान उसने कहा-पर्वत जो कहता है, वह स्वग का साधन है। किया किया गया। महर्षि नारद ने उसका घोर विरोध भय मुक्त होकर मव लोग उसका आचरण करे । इस असत्य- या वाणी के माथ-माथ वसु का मिहामन भूमि में धम गया२।। इन दोनो पाख्यानों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते वैश्य तुलाधार ने पशु हिमा का विरोध किया तो है कि प्रागभ में वैदिक लोग भी यज्ञ में पशु-बलि नहीं मुनि जाजल ने उमे नास्ति कहा। इम पर तुलाधार ने दे-थे । महाभारत के अनुमार वह देवतायी और उनर कहा-जाजले ! मैं नास्तिक नहीं हूँ, और यज्ञ का निन्दक भी नही हूँ। मै उस यज्ञ की निन्दा करता है, जो अर्थपुगगग के अनुसार महाकाल प्रसुर और पर्वत ब्राह्मण के लोलुप नास्ति व्यक्तियो द्वारा प्रवर्तित है३ । हिसक यज्ञ अ.ग्रह में शुरू हुई। पहले नही थे। यह महाभारत से प्रमाणित होता है। राजा वमु पहले पशु-यज्ञ का विरोधी और हिमा राजा विचरन्नु ने देखा-यज्ञशाला में एक बैल की गर्दन प्रिय था। उसने एक बार यज्ञ किया। उममे किमी पशु कटी हुई है बहुत मी गौए आर्तनाद कर रही है और का वध नही हुआ उसमें जगल में उत्पन्न फल-पहल प्रादि पदार्थ ही देवताग्रो के लिए निश्चित किए। उग ममय कितनी ही गौवे खडी है । यह देव गजा ने कहा-गौवो का कल्याण हो । यह नब कहा जब हिमा प्रवृत्त हो रही देवाधिदेव भगवान् नागयण ने प्रसन्न होकर गजा को थी। जैन साहित्य में मिलना है कि ऋपभपुत्र भग्न के प्रत्यक्ष दर्शन दिया । किन्तु दूसरे किमी को उनका दशन द्वाग वेदो की रचना हुई थी। उनमे हिसा का विधान नही हुमा३ । इम प्रकरण मे स्पष्ट ज्ञात होता है कि वसु हिमा नही था। बाद में कुछ व्यमियो द्वारा उनमें हिंमा के धर्मी और निगशी कामनामो से मुक्त था । उसने मभव विधान कर दिए गए। इस विषय में महाभारत को भी है परम्परा के निर्वाह के लिए यज्ञ किया। पर उमका सहमति है कि वेदो मे पहले हिमात्मक विधान नहीं थे। वहाँ लिग्वा है-मुग, पासव, मधु, माम, तिल और चावल १ उत्तरपुराण, पर्व ६७, श्लोक ४१३-४३६ २. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ३३६, श्लोक १०-१२ १ उनपुगण, पब ६७, श्लोक ३२७-३८४ सम्भूता मर्वसम्भारास्तस्मिन् गजन् महाव्रती। २. उत्तरपुगण, पर्व ६७, श्लोक ३८५-४४५ न तत्र पशुधातोऽभूत् स गजव स्थिनोऽभवन् । ३ महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६३, श्लोक २-१८ अहिस्र शुचिरक्षुद्रो निराशी कर्मसस्तुत. । “छिन्नस्थूण वृप दृष्ट्वा विलाप च गवा भृशम् । प्रारण्यकपदोद्भूता भागास्तत्रोपकल्पिता ।। गोग्रहेऽयज्ञवाटस्य प्रेक्षमाणः म पार्थिव ॥ प्रीतस्ततोऽस्य भगवान् देवदेव पुगतन । स्वस्ति गोम्योस्तु लोकेषु ततो निर्वचन कृतम् । साक्षात् त दर्शयामास सोऽदृश्योन्येन किनचित् ॥ हिसायां हि प्रवृत्तायामाशीषा तु कल्पिता" ३. महाभारत शान्तिपर्व, अध्याय ३३६ श्लो० १०-१२ ४. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५, श्लोक २३ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ भनेकान्त की खिचडी-इन वस्तुगों को धूतों ने यज्ञ में प्रचलित तीर्थङ्करों के काल से हिंसापूर्ण यज्ञ का प्रतिरोध होता कर दिया है। वेदों में इनके उपयोग का विधान नही है। रहा । हिसा के जो संस्कार सुदृढ हो गए थे, वे एक साथ उन धूतों ने अभिमान, मोह और लोभ के वशीभूत होकर ही नहीं टूटे । उन्हें टूटते-टूटते लम्बा समय लगा। उन वस्तूपों के प्रति अपनी लोलुपता ही प्रकट की है१। तीर्थकर अरिष्टनेमि के तीर्थ काल में रिमक-यन के जैन-साहित्य का उल्लेख है-ऋषभपुत्र भरत द्वारा विरोध में प्रात्म-यज्ञ का स्वर प्रलल हो उठा था। श्री स्थापित ब्राह्मण स्वाध्यायलीन थे। फिर बाद में उनका कृष्ण, जो अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे, आत्म-यज्ञ के स्थान लालची ब्राह्मणो ने ले लिया। महाभारत मे भी प्रन्पिादन मे बहुत प्रयत्नशील थे । अरिष्टनेमि और कृष्ण ऐसा उल्लेख मिलता है। वहाँ लिखा है-प्राचीनकाल के दोनो के समवेत प्रयत्न ने जो विशेष स्थिति का सूत्रपात ब्राह्मण सत्य-यज्ञ और दम-यज्ञ का अनुष्ठान करते थे । वे किया, उसका परिणाम भगवान महावीर और बुद्ध के परम पुरुषार्थ-मोक्ष के प्रति लोभ रखते थे। उन्हें धन की अस्तित्वकाल में संदृष्ट हुआ। प्यास नहीं रहती थी। वे उमस सदा तृप्त थ । व प्राप्त राजा विचरन्नु का वह स्वप्न साकार हो उठा-- वस्तु का त्याग करने वाले और ईष्यद्विप से रहित थे। धर्मात्मा मन ने सब कामों में अहिंसा का ही प्रतिपादन वे शरीर और प्रात्मा के तत्त्व को जानने वाले पोर आत्म किया है। मनुष्य अपनी ही इच्छा से यज्ञ की बाह्य वेदी यज्ञ परायग थे । वे ब्राह्मण वेद के अध्ययन में तत्पर रहते पर पशुओं का बलिदान करते है। विद्वान पुरुष प्रमाण के थे। स्वयं सन्तुष्ट थे और दूपरों को सन्तोष की शिक्षा द्वारा धर्म के सूक्ष्म स्वरूप का निर्णय करे। अहिमा सब देते थे। धर्मों मे ज्येष्ठ है । यह जान वेद की फल-श्रुतियो-काम्य वश्य तलाधार ने उक्त बात ब्राह्मण ऋषि जाजल से कर्मों का परित्याग कर दे। सकाम कर्मों के प्राचरगा को कही। इसमें उस प्राचीन परम्परा की सूचना है जिसके अनाचार समझ उनमे प्रवृत्त न हो। अनुयायी ब्राह्मण भी हिसा-प्रधान थे । उछ वृत्ति ऋषि के यज्ञ मे धर्म ने मग का रूप धारण मात्म-यज्ञ कर यही कहा था-अहिसा ही पूर्ण धर्म है। हिसा नमि, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर-इन चार अधर्म है। "सुरा मत्स्या मधु मासमासव कृसरोदनम् । धूर्त. प्रवर्तितं ह्य तन्नेतद् वेदेषु कल्पितम् ।।" १. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५, श्लोक ५-७ १. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५, श्लोक ९-१० “अहिसा सकलो धर्मो हिसाधर्मस्तथाहितः।" २. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २६५, श्लोक १८-२१ २. महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २७२, श्लोक २० अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानो, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनश्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के प्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश का एक प्रमुख कथाकाव्य डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, रायपुर [डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री का यह निबन्ध शोधपूर्ण है। उन्हें 'भविसयत्त कहा' पर ही अभी पी-एच० डी० को उपाधि प्रागरा विश्वविद्यालय से प्राप्त हुई है। प्रस्तुत निबन्ध में 'भविसयत्त कहा' का साहित्यिक दृष्टि से पूर्ण परिचय दिया गया है। यदि अन्तिम दो-तीन पंराग्राफ जायसी के पद्मावत और जनकवि लालचंद लब्धोदय के पगिनी-चरित से तुलनात्मक हो जाते तो निबध की 'केवल परिचय' वाली रूक्षता का परिहार हो जाता। -सम्पादक अपभ्रश के प्रकाशित तथा उपलब्ध कथाकाव्यों में भी यह महत्त्व पूर्ण रचना सिद्ध होती है। 'भविसयत्त कहा' मुख्य कथाकाव्य है। यह काव्य बाईस इस कथाकाव्य के लेखक महाकवि धनपाल है, जिन मन्धियो मे और दो खण्डो में निबद्ध है१। इसमे श्रुत- का जन्म धक्कड वश में हुआ था। यद्यपि कवि धनपाल पंचमी व्रत के फल के वर्णन स्वरूप भविष्यदन की कथा के सम्बन्ध में अभी तक विशेष जानकारी नहीं मिल सकी का वर्णन है। इसलिए इसे 'थ तपचमी कथा' भी कहते है परन्त ग्रन्यकार ने अपना जो परिचय दिया है वह है। अपभ्रश तथा भारतीय अन्य भाषायो मे छोटी-छोटी मंक्षिप्त होने पर भी महत्वपूर्ण है। कवि के पिता का नाम धार्मिक कथानी की कमी नहीं है। हजारो की संख्या मे मायेसर और माता का नाम धन मिग्देिवी था। उन्हे इतिवृत्तात्मक कथाएँ मिलती है। परन्तु प्रबन्ध काव्य के सरस्वती का वर प्राप्त था३ । घर्कट या धक्कड जाति रूप मे लिखी गई कथाएं कम है। भविष्यदत्त कथा का वश्य थी। मुख्य रूप से यह मारवाड और गुजरात में प्रकाशन सबसे पहली बार हर्मन जेकोबी ने सन १६१८ बसती थी। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय मे मचन (जर्मन) से कराया था। यह काव्य प्रो० जेकोबी के लोग इस वश मे हुए है। धर्मपरीक्षा के रचयिता कवि को भारत-यात्रा में २१ मार्च, १९१४ ई० को अहमदाबाद हरिषेण भी इमी वश के थे। महाकवि वीर कृत 'जम्बूमे पण्य गुलाब विजय से प्राप्त हुआ था। भारतवर्ष में स्वामी चरित' में भी मालवदेश में धक्कड़ वश के तिलक इस प्रकाशित कराने का श्रेय सी०डी० दलाल और पी. महामदन के पत्र तवखड श्रेष्ठी का उल्लेख मिलता है। डी० गुणे को है। उनके प्रयत्न से यह प्रबन्ध काव्य मन् देलवाडा के वि० सं०१२८७ के तेजपाल वाले शिलालेख १६२३ मे गायकवाड पोरियन्टल सीरीज, बडोदा से मभी धर्कट जाति का उल्लेख है। । ऐतिहासिक प्रमाणों प्रकाशित हुआ था। पहली बार भाषा की दृष्टि से इसका मूल्याकन किया गया था और दूसरी बार देशी शब्द और २. धवकडवणिवसि माएसरह ममुभविण । काव्यत्व की दृष्टि से इसका महत्व कूत। गया। मेरी दृष्टि धसिरिदेवि सुएण विरदउ सरसइ संभविण । में काव्य-कला, प्रबन्ध-रचना और लोक-तत्त्वो की सयोजना - वही २२, ६ मे इस रचना का वैशिष्टय लक्षित होता है। अतएव अप- ३. चिन्तिय धणवाल वणिवरेण, भ्रंश-साहित्य में ही नहीं मध्ययुगीन भारतीय साहित्य में सरसइ बहलद्ध महावरेण । -वही, १,४ १. विरइउ एउ चरिउ धणवालिं, ४. प. परमानन्द जैन शास्त्री का लेख 'अपभ्रश भाषा विहि खण्डहिं वाबीसहिं सन्धिहिं । का जम्बूस्वामीचरिउ और महाकवि वीर, प्रकाशित -भविसयत्तकहा, २२, ६ 'भनेकान्त, वर्ष १३, किरण ६, पृ० १५५ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अनेकान्त के आधार पर यह वंश दसवी शताब्दी से तेरहवी शताब्दी इनमें थोडा-बहुत भी कही माम्म नहीं दिखाई पडना है। तक प्रसिद्ध रहा है। अन्तरग प्रमाणो से भी पता चलता जिमम किमी कवि का विचार कर उनकी अभेदता पर है कि कवि दिगम्बर जैन था। क्योंकि अष्ट-मूलगुणों का प्रकाश डाला जा सके । वर्णन, सल्लेखना का चतुर्थ शिक्षाव्रत के रूप में उल्लेख, रचना-काल मोलह स्वर्गों का वर्णन और अन्य मैद्धान्तिक विवेचन अत्यन्त पाश्चर्य है कि दसवी शताब्दी से लेकर दिगम्बर मान्यतामों के अनुकूल हुआ है। 'जेण भजिवि मोलहवी शताब्दी तक के जिन कवियों के अपभ्रश-काव्य दियम्बरि लायउ' से भी स्पष्ट है कि धनपाल दिगम्बर प्रकाश में आये है और जिनमे पूर्ववर्ती कवियो का उल्लेख मम्प्रदाय के अनुयायी थे। किया है उनमे धनपाल का नाम नही मिलता है। इसमे यद्यपि अद्यावधि धनपाल विरचित 'भविष्यदत्त कथा' यह पता चलता है कि कवि की प्रसिद्धि लोक मे अधिक ही एकमात्र रचना उपलब्ध हो सकी है परन्तु कवि की दिनों तक नहीं रही अथवा कवि अधिक दिनों तक पार्थिव प्रतिभा और योग्यता को देखते हुए सहज मे ही यह प्रतीत देह में नहीं रहा। परन्तु "भविमयत्तकहा" की प्रबन्धहोता है कि उसने अन्य रचनाएं भी की होगी। प्रतिभा रचना और काव्य-शैली का प्रचलन किसी न किसी रूप में के धनी धनपाल ने अपनी रचनामो का उल्लेख तो नहीं बगबर बना रहा है। किया है परन्तु इनकी अन्य रचनाएँ भी सभावित है। जर्मन विद्वान् हर्मन जेकोबी ने श्री हरिभद्र सूरि के "णेमिग्णाहचरिउ" धनपाल की भविमत्तकहा की भाषा को धनपाल नामधारी चार कवि तुलना करते हए लिखा है कि कम से कम दसवी शताब्दी १० परमानन्द शास्त्री ने धनपाल नाम के चार विद्वानो मे धनपाल रहे होगे । क्योकि जेकोबी के अनुसार हरिभद्र का परिचय दिया है । ये चारोही भिन्न-भिन्न काल के मूरि नवमी दाताब्दी के उनगर्द्ध के कवि है। परन्तु मुनि परस्पर भिन्न कवि एव विद्वान् है। इनमें से दो मस्कृत जिनविजय जी के अनुमार वे पाठवी शताब्दी के है जो के कवि थे और दो अपभ्र श के। सस्कृत के कवि धनपाल कई प्रमाणो मे निश्चित है। प्रो० जेकोबी के विचारो मे गजा भोज के प्राश्रित थे। इन्होने दसवी शताब्दी में दोनों नेगेटिव लिटरेचर है और हरिभद्र की भापा धनपाल 'पाइयलच्छी नाममाला' की रचना की थी। दूसरे धनपाल की भाषा मे बिलकुल अलग है। हरिभद्र की भाषा पर तेरहवीं शताब्दी के सस्कृत कवि है । उनके द्वारा लिग्वित प्राकृत का प्रभाव अधिक है। दोनों की शंली भी भिन्न 'तिलकमजरीसार' नामक गद्य ग्रन्थ का ही अब तक पता। है । धनपाल से हरिभद्र की शैली उदात्त है । इस प्रकार लग पाया है । तीमरे धनपाल अपभ्र श भाषा मे लिखित भापा की दृष्टि मे जर्मन विद्वान् ने जो निष्कर्ष निकाले थे 'बाहबलिचरित' के रचयिता है जिनका समय पन्द्रहवी वे वास्तविकता से परे ही जान पड़ते है। उनके विचारों शताब्दी है। ये गुजरात के पुरवाड-वश के प्रधान थे। का विश्लेपण करते हुए सी०डी० दलाल और पी० डा. इनकी माता का नाम सुहडादेवी और पिता का नाम मेठ गुणे ने लिखा है कि धनपाल की भाषा, प्रा. हेमचन्द्र के सहडप्रभ था६ । चौथे धनपाल अालोच्यमान मुख्य कथा व्याकरण में प्रयुक्त अपभ्र श भाषा से प्राचीन है। उनकी काव्य के लेखक धक्कड़वश के कवि थे। इस प्रकार चागे धनपाल नामधारी कवियो का समय अलग-अलग है। ७. भविसयत्तकहा (स० दलाल और गुणे) की भूमिका, चारों ही भिन्न काल के विभिन्न कवि एव लेखक थे। पृष्ठ ३।। ८. डा. हर्मन जेकोबी द्वारा लिखित "इण्ट्रोडक्सन टु द ५. वही, अनेकान्त, किरण ७-८, पृ० ८२ भविसयत्तकहा" अनु० प्रो. एस. एन. घोषाल, ६. गुज्जरपुरवाडवशतिलउ मिरि मुहडसेट्टि गुणगणणिलउ। प्रकाशित जर्नल भाव द मोरियन्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, तहो मणहर छायागेहणिय सुहडाएवी णामे भरिणय । बडौदा, जिल्द २, मार्च १९५३, सख्या ३, पृष्ठ -बाहुबलिचरित की अन्तिम प्रशस्ति । २३८-३९ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश का एक प्रमुख कयाकाग्य २६५ भाषा में जो वैकल्पिक रूपो की प्रचरता, लोच और व्या- स्वयम्भू का उतनो प्रभाव नहीं है जितना कि विबुध श्रीधर करण के नियमों की शिथिलता दिखाई पड़ती है वह प्रा. विरचित "भविष्यदत्तचरित्र" बारहवी शताब्दी (वि०म० हेमचन्द्र के अपभ्रंश-व्याकरण मे नही मिलती। इसका १२३०) की रचना मे है । लोक-जीवन का प्रभाव पौर यही अर्थ है कि धनपाल ने जब अपने इस काव्य को लिखा अभिव्यंजना की लोक-प्रचलित शैली धनपाल ने सम्भवतः होगा तब अपभ्रश लोक मे बोली जाती थी और हेमचन्द्र विबुध श्रोधर मे ग्रहण की होगी। क्योकि चौदहवीं के समय मे (बारहवी शताब्दी) में आकर वह केवल शताब्दी में पाकर अपभ्र श रूढ हो चुकी थी। उसका साहित्य की भाषा बन कर रह गई थीह। डा० भायाणी विकास रुक गया था। वह परिनिष्टित हो चुकी थी। ने स्वयम्भू के "पउमचरिउ" और धनपाल की 'भविसयत्त- किन्तु धनपाल की भापा मे जो लोक-तत्त्व मिलता है वह कहा' के कुछ प्रशो की तुलना करते हए यह निश्चय किया विबुध श्रीधर का प्रभाव कहा जा सकता है। इस प्रकार है कि धनपाल के मामने प्रारम्भिक कडवको को लिखते अन्तरग प्रमाणो से यह प्रतीत होता है कि धनपाल का समय "पउमचरिउ" विद्यमान था१०। और इन सब जन्म तरहवा' शताब्दा महुमा थापार वि० स० १२९ प्रमाणो के माधार पर विद्वानो ने धनपाल का समय दमवी में उन्होंने "भविमयत्तकहा" की रचना की थी। यह या ग्यारहवी शताब्दी माना है। यह तथ्य एक प्रकार से कथा-काव्य कवि के शब्दो मे-वि० सवत्सर तेरह सौ रूढ हो गया कि "भवियमत्तकहा" दमवी शताब्दी की तेरानवे मे, पोप मास मे, शुक्ल पक्ष मे, बारस सोमवार रचना है। परन्तु उपलब्ध प्रति के आधार पर अब इन रोहिणी नक्षत्र में, वाधू के लिए यह मुन्दर शास्त्र ममाप्त मतो का खण्डन हो गया है। लेखक को प्राप्त हई इम हुआ था११ । कवि ने उस ममय दिल्ली के सिंहासन पर कथाकाव्य की मबसे प्राचीन प्रति में यह प्रमाणित है कि मुहम्मदशाह का शामन करना लिया है। इतिहाम मे इसका रचना-काल दमवी शताब्दी न होकर चौदहवीं बादशाह का नाम मुहम्मद विन तुगलक मिलता है। कितु शताब्दी है। उमके अन्य नामो मे मुहम्मद तुगलक और मुहम्मदशाह यदि हम धनपाल की भविष्यदन कथा का प्रारम्भिक का भी उल्लेख मिलता है१२ । मुहम्मद बिन तुगलक का भाग यह मानकर छोड दे कि पूर्ववर्ती प्रबन्ध-काव्य की शामनकाल १३२५-५१ ई. माना जाता है। मालोच्यमान परम्परा उत्तरकालिक प्राकृत तथा अपभ्रश प्रबन्ध काव्यो रचनाकाल १३३६ ई० है। ग्रन्थ की पुष्पिका मे जिस की रचना होती रही है इमलिए महाकवि स्वयम्भू के ताली नदी कितनी माताली "पउमचरिउ" का प्रभाव प्रस्तुत काव्य मे मिलता है तो होना चाहिए क्योकि स० १२३० तेरहवी शताब्दी स्वाभाविक ही है । दोनो को ध्यान में देखने पर स्पष्ट हो -सम्पादक जाता है कि धनपाल ने “पउमचरिउ" को आदर्श मानकर उक्त निष्कर्षानुमार धनपाल का जन्म विक्रम की कुछ बाते प्रभाव रूप में और कुछ ज्यो की त्यो ग्रहण की १४वी शताब्दी में हमा था, तेरहवी में नहीं । क्योंकि है। उदाहरण के लिए-जिस प्रकार केतुमती पुत्र के उसका रचनाकाल स० १३६३ दिया है । -संपादक वियोग मे "हा पुत्त-पुत्त" कह कर विलाप करती है वैसे ११. सुमवच्छरे अक्किरा विक्कमेण, ही कमलश्री भविष्यदन के शोक मे "हा हा पुत्त-पुत्त" । महीहि तेणबुदि तेरहमएण । कहती हुई करुण विलाप करती है। इससे स्पष्ट है कि वारस्मय पूमेण सेयम्मि पक्वं, धनपाल स्वयम्भू के पश्चात् हुए । भौर वर्षों के अन्तराल तिही वारमी मोमिगेहिणिहि रिक्वे ।। से नही वरन शताब्दियो के बाद हुए। अतएव उन पर -भविसयत्तकहा की प्राचीनतम हस्तलिग्विन प्रति की ६. भविसयत्तकहा की भूमिका, पृ०४। अन्तिम प्रशस्ति मे । १०. डा. हरिबल्लभ चुनीलाल भायाणी : पउमचरिउ की १२. द दिल्ली सल्तनत : प्रकाशित भारतीय विद्याभवन भूमिका, पृष्ठ ३६-३७॥ प्रथम सस्करण, पृ०६१। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त विद्रोह का उल्लेख है वह दिल्ली सल्तनत से सम्बन्धित था उल्लेख मिलते है। जिन रत्नकोश मे दस "ज्ञान पंचमी" जो लगभग १३३५ ई. के लगभग हुमा था। इसी प्रकार कयामों का उल्लेख है ।१४ इसी प्रकार मंजुश्री विरचित १३३५ ई. के अकाल का भी उल्लेख मिलता है। कवि "कातिक सौभाग्य पचमी माहात्म्य कथा" सस्कृत में तथा धनपाल जौनपुर के निकट (लगभग चौदह-पन्द्रह मील दूर) पद्ममुन्दर कृत "भविष्यदत्त चरित्र" (नाटक) का उल्लेख जागबाद मे रहते थे। अकाल पड़ने पर सन् १३३५ मे मिलता है। १५ । हिन्दी में ब्र० रायमल्ल विरचित दिल्ली की दशा बहुत ही खराब हो गई थी। धर्मात्मा "भविष्यदत्त चौपई" मिलती है जिसे पंचमी कथा या हिमपाल दिल्ली में रहते थे। वे बहुत ही वैभव सम्पन्न पचमीरास भी कहते है। बनवारी कृत "भविसदत्त थे। उसका पुत्र वाधू था । उसके लिए कवि ने यह कया. चरित्र" मवन १६६६ की रचना है जो चौपाई छन्द मे काव्य लिखा था। और इसके समाप्त होने पर वाबू निबद्ध है। इसी प्रकार मुनि सुरेन्द्र भूषण रचित "पचमी जफराबाद लेने के लिए पहुंचा था१३ । इस प्रकार इति- - व्रत कथा" वि०म० १७५७ की लिखी रचना है, जिसे हास के पालोक मे हमे जो तथ्य प्राप्त होते है उनकी कवि ने "ऋपि पचमी व्रत कथा" कहा है। जिन उदय संगति और प्रामाणिकता का भी निश्चय हो जाता है। गुरु के शिष्य और ठक्कर माल्हे के पुत्र विद्धणू विरचित पूर्व परम्परा "चउपई" भी मिलती है जिसका उल्लेख प० नेमिचन्द्र अपभ्रश में लिखी जाने वाली यह कथा धनपाल शास्त्री ने किया है१६ । न्यामतसिंह विरचित "भविष्यके लिए नई वस्तु नही थी। क्योकि उसके पूर्व प्राकृत में दत तिलकसुन्दरी" पद्यबद्ध नाटक है। और पन्नालाल महेश्वरसूरि "ज्ञानपंचमी कथा" और सस्कृत मे श्रीधर चौधरी कृत "भविष्यदत्त चरित्र" हिन्दी-गइ मे लिखा कवि भविष्यदत्तचरित्र लिख चुके थे। अपभ्रश में भी मिलता है। इसी प्रकार भविष्यदत्त तथा पंचमी व्रत कथा विबुध श्रीधर "भविष्यदत्तचरित्र" की रचना कर चुके थे। के नाम से कई प्रज्ञात रचनाए हिन्दी मे लिखी मिलती "ज्ञान पचमी कथा" और 'भविमयत्तकहा' में कई बातों में है। गुजराती में वणारसी कृत "जान पंचमी चैत्यवन्दन" मन्तर है। मुख्य रूप से ज्ञान पंचमी कथा मे वरदत्त और ज्ञान-पचमी उद्यापनविधि स्वाध्याय, और विजयलक्ष्मीमरि गुणमंजरी की कथा वर्णित मिलती है। पात्रों में नाम-भेद रचित "ज्ञान पचमीदेववन्दन", ज्ञान-पचमी स्वाध्याय के साथ ही कही-कही कार्य-व्यापारो मे भी अन्तर मिलता तथा गुणविजय कृत "ज्ञान पंचमी स्तवन" पादि है । परन्तु दोनो का उद्देश्य एक है। और कथा-वस्तु भी रचनाएँ मिलती है१७ । मस्कृत में मेघविजय विरचित लगभग ममान है। केवल नामों में अन्तर है, मुख्य कामो "पचमी कथा" और क्षमा कल्याण कृत "सौभाग्य पचमी" मे नही । प्राकृत में लिखी गई कथा अत्यन्त मंक्षिप्त पद्य- - बद्ध है। उसमें भविष्यदत्त कथा का उत्तरार्द्ध नहीं है। १४ मुहमद्दमाहो विरामो पयडो, वस्तुत धनपाल की भविष्यदत्त कथा का कथानक अपभ्रंश लियो तेण सायरपमाणेहि दण्डो, के कवि विबुध श्रीधर से लिया गया है। जिसमे कई उसविकट्टि णिलिवि मलिनोवि माणो, बातो मे अद्भुत साम्य मिलता है। परन्तु सिन्धुनरेश के किमो रज्जु इकच्छत्ति उवयतमाणो। साथ भविष्यदत्त के युद्ध का वर्णन धनपाल की निजी पयट्टे विदूसम्मि काले रउद्दे, कल्पना है जो पूर्ववर्ती रचनामो मे नही मिलती। पहुत्तो सुवम जफरायवादे। इहत्ते परत्ते सुहायारहेउ, जैन-साहित्य में भविष्यदत्त की कथा अत्यन्त विख्यात तिणे लिहिय सुमपंचमी णियहं हेउ ॥ ग्रंथ-प्रशस्ति । रही है अतएव प्राकृत, सस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी तथा १५. स. एच. डी. वेलणकर · जिनरत्नकोश, पृ० १४८ अन्य भाषामों में इस कथा के पद्यबद्ध लिखे जाने के १६. वही, पृ०५५। १७. नेमिचन्द्र शास्त्री, जैन-साहित्य१३. डा. नागेन्द्र : अरस्तू का काव्य शास्त्र, पृ०७५ । परिशीलन, पृ० २०६। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश का एक प्रमुख कषाकाव्य कथा काव्यों का उल्लेख मिलता है१८ । मुक्तिविमल कृत किस प्रकार भाई तथा भौजाई अपनी परीक्षा देते थे और "ज्ञान पचमी" तो बहुत पहले (१९१६ ई.) मे प्रकाशित भन्त मे सफलता प्राप्त करते थे? ऐसे ही कुछ प्रश्न है, हो चुकी है। इस प्रकार कथाएँ मिलती है जिनमे जिन पर कवि ने प्रकाश डाला है। भविष्यदत्त का कथानक काव्य के विभिन्न रूपों मे चित्रित बस्तु-विवेचन किया गया है। परन्तु भावो की उदात्तता कल्पना की कथानक के दो भेद कहे जाते है-मरल पौर अतिशयता और वस्तु का जो यथार्थ चित्रिण हमे धनपाल के कथा काव्य मे मिलता है उतने सुन्दर रूप मे अन्य जटिल । सरल कथानक में कार्य-व्यापार एफ मोर काव्य मे नही है। कवि ने अपनी रचना को दो खण्डो अविच्छिन रहता है। वस्तु की जटिलता एवं उलझन और बाईम सधियों में विभक्त कहा है। प्रबन्ध और इममे नहीं मिलती। जहाँ-कहीं लेखक को उलझन या रहस्य प्रतीत होता है वही तुरन्त घटना विशेष से उमका वस्तु-तत्त्व की योजना सोद्देश्य नियोजित है। इसलिए सम्बन्ध जोड देता है। इस प्रकार मुख्य कथा कई छोटीमिकता का पुट म्पष्ट है। किन्तु भवान्तर तथा प्रति छोटी कथानी से एक माला के रूप में अनुबद्ध रहती है। लौकिक बातो को यदि छोड दिया जाये तो कथा शुद्ध रूप अपभ्रश के कथाकाव्यो मे हमे अधिकतर ऐसी ही कथाएँ मे लोक कथा झलकने लगती है। मिलती है जो शृखलाबद्ध रूप मे वणित है। इमे ऐकिक अपभ्र श के कथाकाव्यो मे भविष्यदत्त की कथा कहानी कहा जा सकता है जिसमे कई मरल कथानों से अत्यन्त करुण, मजीव और यथार्थ है। परिवार की छोटी मिलकर एक बृहत्कथा बनती है। मूल रूप मे कथा बहुन सी घटना को लेकर वस्तु-बीज किस प्रकार समाज, जाति छोटी रहती है किन्न वस्तु-वर्णन तथा विभिन्न अभिप्रायऔर देश के मूल तक पहुंच जाता है-इसका सटीक वर्णन इम काव्य मे मिलता है। समस्याए प्रत्येक युग में मूनक घटनाग्रो के योग से समूचे जीवन का चित्र चित्रित प्रत्येक मामाजिक के मामने रही है और उसकी सफलता करने वाले प्रबन्ध काव्य का प्राकार ग्रहण कर लेती है। तथा विफलता का समाधान प्रायः साहित्यकार करते है। उदाहरण के लिए भविष्यदत्त की कथा में एक साथ तीन यही नही, उनके परिणमन तथा सघर्षों के परिणामो का अन्य उपकथाए जुडी हुई है। मुनि के प्राशीर्वाद से लेखा-जोखा भी किमी न किसी रूप में चित्रबद्ध किया भविष्यदत्त का उत्पन्न होना और पाँच सौ व्यापरी एवं भाई बन्धुदत्त के साथ समुद्रो-यात्रा के लिए जाना, मार्ग जाता रहा है। धनपाल के इस कथा काव्य को पढने से स्पष्ट हो जाता है कि उम युग में किस प्रकार मामन्त मे मैनागीप में बन्धुदत्त के द्वारा भविष्यदत्त को छोड़ युगीन धनिक वर्ग कामवामना की तृप्ति के लिए बहु दिया जाना, वहां से भविष्यदत्त का तिलकपुर में पहुंचना विवाह करते थे और मनति पर उमका क्या दुष्परिणाम और भविष्यानुरूपा से मिलना, बन्धुदत्त के लौट कर प्राने पडता था? इसी प्रकार सत्ता तथा बाहुबल पर किस पर उसी द्वीप मे फिर मे मिलने और छल से पुन. भाई प्रकार गजा लोग सुन्दरी का अपहरण करते थे और इस को प्रकला छोड कर बन्धुदत्त का भाभी के साथ घर प्रकार छोटी-छोटी बातो के लिए युद्ध करते थे? भाई को पहुँचने की कथा एक सूत्र मे बद्ध है। यह कथा मूल रूप भाई किस प्रकार सम्मान तथा प्रात्म-तृप्ति के लिए सगे। मे मे "बड़ी मां की कहानी" है जिसमे सतिली मों का व्यवहार और उसके सिखाये हए पाठ से बड़े भाई के साथ भाई के साथ छल-कपट करते थे और किस प्रकार मात छोटे भाई का खोटे से खोटा कम और नीच कर्म का तुल्य भौजाई को हथिया लेने का षड्यन्त्र रचते थे? वर्णन तथा उसके फल का विवरण है । कही-कही इन १८. महेश्वर सूरि कृत ज्ञानपंचमीकथा का प्रस्तावना, घटनामो से कथा को गतिशील बनाये रखने के लिए पृ० ७॥ १९. मोहनलाल दुलीचद देसाई : जैन उपवाक्यो की भांति उपकथाएं जडी रहती है। संक्षेप मे, साहित्य नो सक्षिप्त इतिहास, बम्बई, १९३३, यदि भविष्यदत्त की कथा की घटनाओं पर विचार किया जाये तो निम्न-लिखित घटनाये मुख्य लक्षित होगी। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. भनेकान्त (१) सेठ धनवइ का कमलश्री को त्याग कर और बड़ी को तथा उसके पुत्र को तिरस्कार की दृष्टि से दूसरा विवाह सरूपा से करना और बन्धुदत्त का जन्म देखा जाता है। सौतेला भाई कुछ तो स्वभाव से भौर होना । भविष्यदत्त का ननिहाल में पालन पोषण होना। कुछ माता के सिखाने से विमाता के लड़के को धोखा देकर (२) पांच सौ व्यापारियों तथा बन्धुदत्त के साथ मार डालने की चेष्टा करता है पर इस कार्य में उसे पूर्ण भविष्यदत्त की कंचनद्वीप की यात्रा, मार्ग मे मैनागद्वोप मफलता नही मिलती। इतना ही नहीं, विमाता का पुत्र में भविष्यदत्त को अकेला छोडकर बन्धुदत्तकी प्राजा से अपने भाइयो की सहायता या सकट से उनकी रक्षा जहाज का कचन द्वीप के लिए प्रस्थान करना। करता है। किन्तु वही सौतेला भाई फिर से धोखा देकर (३) भविष्यदत्त का उजाड नगर तिलकपुर में उसका अनिष्ट करने की चेष्टा करता है और अन्त में प्रवेश करना तथा अपने साहस से गक्षस को प्रसन्न कर असफलता ही उसके हाथ लगती है। राजकन्या भविष्यानुरूपा का पाणिग्रहण कर बारह वर्षो पहली मुख्य घटना से सम्बन्धित एक अन्य घटना के बाद अपने नगर के लिए प्रस्थान कर समुद्र तट पर है-माता का पुत्र से विछोह हो जाने के कारण पुन. पहुँनना । मयोग से बन्धुदत्त का मिल जाना । छल प्राप्ति के लिए व्रत करना और परिणामस्वरूप पुत्र मे भेट पूर्वक भविष्यदत्त को छोडकर भविप्यानुरूपा के साथ होना। ऐसी कई व्रत-कथाएं है जिनमे बाहर गये हुए अतुल मपनि लेकर बन्धुदत्त का स्वदेश-गमन करना। अथवा किसी प्रकार विछुड़े हुए पुत्र या पति की प्राप्ति के माग मे जल-देवता के प्रभाव मे तूफान का आना और लिए व्रत-विधान निर्दिष्ट है तथा जिनके पालन से मनोभविष्यानुरूपा के सतीत्व की रक्षा होना। एक मास की वाछिन फल की प्राप्ति होती है। स्कन्द पुराण के अन्तर्गत अवधि में पति से मिलने का स्वप्न देखना । घर पहुँच "गणेश चतुर्थी" की कथा ऐसी ही कथा है जिसमे इस कर बन्धुदत्त की भविष्यानुरूपा के साथ विवाह की तैयारी व्रत के पालन से रानी दमयन्ती को सातवे महीने मे पुत्र होना। इतने में भविष्यदत्त का लौटकर घर पहुँचना । गजा और पति की भेट होती है । इसी प्रकार ठाकुर 'मारझुलि' को सच्चा वृत्तान्त ज्ञात होने पर बन्धुदत्त को दण्ड देना। मे मद्भलित 'कलावती राजकन्या' नाम की कहानी में भी (४) राजा का भविष्यदत्त के साथ सुमित्रा का कलावता एक महीने के व्रत के फलस्वरूप पति को तथा व्याहने का प्रस्ताव रखना, धनवइ का उसे स्वीकार बुद्ध और मुतुम की माता जल-देवता की प्राराधना से करना। पाचाल नरेश चित्राग का सुमित्रा को मागना यात्रा से लौटे हुए पुत्र को प्राप्त करती है२० । इसी प्रकार और सकल राज्य में वश मे करने तथा कर देने का माहसिक गजकुमारो तथा सौदागगे की अनेक कहानियाँ प्रस्ताव रखना , भविष्यदत्त का विरोध करना। युद्ध के मिलती है जिनमे समुद्री-यात्रा करते समय अनेक सकटो लिए तैयारी । भविष्यदत्त का चित्राग को बन्दी बनाकर को झेलना पड़ता है और अन्त मे उनसे उबर कर कचनसुमित्रा से विवाह करना । बरसो तक सुखोपभोग करने कामिनी एव अतुल वंभव प्राप्त करने का उल्लेख मिलता के बाद संन्याम मे दीक्षित होना तथा तपस्या कर परमपद है । वस्तुतः सकट-निवारण के लिए व्रत-उपवास का पालन को प्राप्त करना। करना भारतीय जीवन की चिर-प्रचलित लोक-रूढि है । अतएव लोक-कथानो मे उनका निर्देश होना स्वाभाविक ये मुख्य घटनाएँ अपने आप में छोटी-छोटी चार हो है। इसी प्रकार सकट में पड़े बिना, और साहसी कार्यो लोक-कथाएँ है जो प्राज भी अलग-अलग कई रूपो मे को बिना किए हुए मनुष्य जीवन की समृद्धि को प्राप्त नही कही-सुनी जाती है। जहा तक कथा की पहली मुख्य कर सकता। इसलिए इन कथानों में रोमांचक तथा प्रेरक घटना एव कहानी का सम्बंध है वह सौतेली मा की तत्त्वो की सयोजना इस रूप में की गई है कि वे जीवन कहानी से सम्बन्धित है जिसमें एक ही राजा या सेठ की कई पत्नियो या दो रानियों में से सबसे छोटी के साथ २०. सं० दक्षिणारजन मित्र : ठाकुर मारझुलि, वागला और उसके पुत्र के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है रूपकथा, पृष्ठ १६ । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश का एक प्रमुख कबाकाव्य २६६ की वास्तविक प्रगति का चित्रबद्ध रूप प्रकट करती हुई में कही जाती है और कहीं पर सौदागर के रूप में२२ । जान पड़ती है। अधिकतर लोक-कहानियो मे राजकुमार की कहानी इसमे इमी प्रकार क्सिी उजाड़ नगरी या गन्धवों के देश मे मिलती-जुलती सुनी जाती है । बगाल की प्रसिद्ध लोकअथवा पातालपुरी में किसी बहुत मुन्दर राजकुमारी का कथानों में 'कलावती राजकन्या' की कहानी इसी प्रकार की रूपकथा है जिसमे पांचो राजकुमार ईविश सबमे अकेला रहना और नायक का माहमिक कार्यों द्वारा उमे छोटे दोनो राजकुमारो को छोड़कर कलावती को पाने के प्राप्त करने या प्राप्त हो जाने की घटना भी लोक-कथानो लिए जहाज में बैठकर यात्रा करते है। किन्तु दोनो भाई तथा भविष्यदत्त कथा में समान है। बगला मे "घुमन्तपुरी" भी डोगो मे बैटकर प्रस्थान करते है। दोनो भाई तीन नामक दादी की सुनाई हुई कहानी ऐमी ही है जिसमे एक बुढियो के देश मे पहुँचकर बुढ़िया के चंगुल में फंसे हुए राजा का पुत्र के बार-बार मना करने पर पिता की प्राज्ञा पांचो भाइयों को छुड़ाते है। परन्तु इस पर भी पांचों मे देश-भ्रमण के लिए निकल पड़ता है और निर्जन एव भाई दोनो भाइयों की उपेक्षा कर आगे बढ़ जाते है । मार्ग निशब्द वन मे किमी गजभवन में पहुंच जाता है, जिम मे दिशाभ्रम की दशा मे दोनो भाइयो मे से बुद्धू पाँची की नगरी को गक्षमो ने उजाड दी थी और न जाने क्यो महायता करता है। अन्त मे तूफान पाने में पांचो भाई गजकुमारी को छोडकर गक्षम ने समस्त नगरी का ध्वस इब जाते है । बुद्ध कलावती के नगर मे पहुँच कर देखता कर डाला था। गजकुमार उम गजकन्या को प्राणान्तक है कि पाँचो भाई बन्दीगृह में हैं। उमे भी बन्दी बना नीद मे जगाकर बुद्धिबल मे गक्षम का अन्त कर देता लिया जाता है। परन्तु वह कला-कौशल से पाँचो भाइयो है२१ । भविष्यदत्त भी माता के बहुन हट कर मना करने का तथा छोटे भाई को कलावती के साथ लेकर पोत मे पर भाई के साथ व्यापार करने कचन-द्वीप की यात्रा करता बैठार घर के लिए लौट पडना है । पाँची भाई कलावती है । मैनागद्वीप में छोड दिए जाने पर तिलकपुर में भटक को बद्ध के पास देखकर जल-भुन उठते है और उन दोनो कर पहुँचना है। भविष्यदत्त उजाड नगरी को देखकर भाइयों को ममद मे फेक देते है। कलावती को कंद कर राजमहल में जाता है जहाँ सुन्दर गजकुमारी से उमकी वे अपने नगर में ले जाते है। राजा कलावनी का विवाह भेट होती है। राक्षम को पाम मे पाते देखकर भविष्यदत्त गजकमार में करना चाहता है परन्तु वह तैयार नहीं उममे युद्ध करने के लिए तैयार हो जाता है। राक्षम होती। राजा उसे मार डालने की धमकी देता है। वह भविष्यदन का साहम और पगक्रम देवकर प्रसन्न हो महीने का व्रत धारण करती है। हमी बीच दोनो राजजाना है और भविष्यानुरूपा का विवाह उसके साथ कर कुमार पाकर कलावती में मिलने है । राजा को जब माग देता है। रहस्य ज्ञात होता है तब वह बुद्ध का विवाह कलावती के साथ धूम-धाम से करता है। छोटे भाई का पाणिग्रहण भविष्यदत्त कथा का लोक-रूप भी किसी अन्य राजकुमारी में हो जाता है। पांचों भाइयो यद्यपि अपभ्रश की कथाए सच्ची मान कर लोगो के को अपने किये का दण्ड मिलता है। मन पर धार्मिक प्रभाव डालने के लिए लिखी गई है पर इम प्रकार मक्षेप में भविष्यदत्त की लोक-कथा का उनकी जडे लोक-कथानो मे जमी हुई मिलती है। रूप है-किसी नगर में एक नगर सेठ रहता था। उसका भविष्यदत्तकथा भी मूलत. लोक-कथा है, जो उद्देश्य विशेष नाम धनवइ था। कमलश्री नाम की उमके शील तथा से प्रबन्धकाव्य के रूप में वर्णित है । इस तरह की कथा रूपवती पत्नी थी। उन दोनो के भविष्यदत्त नाम का एक कहानी प्राज भी हमारे यहाँ गाँवो मे कही जाती है। पुत्र उत्पन्न हुमा । धीरे-धीरे सेठ का मन उससे विरक्त हो कही पर यह कहानी राजा-रानी और राजकुमागे के रूप २२. डा. नामवरसिह : हिन्दी के विकास में अपभ्रंश २१. वही, पृष्ठ ५६ । का योगदान, तृतीय परिवर्तित सस्करण, पृ० २५८ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० अनेकान्त गया । उसका दूसरा विवाह सरूपा से हुआ। सरूपा स्व- भविष्यदत्त सब को भोजन कराता है। भविष्यानुरूपा के भाव से दुष्ट तथा रूपगविता थी। भविष्यदत्त ननिहाल में साथ सब माल जहाज पर चढा दिया जाता है । भविष्यापढ़-लिख कर बड़ा होता है। सरूपा के भी एक पुत्र नुरूपा को इतने में ही स्मरण हो जाता है कि वह सेज पर उत्पन्न होता है, जिसका नाम बन्धुदत्त रक्खा जाता है। नागमुद्रा भूल पाई है। भविष्यदत्त उसे लेने के लिए जाता बन्धुदत्त नगर मे बहुत उत्पात मचाता है। नगर के लोग है। तभी बन्धुदत्त लोगो के मना करने पर भी जहाज मन्त्रियो से निवेदन करते है। अन्त में प्रधान नगर-सेठ से खुलवा देता है। भविष्यदत्त बहुत पछताता है । भौजाई के कह कर उसे व्यापार के लिए भेजते है। पाँच सौ व्या- रूप-सौन्दय से प्राकृष्ट होकर बन्धुदत्त उससे अनुनय-विनय पारियों का मुखिया बनकर बन्धुदत्त समुद्र के मार्ग से करता है, वह मौन धारण कर लेती है। भोजन-पानी जहाज पर बैठकर यात्रा करता है। भविष्यदत्त भी साथ त्याग देती है । देवी उसे स्वप्न देती है कि एक महीने मे मे जाने के लिए तैयार होता है। उसकी माता कमलश्री पति के दर्शन होगे। मार्ग में जल-देवता के प्रभाव से बहुत समझाती है। अन्त मे मामा आदि के कहने से वह तूफान पाता है । जहाज डगमगाने लगता है । सभी बन्धुभविष्यदत्त को भेज देती है । बन्धुदत्त की माता बडे भाई दत्त को धिक्कारते है । भविष्यानुरूपा से क्षमा मांगते है। भविष्यदत्त के सम्बन्ध मे सब कुछ बता देती है और किसी तब कही लहरे शान्त होती है और गजपुर की ओर भागे प्रकार मार्ग मे कही छोड पाने या समुद्र में गिरा देने की बढ़ते है । मभी अपने-अपने घर पहुंच जाते है । कमलश्री सीख देती है। कई दिनो के बाद बन्धुदत्त का जहाज भविष्यदत्त को नही आया हुआ देखकर निराश होती है । मैनागद्वीप के तट पर लगता है । सब लोग उतरकर खाने वह सबसे पूछती है । मब यही कहते है कि किसी द्वीप मे पीते है । फल-फूलो को वन में से तोड़ते है। भविष्यदत्त रह गया है, आ जायगा । बन्धुदत्त के विवाह की तैयारियाँ फूलो को चुनता हुमा दूर निकल जाता है। अवसर पाते ही होती है। पन्द्रह-बीस दिन बाद भविष्यदत्त घर लौट प्राता बन्धुदत्त भविष्यदत्त को वही छोड़कर जहाज चलवा देता है है। मामा के साथ वह राजा को सब वृत्तान्त सुनाता है । भविष्यदत्त रोता-गात जगल मे भटकता है। एक रात माता को भेजकर नागमद्रिका के अभिज्ञान से वह भविष्यानुधने जगल में, जगली जानवरो के बीच एक सिला पर सोता रूपा को राजदरबार में बुला लेता है । राजा सभा बुलाना हुमा बिताता है दूसरे दिन एक गुफा में से निकल कर एक है। सारा रहस्य खुल जाता है। नगर सेठ और बन्धुदत्त उजाड़ नगरी मे पहुँचता है । उस तिलकपुर में उसे केवल को दण्ड मिलता है। जनता विरोध करती है । भविष्यदत्त एक सुन्दर राजकुमारी को छोडकर कोई नही मिलता। बह के कहने पर धनवइ को छोड़ दिया जाता है। राजा उससे सारा हाल पूछता है । वह कहती है-राक्षस ने इस अपनी कन्या सुमित्रा का विवाह भविष्यदत्त के साथ करने नगरी को उजाड़ दिया है। तुम भी उससे नहीं बच का निश्चय प्रकट करता है। सकते। राक्षस के पाने पर वह ललकारता हुआ युद्ध के इसी बीच पाचाल नरेश की सेना पाकर गजपुर को लिए तैयार हो जाता है । राक्षस उसके साहस तथा परा घेर लेती है। सुमित्रा को मागने और अधीनता स्वीकार क्रम से प्रसन्न होकर उन दोनो का विवाह कर देता है। कर लेने का प्रस्ताव रखा जाता है। राजा बड़े प्रसमजस दोनों वहां पर बारह वर्षों तक साथ में रहते है। एक मे पड जाता है। भविष्यदत्त इस प्रस्ताव को ठुकरा देता दिन भविष्यानुरूपा ससुराल के हाल-चाल पूछती है तो है। स्वयं सेना का नेतृत्व कर युद्ध लड़ता है और चित्रांग मेन भविष्यदत्त को माता का स्मरण हो पाता है। वह दूसरे ता ह । पह दूसर को बन्दी बना लेता है। सुमित्रा से उसका विवाह हो । दिन ही उस गुफा में से होकर समुद्र-तट पर पहुँचते है। जाता है । वह राजा बन जाता है। धनवइ भी अपनी भूल बारह वर्षों के बाद बन्धुदत्त का जहाज फिर उमी। म्वीकार कर पूर्वत्यक्त कमलश्री को अपना लेता है। सभी तट पर लगता है। लोग भविष्यदत्त को पहचान लेते हैं। का जीवन प्रानन्द से बीतता है। बन्धुदत्त गले मिलता है। भाई से क्षमा मांगता है। प्रतएव अपभ्र श की यह कथा लोक-कण है, जिसमे Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश का एक प्रमुख कथाकाव्य २७१ धर्म और साहित्य के परिप्रेक्ष्य में कतिपय कयाभिप्राय न्वित औचित्यपूर्ण लक्षित होती है। परन्तु अवान्तर कथानों वर्णित है । ऐसी कथाएँ प्रायः लोक-जीवन और मस्कृति की विशेष संयोजना से कही-कही मध्य और अन्तिम भाग को समझने के लिए महत्वपूर्ण होती है। भविष्यदन की गतिहीन तथा प्रभावहीन जान पड़ता है। वस्तुत: प्रबन्ध यह कथा उत्पाद्य है, जिसमें मुमित्रा के लिए युद्ध, मरिण- का पूर्वाद्ध जैसा कसा हुआ है वैमा उत्तगई नहीं। इसभद्र यक्ष की सहायता से मैनागद्वीप से गजपुर पहुँचने और लिए कही-कही प्रबन्ध-रचना में शिथिलता दिखाई पड़ती भविष्यानुरूपा के दोहला के समय तिलकपुर में भ्रमण की है। एक तो यही कारण है और दूमरा प्रादर्श महत् न घटनाएँ एव वृत्त कल्पित जान पड़ता है। इसका मुख्य होने के कारण इसे महाकाव्य नहीं कहा जा सकता है। कारण धार्मिक वातावरण प्रस्तुत करना है। यह मस्कृत के एकार्थक कोटि का प्रबन्ध-काव्य है जो कथा काव्य की विशेप विधा के अनुरूप लिखा गया है । चरित्र-चित्रण ___समालोचकों ने प्रबन्ध-काव्य मे कार्यान्वय की प्रावघटनामो की भाँति भावो मे मघर्ष का चित्रण करना श्यकता पर अधिक बल दिया है। डा. शम्भूनाथसिह के अपभ्र श-कथाकाव्यो की मामान्य प्रवृत्ति है। यद्यपि मत में रोमाचक कथाकाव्यो में कार्यान्विति नहीं होती और भविष्यदत्त सामान्य व्यक्ति है इसलिए भाई के द्वारा द्वीप न नाटकीय तत्व ही अधिक होते है। उनका कथानक मे छोड़ दिए जाने पर ग्रामू बहाता है, पश्चाताप करता प्रवाहमय और वैविध्यपूर्ण अधिक होता है पर उसमे है परन्तु विनय, गालीनता, साहम और धैर्य आदि गुणो कमावट और थोडे में अधिक कहने का गुण, जो महाकाव्य से मयुक्त होने के कारण वह धीरोदान नायक की भाँति का प्रधान लक्षण है, नही होता२३ । परन्तु भविष्यदत्त की चित्रित किया गया है। अपभ्रश के कवियो ने अपने कथा में थोडे मे अधिक कहन का गुण कूट-कूट कर भग काव्यो में मामान्य व्यक्ति को भी नायक मानकर उसके हमा है । कार्यान्विति भी प्रादि से अन्त तक बराबर बनी क्रिया-कलापो से उदात्त जीवन में उन्हें प्रतिष्ठित किया है हुई है। मम्भवतः इमीलिए विण्टरनित्स ने इसे रोमाचक और इसका मूल कारण उनकी धार्मिक वृत्ति जान पड़ती महाकाव्य माना है२४ । प्रबन्ध-काव्य के मौलिक गुणो की है, जिमके अनुसार वे "नर से नागयण" वनने की मान्यता दृष्टि से यह एक सफल रचना कही जा सकती है। क्योकि मे विश्वास रखते है। अतएव भविष्यदत्त धीर, बीर ही इसमें कथानक का विस्तार शान के लिए न तो नही साहसी और क्षमाशील भी है। जातीय गुणों के साथ चरित्र-चित्रण के लिए हमाहे, जो महाकाव्य का प्रधान हा उमम क्षात्रधम का दप पार तज भा दिखाई पडता हा गुग्ण माना जाता है। चरित्र-चित्रण मे मनोवैज्ञानिकता प्रतएव सिन्धूनरेश के अन्यायपूर्ण प्रस्ताव से असहमत हो का सन्निवेश इस काव्य की विशेपता है। फिर, कथानक कर वह मबसे आगे बढकर युद्ध लड़ता है और निर्भीकता मे नाटकीय तत्वो का भी समावे के माथ अपनी वीरता का परिचय देता है। इस प्रकार पर नारकीय चित्रो की प्रशिक्षार्टि सामान्य वणिक्पुत्र होकर भी भविष्यदत्त राजीचित इस कथाकाव्य का महत्व तीन बातों में है-पौराणिकता प्रवृत्तियो एव गुणो को प्रदर्शित कर अन्त में राजा बनता से हटकर लोक-जीवन का यथार्थ चित्रण करना, काव्यहै और सफलता से राज्य शासन करता है । लखक ने जहाँ रूढियो का समाहार कर परम्परागत प्रवृत्ति का निर्वाह देवी सयोग, आकस्मिकता और असाधारण वृत्ता की करना और चलते वर्णनो के बीच काव्य को मवेदनीय सयोजना धार्मिक प्रभाव स्पष्ट करने के हेतु की है वही बनाना। नायक चारित्रिक गुणों पर भी प्रकाश डाला है। २३. डा० शम्भूनाथसिंह : हिन्दी महाकाव्य का स्वरूपप्रबन्ध-संघटना विकास, पृष्ठ ८८। कथा-बन्ध की दृष्टि से भविष्यदत्त कथा प्रबन्ध-काव्य २४. एम. विण्टरनित्स : ए हिस्ट्री प्राव इण्डियन लिटहै जिसमें घटनामो की कार्य-कारण योजना मोर रसा- रेचर, १९३३, खण्ड २ पृष्ठ ५३२ । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अनेकान्त काव्य-दियाँ प्रतीत होता है कि यह रचना की एक शैली थी जिममें मालोच्यमान कथाकाव्य में निम्नलिखित काव्यरूढ़ियों प्रबन्ध भार विषय का दाप्ट स अन्त्यानुप्रास छन्दोयोजना का पालन हुमा है.-१. मगलाचरण, २. विनय-प्रदर्शन, नियत पक्तियों में होती थी। साधारणतया एक कडवक मे ३. काव्य-रचना का प्रयोजन, ४. सज्जन-दर्जन वर्णन, कम से कम कुल पाठ यमक या मोलह पक्तियाँ देखी ५. वन्दना (प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ मे स्तुति या बन्दना), जाता है। इसी प्रकार मोलह मात्रामों का एक पद कहा ६. श्रोता-वक्ता शैली और प्रात्म-परिचय । जाता है। किन्तु इसके मम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि अपभ्रश के कथाकाव्यों मे काव्य-रूढियाँ प्रबन्ध-रचना निश्चितता नही है । मामान्यतया कडवक के अन्त में दो पक्तियो का दोहा के आकार मे मिलते-जुलते छन्द देखें की अंग विशेष लक्षित होती है। संस्कृत के प्रबन्ध-काव्यों जाते है । यह काव्य पद्धडिया शैली में लिखा गया है। में मंगलाचरण, सज्जन-दुर्जन वर्णन ही किमी-किमी मे दिखाई पडता है । रूढ नही है। परन्तु अपभ्रंश के प्रबन्ध काव्य-सौष्ठव काव्यों में इनका विशेष ध्यान रखा गया है । इसी रूढिके भविष्यदत्त कथा मे कई भावपूर्ण तथा मार्मिक स्थल अन्तर्गत कवि प्रात्म-परिचय भी दे सकता था। अत्यन्त मिलते है जिनमें कवि की प्रतिभा और भावकता का प्राचीन कवियों में अपना परिचय देने की रूढि नही थी। मच्चा परिचय मिलता है। छोटे भाई को बड़े भाई का अकेला बीहड़ द्वीप मे छोड देने से बढ़ कर मार्मिक करण वस्तु-वर्णन पालोच्य ग्रन्थ में वस्तु-वर्णन कई रूपों में मिलता है। दृश्य और क्या हो सकता है। भविष्यदत्त की उस समय बही दशा होती है जो किमी साधारण जन की हो सकती कवि ने जहाँ परम्पगयुक्त वस्तु-परिगणन और इतिवृत्तात्मक शैली को अपनाया है वही लोक-प्रचलित शैली है' है। वही धरती पर हाथ पटकता है, छानी कूटता है और मे वस्तु-वर्णन कर लोक-प्रवृत्ति का परिचय दिया है। अत्यन्त दुखी होकर कहता है कि माता ने पहले ही कहा परम्परागत वर्णनो में नगर-वर्णन, नख-शिख वर्णन और था पर मै नही माना। मेग कार्य ही नष्ट हो गया। मै प्रकृति-वर्णन दृष्टिगोचर होते है जिनमें कोई नवीनता व्यापार के लिए प्राया था पर यह अद्भुत दृश्य देख रहा हूँ लक्षित नहीं होती मुख्य वर्णन है-नगर-वर्णन, कचनद्वीप कि भीत ही मेरे सामने अड गई है । इस प्रकार के विविध यात्रा वर्णन, समुद्र-वर्णन, विवाह-वर्णन, युद्ध-वर्णन, बमत- भावो में डूबता उतराता भविष्यदत्त अपने भाग्य को वर्णन, राजद्वार-वर्णन, मैनागद्वीप-वर्णन, बाल-वर्णन, रूप- कोगता हुप्रा कह उठता है कि मेरा भाग्य ही उलटा है। वर्णन तथा तेल चढाने का प्रादि का वर्णन । किसी का क्या दोष ? इस प्रसग में कवि ने भविष्यदन की विविध मानसिक दशाओ की विस्तृत अभिव्यञ्जना ___ इन वर्णनों मे कही-कही उपमानो मे नवीनता, लोक की है। तत्व और स्थानीय विशेपताएं मिलती है जिनसे स्पष्ट हो बन्धुदत्त को कचनद्वीप की यात्रा से घर लौटने पर जाता है कि इस काव्य पर लोकजीवन का प्रभाव जितनी अधिक प्रसन्नता होती है उसमे कही अधिक नगर विशेप है। के लोगो को हर्ष होता है। उसके लौटने के समाचार मिलते ही लोग हर्ष में पगे हुए नदी के तीर पर दौड़े-दौड़े अपभ्रश के प्रबन्धकाव्यो की भॉति इस कथा-काव्य जाते है । वे इतने अधिक हर्ष से उल्लसित हैं कि किसी ने में भी कडवकबन्ध है जो सामान्यन दस से सोलह पक्तियो सिर का कपडा पहन लिया है, किसी ने शीघ्रता में हाथो का है। कम से कम दस और अधिक से अधिक तीस के कगन कही के कहीं पहन लिए है, कोई पुरुष किसी स्त्री पंक्तियाँ एक कडवक में प्रयुक्त है। कडवक् पज्झट्टिका, से ही प्रालिंगन करने लगा, किसी के प्रग का प्रतिबिम्ब अडिल्ला या वस्तु से समन्वित होते है। कहीं-कही दुवई कही और पडने लगा, किसी ने किसी दूसरे का सिर चूम का प्रयोग भी मिलता है। इस भिन्नता का कारण यही लिया। इस प्रकार सभ्रम और पुलक से भरे हुए लोग शैली Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपश का एक प्रमुखकपाकाव्य अपने-अपने कामों को छोड़कर प्रिय की कुशल प्रकुशल महीने में यदि मेरा पुत्र माकर नहीं मिला तो मैं अपने की बात करते हुए नदी-तट पर पहुंचे। धनवइ ने पांखों प्राणों को त्याग दूंगी२७ । यहाँ पर कवि ने माकाशवाणी में प्राँसू भरकर गदगद वाणी से बेटे की कुशल-क्षेम पूछी२५। या किसी असाधारण घटना का समावेश न कर अस्वाभावियोग वर्णन विकता से कथानक को बचा लिया है। इस कथाकाव्य विप्रलम्भ शृङ्गार के पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण में और भी जो वियोग-वर्णन के स्थल हैं उनमें भी रीतिमें से पूर्वराग को छोड़कर तीनों रूप मिलते हैं । कमलश्री परम्परा से प्रस्त मानबीय भावनामों का प्रदर्शन न होकर धनवह प्रियतम के मान धारण कर लेने पर घर मे ही जीवन को वास्तविक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। प्रत्यन्त दुखी होकर वियोग में छटपटाती है। धनवा के शृङ्गार के अतिरिक्त अन्य रसों में रौद्र, हास्य, प्रणय से हीन उसका मन अत्यन्त संतप्त रहने लगता है। वात्सल्य और भयानक की प्रसंगतः मधुर अभिव्यजना हुई उसके अग विरहाग्नि सहन करने में असमर्थ हो जाते हैं। है। विविध रसों के भाव, अनुभाव और हावो की भी उसकी आँखें जाते हुए पति की पोर ही लगी रहती हैं। योजना इस काव्य में मिलती है । यद्यपि शृङ्गार के दोनो इतने पर भी उसे प्रिय के वचन, मदन, प्रासन और शयन पक्षों का चित्रण काव्य में किया गया है परन्तु जायसी कभी नही मिल पाते२६ । या सूर की भांति वियोग-वर्णन की अतिशयता, रूप-विधान भविष्यदत्त के मनागद्वीप में छूट जाने पर भविष्यानु- और गम्भीरता नहीं मिलती। इसका कारण यही प्रतीत रूपा बहुत दुग्वी होती है । वह तरह-तरह से अपने मन को होता है कि कवि का लक्ष्य काव्य को शृङ्गार प्रधान न समझाती है। वह विचार करती है कि मैं गजपुर में हूँ बना कर शान्तरस को अंगी मानकर अभिव्यक्त करना और पतिदेव यहाँ से सैकड़ों योजन दूर द्वीपान्तर मे हैं। था। लगभग सभी कथाकाव्य शान्तरस प्रधान है । किस प्रकार से मिलना हो? जिस द्वीप की भूमि में कोई भाषा मनुष्य संचार नहीं करता वहाँ कैसे पहुँचू ? मुझे जितना यद्यपि धनपाल की भाषा साहित्यिक अपभ्रश है पर दुःख भोगना था उतना भोग लिया। बिना प्राशा के मैं उसमे लोकभाषा का पूरा पुट है। इसलिए जहाँ एक और कब तक प्राण धारण करूं? इतने में ही वह किसी से साहित्यिक वर्णन तथा शिष्ट प्रयोग हैं वही लोक-जीवन सुनती है कि कमलश्री ने यह निश्चय किया है कि एक की सामान्य बातों का विवरण घरेल वातावरण मे एव २५. धाइउ सयलु लोउ विहडप्फडु जनबोली में वरिणत है। सजातीय लोगों की जेवनार में केणवि कहवि लयउ सिरकप्पडु । कवि ने घंवर, लड्डू, खाजा, कसार, मांडा, भात, कचरिया केणवि कहुवि छुड्डु करिकंकणु पापड़ प्रादि न जाने कितनी वस्तुग्रो का वर्णन किया है। केगवि कहु वि दिण्णु मालिंगणु । डा० एच० जेकोबी के अनुसार धनपाल की भाषा केणवि कहुवि अंगु पडिविवउ बोली है जो उत्तर भारत की है२८ । धनपाल की भापा केणवि कोवि लेवि सिरु चुंविउ । पूर्ण साहित्यिक है। केवल लोक-बोली का पुट या उसके गय वइयहि कम्मइ मेल्लियइं शब्द-रूपों की प्रचुरता होने से हम उसे युग की बोली णयणई हरिसुसुजलोल्लियइ । जाने वाली भाषा नहीं मान सकते । क्योंकि प्रत्येक रचना पियकुसलाकुसल करंतियई चित्तइं सदेहविडंवियई ।। २८. डा. एन. जेकोबी : फ्राम इण्ट्रोडक्सन टु द ८,१ | भ० क०, भविसयत्त कहा, अनु० प्रो० एस० एन० धोसाल, धणवइ मंसुलोल्लियणयणयणउं प्रकाशित लेख, "जनरल प्राव द ओरियन्टल पुच्छइ पुणुवि सग्गिरवयणउं । इन्स्टिट्यूट, बडौदा," द्वितीय खण्ड, प्रक संख्या ३, २६. वही, २, ६-७। २७. वही, ८, २० । मार्च १९५३ । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ अनेकान्त में बोल-चाल के कुछ शब्दों का पा जाना स्वाभाविक है। प्रयात, शंखनारी, सिंहावलोकन, काव्य, प्लवंगम, कलहंस, धनपाल की भाषा में जैसी कसावट और संस्कृत के शब्दों गाथा और संकीर्ण स्कन्धक प्रादि । के प्रति झुकाव है उससे यही सिद्ध होता है कि उनकी भाषा बोलचाल की न होकर साहित्य की है। कुछ उदा भविष्यदत्त में समाज और सरकृति हरणों से यह स्पष्ट हो जाता है। जैसे कि पालोच्य काव्य में राजपूतकालीन समाज और किउ प्रभुत्थाणु णराहिवेण, संस्कृति की स्पष्ट झलक दृष्टिगोचर होती है। भविष्यदत्त केवल सकल कलाएं, ज्ञान-विज्ञान, ज्योतिष तन्त्र-मन्त्रादिक अहिणउ पाहुडु अल्लविउ तेण । ही नहीं सीखता है वरन् वणिकपुत्र होकर भी विविध (कृत अभ्युत्थान नराधिपेन, __अभिनव प्राभृत प्राहृत्य ? तेन) प्रायुधों का विभिन्न प्रकार से संचालन, सग्राम में विभिन्न रयरणाहरण विहूसिय कठि, चातुरियों से अपना बचाव, मल्लयुद्ध तथा हाथी-घोडे वेलासिरिव उयहिं उबक्रठि । प्रादि सवारी की भी शिक्षा प्राप्त करता है। उस युग मे (रत्नाभरण विभूषित कण्ठ, स्त्रियाँ विभिन्न कलायो मे तथा विशेष कर संगीत और वेलाश्रीरिव उद्गत उपकण्ठ) वीणावादन में निपुण होती थी। सरूपा इन कलाओं से डा० तगारे ने पश्चिमी अपभ्रश की जिन विशेषताओं युक्त थी। सामाजिक वातावरण और लोक-रूढियो से भरित यह काव्य लोकयुगीन विशेषतामो को छाप से का निर्देश किया है वे पालोच्य कथाकाव्य मे भलीभाति प्रकित है, जिसमें भविष्यदत्त को रण के लिए सजाना, मिलती है२६ । इस कथाकाव्य की भाषा आदर्श भले ही वणिक्पुत्र भविष्यदत्त का रण में कौशल प्रकट करना, न हो पर परिनिष्ठित अपभ्रश अवश्य है, जिसके लक्षण धनवइ का युद्ध के लिए तैयार होना, व्यापार जोड़ना हमें प्राचार्य हेमचन्द के व्याकरण मे मिलते है। अतएव धनपाल की भाषा साहित्यिक है, जिस पर बोलचाल का पादि ऐसी बाते है जो राजपूतकाल की विशेषताएँ रही पानी चढ़ा हुमा है। है। इमी प्रकार लोक-प्रचलित रूढ़ियो का भी विशेष विवरण इस काव्य मे मिलता है। प्रलंकार-योजना सादृश्यमूलक अलंकार ही विशेष रूप से मिलते हैं। सक्षप मे कथाकाव्य का स्वरूप तथा अपभ्रंश काव्य कुछ मुख्य अलंकार इस प्रकार है--विनोक्ति, दृष्टान्त, में वणित लोक-जीवन और सस्कृति को समझने के लिए कायलिंग विशेषोक्ति, विरोधामस, लोकोक्ति, रूपक, भविष्यदत्त कथा का अध्ययन प्रावश्यक ही नही अनिवार्य भी है । भाषा की दृष्टि से तो इसका विशेष महत्व है। रिक्त और भी कई अलंकार मिलते हैं। उत्प्रेक्षा के कई लोकोक्तियों, सूक्तियों और मुहावरो से जहाँ भाषा प्रभाव भेद प्रयुक्त हैं। उनको देखकर यही प्रतीत होता कि धन पूर्ण है वही साहित्यिक प्रयोग से भी समन्वित है। साहिपाल मानो उत्प्रेक्षा के ही कवि हैं। त्यिक और बोलचाल की भाषा का सुन्दर मेल इस काव्य की विशेषता है। देशी शब्दों की प्रचुरता इस काव्य में छन्दयोजना विशेष रूप से मिलती है। इसके वर्णनो को पढ़ते-पढ़ते इस कथाकाव्य मे वणिक और मात्रिक दोनों प्रकार लोक जीवन की विविध रगीन चित्रावली आँखों के सामने के छन्द मिलते हैं। अधिकतर छन्द मात्रिक हैं। निम्न झूमने लगती है। उदाहरण के लिए वसन्त-वर्णन प्रस्तुत लिखित छन्द विशेष रूप से प्रयुक्त है-पज्झट्टिका या पद्धड़ी पडिल्ला, पत्ता, दुवई, मरहट्ठा चामर, भुजग ____घर-घर में कुतूहल के साथ चाचर खेली जाने लगी। २६. डा० गजानन वासुदेव तगारे; हिस्टारिकल प्रामर घर-घर मे उत्सव मनाये जाने लगे। घर-घर मे तोरण प्राव अपभ्र श, पूना, १९४८, पृ० २६० । सजने लगे। घर-घर में लोग परस्पर प्रेम प्रदर्शित करने Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो का आदिनाथ जिनालय नीरज जैन खजराहो अपने अद्वितीय कला भण्डार के कारण हो चुका है। इस लेख में आदिनाथ जिनालय का वर्णन दिन प्रति दिन प्रसिद्धि के शिखर की प्रोर बढ़ रहा है। प्रस्तुत है। यहाँ के शिल्प-सौंदर्य का कीर्तिगान सात समुन्दर पार भी पार्श्वनाथ मन्दिर के पार्श्व में स्थित यह मन्दिर अपनी पूरी लय और तान के साथ गूज रहा है। यह प्राकार प्रकार में उससे कुछ छोटा तथा लगभग एक सौ स्थान मध्य प्रदेश के छतरपुर, जिले में स्थित है तथा वर्ष उपगन्त की रचना माना जाता है। यह पंचायतन महोबा, हरपालपुर, छतरपुर प्रौर पन्ना तथा सतना से भी नहीं है परन्त नागर शैली के मन्दिगे में उत्तर मध्य यहाँ के लिए बस द्वारा जाया जा सकता है। काल की एक विशिष्ट, सीधी परन्तु अलंकृत शिखर खजुराहो मे अन्य धर्मों के माथ साथ जैनधर्म का सयोजना के कारण समकालीन मन्दिरों में अपना विशिष्ट भी बडा प्रचार रहा है और आज भी जो प्रचुर जैन पुरा स्थान रखता है। ऊँचे अधिष्ठान पर स्थित इस मन्दिर के सामने का मण्डप कालदोप से ध्वस्त हो चुका था जो तत्त्व वहाँ पाया जाता है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जैन पुरातत्त्व, मन्दिरों के एक प्रथक समूह मे ही स्थित है। बाद मे ईट और चूने का बनवा दिया गया है। इसके जिसे हम---१. पारसनाथ मन्दिर, २. आदिनाथ मन्दिर, अतिरिक्त शेष मन्दिर यथा स्थिति सुरक्षित है। श्रात ३. शातिनाथ मन्दिर, ४ घंटाइ मन्दिर तथा ५ जैन भित्तियो पर मूर्तियों का प्रकन यहाँ केवल बाहर संग्रहालय के रूप में जानते हैं। इस समस्त कला भण्डार पाया जाता है। प्रदक्षिणा पथ इसमें भीतर नहीं है। का परिचयात्मक वर्णन तो मैंने अपनी एक प्रथक् पुस्तक मूर्तियाँ उमी प्रकार एक पर एक तीन पक्तियो मे अकित "खजुराहो का जैन पुगतत्त्व" मे किया है परन्तु उनका हैं। ऊपर की छोटी पक्ति में गधर्व, किन्नर, और विद्यासक्षिप्त वर्णन अनेकान्त के पाठकों की सेवा में क्रमशः धर तथा शेष दो पंक्तियों में शामन देवता-यक्ष, मिथुन प्रस्तुत किया जा रहा है। जैन ग्रुप का पाश्र्वनाथ मन्दिर तथा प्रमगये प्रादि दिखाये गये है। एक तो यह कि समूचे खजुराहो का सभवत सर्वाधिक मुन्दर मन्दिर कला बीच की पक्ति मे देव कुनिकाय बना कर उनमे अनेक मर्मज्ञों द्वारा माना गया है। उसका वर्णन अनेकान्त की जैन शासन देवियो की बड़ी-बडी ललितासन मूर्तियाँ किरण ४ पृष्ठ १५१ (अक्टूबर १९६३) में प्रकाशित स्थापित हैं। ये कुल सोलह है तथा इनके वाहन, प्रायुध लगे। घर-घर में चन्दन छिडक दिया गया। मुचकुन्द के वन जीवन के वास्तविक विकास का क्रम प्रदर्शित कर कवि फूल उठे । घर-घर पर शोभित होने वाले जयमगल कलश ने मानव-मन की सत्रिय चेतना का प्रसार किया है। इस ऐसे जान पड़ने लगे मानो किसी देवता ने अवतार लिया हो। प्रकार पौराणिकता से बहुत कुछ हट कर लोक-भूमि से कुल मिलाकर "भविमयत्तकहा" अपभ्रश का मुख्य चेतना ग्रहण कर कवि ने जिस वातावरण और भाव-भूमि कथाकाव्य है जो धार्मिक होकर भी शुद्ध काम्य की दृष्टि की मृष्टि की है वह अत्यन्त स्फीत, प्रेरक एव यथार्थता से भी उत्तम रचना है अन्य कथाकाव्यो की भाँति मानव से मण्डित है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और परिकर का ऐसा सजीव और बारीक अंकन यहाँ प्रोर मध्य पंक्ति में खण्डिता नायिका की अस्त-व्यस्त किया गया है कि उसके द्वारा उन देवियों का सही और वेषभूषा परन्तु लज्जापूर्ण मुद्रा मेरे इस कथन की साक्षी शास्त्रोक्त स्वरूप समझने में बड़ी सहायता मिलती है। है। देवगढ़ के अतिरिक्त शासन देवियों का ऐसा अंकन अन्यत्र एक और सविशेष अप्सरा का अंकन मध्य पंक्ति मे मैंने नहीं देखा । ये सोलह विद्या देवियां भी हो सकती हैं परिक्रमा प्रारम्भ करते ही तीसरी श्रेणी पर मिलता है। पर पूरी शोध के बिना निश्चित कुछ कहना अभी ठीक इस नृत्यांगना के शरीर की फुर्ती और प्रति गतिमान न होगा। चरणों का अकन इतना सजीव है और मुद्रा इतनी शांत इन पट्रिकामों की दूसरी विशेषता यह है कि इनके सौम्य तथा मनोहर है कि उसे देखकर मुझे विश्व-विश्रुत कोणों पर भगवान युगादि देव के शासन सेवक गावदन नर्तकी नीलाम्जना का स्मरण हो पाता है। यक्ष का बड़ा सुन्दर और वैचित्र्य पूर्ण प्रकन है । यह यक्ष भगवत् जिनसेनाचार्य ने महापुराण के सत्रहवें पर्व प्रपनी दर्प पूर्ण मुद्रा में मन्दिर के चारों कोनों पर अंकित में भगवान प्रादिनाथ के दीक्षा प्रसंग का जो वर्णन किया है और चतुर्भज होकर भी सीघा, मनुष्याकृति खड़ा हुआ है उससे ज्ञात होता है कि एक बार इन्द्र ने भगवान की दिखाया गया है। इसके प्रायुध, अलंकार, यज्ञोपवीत सभा मे उनकी पाराधना हेतु नत्य गान का प्रायोजन प्रादि बडे स्पष्ट और सुन्दर हैं। किया । उसी समय उसके मन में विचार पाया कि भगअप्सरानों की मतियाँ यहाँ निश्चित ही पाश्वनाथ वान को विराग कैसे उत्पन्न होगा? उसी वैराग्य के मन्दिर से कम है और उनका प्राकार भी थोड़ा छोटा है निमित्त रूप में इन्द्र ने अनिद्य रूपवती नीलाञ्जना नाम पर अपने विविध अभिप्रायों और भाव-भंगिमानों को की अप्सरा का नृत्य प्रारम्भ कराया। इन्द्र को ज्ञात था उजागर करने में वे किसी भी प्रकार असमर्थ नहीं दिख- कि उस नर्तकी की आयु शीघ्र ही समाप्त होने वाली है। लाई देतीं। यहाँ शिखर की उठान सादी होने के कारण इस सुर सुन्दरी के भाव-लय-पूर्ण नृत्य ने एक बार दर्शक के लिए ये मूर्तियाँ एकांत पाकर्षण का केन्द्र बनकर भगवान प्रादिनाथ के मन को भी इस प्रकार अनुरूप बना उसकी चेतना को मोह लेती हैं और दृष्टि को भटकने लिया, जैसे अत्यन्त शुद्ध स्फटिक मणि भी अन्य पदार्थों नहीं देती। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, बीच-बीच के संसर्ग से लालिमा ग्रहण कर लेता हैमें शासन देवियों या विद्या देवियों का प्रकन होने के तन्नत्यं सुरनारीणां मनोस्पारञ्जयत प्रभो। कारण इन रूप राशि अप्सराओं की मनोहरता और स्फटिकोहि मणिः शुद्धोऽप्यावत्ते राग मन्यतः॥ सार्थक्य अधिक मान्य हो उठा है। (महा पु० १७-५) इन अप्सरामों में पारसी देखकर सीमत मे सिन्दूर नृत्य के बीच में ही नीलाञ्जना की प्रायु समाप्त हो अालेखन करती हुई रूप गविता तथा पारसी देखकर ही गई और उसका शरीर लोप हो गया। इन्द्र ने तत्क्षण नयन प्रांजती हुई सुनयना और चुम्बन के व्याज से उसी रूप रेखा की दूसरी नर्तकी इस प्रकार प्रस्तुत कर वालक पर ममता उड़ेलती हुई जननी का चित्रण बहुत दी कि साधारण दर्शक इस परिवर्तन को लक्ष्य भी न कर स्वाभाविक, बहुत सुन्दर और बहुत अविस्मरणीय है। सके, पर भगवान ने जीवन की भंगुरता को लक्ष्य किया शृगार की दाहकता से पीड़ित दर्शक की दृष्टि मातृत्व और वही उनके वैराग्य का निमित्त कारण बना । की इस शीतल धारा मे अनुपम मानन्द की अनुभूति मैं जिस अप्सरा मूति की चर्चा कर रहा हूँ, वह करती है। इन्हीं पंक्तियों में नायिकाओं तथा कामिनी अपने परिकर के मध्य ऐसे असाधारण रूप से उभरी हुई भामिनियों का जो अंकन है वह भी एक गौरव तथा अंकित की गई है जिसे देख कर मुझे विश्वास होता है शालीनता के साथ भारतीय नारी के "स्त्रीत्व" की रक्षा कि भगवान आदिनाथ के वैराग्य प्रसंग की नायिका का प्रयास करता हुप्रा सा जान पड़ता है। पश्चिम की नीलाञ्जना का ही अवतरण कलाकार ने यहाँ किया है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो का माविनाय जिनालय २७७ प्रदक्षिणा के इस अकन के बाद इस मन्दिर की जो नृत्य गान रत गंधर्व हैं तथा ऊपर के तोरण में भी पांच विशेषता हमारा ध्यान आकर्षित करती है वह है इसके कोष्ठक बना कर प्रत्येक में वैसी ही शासन देवियों का ऊंचे शिखर की सादगी और उस पर रखे कलश की अंकन है जिनके हाथों में शंख, कमल, कलश, कुलिश, भव्यता । इस शिखर में पाश्र्वनाथ मन्दिर के शिखर की पाश मादि प्रायुध हैं। एक देवी बालक को स्तन पान तरह उरु शृग अथवा कर्ण शिखर नही बनाए गए हैं, कराती हुई एक हाथ मे पाम्र मंजरी लिए ग्राम के वृक्ष बल्कि अधिष्ठान और भित्तियों के ऊपर से एक दम के नीचे सिंह पर बैठी दिखाई गई है। यह बाईसवे प्रारम्भ होकर यहाँ शिखर ने भगवान की निर्वाण भूमि तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षी मम्बिका है। कैलाश की किसी अलंध्य चोटी का रूप प्रदर्शित कर इस द्वार के सबसे ऊपर के तोरण में शची द्वारा दिया है। सेवित तीर्थकर की माता को शयन करते हुए अंकित इस शिखर को देख कर सहज ही कोणार्क और किया गया है तथा उसके बाद माता के सोलह स्वप्न भुवनेश्वर शैली के मन्दिरो की याद या जाती है। सज्जा दिखाए गए हैं है। सोलह स्वप्न तो जैन मन्दिरों मे भनेक मे उपयुक्त एक रस शैली भी आँखो को कानही देती जगह प्रकित है किन्तु तीर्थकर की माता का साथ में अंकन बल्कि अपनी सहजता की ओर अधिक आकर्षित करती इस मन्दिर की विशेषता है। __मन्दिर का गर्भ गृह अत्यन्त सादा है और वेदिका ऊपर की सूची-चक्र-ग्रामलक और कुम्भ-कलश बहत बाद की बनाई गई शात होती है। दो कमल प्राकृति मनोहर बन पडे है और यह भाग निश्चित ही पाश्वनाथ पाषाणो को जोड़ कर वह पशिला बनाई गई है जिससे मन्दिर के शिखर भाग से अधिक लुभावना है। इस गर्भालय को सुन्दर छत का निर्माण हुआ है। इस मन्दिर का प्रवेश द्वार अपने समस्त सज्जागत पार्श्वनाथ मन्दिर की तरह इस मन्दिर की मूल शिल्प-वैभव के साथ अपनी सही स्थिति में अवस्थित है। प्रतिमा भी स्थानांतरित हो चुकी है और वर्तमान में काले दोनो ओर गगा-यमुना और द्वारपाल अकित है। इनके पाषाण को वृषभ चिह्नाकित जटाधारी भगवान मादिनाथ ऊपर कोष्ठको मे जहाँ प्राय. मिथुन का अकन पाया जाता की जो प्रतिमा यहाँ विराजित है वह बाद मे स्थापित की है यहाँ उसका अभाव है। मिथुन की जगह यहाँ इन गई है। इस पर भी सवत् १२१५ का शिलालेख है। कोष्ठकों मे चतुर्भुजी शासन देवियो की उपस्थिति उल्लेख- इस प्रकार यह मन्दिर छोटा होकर भी अपने माप में नीय है। इन देवियो के आसन में हिरण, तोता, सिह स्थापत्य की अनेक विधानों को लिए हुए मध्यकालीन और बैल आदि वाहन भी बने है । देवियो के दोनों ओर कला का एक श्रेष्ठ उदाहरण है। एक सम्बोधक-पद कविवर रूपचन्द मानस जनम वृथा ते खोयो। करम करम करि प्राइ मिल्यौ हो, निच करम करि करि सुविगोयो ॥१॥ भाग्य विशेष सुधारस पायो, सो ल चरणनिको मल घोणे। चितामनि फक्यो वाइसको, कंजर भरि करि ईषन ढोयो ।। धन की तष्णा प्रोति वनिता की, भलि रह्यो वृष ते मुख गोयो। सुख के हेत विषय सब सेये, घृत के कारण सलिल विलोयो ॥३॥ माचि रह्यो प्रमाव मद मदिरा, प्रर कंदर्प सर्प विष मोह्यो। रूपचन्द चेत्यो न चितायो, मोह नोंद निश्चल हं सोयो ॥४॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिकचंद : एक भक्त कवि गंगाराम गर्ग एम० ए०, जयपुर जब रीतिकाल में स्वर्ण-लोलुप कवि सुरा और सुन्दरी भावो का स्थान गौण है। तीर्थडगे के जन्म-कल्याणक को अपना लक्ष्य बनाकर हिदी-काव्य-धारा को पंकिल कर उत्सवों के समय उनके हृदय मे वात्सल्य की स्थिति दृष्टिरहे थे और जिसकी कामुकता की भंवरों मे पड़कर मानव गोचर होती है किन्तु वह प्रायः सस्कृत और अपभ्रश के की जीवन-नौका दिशा-भ्रष्ट हो रही थी। उस समय उसे ग्रन्थों के अनुसार है, मौलिक कम । परमात्मा द्वारा चेतन सम्बलित कर सही दिशा में ले जाने के लिए जैन कवि के उद्बोधित किए जाने में ही जैन भक्तों का कहीं-कही ही मागे पाए। एक ने रीति-ग्रन्थो का अनुवाद करते हए सख्य भाव दिखाई देता है । माणिकचद के भी भक्तिपरक नायिकानों की नग्नता और विलासिता का वर्णन कर पदों मे दास्य और मधुर भाव की प्रधानता है। मनुष्य की कामुकता को उभारा तो दूसरे ने चरित्र-ग्रन्थों दास्य-भाव-माणिकचद अपने सेव्य का स्वरूप का अनुवाद करते हुए उसको नैतिक जागरूकता प्रदान अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख व अनन्त वीर्य से की; एक ने पार्थिव राजामों की झूठी प्रशस्तियाँ गा-गा युक्त, अविचल, अविकारी शान्त व परम दीप्तिमान् मानते कर स्वर्ण-राशियाँ बटोरी, तो दूसरे ने अपने प्राराध्य के है, जो जैन दर्शन के अनुसार ही है। भक्त ने केवल जैन चरणों में श्रद्धा-सुमन चढ़ाकर प्रात्म सुख को ही सर्वस्व दर्शन से ही न बधकर तीर्थङ्करों के स्वरूप में अपने दास्य समझा । मानव-जीवन की परस्पर विरोधी धारणाएँ भावानुकूल जगनायक और उद्धार-कर्तृत्व को भी स्थान समानान्तर होकर यदि साथ-साथ चली तो केवल रीति दिया हैकालीन काव्य में ही; एक धारणा के प्रतिनिधि थे बिहारी, "कहाँ जाउँ तज शरण तुम्हारो। कुलपति मतिराम और पद्माकर प्रादि दरबारी कवि तथा तुम शिव नायक सबके ज्ञायक शिव मारग दरशावनहारे । दूसरी के खुशालचन्द्र, जगतराम, अनन्तराम आदि जैन कवि । जग के देव सरागी जिन हमरे सब काज बिगारे । प्रष्ट कर्म तुम चूरि किये कीचक प्रादि अषम बहु तारे । माणिकचद भावसा का जन्म १९वी विक्रम शताब्दी के अन्त मे जयपुर मे हुआ था, जहाँ की भूमि को उनसे तुमरो ध्यान धरत सुर मुनि खग पहले जोधराज, बुधजन, नवल आदि प्रसिद्ध जैन कवि अपनी मानिक हृदयबसो भवि प्यारे॥ भक्ति-काव्य-धारा से रस-सिक्त कर चुके थे। उसी काव्य 'जिन' भगवान् के गुण-गान की अपेक्षा माणिकचद ने धारा को माणिकचद ने भी आगे बढ़ाया। उनका कोई अपने प्रवगुणों तथा कष्टो को उनसे अधिक व्यक्त किया अनूदित चरित्र-ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं हुआ; हाँ, बाबा है। वे कहते है, इन राग, द्वेष व भ्रमों ने मेरे समस्त कार्य दुलीचन्द भडार जयपुर के पद-संग्रह ४२% में उनके १८३ बिगाड दिए, हे अधम-उद्धारक ! इन्हें नष्ट कीजियेपद अवश्य प्राप्त हुए है। "श्री जिन म्हारी अरज सुनौ म्हाराज। माणिकचन्द की भक्ति-अपने पाराध्य के प्रति भक्ति हे त्रिभुवन सिरताज । प्रदर्शित करने के लिए प्राचार्यों ने चार भाव प्रमुखतः राग दोष भ्रम भाव जु मेरो होन न देय निज काज । माने हैं-वात्सल्य भाव, सख्य भाव, मधुर भाव और मैं चिर दुःखी भयो विषि बस करि मेटि गरीब निवाज । दास्य भाव । पांचवां भाव शान्त भाव इन्हीं में अन्तर्भूत तुम तो प्रथम अनेक उपारे तिन पायो शिवराज । माना जाता है। हिन्दी के जैन भक्तों के हृदय में प्रथम दो 'मानिक' चरण शरण गहि लीनों तुम्हीं को हमारी लाज ॥" Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणिक चंद : एक भक्त कवि २७६ 'मोह' शत्रु ने तो भक्त के प्रात्म-धन का अपहरण कर सताप तथा उद्धार के लिए पातुरता भी स्पष्टत. द्योतित उमे चिर-मतप्त बना दिया है, इसीलिए उसे शीघ्र ही है। 'जिन' भगवान् की शरण लेनी पड़ी भक्त मारिणक की सबसे बड़ी विशेषता है 'जिन' के हे मेरी विनती सुनों जिन राय । प्रति अनन्यता । जिनेन्द्र की वीतरागता, ज्ञान, प्र-क्रोध, मोह शत्र निज धन हरि के मोहि रक कियो भरमाय। भ्रम विनाश १ तथा भय और दुःख को दूर करके प्रधमों मैं चिर दुःखो भयो भव-वन में सो कछ कहो न जाय । का उद्धार करने की प्रवृत्ति प्रादि ऐसी विशेषताएं है जिनके अधम उधारक शिव सुखकारक सुनि जस प्रायो धाय॥ कारण भक्त को उनके अतिरिक्त दूसरा देव सुहाता ही नही, प्रत. उसने अपने को मन, वचन व कर्म से केवल 'पतित-उद्धार' जिन भगवान् का विरद है । नीचाति जिनेन्द्र का शरणागत व अय देवों का उपेक्षी बतनीच व्यक्ति भी कर्म-शत्रु से तभी तक पीडित रहता है लाया हैजब तक जिनेन्द्र उसकी ओर प्रवृत्त नहीं होते। माणिकचद प्रभुजी तुम्हारो हो मासरो मोहि और किसी सौं काम नहीं 'जिन' भगवान् को अपने उद्वार की ओर प्रवृत्त कराने के तुम नाम रटत संकट ज़ कटत अधकर्म मिटत हैं ततछिन हीं लिए वैष्णव भक्तों के समान उनके विरद का भी ध्यान भयभंजन रंजन मुक्त वधू दुख करि रांजन केहरि तुमही दिला देते है तुम अधम उधारण नाम सही यह कोरति तिहुजग छाय रही प्रभु तोरी हजूरियाँ ठाढ़ो। भवसागर से प्रभु पार करो 'मानिक' मन-वच-तन शरण गही एजी मैने तारण तरण सुन्यौं छ विरद थारो गाढ़ो। एजी थारी अनुपम शान्त छवी पं कोटि रवि वारो। ___ आदर्श दास्य भक्तों को अपनी भक्ति के फल-स्वरूप एजी तुम बिन भव वन के माही सहो दुख भारो। किमी भौतिक समृद्धि की अभिलाषा नही हुमा करती; एजी म्हानं कर्म शत्रु प्रति पीडे न्याव निरवारो। उन्हें कामना होती है केवल प्रादर्श अथवा अनुकरणीय एजी थे त्रिभुवन अंतरजामो प्ररज अवधारो। मानव बनने की। तुलसी ने स्वय को सन्त बना देने की एजी अब 'मानिक' को भववधि से हस्त परि निरवारौ। कृपा चाही थी२ । माणिकचन्द को भी जिनेन्द्र से इन्द्रिय दमन, देव, धर्म व गुरुयो का सेवन, कुगुरुग्रो का परित्याग माणिक जिनेन्द्र से अपना सम्बन्ध भी निकाल लेते प्रमाद का विनाश तथा शास्त्र व साधर्मियों के ससर्ग व हैं. वह पतित है जिनेन्द्र पतित पावन, दोनों का हित प्रात्म-चिन्नन की याचना ही अभीष्ट है पर पर निभर है। भक्तप्रवर तुलमान भा अपने निज हित माहोमवि लागना। आराध्य से उद्धार की प्रार्थना करते समय उनसे सम्बन्ध तेरो शत्र प्रमाव प्रबल है निश दिन ताों स्यागमा । निकालने की युक्ति सोची थी 'मैं पतित तुम पतित-पावन इनिय चाल चोर निज धन के तिनके मग नहि लागना। दोउ बानिक बने ।'१ 'जिन' भगवान् को भी पतित-पावन तत-पावन हित के कारण देव धर्म गुरु तिनसों नित प्रति पागना । कहलाने के लिए अपने सम्बन्धी भक्त का उद्धार करना प्रति देतगराविक परखिके दूरिहित तजि भागना। ही पड़ेगा जिन श्रुत साधर्मो सुसंगति 'मानिक' प्रभु ने मांगना । महारो दुख वेगि मिटाउ जगतपति अषम उषारण । माराध्य का गुण-गान, स्वदोपो का कथन, उद्धार की मोह शत्रु म्हार पंड परौ है निशिदिन करत दवाउ। प्रार्थना, भक्ति की अनन्यता व निष्कामता प्रादि विशेषम्हे तो पतित थे पतित जु पावन अपनो विरद निवाउ । 'मानिक' प्ररज सुनों करुगा करि परि को सग छडाउ। २. पद सग्रह ४२८, पृ० ४४, दुलीचद भडार जयपुर यहां 'म्हारो दुःख वेग मिटाउ' में भक्त का तीव २. कबहुँक ही यह रहनि रहोगे। श्री रधुनाथ कृपालु कृपा ते सन्त सुभाव गहोंगे। १. विनय-पत्रिका पद १६० -विनय-पत्रिका Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अनेकान्त तामों का अवलोकन करके माणिक को दास्य-भावना में तुलसी आदि के समकक्ष कहें तो प्रत्युक्ति न होगी। माधुर्य भाव-हिन्दी के वैष्णव-भक्ति साहित्य में माधुर्य-भाव का समावेश अधिकांशतः सत्रहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुमा; तदनन्तर माधुर्योपासक हरिदासी, निम्बार्क, राधावल्लभ, ललित, श्री प्रादि सम्प्रदायों की बाढ-सी पा गई और प्रचुर साहित्य का निर्माण हमा। जैन दास्यभावना में वैष्णव-भक्तों से समानता रखते हुए भी जैन'भक्तों का माधुर्य-भाव उनसे कुछ भिन्न है तथा अपेक्षाकृत प्राचीन भी । भिन्नताएं इस प्रकार हैं १. वैष्णव मधुर-भक्तों का पाराध्य अपनी मालादिनी शक्ति के साथ लीला-हेतु वृन्दावन अथवा साकेतधाम में अवतीर्ण होता है। जिनेन्द्र की न तो अपनी कोई आह्लादिनी शक्ति है और न वह लीला-हेतु अवतार ही लेता है । वह तो सामान्य जीवों की तरह इस जगत् में अपने ही विशिष्ट गुणों से एक महत्वपूर्ण स्थान पा गया है। २. वैष्णव-मधुर-उपासकों को राम अथवा कृष्ण का लोक-रंजक रूप ही मान्य है किन्तु जैन-भक्तों को जिनेन्द्र का सत्य, शिवं, सुन्दरम् का समन्वित स्वरूप, अतः जहाँ के वैष्णव भक्त पाराध्य के सौन्दर्य पर रीझकर उसे निरखते रहने की चाह करके रह गये हैं वहाँ जैन-मधुर-भक्तों ने जिनेन्द्र के लोक-मंगलकारी स्वरूप को भी अपने लिए अनुकरणीय माना है। ३. वैष्णव-भक्तों ने माधुर्य-भाव के तीन भेद किये हैं-गोपी-भाव, पत्नी-भाव व सखी-भाव । जैन मधुरभक्तों में केवल पत्नी-भाव ही परिलक्षित होता है। ४. वैष्णव भक्तों की मधुर-साधना मे अष्टधाम और वर्षोत्सव लीलामों के चित्रण मे लौकिक शृङ्गार की-सी बू पाती है। जैन मधुर-भक्तों को अपने पाराध्य के सयोग का अवसर ही न मिला, फिर अष्टधाम और वर्षोत्सव लीलाओं का वर्णन वे कहाँ से करते ? पाराध्य का सान्निध्य पाने के लिए विरह और तड़पन ही जैन मधुरभक्तों का जीवन है। ५. वैष्णव भक्तों व सन्तों ने अपने पाराध्य से सीधा ही माधुर्य सम्बन्ध स्थापित कर उसका संयोग-सुख लूटा अथवा उसके विरह में आँसू बहाये ; जैन कवियों ने जिनेन्द्र से अपना माधुर्य सम्बन्ध व्यक्त करने के लिए प्राय' सर्वत्र ही राजमती को माध्यम बनाया है तात्पर्य यह है कि राजमती विरह-वर्णन मे ही जैनभक्तों की मधुर-भावनाजन्य टीस, तडपन अभिव्यक्त है। माणिकचन्द के पद-संग्रह मे 'राजमती-विरह के रूप में कई ऐसे पद संकलित हैं जिनमें क्षण-भर भी प्रियवियोग को सहने की सामर्थ्य मागिकचन्द में परिलक्षित नहीं होती। अब क्यों बेर हो, जदुपति नेमिकुमार प्रभु सुनि । किवित सुख स्वप्नेवत बीत्यो अब दुःख सुमेर हो। मैं अनाथ मोहि साथ निबाहो अब क्यों करत अबेर हो। मानिक प्ररज सुनो रजमति प्रभु राखो घरननि लेर हो। भक्ति के अन्य भाव-वात्सल्य व सख्य-माणिकचन्द के पदो में नहीं दिखाई देते। अनेकान्त की पुरानी फाइलें अनेकान्त की कुछ पुरानी फाइलें प्रवशिष्ट हैं जिनमे इतिहास, पुरातत्त्व, वर्शन और साहित्य के सम्बन्ध में खोजपूर्ण लेख लिखे गए हैं जो पठनीय तथा सग्रहणीय हैं। फाइलें अनेकान्त के लागत मूल्य पर दी जावेगी, पोस्टेजखर्च अलग होगा। फाइलें वर्ष ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७ वर्षों की है। थाड़ी ही प्रतियां प्रवशिष्ट हैं। मंगाने की शीघ्रता करें। मैनेजर 'अनेकान्त' वोरसेवामन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८वें ईसाई तथा सातवें बौद्ध विश्वसम्मेलन की श्री जैन संघ को प्रेरणा कनकविजय जी महाराज [भनेकान्त के विगत अंक में प्राचार्यप्रवर तुलसी गणी के 'तीन सुझाव' शीर्षक निबन्ध से प्रनप्राणित होकर मुनि कनकविजय जी महाराज ने प्रस्तुत लेख की रचना की है। लेखक ने ३८ ईसाई और ७वें बौद्ध विश्व-सम्मेलन स्वयं देखे थे । उससे जैन संघ के प्रति उनकी जो अनुभूतियां जागृत हुई, उनका इस निबन्ध में सांगोपांग विवेचन है । इस सम्बन्ध में मुनि जी की विस्तृत जानकारी है। यह निबन्ध जैन संघ के प्रति उनकी श्रद्धा का घोतक है । प्राशा है कि जैन समाज के कर्णधार विचार करेंगे। लेख क्रमशः प्रकाशित होगा। -सम्पादक लेख को प्रेरणा पूर्ण ईसाई-बौद्ध-जैसे दो विश्व सम्मेलन हुए हैं। हर तीन सारनाथ वाराणसी में नवम्बर २६ से ४ दिसम्बर वर्ष मे हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक के कुम्भ के रूप १९६४ तक ७वां विश्व बौद्ध सम्मेलन जो हुआ था उसका मे तथा प्रति वर्ष माघ मेले के रूप मे धूमते-फिरते मैं बहुत समीप से दर्शक रहा हूँ। क्योंकि २८-११-६४ से विशाल हिन्दू सम्मेलन तो होते ही है, फिर भी चालू वर्ष ८-१२-६४ तक मैं सारनाथ मे ही रहा था। श्री जैन संघ के अप्रैल में विश्व हिन्दू सम्मेलन दिल्ली में होगा। इतना का मेरे पर इतना महान् ऋण है कि जो किसी तरह से ही नही सन १९६६ के माघ महीने में प्रयाग के पूर्ण कुम्भ उऋण न किया जा सकता। अतः उस सम्पूर्ण प्रसग के पर पुनः दूसरा विश्व हिन्दू सम्मेलन भी होने वाला है। प्रत्येक अनुभव से लेकर पाज तक मेरी दृष्टि के सामने इन सारे प्रेरणादायी प्रसंगो से श्री जैन सघ जैसा अत्यन्त बराबर श्री जैन संघ रहा है। एक हित चितक के रूप मे विचक्षण और बुद्धिमान संघ भी क्या कोई उपयोगी प्रेरणा श्री संघ की सेवा में कुछ लिखने की इच्छा तो थी ही, ले सकता है कि नहीं ? और यदि ले सकता है तो क्या किन्तु जैन सघ की वर्तमान कर्तव्य शून्य अवस्था को प्रेरणा लेनी चाहिए? यह विचारने के लिए ही यह लेख देखते हुए उसका अमल नही होता था। भावनगर, लिख रहा है। यद्यपि प्राचार्य श्री तुलसी गणी जी महाराज सौराष्ट्र से प्रकाशित होने वाले १६-१२-६४ के 'जन' मे अर्थात् तेरापंथी जैन समाज का अणुव्रत प्रादोलन तथा विद्वान् संपादकीय लेखक महानुभाव ने सामयिक स्फुरण मनि श्री सुशीलकुमार जी का अनेकों स्थान मे हुए विश्व में ईसाई विश्व सम्मेलन के सम्बन्ध मे जो कुछ लिखा, धर्म सम्मेलनों, श्री कामता प्रसाद जी जैन प्रादि के द्वारा वह पढ़ने के पश्चात् पुन. भीतर से उमि उठी, जिसकी संचालित विश्व जैन मिशन, अलीगंज, एटा मादि प्रवृपूर्ति ३-१-६५ के "जैन" मे प्राचार्य श्री तुलसी गणी जी तियाँ श्री जैन संघ के लिए गौरव रूप ही हैं, फिर भी महाराज का लेख "जैन समाज के लिए तीन सुझाव" इतना तो कहना ही पड़ता है कि उन प्रवत्तियो में जसा पढने के पश्चात निर्णय हया और उसी कारण से कुछ संगठन होना चाहिए. वसा नहीं हैं। प्रत' भारत तथा विलम्ब से भी श्री संघ की सेवा मे यह लेख लिख रहा है। ' विश्व में उतना समुचित प्रभाव भी नहीं पड़ता कि जिससे शास्त्रों का नहीं, जीवन्त अनेकान्तवाद चाहिए जंन सस्कृति का नाम उज्वल हो। बात तो यह होनी श्री जैन संघ की आँखों के सामने ही अत्यन्त महत्व- चाहिए थी कि संगठित जैन संघ की प्रेरणा विश्व की अन्य Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ अनेकान्त संस्कृतियाँ भी लेतीं । यदि ऐसा होता तो जैनियों का प्रने- मध्यभारत में बनाने की भी क्रिश्चियन सोसायटी की कान्त या स्यादवाद् जीवन्त है, ऐसा गिना जाता, किन्तु योजना है, जो बहुत जल्द शुरू होने वाली है। संसार में नहीं, विश्व के समग्र दर्शन तथा विचारधाराभों का समन्वय बर्तमान समय में 80 करोड़ ईसाई है। " करने वाला जैनियों का अनेकान्तवाद केवल पुस्तकों या ग्रंथों की ही शोभा बढ़ाने वाला है। जीवन मे उस महान् ईसा का मुख्य शिष्य सन्त पेत्रुस के दो सौ चौसठवे उत्तराधिकारी वर्तमान पोप अर्थात् सत पिता ज्होन छट्ठा अनेकान्तवाद का कोई विशेष उपयोग नही है और ऐसा पोलुस की उम्र ६७ वर्ष की है। उन्हीं को सेवकों के होने से ही जैनियों के छोटे-मोटे पेटा-उपपेटा सम्प्रदाय भी सेवक भी कहे जाते है। जो पोप का ही शब्दार्थ है। वे आपस में नहीं मिल सकते । मिलने की बात तो दूर रही, इटली में रोम के पास में बेटिकन में रहते हैं। उनका वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए भले प्रगट न सही, किन्तु विश्व भर में सबसे छोटा सार्वभौम स्वतन्त्र साम्राज्य है, गुप्त रूप से भीतरी कैपभाव भी उनमें विद्यमान हैं। जिसका क्षेत्रफल ६१६ माईल का है। उनका स्वतन्त्र जिसकी समय-समय पर जन-साधारण को भी प्रतीति सिक्का, पोलिस, पोस्ट विभाग, रेडियो स्टेशन आदि है। होती रहती है । जहाँ परिस्थिति यह हो, वहाँ प्रास्तिक १३हवी शताब्दी तक सारे युरोप पर पोप का प्राधिपत्य नास्तिक, ईश्वरवादी-अनीश्वरवादी प्रादि प्राचीन दृष्टि अर्थात् शासन था। रोमन कैथोलिक जनता पोप को भेदो का, तथा वर्तमान के साम्यवाद, समाजवाद, पूजी साक्षात् प्रतिनिधि मानती है। उनके पास में अपार धन वाद, सर्वोदयवाद प्रादि मानव जीवन की वर्तमान अनेक था, और वर्तमान में भी है । पोप की परम्परा ने धन का विध समस्याओं का समाधान करने वाली बातों का जीवन्त उपयोग जनता के ज्ञान, कला आदि के विकास के लिए समन्वय तो सम्भव ही कहाँ से हो? किन्तु अत्यन्त नम्रता भी किया है। भारत मे नालन्दा, तक्षशिला आदि प्राचीन से श्री संघ के सामने मैं इतना निवेदन अवश्य करूंगा कि विश्वविद्यालयों की तरह आक्सफोर्ड विश्वविद्यय, पेरिस वैसे जीवन्त अनेकान्त के बिना श्री जैन संघ की "सवी का विश्वविद्यालय आदि अनेकों विश्वविद्यालयों की पोप जीव करूँ शासन रसी" भावना केवल मनोराज्य की ही परम्परा ने स्थापना तथा वृद्धि की है। सन् १८७१ से भावना होगी। वर्तमान विश्व में वैसी काल्पनिक भाव प्रतिवर्ष १६ लाख रुपया मिलता है, किन्तु पोप के न लेने नामों का विशेष कोई मूल्य नहीं है। के कारण इटली के राज-भडार में जमा होता जाता है। श्री जैन संघ उपरोक्त दोनों सम्मेलनों में से क्या- दम इस प्रकार अब तक करोड़ों रुपया जमा हुआ है । २००० क्या प्रेरणा ले सकता है? उसका विचार तथा निर्णय वर्षों के इतिहास में पोप अर्थात सन्त पिता यूरोप में भी करने के पूर्व उन दोनों विश्व सम्मेलनों की कार्यवाही पर कदाचित ही बाहर गये हों। एशिया में तो सर्वप्रथम एक सरसरी निगाह डालें। यूरेरिस्टिक काग्रेस अर्थात् परमप्रसाद महासभा के ३८वें ३८वां विश्व ईसाई सम्मेलन, बम्बई अधिवेशन के लिए ही पाए थे, वह भी बम्बई के बड़े पादरी तथा कांग्रेस अध्यक्ष के अत्यन्त प्राग्रह के कारण भारत में सर्वप्रथम ईसाई प्रचार ६००ई० वर्ष पूर्व सेन्ट ही। वे केवल ३ दिन के लिए ही विशेष हवाई जहाज से थोमस द्वारा शुरु हुमा था। वर्तमान में १,२०,००,००० निजी राष्ट्र बेटीकन राज्य से भारत पाये थे। हवाई एक करोड़ बीस लाख करीब भारत में ईसाई है। वे जहाज को भीतर-बाहर से खूब सजाया गया था। पोप अधिकतर हिन्दू से ही ईसाई बने हैं। केरल प्रान्त प्राधा के दल में ७० सदस्य थे । पोप के केवल ३ दिन के बम्बई क्रिश्चियन है, नागालण्ड की चार लाख की आबादी में से के प्रोग्राम के लिए खास सफेद रंग की कार भी अमेरिका साठ प्रतिशत ईसाई हो गये हैं। मध्यभारत में जसपुर से फोर्ड कं० ने जहाज द्वारा भिजवाई थी, जो अमेरिका स्टेट के पास-पास में भी क्रिश्चियनों का बड़ा भारी प्रचार की ही किसी यूनिवर्सिटी ने पोप के लिए भेट की थी। चल रहा है। सम्पूर्ण एशिया में सर्वोत्तम विशाल चर्च पोप ने भी उसका केवल ३ दिन उपयोग करके भारत के Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ईसाई तथा सातवें बौड विश्व सम्मेलन को भी बन संघ को प्रेरणा ही ईसाई मिशन को भेंट कर दी। २००० पौण्ड का पोप के भारत भागमन पर तिब्बत के श्री दलाई विशाल घंटा भी स्टार्टम से स्विस जहाज में खास कांग्रेस लामा ने कहा कि "भारत में दो धर्मों का विश्व सम्मेलन के अधिवेशन के लिए पाया था। शुभ-सूचक है।" काची कामकोटि के श्री शराबार्य ने पोप जब हवाई जहाज से बम्बई प्राये, तब हवाई जनता से अपील की कि "पोप का अनादर न करें, शांति अड्डे पर १० लाख की जनता एकत्रित थी, ऐसा बम्बई रखें।" शारदापीठ, (द्वारका, सौराष्ट्र) तथा शृंगेरी पीठ के एरोड्रोम में इधर कितने वर्षों के इतिहास में नही हुआ के शकराचार्यों ने कहा कि "पोपपाल जैसे महामनीषि का था। उपराष्ट्रपति श्री जाकिरहसेन तथा प्रधान मन्त्री श्री भारत मे स्वागत सत्कार होना चाहिए।" विनोबा भावे लालबहादुर शास्त्री ने बम्बई जाकर श्रीयुत् पोप का स्वा- तथा श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी का जनता को गत किया था। राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन् भी पोप से शान्ति रखने का उद्बोधन महत्व का तो था ही। जैन मिलने के लिए ही हवाई जहाज द्वारा ३-१२-६४ को मुनि श्री सुशीलकुमार जी का उद्बोधन भी श्री जैन सघ के दिल्ली से बम्बई गये थे। श्री पोप को डेढ़ सौ (१५०) वर्ष गौरव को बढाने ही वाला था कि "पोप पाल का अनादर पुरानी खास बहुमूल्य काश्मीरी शाल भेट की गई थी। न करे ।" यह सब होने पर भी प्रार्य समाज, हिन्दू महापोप के भारत आगमन पर, भारत सरकार द्वारा पोष्ट के सभा आदि के द्वारा पोपपाल का विरोध भी हमा। टिकट शुरू करके पोप का स्वागत किया गया था। गोवा. परिणामतः कितनी गिरफ्तारियां भी हई। इतना होने पर दिल्ली, कोचीन, अहमदाबाद तथा कलकत्ता से बम्बई के भी पोपपाल ने भारत मे पाते ही उदार भाव से उन सब लिए ३ दिन की स्पेशल विमानो की सर्विस भी चालू हुई गिरफ्तार व्यक्तियो को छुड़ा दिया। और कहा कि "मैं थी। प्रतिदिन दर्जनों ने भी विभिन्न स्थानों से खास उनकी सेवा के लिए प्रस्तुत है।" पोप ने २४ हजार पौण्ड बम्बई के लिए चलाई गई थी। काग्रेस में सम्मिलित होने गरीबों के लिए दिया । ५०,००० रुपये का दान भारत के के लिए ३३ राष्ट्रो के प्रतिनिधि हजारो की संख्या में गरीब बालकों के लिए किया । गरीबों के लिए विश्वकोष बम्बई आये थे। विमान बम्बई के एरोड्रोम मे पहुँचते ही बनाने की भी विश्व को अपील की। अनाथ बालकों के विशाल जनसमूह को देखकर पोप ने हाथ जोड़कर जनता साथ में पोप ने स्वयं जलपान अर्थात् अल्पाहार भी किया। का अभिनन्दन स्वीकार किया। एक सभा की समाप्ति पर पोप को मिली हुई अनेक भेंटों में एक अन्ध व्यक्ति के स्वयं पोप ने 'जय-हिन्द' का नारा लगाया था। भेंट में उपहार को पोप ने सर्वाधिक महत्व का बतलाया था। पाये हुए रामायण और महाभारत को स्वीकार करते हुए पोप के जुलूम उत्सव प्रादि में अनेकों फोटोग्राफर फोटो पोप ने कहा था कि "महान् ग्रन्थों के रूप में ये दोनों लेने के लिए लगे हुए थे। उनमे श्री जोधामल नाम के महाकाव्य अत्यन्त मूल्यवान हैं।" ३-१२-६४ के दिन ६ एक फोटोग्राफर दुर्घटनाग्रस्त होकर मर गये। तब पोप ने विशिष्ट पादरियों की पवित्रीकरण क्रिया श्रीयुत् पोप ने जोधामल के परिवार को ५००० डालर की सहायता दी। कराई थी। लगभग ३०,००० तीस हजार पादरी बम्बई पोप ने महाराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल को, श्रीमती विजयमें सम्मिलित हुए। पोप के पास समय न होने के कारण लक्ष्मी पडित तथा श्रीमती इन्दिरा गाँधी प्रादि कितने पोप के खास प्रतिनिधि सेण्ट जेवियर्स की समाधि पर श्रद्धा ही विशेष व्यक्तियों को चाँदी का पदक तथा चाँदी के प्रकट करने के लिए विशेष विमान से गोवा गये थे। वहाँ फ्रेम में मढ़े हुए अपने फोटो भेंट दिए। पोप ने ३०० जाकर जनता के साथ प्रादर भाव व्यक्त करके पोप बम्बई नर्तकों के विशिष्ट भारतीय नृत्यों को भी देखा । पोप ने पाये थे । बम्बई की काग्रेस तथा तत्सम्बन्धित समारोहों अपने प्रवचनों में जनता को सम्बोधित करते हुए कहा, पर ८७ लाख से भी अधिक खर्च हमा। इस अवसर पर "जन साधारण में ईश्वर के प्रति निष्ठा होनी चाहिये, गवर्नमेंट की ओर से एक लाख बोरी सीमेंट की व्यवस्था मानव समाज को रेडियो, विमान प्रादि वैज्ञानिक प्राविकी गई थी। कारों से भी अधिक प्रावश्यकता प्रेम सौहार्द प्रादि की Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अनेकान्त . है। जिसके द्वारा मनुष्य दूसरे मनुष्य के समीप पहुँच स्वागत सत्कार तो हुना ही है किन्तु कितने स्थानों में सके।" बम्बई से अपनी राजधानी बेटीकन की भोर हवाई विरोध भी । श्री पी० के० हरिवंश द्वारा ६-१२-६४ के जहाज द्वारा जाते हुए विमान के ही रेडियो से भारत के दैनिक प्राज में 'भारत में पोप का स्वागत क्यों ?' श्री राष्ट्रपति के नाम सद्भावना सन्देश भी भेजा। क्योंकि भारतेन्द्रनाथ साहित्यालंकार द्वारा २२-११-६४ के दैनिक डा. राधाकृष्णन् पोप से मिलने के लिए ही विमान के प्राज में 'पोप की सेना का भारत पर हमला' । ४-१-६५ द्वारा दिल्ली से बम्बई गये थे। के दैनिक प्राज में 'मुसलमान ईसाई धर्म-प्रचार से विरुद्ध इस सारे प्रसंग में भारत के लिए कलंक रूप, भारत है । क्योकि ईसाई मुसलमानों को क्रिश्चियन बनाते हैं। का नैतिक जीवन भी कितना नीचा प्रा गया है? वह ६-१२-६४ के दैनिक माज में "यदि ईसाई हजरत किसी दर्शाता हुमा एक खास प्रसंग कहता है कि:-चोरी, बद मुस्लिम देश में अपना सम्मेलन करने का विचार भी करे माशी प्रादि दुर्घटनामों को रोकने के लिए गुप्तचर विभाग तो मजा पा जाय । सम्मेलन करना तो दूर रहा मुसलमान पूर्ण सक्रिय था। दो सौ से अधिक गुण्डे जेबकतरे (पाकेट प्रधान देश मे ईसाइयों को पैर रखने तक की अनुमति भी मार) बदमाश प्रादि को गिरफ्तार किया गया था। कहाँ नही मिल सकती । इत्यादि । प्राचीन भारत का गौरवपूर्ण प्रादर्श, नैतिक तथा प्राध्या- ईसाई विश्व सम्मेलन की प्रशस्ति करते हुए भावनगर त्मिक जीवन, जहां जन-साधारण भी खुले पड़े सोने या सौराष्ट्र से प्रगट होने वाले 'जैन' साप्ताहिक के विद्वान् तन्त्री जवाहरात के ऊपर दृष्टि नहीं करता था, वहाँ आज देव- ने पृष्ठ ७५३ पर लिखा है कि "अड़तीसवाँ विश्व ईसाई मन्दिरों की सम्पत्ति की रक्षा करनी भी प्रत्यन्त दुर्लभ है। सम्मेलन का यह प्रसंग हिन्दुस्तान में हुई एक महत्व की अाज तो भारत की सरकार भी नैतिक रीति से सहस्रा- घटना के रूप मे यादगार बन गया। पोप ने समय को ब्दियों से चली माती साधारण जनता को भी चोरी, परख कर बेटीकन में ही अवरुद्ध रहने की प्रथा मे परिवर्तन बेईमानी, छल, प्रपंच, कपट, दगा, धोखा आदि के दुखद किया । इतना बड़ा विश्व सम्मेलन भारत के लिए उदामार्ग पर बलात्कार धकेल रही है। जनसाधारण को भारत हरण रूप बन गया है । "वहाँ व्यवस्था अजब थी और का वर्तमान जनजीवन बिल्कुल असह्य हो रहा है। ज्ञानी शान्ति अपूर्व ।" तन्त्री श्री आगे चलकर लिखते हैं किभगवान ही जाने कि भारत की आध्यात्मिक सस्कृति की पतित, दलित, दरिद्र, दु.खी और रोगग्रस्त अज्ञान मानवरक्षा कौन ? कब ? कैसे करेगा? क्या किसी युग प्रधान समूहो को अपनाकर ही क्रिश्चियन धर्म विश्वभर में महा महापुरुष के प्रोगमन के मणकारे भारत के वायुमण्डल मे वट वृक्ष की तरह अपना विस्तार कर सका। यह बात बज रहे है। कभी भी भूलने जैसी नही है। अड़तीसवें विश्व ईसाई सम्मेलन का उल्लेखनीय अब अपन सातवे विश्व बौद्ध सम्मेलन की पोर पावे। (क्रमशः) स्व और पर को भिन्न करने वाला जो ज्ञान है वही ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान को प्रयोजन भूत कहा गया है । इसके सिवाय बाकी का सब ज्ञान प्रशान है। जिन भगवान् शुद्ध प्रात्मवशारूप शान्त हैं। उनको प्रतीति को जिन-प्रतिबिम्ब सूचन करती है। उस शांतदशा को पाने के लिए जो परिणति, अनुकरण अथवा मार्ग है उसका नाम जैन मार्ग है। इस मार्ग पर चलने से जैनस्व प्राप्त होता है। -श्रीमद् राजचन्द्र Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १-उपासकाध्ययन, मूललेखक-सोमदेव सूरि, सम्पादक ग्रन्थ के अन्त में शोलापुर निवासी ५० जिनदास अनुवादक ५० कैलाशचन्द सिद्धान्तशास्त्री, प्रधाना- शास्त्री द्वारा रचित सस्कृत टीका भी दे दी गई है। चार्य स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, प्रकाणक, जिससे सस्कृत पाठी भी यथेष्ट लाभ उठा सकते है। भारतीय ज्ञानपीठ काशी, पृष्ठ सख्या ६३९ । मूल्य सजिल्द प्रति का १२) रुपया। ग्रन्थ सम्पादक प० कैलाशचन्द शास्त्री ने अपनी ९६पृष्ठ की महत्वपूर्ण प्रस्तावना मे ग्रन्थ और ग्रन्थकार के विषय में प्रस्तुत उपासकाध्ययन सोमदेव मूरि के यशस्तिलक सुन्दर विवेचन किया है। पौर श्रापकाचार के मम्बन्ध में चम्पू के अन्तिम तीन प्राश्वास है । ग्रन्थकर्ता ने स्वय इन्हें तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया गया है। यदि श्वेताम्बरीय उपासकाध्ययन नाम से उल्लेखित किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ श्रावकाचागे से भी तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया ४६ कल्पो में विभाजित है। जिनमे श्रावको के प्राचार जाता तो और भी अच्छा होता। पूजा के सम्बन्ध में और उनसे सम्बन्धित विषयो पर युक्ति पूर्वक विचार वैदिक मान्यताम्रो का भी उलनेम्व किया है। एमे कटिन किया गया है। प्राचार्य सोमदेव अपने समय के प्रख्यात प्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करते हुए उसे मरल भाषा मे विद्वान् थे। वे तर्क, व्याकरण, सिद्धान्त, नीति और रखने का प्रयत्न किया है और भावार्थ द्वारा विषय को साहित्यादि विविध विषयो के अधिकारी बहुश्रुत विद्वान् स्पष्ट करने का भी प्रयाम किया है। इसके लिये वे बधाई थे। उनकी विद्वत्ता का परिचय उनकी कृति यशस्तिलक के पात्र है। ऐसे मुन्दर सपादन प्रकाशन के लिए भारतीय चम्पू से मिल जाता है। यह उच्चकोटि की रचना है। ज्ञानपीट और उसके प्रधिकारीगण धन्यवाद के पात्र है। इनका समय शक म०८८१ (वि० स० १०१६) है। २-- सत्यशासन परीक्षा--ग्राचार्य विद्यानन्दि, सम्पादक कर्ता ने उस काल में होने वाली दार्शनिक प्रवृत्तियो का आलोचन किया है और वस्तुतत्त्व को दर्शाने का सफल प्राचार्य गोकलचन्द जैन एम. ए, प्रकाशक भारतीय प्रयास किया है। साथ ही दर्शनान्तरीय मतो का युक्ति ज्ञानपीठ काशी, मूल्य मजिल्द प्रति का ५) रुपया। पुरस्सर निरसन भी किया है, और जैन वस्तु-नत्त्वका- जैन परम्पग में प्राचार्य विद्यानन्द का स्थान प्रवनक प्राप्त प्रागम और पदार्थ का सुन्दर विवेचन किया है। देव के पश्चात् ही पाना है । उनकी अष्टमहनी, नत्यार्थ क्षा पूजा और पूजा के प्रकारों का जितना सुन्दर वर्णन इस श्लोक वानिक, ग्राप्नपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, प ग्रन्थ में पाया जाना है वमा अन्यत्र देखने में नहीं पाया। प्रादि कृतियाँ जैन दशन की ही नही किन्न भाग्नीय और जैन श्रावकाचार की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए दर्शन को अमूल्य निधि है। वे उच्चकादि के भान् गद्य-पद्य मे विस्तृत विवेचन किया है। उनमे अनेक बातो दार्शनिक विद्वान् थे। उनको कोटि के दागानक विद्वान् का वैसा सुन्दर वर्णन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। ग्रन्थ भारतीय परम्पग में बहन ही कम हा है। उनकी पति का यह माङ्गोपाङ विवेचन हृदयग्राही हा है। कर्ता ने अभी तक अप्रकाशित थी, प्रथम बार ही उन । प्रकाशन लौकिक कार्यों के करने की सुन्दर सीमा का उल्लेख करते हुया है । प्रति अपूर्ण है-उसकी पूर्ण प्रनि अभी तक हुए अच्छा पथ-प्रदर्शन किया है। कही उपलब्ध नहीं हो सकी। सर्व एव हि नाना प्रमाण लौकिको विधिः । प्रस्तुत ग्रन्थ में पुरुपाद्वैत, शब्दात, विज्ञानाद्वंत, यत्र सम्यक्त्व हानिनं यत्र न व्रतद्रूपणम् ॥ चित्रात इन चार प्रदान गामनो की तथा चार्वाक, बौद्ध इस प्रकार का विधान अन्यत्र नहीं मिलता। सेश्वरसाख्य, निरीश्वर साख्य, नैयायिक, ५ अगिक, भाट्ट Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और प्रभाकर शासनों की परीक्षा की गई हैं। तत्त्वोपप्लव प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड, वाराऔर अनेकान्त शासन की परीक्षा अनुपलब्ध है। मूलग्रन्थ एसी, पृष्ठ संख्या २१०, मूल्य ८) रुपये। ४७ पृष्ठों में समाप्त हुआ है । अन्त में १३ पृष्ठों के परि- प्रस्तु ग्रन्थ संस्कृत भाषा का पद्यमय ग्रन्थ है, पद्य शिष्ट है । प्रारम्भ मे जैन प्राकृत वैशाली इन्स्टीट्यूट के प्रायः अनुष्टुप है। अन्य पांच प्रस्तावो में विभक्त है। मंचालक डा. नथमल टांटिया की अग्रेजी प्रस्तावना है। ग्रन्थ में महान् विद्या प्रचारक मालव नरेश का जो विद्वानों उसके बाद सम्पादक की प्रस्तावना है, दोनों पृष्ठ संख्या का सन्मानदाता था। और जो सस्कृत भाषा का अच्छा ३८ और ३४ है, दोनों प्रस्तावनाएँ अपने में महत्वपूर्ण हैं। विद्वान् कवि था, उसकी राजसभा मे अनेक विद्वान रहते डा. टाटिया ने अपनी प्रस्तावना मे चित दर्शनों के थे। जो कोई विद्वान नवीन श्लोक बना कर राजा भोज सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है और प्रारम्भ मे डाक्टर को सुनाता था, तब भोज उसे बड़ा पारितोषक प्रदान माहब ने समन्तभद्र और सिद्धसेन के सम्बन्ध मे भी कुछ करता था। यदि कोई विद्वान दरिद्र होता था तो वह लिखा है । ५० सुखलाल जी सघवी समन्तभद्र को सिद्ध- प्रचुर द्रव्य देकर उसकी दरिद्रता भी दूर कर देता था। सेन और पूज्यपाद के बाद का विद्वान मानते है। डा० राजा भोज की विद्या-बद्धिनी प्रवृत्ति पर भोज प्रबन्धादि टाटिया ने भी उसी का अनुसरण किया है। जब एक दृष्टि अनेक ग्रन्थ लिखे गये है। इससे स्पष्ट है कि राजा भोज कोण बना लिया जाता है, भले ही वह गलत हो, तो भी विद्वानो को कितना प्रिय था। वह उनके प्राश्रयदाता उसके अनुकूल साधन सामग्री जुटाने का यत्न किया जाता के रूप में प्रसिद्ध रहा है। इसी से विद्वानों ने भोज है। प्राचार्य समन्तभद्र के सम्बन्ध मे भी एक वर्ग ने चरित्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे है। उनमे प्रस्तुत ग्रन्थ भी एक अपना ऐसा ही दृष्टिकोण बना लिया है और वह उसी है, जो जैन कवि राजवल्लभ द्वारा रचा गया है। की पुष्टि मे लगा हुमा है । इस पर यहा कुछ लिखना मप्रा- जिसमें भोजराज की पठनीय जीवनचर्या सगृहीत है। सगिक होगा, प्रतः फिर कभी इस गलत धारणा पर लिखने प्रस्तुत भोज चरित्र की एक बड़ी विशेषता यह है कि यह का यत्न किया जावेगा। निष्पक्ष ऐतिहासिक दृष्टि से केवल चरित्र ही नही है किन्तु इसमे दिये गये अनेक उनकी यह कल्पना सम्मत नही कही जा सकती, उसका विवरण साहित्य पुरातत्त्व की जाच मे सही निकलते है। पहा उल्लेख करना भी उचित न था। इसी से इस काव्य की ऐतिहासिक महत्ता है। श्री गोकुलचन्द जी का यह प्रथम सम्पादन कार्य है। सम्पादकों ने ग्रन्थ का सम्पादन बड़ी कुशलता से किया प्रथम प्रयास में ही उनकी सफलता बधाई के योग्य है। वे उदीयमान लेखक तथा सम्पादक है। उनसे समाज को है। और प्रस्तावना मे उसके प्रतिपाद्य विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है। सं० १४६८ की प्रति को कर्ता के बड़ी प्राशाएँ है । इस सुन्दर प्रकाशन के लिए भारतीय काल की अन्तिम अवधि मान ली है महत्त्वपूर्ण अग्रेजी ज्ञानपीठ धन्यवाद की पात्र है। प्रस्तावना, नोट्स तथा परिशिष्ट भी दिये है। उसमे ग्रन्थ ३-भोज चरित्र-लेखक श्री राजवल्लभ, सम्पादक डा. व कथा का सक्षिप्त परिचय और श्लोको का भाव स्पष्ट बी. सी. एच छाबड़ा एम ए., एम प्रो. एल., पी. करने के लिए तथा उसके कर्ता के सम्बन्ध की समस्त ज्ञातव्य एच. डी. एफ. ए. एस. ज्वाइण्ट डायरेक्टर जनरल बातों का विद्वत्तापूर्ण रीति से विवेचन किया है। इस डया तथा एस. शकर नारा- सुन्दर प्रकाशन के लिए सम्पादक और भारतीय ज्ञानपीठ, यणन एम. ए. शिरोमणि, असिस्टेण्ट सुपरिन्टेण्डेट के संचालक धन्यवाद के पात्र है। फार एपिग्राफी। -परमानन्द शास्त्री Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के मत्तरहवें वर्ष की विषय-सूची ८२ ४५ ५३ प्रजीमगंज भंडार का रजताक्षरी कल्पसूत्र जैनदर्शन और पातजल योगदर्शन -भवरलाल नाहटा १७८ -साध्वी मघमित्रा जी अनेकान्त और अनाग्रह की मर्यादा जैनदर्शन मे सप्तभगीवाद . -मुनि श्री गुलाबचन्द जी १२७ -उपा० मुनि श्री अमरचन्द जी २५३ अपभ्र श का एक प्रमुख कथा-काव्य जैनधर्म तर्क सम्मत और वैज्ञानिक -डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री -मुनि श्री नगराज अपभ्रश का एक प्रेमाख्यानक काव्य'विलासवईकहा । जैनधर्म में मूति-पूजा-डा० विद्याधर जोहरा पुरकर १५५ -डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री जैनभघ के छ अग--डा० विद्याधर जोहरा पुरकर २३१ अयोध्या एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर जैनसन्त भ. वीरचन्द्र की साहित्य-सेवा । - -डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल -परमानन्द जैन शास्त्री जैन-साहित्य में प्रार्य शब्द का व्यवहार अर्हत्परमेष्ठी स्तवन-मुनि पद्मनन्दि आकस्मिक वियोग -साध्वी श्री मजुला जी प्राचार्य भावसेन के प्रमाण विषयक विशिष्ट मत जो देता है वही पाता है -प्राचार्य तुलसी जैन समाज के समक्ष ज्वलत प्रश्न -डा. विद्याधर जोहरापुरकर २३ ३८वे ईमाई तथा ७वे बौद्ध विश्व सम्मेलनों की -कुमार चन्द्रसिह दुधौरिया कलकत्ता १८६ थी जैन संघ को प्रेरणा-मुनि कनकविजयजी २८१ तृता तृतीय विश्वधर्म मम्मेलन-ड्रा० बूलचन्द जैन २३६ तेरहवी-चौदहवी शताब्दी के जैन सस्कृत महाकाव्य और आँसू ढुलक' पडे (मार्मिक कहानी) डा० श्यामशकर दीक्षित एम. ए --डा. नरेन्द्र भानावत १७५ दलपतराय और उनकी रचनाएँ कलकत्ता में महावीर जयन्ती -डा० प्रभाकर शास्त्री एम. ए. कल्पमूत्र . एक सुझाव दशवकालिक के चार शोध-टिप्पण -कुमार चन्दमिह दुधौरिया -मुनि श्री नथमलजी कविवर भाऊ की काव्य-साधना दिगम्बर कवियो के रचित वेलिमाहित्य डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल __--श्री अगरचन्द नाहटा कावड एक चलता-फिरता मन्दिर दिग्विजय (पेनिहामिक उपन्यास) -महेन्द्र भानावत -पानन्द प्रकाश जैन जबूप्रमाद जैन २५ कविवर रइधू रचित सावय चरिउ दिल्ली पट्ट के मूल सघी भट्टारकों का समय क्रम । - -श्री अगरचन्द नाहटा डा. ज्योतिप्रसाद जैन ५४, १५६ खजुराहो का प्रादिनाथ जिनालय-श्री नीरज जैन ३७५ दूसरे जीवों के साथ अच्छा व्यवहार कीजिए गेही पै गृह में न रचे (कहानी) शिवनारायण सक्मेना एम ए -प० कुन्दनलाल जैन एम. ए. १२४ देवतामों का गढ, देवगढ-श्री नीरज जी सतना २६७ जगतराय की भक्ति-गगाराम गर्ग एम. ए. - १३३ वही मगलमय है-प्रशोक कमार जैन जिनवर स्तवनम्-पद्मनन्द्याचार्य ४६ धर्म स्थानों में व्याप्त मोरठ की कहानी जैनग्रन्थे प्रशस्ति सग्रह पर मेरा अभिमत -महेन्द्र भानावत एम. ए. -प० दरबारीलाल कोठिया ३३ ध्यान-डा. कमलचन्द सोगाणी जैनदर्शन और उसकी पृष्ठभूमि नया मन्दिर धर्मपुरा दिल्ली के जैन मूर्ति लेख -१०कैलाशचन्द जैन शास्त्री १४७ -परमानन्द जैन शास्त्री १०७ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ २१७ ११८ नन्दि संघ बलात्कारगण पट्टावली रतनपद और उनका काव्य-गंगाराम गर्ग एम.ए. १८० -परमानन्द जैन शास्त्री " ३५ राजस्थानी भाषा का प्रध्यात्म गीतनिमिनाह चरिउ-श्री अगरचन्द नाहटा २२६ बघेरवाल जाति-डा० विद्याधर जोहरापुरकर ६३ पं. जवाहरलाल नेहरू क्या थे? ५० वाग्भट्ट के मंगलाचरग का रचयिता पल्लू ग्राम की प्रतिमा व अन्य जन सरस्वती प्रतिमाएं -श्री क्षुल्लक सिद्धसागर ૨૪ -श्री धीरेन्द्र जैन ५७ विश्वमंत्री-डा. इन्द्रचन्द्र जैन १०३ प्राचीन मथुग के जनों की सघ व्यवस्था शब्द साम्य और उक्ति साम्य-मुनि श्री नगराज १०० -डा. ज्योतिप्रसाद जैन श्री शम्भव जिन स्तुति-समन्तभद्राचार्य १४५ बह्म जीवघर और उनकी रचनाएँ शातिनाथ स्तोत्रम्-पद्मनंदाचार्य -परमानन्द जैन शास्त्री १४. शान्ति और सौम्यता का तीर्थ कुण्डलपुर भगवान महावीर (कविता)-वमन्त कुमार जैन ७२ -श्री नीरज जैन भगवान महावीर के जीवन प्रसग शोध-कण-परमानन्द जैन शास्त्री १६६ -मुनि श्री महेन्द्रकुमार प्रथम १७ शोध टिप्णभट्टारक विजय कीर्ति-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल ३०८.१ प्रागमों के पाठ भेद और उनका मुख्य हेतु भव्यानन्द पचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद -मुनि श्री नथमल -मुनि श्रीकान्ति सागर ८३ २. राजा श्रीपाल उर्फ ईल भारतीय दर्शन की तीन धाराएँ -प० नेमचन्द्र धन्नूसा जैन १२० -भगवानदास विज एम. ए. ७ ३. अनार्य देशो मे तीर्थकरों और मुनियो का विहार भारतीय संस्कृति में बुद्ध और महावीर -मुनि श्री नथमल -मुनि श्री नथमल १६५ ४. द्रोणगिरि-डा० विद्याधर जोहरापुरकर भीतर और बाहर (कविता)-भूधरदास १९४ श्रद्धाजलि-टाइटल पेज मन्दिरों का नगर मड़ई-श्री नीरज जैन सतना ११७ श्री पद्मप्रभ जिनस्तवन-समन्तभद्राचार्य मगध और जैन सस्कृति-डा. गुलाबचन्द एम ए. २१२ श्रीपुर में राजा ईल से पूर्व का जैन मन्दिर महाकोशल का जैन पुरातत्त्व-बालचन्द जैन एम. ए. १३६ नेमचन्द धन्नूसा जैन २४५ महापंडित आशाधर-व्यक्तित्व एव कृतित्व श्री शम्भव जिन-स्तुति-समन्तभद्राचार्य १४५ -प० अनूपचन्द न्यायतीर्थ ६७ श्री सुपाश्र्व जिन-स्तवन-समन्तभद्राचार्य २४१ महावीर का गृह त्याग-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल १६ संत श्री गुणचन्द-परमानन्द शास्त्री १८६ माणिकचन्द : एक भवन कवि-गगराम गर्ग एम.ए. २७८ संवेग-मुनि श्री नथमल जी १५७ मोक्षमार्ग की दृष्टि से सम्यग्ज्ञान का निरूपण समयसार नाटक-डा. प्रेमसागर २०२ -पं० सरनाराम जैन बड़ौत १८२ समर्पण (कविता)-स्व. बाबू जयभगवान मोक्ष शास्त्र के पाचवे अध्याय के सूत्र ७ पर विचार सम्यग्दृष्टिकाविवेक ५९ -पं० सरनागम जैन बड़ौत १० सर्वोदय का अर्थ-प्राचार्य विनोबा भावे यज्ञ और अहिसक परम्पराएं-प्राचार्य श्री तुलसी २६६ साहित्य-समीक्षा-डा. प्रेमसागर ४८, ६६, १९२ युगपुरुष की भाग्यशालिता-काका साहब कालेलकर ५१ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री ९६, १४४, २२५ रिइधू कृत.'सावय चरिउ' समत्तकउमइ ही है - होयसल नरेश विष्णु वर्धन और जैनधर्म -प्रो. राजाराम जी जैन एम. ए. २५० पं० के भुजबली शास्त्री २४२ १२२ १२३ आपण Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री कान्तिसागर के पत्र का महत्त्वपूर्ण अंश "अनेकान्न मुझे यथा समय मिल जाता है । इसमें कोई सन्देह नही कि अब अापने इसका स्तर बहुत ही ऊंचा कर दिया है। निबन्ध पठनीय और स्थायी शोध की सामग्री प्रस्तुत करते हैं। जैन समाज का यह शोध प्रधान पत्र विद्वत्समाज का मार्ग दर्शन कगता रहे, यही कामना है। मै भी यथा समय कुछ न कुछ भेजता रहूंगा।" वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता | १५०) श्री चम्पालाल जो सरावगी, कलकता १०००) श्री देवेन्द्र कुमार जैन, ट्रस्ट, १५०) , जगमोहन जी सरागी, कलकत्ता श्री सातु शीतलप्रसाद जी, क्लकत्ता १५०) , कस्तूरचन्द जी प्रानन्दी नाल कलकता ५००) श्री रामजीवन संगवगी एण्ड सस, कलकत्ता १५०) , कन्हयालाल जी सीताराम, कलकत्ता - ५० ) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०), प. बाबुलाल जो जैन, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाय जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०) । प्रतापमल जी मदन लान पाइया, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जो पाटनी, कलकत्ता २५१) श्री रा. बा० हरखचन्द जो जैन, राची १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडया), कलकत्ता १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्र नाथ जा कलकत्ता २५१) श्री सं० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , मारवाडी दि० जन समाज, व्यावर २५१) श्री सेठ सोहनलाल जो जैन, १०१) , दिगम्बर जैन समाना, केकड़ी मैसर्स मुन्नालाल द्वारकावास, कलकत्ता १०१) , सेठ च दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं०२ २५१) श्री ल.ला जयप्रकाश जी जैन १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागज दिल्ली स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी १०१) ,, सेठ भवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल २५०) श्री मोतीलाल हीराव-व गांधी, उस्मानाबाद १०१) , शान्ति प्रसाद जो जन २५०) श्री बन्शीचर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता जैन बुक एजेन्सी, नई दिल्ली १५०) श्री जुगमन्दरदास जी जैन, कलकता. १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्डया झमरीतलया २५.) श्री सिंघई कुन्दनलाल जो, कटनी १००) ,, बद्रीप्रसाद जो प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री महावीरप्रसाद जो अप्रवाल, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. प्रार० सी० जैन, कलकत्ता १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या २५०) श्री.रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता | १००) , बाबू नपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थराज श्री सम्मेद शिखर पर विहार सरकार का पक्षपात पूर्ण रवैया सम्मेदशिखर जैनियो का अत्यन्त पवित्र तीर्थ क्षेत्र है, इसे दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही पूज्य मानते है। समस्त टोके दिगम्बर माम्नाय की प्रतीक है। श्वेताम्बर समाज ने जमीदारी अधिकार छिन जाने पर भारतीय जैन समाज के नाम से पान्दोलन किया पौर कानूनी कार्यवाही भी की। पत्र व्यवहार तथा प्रतिनिधि मण्डल भेज कर मैमोरेण्डम प्रादि देकर तीर्थराज को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न किया। परिणाम स्वरूप सन् १९६४ मे भारत सरकार के रवैये मे कुछ परिवर्तन प्रतीत हुआ। भारतवर्षीय दि. जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी ने १८ अक्टूबर सन् १९६४ को विहार सरकार के मुख्य मत्री को एक ज्ञापन (मेमोरेण्डम) दिया कि तीर्थराज के सम्बन्ध में जो भी नया कदम उठाया जावे उसमें दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायों को समानता दी जाये । इस पर उनका प्राश्वासन भी प्राप्त हुआ । किन्तु हमें दुख है कि ३ फर्वरी १९६५ को विहार सरकार ने अपने प्राश्वासन पर ध्यान न देते हुए जैनियो के परम पुनीत इस तीर्थ राज को श्वेताम्बर सम्प्रदाय के एक भाग केवल मूर्तिपूजक श्वेताम्बरो से एग्रीमेन्ट कर उन्हे अधिकार मौप दिया, जिससे समस्त दिगम्बर जैन समाज में अत्यन्त क्षोभ है।। दिगम्बर समाज देशभक्त और शान्ति का प्रचारक है। उसके द्वारा सदैव ऐसे कार्य सम्पन्न हुए है, जिनसे वातावरण मधुर बना रहे। परन्तु धार्मिक अधिकारो पर आघात मानव जीवन पर एक महान् प्रहार है। विहार सरकार के इस पक्षपातपूर्ण रवैये ने दिगम्बर समाज मे आतक पंदा कर दिया है। जिससे समाज मे अशान्ति उत्पन्न हो गई है। प्रत्येक जैन अपने धार्मिक अधिकारो का संरक्षण जीवन का परम कर्तव्य मानता है। वह चाहता है कि समस्या शान्तिपूर्ण ढङ्ग से सुलझ जाये। सौभाग्य की बात है कि हमारे राष्ट्रपति महान् सन्त धर्मज्ञ और दार्शनिक हैं। समाज की दृष्टि उनकी ओर है। यदि वे हमारे धार्मिक अधिकारी की ओर ध्यान दे, तो समस्या आसानी से सुलझ सकती है। विहार सरकार ने मूर्तिपूजक श्वेताम्बर समाज से जो एग्रीमेण्ट किया है, वह सर्वथा एकांगी और अनुचित है। दिगम्बर समाज के अधिकारों पर कुठाराघात है। हमें पूर्ण प्राशा है कि विहार सरकार अन्यायपूर्ण एग्रीमेण्ट को वापिस ले लेगी। दिगम्बर जैन समाज का कर्तव्य है कि वह विहार सरकार के अन्यायपूर्ण उक्त निर्णय का विरोध कर शक्तिशाली कदम उठाये पौर तीर्थराज पर अपने अधिकारों की रक्षार्थ सर्वस्व अर्पण के लिए तय्यार रहे। और दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के आन्दोलन में पूर्ण सहयोग देते हुए अपने सामाजिक संगठन को और भी अधिक मजबूत बनाये। -प्रेमचन्द जैन सं० मन्त्री वीरसेवा-मन्दिर प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीर सेवामन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज दिल्ली से मुद्रित । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- _