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________________ भधानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद करण में कहीं भी शैथिल्य नहीं आने दिया है। सीमित की भी प्रतियां मिली है । सुना है जयपुर के एक दिगम्बर ग्थान में दूसरे के भावों को रक्षा करना सरल कार्य नहीं जैन भंडार में इसकी पूरी चित्र प्रति द्यिमान है। पर है। भव्यानंद पंचाशिका के अतिम पद्य से ज्ञात होता है वह अपेक्षाकृत अर्वाचीन है। जिस “भयानंदपंचाशिका'' कि कविने एक-एक पद्य का अनुवाद एक-एक दिन में किया का यहां उल्लेख किया जा रहा है उसकी पूर्ण प्रति निय है । इसमें ४८ काव्य तो मूल भक्तामर स्तोत्र के हैं और है। अतः चित्र कला के इतिहास की दृष्टि से, विशेषकर दो पचों में अपने विषय में स्वल्प संकेत है जिस से पता स्यौपुर-ग्वालियर मंडल के चित्रों की दृष्टि से, इसका लगता है कि कवि के पिता का नाम राजनंद था और वह महरव कम नहीं। शाहजहां कानिक चित्रकला का मफल ग्वालियर मंडलात म्पापुर के निवामी थे। उनका गोत्र प्रतिनिधित्व इन चित्रों द्वारा होता है । इसका चित्रण समय गोलापरब था। म्योपुर की मंभवतः प्राचीन रचनाओं में यही मं. १६६४ है और चित्रकार है मनोहरदाय कायस्थ । प्रथम जान पड़ती है। धनराज या धनदास का परिवार संस्कृत चित्रमय यह प्रति कविने स्वयं अपने लिए तैयार करवाई साहित्य में रुचि रखता था। क्यों कि खगसन-असिसन ने थी जैसा कि अन्तिम उल्लेम्व से प्रतीत होता है। प्रति के इसके परिवार का विस्तत परिचय "भक्तामर जयमाल" की सम्पूर्ण चित्रों का परिचय देना तो यहां संभव नहीं है, पर अन्न्य प्रशस्ति में दिया है। यहां स्पष्ट करना आवश्यक हो साधारणतया किचन मंकेत दिया जा रहा है। जान पडता है कि भक्तामर की जो प्रति मिली है उसके प्रति का प्राकार-प्रकार लगभग चतुर्दिग १५ इंच है। एक-एक पद्य का अनुवाद तो धनराज ने किया और उसके परे पत्र पर चित्र अंकित हैं। मध्य में जहां कहीं भी म्वरूप एक-एक पद्य पर अमिसेन-बड़गसन ने १९.१६ पद्यों की स्थान मिला वहां भक्तामर का मूल पद्य प्रति लिपित है एक-एक जपमाल संस्कृत भाषा में परिगुम्फित की, परन्तु और अधोभाग में धनराज का अनुवाद दिया है। बाद में प्रनि के जरिन हो जाने में उसका संपूर्ण पाठ नहीं मिल असिसेन-खड़गमेन कृत "भक्तामर जयमाल, अंकित है। मका है । बडगमन ने सूचन किया कि धनराज के गोशाल, कहीं चित्रों के भावों के अधिक स्पष्ट करने लिए मंकनापाहिब, हंसराज अादि पांच बंधु थे, जिन में धनराज । मक प्रतीक दिये गये हैं। एक चित्र के पूरे परिचय देने का "पा म ये कवि/र धनगजो गुणालयः" लोभ संवरण नहीं किया जा सकता। अन कव और धीर होने के साथ अनेक गुणों का पाकर प्रथम चित्र में ऊपर के भाग में श्री मान गावार्य एक या। म्वइगमन धनगज के पितृव्य श्री जिनदाय का पुत्र चौकी पर विराजमान हैं जिनके सम्मुम्ब कमगदुल अम्बिन भा. -जिनदाय मुतोऽमिसेनः । है। पृष्ठभाग में "अहं मानतुगाचार्य' शब्द अकित है। निग्र.-यहां यह कहने की कदाचित ही आवश्यकता प्राचार्य करबद्ध प्रार्थना की मुद्रा में भगवान ऋषभदेव की रह जाती है कि जनों ने भारतीय ग्रंयस्थ चित्र कला स्तुति कर रही है। सामने ही इनकी बदगामनम्ब नगन विकास में महत्वपुर्ण योग दिया है । बल्कि म्पष्ट कहा जाय प्रतिकृति अंकित है। चरणों में उभय और मुकुटधाग नो प्राचीननम एतद्विषयक जो भी प्रतीक उपलब्ध हुए है, अमर नत मस्तक है । मध्य में “ननामग्मगानमोनिमाण लगभग जनों के ही हैं। नव्य-भव्य विचारों को रूपदान देने प्रभाणां" शब्द प्राले ग्वन है। ऋषभद. ६. बा। हाय र में हमी समाज ने पहन की ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण पाम । देवताओं क मम्नक में धारित मुकूट की मणियों की न होगा। जिस प्रकार पुरातन कथायों के मार्मिक भावों को प्रभा विग्वर रही है। प्रकाश का पालम्बन गजय का है। चित्र द्वारा समझाने का प्रयत्न हुअा है उसी प्रकार अपने ऋषभदेव के चित्र के बाप भाग में चीगति का चित्रणा । प्रिय प्राराथ्यों की स्तुतिमूलक रचनाओं को भी चित्रित और ऊपर "मालंबन" म निम्न भाग में भवजन्ले करवा करवा कर जनों ने अपनी कलोपासना का भली-भांति पनितां जनानां' प्रनिलिपिन है । पत्र के नीचे के भाग में दलिन मुपरिचय दिया है। कल्याणमंदिर प्रादि स्तोत्रों की प्राचीन पापनमायिनानम लिनकर काल कग में समुद्र बनाया गया यचित्र प्रतियां मिल चुकी हैं। कतिपय भक्तामर म्नांत्र है जिम में एक मानवात तरती हुई बनाई।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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