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________________ ८४ अनेकान्त म्पष्ट है कि श्रमण संस्कृति संयोग में विश्वास नहीं करती, इसकी समता नहीं कर सकता। जैन साहित्य में यही एक यह वियोग के गीत गाती है-वह मृत्यु महोत्सव मनाती है या स्तोत्र है जिस पर विभिन्न विद्वानों की लगभग ३६ जो जीवन का पूर्व रूप है । ऐहिक सुखोपलब्धि का जैन से भी अधिक टीकाएं उपलव्य होती हैं। इनके मार्मिक संस्कृति में स्थान नहीं है । स्याग और वैराग्यमूलक वीतरा- महत्व को प्रकट करने वाली अनेक कथाएं, मंत्र, यन्वादि गत्व ही वहां का काम्य है। जैन स्तुति साहित्य में इसी की प्रचुर परिमाण में प्राप्त हैं। पादपति माहित्य में इस स्तोत्र ध्वनि गूमती है। जैन भक्ति व्यक्तिपूजा में तनिक भी का खूब उपयोग किया गया है। इतना ही नहीं भक्तामर आस्था नहीं रखती, वह गुणमूलक परम्परा की अनुरागिनी शब्द भी इतना लोकप्रिय हो गया कि इसी संज्ञा में है। पूज्यता और उच्चता का प्राधार भी गुण ही होता है। "सरस्वती भक्तामर" "शान्ति भक्तामर नेमि भक्तामर', व्यक्ति तो केवल माध्यम मात्र है। गुणानुवाद से प्रारमा "ऋषभ भक्तामर", "वीर भक्तामर" और "कानू में गुण विकसित होते हैं । जीवन शुद्धि के मार्ग पर अग्रसर भक्तामर' प्रादि म्ोत्रों की रचना हुई।। होता है और मान्म-शान्ति का पथ प्रशस्त होता है। दर्प भक्तामर स्तोत्र मूल मंस्कृत भाषा में निबद्ध है। वृत्ति समाप्त होकर शील, सौजन्य एवम् समन्व में जीवन संस्कृतानभिज्ञ जन साधारण भी इसका उचित प्रानंद उटा उद्दीपित हो उठता है। सकें तदर्थ श्री हेमराज, नथमल, गंगाराम प्रादि अनेक भक्तामर स्तोत्र विद्वानों ने इसके पद्य बन्द अनुवाद प्रस्तुत कर इस लोक. भारतीय स्तुति-म्तोत्र साहित्य में जनों का स्थान अन्य प्रिय बनाया और भी अनुवाद उपलब्ध हैं जिनमें से कुछक नम है। संस्कृति, प्राकृत और देश भाषाओं में अनेक का प्रकाशन श्री मूलशंकर जी ब्रह्मचारी ने करवाया है, इन कृतियां रचकर साहित्य के इस अंग को जैन साहित्यकारों पंक्तियों के लिग्वने समय वह प्रकाशित मामग्री मेरे सामुग्य ने परिपुष्ट किया है । केवल भक्ति माहित्य की नहीं है। दृष्टि से ही इनका महत्व नहीं है अपितु इनमें प्रस्तुत रचना-रचनाकार-भव्यानद पंचाशिका" से कई स्तोत्र तो दार्शनिक और माहित्यिक दृष्टि में भी भक्तामर स्तोत्र का ही एक दुर्लभ अनुवाद है जिन्य की विशेष मूल्य रखते हैं। कइयों का ऐतिहासिक महत्व भी एक मात्र प्रति ही उपलब्ध हो सकी है। अद्यावधि प्रकाहै। यद्यपि प्राजके अनुसंधान प्रधान युग में इस प्रकार के शित किसी भी जैन हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहास माहित्य का समुचिन पर्यवेक्षण नहीं हो पाया है, पर जितना में नहीं हुमा। अनुवाद बहुत ही मधुर और गवालियरी भी काम हुमा है, जो भी प्रकाश में पाई है उमस इनका . भाषा के प्रभाव को लिए हुए है । अतः जितना महत्व इम सार्वजनिक महत्व प्रमाणित है। कइयों ने तो ऐतिहासिक कृति का धार्मिक दृष्टि से है उससे कहीं अधिक भाषा की उलझनों को सरलता से सुलझाया है. पर उन सभी का दृष्टि से है। विशेष मौभागय की बात यह है कि जिम्म विवेचन यहां अपेक्षित नहीं है। समय अनुवाद प्रस्तुत किया गया उसी समय का लिखा प्राचार्य श्री मानतुग एक अनुभवशील स्तुनि का हुआ भी है । इसका लेखन काल सं० १६१५ है । गवालिमाधक थे इनके द्वारा प्रणीत "भक्तामर स्तोत्र'' भारतीय यर मंडल की भाषा के मुग्व को उज्ज्वल करने वाली भक्ति माहित्य का अलंकार है । अनुभूति व्यक्त करते हुए अधिकतर रचनाएं जनों की ही देन है। अनुवाद की भाषा प्राचार्य श्री ने जैन दर्शन के भौलिक तत्वों की रक्षा की पर दृष्टि केंद्रित करने में स्पष्ट प्रतीत होता है कि कवि है । स्तुति का उच्चादर्श और गुणमूल परम्परा का निर्वाह धनराज या धनदास ने मंडलीय भाषा का प्रयोग करते करते हुए प्राचार्य श्री ने अनुपम प्रादर्श स्थापित किया ममय बहुत सावधानी से काम लिया है। इसका शब्द है। यही कारण है कि जैनधर्म के सभी संप्रदायों में चयन प्रदभन है। क्या मजाल है कि कहीं कठिन शब्द श्रा इसका प्रादर के साथ दैनिक पाठ प्राज भो होता आ रहा जाय । इसमें संदेह नहीं कि कवि को संस्कृत और तात्कालिक है-होता है। व्यापकता की दृष्टि से संभवतः कोई स्तोत्र मंडलीय भाषा पर अच्छा अधिकार था। भावों के व्यक्ति
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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