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________________ कवि धनदास रचित अज्ञात कृतिभव्यानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद (मुनि श्री कातिनागर) भक्ति-तत्व माधक और दुसरा माध्य, जिसके प्रति वह प्रारम-पमर्पण अन्य भारतीय दर्शनापेक्षा जनदर्शन में ईश्वर की कर संतुष्टि का अनुभव करता है। परन्तु जैन दर्शन में थिनि भिन्न है । पर भक्रि-तन्त्र को किसी न किसी रूप में प्राप्मा ही सब कुछ है। उसका कोई नाथ महीं । अपने ग्रंशन, जैन साहित्यकारों ने अपनाया है। अपने इष्टदेव- उत्थान पतन में कोई माधक बाधक नहीं होता, उत्कष भागध्य-पूज्य के प्रन हार्दिक श्रन्द्राभाव प्रकट करने का समु. अश्कर्ष स्वाधीन है । याहरी कोई किसी का शत्रु-मित्र नह'. वित माध्यम भनि ही है । कहने की शायद ही श्रावश्यकता वहां नी कार्मिक प्राधान्य है। दूसरे को चाहने का सवाल रह जाती है कि जन-भक्रि की परिसमाप्ति "मंयम' में होती ही पैदा नहीं होता । यहाँ तो पार्थिव का तनिक भी महत्व है। जैन संस्कृति में भक्ति साधन है न कि मान्य। वह नहीं होना, अपार्थिव ही मब कुछ है । प्रास्मिक सौंदर्य के स्वल हृदय की ही वस्तु नही अपितु इसका क्षेत्र मस्तिष्क गाना ही उसका एक मात्र लक्ष्य है । मामा के गुण का भी है । जहां भक को दर्शनका रूप मिलना है यहां वह अपना विकास संयम के द्वारा किया जाना ही अभिप्रेत है जैन मूल्य बहुन बना देना है । जनों ने भक्रि का म्वरूप विस्तृत प्राराध्य किसी पर कृपा नहीं किया करते। वरदान और माना है, काल "ईश्वरानुरक्नि' तक ही सीमित नहीं रम्बा, अभिशाप जो पदिक परंपरा की देन है। जैन साधक परनंग बल्लभमतानुयाया मानने प्राय है। "श्वेताश्वतर मात्मा से दीनता पूर्वक कुछ भी सांसारिक वस्तु की याचन उपनिषद् में "भक्रि" शब्द का व्यवहार इसी अर्थ में हुअा नहीं करता, वह नो यही चाहता है कि परमात्मा के गुणं है। श्रद्धा" जैन सस्कृति का प्राण है। यों तो वैदिक का प्रकाश मेरी प्रामा में फैले, और संयम में वीर्य का पाइल्य में भी "श्रद्धा का व्यवहार प्रचुर परिमाण में हा उल्नाम बना रहे, उसके द्वारा मुक्ति की माप्ति हो । इन है, पर इसका संपूर्ण अर्थघटन नदुत्तरची मादित्य में ही सब बातों के बावजूद भी जनों पर वैष्णव भक्रि का प्रभार पभव हो सका है । परन्तु जैन साहित्य में इस शब्द का नहीं पड़ा है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । जैनों द्वारा रचित पक्रिय महत्व रहता है । श्रद्धा का मूर्त रूप अपनी-अपनी कई म्नुतियां ऐमी पाई जानी जाती हैं, जिनका संस्कृति की संस्कृति के मूल अाधारों पर ही संभव है। यह बात भनि मृल धारा से कोई संबंध नहीं । कोई भी परम्परा चाहे. लिए भी कही जा सकती है। मच यान ना यह है कि जितनी मल दार्शनिक प्राधार शिला पर क्यों न श्रान हा "भक्नि" एक ऐसा व्यापक तत्व है कि उसे शब्दों की सीमा पर क लान्तर में उपमें शंधिल्य था ही जाता है या अन्य में प्राबद्ध नहीं रकम्बा जा सकता । व्यवहारिक रूप से दूसरे परम्परा से प्रभावित हो ही जाती है। जैन भक्ति पर का सहारा लेना या चाहना ही "भकि'' का शब्दार्थ है। वैष्णव- बल्लभाचार्य का स्पष्ट प्रभाष दृष्टिगोचर होन! "भक्तिसूत्र के बाद भास्कर ने इसे और भी ज्यापक बना है। श्वेताम्बर परम्परा के मंदिरों में रचाई जाने वाली अंग दिया । यद्यपि राणिनी के समय में नकि का अर्थ दूसरे का रचना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। पहारा लेना "या चाहना" रहा होगा, आगे चल कर वह जैसा कि उपयुक्त पंक्तियों में सूचित किया जा चुका म्नेह पात्र और वात्सल्य का प्रतीक बन गया। माहित्यिक है कि जैन भक्ति का वास्तविक स्वरूा "संयम" में प्रनिधिविश्लेषकों द्वारा प्रथम अर्थ लुप्त हो द्वितीय अर्थ का ही बित होता है । हमी द्वारा साधक अपना अंतिम ध्येय-मुनि पस्तिश्व शेष रह गया। प्राप्त कर सकता है। आमा को कर्म में विमुक्र करने का भकि में दो तस्वों की प्रधानता रहती है-एक तो म्वय एकमात्र यही सर्वोतम और समुचित मार्ग है । इमी से
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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