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________________ अनेकान्त और अनाग्रह की मर्यादा (मुनि श्री गुलाबचन्द्रजी 'निर्मोही') अनेकान्त दर्शन के प्रणेता भगवान महावीर समन्वय यंता का आरोप करत है। उन्होंने कहा-दानिक दृष्टि और महअस्निन्त्र का दिव्य सन्देश लेकर इस संसार में पंकुचित न होकर विशाल होनी चाहिए। वस्नु में जितने प्राण । भिन्न मतीय विवादो क कोलाहल पर्ण एवं प्राग्रह भी धर्म परिलक्षित होने है। उन सबका समावेश न दृष्टि भर वातावरण में तप को समझने की जो सच्म दृष्टि में होना चाहिए । किमी एक समय में किसी एक अपेक्षा से उन्होंने दी, वह मचमुत्र ही मानवीय विचारधारा में एक किपा एक धर्म का प्रमुग्पना नाम्य हो सकती है किन्तु उससे वैज्ञानिक उन्मंप है। अन्य सब धर्मों का अभापती नहीं दी जाना । इसी दृष्टि हमारे सामने अनेक वस्तुणं. प्राती-जाता रहती हैं। हम में उन्होंने वरतु को अन विगंधा-धर्म-युगलात्मक बनाया। अपने प्रयोजनानुसार उनका व्यवहार करते रहते है, पर यह वस्तु का स्वभाव हा गया है कि उसपर अनेक दृष्टियों से शायद हा मोचत होगे कि जिस समय वे हमें दिखलाई चिन्तन किया जा सकता है। इसी दृष्टि का नाम अनेकान्तपडती है, वहीं क्या उनका मालिक रूप है या और कुछ? वाद है। किसी एक धर्मी का एक धर्म की प्रधानता में जो किन्तु जब हम वस्तुओं के स्वरूप के बारे में सोचना नया प्रतिपादन होता है, वह 'म्यान' (किमी एक अपेक्षा या विश्प ण करना प्रारम्भ करने है। नब हम दर्शन क क्षेत्र में किसी एक दृष्टि से) शब्द में होना है, अतः अनकान्त की पहुंच जाते है। निरूपण पद्धति को म्यादात कहा जाता है । दार्शनिक क्षेत्र भगवान महावीर की दृष्टि में दर्शन, धर्म और सरकृति में महावीर की यह बहा बडी देन है। की जिज्ञासानों का मुन्दर समाधान है । उनके सामने अनेक अनेकान्तबाट के नेत्र में दी पत प्रधान हैं। एक यांग्यदार्शनिक परम्पराएं विद्यमान थी । एक-अनेक, निय-अनित्य, गांग दर्शन, दमग जन सन । ये दोनों दर्शन अपना-अपनी जड-चतन आदि विषयों का एकान्तिक आग्रह उनके सामने परिभाषाश्री द्वारा अपने अपने विचार चित्रय से अने. था। एक परम्परा निन्यवाद पर ही सारा बांक डाल देती थी कानन की स्थापना करना है। तो दूसरी परम्पग अनिन्यवाद को ही प्रमाण ममझती थी। माग्थ्य दर्शन मृल में दावों को ग्वीकार करना है-1किमी परम्परा को एकव में चरम नाव का अन्वेषण अभीष्ट पुरुप तस्व -प्रकृति नन्ध । उसके मन में गुरुप बह है था। नो अन्य किमी परम्परा में एकत्व का भया निषेध और कृपथ निन्य है। मं न कोई गुण है और न कोई ही परिलक्षित होता था, एक परम्परा मष्टि की विभिन्नता में धर्म । उसमें कभी किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं जड को ही कारणभूत मानती थी ना दमरी को आमतत्व होना । प्रकृति ठीक पु.17 का विपरीत रूप है। वह निन्य मे अन्यथा कुछ भी स्वीकार्य नहीं था। इस प्रकार अनेक होकर भी परिणमन काता गती है । यह दृश्यमान जगन विरोधीबाट एक दूसरे पर प्रहार करने में ही अपनी शक्ति इस प्रकृति का परम्परागत परिणमन है । अति सूक्म प्रकृनि का व्यय करते थे । यही कारण है कि उस समय का दार्श तत्व एक परिणाम से दमर, दृस में तीसरे इस प्रकार निक जगत शान्त न होकर कोलाहलपूर्ण व प्रशान्त था। परिणामों को प्राप्त करता हश्रा स्थूल रूप में परिणात होता इनरेतर विरोध हा दर्शन का ध्येय बन गया था। है। यह परिणमन ध., लक्षण और अमाथा इन तीनों महावीर ने अपने चिन्तन से इस विरोध की बुनियाद परिणामों के द्वारा होता है । धर्मीम्प प्रकृति से उपके धर्म में मिथ्या प्राग्रह पाया । उन्होंने इसे एकान्निक प्राग्रह की का एकान्त भेद बतलाना सम्भव नहीं । वस्तु का व्यक्त धर्म मंज्ञा दी । बस्तुनख का सूहमेशण से चिन्तन करके उन्होंने जब अव्यक्त तथा अव्यक्त धर्म जब व्यक्त बनना है, वह यह निष्कर्ष निकाला कि एक ही वरन में अनेक धर्म है किन्तु धर्म परिणाम है । यह धर्म-परिणाम धर्मी के म्पष्टरूप के दृष्टि की संकीर्णता से ही सब अपने-अपने प्राग्रह में यथा- अतिरिक्त और कुछ नहीं है, इसलिए कार्य और कारण में
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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