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________________ १२६ अनेकान्त निष्ठुरता की क्षमा याचना करते हुए राजकुमार से घर चलने का संगी पार्था नहीं है, अापके शुभा-शुभ कर्म ही अापका का आग्रह किया, महारानी चेलना तो पुत्र प्रेम से विहल सदा साथ देंगे. अनः शाप ने दीक्षा धारण करली है व्यर्थ हो विलग्वने लगी और उसे घर चलने को मनाने लगी, पर ही उसे कलंकित करने का विचार न लायो।' वारिषेण का मन तो मंसार से विरक्त हो गया था । वे सोमशर्मा वारिण का उपदेशामृत पान कर मन ही कहने लगे मैंने संसार विडम्बना का रूप देख लिया, मेरी मन अत्यधिक प्रभावित हा, पर अपनी पत्नी को न भुला उसमें कोई प्राग्था नहीं है मेग दृढ निश्चय है कि प्राम- यक, वारिषेण को उनकी बगे चिन्ता थी. जब उन्होंने माधना का अनुष्ठान करूं। घर तो जल खाने के सदृश है। अपने उपदेशों का योमशर्मा पर कोई प्रभाव न देखा तो वे संसार की स्थिति को भली भांति समझ गये थे, उन्होंने स्वयं आदर्श प्रस्तुत करने की मोची, अतः सोमशर्मा को माता पिता को पांसारिक अस्थिरता से परिचित कराया और माथ ले चर्चा के बहाने राजगृह नगरी में महाराज अंणिक उनकी अनुमति लेकर स्वादाचा धारण करने के लिए वन के महलों में आ गये । रानी चलना पुत्र को घर पाया में चले गये। जान हर्प से पुलकित हो उठी, उन्हें विधि पृथक ग्रामवगा जब वारिषेण वन में प्रव्रज्या के हेतु जा रहे थे तभी कर घर में बंटाया, तब बारिपेण ने अपनी मां में अपनी उनके मित्र मामशर्मा भी उन के साथ हो गये और भावावेश सभी पन्नियों को मोलह शृगार में मुजिजान कर अपने वश उन्हीं के माथ बन में दीक्षित हो गये तथा तपस्या करने समन बुलाने को कहा। पुत्र के थादेश को मन पहल नो लगे, एक दिन योमशर्मा ने वीणा पर किन्नरों का निम्न गीत गनी विम्मित हुई पर पुत्र प्रेम में विह्वल वह कुछ भी न मुना पोच सकी और शीघ्र ही अपनी सभी वधुओं को सुन्दर कुवलयनवदलमममचिनयने मरमिजदल निभवर कर चरणे। वस्त्राभूषणों से मुजिन कर वहां ले पाई जहां वारिषेण श्रति सुखकर परभूतकलवदने कजिनननिर्मायमग्वि विधवदने। और सामशा बट थे, उन अप्सरा तुल्य सुन्दरियों के बहुमल मलिनशरीरा मलिन चलाधि विगततनुशोभा। सौन्दर्य को देख मोमशमा मन ही मन बड़े लज्जित हुए स्वदगमन दग्धह दया शोकातप शुष्कमुग्वकमला । और पोचने लगे अरे में बड़ा कामी हूँ जो इस प्रकार विमनागत लावण्या वर कान्ति कलाप परि मुक्ता ॥ विषयासक्त हो दीक्षा से विमुग्व हो रहा हैं। और दूसरी किं जीविष्यन्यवनिका नाथे पि गतऽ जय मोक्ष। ओर महाधीर संयमी एवं त्यागी वारिपेण हैं, जो ऐसी दवाउपयुक्त गीत को सुनने ही मामशर्मा को अपनी पत्नी गना तुन्य स्त्रीरत्नों को महज ही तणवत परिस् राग कर की याद अाई उपये मिलने के लिए व्याकुल हो उठे, उन्हों. हो चुका है, धन्य है इसका महानता और निम्पृहना की। ने वारिपेण से घर जाने की प्राज्ञा मांगी, वारिपेण मोमशर्मा निश्चय ही यह गृहस्थ होकर भी घर में श्रामक्त नहीं हुआ। की दुर्बलता को भांप गये, और उसे मांसारिक अग्थिरता है वारिषेण के त्याग और संयम को प्रत्यक्ष दग्य सामशर्मा का उपदेश देने लगे। हे भद्र. यह मंमार श्रमार है, की अांखे खुल गई । बिवेक जाग्रत हुा । विवेक की और इसके भोग विलाय तो शर्कग मिश्रित विष तल्या इस धारा ने हृदय गत राग की लालिमा को हटा दिया, अनन्त भवों से इन भोगों को भोगने पा रहे हो पर आज और अपनी संयमश्री को संभालने के लिये वैराग्य की तक कभी भी नप्ति नहीं हुई। अपना मन सयम और नि निर्मल धारा उपके अन्तर में वहने लगी। संतोष की ओर आकृष्ट करो । सर्वोच्च सुख के माधन वह सोचता है तूने ये १२ वर्ष व्यर्थ ही खो दिये। संयम और संतोष ही है। मनुष्य भव बहा दुर्लभ है, इसे अपनी कानी स्त्री के त्याग के कारण मैं इस पवित्र वेष को पाकर इस तरह व्यर्थ ही विषयभोगों में नहीं गंवा देना लजाता रहा है। अपनी प्रात्मा को ठगना रहा हैं । मेरे उस चाहिए, आप तो स्वयं विज्ञ हो सांसारिक विषय-भोगों से राग भाव ने मुझे सांसारिक दृढ़ बन्धनों में जकड दिया है। इस चंचल चिन को निवृत्त कर प्रात्म-चितन में रत रहो, यह भोग रोग के समान है । वे ही संमार में धन्य हैं पारिवारिक जनों के मोह जाल में व्यर्थ न फंसो, कोई किसी (शेष पृष्ठ १३३ पर)
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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