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________________ गेही पै गृह में न रचे १२५ अक्षरशः पालन किया। राजकुमार की निम्पृहता के सम्बन्ध में महाराज श्रेणिक के मगव नरेश महाराज श्रेणिक अपनी राज्यसभा में समन अपना प्रनिनिधित्व भी प्रस्तुत किया पर महाराज सब बैठ राज्यकार्यों में व्यस्त थे । प्रतिहारीने दण्डपाल के प्राग- कुछ जानते हुए भी अपने निर्णय पर सर्वथा अटल रहे। मन की सूचना महाराज को दी महाराज की स्वीकृति पर अन्ततः राजकुमार के प्राण दंड की तिथि भा गई। दण्डपान को महाराज की सेवा में उपस्थित किया गया। ___ अधिकारीगण उन्हें नगर के प्रधान चतुप्पथ पर ले जा रहे अपरावी वेश में राजकुमार बारिषेण महित दगडपाल को थे, कि कहीं से नगर चोर विद्य चर वहां मा पहुँचा, उसे राज्यसभा में पाया देख सभी पार्षदगण एवं महाराज म्वयं । जब सम्पूर्ण स्थिति का पता लगा तो उसका मन करुणा से विम्मय विमुग्ध हो गये । एक ज्ञण के लिए सम्पूर्ण राज्य विगलित हो उठा, 'अपराध कोई करे दंड कोई भोगे' विष : मभा जडवल निम्तब्ध हो गई । मभी महाराज के संकेत च्चर प्राम-ग्लानि में गलने लगा वह भागा-भागा महाराज पर दगडपाल ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया।" महाराज ! श्रेणिक के पास पहुँचा और उनके चरणों में गिर पड़ा अपराध क्षमा हो । बरं बंद एवं विनयपूर्वक निवेदन करता और विलग्व-विलख कर रोना हा बोला महाराज अपराध है कि माम्राज्ञी चलना के बहुमूल्य मुक्ताहार की चोरी क्षमा हो । राजकुमार वारिषेण सर्वथा निरपराध हैं, वह तो राजकुमार वारिषेण ने की है, माक्षी के लिए यह हार इनके पास गृहस्थ होकर भी माधु है। यह सब पाप तो मैंने किया था। में ही उपलब्ध हुअा है । अब महाराज की जो प्राज्ञा। नगर ननको कामलता ने किसी दिन महारानी चलना का अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत कर जब दण्डपाल मौन हो यह बहुमूल्य मुक्ताहार दम्ब लिया था, जिसे पाने के लिए गया, तो महाराज श्रेणिक ने वारिषेण को अपना पक्ष प्रस्तुत उपने मुझे बाध्य किया। उसके प्रेम पाश में अन्धा होने के करने के लिए कहा पर विगगी गृहस्थ वारिषेण क्या कहना? कारण मन इस हार को चुरा लिया, पर प्रहरियों की दृष्टि से उपका नो एक ही पक्ष था, जिसकी उपने बार-बार पुनरा- न बच सका, अतः अपने प्राण बचाने के लिए भागा पर जब वृत्ति की वह था "हे तान। यह सब कर्मो की विडम्बना । किमी तरह अपने को सुरक्षित न पा सका तो यह हार ध्यानहै, "जो-जो दखी वीतराग ने मो-मी होमी वीरांर । प्रन म्थ राजकुमार वारिपेण के समक्ष फककर वहीं झाही में छिप होनी कवह नहि होती, काहं होन अधीरा रे।" इत्यादि गया। इसी दुष्कृत्य का परिणाम है कि प्राज राजकुमार को महाराज श्रेणिक ने राजकुमार को अपना पक्ष प्रस्तुत करने प्राणदइ भोगना पड़ रहा है और वह भी श्राप जैसे निष्ठाको बार-बार कहा, पर गजकुमार वारिपेण उपयुक्त वाक्यों वान शायक के हाथों जो अपने पुत्र का भी ध्यान न रख के अतिरिक्त कुछ भी न कह सका । अन्ततोगत्वा महाराज मका। श्रेणिक ने ऐसे घृणित अपराध के दण्ड स्वरूप राजकुमार महाराज श्रेणिक विद्य रचर की बातें बड़े ध्यान से मुन को प्रागा दगड की घोषणा कर दी और बहुमूल्य हार लेकर रहे थे। वे मन ही मन विचलित हो उटै कि किमी का महारानी चलना के पास भिजवा दिया। दण कोई भीग रहा है। पर व विवश थे, प्रादश दे चुके राजकुमार वारिपेण के प्राण दंड की निधि की घोषणा थे, तीर हाथ में निकल गया था, क्या करे कुछ समझ में नहीं सम्पूर्ण नगर में करा दी गई । इस कठोर प्राज्ञा को जो पा रहा था। तभी प्रतिहारी ने सविनय निवेदन किया कि कोई मुनता उपकी आँग्वे अथ जल से गीली हो जाती, क्यों- देव "वारिषेण का वध करने वालों के हाथ किल गये हैं, कि राजकुमार की निम्पृहता एवं श्रेष्ठता से सभी नागरिक और राजकुमार के ऊपर पुष्पवृष्टि हो रही है" प्रतिहारी अच्छी तरह से परिचित थे, उन्हें पूर्ण विश्वास था कि के शब्दों से महाराज श्रेणिक का मनम्नाप शान्त हो गया राजकुमार ऐमा धणित कार्य नहीं कर सकता, पर हार राज- वे मन ही मन प्रमुदित हो जटे, प्रतिहारी को उचित रूप से कुमार के पास से पकड़ा गया था और वह अपने बचाव में पुरस्कृत कर विदा किया और स्वयं महारानी चेन्नना महिन कुछ कह भी नहीं रहा था अतः नागरिकों के समक्ष एक वध-स्थल को चल दिए जहां कुमार वारिपेण कायोन्मर्ग अति जटिल समस्या आ पड़ी थी। नागरिक शिष्ट मंडल ने धारण किए हुए विराजमान थे । महाराज श्रेणिक ने अपनी
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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