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________________ १२४ अनेकान्त शक मं० ८५३ सुनिश्चित है अतः उन के इस कथन का मैसूर राज्य के धारवाड जिले में लच मेश्वर नामक ग्राम विशेष महत्व स्पष्ट है । उक्त कथा पर संपादक डा. उपाध्ये है जो पुरातन समय में परिकर पलिगेरे, हुलिगेरे या हुलजी ने जो टिप्पण लिखा है उस में कहा गया है कि उक्त गिरि-होलागिरि जैसे नामों से प्रसिद्ध था। यहां के मुग्थ्य तोणिमन के स्थान पर प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोष में द्रोणी- देव नेमिनाथ हैं जो शंखजिनेन्द्र इस नाम से प्रसिद्ध थे क्यों मति यह रूप पाया जाता है । ताणिमत-दोणिमंत-द्रोण- कि इस मूर्ति के चरणों का भाग शंम्बनिर्मित जैसा है । इस गिरि की एकता का यह भी समर्थक प्रमाण है। वर्तमान के सम्बन्ध में एक कथा का उल्लेख मदनीति की शापनगजरात में उक्त वर्णन के अनुरूप कोई स्थान है या नहीं चतुस्त्रिशिका में है। यह तीर्थ दिगम्बर संप्रदाय के अधिकार इस की खोज अवश्य होना चाहिए। में है। यहां के कई शिलालेख जैनशिलालेख संग्रह भा० २ २ शंखेश्वर तथा शंखजिनेन्द्र में हैं जिन से पता चलता है कि यह क्षेत्र मातवीं सदी में शंग्वेश्वर यह तीर्थक्षेत्र गजरान प्रदेश में वीरमगांव के ही प्रसिह था। पाम है । यहां के मुख्य देव पाश्वनाथ हैं । जिनप्रभमूरि के नाम की समानता के कारण इन दो क्षेत्रों की एक विविधतीर्थकल्प में इस के मन्बन्ध में एक कथा है जिम के समझ लेने का एक उदाहरण हमार अवलोकन में पाया अनुसार इस का नाम श्रीकृपाग द्वारा बजाय गये शंख के (पं० दरबारीलालजी द्वारा संपादित शासनचतुस्चिशिका कारण शंखपर पड़ा था। मुनि जयन्त विजयजी ने इस तीर्थ पृ० ४३-४७) का यह भ्रम दुहराया न जाय इस उई य से के सम्बन्ध में उपलब्ध स्तात्रों तथा अन्य साहित्यिक एवं यह टिप्पण लिखा है। शिन्नालेखीय उल्लेखों का संग्रह शंग्वेश्वर महातीर्थ नामक विस्तृत पुस्तक में प्रकाशित किया है। यह तार्थ श्वेताम्बर (जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर के आगामी प्रकाशन सम्प्रदाय के अधिकार में है। तीर्थवन्दनसंग्रहके दो अंश) (कहानी) गेही पै गृह में न रचे [ श्री कुन्दनलाल जैन एम० ए० ] शरस्कालीन शुक्लपक्षीय चतुर्दशी की चमकती हुई भगवान भास्कर अपनी प्राणिम प्राभा से नील गगन चन्द्रिका, धौत धवल रात्रि, नीलगगन, क्षीणालोक तारकों से को पालोकित करने लगे, विभाकर का कर स्पर्श पा कमल झिलमिला रहा था। राजगृही नगरी पूर्णतया निस्तब्ध एवं प्रमुदित हो उठे, राजकुमार वारिषेण के ध्यान का समय शान्त थी। नगर के सभी नागरिक जन प्रगाढ निद्रा में समाप्त हुअा जान, वे ध्यान से निवृत्त हो स्ववस्त्र धारण निमग्न थे। मध्यरात्रि का द्विनीय प्रहर राजकुमार वारिषेण करने ही वाले थे कि नागरिक सुरक्षा के अधिकारी दगडपाल शय्या त्यागकर नगर के बाहर दूर एक नीरव निर्जन उपवन अपने सैनिकों सहित वहां आ धमके और क्या देखते हैं कि में जा पहुंचे और कुछ प्रहरों के लिये सम्पूर्ण परिग्रह का साम्राज्ञी चेलना का अत्यन्त प्रिय बहुमूल्य मणिमुक्ताहार परित्याग कर ध्यान में निमग्न हो गए। ऐसा वे प्रत्येक वहां पड़ा हुआ दमक रहा है। राजकुमार वारिषेण इससे अष्टमी और चतुर्दशी की रात्रि को किया करते थे। बिल्कुल ही वेखबर थे। दण्डपाल ने सैनिकों को आदेश पूर्व दिशा में लाली छा गई, क्षितिज में उषा की अरुण दिया कि महारानी चेलना के बहुमूल्य हार का असली चोर भाभा प्रकट होने लगी। खगकुल अपने-अपने नीड़ों का यही है इसे पकड़कर महाराज श्रेणिक के न्यायाधिकरण में परित्याग कर कलरव सहित गगनमंडल में विहार करने लगे, उपस्थित करो, सैनिकों ने अपने अधिकारी की प्राज्ञा का
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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