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________________ शोध-टिप्पण १२३ उस समय भगवान सौराष्ट्र में नहीं थे। यह भी हो सकता विपल संख्या में जैन श्रमण विहार करते थे। कालकाचार्य है भगवान उनके यात्रा-पथ से दूर थे । कुछ भी हो अन्तिम सुवर्ण भूमि [सुमित्रा] गये थे। उनके प्रशिष्य वहां पहले ही निर्णय के लिए अभी तक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। विद्यमान थे । भगवान पार्श्वनाथ ने कुरु, कोमल, काशी, सुह्य, जैन श्रावक समुद्र पार करते थे। उनकी समुद्र यात्रा अवती, गट, मालत, अंग, बंग, कलिंग पचाल, मगध, और विदेश व्यापार के अनेक प्रमाण मिलते हैं । लंका में विदर्भ भट, दर्शाया, सौराष्ट्र, कर्णाटक, कोकण, मेवाण, जैन श्रावक इसका उल्लेख बी माहित्य में भी मिलता लाट, दाविठ, काश्मीर, कच्छ, शाक, पल्लव, वत्स, भाभार है। महावंश के अनुसार ई.स. ४३० पूर्व जब अनुरुद्ध - आदि दशा में विहार किया था। इनमें अनार्य देशों का पर बमा नब जैन श्रावक वहां विद्यमान थे। निग्गंठ का नामोल्लंग्व नहीं है। किन्तु दक्षिण के कर्णाटक, कोकण, 'भा उल्लेख मिलता है। पल्लव, द्राविड आदि उस ममय अनार्य मान जाते थे। शाक भी अनार्य प्रदेश हैं । इसकी पहचान शाक्य दश या प्रार्य अनार्य देशों की चना के प्रमंग में यह ज्ञातव्य शाक द्वीप से हो सकती है । शाक्य भृमि नेपाल की उपन्य- है कि अनार्य देश भारत के बाहर ही नहीं रहे हैं ; यहां भी का में है। वहाँ भगवान पार्श्व के अनुयायी थे । भगवान विविध दृष्टिकोणों में विविध देशों को अनार्य कहा गया बुर का चाचा, म्वयं भगवान पार्श्व का श्रावक था। शाक्य है। धार्मिक दृष्टि से भारत के छः ग्बगड़ों में से केवल मध्य प्रदेश में भगवान का विहार हा हो, यह बहुत संभव है। क्षेत्र को प्रार्य देश कहा गया है । वृहनर भारत के छ. तगड भारत और शाक्य का बहुत प्राचीन काल से सम्बन्ध रहा है। उनमें पांच ग्वण्टु अनार्य हैं । छटा ग्बग्दु प्रार्य है । है । संभव है वहा भगवान पार्श ने विहार किया हो। उसमें भी बहुत अनार्य देश है। वहां धर्म सामग्री मुलन भगवान महावार व्रज भूमि, मुह्मभ मि, दृढभमि. श्रादि नहीं है इसलिए वे अनार्य हैं - भारत में प्रार्य-अनार्य दोनों अनार्य प्रदेशों में गये थे। वे बंगाल की पूर्वीय सीमा नक प्रकार के देश मान्य रहे है । फिर भी वर्तमान भारत [शायद बी सीमा तक गय थे । की सीमा से बाहर तीथंकर नहीं गये, ऐसा नहीं माना जा उनर पश्चिमी मामानान्त एवं अफगानिस्तान में सकता। ४ द्रोगागिरि डा० विद्याधर जोहरापुरकर, जावरा निवारणकागदु के कथनानुमार द्वारगरि यह नीर्थक्षेत्र है। इस में प्राचार्य ने गुरुदन का निर्माणस्थान नाणिमन फल हाडी ग्राम के पश्निम में है तथा यहा में मदन श्रादि पर्वत बनलाया है तथा उमे लाट देश में चन्द्रपरी के मुनियों ने मोक्ष प्रान किया था। इस गन को दबने हुए समीप बनलाया है । जैसा कि मुविदित है. हरिषेणाचार्य के पं० प्रेमी ने अनुमान किया था कि शायद जोधपुर रिया- कथाकोष में शिवार्य की भगवती श्राराधना की गाथाओं के मत में मंदता नगर के पास जो पलोधी नाम का तीर्थ है उदाहरणों के रूप में कथाएँ मंगृहीत हैं। यहां उन्होंने गुरुउसी के समीप किमी ममय द्रोणगिरि रहा (जन माहिन्य दल का निर्वाणस्थान जो नोणिमत पर्वत बतलाया है उसे और इतिहास पृ० ४४२-४३) तथा वर्तमान द्रोणगिरि जो शिवार्य के शब्दों में (गुरुदत्तो य मुगिदी संबनियानीव दोणिबुन्देलखण्ड में मंदपा ग्राम के समीप है वह निर्वाणकागढ मतम्मि) देखें तो तोणिमत का प्राकृत रूप दोणिमंत ज्ञात में वणन द्रोणगिरि नहीं है । इस सम्बन्ध में एक और होता है । इस दौणिमन को निर्वाणकाण्ड में वर्णित दोण - संभावना की ओर हम विद्वानों का ध्यान आकर्षित करना गिरि से भिन्न समझने का कारण दिग्वाई नहीं देता। तात्पर्य चाहते है । निर्वाणकागढ़ के कथनानुसार द्रोणगिरि से गुरुदत्त यह हुआ कि हरिषेणाचार्य के कथनानुसार गुरुदरा का निर्वाण. मुनि मुक्त हुए थे। इन गुरुदत्त मुनि की विस्तन कथा हरि- स्थान तोणिमत् -द्रोणगिरि लाट देश में अर्थात वर्तमान षेणाचार्य के बृहत्कथाकोष की १३६ वाँ कथा में मिलती गजरात प्रदेश में कहीं होना चाहिये। हरिषेणाचार्य का समय
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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