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________________ १२२ अनेकान्त पार्श्वनाथ' पुस्तक में मलधारि अभयदेव मुरि के नाम पर बनाए मुजय चार महान दिगंबर मुनियों की सेवा करने घटाई हैं । जो काल व्यत्यय पाने से ऐतिहासिक प्रतीत नहीं वान्ना नया मुक्नागिरी, एलोग, पातुर और प्रत्यक्ष शिरपुर होती। क्योंकि जब मं० १०७५ के लगभग डेल राजा का प्रादि जगह दिगंबर जैन स्थापत्य निर्माण कराने वाला जीवन समाप्त होता है, तब उसके ७० माल बाद उसके श्वेताम्बर संप्रदाय का नहीं हो सकता । अतः विद्वानो को हाथ से प्रतिष्ठा बताना उचित नहीं लगता। और उपर इसपर अधिक प्रकाश डालना चाहिए। ३ अनार्य देशों में तीर्थंकरों और मुनियों का विहार मुनिश्री नथमलजी ___ कुछ वर्ष पूर्व मैंने “अहिंसकपरम्परा" शीर्षक लेग्य अबइल्ल, यवन, सुवर्णभूमि, पराहव अादि म्लेच्छ देशों में पढ़ा था जिज्ञासा भर पाई । उसमें था-ईसवी मन की विहार किया था। भगवान ऋषभ दीड़ित हाने के प्रथम वर्ष पहली शताब्दी में और उसके बाद के हजारों वर्षों तक में ही प्रार्य और अनार्य देशो में गा थे । प्राचार्य हेमचन्द्र ने जैनधर्म मध्यपूर्व के देशों में किसी न किसी रूप में यहूदी अदंबइल्ल आदि म्लन्छ देशों में भगवान ऋषभ क बिहार धर्म, ईसाई धर्म और इम्लामधर्म को प्रभावित करता रहा का उल्लेख किया है वह अावश्यक नियुक्ति का अनुवाद है। प्रसिद्ध जर्मन इतिहास लेग्वक वान केमर के अनुसार मात्र है। मध्य-पूर्व में प्रचलित 'ममानिया' सम्प्रदाय श्रमण शब्द का द्वारिका-दहन हा, तब भगवान अरिष्टनेमि पहब अपभ्रश है । इतिहास लेखक जी. एफ. मुर लिखने है नामक धनार्यदश में थे। यह पल्हव भारत की सीमा में था कि हजरत ईसा के जन्म की शताब्दी से पूर्व इराक, म्याम या उसके बाहर यह अन्यषणीय है । प्राचीन पाीया (वर्त और फिलिस्तीन में जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु मकडों की मान ईरान) के एक भाग को पल्हव या पराहय माना जाता संग्च्या में चारों और फैले हुए थे । “मियादत्त नाम ए है। काठियावाड में जूनागढ़ रियायत में एक इंगनी उपननासिर' का लेखक लिग्यता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी बंश की सम्भावना होती है। भारत में आर्य और अनार्य तबके पर जैनधर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। कलन्दर चार दोनों प्रकार के देश थे। कलिग आदि देशों में यवन शासकों नियमों का पालन करते थे-माधुता, शुन्द्रता, सन्यता और का भी उल्लेख मिलना है । कुमार पाश्र्य ने वहाँ एक यवन दरिद्रता । वे अहिमा पर प्रग्बगड विश्वास रखते थे। शासक को पराजित किया था। जैन माहित्य में विहार-क्षत्रों का कोई उल्लेख है या भगवान अरिष्टनेमि ने द्वारावती-दहन की बात बननहीं यह जानने की प्रबल उत्कण्ठा उत्पन्न हुई । किन्तु लाई । उस समय वे वहीं थे । उपक पश्चात वे वहीं के यात्रा व अन्य कार्य-बहुलता के कारण उसकी पुत्ति नहीं अन्य जनपदों में विहार कर गये। द्वागवती दहन में पूर्व एक हुई । समय पाकर यह भावना विलीन हो गई। वागय नानु बार फिर वे खत पर्वत पर श्राये । जब द्वारावती का ददन मास में हम लोग प्राचार्य श्री के समक्ष विशेषाध्यक भाष्य हुअा तब भगवान अरिष्टनेमि पल्हव देश में थे। इस मध्या और आवश्यक नियुक्ति का पारायण कर रहे थे। उसमें वधि में १२ वर्ष का काल बीता है। उसमें वे ईरान भी जा तीर्थकरों के विहार का उल्लेख पाया तो सुप्त भगवना पुनः सकते हैं और पौराष्ट्र में भी हो सकते है । किन्तु द्वारावती उदबुद्ध हो गई। उनमें लिखा है, ''बीस तीर्थकरी ने का दहन होने के पश्चात् कृष्ण और बलभद्र, पाण्डव प्रार्यक्षेत्र में विहार किया । भगवान् ऋषभ, अरिष्टनेमि मथुरा [वर्तमान मदुग] जा रहे थे। व पूर्व दिशा में चले, पार्श्व और महावीर ने अनार्यनेत्र में भी विहार किया था ?' सौराष्ट्र को पार किया और हस्तिकल्पपुर पहुंचे। वहाँ से ये चार नीर्थकर जिन अनार्य क्षेत्रों में देशों में गए दक्षिण की ओर प्रस्थान किया और कोसुम्बारण्य में गए । उनका पूरा विवरण प्राप्त नहीं है। फिर भी यत्र क्वचित इस यात्रा में भगवान अरिष्टनेमि के पास जाने का उन्लेग्व उनका नामोल्लेख मिलता है । आवश्यक नियुक्ति व नहीं है। द्वारावती-दहन के पश्चात् वे भगवान के पास नहीं विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार भगवान ऋषभ ने बहली, गये यह पाश्चर्य की बात है। यहींपर कल्पना होती है कि
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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