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________________ शोध-टिप्पड़ १२१ का समय सं० १०५० से ७. मानना उचित ही होगा। परचाद्विशेष तत्त्वपरिज्ञानाथं विरचितस्य वृहद्भ्यस ग्रहस्य औरंगाबाद से पाये हुए हस्त लिखित ग्रंथों में 'गुरूनी अधिकार शुद्धि-पूर्वकत्वेन वृत्तिः प्रारभ्यते । विनती का एक जीर्ण-शीर्ण पृष्ट मिला है। जिसमें संस्कृत इसके विवेचन में मुख्तार माहब ने बताया है, कि 'ब्रह्मदेव भाषा में ७ अंक है। छंद दृष्टि से कुछ अशुद्ध होते हए के उक्त घटना-निर्देश और उनकी लेखन शैली से ऐसा भी भाव दर्शन में परिपूर्ण है । प्रारम्भ में एक अम्बुज प्रभ मालूम पडता है कि ये सब घटनाएँ साक्षात् उनको प्रांखों मलधारिका संक्त मिलता है। बाद में उनके गुण का वर्णन के सामने घटी हुई है। परमार राजा भोजदेव उनके महाहै । ५ से ७ श्लोक इतिहास की दृष्टि से महत्त्व के जान महलेश्वर श्रीपाल और उनके राजथंटी सोम तथा पडते है । वह इस प्रकार है । नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव-उनके समय में मौजूद थे । इत्यादि।" 'प्रय श्री प्रतिष्टाणपुर मुनिमुवतं वंदितात्मा । पद्यप्रभदेव के नया मन्दिर बनवाने के बाद, यह जो प्राप्नो देवगिरिमु संस्थान इलोर ममिपं वरम् ॥ ५ राजा का बनाया मन्दिर खाली था, उसमें वेदी प्रतिष्ठादि भागनानां जनानां वा, प्राग्रहान्नृपवांछया । कार्य इन्हीं नेमिचन्द्राचार्य ने किये हों तो धारचर्य नहीं । अम्मारी श्रीपुरं गत्वा, श्रीपादं पज्य खेश्वरम् ॥ ६ और इसी की मूचक वह शीन मन्दिर पर लगाई हो । विवादि भूतवाद हियक्वा श्रीजिनालयम् । ब्रह्मदेव के बताए हुये महामंडलेश्वर 'श्रीपाल' और नूतनं विरचय्यासी, दक्षिणापथगाम्यभूत ॥७॥ अन्तरिक्ष प्रभु की पुनः स्थापना करने वाले ईल-श्रीपाल वर्षा योग समाप्तिबाद वह मुनि प्रतिष्ठानपुर पैठन] अभिन्न जान पडने हैं। क्योकि डा. जोहरापुरकर भी एल में श्री मुनिमुघननाथ की पूजा कर, इलोरा के समीपवर्ती राजा को सामंत मूचित करने है । तथा पाश्रम-याशारम्यपुर देवगिरि में स्थित हुए। वहां श्राप हा लोगों के प्राग्रह से प्रेमीजी के कथनानुसार या श्वे. मूरि के कथनानुसार पैठण ही वह श्रीपुर पधारे। और वहां खेश्वर-अन्तरिक्ष प्रभ की हो, तो, वह उस वक्त एल राजा के प्राधीन था ही। वंदना की। बाद में भून जिनालय को छोड़कर नया बनवाया तथा ईल राजा के जीवन में २ युद्ध होने की सूचना और इसके बाद दक्षिण में चले गये। मिलती है पहला युद्ध उत्तरभारत में राज्य करने वाले अम्बुज प्रभ को पद्यप्रभ मान लिया जाय तो शिलालेख राजा वाकड (Vaked) के आक्रमण पर उसे परास्त करने नं. २ में इसकी और पुष्टि होती है कि, यह मलधारि वाला और दूसरा हुअा अब्दुल रहमान गाजी के साथ । पदमप्रभदेव (यह नियममारके टीकाकार से भिन्न हैं) इस दूसरे युद्ध में या युन्द्र के बाद जल्दी ही पंचपीरों से पौलाका मन्दिर छोड़ गाँव में नृतन मन्दिर बनाने में प्रेरक ठगा जाकर एन राजा को देह दण्ड मिला है। इस युद्ध का समय मुसलमानी ग्रंथों में सन १००१-६ बताया है। [३] तीपर लेख की चर्चा करते समय, हमारे सामने लेकिन यह समय बराबर न होते हुए कुछ साल बाद का ब्रह्मदेवमूरि का वृहदव्यसंग्रह की टीका का प्रथम भाग होने की सूचना अमरावती गजेटीघर में दी है। १५-२० प्राता है वह इस प्रकार है, “अथ मालय देशे धारानाम- साल के बाद की यह घटना मानी जाय तो भी-भोजदेव नगराधिपतिराज-भोजदेवाभिधान-कविकालचक्रवर्ति संबन्धिनः राजा का महामंडलेश्वर (बड़े प्रान्तका अधिकारी) पद को श्रीपाल-महामंडलेश्वरम्य संबन्धिन्याश्रमनामनगरे श्रीमुनि- भूषित करने वाला पराक्रमी श्रीपाल-ईल का ही रहना उचित सुत्रत-तीर्थकर-चैत्यालये शुद्धात्मन्यवित्ति-समुत्पन्न-सुग्वा- लगता है। इस प्रकार श्रीपाल ईल का अन्तिम समय मृतरसास्वाद-विपरीत नारकादि दुःखभयभीतस्य परमात्म- मं०१०७५ तक निश्चित होता है। जिसमे उपका राज्य भावनोत्पन्न-सुखसुधारमं पिपासितस्य भेदाभेद-रत्नत्रय भावना काल मं० १०३५ से ७५ तक ४० माल का निश्चित होता प्रियस्य भष्यवर- पुण्डरीकम्य भाण्डागाराद्यने-कनियोगा- है। इस काल में चार महान प्राचार्यो की सेवा करने का धिकारि-सामाभिधानराजश्रष्टिनो निमित्तं श्रीनेमि- चन्द्र- सौभाग्य उसे प्राप्त हुया था। प्राचार्य मलधारि पद्मप्रभदेव के सिद्धांतदेवः पूर्व पइ विशातिगाथाभिलधुद्रव्यसंग्रहं कृत्वा जीवन की घटनाएँ थोड़े फार पूरक से श्वे. 'अन्तरिक्ष
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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