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________________ २. गजा श्रीपाल उर्फ ईल नेमचन्द डोणगांवकर (न्यायतीर्थ) दिसम्बर ५२ के अनेकांतमें डॉ. वि. जोहरापुरकर श्री दिगंबर जैन मन्दिर श्री मन्न मिचन्द्राचार्य प्रतिका 'शमा पल' के नाम से लेख प्रसिद्ध हश्रा है। उसमें ब्रह्म ठित ॥ ज्ञानसागर (१७ वीं मदी) के नीवंदना के नीचे पद्य पर पहले शिला लेख के बारे में प्रो. जोहरापुरकर लिखने आपने विचार प्रगट किये हैं। पद्य इस प्रकार हैं हैं कि. ग्वाल गोत्री के प्रागे और गमसनु के पीछे कोई एयलराय प्रसिद्ध देश दक्षिण में जायो। शब्द छट गये होंगे। कारण मुनियों का गोत्र भी नहीं बताया एलूर नयर बग्बाण महिमंडल जम पायो । जा सकता। खरचो द्रव्य अनंत पर्वत मवि कोरायो । इस आशंका के साथ वह लेख 'ग्वाल गोत्री (श्रीपाल) पटदर्शन-कृतमान-इन्द्रगज-मन भायो । गम मेन (पदशात .......) इस तरह वांचा जाय तो उसका कार्तिक मुदि पूनम दिने, यात्रा श्रीजिनपायकी। अर्थ ठीक बैठता है । ग्वाल गोत्रीय राजा श्रीपाल ने रामसन ते पजत नित भावसू', प्रामा पुरत तामकी ॥३८॥ के उपदंश में [यह कार्य प्रारम्भ किया था और कुछ] । इस पद्य में उल्लंग्विनइंद्रराज (सन् ११४.८८) गष्टकृट वीरचन्द्र और राममन का गुरु-शिष्य सम्बन्ध इतिसम्राट ततीय-होने का प्राशय प्रगट करने हुए इंद्गज चतुर्थ हाम प्रसिद्ध है । उनका कार्य क्षेत्र भी धीपुर से एलीचपूर (सन १४-८८) नहीं होने का भाव प्रगट किया है । क्यों के समोवनाल का भाग ही रहा है । तथा काल भी ममान कि उस वक्त गष्ट्रकूटों की स्थिति मंकटापन्न थी। है। इनके विषय में जुगलकिशोरजा मुन्तारने तत्वानु लेकिन बाबू कामनाप्रमाद जी-इंद्रराज चतुर्थ को (मन शायन का प्रस्तवना में खूब विस्तार के साथ चर्चा की है। १७४.८२, का सम्राट कहने है, और उसे गंगवंशी राजा ईल राजा का समय निश्चित करने में वह बहुत उपयुक्त मारमिह ने राष्ट्रस्ट राजसिंहासन पर बैठाया मा पृचित ठहरी है। जिसके लिए में उनका ऋणी हैं। वमा नो अापने करते हैं। वह जैन धर्म का दृढ श्रद्धानी तो था ही साथ ही विक्रम की १० वीं शती का उत्तरार्ध में रामसेन का प्रारम्भ जनेतर दर्शनों का भी प्रावर करता था। __माना है। और शक ९५३ में माथुर संघ० स्थापन करने से इस लिग 'पददर्शन-कृतभान' यह विशेषण इमी को अन्तिम समय सं १०८८ ही ठहरता है। प्रारम्भ में नस्वानु ही शोभा दता है। तथा इस राजा की पूर्णवधि निश्चित शामन मं १०१०के पूर्व का नहीं होने से उन्होंने वि. की करने में इंद्रराज चतुर्थ का ही समय ठीक बठना है। भक्ता- १० सदी का उतरार्ध मान लिया। वहां अगर वीरचन्द मुनि मर की यंत्रमंत्र कथा में दो श्रीपुर नगर की कथा दी है। काममय सं० १...से १.३५ और रामसेन का समय जिममें श्रीपाल राजा तथा वीरचंद्र मुनिका उल्लेख है । जान १०३५ मे १.१.नक मान लिया तो धनुचित न होगा। पड़ता है इन्हीं वीरचंद्र मुनि के उपदेश से वच्छ देश मे पर इस वक्त वह थे, यह निर्विवाद है। श्रीपुर नगर के एक ग्वालने ईल्लि देश के (हरिपुर) एलिचपुर इंद्वराज चतुर्थ [मं० १०३८] के समय जब ईल राजा का राज्य लिया था। दिवो भ. कथा ३६ और ३०-३३] मामंत राजा थे तो अनायास वीरचन्द्र-रामसेन उनके मम सिरपुर के अंतरिक्ष पार्श्वनाथ चैत्यालय में जो कि श्री कालीन ठहरते हैं। पाल-इन राजा का बनवाया हवा कहा जाता है-३ शिला- [1] दूसरे शिला लेखों में 'मल्ल पमः' के शब्द से लेख पाये जाते है। अगर मलधारी पद्मप्रभदेव की सूचना हो तो, वह पद्मप्रभदेव [1] मंदिर के गर्भागारमें मानस्तंभाकार पाषाण पर- हमारे मामने आते हैं। जिन्होंने अपने 'लक्ष्मी महातुल्य ग्याल गोत्री राममेनु ...." सती सती सती' इस पार्श्वस्तुति के अन्त में गुरु पद्मनन्दी [२] मन्दिर के बाहर दरवाजों के ऊपर का उल्लेख किया है। यह पद्मनन्दी सं० १०३ में (प्रेमीजी श्रोल १ ली .... 'वसुन्धरो मल्ल पन....। जंबुदीव पण्णत्ति को पं० १०५३ के लगभग रची हुई "२ री .... 'अंतरिक्ष श्री पार्श्वनाथ ....॥ मानते हैं।) रचे हुये जंबूदीवपण्पत्ति के कर्ता पमनन्दी [३] मन्दिर के दरवाजे के ऊपर एक शिलपर-- सं० १०३०-१५ मानलिए जाएँ तो, उनके शिष्य पद्मप्रभदव
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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