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________________ शोध-टिप्पड़ वन्यं पडिगई कंचनं पायछणं उग्गहाणं च कडायणं प्रभुमु पादपंछणं, उग्गहं कडापणं, उन्नदरं उबघि पावेज इति । चा जाणिज्जा, उत्तमध्ययन २३१२६३६ अचलगो य जो धम्मो जो इमो मन्तरत्तो। आचेलक्को य जो धम्मो, जो वायं पुणरुत्तरो। दग्मिनो बदमागेण पासण य महाजमा ॥ देपिदो वदामाणेण. पासण य महप्पणा । पगकज्जपवन्नाणं विसस कि नुकारणं । पगधम्मे पवत्ताणं दुविधा लिंग-कप्पणा । लिंगे दुविहे. मेहावि । कहं विप्पच्चो न ने ॥ दश- उभामि पदिट्ठाण महं समय मागदा । वैकालिक ६६४ नगिणभर वा वि मुडम्म दाहरोमनहमिणां । गग्गणम्म य मुगदुम्म य दीड लोम णग्वम्प य । मेगा उवर्मनम्म कि विभूमाए कारियं ॥ मुहणादो विरत्तम्म कि विभृमा करिम्पदि ॥ लिपि-दोष लिपि क प बदलने रहे हैं। अतः प्रतिलिपि करने पयमेव लंचई केसे, पंचठाहिं समाहियो वालों के गामने पाने की कठिनाई रही है । जिम्बने में भागे चलकर यह इग प्रकार हो गयाप्रमाद भी रहा है । प्रतिलिपिक पब सय विद्वान नहीं मयमेव लुचई मे, पंचमुठीहि ममाहियो थे। इन कई कारणों में प्रतिलिपि-काल में पाठ-परिवर्तन हो गए। उत्तराध्ययन की संस्कृत वित्तयों में शान्त्याचार्य की वृहदत्ति सबसे प्राचीन है। उममें 'पंचठाहि' पाठ माना जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति [ सूत्र ३०, यत्र १३६, गया है- पंचाष्टाभिः- पंचमुष्टिभिः । [पत्र ४१०] पंच१३७] में रायपमेणवइयमे बहना कलाओं का पाठ उद्व न मुष्टिभिः आगे चलकर मृत्ल पाठ बन गया । किया गया है। उममें चौदहवी कला पोरकम्वे' है । वृत्ति श्रीपपानिक [मत्र १६] में 'ठाण ठिहए. पाट' था। कार शांति चन्द्र ने इसका अर्थ शीघ्र कविश्व किया है। वृत्तिकार के अनुसार 'ठाणाइए.' पाठान्तर था । किन्तु उत्तरसमवायांग [समवाय २] श्रीपानिक [मा ४०] और वर्ती वृत्तियों में 'ठाणठिहण' की भांनि 'ठाणाइए' भी मूल गयपर्मणय [कगिडका २१७] की प्राियों में यह पाठ पाठ बन गया। 'पोरेकन्वं' या 'पारकम्ब' बन गया। मूत्रकृतांग 1991 में विज्जा पाठ है। ___जम्बद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति [मत्र ३० पत्र 10] समवा उसका अर्थ विधान-कुर्यात किया गया । उत्तरवर्ती यांग [समवाय ..] प्रोपानिक मित्र . ] में ग्बंधावार प्रादों में कुर्यात-कुज्जा मूल पाठ बन गया । [वा बंधार माणं, नगग्माणं-पाठ है । पं० धेचरदामजी द्वारा विपाक [३३ पृष्ठ २९] में 'श्रोमारियाहि' पाठ है। सम्पादित रायपसेणइय [पृष्ठ ३४.] में यह पाठ 'बंधवारं उसकी वृति है 'श्रीमारियाहिनि प्रलम्बिताभिः । भागे माण वार' माण वार बन गया । चलकर पाठ बन गया-'लंबियाहि य प्रोग्य रियाहि । यहां व्याख्या का मूल में प्रवेश कुछेक उदाहरण प्रस्तुन fry गए है। उनके प्राधार पर पाठ-परिवर्तन की स्थिति को समझा जा सकता है। चूर्णि और वृत्ति के साथ प्रागमों का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को ऐसे पचासों उदाहरण प्राप्त होंगे कि चूणि १-जवृद्धीप प्रज्ञप्ति ति, मृत्र ३०, पत्र १३७ या प्राचीन वृत्तियों में जो व्याघ्या-शब्द है, वे उनम्वर्ती पुरः काव्य मिति पुरतः पुरतः काम्यम्-शीघ्रकविमित्यर्थः । वृत्तियों या प्रादर्शों में मूलपाठ बन गए हैं। उत्तराध्ययन २-'ठाण टिहए' तिन म्यान-कायोमर्गः । तेन स्थितिर्यस्य २२।२४ का उत्तरार्ध इस प्रकार था-- म स्थानस्थितिकः, पाठान्तरण ठाणाहपत्ति ।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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