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अनेकान्त
बीच में एक पद्मासन तथा दोनों श्रोर बड़गासन तीथकर प्रतिमाएँ अंकित की गई है, जिनकी सीता तथा मनोजना अदभुत है।
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सन चौवीसी भी किसी मन्दिर में प्रतिष्ठित रही है। इस पीवीसी की सात-आठ प्रतिमाएँ क्वचित पंडित रूप में मुझे प्राप्त हो गई हैं जिनकी एक रूप रचना-विधि को देखकर चौवीसी की धारणा पुष्ट होती है ।
शासन देवियों के निर्माण के विशेष रचना कौशल का प्रयोग मध्यकाल की विशेषता रही है और वह यहाँ खूब पाई जाती है । रामवन में लाई गई गक अम्बिका मूर्ति तो साढ़े पाँच फुट ऊँची है। धरणेन्द्र, पद्मावती तथा चक्रेश्वरी और गौमुख यक्ष की कुछ अन्य मूर्तियां भी दर्शनीय हैं ।
इस संकलन में एक अति तीर्थंकर प्रतिमा भी मुझे प्राप्त हुई है। इस सुन्दर मूर्ति का चित्र इस लेख के साथ दिया जा रहा है। यह मूर्ति नहीं है वरन एक विशाल (लगभग ७ फुट) ऊँत्री पद्मासन प्रतिमा के छत्र का भाग है। इसपर सर्व प्रथम तीन छत्र अंकित हैं, जिनके पार्श्व में कुम्भ लेकर जल धारा दारते हुए दो सुन्दर गजों का अंकन है। इन गजों पर महावत, इन्द्र तथा गजवक्षों का अस्तित्व भी दर्शनीय है । इसके ऊपर स्तम्भों द्वारा कोष्ठक बनाकर
आगमों के पाठ-भेद और उनकेमुख्य हेतु
उम
यह विश्व परिवर्तनशील है। इसमें काल के साथ-साथ सब कुछ बदलता है । केवल आदमी ही नहीं बदलता, के उपकरण भी बदलते हैं। केवल मानस ही नहीं बदलता. शब्द और अर्थ भी बदलते हैं। बदलने का इतिहास बढ़ा विचित्र है। पुराने ग्रंथों के पाठ भी बदल जाते हैं इम प्रसंग में जैन आगमों के परिवर्तन के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूंगा | भाषा-भेद, लिपि-दोष और व्याख्या का मूल में प्रवेश ये पाठ परिवर्तन के मुख्य हेतु रहे हैं।
श्राचारांग
इस कोष्ठक के ऊपर शिखर की रचना दिखाई गई है। जिसमें बडी बारी की और सुन्दरता के साथ छज्जा, ग्रंग शिखर, चक्र तथा कलश की रचना है। वास्तव में यह कलावशेष मन्दिर का एक प्रतिनिधि अवशेष है इसकी शैली नाला की पृष्ठभूमि में से झांकती हुई विराटना से उन विज्ञान गगनचुम्बी कलात्मक जिनालयों की कल्पना श्रायानी से की जा सकती हैं जो कभी इस स्थान की शोभा रहे होंगे ।
शोध-टिप्पण
|१|८|४|२०६
यह पुण एवं जाणिज्जा उवाहक्कने खलु हेमंते गिम्हे पवने हापरिजुन्नाई स्थाई परिट्ठविज्जा |
११२।५।६०
जब तक कोई शिलालेख प्राप्त न हो तब तक निश्चित इतिहास तो कहना संभव नहीं है, पर मंडई का जब पूरी तरह प्रकाश में प्रावेगा तब निश्चित ही 'जैन मुनि कला और मंदिरों, तीर्थो के इतिहास में एक नया अध्याय नही तो नया पृष्ठ अवश्य जोड़ना होगा ।
मुनिश्री नथमलजी
भाषा-भेद
श्वेताम्बर आगम महाराष्ट्री प्राकृत में प्राप्त है किन्तु ferrer बाचार्य शौरसेनी में अधिक लिखते रहे है। उन्हों ने श्वेताम्बर आगमों से जो उदरण लिए उनका शौरसेनी में रूपान्तर हो गया । मृलागधना या भगवती श्राराधना की वृत्ति में अपराजित सूरि ने श्वेताम्बर श्रागमों से कुछ उद्धरण लिए हैं उनके तुलनात्मक अध्ययन से पाठ परिवर्तन का पता
चल जाएगा-
विजयोदया आश्वास ४ श्लोक संख्या ३३३
ग्रहण एवं जाउन उपातिकते हेमंते सुपडि से डिजुन मुत्र पदिट्ठावेज्ज