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________________ अनेकान्त और अनाग्रह की मर्यादा १२६ वस्तु के लिए किमी अन्य अपेक्षा से अन्य शब्द की प्रयुक्ति ५-यह मकान पांच मंजिल का है। भी नथ्यगत ही होगी। वह भी उतना ही प्रखंड सत्य -यह मकान लाल रंग का है। होगा जितना कि पहला । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा -यह मकान समाजवादियों का है। सकता है कि एक वस्तु के सम्बन्ध में ऐसे अनेक तथ्य होते प्रश्न होता कि मकान किसका समझा जाए ? उपयुक्त है जो हमारे ज्ञान में मनिहित हैं और एक ही समय में वाक्यों में एक भी ऐसा नहीं हैं, जिसे अप्रमाणित माना मब समान रूप से सत्य हैं फिर भी वस्तु के पूर्ण रूप की जाए। सभी प्रश्न भिक्ष-भिन्न अपेक्षाओं से एक ही विषय अभिव्यक्ति में उनकी विभक्ति करनी ही पड़ेगी। यह तो में सत्य है । एक वाक्य में जो कयन है, दूसरे में वह उससे भाषा की विशेषता है कि वह एक ही शब्द में वस्तु के पर्वथा भिन्न है। फिर भी परस्पर में अबिरोध है। विरोध इस सम्पूर्ण स्वरूप को नहीं बांध सकनी । जिम धर्म का प्रति- लिए नहीं है कि प्रत्येक में अपेक्षा भेद है। वह मकान पादन करना हो उसके लिए नबोधक शब्द का प्रयुक्ति उपादान कारण की अपेक्षा से पत्थर का है। स्वामित्व की करके अवशिष्ट धर्मों के लिए 'स्यात्' शब्द का प्रयोग अपेक्षा से नरेश का है । कार्यक्षमता की अपेक्षा से रहने का होता है अर्थात प्रतिपाद्य धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों की है। काल की अपेक्षा से सन् १९१२ का है। श्राकार और मना का म्वीकरण तो है किन्तु वर्तमान में उसका कथन ऊंचाई की अपेक्षा से पांच मंजिल का है। वर्ण की अपेक्षा नहीं किया गया है। कभी-कभी 'म्यात्' शब्द की प्रयुक्ति से लाल रंग का है और किमी दल विशेष से सम्बन्ध की के अभाव में भी वस्तु धर्म का प्रतिपादन होता है, किन्तु अपेक्षा से समाजवादियों का है । प्रश्नकर्ता की भिन्न-भिक्ष वहां भी कथक के अभिप्राय में कथ्यमान धर्म के अतिरिक्त अपेक्षाएं उत्तरदाता को भिन्न-भिन्न उत्तर देने को उत्प्रेरित धर्मों का निराकरण करने की बात नही जानी चाहिए। तभी करती हैं। क्योंकि एक ही उत्तर से समस्त जिज्ञासाएं समावस्तु सम्बन्धी वास्तविकता का समादर किया जा सकता है। हित नहीं हो सकती। इस तथ्य को हम एक वाक्य में यों भी कह सकने हैं कि जोक भाषा और व्यवहार में मापेक्ष कथन का यह वस्तु सम्बन्धी सम्पूर्ण दृष्टि प्रमण तथा एक दृष्टिनय प्रकार जितना मौलिक और सत्य है उतना ही दर्शन जगत कहलाता है। में भी। उपरोक्त प्रावास सम्बन्धी ज्ञान में एकान्तवादिता प्रमाण और नय दोनों का उद्देश्य यही है कि वस्तु मल्य से जितनी दूर ले जाती है, उतनी ही तत्व ज्ञान के का प्रतिपादन उचित भाषा में हो और ज्ञाता उनके अभि- सम्बन्ध में भी। अतः दर्शन और लोक व्यवहार दोनों ही प्राय को ठीक प्रकार से हृदयंगम कर सके। इस वाक्य क्षेत्रों में म्यादाद का प्रयोग न केवल उचित ही है, किन्तु प्रणाली को अहिया की वैचारिक पृष्ठ भूमिका कहा जा अनिवार्य भी है। सकता है। क्योंकि यह यथार्थ कथन है और यथार्थता ही महावीर के म्याद्वाद के सम्बन्ध में कुछ हमर दार्शनिकों अहिमा है । यह प्रणाली कथित और कथनावशिष्ट धर्मो का खास तर्क यह है कि यदि कोई वस्नु 'मन' है तो 'अमन्' को, यदि वे वस्तु-प्रमाणित होते हैं तो समानरूप से वी कैसे हो सकती है? इसी प्रकार एक-अनेक, नित्य-अनित्य कार करती है । अलग-अलग अपेक्षाएँ अलग-अलग प्रादि परस्पर विरोधी स्वभाव एक ही समय में एक ही जिज्ञामाओं के प्रत्युत्तर से स्वयं प्रतिफलित होती हैं। एक पदार्थ मम टिक सकते है। इसी तर्क के आधार पर शंकरामकान विशेष के लिए प्रश्नकर्ता को उसकी जिज्ञामानों के चार्य और रामानुजाचार्य ने स्याद्वाद को 'मिथ्यावाद' कह कर अनुसार भिन्न-भिन्न समाधान दिये जा सकते हैं उसकी उपेक्षा की । राहुल मांकृत्यायन ने 'दर्शन-दिग्दर्शन' -यह मकान पत्थर का है। में बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के शब्दों के आधार पर दही, २-यह मकान नरेश का है। दही भी है और उंट भी, तो दही खाने के समय ऊंट ग्वाने ३-यह मकान रहने का है। को क्यों नहीं दौड़त ? इस प्रकार के कथन से म्याद्वाद का ४-यह मकान सन् १९६२ का है। उपहास किया है। डा. राधाकृष्णन ने इसे 'अर्धमन्य' कह
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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