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________________ जैन-दर्शन में सप्तभंगीवाद उपाध्याय मुनि श्री अमरचन्द [सप्तभगीवाद जैनदर्शन के 'स्याद्वाद' का विश्लेषण है। जंन प्राचार्यों ने स्यावाद को सात रूपों में विभक्त कर समझाने का सफल प्रयास किया है। इन सात रूपों को हो सप्तभंग कहते हैं। यायिकों ने अपनी भाषा में उलझा कर इसे दुरुह बना दिया, परिणामतः विद्वान् भी 'सप्तभंगी' का नाम सुन कर घबड़ाते है। इस निबन्ध में मनि अमरचन्द जी ने 'सप्तभंगी' को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। प्राशा है कि पाठक न ऊबेंगे न उकतायेगे, अपितु उनको जिज्ञासा वृत्ति को प्रानन्द प्राप्त होगा -सम्पादक] मास्पदर्शन का चरम विकास प्रकृति पुरुष-बाद में अधिगम के दो भेद है-स्वार्थ प्रौर परार्थ३ । हमा, वेदान्तदर्शन का चिद् अद्वैत में, बौद्ध दर्शन का स्वार्थ ज्ञानात्मक होता है, पगर्थ शब्दात्मक । भग का का विज्ञानवाद में और जैन दर्शन का अनेकान्त एव प्रयोग परार्थ (दूसरे को बोध कराने के लिए किया जाने स्याद्वाद मे। स्याहाद जनदर्शन के विकास की चरम- वाला शब्दात्मक अधिगम) में किया जाता है, स्वार्थ रेखा है। इसको समझने के पूर्व प्रमाण एव नरा को (अपने आपके लिए होने वाला ज्ञानात्मक अधिगम) मे समझना आवश्यक है। और प्रमाण एव नय नही । उक्तवचन-प्रयोग रूप शब्दात्मक परार्थ अधिगम को समझने के लिए सप्तभगी का समझना भी आवश्यक के भी दो भेद किये जाते है--प्रमाण-वाक्य और नयही नही परम आवश्यक है। जहा वस्तुगत अनेकान्त वाक्य । उक्त प्राधार पर ही सप्तभगी के दो भेद किये के परिबोध के लिए प्रमाण और नय है, वहा प्रतिपादक हैं-प्रमाण सप्तभंगी पोर नय मातभगी। प्रमाण वाक्य वचन-पद्धति के परिज्ञान के लिए मातभगी है। यहाँ पर को सकलादेश और नय वाक्य को विकलादेश भी कहा मुख्य रूप में मनभगीवाद का विश्लेषण ही अभीष्ट है। गया है । वस्तुगत अनेक धर्मो के बोधक वचन को सकलाग्रत प्रमाण और नय की स्वतन्त्र परिचर्चा मे न जाकर देश और उसके किसी एक धर्म के बोधक-वचन को सप्तभगी की ही विवेचना करेंगे। विकलादेश कहते है। जैनदर्शन मे वस्तु को अनन्त सप्तभंगी धर्मात्मक माना४ गया है। वस्तु की परिभाषा इस प्रश्न उठता है कि सप्तभगी क्या है ? उमका प्रयो- प्रकार की है-जिसमे गुण और पर्याय रहते है, वह वस्तु जन क्या है ? उसका उपयोग क्या है ? विश्व की है। नत्त्व, पदार्थ और द्रव्य ये वस्तु के पर्यायवाची शब्द है। प्रत्येक वस्तु के स्वरूप-कथन में मात प्रकार के वचनो का प्रयोग किया जा सकता है, इसी को मप्तभगी ३. अधिगमोद्विविध, स्वार्थ. परार्थश्च, स्वार्थोजानात्मक. पगथं शब्दात्मक । म च प्रमाणात्मको नयाकहते है। त्मकश्च ..... "इयमेव-प्रमाणमातभगी च कथ्यते । वस्तु के यथायं परिबोध के लिए जनदर्शन ने दो -मप्तभगीतरांगणी, पृ० १ उपाय स्वीकार किये है-प्रमाण२ और नय । ससार की अधिगमहेतु द्विविध......'तत्त्वा० ग० १-६-४ किसी भी वस्तु का अधिगम (बोध) करना हो तो वह . ४. अनन्नधर्मात्मकमेव तत्त्वम् बिना प्रमाण और नय के नही किया जा सकता। अन्ययोग व्यवच्छेदिका का० २२ १. सप्तभि प्रकारर्वचन-विन्यासः सप्तभंगीतिगीयते । ५. वसन्ति गुण-पर्याया अस्मिन्नितिवस्तु-धर्माधर्मा -स्याद्वाद मजरी, का० २३ टीका।। ऽऽकाश पुद्गल-काल जीवलक्षणं द्रव्य षट्कम् । २. प्रमाण नये रधिगम.--तत्त्वार्थागम मू० १.६ । -स्याद्वादमजरी, कारिका २३ टीका ।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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