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अनेकान्त
सप्तभगी की परिभाषा करते हुए कहा गया है, है । अनेकान्त एक लक्ष्य है, एक वाच्य है और सप्तभंगी कि-"प्रश्न उठने पर एक वस्तु मे अविरोध-भाव से जो स्याद्वाद एक साधन है, एक वाचक है, उसे समझने का एक धर्म-विषयक विधि और निषेध की कल्पना की एक प्रकार है। अनेकान्त का क्षेत्र व्यापक है, जबकि जाती है, उसे सप्तभगी कहा जाता है।" भंग सात स्याद्वाद का प्रतिपाद्य विषय व्याप्य है, दोनों में व्याप्य ही क्यों हैं ? क्योंकि वस्तु का एक धर्म-सम्बन्धी प्रश्न व्यापक-भाव सम्बन्ध है। अनन्तानन्त अनेकान्तों मे सात ही प्रकार से किया जा सकता है। प्रश्न सात ही शब्दात्मक होने से सीमित १ स्याद्वादो की प्रवृत्ति नहीं प्रकार का क्यो होता है ? क्योकि जिज्ञासा सात ही हो सकती, अतः स्याद्वाद अनेकान्त का व्याप्य है ब्यापक प्रकार से होती है । जिज्ञासा सात ही प्रकार से क्यों होती नहीं। है ? क्योंकि संशय सात ही प्रकार से होता है। प्रत भंग कथन पद्धतिकिसी भी एक वस्तु के किसी भी एक धर्म के विषय मे
शब्द शास्त्र के अनुसार प्रत्येक शब्द के मुख्य रूप में सात ही भग होने से इसे सप्तभंगी कहा गया है। गणित
दो वाच्य होते है-विधि और निषेध । प्रत्येक विधि के शास्त्र के नियमानुसार भी तीन मूल वचनो के सयोगी
साथ निषेध है और प्रत्येक निषेध के साथ विधि है । एवं प्रसयोगी अपुनरुक्त भग सात ही हो सकते है
एकान्त रूप से न कोई विधि है, और न कोई निषेध । कम और अधिक नही। तीन असयोगी मूल भग, तीनद्वि
इकरार के साथ इन्कार और इन्कार के साथ इकरार सयोगी भंग और एकत्रिसंयोगी भंग। भग का अर्थ है
सर्वत्र लगा हुआ है। उक्त विधि और निषेध के सब विकल्प प्रकार और भेद ।
मिलाकर सप्तभंग होते है । सप्तभगो के कथन की पद्धति सप्तभंगी और अनेकान्त
यह है - वस्तु का अनेकान्तत्त्व और तत् प्रतिपादक भाषा की १. स्यास्ति, २. स्यादनास्ति, ३. स्पाद् अस्तिनिर्दोष पद्धति स्याद्वाद, मूलतः सप्तभगी मे सन्निहित है। नास्ति, ४. स्याद् प्रवक्तव्य, ५ स्याद् अस्ति प्रवक्तव्य, अनेकान्त दृष्टि का फलितार्थ है, कि प्रत्येक वस्तु मे ६. स्याद् नास्ति प्रवक्तव्य, . स्याद् अस्ति नास्ति सामान्य रूप से और विशेष रूप से, मित्रता की दृष्टि से प्रवक्तव्य ।। पौर प्रमित्रता की दृष्टि से, नित्यत्व की अपेक्षा से और सप्तभगी में वस्तुत: मूलभग तीन ही है.-अस्ति, अनित्यत्व की अपेक्षा से तथा सद्रूप से और असद्रूप से नास्ति और प्रवक्तव्य । इसमे तीन द्विसयोगी और एक त्रिअनन्त धर्म होते है । सक्षेप मे-"प्रत्येक धर्म अपने प्रति- सयोगी-इस प्रकार चार भंग मिलाने से सात भंग होते पक्षी धर्म के साथ वस्तु मे रहता है।"यह परिबोध है। दिसंयोगी भंग ये है अस्ति-नास्ति, अस्तिग्रवक्तव्य और अनेकान्त दृष्टि का प्रयोजन है। अनेकान्त स्वार्थाधिगम है, प्रमाणात्मक-श्रुतज्ञान है। परन्तु सप्तभगी की उप- १. अभिलाप्पभाव, अनभिलाप्यभावो के अनन्तवे भाग योगिता इस बात में है कि वह वस्तु-गत अनेक अथवा
है-पण्णवणिज्जाभावा, अणन्तभागो दु प्रणभिनअनन्त धर्मों की निर्दोष भाषा मे अपेक्षा बताए, योग्य प्पाण । गोम्मटमार-अनन्त का अनन्तवां भाग भी अभिव्यक्ति कराये। उक्त चर्चा का साराश यह है कि अनन्त ही होता है। प्रत वचन से भी अनन्त है। अनेकान्त अनन्तधर्मात्मक वस्तु स्वरूप को एक दृष्टि है,
तत्त्वार्थश्लो० १,६,५२ के विवरण में कहा हैऔर स्याद्वाद अर्थात् सप्तभगी उस मूलज्ञानात्मक दृष्टि "एकत्र वस्तुनि अनन्तानां धर्माणामभिलापयोग्यनाको अभिव्यक्त करने की अपेक्षा-सूचि का एक वचन-पद्धति मुपगमादनन्ता एक वचन मार्गा स्याद्वादिना भवेयु ।
यह ठीक है कि वचन अनन्त है फलत स्याद्वाद भी १. प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधि- प्रतिषेध अनन्त है, परन्तु वह अनेकान्तधर्मो का अनन्तवाँ विकल्पना सप्तभगी। (तत्त्वा० रा० वा. १,६,५१ ।) भाग होने के कारण सीमित है, फलत व्याप्य है।