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________________ जैन-दर्शन में सप्तभंगीवाद २५५ नास्ति प्रवक्तव्य । मूलभग तीन होने पर भी फलितार्थ स्वरूप की सत्ता भी मानी जाय १, तो उनमे स्व-पर रूप से सात भगो का उल्लेख भी आगमों में उपलब्ध विभाग कसे घटित होगा ? स्व-पर विभाग के प्रभाव में होता है। भगवती सूत्र में जहाँ त्रिप्रदेशिक स्कन्ध का सकरदोप उपस्थित होता है, जो सब गुड़-गोबर एक कर वर्णन आया है वहाँ स्पष्ट रूप से सात भंगों का प्रयोग देता है। प्रत. प्रथम भग का यह अर्थ होता है कि घट की किया गया है? ? प्राचार्य कुन्दकुन्द ने सात भंगों का नाम सत्ता किसी एक अपेक्षा से है, सब अपेक्षामो से नहीं। गिनाकर सप्तभग का प्रयोग किया है । भगवती सूत्र और वह एक अपेक्षा है स्व की, स्वचतुष्टय की। में प्रवक्तव्य को तीसग भंग कहा है३ । जिन भद्रगणी द्वितीयभंगः-स्याद नास्ति घट क्षमाश्रमण भी प्रवक्तव्य को तीसरा भग मानते हैं४ । यहाँ घट की सना का निषेध पर-द्रव्य, परक्षेत्र, पर कुन्दकुन्द ने पचास्तिकाय में इसको चौथा माना है, पर काल और परभाव की अपेक्षा से किया गया है। प्रत्येक अपने प्रवचनसार में इसको तीसरा माना है५ । उत्तरकालीन पदार्थ विधिरूप होता है, वैसे निषेध रूप भी । प्रस्तु घट प्राचार्यों की कृतियो में दोनों क्रमो का उल्लेख मिलता है। मे घट के अस्तित्व की विधि के साथ घट के अस्तित्व का प्रथम भंग:--स्याद् अस्तिघट निषेध-नास्ति भी रहा हया है। परन्तु वह नास्तित्व उदाहरण के लिए घट गत मना धर्म के सम्बन्ध मे अर्थात् सत्ता का निषेध, स्वाभिन्न अनन्त पर की अपेक्षा मातभगी घटाई जा रही है। घट के अनन्त धर्मों में एक से है। यदि पर की अपेक्षा के समान स्व की अपेक्षा से धर्म मत्ता है, अस्तित्व है। प्रश्न है कि वह अस्तित्व किस भी अस्तित्व का निषेध माना जाए, तो घट नि स्वरूप हो अपेक्षा मे है ? घट है, पर वह क्यो और कैसे है ? इमी जाये२। और यदि नि स्वरूपता स्वीकार करे, तो स्पष्ट का उत्तर प्रथम भग देता है। ही सर्वशन्यता का दोष उपस्थित हो जाता है। प्रतः द्वितीय घट का अस्तित्व स्यात् है, कथ-चित् है, स्वचतुष्टय भंग सूचित करता है कि घट कथचित् नही है, घटभिन्न की अपेक्षा में है। जब हम चाहते है कि घडा है, तब पटादि की, परचतुष्टय अपेक्षा मे नही है। स्वरूपेग ही हमारा अभिप्राय यही होता है, कि घड़ा स्वद्रव्य स्वक्षेत्र, सदा स्व है, पर रूपेग नहीं । स्वकाल और स्वभाव की दृष्टि से है। यह घट के अस्तित्व ततीय भंग : अस्ति नास्ति घट की विधि है, अत यह विधिभग है। परन्तु यह अस्तित्व परन्तु यह आस्तत्व जहाँ प्रथम समय मे विधि की और द्वितीय समय में की विधि स्व की अपेक्षा है, परकी अपेक्षा से नहीं है। निषेध की क्रमशः विवक्षा की जाती है, वहाँ तीसरा भंग विश्व की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व स्वरूप से ही होता होता है। इममे स्व की अपेक्षा सत्ता का प्रौर पर की है, पर रूप से नही। "सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण अपेक्षा अमत्ता का एक साथ, किन्तु क्रमश' कथन किया नास्ति च ।" यदि स्वयं से भिन्न अन्यसमग्र पर स्वरूपो । गया है। प्रथम और द्वितीय भग विधि और निषेध का स्वमे भी घट का अस्तित्व हो, तो घट फिर एक घट ही तन्त्ररूप मे पृथक-पृथक प्रतिपादन करते है, जबकि तृतीय भंग क्यों रहे, विश्व रूप क्यो न बन जाए ? और यदि विश्व- साथ किन्त क्रमश विधि-निषेध का उल्लेख करता है। रूप बन जाए, तो फिर मात्र अपनी जलाहरणादि क्रियाएँ चतुर्थ भंग : स्याद प्रवक्तव्य घट ही घट में क्यो हो, अन्य पटादि की प्रच्छादिनादि क्रियाएँ जब घटास्तित्व के विधि और निपेध दोनों की युगपत् क्यो न हो ? किन्तु कभी ऐसा होता नही है। एक बात । अर्थात् एक समय में विवक्षा होती है, तब दोनो को एक और है। यदि वस्तुओं में अपने स्वरूप के ममान पर १. स्वरूपोपादानवत् पररूपोपादाने सर्वथा स्वपर-विभागा१. भगवती सू० श० १२, ३. १०, प्र०१६-२० । २. भाव प्रसंगात् । स चायुक्तः। पंचास्तिकाय गाथा १४, ४ । ३. भगवती सू० श० १२, -तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक १,६,५२ ३०,१०प्र०१६-२०। ४. विशेषावश्यक भाष्य गा० २. पररूपापोहनवत स्वरूपापोहने तु निरुपाख्यत्व-प्रमगात् । २, ३२। ५. प्रवचनसार जेयाधिकार गा० ११५ । -तत्त्वार्थश्लो० वा० १,६,५२
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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