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अनेकान्त
कालावच्छेदेन एक माथ अक्रमश. बताने वाला कोई शन्द विधि-निपंध की अपेक्षा से--'घट' है, घट नही, घट न होने से घट को प्रवक्तव्य कहा जाता है। शब्द की शक्ति प्रवक्तव्य है" यह कहा गया है। सीमित है। जब हम वस्तुगत किसी भी धर्म की विधि चतुष्टय को व्याख्या का उल्लेख करते है, तो उसका निषेध रह जाता है, और प्रत्येक वस्तु का परिज्ञान विधिमुखेन और निषेध मुखेन जब निषेध कहते हैं तो विधि रह जाती है। यदि विधि- होता है । स्वात्मा मे विधि है और परमात्मा से निषेध निषेध का पृथक्-पृथक् या क्रमश. एक साथ प्रतिपादन है, क्योकि स्वचतुष्टयन जो वस्तु सत् है वही वस्तु परकरना हो तो प्रथम तीन भगों मे यथाक्रम 'अस्ति-नास्ति' चतृष्टयेन असत् है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इसको और अस्ति-नास्ति शब्दों के द्वारा काम चल सकता है, चतुष्टय कहते है। घट स्व-द्रव्यरूप में पुद्गल है। चतन्य परन्तु विधि-निषेध की युगपद वक्तव्यता में कठिनाई है, आदि पर द्रव्यरूप में नही है। स्वक्षेत्र रूप म कपालादि जिसे प्रवक्तव्य शब्द के द्वारा हल किया गया है। स्याद् स्वावयवो में है, तन्त्वादि पर अवयवो मे नही है। स्वप्रवक्तव्य भग बतलाता है कि घट वक्तव्यता क्रम में ही कालरूप में अपनी वर्तमान पर्यायो मे है । पर पदार्थों की होती है, युगपद् मे नही । स्याद् प्रवक्तव्य भग एक और पर्यायो मे नही है। स्वभाव रूप में स्वय रवतादि गुरगो में ध्वनि भी देता है । वह यह कि घट के युगपद् अस्तित्व है, पर पदार्थो के गुग्गों में नही है । अतः प्रत्येक वस्तु स्वनास्तित्व का वाचक कोई शब्द नहीं है । अत. विधि-निषेध द्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव से सत् है, और परका युगपतत्त्व प्रवक्तव्य है। परन्तु वह प्रवक्तव्यत्व सर्वथा द्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, पर-भाव मे असत् है । इस अपेक्षा सर्वतोभावेन नही है । यदि सर्वथा सर्वतोभावेन प्रवक्तव्यत्व में एक ही वस्तु के मत और अमत् होने में किसी प्रकार की माना जाये, तो एकान्त प्रवक्तव्यत्व का दोष उपस्थित होता
बाधा अथवा किमी प्रकार का विरोध नही है। विश्व का है, जो जैन दर्शन में मिथ्या होने से मान्य नहीं है। अत. प्रत्येक पदार्थ स्वचतुष्टय की अपेक्षा मे है, और परचतुष्टय स्याद् प्रवक्तव्य सूचित करता है कि यद्यपि विधि निषध की अपेक्षा से वह नही भी है। का युगपत्व विधि या निषेध शब्द से वक्तव्य नही है, स्यात शब्द की योजना प्रवक्तव्य है, परन्तु वह प्रवक्तव्य सर्वथा प्रवक्तव्य नहीं मप्तभगी के प्रत्येक भग में स्व-धर्म मुख्य होता है। है 'ग्रवक्तव्य' शब्द के द्वारा तो वह युगपत्व वक्तव्य ही है। और शेष धर्म गौण अथवा अप्रधान होते है। इसी गौणपञ्चम भंग स्याद् अस्ति प्रवक्तव्य घट
मुख्य विवक्षा की सूचना 'स्यान' शब्द करता है । "स्यात्" यहाँ पर प्रथम समय मे विधि और द्वितीय समय में जहाँ विवक्षित धर्म की मुख्यत्वेन प्रतीति कराता है, वहाँ युगपद् विधि-निषेध की विवक्षा करने से घट को स्याद् ।
१ जिगमे घटबुद्धि और घट शब्द की प्रवृत्ति (व्यवहार) अस्ति अवनतव्य कहा गया है । इसमे प्रथमाश अस्ति, स्व
है, वह घट का स्वात्मा है, और जिसमें उक्त दोनों रूपेण घट की सना का कथन करता है और द्वितीय
की प्रवृत्ति नही है, वह पट का पटादि परात्मा है । प्रवक्तव्य अश युगपद् विधि-निषेध का प्रतिपादन करता
"घटयुद्धय भिधान प्रवृत्ति लिग स्वात्मा, यत्र तयोहै । पचम भग का अर्थ है-घट है, और प्रवक्तव्य भी है।
रप्रवृत्ति. म पगत्मा पटादि । षष्ठ भंग : स्याद् नास्ति प्रवक्तव्य घट
-तत्वार्थ राजवातिक १,६, ५ पृ. ३३ यहाँ पर प्रथम समय में निषेध और द्वितीय ममय में
२. अथ तद्यथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तच्चतुष्क च । एक साथ युगपद् विधि निषेध की विवक्षा होने से घट
द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेन तथाऽथवापि भावेन ।। नही है, और वह प्रवक्तव्य है---यह कथन किया गया है।
-पचाध्यायी १, २६३ सप्तम भंग : स्यात् मस्ति नास्ति प्रवक्तव्य घट
३. स्याद्वाद मजरी (का० २३) मे घट का स्वचतुष्टय यहाँ पर क्रम से प्रथम समय मे विधि और द्वितीय क्रमशः पार्थिव, पाटलिपुत्रकत्व, शशि रत्व और समय में निषेध तथा तृतीय समय एक साथ में युगपद् श्यामत्व रूप छपा है, जो व्यवहार प्रधान है।