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________________ अन-वर्शन में सप्तमंकीबाब २५७ अविवक्षित धर्म का भी मर्वथा अपलापन न करके उसका किया जाए। गौणत्वेन उपस्थापन करता है । वक्ता और श्रोता यदि अन्य बर्शनों में भंग-योजना का रहस्यशब्द-शक्ति और वस्तु स्वरूप की विवेचना मे कुशल है। नो 'म्यात्' शब्द के प्रयोग की प्रावश्यकता नहीं रहती। भगों के सम्बन्ध मे स्पष्टता की जा चुकी है, फिर भी अधिक स्पष्टीकरण के लिए इतना समझना प्रावश्यक बिना उमके प्रयोग के भी अनेकान्त का प्रकाशन हो जाता है। 'अहम् अस्मि ' मैं हैं। यह एक वावय प्रयोग है। इस है, कि सप्तभगी मे मूलभग तीन ही है-अस्ति, नास्ति में दो पद है-क 'ग्रहम' और दुमग 'अस्मि'। दोनों में और प्रवक्तव्य । शेष चार भग सयोगजन्य है तीन द्विमे एक का प्रयोग होने पर दूसरे का अर्थ स्वत ही गम्य मयोगी और एक त्रिमयोगी है । प्रत वेदान्त, बौद्ध और मान हो जाता है, फिर भी स्पष्टता के लिये दोनों पदों वंशपिक दर्शन की दृष्टि से मूल तीन भगो की योजना का प्रयोग किया जाता है। इमी प्रकार 'पार्थो धनुर्धर इम प्रकार की जाती है। इत्यादि वाक्यो मे एव' कार का प्रयोग न होने पर भी अद्वैत वेदान्त में एकमात्र तत्त्व ब्रह्म ही है। किन्तु तन्निमित्तफ 'अर्जन ही धनुर्धर है-यहाँ अर्थबोध होता है वह 'अस्ति' होकर भी प्रवक्तव्य है। उसकी मना होने और कुछ नही२ । प्रकृत में भी यही मिद्धान्त लागू पडता पर भी वाणी से उसकी अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। है। स्यात्-शून्य केवल 'अम्ति घट' कहने पर भी यही अर्थ अत: वेदान्त में ब्रह्म 'अस्ति' होकर भी 'प्रवक्तव्य है। निकलता है, कि "कथाचित् घट है, किमी अपेक्षा से घट बौद्ध-दर्शन में प्रन्यापोह 'नास्ति' होकर भी प्रवक्तव्य है। है।" फिर भी भूल-चक को माफ करने लिए किवा वना के क्योकि वाणी के द्वारा अन्य का सर्वथा प्रपोह करने पर भावो को समझने में भ्रान्ति न हो जाये, इमलिये 'स्यात्' । किमी भी विधिम्प वस्तु का बोध नही हो सकता। प्रतः शब्द का प्रयोग अभीष्ट है । क्योकि ममार मे विद्वानी की बौद्ध का अन्यापोह 'नास्ति' होकर भी प्रवक्तव्य रहता अपेक्षा माधारण जनो की मख्या ही अधिक है। अत: है । वैशेपिक दर्शन में सामान्य और विशेष दोनो स्वतन्त्र मप्नभगी जैसे गम्भीर तत्त्व को ममझने का बहुमत-सम्मत है। सामान्य-विशेष अम्ति-नास्ति१ होकर भी प्रवक्तव्य गजमार्ग यही है. कि मर्वत्र 'स्यात्'३ शब्द का प्रयोग रहता है । वैशेषिकदर्शन मे मामान्य और विशेप दोनों १. अप्रयुक्तोऽपि मर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात्प्रतीयते । स्वतन्त्र है । मामान्य-विशेष प्रस्ति-नास्ति होकर प्रवक्तव्य विधी निषेधेऽप्यन्यत्र, कुशलश्चेत्प्रयोजक ॥६३॥ है। क्योकि वे दोनो किमी एक शब्द के वाच्य नही हो लघीयस्त्रय, प्रवचन प्रवेश मकन है और न मर्वथा भिन्न मामान्य-विशेप में कोई अर्थ २. सो प्रयुक्तोऽपि नज्ज सर्वत्रार्थात्प्रतीयते, क्रिया ही हो सकती है। इस दृष्टि में जैन सम्मत मूलतथैवकारो योगादि व्यवच्छेद प्रयोजन.॥ भगो की स्थिति अन्य दर्शनो में भी किसी न किसी रूप -तत्त्वार्थ इलोक वा० १, ६, ५६ मे स्वीकृत हे२। ३. स्यादित्यव्ययम् अनेकान्त द्योतकम् ।। स्याद्वाद मजरी सकलादेश और विकलादेश का० ५ प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि स्यात् को अनेकान्त बोधक ही मानते हैं, अतः उन्हे स्यात् प्रमाण में यह बताया जा चुका है कि प्रमाण वाक्य को सकलाअभीप्ट है, नय में नहो ।-सदेव सत् स्यात्मदिति देश और नय-वाक्य को विकलादेश कहते है। फिर भी विधार्थ....."अयोग० का०२८। जबकि भट्टाकलक उक्त दोनो भदो को और अधिक स्पष्टता से समझने की लघीयस्त्रय ६२ मे स्यात् को सम्यग् अनेकान्त मौर आवश्यकता है। पाच ज्ञानी में थतज्ञान भी एक भेद है। मोर सम्यग् एकान्त उभय का वाचक मानते है, प्रत. -" उन्हें प्रमाण और नय-दोनो मे ही स्यात् अभीप्ट १. विशेष व्यावृत्ति हेतुक होने से नास्ति है। २. देखो, प. महेन्द्र कुमार सम्पादित जैनदर्शन पृ. ५४३
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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