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खजुराहो का आदिनाथ जिनालय
नीरज जैन
खजराहो अपने अद्वितीय कला भण्डार के कारण हो चुका है। इस लेख में आदिनाथ जिनालय का वर्णन दिन प्रति दिन प्रसिद्धि के शिखर की प्रोर बढ़ रहा है। प्रस्तुत है। यहाँ के शिल्प-सौंदर्य का कीर्तिगान सात समुन्दर पार भी पार्श्वनाथ मन्दिर के पार्श्व में स्थित यह मन्दिर अपनी पूरी लय और तान के साथ गूज रहा है। यह प्राकार प्रकार में उससे कुछ छोटा तथा लगभग एक सौ स्थान मध्य प्रदेश के छतरपुर, जिले में स्थित है तथा वर्ष उपगन्त की रचना माना जाता है। यह पंचायतन महोबा, हरपालपुर, छतरपुर प्रौर पन्ना तथा सतना से भी नहीं है परन्त नागर शैली के मन्दिगे में उत्तर मध्य यहाँ के लिए बस द्वारा जाया जा सकता है।
काल की एक विशिष्ट, सीधी परन्तु अलंकृत शिखर खजुराहो मे अन्य धर्मों के माथ साथ जैनधर्म का
सयोजना के कारण समकालीन मन्दिरों में अपना विशिष्ट भी बडा प्रचार रहा है और आज भी जो प्रचुर जैन पुरा
स्थान रखता है। ऊँचे अधिष्ठान पर स्थित इस मन्दिर
के सामने का मण्डप कालदोप से ध्वस्त हो चुका था जो तत्त्व वहाँ पाया जाता है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जैन पुरातत्त्व, मन्दिरों के एक प्रथक समूह मे ही स्थित है।
बाद मे ईट और चूने का बनवा दिया गया है। इसके जिसे हम---१. पारसनाथ मन्दिर, २. आदिनाथ मन्दिर,
अतिरिक्त शेष मन्दिर यथा स्थिति सुरक्षित है।
श्रात ३. शातिनाथ मन्दिर, ४ घंटाइ मन्दिर तथा ५ जैन भित्तियो पर मूर्तियों का प्रकन यहाँ केवल बाहर संग्रहालय के रूप में जानते हैं। इस समस्त कला भण्डार पाया जाता है। प्रदक्षिणा पथ इसमें भीतर नहीं है। का परिचयात्मक वर्णन तो मैंने अपनी एक प्रथक् पुस्तक मूर्तियाँ उमी प्रकार एक पर एक तीन पक्तियो मे अकित "खजुराहो का जैन पुगतत्त्व" मे किया है परन्तु उनका हैं। ऊपर की छोटी पक्ति में गधर्व, किन्नर, और विद्यासक्षिप्त वर्णन अनेकान्त के पाठकों की सेवा में क्रमशः धर तथा शेष दो पंक्तियों में शामन देवता-यक्ष, मिथुन प्रस्तुत किया जा रहा है। जैन ग्रुप का पाश्र्वनाथ मन्दिर तथा प्रमगये प्रादि दिखाये गये है। एक तो यह कि समूचे खजुराहो का सभवत सर्वाधिक मुन्दर मन्दिर कला बीच की पक्ति मे देव कुनिकाय बना कर उनमे अनेक मर्मज्ञों द्वारा माना गया है। उसका वर्णन अनेकान्त की जैन शासन देवियो की बड़ी-बडी ललितासन मूर्तियाँ किरण ४ पृष्ठ १५१ (अक्टूबर १९६३) में प्रकाशित स्थापित हैं। ये कुल सोलह है तथा इनके वाहन, प्रायुध
लगे। घर-घर में चन्दन छिडक दिया गया। मुचकुन्द के वन जीवन के वास्तविक विकास का क्रम प्रदर्शित कर कवि फूल उठे । घर-घर पर शोभित होने वाले जयमगल कलश ने मानव-मन की सत्रिय चेतना का प्रसार किया है। इस ऐसे जान पड़ने लगे मानो किसी देवता ने अवतार लिया हो। प्रकार पौराणिकता से बहुत कुछ हट कर लोक-भूमि से
कुल मिलाकर "भविमयत्तकहा" अपभ्रश का मुख्य चेतना ग्रहण कर कवि ने जिस वातावरण और भाव-भूमि कथाकाव्य है जो धार्मिक होकर भी शुद्ध काम्य की दृष्टि की मृष्टि की है वह अत्यन्त स्फीत, प्रेरक एव यथार्थता से भी उत्तम रचना है अन्य कथाकाव्यो की भाँति मानव से मण्डित है।