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________________ अनेकान्त और परिकर का ऐसा सजीव और बारीक अंकन यहाँ प्रोर मध्य पंक्ति में खण्डिता नायिका की अस्त-व्यस्त किया गया है कि उसके द्वारा उन देवियों का सही और वेषभूषा परन्तु लज्जापूर्ण मुद्रा मेरे इस कथन की साक्षी शास्त्रोक्त स्वरूप समझने में बड़ी सहायता मिलती है। है। देवगढ़ के अतिरिक्त शासन देवियों का ऐसा अंकन अन्यत्र एक और सविशेष अप्सरा का अंकन मध्य पंक्ति मे मैंने नहीं देखा । ये सोलह विद्या देवियां भी हो सकती हैं परिक्रमा प्रारम्भ करते ही तीसरी श्रेणी पर मिलता है। पर पूरी शोध के बिना निश्चित कुछ कहना अभी ठीक इस नृत्यांगना के शरीर की फुर्ती और प्रति गतिमान न होगा। चरणों का अकन इतना सजीव है और मुद्रा इतनी शांत इन पट्रिकामों की दूसरी विशेषता यह है कि इनके सौम्य तथा मनोहर है कि उसे देखकर मुझे विश्व-विश्रुत कोणों पर भगवान युगादि देव के शासन सेवक गावदन नर्तकी नीलाम्जना का स्मरण हो पाता है। यक्ष का बड़ा सुन्दर और वैचित्र्य पूर्ण प्रकन है । यह यक्ष भगवत् जिनसेनाचार्य ने महापुराण के सत्रहवें पर्व प्रपनी दर्प पूर्ण मुद्रा में मन्दिर के चारों कोनों पर अंकित में भगवान प्रादिनाथ के दीक्षा प्रसंग का जो वर्णन किया है और चतुर्भज होकर भी सीघा, मनुष्याकृति खड़ा हुआ है उससे ज्ञात होता है कि एक बार इन्द्र ने भगवान की दिखाया गया है। इसके प्रायुध, अलंकार, यज्ञोपवीत सभा मे उनकी पाराधना हेतु नत्य गान का प्रायोजन प्रादि बडे स्पष्ट और सुन्दर हैं। किया । उसी समय उसके मन में विचार पाया कि भगअप्सरानों की मतियाँ यहाँ निश्चित ही पाश्वनाथ वान को विराग कैसे उत्पन्न होगा? उसी वैराग्य के मन्दिर से कम है और उनका प्राकार भी थोड़ा छोटा है निमित्त रूप में इन्द्र ने अनिद्य रूपवती नीलाञ्जना नाम पर अपने विविध अभिप्रायों और भाव-भंगिमानों को की अप्सरा का नृत्य प्रारम्भ कराया। इन्द्र को ज्ञात था उजागर करने में वे किसी भी प्रकार असमर्थ नहीं दिख- कि उस नर्तकी की आयु शीघ्र ही समाप्त होने वाली है। लाई देतीं। यहाँ शिखर की उठान सादी होने के कारण इस सुर सुन्दरी के भाव-लय-पूर्ण नृत्य ने एक बार दर्शक के लिए ये मूर्तियाँ एकांत पाकर्षण का केन्द्र बनकर भगवान प्रादिनाथ के मन को भी इस प्रकार अनुरूप बना उसकी चेतना को मोह लेती हैं और दृष्टि को भटकने लिया, जैसे अत्यन्त शुद्ध स्फटिक मणि भी अन्य पदार्थों नहीं देती। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, बीच-बीच के संसर्ग से लालिमा ग्रहण कर लेता हैमें शासन देवियों या विद्या देवियों का प्रकन होने के तन्नत्यं सुरनारीणां मनोस्पारञ्जयत प्रभो। कारण इन रूप राशि अप्सराओं की मनोहरता और स्फटिकोहि मणिः शुद्धोऽप्यावत्ते राग मन्यतः॥ सार्थक्य अधिक मान्य हो उठा है। (महा पु० १७-५) इन अप्सरामों में पारसी देखकर सीमत मे सिन्दूर नृत्य के बीच में ही नीलाञ्जना की प्रायु समाप्त हो अालेखन करती हुई रूप गविता तथा पारसी देखकर ही गई और उसका शरीर लोप हो गया। इन्द्र ने तत्क्षण नयन प्रांजती हुई सुनयना और चुम्बन के व्याज से उसी रूप रेखा की दूसरी नर्तकी इस प्रकार प्रस्तुत कर वालक पर ममता उड़ेलती हुई जननी का चित्रण बहुत दी कि साधारण दर्शक इस परिवर्तन को लक्ष्य भी न कर स्वाभाविक, बहुत सुन्दर और बहुत अविस्मरणीय है। सके, पर भगवान ने जीवन की भंगुरता को लक्ष्य किया शृगार की दाहकता से पीड़ित दर्शक की दृष्टि मातृत्व और वही उनके वैराग्य का निमित्त कारण बना । की इस शीतल धारा मे अनुपम मानन्द की अनुभूति मैं जिस अप्सरा मूति की चर्चा कर रहा हूँ, वह करती है। इन्हीं पंक्तियों में नायिकाओं तथा कामिनी अपने परिकर के मध्य ऐसे असाधारण रूप से उभरी हुई भामिनियों का जो अंकन है वह भी एक गौरव तथा अंकित की गई है जिसे देख कर मुझे विश्वास होता है शालीनता के साथ भारतीय नारी के "स्त्रीत्व" की रक्षा कि भगवान आदिनाथ के वैराग्य प्रसंग की नायिका का प्रयास करता हुप्रा सा जान पड़ता है। पश्चिम की नीलाञ्जना का ही अवतरण कलाकार ने यहाँ किया है।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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