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________________ अनेकान्त वेदों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले जैनो तथा बौद्धो के द्वारा यज्ञ की कल्पना लौकिक और पारलौकिक दोनों है। निर्मित सस्कृति की और चौथी वेद-पूर्व सस्कृति के प्रावि- उसका लौकिक फल है सुख-शान्ति प्रोर पारलौकिक फल प्कार के रूप में अवस्थित मूर्तिपूजक पौराणिक धर्म को१। है स्वर्ग७ । ऋण और वर्ण-व्यवस्था इन दोनो का फल है शास्त्री जी ने जिन अन्तिम कल्पनायो-कर्म-विपाक, समाज की सस्थापना और मघटना । तीन ऋण ब्रह्मचर्य समार का बन्धन और मोक्ष या मुक्ति को अन्ततोगत्वा और गृहस्थ इन दो प्राथमो के मूल है। ब्रह्मवर्य प्राश्रम वैदिक कहा है, वे मूलत अवैदिक हे। मे रहकर वेदाध्ययन किया जाता और गृहस्थ आश्रम वैदिक साहित्य मे प्रात्मा और मोक्ष की कल्पना ही प्रविष्ट होकर सम्मान का उत्पादन । वानप्रस्थ और नही है। इनके बिना कर्म-विपाक और बन्धन की कल्पना सन्याम जैस प्रायम उन व्यवस्था मे अपेक्षित नही थे। का विशेष प्रर्थ नही रहता। TOTO मैकडोनेल का प्रभि- वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्त ने जातिवाद को तात्त्विक मत है-बाद में विकमित पूनर्जन्म के सिद्धान्त का वेदो रूप दिया और ऊँच-नीच ग्रादि विषमतामो की मष्टि की। मे कोई मकेत नही मिलता, किन्तु एक 'ब्राह्मण' मे यह श्रमण-संस्कृति के मूल तत्त्व उक्ति मिलती है कि जो लोग विधिवत् मम्कागदि नही थमण-सस्कृति के मून तत्त्व है-व्रत, मन्यास और करते वे मत्यु के बाद पुन. जन्म लेते है और बार-बार समता । व्रत और सन्याम का मूल है मोक्षवाद । समता मन्यु का ग्रास बनते रहते है। का मूल है यात्मवाद । आत्मा का ध्येय है बन्धन से मुक्ति वधिक संस्कृति के मूल तत्त्व की ओर प्रयाण । बमण-सस्कृति मे ममाश्वस्त ममाज का __ वैदिक संस्कृति के मूल तत्त्व है-यज, ऋण और ध्येय भी यही है। इसीलिए सामाजिक जीवन समानता वर्ण-व्यवस्था । यज्ञ के मुख्य प्रकार तीन है--पाक-यज्ञ, की अनुभूति से परिपूर्ण हुआ। आर्थिक जीवन को व्रत से हविर्यज्ञ और सोमयज्ञ३। नियमित किया गया। वैयक्तिक जीवन को सन्याम से ऋण तीन प्रकार के माने जाते थे-देव-ऋण, ऋषि साधा गया । इस प्रकार जीवन के तीनो पक्ष-वयक्तिक, ऋण और पित-ऋण । यज्ञ और होम मे देव-ऋण चुकाया आर्थिक और मामाजिक-विशुद्धि से प्रभावित किए गए। जाता है। वेदाध्ययन के द्वारा ऋपि-ऋण चुकाया जाना इन्ही तत्त्वो के आलोक मे वुद्ध और महावीर ने वैदिक है। सन्तान उत्पन्न कर पितृ-ऋण चुकाया जाता है। मस्कृति के मूल तत्त्वो-यज्ञ ऋण और वर्ण-व्यवस्था का 'शतपथ ब्राह्मण' मे चौथे ऋण-मनुष्य ऋण का भी विरोध किया था। उल्लख है। उसे औदार्य या दान मे चकाया जाता है। सस्कृति संगम वर्ण-व्यवस्था का प्राधार है मष्टि का उत्पत्ति-क्रम । वैदिक और थमण सस्कृति का यह विचार-द्वन्द्व ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुगा, क्षत्रिय बाह से, बुद्ध-महावीर का बुद्ध-महावीर कालीन नही था । वह बहुत पहले से ही वैश्य ऊरु मे और शूद्र पैरों से६ । चला आ रहा था। इसमे कोई सन्देह नही कि भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध ने उस विचार क्रान्ति को १. वैदिक .स्कृति का विकास, पृष्ठ १५, १६ इतना तीव्र स्वर दिया कि हिसा अहिमा के मामने निष्प्राण २. वैदिक माइथोलोजी, पृष्ठ ३१६ बन गई है । 'हाहिमा परमोधर्म' का स्वर प्रबल हो उठा। ३. विशद् विवरण के लिए देखिए वैदिक कोप, 'अपुत्रस्यगतिर्नास्ति' के स्थान पर सन्यास की महिमा पृष्ठ ३६१-४२५ गाई जाने लगी। जन्मना-जाति का स्वर कर्मणा-जाति के ४ तैत्तिरीय महिता ६।३।१०।५ स्वर में विलीन हो गया। भगवान् पार्श्व के काल में ५ शतपथ ब्राह्मण १।७।२।१-६ ६. ऋग्वेद सहिता १०१९०१२ श्रमण और वैदिक संस्कृति का जो सगम प्रारम्भ हुआ था, वह अपने पूरे यौवन पर पहुंच गया । ब्राह्मणोस्य मुख मासीद्, बाहू राजन्य. कृत ।। अरू तदस्य यद् वैश्यः, पद्भ्या शूद्रो अजायत. ॥ ७. वैदिक माइथोलोजी, पृष्ठ ३२०
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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