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________________ भारतीय संस्कृति में बुद्ध और महावीर श्रमण परम्परा मुख्यत क्षत्रियो और वैदिक परम्परा माण्डा। जिस समय वह दही होता है, उस समय न उसे ब्राह्मणो की है । क्षत्रियो ने आत्म-विद्या और अहिमा का दूध कहते है, न मक्वन, न घी, न घी का माण्डा । इसी विस्तार किया और आगे चल वे दोनो परम्परामो की प्रकार भिक्षुग्रो, जिस समय मेग भूतकाल में जन्म था मगम स्थली बन गई । क्षत्रियो ने आर्य शब्द वैदिक मार्यो उस समय मेरा भूतकाल का जन्म ही सत्य था, यह वर्तसे लिया। मान और भविष्यत् का जन्म असत्य था। जब मेग क्षत्रियो ने वैदिक परम्पग या प्रार्य जाति का महत्व भविष्यत् काल का जन्म होगा, उस समय मेग भविदेते हुए आर्य शब्द को अपनाया किन्तु उमका अर्थ अपनी प्यत्काल का जन्म ही सत्य होगा, यह वर्तमान और भूतपरम्परा के अनुसार किया । वैदिक आर्य यज्ञानुष्ठान मे काल का और भविष्यत्काल का जन्म अमत्य होगा । यह हिमा करते थे उसके प्रतिपक्ष मे क्षत्रिय परम्पग में यह जो अब मेरा वर्तमान में जन्म है. गो इम समय मेग यही घोष उठा कि प्राणियो की हिमा करने वाला प्रायं नही जन्म सत्य है, भूतकाल का और भविष्यत्काल जन्म होता । प्राय वह होता है जो किमी की हिसा न करे- अमत्य है। अर्थात् अहिसा ही प्रार्य है? । मब प्राण, भूत, जीव और भिक्षम्रो यह लौकिक सज्ञा है, लौकिक निरुक्तियाँ है, मत्व हन्तव्य है, यह अनार्य वचन है। मब प्राग, भूत, लौकिक व्यवहार है, नौकिक प्रज्ञप्तियाँ है- इनका तथाजीवन और मत्व हन्तव्य नहीं है, यह आर्य वचन है। गत व्यवहार करते है, लेकिन इनमे फमते नही । भिक्षम्रो, इम प्रकार भारतीय संस्कृति का वर्तमान रूप अनेक "जीवन (ग्रान्मा) और शरीर भिन्न-भिन्न है" ऐमा मत धारानी का मगम है। रहने गे श्रेष्ठ-जीवन व्यतीन नही किया जा मकता और बुद्ध-महावीर को भारतीय संस्कृति को देन जीव (प्रात्मा) तथा शरीर दोनो एक है, ऐमा मन रहने व्रत, सन्यास और ममता की स्थापना तथा यज्ञ, ऋण से भी श्रेष्ठ जीवन व्यतीत नही किया जा सकता। और वर्ण-व्यवस्था का प्रतिकार बुद्ध और महावीर की देन इसलिए भिक्षुग्रो, इन दोनो मिरे की बातों को छोडनहीं है, वह श्रमण-परम्पग की दन है। उसमे इन दोनो कर तथागत बीच के धर्म का उपदेश देते हैव्यक्तियो का महान् योग है। उन्होंने प्राचीन परम्पग की अविद्या के होने मे सस्कार, मस्कार के होने में विज्ञान, ममद्धि मे केवल योग ही नही दिया किन्तु उसे नए उन्मेप विज्ञान के होने से नामम्प, नामरूप के होन मे छ आयतन, भी दिए। छ प्रायनन के होने मे स्पर्श, स्पर्श के होने मे वेदना, वेदना बुद्ध ने दो नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए–प्रतीत्य के होने में तृष्णा, तृष्णा के होने से उपादान, उपादान के समुत्पादवाद और पार्य-चतुष्टय । होने मे भव, भव के होने में जन्म, जन्म के होने में बुढापा, प्रतीत्य समुत्पाद मग्ना, शोक, गना-पीटना, दुग्य, मानगिक चिन्ता तथा भिक्षयो ! जो कोई प्रतीत्य (समुत्पाद) को समझता परेशानी होती है। है, वह धर्म को समझता है जो धर्म को समझता है, वह इस प्रकार इस मारे के गारे दुख-स्कन्ध की उत्पत्ति प्रतीत्य समुत्पाद को समझता है। जैसे भिक्षुमो जी' से होती है। भिक्षुनो, इसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहते है । दूध, दूध से दही, दही से मक्खन, मक्खन से धी. घी से मार्य चतुष्टय घीमाण्डा होता है। जिस समय में दूध होता है। उस आर्य सत्य चार है-१. दुख, २ दुख ममुदाय, समय न उसे दही कहते है, न मक्वन, न घी, न घी का । ३. दुख निरोध, ४ दुख निरोध की योर ले जाने वाला १. धम्मपद धम्मट्ठवग्ग मार्ग । भिक्षुम्रो ! दुख-आर्य सत्य क्या है ? न तेन परियोहोति, येन पारणनि हिमति । अहिंसा सव्व पाणानं, अरियोति ववुच्चति ॥१५॥ _ पैदा होना दुःख है, बूढ़ा होना दुख है, मरना दुख २. पाचा राग १०४।२ मूत्र १. बुद्धवचन, पृष्ठ २६-३०
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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