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________________ १९८ अनेकान्त है. शोक करना दुख है, गेना-पीटना दुग्व है, पीडित होना भी बना रहता है अथवा जो अपना अस्तित्व रहते हुए भी दुख है, चिन्तित होना दुख है, परेशान होना दुख है, उत्पन्न पोर विपन्न होता है, वही सत् है और जो सत् है इच्छा की पूर्ति न होना दुख है, थोडे मे कहना हो तो वही तत्व है। पाँच उपादान स्कन्ध ही दुख है। रत्नत्रयी भिक्षुमो यह जो फिर-फिर जन्म का कारण है, यह गौतम ने पूछा-भन्ने ! क्या ज्ञानयोग मोक्ष का मार्ग है? जो लोभ तथा गग मे युक्त है, यह जो कही-कही मजा भगवान्-नही । लेती है, यह जो तृष्णा है, जैसे काम-तृष्णा, भव-तृप्गा तो भन्ने ! दर्शन योग (भक्ति-योग) मोक्ष का मार्ग है ? तथा विभव-तृष्णा यह तृष्णा ही दुख के ममृदय के बारे मे भगवान-नही। मार्य मत्य है२ । भिक्षुमो, दुख के निगेध के बारे में प्रार्य दो भन्ते ! चारित्र-योग (कर्म-योग) मोक्ष का मार्ग है ? मत्य क्या है ? उसी तृष्णा मे सम्पूर्ण वैगग्य, उम तृष्णा भगवान-नही। का निगेध, त्याग, परित्याग, उम तृष्णा मे मुक्ति, अना- नो फिर मोक्ष का मार्ग क्या है? सक्ति-यही दुख के निरोध के बारे में प्रायं मत्य है। भगवान्-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की समन्विति अष्टागिक मार्ग दुख निरोध की ओर ले जाने वाला ही मोक्ष का मार्ग है। है, जो कि है स्याद्वाद १ मम्यक् दृष्टि महावीर सन्याश और पूर्ण मत्य-इन दोनो को न जा २. सम्यक मकल्प मर्वथा अभिन्न मानते थे और न सर्वथा भिन्न । पूर्ण रूप ३. मम्यक् वाणी मे मर्वथा वियुक्त होकर पत्याश मिथ्या हो जाता है और ४ सम्यक् कमन्ति पूर्ण मत्य में मर्वथा अभिन्न होकर वह वचन द्वारा अगम्य बन जाता है । अत मत्य की उपलब्धि के लिए अनेकान्त ५. मम्यक् पाजीविका और उमके प्रतिपादन के लिए स्याहाद अपेक्षित है। ६. मम्यक् व्यायाम एकान्तवादी धागणाएँ इसीलिए मिथ्या है कि वे पूर्ण सत्य ७. मम्यक् स्मृति ममाधि४ मे वियुवत हो जाती है । नित्यता मिथ्या नहीं है, क्योकि ८. सम्यक् ममाधि एक बार भी जिमका अस्तित्व प्रमाणित होता है, उसका महावीर ने तीन नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किये अस्तित्व पहले भी था और बाद में भी होगा । अनित्यता विपदी, २ रत्नत्रयी, ३ स्याद्वाद । भी मिथ्या नहीं है। क्योकि रूपान्तरण की प्रक्रिया त्रिपदी अस्तित्व का अनिवार्य अग है । किन्तु नित्यता और अनिगौतम ने पूछा-भन्त ! नत्त्व क्या है ? त्यता दोनो अविच्छिन्न है। वे सापेक्ष रहकर सत्याश भगवान ने उत्तर दिया-उत्पन्न होना । बनते है और निरपेक्ष स्थिति मे वे मिथ्या बन जाते हैं। फिर पूछा-भन्ते ! तत्त्व क्या है ? खुले रत्न रत्न की कहलाएंगे। एक धागे में पिरो लेने पर फिर उत्तर मिला-विपन्न होना। उसका नाम हार होगा। इसी प्रकार जो दार्शनिक दृष्टिया प्रश्न आगे बढा-तत्व क्या है ? निपेक्ष रहती है, वे सम्यग् दर्शन नही कहलाती । वे उत्तर मिला--बने रहना। परस्पर सापेक्ष होकर ही सम्यग्-दर्शन कहलातो है।। फलित यह हुमा-जो उन्पन्न और विपन्न होने हर विपन्न हात हुए महावीर की इम चिन्तन धारा ने सत्य को सर्व१. दीघनिकाय, पृष्ठ २२ मग्राही बना दिया। उसके फलित हुए-सह-अस्तित्व २. वही, पृष्ठ २२ और समन्वय इन तत्त्वो ने भारतीय मानस को इतना प्रभा३. वही, पृष्ठ २२ विन किया कि ये भारतीय-सस्कृति के मूल प्राधार बन गये । ४. सयुक्तनिकाय, पृष्ठ २२ १. सन्मति प्रकरण ११२२-२५
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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