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________________ अपभूश का एक प्रेमाख्यानक काव्यः विलासवईकहा डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री अपभ्रंश-साहित्य के अनुशीलन मे गब यह तथ्य सका है। इमी प्रकार चारण कवि गणपति कृत "मालवास्पष्ट हो गया है कि हिन्दी भाषा में लिखे गए मुफी तथा नल कामन्कन्दला" की ओर भी विशेष ध्यान नहीं है। प्रेमाख्यानक काव्यो की प्रमार-भूमि के लिए पहले में ही अपभ्रश के ये दोनो ही उत्कृष्ट प्रेमास्थानक काव्य कहे भारतीय-माहित्यिक काव्य-परम्पग में ऐगे रूपो की रचना जा सकते है । अभी तक "विलारावईकहा" की केवल दो हो चुकी थी जो इस देश की सास्कृतिक और मामाजिक ताडपत्र प्रतियाँ जेमलमेर के प्रभण्डार में उपलब्ध हो चेतना को विभिन्न विद्याभो में मुखरित कर चुके थे। सकी है। इस कथाकाव्य का मर्वप्रथम परिचय प. अपभ्रश में ही नहीं, प्राकृत-माहित्य में भी बहुत स य बेचदास जी दोसी ने "भारतीय विद्या पत्रिका" में दिया पहले ही इस प्रकार की रचनाए लिखी जा चुकी थी। था। तदनन्तर सन् १९५६ मे डा० शम्भूनाथ मिह ने अतएव परवर्ती रचनामों पर इनका प्रभाव पडना स्वा- "हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप विकास" नामक अपने शोधभाविक ही था। वयं-विपय, शैली, छट तथा प्राकृत- प्रवन्ध में इगका अत्यधिक मक्षिप्त परिचय दिया था। अपभ्रश काव्यो के प्रबन्ध-शिल्प के अनुरूप जो मूफी तर मे कई बार श्री यगचन्द जी नाहटा प्रभृनि विद्वानो प्रेमाख्यानक या प्रेमकाव्य लिखा गया उसका मूल स्रोत ने इनकी चर्चा की, किन्तु पालोचनात्मक दृष्टि ने अभी उक्त काव्य-साहित्य कहा जा सकता है जो चिराचरित तक इसका अनुशीलन नही किया गया। अपने मोधप्रबन्धरूप मे भारतीय साहित्य में प्रतिष्ठित हो चका था। प्रवन्ध में दग प्रेमाख्यानक काया काव्य का हमने विस्तृत इसलिए उसके बाद जो साहित्य लिखा गया वह उस विवेचन किया है, और इसका विशेषतानो पर पूर्ण प्रकाग माडल के अनुरूप ही छन्दोबद्ध शैली मे रचा गया। डाला है। अपभ्र श में ऐसे कई प्रेमाख्यानक काव्यो की लम्बी विलागवतीकथा के लेग्यक दवेताम्बर जैन माधु गिद्धमेन परम्परा मिलती है जो प्राकृत के प्रेमाख्यानक काव्यो मे मूरि थे। उनका मरम्थ दगा का नाम 'माधारण" था । विकसित हए है । इस लेख में अपभ्रश के एक ऐसे ही इमलिए उन्हें साधारण मिद्धमन मूरि कहा जाता है । प्रेमाख्यानक काव्य का परिचय दिया जा रहा है जा जन-सालिय में मिद्धगेन नाम के चार विद्वान व ग्राचायों विषय-वस्तु, शैली और प्रबन्ध-रचना में सूफी प्रेमाख्यानक का पता लगता है। साधारण सिद्ध मन "न्यायावतार" काव्यों से बहुत कुछ समानता रखता है। जन-जीवन में तथा "सन्मति तक" के रचयितानो से मर्वथा भिन्न थ। प्रचलित रहने वाली लोक कथाओं को अपना कर लिखे पहले प्राचार्य मिद्धसेन दिवाकर थे, दूसरे मिद्धमन, तांगरे जाने वाले काव्य मध्ययुगीन-भारतीय साहित्य के साधारण सिद्धगेन और चौथे मिद्धमैन मूरि । इस प्रकार विशिष्ट अंग रहे है । उस युग के काव्यो की लगभग साधारण सिद्धमेन दार्शनिक सिद्धमेन मूरि से भिन्न थे । सभी विशेषताएं आलोच्यमान काव्य में उपलब्ध होनी केवल साहित्यिक रूप में उनकी प्रसिद्धि प्राप्त होती है। कवि ने कुछ स्तोत्र भी लिखे थे पर आज वे उपलब्ध नही वस्तुत. "विलासवईकहा" या "विलासवती" कथा होते। परन्तु उस समय उनके बनाए हुए स्तोत्र तथा की भोर अभी तक विद्वानो का ध्यान आकृष्ट नही हो स्तुतियों को विभिन्न प्रददों में अत्यन्त चाव में लांग पढ़ते थे । कवि का जन्म मूलकुल के वाणिज्य तथा गण १. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य है-"भविसयत्तकहा कौटिक शाखा के वज्र वश में हुआ था। कवि काव्यकला और अपम्र श-कथाकाव्य" शीर्षक लेखक का शोध- के मर्मज्ञ तथा कवियों की सन्तान में उत्पन्न हुअा था। वह प्रबन्ध। साधारण नाम से हा प्रसिद्ध था। जान पड़ता है कि कवि
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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