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________________ भव्यानंदपंचाशिका-भक्तामर स्तोत्र का अनुवाद .... 'गर्वात प्रावति होइ तरी नामु लोय नाथ मातल होइ जाई । प्रले के मर्म की ज्वाला अ........ को उनपान दे दी कराई ज ॥ यह नी प्रगट प्राहि जान मनु जगु नहि दि..."मैं मार्च....."हाईज । धनुदाम प्रभु तर मीनल गन अपार जाल मिगई क्यों न निनथे मगई ज ॥१०॥ ..... ...'ग दवनि है जाकै उर मौइ क्यो न मी अहि डार भौदि पाइक । लोहिन नन नीलकंट....."सब अंग हालाहलु रहयो हो छाइकै ॥ कोपिर्क इमो नी मु पहार हु को छार केस से - वि. समाइक।। धनुदाम मनि मंत्र प्रापधु तुम्हारी नामु नाहि जौ सम्हार चित्र कसो होइ॥४॥ .....के एक जिनगज नुव नामबा नाहि मी नृषु जानि मकै नही करु के । जार्क दल बादल के उन...."जग जवा जनि के भुन्द गर्ने हो पर है। जाके दल कोटि भट लडित जोधा जुहि प्ररि मु....."बीर ज़ पहार के। धनुदाम एम नृपु पर नार्क पाइ आनि मछर मबाई......... ....२॥ तुम्हारे धीरज मी धर उर ताकी जय महा से जुद्ध नि में जानायो । जान विक....."उट एक हायह'.....विनु बल लाइ करि मागे मुप पानांगौ ।। श्रेनि की मलिरिता नाम बृट एक उद्धरत एकनि की द...."नि कह न कह डरानीयो । घनदास प्रभु नेरे नाम मोहे जाकी मति नाकी मति...."नि कह ने......॥४३॥ ....... विविधि प्रकार के नौ नेरी नामु नाश एमी जल में निवार जू । ......... मैं जहां महा......नके का जो जीवनिको मुटु फार ॥ नामै वडवानल वि..... सब ही क न क्न...'तुम्हारे ज : बगदाम प्रभु ज़ अपार के नारक नम भासागर के जल मागर न नारी ज ॥४४॥ ..."पाई अंग अनग के अगक समान ननु दबायो । गमी होई प्या........"सिनई ........ नयी ननन के पियो ।। त्रिभुवन'.... थाकी पूर्ग मंग्या सब गई द ग मी यदि मा....."यो । नुम नी जू जन्मा मरण"... पाधि धनुदाय यह नग्नृन्न हो ग ... ।' ४५।। ........"रह अांद्र म गया गेलि गर्न हाय पाई रापीटा । कोठामाझ कोटरी के भाकमा.... करिया हा गाग ........"नाह की अावागमु पनि श्राव जान उपर छि............। अनुदाय प्रभुम नाइ......."हम वामि यह बान की क्या न करीनाथ काटी के ।।४।। ......"प्रभु मर....."मकल..... हरि की नुम जिनगा गज भय शोक भय नग वि.........."हात ज ॥ गंग भय मौक भय सिंघ भय राज भय जुनिको भय........ जानरान...... जैसे तुम पर दवन की सफन लभै हर्ग श्रम मना न का। ज़ ॥४॥ तुम्हारी मंग्तुनि इ इपिनी मान्ना जिणांद परिंग कंठ माँ..... पवित्र न. नगमे । मुमन विविधि जार्क अपि....."ना जाम पनि परिवडी डि डोग गन्धा करम ॥ अनि मै सुवासु मब जगत में बिम्नग्नि मुक्ति मोहिनी धरी......यान धरमं । कह धनुगज यह संम्नुनि सम्हारी मा विना श्रम संपदा मकान प्राव धरमे ॥५॥
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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