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________________ मनकाम्त मल पदार्थ तो दो ही है जीव और मजीव। इन्हीं दोनों दृष्टि है। इन्हीं दोनों नय से उन्होंने अपने समयसार सम्बन्ध से संसार की प्रवृत्ति हो रही है। जीव की में उक्त नव पदार्थों का कथन किया है जिससे मुमुक्ष, प्रशुद्ध दशा का नाम ही ससार है मौर जीव की प्रशुद्ध जीव अभूतार्थ को छोड़कर भूतार्थ का मामय कर सके। दशा में जड़ कम निमित्त है । यह जड़ कर्म जीव में कैसे उदाहरण के लिए जीव को ले लीजिये। जीव क्या है? प्राता है और कैसे उसके नाथ बन्ध को प्राप्त होता है क्या जिस शरीर में जीव रहता है वह शरीर ही जीव हैं इन दोनों प्रक्रियानों को ही पासव और बन्ध कहते हैं। या वह शरीर जीव का है ? जीव मे होने वाले रागादि ये दोनों ही संसार के कारण हैं। और इनसे बचने की विकार क्या उसके है। इन प्रश्नों का उत्तर व्यवहार प्रक्रिया को संवर और निर्जरा पहते हैं। नवीन कर्मों के पोर निश्चन नय से इस प्रकार दिया जाता हैप्रागमन को रोकना संबर है और पूर्व-बद्ध कर्मों का १. जीव मोर देह एक हैं यह व्यवहार नय का कथन क्रमश: नष्ट होना निर्जरा है इन दोनों के होने से मोक्ष है। जीव पोर देह एक नहीं हैं पृथक-पथक है यह निश्चय की प्राप्ति होती है अतः ये दोनों मोक्ष के कारण हैं। नय का कथन है। इस तरह मुमक्ष को जीव और अजीव को, तथा संसार २. रागादिक जीव के है यह व्यवहार नय का कथन है ये जीव के नहीं है यह निश्चनय का कथन है। के कारण मानव और बन्ध को व मोक्ष और उसके कारण संवर निर्जरा को सविधि जानना चाहिए और उन ३ शरीर जीव का है यह व्यवहार नय का कथन है और शरीर जीव से भिन्न है यह निश्चय नय का पर श्रद्धान रखना चाहिए । श्रद्धा-विहीन ज्ञान की कोई । कथन है। कीमत नही है उसी तरह पाचरण-विहीन ज्ञान का भी इन दोनों शैलियों के द्वारा जोव के सोपाधि पौर कोई मूल्य नहीं है। निरूपाधि स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो जाता है और ऐसा होने से मुमुक्ष की दृष्टि सोपाधि स्वरूप से हट कर हतं जानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिना किया। निरूपाधि स्वरूप पर टिक जाती है। उपाधि चूक पावन शिलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पगुकः ।। पागन्तुक है प्रत. वह उपादेय नहीं है निपाधि स्वरूप क्रियाहीन ज्ञान व्यर्थ है और प्रज्ञानियों की क्रिया ही यथार्थ स्वरूप होने से उपादेय है। उसी की प्राप्ति के भी व्यर्थ है । एक जंगल में प्राग लगने पर एक अन्या लिये मुमुक्ष व्यवहार का अवलम्बन लेते हुए भी व्यवहार दौड़ते हुए भी जल मरा और एक लंगड़ा देखते हुए भी मय नहीं होता। वह व्यवहार को मान्य नहीं मानता, जल मरा । प्रतः सम्यक् श्रद्धामूलक ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान साधन मानता है। साध्य तो निश्चय है, व्यवहार को है सम्यग्ज्ञान-मूलक पाचरण ही सम्यक् चारित्र है। करते हुए भी उसी पर उसको दृष्टि केन्द्रित रहती है। सम्यकचारित्र ही यथार्थ धर्म है किन्तु उस धर्म का मूल इसी से वह व्यवहार विमूढ होकर अपने लक्ष्य से च्युत सम्यग्दर्शन है। नहीं होता। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने समयसार में कहा हैभयत्षणाभिगदा जोगजीवा य पुण्णपावं च, जैन धर्म का प्रावार या चारित्र गृहस्य और साधु पासवसवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मतं ।।१४।। के भेद से दो प्रकार का है। हिमा, सत्य, प्रवीयं, भूतार्थ नय से जाने हुए जीव-जीव, पुण्य-पाप, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को माधु पूर्ण रूप से पालता है, माधव, संवर निर्जरा, बन्ध और मोक्ष सम्यग्दर्शन है। और ग्रहस्थ एक देश रूप से पालता है। इसी से साधु प्राशय यह है कि भगवान कुन्दकुन्द की व्याख्यान महावनी कहलाते हैं और गृहस्थ अणुवती कहे जाते हैं। शैली दोनों पर प्राश्रित है। वे दोनों नय हैं- इस.बत पालन का एक मात्र लक्ष्य राग-द्वेष से निवृत्ति व्यवहार और निश्चय । इनमें से उन्होंने व्यवहार को है। रागदोष से निवृत्ति के लिए ही साधु चरित्र का पभूतार्थ तथा निश्चय को भूतार्थ कहा है और यह भी. पालन करता है। यग-देष की निवृत्ति हो जाने पर हिंसा कहा है कि भूतार्थ का पाश्रय लेने वाला जीव ही सम्यग- बगरह की निवृत्ति स्वतः हो जाती है।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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