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________________ जैन दर्शन और उसकी पृष्ठभूमि १५२ और कब के मेद से दो प्रकार का है। परमाणुओं के संघात से बने पृथिवी मादि को स्कन्ध कहते हैं । जीव चौर पुद्गलों की गति में सहायक को धर्म कहते हैं और स्थिति में सहायक को अधर्म द्रव्य कहते काश देने वाले पदार्थ को प्राकाश कहते हैं मौर द्रव्यों के परिणमन में सहायक द्रश्य को काल कहते हैं। सम्पूर्ण जगत इन्हीं छह दव्यों का प्रसार है । चूंकि यह दर्शन प्रत्येक द्रव्य को परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले विश्व मनित्य, सत् प्रसत् प्रादि धर्ममय मानता है इसलिये इसे अनेकान्तवादी दर्शन भी कहते हैं । जैसे प्रत्येक वस्तु द्रश्य रूप से नित्य है और पर्याय रूप सेनिथ है, स्वरूप से सत् है औौर पर रूप की अपेक्षा इसी को अनेकान्तवाद कहते है अर्थात् एकान्त से नित्य, प्रनित्य प्रादि कुछ भी नही, किन्तु अपेक्षा भेद से सब है । इसी से इसे सापेक्षवाद भी कहा जाता है । अनेक धर्मात्मक वस्तु का बोध कराने के लिए 'स्याद्वाद' का अवतार किया गया है। 'स्याद्वाद' में स्यात् शब्द अनेकान्त रूप प्रर्थं का वाचक या द्योतक अव्यय है । प्रतएव स्याद्वाद और अनेकान्तवाद एकार्थक भी माने जाते हैं। जैन विद्वानों ने स्वाद्वाद के निरूपण में और समर्थन में बहुत बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे हैं, और अनेकान्तबाद ही शस्त्र के बल से उन्होंने अन्य दार्शनिकों के मन्तव्यों का निरसन किया । है समन्तभद्र घोर सिद्धसेन, हरिभद्र और कलंक, विद्यानन्द, हेमचन्द्र जैसे प्रकाण्ड जैन विद्वानों ने अनेकान्तवाद के बारे में जो कुछ लिखा है वह भारतीय दर्शन साहित्य में बड़ा महत्व रखता है। इसी से मात्र जब कोई अनेकान्त वाद या स्याद्वाद का उच्चारण करता है तो सुनने वाला विद्वान उससे जैन दर्शन का ही भाव ग्रहण करता है। प्रभावन्द्र तथा मनेकान्तबाद जंनाचार और विचार का मूल है । उसके ऊपर से जो अनेक वाद जैन दर्शन में अवतरित हुए उनमें से दो मुख्यबाद उल्लेखनीय हैं - एक नयवाद और एक सप्तभंगीवाद । नयवाद में दर्शनों को स्थान मिला और सप्तभंगीवाद में किसी एक ही वस्तु के विषय में प्रचलित विरोधी कथनों या विचारों को स्थान मिला। पहले बाद में सब दर्शन संग्रहीत है और दूसरे में दर्शन के विशंकलित मन्तव्यों का संग्रह है। प्राशय यह है कि भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन के अतिरिक्त वैशेषिक न्याय, सांख्य, वेदान्त, मीमांसा धोर बौद्ध दर्शन मुख्य है। इन दर्शनों को पूर्ण सत्य मानने में प्रापत्तियां थीं धौर सर्वथा प्रसत्य कह देने में सत्य का पापा उन्हें दृष्टि भेद से अधिक सत्य स्वीकार करने के लिए नयवाद का अवतार हुआ। इस तरह स्याद्वाद, सप्तभंगीवाद और नयवाद ये तीनों बाद बनेकान्तवादी जैन दर्शन की देन है जो इतर दर्शनों में नहीं मिलते। जैन दर्शन स्वपर प्रकाशक सम्यग्ज्ञान को प्रमाण मानता है मोर चूंकि ज्ञान स्वरूप मारमा है इसलिये धम्म की सहायता के बिना केवल भारया से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और इन्द्रिय प्रादि की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहते हैं । परोक्ष ज्ञान अपारमार्थिक होने से हेय है । पारमार्थिक प्रत्यक्ष केवलज्ञान ही उपादेय है। इन्द्रियजन्य ज्ञान की तरह इन्दियजन्य सुख भी अपारमार्थिक होने से हेय है । जैनधर्म का कहना है कि जिन प्राणियों की सांसारिक विषयों में रति है ये स्वभावतः दुःखी है क्योंकि यदि वे दुःखी न होते तो सांसारिक विषयों की प्राप्ति के लिए रात दिन व्याकुल क्यों होते । चूंकि वे विषयों की तृष्णा से सताए हुए हैं अतः उस दुःख का प्रतीकार करने के लिए विषयों में उनकी रति देखी जाती है, किन्तु उससे उनकी तृष्णा शान्त न होकर और भी अधिक प्रज्वलित होती है । इसलिए सच्चे सुख की प्राप्ति के लिये इन्द्रियजन्य वैषयिक सुख हेम है। ज्ञान की तरह सुख भी प्रात्मस्वरूप है । मतः मात्मोत्थ ज्ञान की तरह प्रात्मोत्थ सुख ही सच्चा सुख है । क्योंकि उसमें दुःख का लेश भी नहीं रहता । और न उसके नष्ट होने का भय रहता है । अतः जैन दर्शन संसार के सुख मे भूले हुए प्राणियों को उसी सच्चे सुख की प्राप्ति की सलाह देता है और उसके लिए मोक्ष का मार्ग बतलाता है । सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान प्रौर सम्यकचारित्र ही मुक्ति का मार्ग है। तस्वार्थ के बद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं तस्वार्थ सात जीव, जीव, मालव, बन्ध, संबर, निबंध और मोक्ष इन सात में से ।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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