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________________ भनेकान्त इतना सुनिश्चित अन्तर है कि उसे देखते हुए यह निश्चय रखने वाले ही ऐसा प्रताप करते हैं कि प्रमुक वस्तु नित्य पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि जैनों ने सांख्ययोग से या ही है और प्रमुक वस्तु प्रनित्य ही है। सांख्ययोग ने जैनों से कुछ लिया है। फिर भी स ख्य जैन-दर्शन एक द्रव्य पदार्थ ही मानता है और उसे और जनदर्शन की प्रात्म-विषयक कुछ बातो मे समानता इस रूप में मानना है कि उसके मानने पर अन्य पदार्थ देखकर कुछ अन्वेपक विद्वानो का ऐमा मत है ये दोनो के मानने की आवश्यकता नहीं रहती। दर्शन लगभग समकाल में उदित हुए हैं । तथा ये दोनो ही प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार में द्रव्य का प्राचीनतम भारतीय दर्शन है। कौटिल्य के अनुसार लक्षण इस प्रकार किया हैउसके समय मे (३०० ई० पूर्व) सांख्ययोग और लोका- अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादस्वयषुवत्तसंजुत्त । यत ये दो ही ब्राह्मण दर्शन वर्तमान थे । अतः अवश्य ही गुणव च सपउजायं जंतं दण्यत्ति बुच्चति ।। ये कौटिल्य काल से प्राचीन है। प्रति--जो अपने अस्तित्व स्वभाव को न छोड़कर, जैन धर्म के प्रादि प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव थे उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य से सयुक्त है एक गुण तथा और अन्तिम प्रवर्तक थे भगवान महावीर । भगवान पर्यायों का आधार है उसे द्रव्य कहा जाता है। महावीर ने संमार के दुःखी जीवो के समुद्धार के लिए प्राशय यह है कि गुण और पर्याय के प्राधार को द्रव्य आहिमामयी धर्म का उपदेशा सार्वजनिक रूप में दिया था। कहते है । गुण और पर्याय उम द्रव्य के ही प्रात्मस्वरूप भगवान दुद्ध ने भी विश्व को दु.ख रूप मानकर क्षणिक है प्रत: वे किमी भी हालत मे द्रव्य से जुदा नहीं होते। कहा था। उनका उद्देश्य भी विश्व को वैराग्य की तरफ द्रव्य के परिणमन को पर्याय कहते है। पर्याय सदा कायम ले जाने का था । जिमसे अत्याचार, अतावार और हिसा नही रहती, प्रतिक्षण बदलती रहती है। एक पर्याय नष्ट का लोप हो जाये। किन्तु उनके उतराधिकारियोन होती है तो उमी क्षण मे दुसरी पर्याय उत्पन्न होती है। क्षणिकवाद के अाधार पर गुन्यवाद का प्रतिष्ठा कर इसी में पर्यायो के प्राधार द्रव्य को उत्पाद-व्यय से डाली। इसके विपरीत भगवान महावीर ने पर्याय दृष्टि मपवन कहा जाता है। और जिनके कारण द्रव्य सजासे विश्व को क्षणिक मानकर भी द्रव्य दृष्टि से नित्य तीय से मिलता हमा और विजातीय से भिन्न प्रतीत माना । उनका कहना है कि इस दृश्यमान जगत में जो होता है वे गुण हैं । गुण अनुवृत्ति रूप होते हैं और पर्याय प्रतिक्षण परिणाम हुग्रा करते है ये परिणाम ही प्रतिक्षण व्यावत्ति रूप होती है। इसी से जैन दर्शन में सामान्य होते रहने के कारण क्षणिक है किन्तु मल तत्व स्वय और विशेष नाम के दो पृथक पदार्थ मानने की प्रावश्यक्षणिक नही है। अन्य दर्शनों ने किसी को नित्य और कता नहीं समझी गई। किमी को अनित्य माना है । किन्तु जैन-दर्शन कहता यह द्रभ जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, प्रादीपमाव्योम समस्वभावं प्राकाम और काल के भेद से छह प्रकार है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जीव या प्रात्मा को अरस, प्ररूप, अगन्ध, स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु । अध्यक्त, प्रशब्द, भूतों के चिन्हों से अग्राह्य, निराकार तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यद् इति त्वदाज्ञा द्विषतां प्रलापाः तथा चैतन्य रूप माना है । यथाप्रर्थात -प्राकाश नित्य हो और दीपक क्षणिक हो, प्ररसमरूवगधं प्रवत्त चेवणागुणमसह। यह बात नही है। प्राकाश से लेकर दीपक तक सब एक जाण अलिगग्गहण दव्वणिविट्ठसठाण ॥ स्वभाव हैं, कोई भी वस्तु उस स्वभावका अतिक्रमण नही रूप, रस, गन्ध पोर स्पर्श गुण से युक्त पृथिवी, कर सकती क्योंकि सभी के मुह पर स्याहाद या अनेकान्त जल, अग्नि और वायु को पुद्गल कहते हैं। जिसमें स्वभाव की छाप लगी हुई है । हे जिनेन्द्र ! पाप से द्वेप पूरण-गलन हो उसे पुद्गल कहते हैं । पुद्गल द्रव्य अणु,
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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