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________________ न दर्शन और उसकी पृष्ठभूमि १५० का पृथक अस्तित्व माना है। यद्यपि उनमें दोनों के ऐव का भी समर्थन मिलता है। किन्तु ब्रह्मसूत्र तो उन उप निषदों से भी एक कदम आगे बढ गया है । इस तरह स्वतन्त्र ग्रात्मानों की श्रमरता में विश्वास ने ही विचारों को नया रूप प्रदान करने मे मुख्य भाग लिया है । जैन घोर सापयोग भारत के प्राचीनतम दर्शन है जो वैदिक युग के अन्त के साथ ही सम्मुख माते है । ये दोनों ही अमर श्रामाश्रो के बहुत्व के तथा जड़ तत्त्व के पृथकत्व के समर्थक है। यद्यपि दोनों ही दर्शनों ने इन विचारो को अपने-अपने स्वतन्त्र ढंग से विकसित किया है फिर भी दोनों में कहीं-कहीं साया प्रतीत होता है। यहाँ हम विस्तार मे न जाकर क्षमे दो मुद्दो पर प्रकाश डालेंगे । जैन और साख्ययोग इस विषय में एक मत है कि जड़ स्थायी है किन्तु उनको अवस्थाएं अनिश्चित है। सांख्यमत के अनुसार एक प्रधान तत्त्व ही नाना रूप होता है, किन्तु जैनधर्म के अनुसार केद्रव्य नाना अवस्थाओं में परिवर्तित होता है - प्राकाश प्रादि द्रव्य परिवर्तनशील होते हुए भी प्रखण्ड प्रोर अविनाशी रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जब से जड़ और चेतन का भेद विचारकों के अनुभव मे आया नमी मे जड़ के विषय मे उक्त मत मान्य चला आता है। किन्तु उत्तरकाल में उक्त मूल सिद्धान्त में परिवर्तन होना दृष्टिगोचर होता है। यह परिवर्तन है चार या पाँच भूतो का एक दूसरे से एकदम भिन्न और स्वतन्त्र प्रस्त्वि माना जाना। यह मत चार्वाकों का था। चार्वाक साख्ययोग मे अर्वाचीन है । न्यायवैशेषिक ने भी इसी मत को प्रयत्न कर अपने ढंग से विकसित किया । जैन प्रोर साख्ययोग ने इस मत का एक मत से विरोध किया, जो इस बात का सूचक है। कि भूतवादी मत पर्यायीन होना चाहिए। जैन पुदगल को परमाणु रूप में मानते है किन्तु सौख्य प्रधान या प्रकृति को व्यापक मानता है। जैनों के धनुसार परमारों के मेल से धर्म द्रव्य, काल और माकाश के सिवाय शेष सब वस्तुए उत्पन्न हो सकती हैं । किन्तु सांख्यमत के अनुसार प्रधान में तत्त्व, रज और तम नाम के तीन गुण है और इन्ही के मेल रूप एक प्रधान से महान् अहंकार श्रादि पाँच तन्मात्रा पर्यन्त तस्यों की उद्भूति होती है और उन पांच सन्मा श्राम्र से पाँच भूत बनते है । श्रतः मूल सांख्यमत परमावाद को नहीं मानता था किन्तु सांख्य योग दर्शन के कुछ अन्धकार परमाणुवाद को मानते थे ऐसा प्रतीत होता हैकारिका की टीका मे गौड़पाद ने बिना विरोध किए परमाणुवाद का कई जगह निर्देश किया है। योगसूत्र (१४०) मे भी उसे स्वीकार किया है, उनके भाग्य मे तथा वाचस्पति मिश्र की टीका (१-४४ ) मे भी परमा का अस्तित्व स्वीकार किया है। इससे प्रमाणित होता है कि परमासद सिद्धान्त इतना अधिक लोकसम्मत था कि उत्तरकाल में सांख्ययोग ने भी उसे स्वीकार कर लिया । अव ग्रात्मतत्त्व को लीजिये- आत्मतत्त्व के विषय मे जैन और सांख्ययोग कतिपय मूल बातो मे हम है धाराएं सनातन अविनाशी है, चेतन है, किन्तु जड़ कर्मों के कारण, जो अनादि है, उनका चैतन्य तिरोहित है । मुक्ति अवस्था में कर्मों का अन्त हो जाता है । . किन्तु प्रात्मा के आकार के विषय मे जैन दर्शन का अपना एक पृथक मत है जो किसी भी दर्शन में स्वीकार नहीं किया गया । जैन दर्शन मानता है कि प्रत्येक आत्मा अपने शरीर के बराबर आकार वाला है। ऐसा प्रतीत होता है कि मूल सांख्य इस विषय मे अपना कोई स्पष्ट मत नही रखते थे । क्योकि योग भाष्य मे (१-३६) पञ्चशिव का मत उदघृत किया है जिसमे आत्मा को मात्र माना है। जबकि ईश्वर कृष्ण तथा पश्चात् के सभी ग्रन्थकारों ने मात्मा को व्यापक माना है । आत्मा के कर्म बन्धन और कर्मों से छुटकारे के सम्बन्ध मे भी सांख्ययोग और जैन दर्शन में बहुत भेद है । इसके सिवाय जैन दर्शन मानता है कि पृथिवी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति मे भी जीव है और उसके केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय है । सारांश यह है कि जड़ मोर ग्रात्मा को लेकर जैन-दर्शन मोर सांख्ययोग में
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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