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________________ मोम महम अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् । वर्ष १७ वीर-सेवा-मन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्लो-६. वोर निर्वाण सं० २४६१, वि० सं २०२१ अक्टूबर सन् १९६४ किरण,४ श्री शम्भव-जिन-स्तुतिः नचेनो न च रागादिचेष्टा वा यस्य पापगा। नो वामः श्रीयतेऽपारा नयश्री वियस्य च ॥१८ पतस्वनवमाचार तन्वायातं भयादचा। स्वया वामेश पाया मा नतमैकार्य शंभव ॥१६ श्रीसमन्तभद्राचार्य अर्थ-जिनके पापबन्ध कराने वाली रागादि चेप्टाग्रो का सर्वथा प्रभाव हो गया है और जिनकी अपार नय लक्ष्मी को भूमि तल पर मिथ्यादृष्टि लोग प्राप्त नही हो सकते ऐमे, इन्द्र चक्रवर्ती भादि प्रधान पुरुषों के नायक! प्रद्वितीयपूज्य ! शभवनाथ जिनेन्द्र ! ग्राप सबके स्वामी हैं, रक्षक है अत: अपने दिव्य तेज द्वारा मेरी भी रक्षा कीजिए। मेरा प्राचार पवित्र और उत्कृष्ट है। मैं समार के दुखो मे डर कर शरीर के साथ अापके ममोप पाया हूं। भावार्थ- 'मैं किसी का भला या बुरा करू' इस तरह राग-द्वेष से पूर्ण इच्छा और तदनुकूल क्रियाए यद्यपि वीतराग भगवान के नही होती तथापि वीतरागदेवकी भक्ति से भक्त जीवों का स्वत: भला हो जाता है; क्योकि वीतराम की भक्ति से शुभ कर्मों में अनुभाग (रस) अधिक पड़ता है, फलत. पार कमों का रम घट जाता अथवा निबल पड़ जाता है और अन्तराय कम भी बाधक नहीं रहता, तब इप्ट की सिद्धि महज ही हो जाती है। इसी नयदृष्टि को लेकर प्रकार की भाषा में प्राचार्य समन्तभद्र भगवान शम्भवनाथ से प्रार्थना कर रहे हैं कि मैं ससार से डर कर प्रापको शरण में पाया हूँ, मेरा प्रावार पवित्र है और मैं पापको नमस्कार कर रहा हूँ, प्रतः मेरी रक्षा कीजिये। पाप की शरण में पहुंचने में रक्षा कार्य स्वतः ही बिना पाप की इच्छा के बन जाता है ।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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