SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० अनेकान्त सखी राजकुमारी से कहती है कि वर्षा ऋतु मा गई जब लग रहइ उसासु, है, पाषाढ का महीना है, देश मे चारों ओर बादल धुमड तब लगु पेम न छाडिए ॥४॥ रहे है, नन्ही-नन्ही बूंद भी पड़ रही है, चातक 'पिउ-पिउ' राजकुमारी सखी की रागरस भरी बातो को सुनकर शब्द सुना रहा है, बिजली जोर से कड़क रही है, जो जो उत्तर देती है वह कितना सुन्दर है और शील की दढता पति के विरह की ससूचक है। नारी जन पचम स्वर मे पति के को व्यक्त करता है। हे सखि तू सती के स्वभाव का नही गीत गाती हैं, दादुर बोल रहे है, हृदय उमड़ रहा है, जानता । अपना पति अमृत के समान है, पौर पर पुरुष वह स्थिर नही रहता । समार में भोग भले है राजकुमारी विष के समान । ऋतु अषाढ़ मे हृदय उमड़ता है, तब मेरी बात सुनो, दूध भात मीठा है। अन्य जन्मों को सती पति के पावन गुणो का स्मरण करती है, उसका मन कौन देखने गया है, अतएव जब तक हस शरीर में है, हर समय पति के गुणों में अनुरक्त रहता है, वह उनके तब तक ही यह सब व्यवहार है, हे मखि स्वर्ग नरक कुछ सुम्व में मुखी और दुःख मे दुखी रहती है। सती का मन भी नही है, समार यो ही भूल रहा है। भोगों के किये पति से दूर नहीं रहता। हे सखि, स्वर्ग और नरक यही पति का समागम ही भला हे, सो जब तक शरीर मे पर है, तू इनका विचार क्यों नहीं करती, जो पर पुरुष उच्वास है, तब तक प्रेम का परित्याग न करना से गग करती है वह पाप के फल स्वरूप नरक को जाती चाहिए। जैमा कि कवि के निम्न वाक्यो से प्रकट है- है और वहाँ अनेक प्रकार का सताप सहती है, किन्तु जो 'तब सखि भणहन जानसि भावा, शील संयमादिका दृढता से पालन करती है वह कभी हति प्रसाढ कामिनि सहलाया। दुर्गति में नही जाती। और न उसे दुःख ही भोगना पडते बावर उमडिरहे चहुँ देसा, है। शील के पालन से देवगति मिलती है । हे बाला! विरहनि नयन भरह अलिकेसा ॥३७॥ तू शील की महत्ता को नही जानती । नारी का शील ही नन्हीं नन्हीं बूंद धनागम मावा, भूषण है, वही ससार के दुखों से जीवका सरक्षण करता चातक पिउ पिउ शम्ब सुनावा । है। जो शील का पालन नहीं करते, उन्हें ससार मे व्यर्थ दामिनि बकित है अति भारी, ही भ्रमण करना पडता है। और जन्म भी उनका सफल विरह वियोग लहरि अनिवारी ॥३८॥ नही हो पाता है। भामिनि पियगुन लवह प्रपारा, यह शरीर हड्डी, मज्जा, चबी, खून और पीब प्रादि पंचम गति मधुर झुणकारा । मलो से भरा हुआ है, दुर्गधित है, क्षणभगुर है-विनाबाएर बोल गहिर अमोरा, शीक है, ऐसे शरीर से भव-भीरु पुरुष कैसे राग कर हिमउ उमगधरत नहि तोरा ॥३६॥ सकता है ? अतएव जब तक आयु नही गलती तब तक भोगु भले सुनि राजकुमारी धर्म का साधन करो, जब धर्म का पालन होने लगता है हमरी बात सुनह जगसारी। तब अनायास ही सुख मिलने लगता है, और मानव जन्म दूधभातु मीठउ उमरी माया, भी सफल हो जाता है। जैसा कि कवि के शब्दों से प्रकट अवर जनम को देखन गया ॥४०॥ दोहा- अब लगु हंस सरीर महि, तब लग सब विवहार। राजमती सुनि बोलत वयना, हे सखि सुरण न नरफुकहा, भूला सबु संसाए -४१॥ पिउ अपना मन्नत रसधारा, सोरठा-कोजा भोग विलास, अपर पुरिष विव सम प्रचारा॥ पिय संगम सखि हा भला।
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy