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संत श्री गुणचन्द्र
परमानन्द शास्त्री
भट्टारक गुणचन्द्र मूलसघ सरस्वतिगरछ बलात्कार- पद्यों में समाप्त हुई है, और दूसरी रचना ६५ पद्यो में गण के भट्टारक रत्नकीतिके प्रशिष्य, और रत्नकीर्ति द्वारा- पूर्ण हुई है अन्य सभी रचनाए इनसे परिमाण में छोटी है। दीक्षित भव्यशकीति के शिष्य थे। यश कीति अपने
प्रस्तुत 'राजमतिराम' में जैनियो के २२वें तीर्थङ्कर समय के अच्छे विद्वान थे। यश-कीर्ति का स्वर्गवास
भगवान नेमिनाथ और राजमति का जीवन-परिचय दिया भीलोडा (गुजरात) मे स० १६१३ में हुआ था १ । और
गया है जब भगवान नेमिनाथ का विवाह सम्बन्ध राजा इसी वर्ष सं० १६१३ मे गुणचन्द्र का पट्टाभिषेक सावल
उग्रसेन की पुत्री राजकुमारी (राजुल) के साथ होना गाँव में हुआ था २। यशः कीति सस्कृत और हिन्दी भाषा
निश्चित हुअा और जब बारात सज धजके चली तब बारात के अच्छे विद्वान और कवि थे । पापको दो कृतियों सस्कृत
मे नेमिकुमार रथ में बैठे हुए जा रहे थे। मार्ग में एक भाषा मे उपलब्ध है। अनन्तनाथ पूजा जिसे कवि ने
बाड़े मे घिरे हुए पशु समूह के चीत्कार शब्दो को सुनकर सं० १६३० में हुंबड वशी सेठ हरकचन्द दुर्गादास नामक
और निरपराध पशु समूह को देखकर नेमिकुमार का हृदय बणिक की प्रेरणा से, सागवाड़ा के प्रादिनाथ मदिर मे
दया से भर गया, नेमिकुमार ने सारथी से रथ रुकवाकर रहकर उन्हीं के व्रत उद्यापनार्थ बनाई थी। दूसरी रचना 'मौनवत कथा है जिसे उन्होंने संस्कृत मे रचा है ३ । प्राप
पूछा कि ये पशु क्यों घिरे हुए है ? मारथी ने कहा प्रभो,
आपके विवाह मे ममागत अतिथियों के लिए इनका वध संस्कृत के साथ हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान थे, पाप की अनेक रचनाएं पद्य मे लिखी गई है। अनेक पद
किया जायगा। इतना मुनने ही नेमिकुमार रथ से उतर भी मिलते हैं। परन्तु उन रचनाओं की भाषा पर राज
पडे और सोचने लगे कि मुझे उम विवाह से क्या प्रयोजन स्थानी और गुजराती का भी प्रभाव प्रकित मिलता है ।
है। जिसके लिए निरपराध पशुमों को सताया जाय । अजमेर शास्त्र भडार के एक गुच्छक में आपकी अनेक
उन्होंने तत्काल ही पशुओं को छुड़वा दिया और हार
ककण मुकुट आदि बहुमूल्य वस्त्राभूषणो को उतार कर हिन्दा रचनाए सगृहीत थी, उन्हें देखकर ही कुछ नोट्स में लिए थे। उनका सार प्रस्तुत लेख में दिया गया है। ले तपश्चरण द्वारा प्रात्म-साधना करने लगे । इधर जब यह
फैक दिया, और वे गिरनार पर्वत पर चढ़ गए। और दीक्षा भट्टारक यशःकार्ति ने स० १६५३ में सागवाड़ा में
समाचार राजमतीको मिला, तब वह मूछित होगई, शीतलोप. देहोत्सर्ग किया था । उक्त गुच्छक में प्रापकी निम्न रचनाएं उपलब्ध हैं -
चार द्वारा जब मूर्छा दूर हुई, तब माता पिता ने पुत्री को राजमति सतुरासु । दयारस रास, आदित्यव्रत कथा, बारह
बहुत समझाया परन्तु राजुलने उत्तर दिया, कि इस भव के
पति देव तो नेमकुमार ही है । अन्य से मुझे प्रयोजन ही मासा, बारह व्रत, वीनती, स्तुति नेमिजिमैन्द्र, ज्ञानचेतानु
क्या है ? मैं भी जिनदीक्षा लेकर तपश्चर्या द्वारा प्रात्मप्रेक्षा, पशु वाणी और पद । इन मे प्रथम रचना २०४
साधना करूंगी। उक्त रासा मे कवि ने राजुल और सखी १. जैन सि० भा० भा० १३ पृ० ११३ ।
के सवाद तथा प्रश्नोत्तर को कितने सुन्दर शब्दो मे व्यक्त २. जैन सि. भा. भा० १३-पृ० ११३ ।
किया है उससे राजुल के सतीत्व पर अच्छा प्रकाश पड़ता ३. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० १ पृ. ३४, ८० । ४. जैन सि. भा. भा०१३ पृ० ११३ ।