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________________ भगवान महावीर (बसन्त कुमार जैन, कोल्हापुर) है वीतरागमय पीर प्रभो! मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ ॥ प्रति मृदुल दया के सागर तुम, सब से ही प्यार किया तुमने। ना वैर किसी भी प्राणी से समता यह दिखलायी तुमने । कुल, जाति, धर्म, तनुके प्रतीत सबकोही स्नेह दिया तुमने ।। हर श्रात्माका कल्याण-मार्ग सच-सच ही बतलाया तुमने ॥ हे समता के सुविशाल दीप ! मैं भी वह दीपक बन पाऊँ ॥१॥ था तेन अहिंसा-रविका जब हिंसा-मेघों से आच्छादित। मा कलह किसीका किससे भी ऐसा ही तत्व किया घोतित । तुम दया-पवन बन मेघों को कर दूर अहिंसा की प्रगटित ॥ जिस रन-अहिंसा की छविसे फिर विश्व-शांति होगीनिश्चित । हे महा अहिंसा के सागर ! तुम भांति दयामय हो जाऊँ ॥२॥ वह समवशरण सम-समवाका सबही लेते थे जहाँ शरण । सबकाही हित है स्थित जिसमें करने उस ध्वनिका प्रास्वादन । सब भेद, वैर को सजकरही पाते थे तुम्हरे निकट चरण ॥ शत्रुव भूलकर सब प्राणी थे पारमधर्म में लीन-मगन ॥ यों दिव्य प्रभाव तुम्हारा था ! में भी विशाल त्यों बन पाऊँ ॥३॥ तुममें न राग या किससे भी, तुममें न द्वेषभी था किससे। जो सही-सही जाना तुमने वह बतलाया निर्हेतुकसे । तुममें न मोह था रंचकभी, सुमको न चाहभी कुछ किससे॥ सर्वोदयका पथ प्रशस्तसा दिखलाया केवल करूयासे । हे जगतबन्धु ! समदर्शी है। मैं भी समदर्शी बन जाऊँ ॥४॥ कितना क्या है हर मामामें यह यथार्थ सुमने दिखलाया। 'निज उन्नतिका हक सबको है' यह सत्य तत्त्वभी प्रकट किया। घरमोन्नति हो जब पारमाकी, परमात्म वही यह सिद्ध किया, मिथ्या का तम-पट हटवाकर सत्यत्व-प्रभाको स्पष्ट किया । है केवलज्ञामी ! परमात्मा ! सद्गुण मैं तुम्हरे सब पाउँ ॥१॥ तुमने जो धर्म दिया जग को है नाम उसीका पास्मधर्म। यह नहीं किसी कुछही जनका, यह सकल विश्वका विश्वधर्म । को प्रास्मा इसे स्वीकार करें उन सबका है यह सार्वधर्म ॥ सर्वोदय इसमें रहा खुला, जग-हितकारी यह जगतद्धर्म ॥ हे त्रिभुवनके देवाधिदेव ! तुम जैसा मंगल बन जाऊँ ॥६॥
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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