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________________ दूसरे जीवों के साथ अच्छा व्यवहार कीजिए ७१ दार शब्दों में कहा था हिमा का अर्थ है अन्त में मानवता गांवों में दीन, हीन, दुर्वल खूटे पर बंधे अपनी मौत का समूल नाश । यही कारण है कि प्रात्मा उस स्वरक्षणीय मरने वाले पशु बहुत कम होते हैं. हम तो थोड़े रुपयों के वस्तुयों को विनाशक समझती हैं । महावीर महात्मा बुद्ध, लिये कमाई या दलाल को अपने पशु दे देते हैं और ईग, टालम्टाय और गान्धी इसी प्रामा की पुकार है।" क्षणिक लाभ उठालेते हैं. पर वह दलाल उस बूढ़े या जवान क्रोध, लोभ और मोह ही हिमा की जड़ हैं, क्योंकि दूसरे पशु को कसाई के घर तक पहुंचा देता है, जहां उसकी हत्या के द्वारा अपमानित होने, बुरा भला कहने अथवा किमी की जानी, म्बराय चमई से फैशन की वरतुणे नहीं बन सकतीं, प्रकार अहं पर चोट पहुंचने पर हम बदला लेने पर उतारू हो उस से ग्रामीण प्रयोग की भद्दी तथा काम की उपयोगी जान है, स्वयं नारी पुलिस में रिपोर्ट कर देते है अथवा वस्तुएँ बनाली जाती है, सुन्दर तथा फैशन की वस्तुएँ जीवित थोडे बहुत रुपये खर्च करवा का दूसरों से उसकी हत्या ही पशु को मारकर ही बनाई, जाती है। करवा देते हैं. दूसरे द्वारा छोटी सी की गई बुराई प्राण इस लिए भाइयो ! हिंसा को पूरी तरह से हटाना ही घानक बन जाती है। क्रोध पर मिषाय क्षमा के और कोई होगा । प्रज्ञान का काला पर्दा तो अब तो हटा ही देना काबू पाही नहीं सकमा, जयशंकर प्रसाद के अनुसार 'क्ष्मा से चाहिए, किसी भी जीव का अस्तित्व समाप्त करना, मार बढकर किमी बान में पाप को पुण्प बनाने की शक्रि नहीं है।' पीट कर या हल्या करके उसे तड़फाना, और दुःख देना ___ अनेक पनियों ने हिया को अपनी जीविकोपार्जन जैसी अनेक बुराइयों हिंसा के पीछे काम करती हैं फिर का साधन बनालिया है, कमाई का कार्य टीक मा ही हैं। हियक क्या सुख की नींद सो सकता है ? उसकी शक्ति का माम रेचकर पये प्राप्त करना और अपनी उदर न करना हाम होता है, नरक दुग्ख भोगता है और पापी कहलाता है। कितना निम्न कोटि का कार्य है, चमड़े, हड्डी, म.प मादि पर्वोदयी नेता श्री जयप्रकाश नारायण ने कहा है "अपने के लिए ही पानी की हिरा की जानी है, बहुत मे तो पराये का भेद मिटाना ही सबसे ऊंचा धर्म है।" इस मेव दृमरों में हजार पांचयों पया लेकर व्यक्तियों तक को मार भाव के मिटने ही अहिसा की ज्योति हमारे मन में जलने देने है, नग विचार करिये । यह किनना घृणित कार्य है। लगती है जिसमे हिंसा रूपी अन्धकार को पलायन करना मोर कमरे में ये अनेक मानव अपने धर्म कार्य को पड़ता है, सभी दृष्टि कामों में अपना कल्याण चाहने तथा ठीक चलाने या मन्तान प्राप्त करने, मुकदमा जीतने और मानव कलाण की भावना को बढ़ाने के लिये हिंसा को पूरी विवाह सूत्र में वन्धने की इच्छा पूर्व में ही देवी देवनामों तरह ग डोट ही देना चाहिए । मृर्व जीव जन्तों ने तो वे मन्दिर में पशु लि की मनीनियों करते हैं, एक और हमाग कुछ विगाड़ा भी नहीं है फिर हम इनके माथ इतना मन्तान प्राप्त करने की इच्छा तो दूसरी ओर इश्वर की तुरा व्यवहार क्यों करते है। इनके साथ तो प्रति शोध का एक मन्तान जो बकरी, भेड, गाय, या भंन है उसकी बलि प्रश्न ही नहीं उठना, हम तो बुद्धि जीबी तथा विवेक शील चढाने की किमी मन्दिर में नयारी। यह ग्वार्थपरता की प्राणी है, अच्छा और बुग पर कुछ सोचने की योग्यता पराकाष्ठा है। फिर याजकन फैशन के नाम कितनी हिंमा सबसे अधिक है। अतः हमें जनाचार्य श्री ग्रामतिर हो रही है इसको कल्पना करते ही विकीन व्यक्ति उपदेश को गोंट में बांधकर अपने प्राणों में हिमा का तो माथा ठनकने लगता है। रेशमी कपरों का बढ़ना अगुवन का समन्वय र धागे बढ़ना चाहिये:हुमा फैशन घर-घर में घुम चुका है, चमडे के प्रयोग को ही निनानेनाहिया मामा धार्ग निमायने नरके । लीजिए हाथ में वेगके रूप में, कलाई में घड़ी के फीने के स्वधागं नहि शाम्यां विंदानः कि पतति भूमी।। रूप में, कमर में पेटी के रूप में जेब में मनी बंग के रूप में अर्थात :-अहिंसा, आमा का प्राधार है जो पुरुष और पैर में जूतों के रूप में चर्म का प्रयोग किया जा रहा इसका विनाश करते हैं वेन में जाते हैं, जो पुरुष जिस है, आजकल जो चमडा मिलता है उसमें १५ प्रतिशन चमहा डाली पर बैठा है यदि संग ही काटता है नो भूमि पर ही जीवित पशुचों को मारकाट कर तैयार किया गया होता है, प्राकर गिरता है। ***
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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