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ध्यान
मय यः, व्यभिचारी निवास करते हों। ऐसे स्थानों का होकर अविनाशी परमात्मा का ध्यान करे ७ । वह मारमा चुनाव करना जो शान्त हों, मन पवित्रता उत्पन्न करने वाले को वचन और काय से भिन्न करके मन को प्रात्मा में हों, जैसे पर्वत का शिग्वर, गुफा, नदी का किनारा, प्रादि । जो लगावे और अन्य कार्यों को केवल वचन और काय से प्रासन मन को निश्चल करने में सहायक हो वही श्रासन करे ८ । वही मैं हूँ' 'वहीं मैं हूँ' इस प्रकार अभ्यास करता सुन्दर है । पनापन सामान्यतया ध्यान का उत्तम प्रापन हुआ प्रामा में अवस्थित हो जाये । ४ान में लगा हुआ माना गया है । जिस समय चित्त क्षाभ रहित हो वही काल योग , क्या, कैसा, किसका, क्यों, कहां इत्यादि विकल्पों ध्यान के लिए उपयुक्त है। जन सहित क्षेत्र हो अथवा को न करने हए शरीर को भी नहीं जानता १० जन रहित प्रदेश हो, प्रामन उपयुक्त हा वा अनुपयुक्त, शुभचन्द्र ने ध्यान के भेद भी किये हैं। (6) पिण्डस्थ जिम समय चित्त स्थिर हो जाय तब ही ध्यान की योग्यता (.) पदस्थ, (३) रूपन्थ और (५) रूपातीत ११ । ये है। (ज) समता या साम्य की उत्पत्ति भी ध्यान के भी ध्यान की चार पद्धतियां हैं। ये मन को एकाग्र करने लिए आवश्यक है । जिस पुरुष का मन विन-प्रचित, इष्ट की सामग्री पम्तुत करती हैं। पिण्डस्थ ध्यान में पांच धारअनिष्ट रूप पदार्थों के द्वारा मोह को प्राप्त नहीं होता, उस नायें सम्मलित हैं। (क) सर्व प्रथम योगी एक शान्त और पुरुष के ही माम्यभाव में स्थिति होती है १ । जिम गम्भीर समुद्र की कल्पना करे। उस समुद्र के मध्य एक पुरुष के माग्यभाव की भावना है उसकी श्राशाएँ तत्काल वृहत् हजार पंखड़ी वाले कमल का चिन्तवन करे । कमल नष्ट हो जाती हैं, चित्तरूपी मर्प मर जाता है । और के मध एक ऊंचे सिंहासन का विचार करे । उस सिंहासन ऐसा व्यक्ति नेत्र के टिमकार मात्र में कर्मो का जीतने क पर योगी अपने आपको स्थित अनुभव करे। वहां बैठ कर योग्य हो जाता है ३ । इस साम्यभार का शुभचन्द्र पर यह विश्वास प्रकट करे कि उसकी प्रात्मा कषायों को नष्ट इनना प्रभार है कि उन्होंने साम्यभाव को ही ध्यान की संज्ञा करने में समर्थ है । इस प्रकार के विचार को पार्थिवा धारणा दे डाली है ४ ।
कहते हैं । (ग्व) सिंहासन पर स्थित योगी नाभि मण्डल ध्यान की पद्धति
में स्थित कमल के मध्य से अग्नि को निकलता हुमा सोचे । योगी अपने वर्तमान स्वरूप और शुद्ध स्वरूप में तुलना तनपश्चात यह विचारे कि वह अग्नि हृदयस्थ पाठ कर्मों प्रारम्भ करे। और यह विचार कि वह न तो नारकी है. का मूचित करने वाले श्राठ पत्रों वाले कमल को जला रही न तिर्यच, न मनुष्य न देव ही, किन्तु वह तो सिद्ध स्वरूप है। पाठ कर्मों के जलने के बाद शरीर को जलता हा सोचे है । फिर वह द्रव्यों के स्वरूप का विचार करे । तत्पश्चात और फिर अग्नि को शान्त अनुभव करे । इस प्रकार विचार अपने मन के कारण रूपी समझ में मग्न करे। फिर परम करने को प्राग्नेयी धारणा कहा गया है २ । (ग) तत्पश्चात् प्रारमा के गुणों पर ध्यान एकाग्र करे । और उसमें इतना योगी शरीरादि की भस्म को प्रचण्ड वायु द्वारा उदा हुना लीन हो जाये कि ध्यान ध्याता और ध्येय का भेद समाप्न सोचे । यह विचार श्वसना धारणा कहलाती है३ । (घ) इस हो जाय । यह समर पी भाव है और पात्मा और परमात्मा धारणा के पश्चातू वारूणी धारणा पाती है जिसमें शरीरादि का समीकरण है । इस प्रकार के ध्यान को सवीर्य ध्यान की बची हुई भम्म वर्षा के जल से साफ होती हुई विचारी कहा गया है ६ ।
जाता है ४ . (च) अन्तिम धारणा तत्त्वरूपवती कहलाती शुभचन्द्र ने ध्यान की एक दूसरी पद्धति भी बताई है। इसमें योगी अपनी प्रामा को अर्हत् सदृश कल्पना करता है। योगी बहिरात्मा को छोड़ कर, अन्तराष्मा में स्थित
७. ज्ञाना• ३२११. . ज्ञाना० ३२।११ ५.ज्ञाना० २८-२२
१. ज्ञाना. ३२१४२ १०. इष्टो. ४२ १. ज्ञाना० २४१२ २: ज्ञाना० २४११
११. ज्ञाना ३० ३. ज्ञाना० २४११२४.ज्ञाना० २४१३ (1) ज्ञान. ३७/४-१ (२) ज्ञाना० ३०/१०-१६ ५ -तत्वानु. १३७६. ज्ञाना."
(३) ज्ञाना० ३७/२०-२३ (४) ज्ञाना. ३७/२१-२७