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________________ अनेकान्त करो, संयम का पालन करो, सारे शास्त्रों को पढ़ों किन्तु हेतु मान रहे हैं वह प्रशस्त ध्यान है। अतः ध्यान से जब तक आत्मा का ध्यान नहीं करो, तब तक मोक्ष नहीं हो हमारा अभिप्राय यहां प्रशस्त ध्यान ही है। सकता । तस्वसार के अनुसार ध्यान के बिना जो कर्म क्षय ध्यान की आवश्यक करने की इच्छा करता है वह उसी मनुष्य के समान है जो ध्यान के लिए सर्वप्रथम ध्याता में निम्नलिखित गुणों नाका होने पर भी मेरू के शिखर पर चढ़ने की इच्छा का होना अनिवार्य है. :१) मुक्ति की इच्छा, (२) करता है । भगवती अराधना के अनुसार जसे चुघा को वैराग्य, (३) शान्त चित्त, (४) धैर्य, (३) मन व इन्द्रियों नष्ट करने के लिये प्रा होता है तथा जिस तरह प्यास को पर विजय राम । नष्ट करने के लिये जल है वैसे ही विषयों की भूल तथा हद भासन का अभ्यास । दूसरे शब्दों में यह कहा जा प्यास को नष्ट करने के लिये ध्यान है। सकता है कि ध्याता (क) सांसारिक, (ख) दार्शनिक, (ग) मानसिक बाधाओं को जीतने वाला होना चाहिये तथा उसे एक विषय में चितवृति का रोकना ध्यान है। चित चंचल होता है इसका किसी एक बात में स्थिर हो जाना (घ) समय, (च) स्थान, और (छ) श्रासन की उचितता ध्यान है २ षटखंडागम में कहा गया है कि विचारों का का ध्यान रखते हुए (ज) समता की प्राप्ति का अम्यास किसी एक विषय पर स्थिरता ध्यान है जबकि चित्त के एक करना चाहिए । (क) गृहस्थ का जीवन अनेकों बाधात्रों से घिरा होने के कारण ध्यान में कठिनाइयां विषय से दूसरे विषय पर जाने को भावना, अनुप्रेक्षा अथवा उपस्थित करता है। शुभचन्द्र के अनुसार किसी देश चिन्ता कहा जाता है। ध्यान का विषय शुभ अथवा वा काल अाकाश के पुष और गधे के सींग हो सकते अशुभ हो सकता है । ध्यान का विषय जब शुभ होता है हैं, परन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि होनी तो किसी तब वह प्रशस्त ध्यान है और जब अशुभ होता है तो वह देश व काल में संभव नहीं।, यहां यह नहीं समझना चाहिए अशुभ होता है तो वह अप्रशस्त ध्यान है । पूज्यपाद के कि गृहस्थ ध्यान कर ही नहीं सकता, इसका अभिप्राय तो अनुसार इसी ध्यान से दिव्य चिंतामणि मिल सकता है. केबल इतना ही है कि उत्तम कोटि का ध्यान गृहस्थाश्रम मैं और इसी से खली के टुकड़े भी मिल सकते हैं । जब ध्यान असंभव है । (ख) जिनके पास तत्वज्ञान नहीं है, जो तत्वों के द्वारा दोनों मिल सकते हैं तब विवेकी लोग किस ओर में सन्देह करने वाले हैं उनके ध्यान की मिद्धि नहीं हो सकती प्रादर बुद्धि करेंगे? निश्चय ही वे दिव्य चिंतामणि को है। (ग) मन का रोध ध्यान के लिये अतिश्रावश्यक है। प्राप्त करने के लिए प्रयत्न शील होंगे। शुभचन्द्र ने ध्यान जिसने अपने चित्त को वश नहीं किया उसका तप, शास्त्राके भेद बतलाते समय एक स्थान पर ध्यान के तीन भेदशुभ, अशुभ और शुद्ध-किये हैं, और दूसरे स्थान पर प्रशस्त ध्ययन, व्रतधारण, ज्ञान, कायक्लंश इत्यादि सब तुष खंडन के समान व्यर्थ है, क्योंकि मनके वशीभूत हुए बिना ध्यान की और अप्रशस्त इस तरह को भेद किये है६ । इन दो भेदों में सिन्द्वि नहीं होती २ । जो मन को जीते बिना ध्यान की कोई विरोध नहीं है, पहिले विभाजन में दृष्टि मैन्द्रान्तिक है किन्तु दूसरे में व्यवहारिक । प्रशस्त ध्यान धर्म और शुक्ल चर्चा करता है वह ध्यान को समझता ही नहीं३ । मानसिक के भेद से दो प्रकार का है, और अप्रशस्त मार्त और रौद्र बाधाओं को जीतने के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और के भेद से दो प्रकार का है। यहां हम जिस ध्यान को मोक्ष माध्यस्थ इन चार भावनाओं का अभ्यास कार्यकारी होता है । (घ) (छ) ध्यान के लिए स्थान, प्रासन और १. प्राराधना १७ ६-तव. १३ समय का चुनाव भी कम महत्व की शर्ते नहीं हैं । वे सब ७. भगवती प्रा० १६०२ स्थान छोड़ देने चाहिए जहां दुष्ट, मिथ्यादृष्टि, जुधारी १-तत्वा० २. २.नव पदार्थ पे० ६६ ७-ज्ञाना ४२७१३ ३-षट्खंडा०५०६४ -कार्ति० ४६८ १. ज्ञाना० ४.१७ २. ज्ञाना० २२.२८ ५-इस्टो०२. ६-ज्ञाना०३।२७,२८ २०१७ ३.ज्ञाना० २२-२५ ४.झाना० २७.४
SR No.538017
Book TitleAnekant 1964 Book 17 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1964
Total Pages310
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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